हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

16. दसवाँ गया जिला किसान - सम्मेलन शकूराबाद ( गया, 15 अप्रेल 1945)
 

मुख्य सूची खंड-1 खंड-2 खंड-3 खंड-4 खंड-5 खंड-6

तब और अब
दुश्मनों की हिम्मत
किसान सभा और हमारे विरोधी
किसान सभा और कांग्रेस

किसान सभा और कम्युनिस्ट
किसान सभा और लड़ाई
निराशा की बात नहीं
किसान सभा का काम

तब और अब

किसान बंधुओ,

आज से करीब तीन साल पहले इसी स्थान पर यही जिला कान्फ्रेंस हुई थी। पता नहीं आप भूल गये, या याद रखते हैं। मैं तो उस समय जेल में बन्द था। मगर खबर पढ़ी थी। कैसी हिम्मत थी, कैसा जोश था। हम और आप सारा मुल्क-आगे बढ़ा जा रहा था। पस्ती का पता ही न था। अब लिया, तब लिया की बात थी। मगर आज आप अपने दिलों को टटोलें और पूछें कि क्या बात है? वही हालत है, या बिलकुल ही बदल गयी है? मस्ती है या पस्ती? आशा है या निराशा? उत्तार तो साफ है, जवाब तो सबों को मालूम ही है। सवाल होता है ऐसा क्यों हुआ? कुछ भारी भूलें हुईं और हम कहाँ से कहाँ जा पड़े। भूलें तो होती ही हैं और हम सीखते भी हैं भूलों से ही। मगर ये भूलें, ये गलतियाँ गैर-मामूली थीं। हममें से कुछ लोग इस जंग के शुरू से ही चिल्लाते रहे कि मौका आया है, सजग हो जाइये। किसान सभा ने तो साफ ही कह दिया था कि फिर मौका न आयेगा और पछताना होगाअगर इस बार चूके। मगर सुनता कौन? हमारी तो 'नक्कार खाने में तूती की आवाज'थी।

धीरे-धीरे बहुत वक्त बीता, हममें से ज्यादातर जेलों में बन्द हो गये इसीलिए कि ऐन मौके पर अपना फर्ज अदा करने से चूके न थे। फिर समय ने पलटा खाया। सन् 1942 का जमाना था। हमने समझा अब तो चुप्पी मारना ही ठीक है। मौका नाजुक है और दुश्मन काफी मजबूत है। शुरू में वह जितना ही कमजोर था, 1942 में उतना ही मजबूत। इसी से 'समझि मनहिं मन रहिये' के मुताबिक कलेजा मसोस कर रह जाना ही ठीक था। हमने खतरे की घण्टी भी बजायी। मगर फिर भी किसान सभा की बात अनसुनी कर दी गयी। हमने भविष्यवाणी और पेशीनगोई कर दी कि टस-से-मस हुए कि आजादी की जगह बर्बादी ही पल्‍ले पड़ेगी। लेकिन फिर गलती हुई और मुल्क चूका। दुश्मन जब खूब ही दबा और कमजोर हो तब तो उस पर रहम करना और लड़ने से इनकार करना, मगर जब वह बखूबी उभड़ा और जबर्दस्त हो तो भिड़ना, यह कौन-सी अक्‍लमन्दी है? मगर हुआ यही और नतीजा सामने है। ऐसा लगता है कि सारा मुल्क अण्टाचित पड़ा है और हिम्मत जाती रही। बिहार सरकार ने जनवरी के आखिर में बिहार के पाँच चुने नेताओं पर पाबन्दी लगा दी और घर में ही उन्हें कैद किया। मगर सूबे-भर में सन्नाटा रहा। किसी ने खिलाफ में आवाज तक न उठायी, सिवाय किसान सभा के। एक आवाज उठी भी तो मुर्दा, दबी और सफाई देनेवाली! भला पस्ती और तबाही का इससे जबर्दस्त सबूत चाहिए ही क्या?

(शीर्ष पर वापस)

दुश्मनों की हिम्मत

फिर मुल्क के दुश्मनों की हिम्मत खूब ही बढ़े न, तो और हो क्या? वे तो हमारा रग-रेशाँ पहचानते हैं न? चाहे आप हजार दलीलें करें और वह जबर्दस्त भी हों, मगर उनका तो आज एक ही जवाब 'ऊंहूं' है। दूसरा हो भी कैसे? वे तो मर्द हैं और अपने हकों के लिए सिर्फ मरना-मिटना जानते हैं। उनकी हिम्मत लासानी है। वह जवाँमर्द क़ौम हैं। और हम? हम तो आज बिलकुल ही पस्तहिम्मत हैं। आज तो हमारी हिम्मत का सबूत सिर्फ असेम्बलियों में की जानेवाली जबाँदराज़ी और गर्म स्पीच है। जब हम वहाँ बोलते हैं तो मालूम पड़ता है तूफान बरपा कर देंगे, बरपा हो जायेगा। मगर हकीकत तो यह है कि बातों से तूफान बरपा नहीं होता है, बल्कि ठोस कामों और कुर्बानियों से, बलिदानों से। हमारे आकाओं को, हमारे प्रभुओं को यह खूब ही मालूम है, उनने इसी तरह तूफान बरपा किया भी है। इसीलिए हमारी इन हरकतों पर वह नफरत की हँसी हँस देते और अपने ऐंठ और भी बढ़ा लेते हैं।

