किसान बंधुओं,
आज जब हम यहाँ जमा हैं, दुनिया का नक्शा तेजी से बदल रहा है। एक ओर तो
कितने ही देश, जो नात्सी शिकंजे में जकड़े थे, फिर भी सिर्फ आजाद ही नहीं हो
गये और हो रहे हैं( बल्कि उनमें ऐसी सरकारें कायम हो रही हैं, जो सचमुच ही
जनता की सरकारें हैं और जिनकी जिन्दगी, जिनका अस्तित्व केवल जनता के ही लिए
है, शोषितों तथा पीड़ितों के लिए ही है। यही तो आम जनता की असली आजादी है और
अब यही दुनिया के बहुत बड़े भाग में कायम हो चुकी, हो रही है। दूसरी ओर
सदियों से विदेशियों के पाँवों तले रौंदा-कुचला चीन, जिसे जापान हजम करना
चाहता था, आज संसार की बड़ी ताकतों में गिना जाने लगा है, गिना जाने को है।
उसका नीचे दबा सीना और सर आज पूरी तरह ऊँचे उठा है। जो लोग चीन को लकीर का
फकीर और हिजड़ों का देश मान बैठे थे, जिसमें देशप्रेम और मुल्क की आजादी की
लगन का पता आमतौर से पाया ही न जाये, वही आज उसकी न सिर्फ बहादुरी की
वाहवाही कर रहे हैं, बल्कि उसे सर-ऑंखों पर रखने को तैयार हैं। सारांश यह
कि दुनिया की हवा ही आज पलट गयी है और सभी जगह एक निराली ही समा नजर आ रही
है, निराला दृश्य ऑंखों के सामने है। सभी देश लड़ाई खत्म होते ही अपने-अपने
मुल्कों की खेती-बारी, तालीम और कल-कारखानों को तरक्की की आखिरी मंजिल पर
ले जाने की सोच रहे हैं।
मगर हमारा क्या हाल है? हमारे मुल्क की क्या दशा है? हम तो वहीं पड़े कराह
रहे हैं, जहाँ पहले थे और कोई ऐसा सामान नजर नहीं आ रहा है, जिससे फौरन
आजाद होकर बाकी मुल्कों के मुकाबले में हम भी जा खड़े हों। हमारे नेता और
रहनुमा जेल के सीखचों में बन्द हैं और आजादी के दीवाने हजारों जवान, हजारों
मर्द, औरतें, बच्चे, बूढ़े जेलों में सड़ाये जा रहे हैं। कितने ही गोलियों के
शिकार हुए और तख्ते पर झुलाये गये और बहुतेरे अपनी आखिरी घड़ियाँ गिन रहे
हैं! उनका कसूर क्या है? यही न, कि वे अपने मुल्क को प्यार करते हैं और
उसके लिए सब कुछ कुर्बान करने को, त्याग करने को तैयार हैं, तैयार थे? मगर
क्या यह भी कसूर है? यदि कुर्बानी और त्याग की यह लगन लोगों में न होती, तो
क्या इस लड़ाई में अंग्रेजी सरकार और उसके साथी आज जीतते नजर आते? उन देशों
में तो लोगों में यही लगन पैदा की जाती है। नहीं-नहीं यहाँ भी हमारे आक़ा और
शासक यह लगन पैदा करने में लगे हैं। मगर शायद वह दूसरों की ही आजादी के लिए
है, याकि भारत में विदेशी शासन और शोषण कायम रखने की आजादी के लिए हैं-कौन
बतायेगा?
