यह तूफानी लहर
समुद्र की तूफानी लहर की तरह आज किसान आन्दोलन स्वाभाविक रीति से ऊपर आकर
चारों ओर फैल रहा है। यह कोई बनावटी या चन्द आदमियों की चीज नहीं रह गया
है। सदियों के शोषण, उत्पीड़न और हाल के आर्थिक संकट ने किसानों को निराश और
अधीर बना दिया है और अगर आज वे अपने इस यंत्राणामय नारकीय जीवन को खत्म कर
देने के लिए बेचैन हो रहे हैं तो इसमें आश्चर्य नहीं। जो लोग बराबर ऐसा
मानते आये हैं कि जनता तो कष्ट-सहन में अभ्यस्त है और उसे जब चाहे बातों
बात में इधार-से-उधार किया जा सकता है, उन्हें तमाचे लगाकर यह किसान कहने
को तुला बैठा है कि बेशक 'जनता में अधिक बर्दाश्त करने की शक्ति है, लेकिन
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह मिट्टी का लोंदा है कि उसे जैसा चाहो बना
लो।' ऐसी हालत में किसानों की जागृति की इस लहर को, जो ऊपर आकर फैलना चाहती
है, काबू में रखकर ठिकाने से बढ़ने देना आसान काम नहीं है। यह तो खतरे से
भरा है। एक ओर भूख का कोड़ा किसानों पर लगातार लग-लगकर उन्हें जान हथेली पर
रखकर आगे बढ़ने को विवश कर रहा है, दूसरी ओर जमींदार, साहूकार, मालदार और
उनके हमदर्दों का दल सारी शक्ति लगाकर उन्हें रोकना चाहता है-एक ओर भयंकर
अकृत्रिम बाढ़ और तूफान है, दूसरी ओर उसे रोकने की कृत्रिम, पर विकट
तैयारी है। फलत: भीषण संघर्ष अनिवार्य है। चारों ओर इसके आसार नजर भी आ रहे
हैं। यह भी मानी हुई बात है कि किसानों के पास संख्या बल के सिवाय और कोई
शक्ति नहीं है। वे अत्यन्त अबल हैं( कारण, अपने संख्या-बल का उपयोग करना
जानते नहीं। उसके लिए पूर्ण जाग्रति चाहिए और इसकी अभी उनमें कमी है। ऐसी
हालत में एकाएक उभाड़ में आकर यदि कहीं वे पथभ्रष्ट हो गये तो उलटे उनकी
बेबसी की मीयाद और भी बढ़ जायेगी। इसलिए उन्हें बहुत ही संयत रीति से ले
चलना होगा। यह काम बहुत ही कठिन है।
(शीर्ष पर वापस)
किसान सभा की आवश्यकता
जो लोग आज भी किसान सभा का स्वातन्त्रय बर्दाश्त नहीं कर सकते और इसके बारे
में बेसिर-पैर की दलीलें दिया करते हैं उन्हें हमारा यही कहना है कि यह
अप्रिय सत्य है जो उनके प्रयत्न से मिट नहीं सकता। इस सम्बन्धा में तो
राष्ट्रपति के हरिपुरा के विचार ही युक्तिसंगत हैं और उन्हीं का कहना ठीक
है कि 'इस सभा की ऐतिहासिक आवश्यकता है और विरोधा या उपेक्षा के जरिये
किसान सभा को हम मिटा नहीं सकते।' जो लोग कांग्रेस को ही किसान सभा
(किसानों की सभा) कहकर स्वतन्त्रा किसान सभा की जरूरत नहीं मानते उनकी दलील
लचर है। आखिर तो किसान सभा होने का सिध्दान्त उन्होंने भी मान लिया। रह गयी
उसकी स्वतन्त्राता की बात। सो तो जरूरी है। यदि 90 फीसदी किसान मेम्बर
कांग्रेस में रहने से वह किसान सभा मानी जाये तो उसी प्रकार हिन्दू
मेम्बरों के होने से वह आसानी से हिन्दू सभा भी मानी जा सकती है। कांग्रेस
तो किसानों की सभा ठीक उसी तरह है जिस प्रकार 80 या 85 फीसदी किसानों के
रहने के कारण यह देश किसानों का अपना कहा जाये, या संसार की सभी सरकारों के
चलानेवाले अधिकांश पुलिस और फौज के सिपाही तथा क्लर्क, जेल के वार्डर आदि
के किसान ही होने के कारण ये सरकारें किसानों की मानी जायें। लेकिन असल में
हमारा देश कहाँ तक किसानों का अपना है और सरकारें उनकी अपनी हैं यह छिपी
बात नहीं है। यदि यह बात होती तो आजादी की लड़ाई की जरूरत ही क्यों होती?
रेल में तो अधिकांश किसान या गरीब ही चढ़ते हैं, लेकिन वह तो वस्तुगत्या
ड्राइवर, गार्ड या कम्पनी की ही होती है। सरकार अंग्रेजों के मालदारों की
है और देश भी उन्हीं का है। आज तो किसान यहाँ परदेशी हो गया है! यदि इसी
अर्थ में कांग्रेस किसानों की सभा है तो हमें इनकार नहीं। लेकिन हम तो
चाहते हैं कि वह ऐसी हो जिसमें अपने वर्ग हित को पूरी तरह जाननेवाले
किसान-मजदूर बहुमत में रहें, ख़ामखाह उसे किसान सभा बनाने के पक्षपाती हम
नहीं हैं। मगर किसान सभा के विरोधी लोग उसे तभी किसान सभा बना सकते हैं जब
वह कांग्रेस किसानों के वर्ग-हित और तात्कालिक माँगों के आधार पर जमींदारी
और पूँजी के खिलाफ युध्द छेड़े और उसे बराबर चलाये। परन्तु तब खतरा होगा कि
वह राष्ट्रीय संस्था न रह जायेगी( कारण, ऐसी दशा में जमींदार और मालदार
उससे भाग जायेंगे। दोनों बातें हो नहीं सकती हैं कि वह किसान सभा भी हो और
उसमें जमींदार आदि रहें भी, सो भी अल्पमत में नहीं, किन्तु अपना बहुमत
बनाकर। वे लोग ऐसे नादान नहीं हैं कि अल्पमत में रहना बर्दाश्त करें। इससे
उन्हें लाभक्या?