हमने कहा कि सरकार ने बिना हमारे पूछे ही इस मुल्क को इस खूँखार लड़ाई में घसीट दिया। यह बहुत ही नाजायज हुआ। इसी से हुक्म हुआ कि कांग्रेसी वजीर (मन्त्री) अपनी गद्दियाँ खाली कर दें। उनने यही किया भी। फिर हमने कहा कि 'अंग्रेजो, भारत छोड़ दो।' मगर सुनता कौन? आखिर अंग्रेज लोग साग-मूली थोड़े ही हैं कि डर जायें और हम उन्हें चट कर जायें। वे डटे रहे और हम कुछ कर न सके। इस तरह हमने उनकी हिम्मत दो बार बढ़ायी। नतीजा है कि 'सिविल सर्विस' के लोग, मजिस्ट्रेट वगैरह, नहीं चाहते कि वे फिर भी कांग्रेसी मन्त्रिायों को सलामी बजायें। उनकी शान ऐसा करने से रोकती है, बगावत करती है। यह पक्‍की बात है, हकीकत है। यह तीसरी चीज है जो हमारे लिए खतरनाक है और हमें इसे भूलना न चाहिए जब कभी हम अगला कदम उठायें या फिर पुरानी गद्दियों पर बैठने की सोचें। और अगर हमने इसे भुलाया तो नतीजा बुरा होगा और हमें लेने के देने पडेंग़े, याद रहे। हुकूमत, इन्तजाम और शासन में सफलता तभी हो सकती है जब यह 'सिविल सर्विस' साथ दे। मगर आज यह बात नहीं है। खतरा है कि कहीं उलटे अड़ंगे न लगें। आखिर 'अंग्रेजो भारत छोड़ दो' को यह 'सर्विस' भूली नहीं है और न हमारी तपाक ही भूली है जबकि हमने मन्त्रियों को गद्दी से हटाया था। खूबी तो यह कि हम उनका कुछ कर भी न सके। फिर उनका दिल हमसे बुरी तरह फटे न, तो हो क्या? ऐसी हालत में वे हमारी गद्दी और उसकी कामयाबी कैसे चाहेंगे? और अगर हमने इन ठोस बातों को भुलाया तो कहीं 'चौबे गये छब्बे होने दूबे बन के आये' की बात न हो जाये, यह डर है।

ऐसी हालत के रहते यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि बड़े लाट विलायत इसीलिए गये हैं कि यहाँ की जिच हटे और सभी जगह भारतीय मन्त्राी लोग जा विराजें। आज हमारे हाकिमों और शासकों को गर्ज क्या पड़ी है कि ऐसा करें? अब तो लड़ाई का भी वारा-न्यारा होने ही को है। अब तो जर्मनी और जापान दोनों ही की कमर टूट चुकी है। यह गैरमुमकिन है कि वे लोग ज्यादा दिन टिक सकें। फिर हमारे मालिक समझौते के लिए परेशान और उतावले क्यों होंगे यह समझ में नहीं आता। उनने दुनिया देखी है और हैं वे बड़े ही काइयाँ, हम यह न भूलें तभी खैरियत है। आजाद भारत से उन्हें खतरा भी काफी है। आजाद होने पर हम रोजगार-व्यापार में कहीं अमेरिका की ओर जा झुके तो? आसार तो ऐसे ही हैं। और इंग्‍लैंड के लिए हिन्दुस्तान के अलावे कोई दूसरी मण्डी, दूसरा बाजार कच्चे-पक्के मालों के लिए वैसा नजर नहीं आता जैसा चाहिए। और आजाद होने पर हम अगर फौरन ही स्टर्लिंग बैलेंस के रूप में इंग्‍लैंड के माथे पड़े हुए अरब-खरब रुपये कर्ज को चुका देने की माँग कर बैठे तो क्या होगा? हमने कभी प्रस्ताव पास किया था कि मौके पर इंग्‍लैंड का हमारे माथे वाला कर्ज हम न चुकायेंगे। हमारे आका यह भूले नहीं हैं और आज तो उनने वह कर्ज हमसे पाई-पाई चुका भी लिया है। मगर अब खुद वही क्यों न सोचें कि स्टर्लिंग बैलेंस न चुकायेंगे? मगर आजाद होने पर हम उन्हें क्या ऐसा करने देंगे? इसलिए बड़े लाट की विलायत यात्रा बड़ी चालाकी से हमारी बेड़ियों को अगर और भी कस दे तो हमें ताज्जुब नहीं होगा और हम मानेंगे दुनिया बदल गयी है नहीं।

(शीर्ष पर वापस)

किसान सभा और हमारे विरोधी

किसान सभा ने अपने जन्म के दिन से ही लड़ाइयाँ लड़ी हैं। या यों कहिये कि लड़ाई के ही दरम्यान इसकी पैदाइश होकर यह फूली-फली है। इसीलिए हम लड़ाइयों से घबराते नहीं। बल्कि लड़ाइयाँ तो हमारी बढ़ती ताकत का सबूत है जो हमें मौका देती हैं कि लापरवाह न रहकर हम अपने को सँभालें और मुस्तैद रखें। हमारा हमेशा यही उसूल रहा है, सिध्दान्त रहा है और आज भी है कि किसान सभा किसानों के हकों के लिए लड़नेवाली स्वतन्त्रा संस्था और आजाद जमाअत है। यह उनके सभी तरह के हकों के लिए हमेशा लड़ेगी जब-जब मौका आये। यह सबों से लड़ती रही और लड़ती रहेगी। मौका आने पर हम कांग्रेस से भी लड़ चुके हैं। आगे भी लड़ेंगे अगर जरूरत पड़ी। इस मामले में हमें किसी भी तरह का समझौता किसी से भी नहीं करना है। अगर कोई यह कोशिश करे कि किसान सभा स्वतन्त्रा संस्था न होकर किसी का पुछल्ला बने तो भी हम उससे लड़ेंगे। इसके लिए पहले भी लड़ चुके हैं। इसी तरह अगर कोई आदमी या संस्था किसानों के राजनीतिक (सियासी) और आर्थिक (माली) हकों पर हमला करे तो उससे भी हम लड़ेंगे, पहले भी लड़ते रहे हैं। यह पक्की बात है। बाकी मामलों में समझौता हो सकता है। हमने तो साफ ही देखा है कि अगर कांग्रेसी-मन्त्रियों के गद्दीनशीन होने के पहले हमें सरकार और जमींदारों से काफी लड़ना पड़ा था तो इनके गद्दी पर आने पर तो उससे भी कहीं ज्यादा लड़ाई होती रही। बल्कि जमींदारों की हिम्मत बढ़ गयी थी। इस ठोस सत्य और करारी जानकारी को हम भुला नहीं सकते। इसीलिए किसान सभा के दुश्मनों को यह बात याद रखनी होगी कि हम भूल-भुलैया में पड़नेवाले हैं नहीं।