इतना ही नहीं। शासकों का माथा भी फिरा नजर आता है। वह हमारी एक भी बात
सुनने को रवादार नहीं है। ऐसी-ऐसी बन्दिशें हो रही हैं कि हमारी बेड़ियाँ
टूटने न पायें, बल्कि और भी कस दी जायें। यह लड़ाई भले ही लम्बी मुद्दत तक
जारी रहे और मित्रा-पक्ष के धान-जन का संहार होता रहे-यह बर्दाश्त है। मगर
भारत के नेताओं और रहनुमा लोगों से मिलकर ऐसी सरकार यहाँ कायम करना, जो
भारतीय जनता की अपनी हो, जिसके इशारे पर यहाँ के लोग जापान या जर्मनी के
खिलाफ कट-मरने को तैयार हों और इस तरह इस लड़ाई को जल्द-से-जल्द खत्म कर
दिया जाये, हमारे मालिकों को पसन्द नहीं! हम और हमारे नेता, जो बाहर हैं या
जेलों में बन्द हैं, इस लड़ाई को सचमुच भारतीय जनता की लड़ाई बना देना चाहते
हैं और उसी का रास्ता बताते हैं। मगर हमारे प्रभुओं को यह रास्ता कबूल नहीं
है। वे इसे साम्राज्यवादी लड़ाई ही बनाये रखना चाहते हैं। वे हर्गिज सोचने
को भी तैयार नहीं कि इस लड़ाई के बाद साम्राज्य का खात्मा होगा। वे तो उलटे
साम्राज्य की मजबूती पर तुले बैठे हैं। वह यह भी चाहते हैं, कि चाहे जैसे
हो, कांग्रेस का खात्मा हो जाये। हमारी राष्ट्रीय और कौमी ताकत को मटियामेट
करने के लिए हजारों तरीके सोचे जा रहे हैं।
ऐसी हालत में हमारी आजादी चाहनेवालों की जवाबदेही हजार गुना बढ़ गयी। हमें
फूँक-फूँक के पाँव देना होगा। हम न ऐसा एक शब्द बोलेंगे और न काम करेंगे,
जिससे हमारी आजादी के दुश्मन का हाथ मजबूत हो, उनके मंसूबे बढ़ें। ऐसा करना
तो दुश्मनों के हाथ में खेलना होगा। मैं मानता हूँ कि अपने मकसद और लक्ष्य
को न पाकर हारनेवाली फौज के सिपाहियों में जो आपसी तू-तू, मैं-मैं होती है,
कुछ वैसी ही हालत हमारी हो रही है। दुश्मन से पार न पा सकने का गुस्सा हम
आपस में ही निकाल रहे हैं। ऐसे मौके पर हम आपसी कमजोरियों को देखें और आगे
उन्हें निकाल फेंकने की कोशिश करें, यह तो ठीक ही है। मगर देखना यह है कि
आया हम इससे आगे तो नहीं जा रहे हैं। मेरा खयाल है कि हम आगे जा रहे हैं और
जरूरत से ज्यादा आगे के लिए हिफ़ाजत और एहतियात कर रहे हैं। हम भूल रहे हैं
कि गुलाम मुल्क में आजादी की लड़ाई का संयुक्त मोर्चा बड़े-से-बड़ा और
चौड़े-से-चौड़ा होता है, होना चाहिए। तभी आजादी मिलती है। हम क्यों नहीं
देखते कि फासिस्ट और नात्सी ताकतों के खिलाफ ऐसा संयुक्त मोर्चा आज बना है
कि जिसमें दोनों ध्रुव मिले हुए हैं, परस्पर विरोधाी ताकतों का जमावड़ा है।
जो मि. चर्चिल साम्यवाद के जानी दुश्मन हैं, उन्होंने न सिर्फ उसके पेशवा
और आचार्य से गठजोड़ा किया है, बल्कि कई बार वही मास्को की तीर्थयात्रा तक
कर आये हैं! आखिर इसकी वजह क्या है? यही न, कि इंगलैंड और सोवियत रूस दोनों
ही की आजादी खतरे में थी, दोनों ही की सत्ता और हस्ती मिटने ही वाली थी,
अगर वे ऐसा न करते? फिर हमें गुलाम बनानेवाले मि. चर्चिल से ही हम क्यों न
इस मामले में सबक सीखें? जब वे इस संयुक्त मोर्चे के बल पर विजयी बनकर हमें
दबाये रहना चाहते हैं, तो हम भी उन्हीं के रास्ते से उनसे क्यों न भिड़ें?