किसान सभा का अर्थ है किसानों के वर्ग-हितों के लिए सतत लड़नेवाली सभा। यह
काम कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय संस्था से हो सकता नहीं। उसे तो सब वर्गों का
हित देखना है। ब्रिटिश साम्राज्यशाही से लड़ने का जिस प्रकार यह अर्थ है कि
हम केवल उसके विरोधी हितों को ही देखते हैं, न कि साम्राज्यशाही के हितों
को भी, क्योंकि ऐसा देखना एक तो असम्भव है, कारण, दोनों हित परस्पर विरोधी
हैं, दूसरे ऐसा देखने पर उससे युध्द कर ही नहीं सकते, ठीक उसी प्रकार
किसानों के वर्ग हितों के लिए लड़ने का भी अर्थ है कि विरोधी हितों को देख
नहीं सकते। देखने पर युध्द ही बन्द हो जायेगा। किसानों और जमींदारों के
हितों को एक या परस्पर अविरोधी बताना या उनके सामंजस्य करने की चेष्टा तो
वैसी ही है जैसा किसी जमाने में भारत और साम्राज्यशाही के हितों को लार्ड
इरविन ने एक बताया था, या जैसा कि आज भी साम्राज्यशाही के हामी समझते और
कहते हैं।
किसान सभा को कांग्रेस की शाखा या विभाग बनाने का सीधा अर्थ है या तो
लोगों की ऑंखों में धूल झोंकने की कोशिश या ऐसी परिस्थिति पैदा कर देना कि
निरन्तर कांग्रेस और उसमें संघर्ष होते रहने से दोनों ही निकम्मी बन जायें।
क्योंकि यदि नाममात्रा की सभा होगी तो जनता ठगी जायेगी और यदि वह वर्ग-हित
के लिए लड़ेगी तो पद-पद पर कांग्रेस से संघर्ष होगा (कारण शाखा के काम में
रुकावटें डालने को कांग्रेस बाधय होगी, अन्यथा वर्ग-हित के नामपर होनेवाली
लड़ाई कांग्रेस के नाम में ही समझी जाकर उसके राष्ट्रीय रूप को खत्म कर
देगी। पर स्वतन्त्रा किसान सभा में यह खतरा न होगा और यदि वह तपे-तपाये
आजादी के सैनिकों के द्वारा संचालित होगी तो उससे कांग्रेस की लड़ाई दृढ़तर
होगी। अलग संस्था होने से इस लड़ाई की कमजोरी की शंका निर्मूल है। संस्थाएँ
कोई चीज नहीं होती हैं। असल चीज होती है कि किन लोगों के नेतृत्व में वह
चलती हैं। इसी से उनसे होनेवाले हानि-लाभ का ठीक पता चलता है। प्रत्युत यदि
कांग्रेस के दक्षिण पक्ष (Right wing) की बात चल जाये तो स्वतन्त्राता के
सच्चे सिपाही उनमें न रहेंगे। लेकिन जैसाकि बताया जा चुका है समय की पुकार
होने के कारण किसान सभाएँ तो रुक सकती हैं नहीं। फलत: वे प्रतिगामी लोगों
के हाथों में चली जायेंगी, जैसाकि अभी कई जगह है, और इसका एक ही नतीजा होगा
कि स्वतन्त्राता के युध्द में वे बाधाक होंगी।
किसानों की सहायता से संगठित रूप में युध्द करके जिस कांग्रेस ने ब्रिटिश
साम्राज्यशाही को दबाया है, उसी कांग्रेस के रहते कांग्रेसी या
गैर-कांग्रेसी जमींदार किसानों को तरह-तरह से तंग-तबाह करें और कांग्रेस की
ओर से उसे बन्द करने का वैसा ही संगठित प्रयत्न और युध्द न हो यह बात
किसानों को बुरी तरह खटकती है। जिसके फलस्वरूप कांग्रेस की ओर से उनकी
अश्रध्दा अनिवार्य है। कांग्रेस के कुछ बुध्दिमान लोगों को यह समझ बैठना कि
आजादी और उसके वास्ते गृहयुध्द को रोकने के नाम पर वे किसानों को अपनी ओर
खींच लेंगे, गलत है। श्री लौंसलाट ओवेन के शब्दों में, 'किसान बड़ा ही
व्यावहारिक और हानि-लाभ का हिसाब लगाकर धीरे-धीरे आगे बढ़नेवाला प्राणी है
और मूर्ख-से-मूर्ख भी किसान केवल आजादी के नाम पर अपना गला देने को तैयार
नहीं हो सकता, फलत: उसे इस प्रकार अपनी ओर आकृष्ट करने का पढ़े-लिखों का
खयाल धोखे से खाली नहीं है।' इसलिए किसानों की इस अश्रध्दा को रोकने और
उनके द्वारा कांग्रेस की लड़ाई को मजबूत करने का एकमात्रा उपाय यही है कि
आजादी के चुस्त सैनिक किसानों की इस संगठित लड़ाई को किसान सभाओं के जरिये
चलायें।
किसान सभा का रहस्य एक और बात में है। 1920-21 के पूर्व किसान पस्त-हिम्मत
थे और समझते थे कि उनके कष्ट उनके कर्म में बदे हैं, उन्हें कोई दूर नहीं
कर सकता बिना किसी महापुरुष, साधु-फकीर या भगवान के। ब्रिटिश सरकार को तो
वे लोग अजेय समझते थे और पुलिस के प्यादे से भी काँपते थे। उसी समय
कांग्रेस के नाम से नेताओं ने उनमें स्वावलम्बन का भाव भरा और सिखाया कि वे
अंग्रेजी सरकार से निहत्थे ही लड़कर उसे पछाड़ सकते और अपना हक हासिल कर सकते
हैं। किसानों को पहले तो इसमें महान आश्चर्य हुआ। लेकिन बार-बार के कहने पर
वे तैयार हो गये। फल हुआ कि तब से लेकर अब तक सरकार कई बार दबी और पिछड़ी।
इससे किसानों की ऑंखें खुलीं और उन्हें अपनी शक्ति पर धीरे-धीरे विश्वास
बढ़ता गया, खासकर उनका जिन्होंने स्वतन्त्राता के संग्राम में भाग लिया।
किसानों के भाग लेने के पूर्व सरकार इस प्रकार कभी दबी न थी। ऐसी दशा में,
जमींदारों और मालदारों के जिन जुल्मों को पहले वे सह लेते थे, उन्हें अब
बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। वे स्वभावत: सोचते हैं कि जब हमने मशीनगन और
हवाई जहाजवाली सरकार को पछाड़ा तो ये जमींदार वगैरह किस खेत की मूली हैं।
सेर को पछाड़ा तो चूहे-बिल्ली की क्या शक्ति? नतीजा यह हुआ कि सरकार से लड़ने
के लिए जैसे कांग्रेस का संगठन बना था ठीक उसी प्रकार जमींदार आदि के
जुल्मों के विरुध्द लड़ने के लिए किसान सभाओं का संगठन हुआ। ज्यों-ज्यों
सरकार को कई बार पछाड़ कर उन्होंने अपनी ताकत समझी त्यों-त्यों किसान सभाओं
का संगठन मजबूत होता और बढ़ता जा रहा है। यह है आज की किसान सभा का मौलिक
रहस्य। जो लोग इसे न समझ सभा से घबड़ाते या उसे बुरी बताते हैं वे भूलते
हैं। इस सभा की जड़ तो उन्होंने तब कायम की जब निहत्थे और निराश किसानों को
कांग्रेस के भीतर घसीट कर सरकार से लड़ाया। जिस पंगु को तैयार करके उससे शेर
को पछाड़वाने का गौरव आपको प्राप्त है वही आज बलवान होने पर आक्रमणकारी गुरु
से भी लड़ेगा जैसा कि भीष्म परशुराम से लड़े थे। यह प्रकृति का नियम है। वह
अब किसी का कहना सुननेवाला नहीं। यदि ऐसा ही था तो शुरू में ही उसे अखाड़े
में लाते ही न। कांग्रेसमैनों की घबड़ाहट पर हमें दया और हँसी आती है। यदि
मालदार या जमींदार घबरायें तो हम समझ सकते हैं!