इधार गया जिले में एकाधा कांग्रेस नामधारी जो किसान सभा के सदा से दुश्मन रहे हैं और आज भी हैं, कभी-कभी बोलने लगे हैं कि किसान सभा को रचनात्मक (तामीरी) प्रोग्राम से अलग कर दिया गया है। सुना है, उनने कांग्रेस-किसान सभा बनाने के लिए कोई रसीद भी छपवायी है जिस पर ऐसा लिखा गया है। मैं उन्हें साफ कह देना चाहता हूँ कि हमें उनकी इस हरकते-बेजा की परवाह नहीं है। वह चाहे जो कहें-करें। मगर उन्हें कोई हक नहीं कि कांग्रेस का नाम इस गाली-गलौज में घसीटें। उन्हें याद रखना होगा कि जब खुद कांग्रेस ने हमें और हमारे साथियों को कांग्रेस से हटा देने का ऐलान किया तब भी हमने कोई परवाह नहीं की और न कांग्रेस के मुतल्लिक अपना रुख ही बदला। हमने समझ-बूझ कर वह रुख अपनाया जो है। आज भी हम वही करेंगे चाहे जो हो जाये। फिर रचनात्मक प्रोग्राम तो कांग्रेस नहीं है और न हम इस बात के भूखे हैं कि उसमें ख़ामखाह रहें। एक बात और। किसानों को उस प्रोग्राम में रखे बिना आपका प्रोग्राम ही चौपट होगा। इसलिए उन्हें तो रखना ही होगा। और हमें फुर्सत कहाँ कि रुई धाुनें या चर्खा चलाते रहें? जमींदारी जुल्मों, किसानों की कराहों और आए दिन की उनकी मुसीबतों के खिलाफ लड़ने से फुर्सत भी तो हो।

लेकिन अगर उस प्रोग्राम के भीतर सचमुच किसानों का संगठन भी है जैसाकि ऐलान हो चुका है, तो याद रहे वह तो हम ही कर सकते हैं, पं. यदुनन्दन शर्मा और उनके साथी ही कर सकते हैं। दूसरों से वह हर्गिज होने का नहीं। खासकर जो लोग जालिम जमींदारों के टुकड़ों पर पले हैं और आज भी उन्हीं के पैसे खाकर उन्हीं के साथ कांग्रेस-किसान सभा बनाने का ख्वाब देख रहे हैं उनसे कुछ होने-जाने का नहीं। हाँ, किसान सभा के नाम पर एक महज कागजी घोड़ा दौड़ा कर अपने लीडरों को धाोखे में डाल जरूर सकते हैं। किसान तो उनसे हमेशा भड़कते रहे हैं। आज तो उनका और भी नंगा रूप देखकर दूर भागते हैं, भागेंगे। बाघ की मदद से और उसे ही बगल में रखकर जो लोग बकरियों का संगठन करना चाहते हैं उन्हें पता चलेगा जब मौका आयेगा। वे अक्‍ल और ईमानदारी सीखें। किसानों को चाहे राजनीति की जानकारी उतनी न भी हो, फिर भी इतना तो वह अब बखूबी जान गये हैं कि गाँधी टोपी और खादी पहननेवाले सभी उनके खैरख्वाह नहीं। उनके वाकई मदगार कौन हैं यह भी उन्हें मालूम हो चुका है। इसलिए यह लुक्‍का-चोरी बेकार है। वे लोग इसे छोड़ ही दें तो खैरियत है, नहीं तो वे एक दिन कांग्रेस को भी ले बैठेंगे अपने निजी तुच्छ और नाचीज फायदे के ही लिए। क्योंकि जब कांग्रेस की ओट में रोज-रोज हमें झूठी गालियाँ देते रहेंगे और गिराना चाहेंगे तो आखिर हमें भी बोलना पड़ेगा ही, जवाब देना ही होगा और हमें डर है, खतरा है कि उनकी नालायकी के करते उस झमेले में कहीं कांग्रेस भी खिंच न जाये, जो हम ऐसा हर्गिज नहीं चाहते। इसीलिए हम उन्हें मना करते हैं कि इस हरकत से बाज आयें और अगर उन्हें ऐसा करना ही है तो कांग्रेस का नाम और उसकी ओट छोड़कर साफ-साफ खुद आयें। कांग्रेस लीडरों से भी हम यही प्रार्थना करेंगे कि उन्हें ऐसा करने से रोक दें। नहीं तो जवाबदेही हमारी न होकर उन्हीं की होगी। हम कांग्रेस को बड़ी चीज मानते हैं और उससे उलझना या उसकी शान के खिलाफ कुछ भी होने देना नहीं चाहते। मगर बर्दाश्त की भी कोई हद होती है और हमें किसान सभा का दिवाला नहीं निकालना है।

(शीर्ष पर वापस)

किसान सभा और कांग्रेस

हमने हमेशा कहा है कि गुलामी के खिलाफ हमारे मुल्क की सामूहिक बगावत का बाहरी रूप ही कांग्रेस है। वह हमारी आजादी की भूख और लगन की मूर्ति है। इसीलिए जब तक आजादी नहीं मिलती उसका न सिर्फ कायम रहना, बल्कि मजबूत होना निहायत जरूरी है। भारत की राष्ट्रीयता और कौमियत की जीती-जागती शकल के रूप में कांग्रेस का बरकरार रहना हमारी आजादी के लिए जरूरी है। इसीलिए जब मन्त्रियों के रूप में गद्दी पर बैठने की बात कांग्रेस की ओर से सोची जाने लगी थी तो हमने मुखालिफत की थी। क्योंकि हमें अन्देशा हुआ कि वह अपनी जगह से गिर रही है, गिर जायेगी। गुलाम देश में शासक और हाकिम बनकर वह राष्ट्रीयता की जीती-जागती मूर्ति हर्गिज रह नहीं सकती थी, रह नहीं सकी। इसलिए हमें मन्त्रियों से लड़ना भी पड़ा। वे राष्ट्रवादी की जगह शासक बन कर जो आये। फिर भी न तो हमारी तकलीफ दूर कर सके और न अपने वादे ही पूरे कर पाये, गद्दीनशीन कांग्रेस से ऐसा होना गैरमुमकिन था। हम यही बात पहले कहते भी थे। मगर उनने सुनी नहीं।

मगर उससे पहले और खासकर आज तो कांग्रेस वनवासिनी थी और है। आज तो दर्द से कहना पड़ता है कि जंगल की खाक़ वह छानती फिरती है। आज वह राष्ट्रीयता की असली मूर्ति के रूप में हमारे सामने खड़ी है और दुश्मन उसे मिटाने पर तुला बैठा है। यदि वह मिट गयी तो आजादी के लिए हमारे मंसूबे खत्म हो जायेंगे। अकेली किसान सभा या कोई भी पार्टी और सभा आजादी हासिल कर नहीं सकती। यह पक्की बात है। यह तो कांग्रेस के ही जरिये होनेवाला काम है। यही वजह है कि हम उसे कमजोर होने देना नहीं चाहते। यही वजह है कि हम नहीं चाहते कि मौजूदा हालत में उसके लीडर गन्दी और बदनाम गद्दी पर बैठकर राष्ट्रीयता को कलंकित करें, उस पर धाब्बा लगावें। क्योंकि तब तो वे हमें उनसे लड़ने को मजबूर भी करेंगे जैसाकि पहले किया था। हम जो कभी कांग्रेस से लड़ते और कभी उसका साथ देते हैं उसका भी यही मतलब है। आजादी की लड़ाई में हम हमेशा उसके साथ हैं और इतना तो साफ है कि इसमें हम उसके खिलाफ नहीं जा सकते, उसे कमजोर नहीं बना सकते। इसीलिए जब वह गद्दीनशीन बनती है तो उससे लड़कर उसे बार-बार अपने असली फर्ज की याद दिलाते हैं और कहते हैं कि गद्दी को भूलकर अपने आपको मजबूत करो और किसानों के ऑंसू खुले दिल से पोंछकर उनका दिल जीत लो। यही मौका है। हम आगे भी यही करेंगे। इसलिए जिनका खयाल आज ऐसा है कि हम कांग्रेस की चापलूसी कर रहे हैं उनने हमें न तो पहले पहचाना और न आज। चापलूसी तो हमने जानी ही नहीं, यदुनन्दन शर्मा ने सीखी ही नहीं। हम तो सीधो लड़ना और जीतना या मरना जानते हैं। किसान सभा और किसानों को भी-कार्यकर्ताओं को भी-हमने सदा यही सिखाया है, शान से लड़ना और हक के लिए मरना सिखाया है। हम यह भी मानते हैं कि मुल्क के 80 फीसदी किसान और किसान-सेवक यदि हक के लिए संगठित रूप से लड़ना और मरना सीख जायें तो कांग्रेस की शान चमक उठे और उसकी ताकत के सामने कोई टिक न सके। हमारे जानते आजादी लाने का दूसरा रास्ता है भी नहीं, जबतक बखूबी संगठित किसान सभा के जरिये कांग्रेस शानदार और अजेय कभी न हार सकनेवाली, बना दी जाती नहीं।

(शीर्ष पर वापस)