जो किसान गाय-भैंस को घास-भूसा खिला और पानी पिलाकर उसके बदले में अमृत
सरीखा दूधा उससे वसूल करता है और दूधा मिलने की आशा न रहने पर घबड़ाकर उससे
पिण्ड छुड़ाना चाहता है, वही जब आज देखता है कि उसकी कमाई की सर्वोत्ताम
वस्तुएँ हजम करने के बाद ये जमींदार और मालदार कोई उनसे भी अच्छी चीज देने
के बदले उसे बुरी तरह अपमानित करते और सताते हैं तो गाय-भैंसवाली बात उसे
रह-रह कर याद आती है खासकर जब वह जग चला है और उसमें स्वाभिमान आ रहा है,
अर्थ-संकट ने उसे कामाल कर दिया है और उसे भूखा, नंगा बना दिया है। फलत:
अपने सतानेवालों को वह अब बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस प्राकृतिक परिस्थिति
को हमें समझना होगा-इस अप्रिय, पर ठोस, सत्य को हम विरोधा या उपेक्षा के बल
से दबा नहीं सकते। यदि हमने इतने पर भी अपना रवैया नहीं बदला और विरोधा या
उपेक्षा ही करते रहे तो आज का जगा हुआ स्वाभिमानी किसान पूर्वोक्त
मनोवृत्ति के करते जमींदारों और मालदारों से बेढंगा और खतरनाक संघर्ष कर
लेगा जिसका नतीजा सबके लिए बुरा होगा। कांग्रेसवाले तो खासतौर से उसके लिए
अपराध होंगे, कारण, उन्होंने ही उसे जगाया तो है। अगर हम चाहें कि किसान
की वह स्वाभाविक मनोवृत्ति बदल दें जबकि उसकी सामग्री मौजूद है, तो यह
हमारी नादानी होगी।
(शीर्ष पर वापस)
वर्गयुध्द और हिंसा
जो लोग किसान, मजदूरों के संगठन में वर्गयुध्द और हिंसा देखते हैं, उनसे भी
हमें कुछ कहना है। सबसे पहली बात तो यह कि यदि किसान संगठन जरूरी है तो वह
हिंसा के डर से रोका नहीं जा सकता। हाँ, हिंसा के रोकने या कम करने की
कोशिश जरूर की जा सकती है। जिन्दगी तो हिंसा से ही कायम है, साँस लेने में
पल-भर में करोड़ों कीटाणुओं का संहार हो जाता है। तो क्या जीवन का अन्त ही
कर दिया जाये? किस काम में हिंसा नहीं होती? लिखने-पढ़ने और बोल-चाल में भी
हिंसा-ही-हिंसा है। तो क्या सभी काम समेट लिए जायें? भात तो बनता है चावल
का और पैदा होता है धान जिसके ऊपर का तुष (भूसा) हटाना पड़ता है। तो क्या
धान की खेती छोड़ दी जाये, क्योंकि चावल तो पैदा होता नहीं? हाँ, यदि
निरर्थक या जान-बूझकर कोई हिंसा को उत्तोजना दे तो यह बात बुरी है।
एक बात और। किसान मजदूरों के संगठन का एक ही अर्थ है कि वह भूख, गरीबी,
गुलामी और अपमान की जिन्दगी बिताने को अब तैयार नहीं। इसलिए इन भूख रोग आदि
के विरुध्द युध्द घोषणा करते हैं। उन्हें किसी मनुष्य से न तो लड़ना है और न
उसका खून बहाना है। वे तो अपने असली शत्राुओं भूख, बीमारी आदि को ही मारना
चाहते हैं। और अगर पूँजी या जमींदारी के खिलाफ उनकी आवाज उठती है तो सिर्फ
इसलिए कि ये दोनों उनके असली शत्रुओं की सहायता करके उन्हें कायम रखना
चाहते हैं। इसी प्रकार जमींदार और पूँजीपति जमींदारी तथा पूँजी को कायम
रखकर किसानों की भूख, बीमारी आदि के सहायक बन जाते हैं जिससे उनके विरुध्द
आवाज उठती है। वे लोग ऐसा मत करें। फिर झमेला कैसा? यह तो गलत खयाल है कि
जमींदार और पूँजीपति का अन्त कर देने से जमींदारी और पूँजी का खात्मा हो
जायेगा और किसान-मजदूर सुखी-सम्पन्न हो जायेंगे। जब तक जमींदारी और पूँजी
रहेगी एक जमींदार या पूँजीपति के खत्म होने पर उसका उत्ताराधिकारी
कोई-न-कोई रहेगा ही, जैसे किसी भी सरकारी अफसर के खत्म होने पर भी उसकी जगह
दूसरा रहेगा ही जब तक यह शासन प्रणाली है। ऐसी हालत में प्रणाली और प्रथा
बदल या उसे अन्त कर नयी व्यवस्था बनाने की कोशिश होनी चाहिए न कि प्रथा
चलानेवालों के अन्त की बात सोचनी चाहिए। वह तो नादानी है। प्रथा बदल जाने
पर या उसका अन्त होने पर बुरा-से-बुरा जमींदार पूँजीपति या अफसर
अच्छा-से-अच्छा हो सकता है। फिर उसका क्या दोष?
अतएव यह धारणा भी गलत है कि असल लड़ाई दो वर्गों की है। बात यह है कि
वर्गों का विरोधा उनके परस्पर-विरोधी स्वार्थों के करते ही होता है-ये
परस्पर-विरोधी स्वार्थ ही वर्गों में विरोधा पैदा करते हैं और इन्हीं
स्वार्थों के संघर्ष से दलों का संघर्ष होता है। इसीलिए एक ही गाँव में दो
विरोधी दलों के रहने पर भी यदि वहाँ अग्निकाण्ड हो जाये तो समूचे गाँव के
बचाने में सभी दल मिलकर काम करते और आग बुझाते हैं। और जब देखा जाता है कि
कभी-कभी जमींदार या पूँजीपति भी ऐसे निकल आते हैं जो जमींदारी और पूँजी का
अन्त चाहते हैं तो फिर वर्गों के पारस्परिक विरोधा की बात क्या? ऐसी हालत
में हमारा काम यह होना चाहिए कि हम अपना और किसान-मजदूरों का दृष्टिकोण
विरोधी स्वार्थों तक ही सीमित रखकर उसे विरोधी स्वार्थवाले मनुष्यों तक न
जाने दें। ठीक भी यही है। वास्तविक कष्ट तो विरोधी स्वार्थों के करते ही
होता है। व्यक्तिगत रूप से कितना भी भला जमींदार या पूँजीपति क्यों न हो,
पर किसानों और मजदूरों के कष्टों को वह दूर नहीं कर सकता पूँजी और जमींदारी
के रहते हुए। स्वार्थी लोग यदि किसान-मजदूरों को दबाते हैं तो अपनी चालों
से उन्हीं में कुछ लोगों को फोड़ कर ही। हमारा काम यह होना चाहिए कि जनता को
जाग्रत और सचेत कर दें ताकि जमींदारों और पूँजीपतियों के जालों और चकमों
में न फँसे। जनता जब तक इतनी जाग्रत न होगी काम भी नहीं चलेगा। उसकी विजय
असम्भव है।
विरोधी स्वार्थवाले मनुष्यों तक दृष्टि दौड़ाने में हम एक प्रकार से असली
लक्ष्य से बहक भी जाते हैं। हमें तो मनुष्य मात्रा का कल्याण करना है, सभी
को सुखी बनना है। और मालदार जमींदार भी तो मनुष्य ही हैं। अत: उनका भी सुखी
होने का दावा ठीक ही है। फिर उन्हीं से लड़ाई कैसी? लड़ाई तो उनकी जमींदारी