किसान सभा और कम्युनिस्ट

बदकिस्मती से हमें हमेशा ही पार्टीवालों से लड़ाई करनी पड़ी है। जब तक उन्हें काम निकालना था और वे कमजोर थे चुपचाप पड़े रहे और दीमक की तरह किसान सभा को भीतर-ही-भीतर नीचे-ऊपर चाटते रहे। जब हमें इसका पता चला तो उनसे लड़ना पड़ा। पहले यही हुआ और आज भी यही बात दुहराई जा रही है। पार्टीवाले जाल-फरेब, धोखा-धाड़ी, झूठ-साँच हर तरीके से भुलावे में डालकर अपना काम बनाना जानते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का तो वसूल ही है कि सभी संस्थाओं और जमातों में चाहे जैसे हो घुस कर उन्हें खोखली बनाओ और अपने को मजबूत करो। पार्टीवालों के लिए पार्टी पहले है और बाकी बातें तथा संस्थाएँ पीछे। ऐसी हालत में भला उनके साथ हमारी कब तक निभ सकती थी? जब तक हम उनके भुलावे में रहे, उन्हें परख न सके, उनकी बातों पर यकीन कर सके तभी तक साथ चल सके। सो भी गुजश्ता दो साल के भीतर हमें कई बार खून के आठ-आठ ऑंसू रोने पड़े। हम चाहें कि किसान सभा मजबूत हो, वह चाहें कि पार्टी मजबूत हो। हम कहें कि यह जनता की लड़ाई नहीं है, वह कहें कि ख़ामखाह जनता की लड़ाई है। हम कहें कि लड़ाई के मामले में हमें उदासीन रहना है-न तो इसकी तैयारी की मुखालिफत करनी है और न इसमें मदद ही करनी है,-वह कहें कि सारी ताकत से मदद करनी है। हम कहें कि साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और जमींदारी प्रथा से हमारा समझौता नहीं हो सकता, इसीलिए इन तीनों के खिलाफ नारे जरूर लगें। मगर ऐसा सुनते ही उन पर गोया पाला पड़ जाये और अगर कहीं दबी जबान से मजबूरन उनने ये नारे लगाये भी तो फौरन प्रायश्चित्ता करने की कोशिश की। क्योंकि उन्हें फिक्र है लड़ाई के लिए काफी अन्न और सामान पैदा कराने की। इसी से वे कहीं भी हड़ताल होने देना बर्दाश्त कर नहीं सकते। उन्हें इस लड़ाई के जीतने की फिक्र जितनी है, उतनी आजादी की लड़ाई की शायद ही हो। मगर हमें तो आजादी की ही असल फिक्र है। वे मानते हैं कि फासिज्म के नाश और उसकी हार से साम्राज्यवाद खुद खत्म हो जायेगा। मगर हम ऐसा हर्गिज नहीं मानते। वे मानते हैं कि इस जन-युध्द के जमाने में-क्योंकि वे लड़ाई को जनता का युध्द मानते हैं-किसान सभा का प्रधान काम एक ही है और वह है ज्यादे-से-ज्यादा अन्न पैदा करवाना। बाकी काम इसी के पुछल्ले हैं। मगर हम इसके लिए हर्गिज तैयार नहीं। क्योंकि जब तक किसान सभा का लक्ष्य और मकसद बदल न दिया जाये तब तक तो आजादी हासिल करके कमानेवाली जनता के हाथों में ही सारी ताकत और शासन-सूत्रा सौंपना यही किसान सभा का असली काम है। हम कहते हैं कि पाकिस्तान या अखण्ड हिन्दुस्तान का सवाल गहरा और पेचीदा है। इसलिए इसे कांग्रेस जैसी संस्थाएँ हल करें। हम इसमें पड़कर किसान सभा को चौपट और टुकड़े-टुकड़े न करें। मगर वे इस पर तुले बैठे हैं। उनके लिए मुस्लिम लीग और मिस्टर जिन्ना का कहना सबसे बड़ा है और उसके खिलाफ वे चूँ न करके उसी की वकालत करने में ही फÂ समझते हैं। मगर हम ऐसा मानने करने को तैयार नहीं। वे कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था और महात्मा जी को उसी का लीडर मानते और लिखते हैं। मगर ऐसा खयाल लाते ही हमारे खून में आग लग जाती है। इसी तरह की हजार बातें हैं। फिर हमारी उनसे पटती कैसे? 'जहाँ साँप का बिल, तहीं पूत का सिरहाना'!

सवाल होता है, कई साल कैसे पटी? उत्तार साफ है। जब तक समझ न पाये तब तक करते क्या? कही तो चुके हैं कि उनका तो ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ दूसरा ही है, और भीतरी बात का पता लगाने में ही हमें मुद्दत लगी। पहले भी लोग हमें यही कहते थे। मगर सिर्फ कहने से कैसे मान लेते? हमें तो खुद पूरी जानकारी हासिल करनी थी। वह अब हुई है। कुछ लोग कह बैठते हैं कि बिहार में तो कम्युनिस्ट लोग पूँजीवाद और जमींदारी प्रथा के खिलाफ नारे लगाते ही हैं। फिर यह इलजाम कैसा? मगर इससे क्या? यहाँ तो किसान सभा में उनकी चलती न थी और हम बराबर छाती पर चढ़े रहते थे। मगर पार साल जब हमने और

पं. यदुनन्दन शर्मा ने आन्ध्र (बेजवाड़े) में देखा कि सैकड़ों दूसरे नारों के बावजूद भी ये नारे लापता हैं हालाँकि वहाँ जमींदारी जुल्म बहुत है, और जब हमने यह भी देखा कि 'कमानेवाला खायेगा' का नारा भी वहाँ लापता है, यहाँ तक कि बार-बार कहने पर भी लगाया न गया, तो हम दोनों के दिल फट गये। हमने साफ ही कह दिया कि जमींदारों, पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों के साथ होनेवाली यह आपकी छिपी-छिपायी दोस्ती हमें बर्दाश्त नहीं।

इसीलिए उनके साथ हमारी पट न सकी और उनने बार-बार बगावत की-जी हाँ, किसान सभा के फैसले के खिलाफ बगावत की। बगावत का ताजा नमूना लीजिए। 15 मार्च को बिहार प्रान्तीय किसान सभा ने फैसला किया कि मैमनसिंह में कम्युनिस्ट लोग जो सभा कर रहे हैं वह कायदे के खिलाफ बगावत करके ही। इसलिए बिहार किसान सभा का उससे कोई ताल्लुक नहीं है। यह भी तय हुआ कि स्वामीजी ने कम्युनिस्टों की हरकतों के बारे में पहले जो कुछ भी किया है और आगे भी वह जो कुछ करेंगे, सब ठीक माना जायेगा। स्वामीजी ने भी पीछे खुद ऐलान किया कि मैमनसिंह की सभा में जो जायेगा वह किसान सभा का बागी होगा और सभा से निकाल दिया जायेगा। मगर सुने कौन? बिहार के कम्युनिस्टों ने सारी ताकत लगा दी कि वे खुद वहाँ जायें और गैर-कम्युनिस्टों को भी ले जायें! यह तो बगावत का ताजा नमूना है। नतीजा साफ है। बिहार-भर में किसी भी किसान सभा में अब कम्युनिस्ट रह न गये। वे खुद निकल गये! यही नहीं, भारत के दूसरे सूबों में भी वे निकल गये। निकाल दिये गये और उनने बागी किसान सभा बना ली, ऐसी सभायें वे बनायेंगे। चलो अच्छा ही हुआ और हमारी किसान सभा का उनसे पिण्ड छूटा। पहले तो हमने चाहा था कि जब आल इण्डिया किसान सभा में उनका बहुमत है तो हम इस्तीफा देकर खुद अलग हो जायें। खबर भी निकाली कि हमने इस्तीफा देने के लिए तय किया है। इस्तीफा दे देने की जो खबर कहीं-कहीं छपी वह तो गलत थी। ऐसा ऐलान हमने कभी न किया। इसी के साथ ही हमने जनरल सेक्रेटरी वगैरह के खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही करके उन्हें मुअत्ताल कर दिया और सभा का सारा प्रबन्धा अपने हाथ में ले लिया। उन लोगों ने जान-बूझकर सभा के फैसले को बार-बार तोड़ा था, क्योंकि वह कम्युनिस्ट पार्टी के फैसले के खिलाफ था। बस, उनने बगावत कर दी और अखबारों में हमें भला-बुरा तो कहा ही। कार्यकारिणी की मीटिंग भी जनरल सेक्रेटरी ने खुद बुला ली। हालाँकि हमने रोका कि उन्हें हक नहीं कि ऐसा करें। मगर सुने कौन? बहुमत पर फूलकर उनने ऐसा किया और एक प्रस्ताव हमारे खिलाफ पास किया जिसमें सरासर झूठी बातें लिख दीं। आज भी मैं उन्हें ललकारता हूँ कि वे बातें साबित करें। पार साल मैंने आन्ध्र किसान सभा के खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही की थी और कार्यकारिणी ने पटने में बैठ कर मेरी बात ठीक ठहरायीं और प्रस्ताव पास किया। मगर इस बार के प्रस्ताव में उनने कह डाला कि कार्यकारिणी ने ऐसा नहीं माना! इस तरह जीती मक्खी क्या, जीता ऊँट निगलने की कोशिश की गयी। पारसाल का प्रस्ताव तो रिपोर्ट में छपा है। इसी तरह उनने झूठा ही कहा कि इधार लोगों को मुअत्ताल करके मैंने उधार खुद इस्तीफा दिया और सारा काम चौपट कर दिया। क्या वे लोग मेरे इस्तीफे की नकल पेश कर सकते हैं कि वह कैसा है? उन्हें इस्तीफा मिला कैसे? मिलता भी कैसे? फिर भी झूठी बातें कहने में हिचक नहीं।

कायदा-कानून का वाहियात पचड़ा खड़ा करना फिजूल है। उन लोगों ने खुद उसे ताक पर रख कर ही कार्यकारिणी की बैठक की। आजतक सभापति की राय के बिना मन्त्राी ने कभी बैठक नहीं बुलायी। और जब मन्त्री मुअत्ताल थे तब तो वे और भी ऐसा नहीं कर सकते थे। वे गलती से मुअत्ताल किये गये या सही, यह तो मीटिंग में ही तय होता न? फिर उनने पहले ही क्यों हुक्म नहीं माना और मान लिया कि सभापति ने गलत किया? अगर सभापति पर तानाशाही का इलजाम है तो ऐसा करके वे खुद तानाशाह क्यों बन बैठे? या कि 'खुदरा फजीहत, दीगरेरा नसीहत' बात भी क्या थी? वे सभापति को कहते कि बैठक बुलाइये और मैं वैसा कर देता। क्योंकि मैंने तो तय कर ही लिया था कि बाकायदा चार्ज देकर अलग हो जाऊँगा। और अगर मैं मीटिंग न बुलाता तो उन्हें आजादी थी चाहे जो भी उचित होता करते और किसी को बोलने का हक भी न रहता। मगर पाप का घड़ा फूटना था जिससे बहुमत के घमण्ड में उनने कायदे-कानून को लात मारी। फिर मेरे लिए लाजिमी था कि ऐसे करनेवालों और उनके मददगारों को बागी करार देकर आल इण्डिया किसान सभा से निकाल बाहर कर दूँ। मैंने ऐसा कर भी दिया है। अब तो जो लोग और जो प्रान्तीय किसान सभाएँ खुला ऐलान करें कि वे कम्युनिस्टों की उस बगावत की निन्दा करते हैं और उनके साथ नहीं हैं वही आल इण्डिया किसान सभा, प्रान्तीय किसान सभाओं या दूसरी सभाओं में रहने पायेंगे, लिए जायेंगे। दुनिया जल्द देखेगी कि ऐसी सभाएँ प्रान्तों में पायी जाती हैं जो ऐसा ऐलान कर चुकी हैं या करने को तैयार हैं।

मुझे हँसी आती है और शर्म भी मालूम पड़ती है जब मैं देखता हूँ कि मैमन सिंह (नेत्राकोना) में जो बागियों ने सभा की है और जिसे आल इण्डिया किसान सभा नाम दिया है उसके सभापति वहीं के कम्युनिस्ट लीडर श्री मुजफ्फर अहमद हैं, जो दरअसल स्वागत-कमेटी के ही सभापति या चेयरमैन थे। बराबर यही छपता था। यह तो अजीब बात है कि कम्युनिस्टों को दूसरा सभापति मिल न सका। फिर भी डींगें हाँकते हैं। सभापति जी ने फरमाया है कि स्वामीजी ने समूची किसान सभा के खिलाफ लड़ाई का ऐलान किया है। क्या खूब! कम्युनिस्टों के खिलाफ जो ऐलान है उससे किसान सभा से क्या ताल्लुक? मगर यह तो उनकी आदत ही है कि जहाँ वह रहें वह चीज उनकी पार्टी से अलग रहती ही नहीं, कम से कम उनकी नजरों में। इसीलिए पार्टी के खिलाफ बोलना खुद उस चीज की ही मुखालिफत वे मान बैठते हैं। आदत से लाचार जो ठहरे। किसान सभा के खिलाफ जेहाद तो उनने बोल दिया है, बगावत तो उनने की है। यह तो 'उलटे चोर कोतवाले डाँटे' वाली बात हुई! कम्युनिस्टों ने ही बार-बार बगावत करके और सभा के फैसलों को न मानकर इसे छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की है और यह उनकी आखिरी कोशिश थी। उन्हें फिक्र थी और है कि किसान सभा में उनका बहुमत बना रहे, फिर चाहे दूसरे दल के लोग इसमें आयें या अलग सभाएँ बनायें और इस तरह हमारी सभा चौपट हो, इसकी परवाह उन्हें कतई नहीं। उनकी इन सारी हरकतों के कागजी सबूत मेरे पास मौजूद हैं जो मौके पर लोगों के सामने आयेंगे। ऐसी हालत में गुनहगार वे हैं, न कि मैं। फिर मैं क्यों अफसोस जाहिर करूँ और बागियों की सभा में जाऊँ। यह तो उनका काम है कि अफसोस जाहिर करें, प्रायश्चित्ता और तौबा करें और आगे फिर ऐसा न करने का पक्का वादा करके असली किसान सभा में दाखिल हों जिसका सभापति अभी तक मैं ज्यों का त्यों बना हूँ। अब तो इस्तीफा देने का सवाल ही नहीं है।