और मालदारी से ही होना चाहिए। इस प्रकार वर्गों का युध्द स्वार्थों के
युध्द में बदल जाता है और इसमें हिंसा की गुंजाइश शायद ही रह जाती है।
क्योंकि यदि पीड़ित और शोषित जनता को जाग्रत करने में हम बखूबी लग जायें तो
कुछ ज्यादा समय लगेगा सही, मगर सोलहों आने शान्त क्रान्ति हो जायेगी।
क्योंकि 95 फीसदी को जाग्रत और तैयार देखकर 5 प्रतिशत धानी और उनके सहायक
मुकाबला करने की हिम्मत ही न करेंगे,-वे पस्त हो जायेंगे। फिर रक्तपात का
मौका कहाँ? फ्रांस की या उससे पूर्ववाली क्रान्तियों की अपेक्षा रूस की
राज्यक्रान्ति अधिक सफल हुई और उसमें अपेक्षाकृत अल्प रक्तपात हुआ, इसका
यही रहस्य है। पहले की अपेक्षा यहाँ जनता ज्यादा जाग्रत थी। यह जागृति तो
क्रमश: बढ़ती ही जायेगी-हमें इसके बढ़ाने का ही धयान रखना होगा। जागृति
ज्यादा न होने का फल यह भी हुआ कि भीषण रक्तपात के बाद होनेवाली क्रान्ति
भी उन देशों में जनता के हित की दृष्टि से विफल ही रही। लेनिन जो आतंकवाद
को पसन्द नहीं करता था उसका यही रहस्य है। 'हमें चुपचाप जनता को जगाना
चाहिए (We must patiently explain)' उसकी इस उक्ति का भी यही अर्थ है और
'उसने अपना कार्यक्रम जनता के माथे पर न लादकर उसे इस तरह तैयार किया कि
जनता अपना कार्यक्रम स्वयं बनाकर उसपर अमल करे' इसका भी यही अभिप्राय है।
हम यह भी समझ नहीं सकते कि वर्गयुध्द के मत्थे ही खासतौर से हिंसा क्यों
मढ़ी जाती है। यदि हिंसा का अर्थ 'खत्म करना' है, जैसाकि आजकल बहुतेरे
जवाबदेह अहिंसावादी पूँजी और जमींदारी के नाश को भी हिंसा कहने लगे हैं, तो
समस्त दुर्गुणों का नाश और साम्राज्यशाही का अन्त या उससे सम्बन्धा-विच्छेद
भी हिंसा ही है। यदि प्राणियों का नाश हिंसा हो तो सत्याग्रह, असहयोग आदि
के करते जितने मरे सभी हिंसा के पेट में आकर उसे हिंसामय बना गये। इतना ही
नहीं, ऐसा मानने पर तो कोई काम शान्तिमय हो ही नहीं सकता। आखिर अधिकारियों
की ओर से भी जो खून-खराबी ऐसे मौके पर होती है वह न होती यदि सत्याग्रह
नहीं होता या आजादी का युध्द नहीं छिड़ता। यहाँ तक कि सभी चुनावों में भी
जानें जाती हैं, मारपीट होती ही है-पार्लियामेण्टरी पध्दति में ये बातें
अनिवार्य हैं। यदि सब काम छोड़कर बैठ जायें तो साँस लेने में और मरने पर
शरीर के सड़ने या जलने में भी हिंसा ही है। यदि कहा जाये कि युध्द या काम
करनेवाले का लक्ष्य हिंसा न होना चाहिए और उसे हिंसा से बचने की भरसक कोशिश
करनी चाहिए यही अहिंसा का अर्थ है, तो कौन कहता है कि वर्ग युध्दवादी हिंसा
चाहते हैं-हिंसा उनका लक्ष्य है? वे तो चाहते हैं संसार से हिंसा का सदा के
लिए अन्त कर देना। वर्तमान सामाजिक पध्दति का आधार ही निरन्तर होनेवाली
हिंसा है और इस पध्दति को मिटाकर वे इसी सतत प्रचलित हिंसा का अन्त करना
चाहते हैं। मनुष्यों के नाश को तो वे बचाना चाहते हैं यहाँ तक कि किसी भी
जीव का कष्ट वे देख नहीं सकते।
असल में खेती-गिरस्ती या कल-कारखानों में ख़ामखाह हिंसा होती ही है, हम
चाहें, या न चाहें। फिर भी हम उन्हें बन्द नहीं कर देते। क्योंकि उनके बिना
काम नहीं चल सकता। उसी प्रकार हर युध्द में हिंसा होती है, चाहे वह शान्त
हो या अशान्त, चाहे वर्गयुध्द हो या आजादी की लड़ाई। लड़ाई का अर्थ है संघर्ष
और संघर्ष में हिंसा पड़ी हुई है। अत: हमारा यही काम है कि उस हिंसा को
यथाशक्ति कम करने की कोशिश करें और सदा धयान में रखें कि हमें उससे भरसक
बचना है। वर्गयुध्द या किसी भी युध्द से भागने से हम हिंसा से बच नहीं
सकते। यदि गरीब लोग तय कर लें कि वे कुछ भी आन्दोलन न करेंगे तो क्या अमीर
उन्हें सताना और भूखों मारना छोड़ देंगे? यदि हाँ, तो आज तक उन्होंने ऐसा
क्यों न किया? प्रत्युत ज्यादा सताया, सतायेंगे। वर्ग तो हैं। जमींदार,
किसान, पूँजीपति, मजदूर इन्हें कौन इन्कार करेगा? जब वर्ग हैं, तो इनके
स्वार्थ भी रहेंगे, जो परस्पर-विरोधी होंगे, क्योंकि स्वार्थ में भेद या
विरोधा न हो तो वर्ग भेद कैसा? और विरोधी स्वार्थों का संघर्ष अनिवार्य
है। इसी संघर्ष को युध्द कहते हैं। वह असल में स्वार्थों के बीच है, न कि
स्वार्थवालों के बीच, जैसाकि पहले बता चुके हैं। इन विरोधी स्वार्थों के
रहते हुए वह युध्द मिटनेवाला नहीं, चाहे हम उसे लाख बार भुला देना चाहें वह
जा नहीं सकता। शुतुरमुर्ग अपना सिर रेत में गाड़ देता है इससे उसे मारनेवाला
खत्म नहीं हो जाता। जो लोग इन विरोधी स्वार्थों को मिलाना चाहते हैं वह
दोनों ध्रुवों के मिलाने का स्वप्न देखा करते हैं। सत्य बोलना एक ऐसी बात
है जिसमें किसी धार्म-मजहब या आस्तिक-नास्तिक का मतभेद नहीं। सबने इसे
माना। लेकिन शुरू से लेकर आजतक कितने सत्यवादी हुए? जब सबों के सम्मिलित
यत्न से भी इसमें सफलता नहीं मिली, तो भौतिक पदार्थों के बारे में ऐसी आशा
करना अपने को धोखा देना है। संसार में आदर्शवादियों की संख्या हमेशा
नाममात्रा की रही है। अब यदि हम संसार को ही महात्मा और आदर्शवादी बनाना
चाहते हैं तो बड़ी अच्छी बात है। लेकिन जब तक इसमें सफलता नहीं मिलती-और
पहले का इतिहास देखने से तो मानना होगा कि इसमें करोड़ों वर्ष लगेंगे ही-तब
तक के लिए भी तो कोई व्यवस्था करनी ही होगी। आखिर दुनिया आदर्शों के सहारे
ही जिन्दा नहीं रहती, किन्तु अपना काम चलाने के लिए कानून और व्यवस्थाएँ
बनी ही हैं। हम तो यह मानते हैं कि न तो कभी संसार महात्माओं का रहा और न
होगा। हम तो व्यावहारिक आदमी हैं और दुनिया भी ऐसी ही है। फिर आदर्शवाद के
पचड़े में क्यों पड़ें?
(शीर्ष पर वापस)
कांग्रेस और किसान सभा
स्वतन्त्रा किसान सभा के चलते कांग्रेस की कमजोरी की दलील का उत्तार हम
पहले दे चुके हैं। यहाँ पर जरा प्रवेशपूर्वक कांग्रेस की इस कमजोरी और
मजबूती का विचार करते हैं। कांग्रेस एक राष्ट्रीय संस्था है जो अत्यन्त
दकियानूसीपने से धीरे-धीरे आजादी की लड़ाई में आगे बढ़ी है। वह पूर्ण
स्वतन्त्राता की लड़ाई का प्रतीक है। गोकि उसका नेतृत्व आज दक्षिण पक्ष
(Right wing) के हाथ में है, फिर भी परिस्थितिवश वह आजादी की लड़ाई को बहुत
आगे ले गयी है। इस सम्बन्धा में 1917 की मई में होनेवाली 'आल रशियन किसान
कांग्रेस' की बात याद आती है। उसके प्रतिनिधि थे अवसरवादी, नरमदली,
जमींदार, मालदार, बड़े दुकानदार और दिमागी पेशेवाले। लेकिन उसने पास किया कि
'बिना मुआवजा दिये ही सब जमीनें राष्ट्र की सम्पत्ति बना ली जायें और सभी
किसानों को जोतने-बाने के लिए बाँट दी जायें।' क्योंकि परिस्थिति ही ऐसी थी
कि वे दूसरा निश्चय कर ही नहीं सकते थे, नहीं तो कहीं के नहीं रहते। ठीक
यही दशा हमारी राष्ट्रीय कांग्रेस की है। इसमें बहुमत ऐसों का है जो
उन्नतिशील विचारों के विरोधी हैं। लेकिन कांग्रेस के आज के निश्चय उन
विचारों के बहुत कुछ निकट पहुँचते हैं। ऐसी हालत में यदि कांग्रेस का अर्थ
उसके द्वारा संचालित आजादी की लड़ाई है तो कोई भी सच्ची किसान सभा दम रहते
उसको कमजोर कैसे होने देगी? वह तो उसे दृढ़ बनायेगी और उस पर होनेवाले हमले
का आगे बढ़कर सामना करेगी। यदि इस लड़ाई को आगे बढ़ाने का प्रश्न आ जाये तो
किसान सभा पीछे नहीं रह सकती। दृष्टान्त के लिए यदि संघ शासन की बात को
लेकर कांग्रेस युध्द छेड़ दे तो किसान सभा उसकी बगल में आ डटेगी।
लेकिन यदि कांग्रेस का अर्थ उसका बहुमत हो तो वह दूसरे प्रकार का है। एक तो
दूर से प्रतीत होनेवाला, जो उसकी नीति और प्रस्तावों के रूप में दीखता और
जिसे मजबूरन ऐसा बना दिया है। लेकिन जिसके पीछे यथार्थ बहुमत का दिल नहीं
है। इसमें भी किसान सभा साथ रहेगी। परन्तु जो कांग्रेस का बहुमत दक्षिण
पक्ष के रूप में है यदि कांग्रेस का या उसके बहुमत का वही अर्थ माना जाये
तो हमें साफ कहना होगा कि किसान सभा उसका समर्थन नहीं कर सकती। उसका साथ
नहीं दे सकती। आजकल ऑंख मूँदकर बहुमत को मानने का जो तरीका है उसे छोड़कर
हमें उसका विश्लेषण करके उसी बहुमत को मानना होगा जो कांग्रेस की पूर्ण
स्वतन्त्राता की लड़ाई को जारी रखने और दृढ़ करनेवाला है और जिसका विवेचन
हमने अभी किया है। हमारी दृष्टि से वही असली बहुमत है। दक्षिण पक्ष का
बहुमत वैसा नहीं। जिस मत में हमारा हाथ नहीं उठे वह बहुमत होने पर भी खतरे
से खाली नहीं। इसलिए जब-जब ऐसा मौका आये तब-तब बहुमत के नारे के पीछे अन्धो
न होकर हमें उसका उक्त विश्लेषण करने के बाद ही उसमें पड़ना, उससे तटस्थ
रहना या जरूरत होने पर उसका विरोधा करना होगा। किसान सभावालों का एक
अन्तर्राष्ट्रीय सिध्दान्त है और हमें सदा उसकी रक्षा करनी है। बिना विचारे
हर मौके पर बहुमत के नाम पर भेदभाव भूलकर मदद करने को दौड़ पड़ना किसान सभा
का दीवालियापन होगा। इसलिए लेनिन ने कार्निलोव के हमले के समय करेंस्की की
सरकार को सहायता देने के बारे में स्पष्ट कहा था कि 'हम कहने के लिए इस समय
उसकी मदद करेंगे, न कि राजनीतिक ढंग से। उसके साथ भेदभाव भूल जाने का अर्थ
होगा राजनीतिक दिवालियों की नयी साख पैदा करना। कार्निलोव के खिलाफ लड़ने
में हम करेंस्की की मदद करने के बजाय उसकी कमजोरी जनता की नजरों में ला
देते हैं।' हमें फूँक-फूँक कर पाँव देना होगा और कांग्रेस के नाम पर सहायता
के हर मौके पर विचारना होगा कि आया हम इस तरह दक्षिण पक्ष को अपनी सहायता
से मजबूत करेंगे या स्वतन्त्राता की लड़ाई में इसके द्वारा सहायक होकर उस
पक्ष की कमजोरी और उसे अपनी सहायता की आवश्यकता प्रगट करेंगे। मेरा यह
पक्का विचार है।
स्वराज्य मिलने पर जमींदारी मिटाने और किसान संगठन की बातें जो लोग करते
हैं उनका केवल मतलब है कांग्रेस और आजादी के नाम पर दक्षिण पक्ष को दृढ़
बनाना। स्वराज्य कोई ठोस या बनी-बनायी वस्तु नहीं है। उसके मानी हैं
कमानेवालों को सदा सुन्दर अन्न, वस्त्रादि जीवनोपयोगी वस्तुएँ मिलती रहें
और उन्हें इनकी चिन्ता करनी न पड़े। यह भी नहीं कि गैरों की मर्जी और कृपा
से ये चीजें या आत्मोन्नति का पूर्ण अवसर उन्हें मिले, फलत: वह कृपा न होने
पर न मिले। यही कारण है कि स्वराज्य के मानी हैं कि कमानेवालों के हाथ में
ही शासन-सूत्रा सोलहों आने रहे। लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब तक
जमींदारी और पूँजी रहेगी जनता के हाथ में शासन-सूत्रा ठीक-ठीक आ ही नहीं
सकता। इसीलिए स्वराज्य स्थापना के पहले ही इन सबों का अन्त करना जरूरी है।
कहने के लिए तो अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों में स्वराज्य
कभी हो गया। फिर भी वहाँ किसानों, मजदूरों और शेष जनता के कष्ट ज्यों के
त्यों बने हैं और करोड़ों आदमी बिना घर-बार या रोजगार के मारे-मारे फिरते और
नारकीय जीवन बिताते हैं। अतएव हमें सभी देशों से शिक्षा लेकर अपना युध्द
चलाना है और जनता को पहले से ही सजग कर देना है कि स्वराज्य के नाम पर
मालदारों और जमींदारों के हाथ में शासन-सूत्रा कदापि आने न दे। सारांश, हम
अभी से तैयार होकर स्वराज्य का स्वरूप जैसा बनाना चाहेंगे वैसा ही बनेगा, न
कि कहीं से बना-बनाया टपक पड़ेगा।
(शीर्ष पर वापस)
खेतिहर मजदूर और किसान सभा
खेतिहर मजदूरों के नाम पर आजकल कुछ लोगों का काम है केवल किसान सभा को