(शीर्ष पर वापस)

किसान सभा और लड़ाई

लड़ाई के बारे में किसान सभा का क्या रुख है यह तो मैं कही चुका हूँ। न तो हम उसके खिलाफ ही कुछ बोलते हैं और न मदद ही करते हैं। जो मदद करे उसे हम रोकते भी नहीं हैं। सरकार को हमारी मदद की परवाह दरअसल है नहीं। उसका काम तो यों ही बखूबी चलता है। फिर परवाह क्यों करे? और तब हम ख़ामखाह 'दही लो' करते क्यों फिरें? इसमें अक्लमन्दी भी क्या है? हम तो जनता को तैयार करके ही लड़ाई में मदद कर सकते हैं। मगर जब तक यहाँ जनता की अपनी सरकार न हो जनता का दिल इस काम में लगे कैसे? उसे तो उलटे गुस्सा है जो अपनी जगह पर जायज है। फिर हम उसे इस काम के लिए तैयार करें तो कैसे? इसी से चुप रहे और जनता से साफ ही कहा कि गुस्से को पी लो तभी खैरियत है। उसे बाहर लाने में खतरा-ही-खतरा है। सो तो 1942 के अगस्त के बाद लोगों ने देख ही लिया कि हमारा कहना कितना दुरुस्त था।

और अगर आज कोई लड़ाई के कामों की मुखालिफत करे भी तो क्या होगा? यह तो निरी नादानी होगी और अपना ही पाँव कटेगा। हाँ, दो-तीन साल पहले मुखालिफत के मानी कुछ जरूर थे। मगर सिवाय इसके कि सरकार की उससे कुछ दिक्कतें बढ़ गयीं, हमें क्या मिला? मिल भी क्या सकता था? अगर हम मुखालिफत में कामयाब हो जाते और सरकार पस्त हो जाती तो हमें क्या मिलता? जापान या हिटलर यहाँ आ धामकता और हमारी छाती पर कोदों दलता। हमारे पास क्या था कि अपनी सरकार, स्वराज्य सरकार, यहाँ बना लेते? और अगर सरकार नहीं पस्त होती जैसाकि हुआ है, तो हम खुद तबाह होते और आज तो यह तबाही और पस्ती साफ ही है। इसी से किसान सभा ने इस मामले में चुप्पी साधा ली। आज तक की बातों ने साफ बता दिया है कि हमारा रास्ता सही था।

(शीर्ष पर वापस)

निराशा की बात नहीं

मगर मौजूदा पस्ती देखकर हमें नाउम्मीद होने का कोई सवाल नहीं है। देर जरूर हुई और मौके पर हम चूके जरूर। मगर इसके यह मानी हर्गिज नहीं कि हमारी गुलामी ज्यादा दिन टिकेगी। यह नहीं होने का। लड़ाई के खत्म होने पर उसके नतीजे के रूप में ऐसी ताकतें पैदा होकर ही रहेंगी जिनका पता हमें नहीं है। मगर जो हमें आजाद करके ही दम लेंगी। पहली लड़ाई के बाद भी यही हुआ और हमारे मुल्क ने 1919 से लेकर 1936 तक करामात कर दी। साम्राज्यवाद से रह-रह कर ऐसा लोहा लिया कि कुछ कहिये मत। किसान सभा जैसी ताकतें भी उसी के बाद पैदा हुईं। हमारा सर भी ऊँचा उसी के बाद हुआ। हमारी झुकी गर्दन और रीढ़ की टेढ़ी हड्डी उसी के बाद सीधी हुई जिससे हम सीना तानकर ऊँचे सर के साथ खड़े हो सके। अब तो उस सर पर सिर्फ ताज चढ़ना बाकी है। तो क्या इस लड़ाई के बाद इतना भी न होगा? होगा और जरूर होगा। मगर इसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि अब हमें सम्राज्यवाद से लोहा लेना न होगा और यों ही ताज मिलेगा। लोहा तो लेना ही होगा और वही ताकत लड़ाई के बाद ऊपर होगी। एक बात और-रूस, चीन और भारत का गठजोड़ा है। तीनों एक साथ मिल जाते हैं। नक्शा देखिये। यह भी सही है कि रूस और चीन अपने घर के मालिक हैं। चीन में जो कसर थी वह पूरी हो रही है। दोनों देशों के पंचायती राज्य या किसान-मजदूर राज्य का असर हम पर पड़कर ही रहेगा। वहाँ की आजाद हवा को हिमालय की बर्फीली चट्टानें और एवरेस्ट की चोटी भारत में आने से रोक नहीं सकती। नतीजा होगा कि वह हमें भी गुदगुदा के तैयार करेगी, हम एकबार फिर सीना तान कर खड़े होंगे और आजाद होकर ही साँस लेंगे, सो भी जल्द, बहुत जल्द, इतना जल्द कि बहुतों को इसका खयाल भी न होगा।

(शीर्ष पर वापस)