कोसना। उनके विचार शरीफ में यह सभा भी शोषकों की सभा है। उन्हें मजदूरों के
लिए तो असल में कुछ करना-धारना है नहीं। हाँ, किसान सभा को कोस कर
जमींदारों से यारी जरूर बनानी है। जमींदारों से दोस्ती और उन मजदूरों की
सेवा ये दोनों विरोधी बातें हैं यह उन्हें समझना चाहिए। जो हो, बिहार में
ही यह आन्दोलन उठाया गया है और जहाँ-तहाँ मीटिंगें हो जाती हैं। यों तो
मद्रास और बम्बई इलाके का अब्राह्मण आन्दोलन भी कुछ ऐसा ही है। लेकिन
खेतिहर मजदूर आन्दोलन में कुछ बड़े हाथ भी पड़े हैं और इसका इतिहास है।
बहुतों के लिए तो यह है 'डूबते को तिनके का सहारा'। मगर इसका वर्णन बेकार
है। हमें तो यह देखना है कि यह क्या चीज है और किसान सभा पर इसका क्या असर
होगा।
जहाँ इस आन्दोलन में कुछ गैरजिम्मेदार व्यक्ति हैं तहाँ बिहार में कांग्रेस
के कुछ जवाबदेह लोग भी इसमें पड़े हैं और उनके इस काम के करते छोटे
जमींदारों और धानी किसानों में, जो कांग्रेस के स्तम्भ होने के साथ ही काफी
खेती करते हैं और जिनका किसान सभा से कोई खास सम्बन्धा नहीं है, विशेष आतंक
मालूम पड़ता है। क्योंकि वे लोग इन मजदूरों से कम मजदूरी या मुफ्त में काम
कराते और मार-पीट भी करते हैं। लेकिन साधारण या गरीब किसानों पर इसका कोई
विशेष असर नहीं और यही किसान सभा के स्तम्भ हैं जिनकी संख्या प्राय: 80
प्रतिशत है। खेतिहर मजदूरों के ये लीडर समझते हैं कि उनकी गर्मागर्म
स्पीचें एक ओर तो किसानों और किसान सभाओं को दबा देंगी और दूसरी ओर उनका
नेतृत्व दृढ़ हो जायेगा। उनसे हमारा नम्र निवेदन है कि उनका यह हिसाब गलत
है। किसानों और किसान सभा पर तो इसका कुछ असर होगा नहीं और उनकी लीडरी भी
खत्म होगी। उन्हें इतिहास से सबक सीखना चाहिए। रूस में मालदारों और
जमींदारों के दोस्तों ने मेंशेविक और सोशल रेवोल्यूशनरी पार्टी के नाम से
किसानों और मजदूरों में जाकर इसी आशा से ऐसी ही गर्म तकरीरें कीं और उन्हें
उभाड़ा। लेकिन परिणाम क्या हुआ? ट्राट्स्की के शब्दों में 'किसानों और
मजदूरों ने उन उपदेशकों के शब्दों का असली अभिप्राय लगाकर अमल शुरू कर
दिया जो बात उनके मन में थी नहीं।' फलत: उपदेशकों को चुपके से खिसक जाना
पड़ा। न लीडरी मिली और न प्रशंसा। हम चाहे कितनी भी होशियारी से बोलें,
लेकिन जनता हमारे शब्दों का सीधा अर्थ लगाती है।
किसान और किसान सभा का सीधा और ठीक अर्थ न समझ कर ही लोग इनके बारे में
शोषकता की बातें किया करते हैं। यों तो शोषण समाज के रग-रग में व्याप्त है।
खेतिहर मजदूर भी अपने धाोबी, हज्जाम वग़ैरह का शोषण करता ही है। मगर इतने से
वह शोषक नहीं। उसका तो बेबसी का शोषण है। यही बात किसान सभा के किसान के
बारे में भी लागू है। किसान तो दुनिया का कारोबार चलानेवाला एक बड़ा भारी
केन्द्र है जहाँ से शक्तियाँ निकलकर सारे संसार को चला रही हैं। लेकिन वह
यह बात समझता नहीं। अन्न, घी, दूधा, कच्चा माल तैयार करके एक ओर वह सबको
देता है। दूसरी ओर फौज और पुलिस के जवान, जेल के वार्डर, न्यायालय के
क्लर्क, चपरासी, मोटर और रेल के ड्राइवर और रेल पर चलनेवाले 99 प्रतिशत से
ज्यादा आदमी भी वही देता है। कुली, खलासी की सप्लाई वही करता है। कच्चे माल
से पक्का तैयार करनेवाले कारखानों को मजदूर तो वह देता ही है, यदि
कारखानेदारों के व्यवहार से तंग आकर वहाँ मजदूर हड़ताल करते हैं तो भुक्खड़
किसानों में से ही नये मजदूर (Black legs) जाकर उनकी हड़ताल को विफल करते
हैं। यूरोपीय देशों की तरह सर्वहारा (Prolatariat) के अर्थ में हमारे देश
में अभी मजदूर वर्ग की सृष्टि नहीं के बराबर है। देहात के किसान ही काम न
मिलने या फुर्सत की हालत में जाकर कल-कारखानों में काम करते हैं। इससे
स्पष्ट है कि जनता के समस्त शोषणों की चक्की इसी किसान के हाथों में चल रही
है। अत: यदि यह चेत जाये और अपने हकों तथा कर्तव्यों को समझ जाये तो
बेड़ा पार हो और यह शोषण खत्म हो जाये, सो भी बिना एक कतरा खून बहाये ही।
उसके जगने पर सामना करने की हिम्मत किसे होगी? यही कारण है किसानों के
संगठन का और यही रहस्य है हमारी किसान सभा का।
रह गयी किसानों के द्वारा मजदूरों के शोषण की बात। शोषण दो प्रकार का है,
एक तो जान-बूझकर संगठित रूप से ख़ामखाह, दूसरा बेबसी के करते असंगठित रूप से
मजबूरन या वर्तमान सामाजिक स्थिति के करते। पहले शोषण का फल दूसरा शोषण है
और यदि पहला बन्द हो जाये तो दूसरे के बन्द होने में देर न लगेगी। पहला
शोषण जमींदारों, धानियों और पूँजीपतियों का है। जिनकी कमाई से उन्हें मौज
करना है वे भले ही भूखों मरें, लेकिन धानियों की तो मोटर दौड़नी ही चाहिए और
बैंकों में उनके नाम से अपार धान बराबर जमा होना ही चाहिए। इसमें वे जरा भी
कमी देखना नहीं चाहते, हालाँकि इस कमी से कमानेवालों को थोड़ी-सी सुविधा
मिल सकती है। इसीलिए एक ओर तो ऐसी व्यवस्था, कानून और धार्म के नाम पर जारी
करवा दी है कि गरीबों का शोषण बराबर जारी रहे और उत्तारोत्तार बढ़ता जाये,
दूसरी ओर समाज को ऊँच-नीच, छोटे-बड़े आदि हजारों टुकड़ों में बँटवा दिया है
ताकि संगठित होकर उनका सामना कोई कर न सके।
प्रोफेसर वार्गा के शब्दों में 'किसान की कमाई का न सिर्फ मुनाफा ही
जमींदार ले लेता है, बल्कि उसकी मजदूरी का भी एक भाग लेता है, जिससे उसे
विवश होकर महाजनों तथा बैंकों से ऋण लेने में अत्यधिक सूद देना पड़ता है और
इस प्रकार उसकी खेती घाटे में चलती है।' जमींदार के शोषण ने पहले तो मजदूरी
तक छीनकर उसे जीविका और पूँजीहीन बना दिया। फलत: खेती जारी रखने और खाने के
लिए जुल्मी सूद पर उसे ऋण् लेना पड़ा और दोनों के चुकाने में उसे खेती में
घाटा लगा और वह दीवालिया हो गया। यही क्रम बराबर जारी है। ऐसी हालत में
बेबसी के करते असंगठित रूप से हलवाहे आदि का शोषण करता है। इसमें वर्तमान
सामाजिक व्यवस्था भी सहायक होती है। इसी व्यवस्था से अनुचित लाभ उठाकर
प्राय: 20 फीसदी सम्पन्न किसान भी शोषण करते हैं। मगर 80 फीसदी तो विवश
होकर ही करते हैं। यही कारण है कि हम सबसे पहले असली प्रथम शोषण को ही बन्द
करना चाहते हैं और उसके लिए 80 प्रतिशत किसानों और खेतिहर मजदूरों का
जबर्दस्त संगठन किसान सभा के रूप में कर रहे हैं। यही किसान हमारी सभा की
रीढ़ हैं, न कि धानी और मधयम श्रेणी के किसान। खेतिहर मजदूर भी तो आखिर बिना
जमीनवाले किसान ही हैं। आज जमीन है तो किसान कहलाते हैं। कल बिकी या नीलाम
हुई तो मजदूर हो गये। किसी की जमीन आज छिनी किसी की कल और किसी की बहुत
पहले। अर्थ संकट ने तो इधार बहुतों को भूमिहीन कर दिया है। यह जमीन छिन
जाने का तरीका बराबर जारी है और दिनोंदिन तेजी पर है। इसलिए भूमिवाले और
भूमिहीन ये दो विभाग हमारे किसानों के ठीक ही हैं और इन दोनों के मधय कोई
पक्की विभाजक रेखा खींची जा सकती नहीं।
इस पर जो लोग यह कहना चाहते हैं कि सबको मिलाकर मालदारों का शोषण रोकने के
भी पहले उन्हें भी मिलाकर अंग्रेजी शोषण बन्द करना चाहिए और किसान संगठन
अभी रोक देना चाहिए, वे भूल करते हैं। अंग्रेजी शोषण नाम की कोई अलग चीज
नहीं है। साम्राज्यशाही तो पूँजीशाही का अत्यन्त विकसित रूप है। अतएव शोषण
एक ही है और है वह मालदारों का, हम चाहे स्वदेशी, विदेशी आदि कितने ही नाम
से उसे पुकारें। अमेरिका वालों ने मिलकर पहले अंग्रेजी शोषण को ही रोका। तो
क्या इससे अमेरिकन मालदारों का शोषण आज रुक गया? वहाँ तो अब और भी भयंकर
शोषण जारी है। केवल नाम बदल गया। संसार में बिना देश और जाति-भेद के एक दल
शोषकों का है और दूसरा शोषितों का। शोषकों के भीतर आपसी भेद तो नाममात्रा
का और बनावटी है जो समय आने पर मिट जाता है, मिट जायेगा, न दिखेगा। यही बात
शोषितों की भी है। अत: किसान सभा से उन मजदूरों को अलग रखने का यत्न
हानिकारक है। किसान सभा तो वस्तुत: पीड़ितों की संस्था है। शोषक तो इसमें
टिक सकते नहीं। खेतिहर मजदूरों के बारे में तो सदा से किसान सभा का यही
मन्तव्य रहा है कि किसान उन्हें अपने परिवार का ही मानकर उनके साथ बर्ताव
करें और जीविकोपयोगी मजदूरी दें। उनकी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने और
बेगारी वगैरह से उन्हें छुटकारा दिलाने की न सिर्फ माँग सभा ने पेश की है,
प्रत्युत बिहार के गया, मुंगेर, पटना, दरभंगा जिलों में केवल उन्हीं के लिए
लड़ाइयाँ लड़कर उन्हें जमीन और दूसरे हक दिलाये हैं। बड़हियाटाल की कहानी
उन्हीं की है। क्योंकि सभा मानती है कि 'क्रान्ति लाने और उसकी रक्षा का
काम केवल सबसे गिरे वर्ग ही करते हैं।'
(शीर्ष पर वापस)
तिरंगा और लाल झण्डा
किसान सभा में लाल झण्डा देखकर बहुत लोग चौंकने और उसका विरोधा करने लगे
हैं। इसमें तरह-तरह की दलीलें दी जाती हैं। कोई इसे विदेशी कहता है तो कोई
अराष्ट्रीय। कोई इसे हिंसा का सूचक मानता है तो कोई किसानों में भय
फैलानेवाला। मैं बहुत कोशिश करने पर भी इन दलीलों को समझ न सका। जब तक
राष्ट्रीय स्वतन्त्राता का युध्द जारी है तिरंगा झण्डा तो रहेगा ही। इसलिए
किसान सभा ने उसका स्वागत करते हुए राष्ट्रीय अवसरों पर उसी की प्रधानता
पर जोर दिया है और किसान सभा के कामों में लाल झण्डे के नीचे चलने का आदेश
देकर भी तिरंगे के हटाने की बात उसने नहीं कही है। किसान सभा में तिरंगा
झण्डा बहुत सम्मान के साथ रखा जा सकता है, रखा जाता है। हाँ, यदि उसमें लाल
झण्डे की प्रधानता हो तो यह बात दूसरी है। इससे तिरंगे के अपमान या नीचा
होने की बात कहाँ से आ जाती है? और ऐसा किया भी क्यों जाये? हाँ, मतभेद और
विरोधा भले ही बढ़ेगा और हम इसी विरोधा को हटाना चाहते हैं। प्रधानता के
साथ अपमान या निचाई कहाँ रहती है? बारात में दुल्हे की प्रधानता का यह
कदापि अर्थ नहीं होता कि शेष लोग या गुरुजन अपमानित या नीचे माने जाते हैं।
जहाँ तिरंगा राष्ट्रीय है तहाँ लाल झण्डा
अन्तर्राष्ट्रीय है। आज अन्तर्राष्ट्रीयता के युग में उसका चिद्द तो चाहिए,
खासकर किसानों और मजदूरों के लिए, जिनकी लड़ाई अन्तर्राष्ट्रीय है और इस
अन्तर्राष्ट्रीयता के बिना जिनका वास्तविक उध्दार हो नहीं सकता। जब तक
संसार-भर के किसानों और मजदूरों में एकता और भ्रातृभाव न आ जाये तब तक उनका
निस्तार कहीं भी नहीं हो सकता। एक देश का दूसरे से और एक के शोषण का दूसरे
के शोषण से घनिष्ठ
सम्बन्ध है। आज दुनिया संकुचित होकर परिवार के रूप में बन गयी है। यह लाल
झण्डा शोषितों और पीड़ितों के लिए खास चीज है। उनकी आशा का केन्द्र है।
इसीलिए इसके करते भेदभाव का कोई प्रश्न ही नहीं। लाल झण्डे के सिवाय
महाबीरी और हरे, काले आदि धार्मिक झण्डे तो लोग रखते ही हैं और कांग्रेस
उनका विरोधा करती नहीं हालाँकि उनसे झगड़े बढ़े हैं। फिर लाल झण्डे से ऐसी
चिढ़ क्यों? यदि उनसे भेदभाव नहीं फैलता तो इससे क्यों फैलेगा? हिंसा की बात
तो सरासर गलत है। सीमा प्रान्त के लाल कुर्तीवालों पर भी पहले ऐसा ही
आक्षेप था। मगर आज मिट गया तो लाल झण्डे पर आया। यदि महाबीरी झण्डे के लाल
होने पर भी उसमें हिंसा नहीं है तो इसमें क्यों? यह रूप में तो करीब-करीब
उसी से मिलता-जुलता है। हालाँकि इसके भाव निराले हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ यदि राष्ट्रीय से भिन्न माना जाये तो ठीक ही है। लाल