किसान सभा का काम

हमारा लक्ष्य वही किसान-मजदूर राज्य है जिसे दरअसल पंचायती राज्य कहते हैं। उसमें कोई भी मेहनत करनेवाला फिर चाहे वह किसान हो, मजदूर हो, छोटी-मोटी दुकान या कारोबार करनेवाला हो, किरानी या मास्टर हो, तकलीफ में न रह कर पूरे आराम से जिन्दगी गुजारेगा। उसे आराम के सभी सामान मिलेंगे और बिना थोड़ा-बहुत काम किये किसी को भी मुफ्त खाने-पीने की इजाजत न होगी। सारांश, सभी लोग कमबेश काम करेंगे जो जैसा कर सके और सभी पूरे आराम से स्वर्ग और बिहिश्त की जिन्दगी बितायेंगे। इसमें धार्म-मजहब या जात-पात का सवाल भी न रहेगा। क्योंकि काम और भूख में, बीमारी और दवा में, लाज-शर्म और तन ढँकने में इनकी गुंजाइश है कहाँ! ये बातें तो सबों में बराबर होती हैं और खाना, कपड़ा दवा वगैरह सबों को ही चाहिए। इसीलिए सभी धार्म-मजहब और जात-पाँतवाले मिलकर इसके लिए लड़ेंगे। क्योंकि बिना ऐसा किये हमारी जीत न होगी, पंचायती राज्य कायम होगा नहीं। किसान सभा का काम यही है कि सभी लोगों के दिलदिमाग में यही बातें भरें। जब तक हम ऐसा न कर दें तभी तक देर है।

इसी की तैयारी में हमें जमींदारों और साहूकारों के, उनके अमलों के जुल्मों के खिलाफ बराबर लड़ते रहकर किसानों को आराम पहुँचाना है और इस तरह उनमें यकीन पैदा करना है कि किसान सभा उनकी अपनी चीज है और बिना उसकी बात माने और उसे अपनाये-उसका मेम्बर सभी बालिग मर्द-औरतों के बने-कल्याण नहीं, निस्तार नहीं, खैरियत नहीं। उनके दिल में इस तरह यह बात बैठा देनी है कि उनके उध्दार का दूसरा रास्ता है नहीं। इसीलिए जो लोग हल चलाते, अपने हाथों खेती का सारा काम खुद करते और दूसरों के यहाँ करते हैं वही हमारी, समाज की, किसान सभा की रीढ़ हैं, जड़ हैं। उनके बिना किसी का भी काम चल सकता है नहीं। फिर भी उनके मुतल्लिक समाज में बड़ी भारी लापरवाही है। वे नीचे पड़े कराह रहे हैं और उनका पुर्साहाल कोई नहीं! जिनके बिना सारी खेती बन्द, सारा कारबार बन्द, उन्हीं की खबर लेनेवाला कोई नहीं? वही नीच और छोटे गिने जायें? वही अपमानित होते रहें? यह पागलपन नहीं तो और क्या? अपने ही हाथ, पाँव की खबर न लेना यही तो है। फिर उनमें बीमारी होगी, काँटे चुभेंगे, साँप, बिच्छू डसेंगे, दुश्मन चोट करेंगे और हम मर जायेंगे, सारा समाज मर जायेगा, सारा मुल्क मर जायेगा। हो भी यही रहा है। हमारी गुलामी की यही वजह है। जमींदार, साहूकार, उनके अमले, पुलिस और सरकारी अफसर जो आज हमें तरह-तरह से दबाने की हिम्मत करते हैं, दबाते हैं, बिना ताकत के हैं। हरी बेगारी, रसीद न देने, फसल को खेत में ही बर्बाद करवाने, दानाबन्दी और मुकत्ता फिर जारी करने, सेविंग सर्टिफिकेट के नाम पर जोर-जुल्म और धाँधली चालू करने की असली वजह यही है। किरासन तेल, चीनी, कपड़ा, नमक वगैरह कतई न मिलने या मुनासिब दाम पर भी न मिलने की वजह भी यही है कि हमारे हाथ-पाँव सड़-कट गये हैं, हम कुछ कर सकते नहीं, कर पाते नहीं। हममें हरेक को सिर्फ अपनी फिक्र है! इसी से 'घर फूटे गंवार लूटे' हो रहा है।

किसान सभा का यही काम है कि इन नीचे पड़े लोगों की झाड़पोंछ करे, उन्हें उठाये और सँभाले, उनके लिए खासतौर से लड़े और बाकी लोगों को, कमानेवाले सभी किसानों को समझाये कि अपनी भूल सुधारें और सबों को भाई-भाई की तरह साथ लेकर आगे बढ़ें। तभी सबकी तकलीफें दूर होंगी। रेवड़ा में जब जगदीशपुरवाले रजवार और दूसरे लोग जो नीचे पड़े थे, बाभन और दूसरों से मिले हैं तब कहीं जा कर साम्हे के जमींदार को होश हुआ है कि मामला बेढब है। नहीं तो वह सबों को आपस में लड़ाकर उल्लू बना रहा था। यही बात सर्वत्रा होगी, होनी चाहिए। तभी इनकलाब होगा, जमींदारी प्रथा का नाश होगा, पूँजीवाद का नाश होगा, साम्राज्यवाद का नाश होगा, पंचायती राज्य कायम होगा और कमानेवाला खायेगा, इसके चलते जो कुछ हो।

किसान सभा जिन्दाबाद!

नोट-इस भाषण में कम्युनिस्ट पार्टी से स्वामी जी के और किसान सभा के मतभेद खुलकर आये हैं। स्वामी जी वर्ग संघर्ष तक ही माक्र्सवादी थे। गातीधर्म, राष्ट्रवाद, किसान हित पर स्वामी जी किसी से समझौता नहीं कर सकते थे। स्वत्व में समष्टि के हित के लिए अस्तित्व की तलाश स्वामी जी की अवधारण थी जब कि कम्युनिस्टों को निर्देश बाहर से प्राप्त हो रहे थे। वे किसी कीमत पर संघर्ष को विराम देने के पक्ष में न थे-सम्पादक

(शीर्ष पर वापस)

 

 

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.