झण्डा अन्तर्राष्ट्रीय है। यदि उसका अर्थ 'राष्ट्र से बाहर' हो तो समझ में
नहीं आता कि लाल रंग, हसुवा, हथौड़ा इनमें कौन-सी चीज बाहर की है। यदि पहले
यह भारत में न था तो तिरंगा कब था? हसुवा हथौड़े के उपासक तो चरखे के
उपासकों से सदा ज्यादा रहे हैं और आज भी हैं। फिर भी यदि यह विदेशी माना
जाये तो रेल, तार, फोन आदि सहस्र विदेशी वस्तुओं को बेखटके अपना चुकनेवालों
की यह दलील निराली है। और पार्लियामेण्टरी प्रणाली तथा कांस्टिटुएण्ट
असेम्बली तो निरी विदेशी चीजें हैं। मगर जो लोग इन पर फिदा हैं और इनके
नारे लगाते हैं, वही लाल झण्डे से चिढ़ते हैं। ऊँट को खाकर मच्छर पर नाक-भौं
सिकोड़ना इसे ही कहते हैं।
(शीर्ष पर वापस)
संयुक्त मोर्चा-असली और नकली
आजकल संयुक्त मोर्चे (United Front) पर बहुत जोर दिया जाता है और विजय के
लिए यह ठीक भी है। अस्त-व्यस्त शक्तियों से विजय नहीं होती। लेकिन हमें
विचारना यह चाहिए कि यह संयुक्त मोर्चा, जिस पर हम ज्यादा जोर देते हैं,
असली है या नकली, स्थायी है या अस्थायी हमें असलियत समझकर ही जोर देना
चाहिए। नकली या अस्थायी, मोर्चे से भी हम ख़ामखाह भागना नहीं चाहते। मगर
ज्यादा जोर उस पर नहीं देकर स्थायी संयुक्त मोर्चे पर ही देना होगा। नहीं
तो असली चीज गँवाकर खतरे में पड़ सकते हैं। ऐन मौके पर, यह पक्का संयुक्त
मोर्चा केवल पीड़ितों का ही होगा, चाहे उन्हें किसान, मजदूर, बेकार, जवान,
विद्यार्थी आदि किसी नाम से पुकार लें। यही हैं जो कमाकर भूखों मरते हैं या
कमाना चाहते हैं, पर काम ही नहीं पाते। समय-समय पर इनमें भी कुछ छँट सकते
हैं। लेकिन अधिकांश बराबर साथ रहेंगे-अन्यथा उनका त्राण नहीं। अधिकांश
को वर्तमान व्यवस्था सुखी बना सकती नहीं। इसके विपरीत मुट्ठी-भर जमींदार,
मालदार या मधय वर्ग के ऊँचे तबकेवाले हैं। इन सबों का स्वार्थ एक ही है और
ये आपस में संयुक्त मोर्चा बनाते हैं। मगर इनका स्थायी मोर्चा पीड़ितों के
साथ कभी हो नहीं सकता। वह तो मतलब के लिए कामचलाऊ और चन्द-रोजा होगा। फलत:
उसे संयुक्त मोर्चा न कहकर खिचड़ी दल या मिश्र मोर्चा (Coalition) ही कहना
ठीक होगा। हमें ज्यादा धयान इधार न देकर असली संयुक्त मोर्चे पर ही देना
चाहिए। इस प्रकार पीड़ित जनता को एक सूत्रा में बाँधाकर उसे अन्तिम युध्द के
लिए तैयार करना चाहिए। खेद है, हम आज यह भूलकर नकली संयुक्त मोर्चे पर
ज्यादा फिदा हैं। इसी से आज तक वामपक्ष की आपसी फूट कायम है।
(शीर्ष पर वापस)
कार्यक्रम और लक्ष्य
प्राय: प्रश्न करने की आदत लोगों में पड़ गयी है कि किसान सभा का रचनात्मक
कार्यक्रम क्या है? बहुतेरे तो इसका अभाव बताकर सभा को बातूनियों का दल कह
बैठते हैं। लेकिन ऐसे भले आदमियों को यह नहीं सूझता कि दैनिक और तात्कालिक
माँगों और प्रश्नों को लेकर किसानों को संगठित करना और उसके द्वारा उन
माँगों की लड़ाई लड़कर उनके संगठनों को दृढ़ बनाते जाना जिससे अन्त में वे
अन्य शोषित जनता के साथ मिलकर पूर्ण आजादी की लड़ाई में सफलता प्राप्त करें
और अपने को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषणों से मुक्त कर सकें-जनता का
असली स्वराज्य स्थापित कर सकें, यह तो वास्तविक कार्यक्रम है। चाहे इस
रचनात्मक कहिये या मत कहिये। जनता की कमाई का उपभोग उसे ही उल्लू बनाकर
मुट्ठी-भर लोग करें और वह कराहती हुई मरे। यही तो हमारी बीमारी है और इसे
दूर करने का एक ही उपाय है कि जनता को जाग्रत कर दिया जाये, समझा दिया
जाये, उसका हक और उसकी शक्ति उसे बता दी जाये, उस शक्ति के उपयोग का तरीका
उसे सिखा दिया जाये। संख्या बल तो उसमें है। उसी के काम में लाने की रीति
उसे समझा दी जाये। और चाहिए क्या? फिर तो अनायास उसकी विजय होगी और ऐसा
किसान-मजदूर राज्य-असली राज्य-स्थापित होगा जिसमें हरेक से उतना काम लिया
जायेगा जितना वह दे सके और हरेक को जीवन सुखमय बनाने के लिए उतनी सामग्री
दी जायेगी जितनी उसे जरूरी होगी। इस किसान-मजदूर राज्य की स्थापना करने में
जाति और धार्म का कोई भेद नहीं। भूख, रोटी, वस्त्रादि में हिन्दू, मुस्लिम
या ब्राह्मण, अब्राह्मण का भेद नहीं। भूख सबको लगती है, दवा सभी को चाहिए।
धार्म का सवाल तो पेट भरने के बाद ही उठता है पहले नहीं।
हमारा कर्तव्य
संसार में एक ओर मुट्ठी-भर लोगों के हाथ में अपार सम्पत्ति है। दूसरी ओर
असंख्य कमानेवाले तिल-तिल करके मर रहे हैं। मगर चूँ नहीं कर सकते, उस
सम्पत्ति पर दावा नहीं कर सकते, उसे छू नहीं सकते, चाहे वह यों ही तहस-नहस
भले ही हो जाये। उनकी मर्जी तो होगी नहीं। उनके कुत्तो उसका उपयोग कर सकते
हैं, लेकिन कमानेवाले मनुष्य नहीं कर सकते। क्योंकि कानून ऐसा कहता है कि
व्यक्तिगत सम्पत्ति को कोई छू नहीं सकता। लेकिन यदि उन्हें सम्पत्ति का
हक है तो हमें जीने का भी हक है। और 'यह हक उस हक से कहीं बड़ा है।' हमें तो
दुनिया को विवश करना होगा कि वह या तो खुल्लमखुल्ला हमारे जीने के इस हक को
माने और वैसा ही अमल करे। नहीं तो साफ कह दे कि हमें भूखों, दवा बिना,
नंगे, निराश्रय मरते रहकर कमाना और जमींदार, मालदार सरकार को उस कमाई में
से सबसे आगे देना चाहिए और यदि बचे तो स्वयं खाना-पीना, नहीं तो मरना
चाहिए। हम यह बात किसान संगठन के जरिये आसानी से कर सकते हैं। हमारार्
कत्ताव्य है कि हम इसी दृष्टि से विश्वास के साथ आगे बढ़ें और समस्त पीड़ितों
से पुकार कर कह दें-
'भूख मौत के बन्दी जागो, जागो भूमण्डल के दीन।
न्याय चला अन्धोर मिटाने, और बनाने विश्व नवीन॥'
इनकिलाब ज़िन्दाबाद।
(शीर्ष पर वापस) |