और नहीं, तो कांग्रेसजनों को इस बात पर खूब ठण्डे दिलदिमाग से कम-से-कम गौर
तो करना चाहिए, केवल इसके कि वे कोई फैसला करें। अभी भी बहुत देर नहीं हुई
है। वे सोचें-विचारें, तो सब ठीक ही होगा।
मगर किसान सभावादियों कार् कत्ताव्य तो साफ है। हमें तो मुल्क में किसान-
मजदूर राज्य कायम करना है, कमानेवालों की हुकूमत कायम करनी है-उनकी हुकूमत,
जो कुछ-न-कुछ काम करके ही खाना-पीना चाहते हैं, खाते-पीते हैं, न कि
निठल्ले बैठकर मुफ्त का माल उड़ाते हैं, उड़ाना चाहते हैं। यह भी पक्की बात
है कि बिना अंग्रेजी राज्य यहाँ से हटे किसान-मजदूर राज्य कायम हो नहीं
सकता, और इसे हटाना किसान सभा या किसी एक पार्टी के बूते के बाहर की बात
है। यह काम तो सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है-वही कांग्रेस, जिसे हम सबों ने
बनाया है और जिसकी आजादी की लड़ाई में हम सभी साथ देने को तैयार हैं। इसीलिए
उसमें उन सभी लोगों और दलों की गुंजाइश है और होनी चाहिए, जो मुल्क को
जल्द-से-जल्द आजाद देखना चाहते हैं। कांग्रेस और कुछ नहीं है, सिवाय गुलामी
के खिलाफ मुल्क की बगावत और प्रतिज्ञा की मूर्ति और प्रतीक के-यह हमें
भूलना चाहिए नहीं। इसलिए हमें कदम-कदम पर सोचना होगा कि हमारी कोई बात या
काम उसे कमजोर तो नहीं कर रहा है। क्योंकि ऐसा बोलने और करने पर हम आजादी
के पक्के पुजारी रह नहीं जायेंगे। वह किसी की निजी चीज नहीं है, किन्तु
मुल्क की चीज है। ऐसी हालत में अगर दूसरे लोग अपने किसी काम से उसे धाक्के
लगायें, तो गुस्से में आकर हम ऐसा हर्गिज न करेंगे, यह याद रहे। आखिर
गरीबों को स्वराज्य की सबसे ज्यादा जरूरत है और किसान-मजदूर ही सबसे गरीब
हैं।
ऐसी हालत में जो लोग कहते हैं कि किसान सभा कांग्रेस या आजादी की लड़ाई की
दुश्मन है, उनपर हमें हँसी आती है। यह तो उलटी बात है। ऐसे लोग बातें भले
ही बनायें, मगर एक भी मिसाल ऐसी पेश नहीं कर सकते, जिससे यह इल्जाम साबित
हो। अपने जन्म के ही समय प्रां.कि. सभा का प्रस्ताव था कि राजनीतिक बातों
में यह कांग्रेस की घोषित नीति के विरुध्द न जायेगी। इसे हमने बराबर पालन
किया है। चुनावों में तो हमने कांग्रेस के लिए सबकुछ किया। लाहौर कांग्रेस
के बाद सभा का काम ही बन्द करके हम स्वातन्त्रय-संग्राम में कूद पड़े।
इसीलिए ऐसों पर हमें कभी-कभी गुस्सा आता है और वह मुनासिब भी है। मगर उस
गुस्से में हम रास्ता हर्गिज न छोड़ेंगे। कहनेवाले कह डालते हैं जरूर, कि
किसान सभा तो इस लड़ाई को जनता की लड़ाई मानती है, कहती है और इसीलिए इसमें
मदद करती है। जबान तो उनकी ठहरी और उस पर ताला भी तो लगा नहीं है। फिर जो
चाहें, कह डालें। फरमा डालें। लेकिन अगर चाहते हैं सुनना, तो सुन लें।
किसान सभा ने शुरू से ही इस लड़ाई को साम्राज्यवादी माना है और उसका यह रुख
कभी बदला नहीं है, आजतक कायम है। हाँ, सोवियत रूस जब इसमें पड़ा, तो सभा ने
सिर्फ इतना ही कहा कि अब इस लड़ाई का महत्तव बदल गया इसकी अहमियत बदल गयी।
जहाँ पहले इसका नतीजा सिर्फ साम्राज्यवाद की तरक्की होती, तहाँ अब रूस के
पड़ जाने पर साम्राज्यवादियों का मजा किरकिरा हो गया और आजादी-पसन्द ताकतों
का सर ऊँचा हुआ। तो क्या सभा का वह कहना गलत है? आज तो साफ ही देख रहे हैं
कि साम्राज्यवादियों का बुरा हाल है। सभा ने यह भी कहलवा दिया था कि
साम्राज्यवादी लोग तो फिर भी चाहेंगे कि लड़ाई के बाद उनका साम्राज्य
फले-फूले ये सारी बातें हमारे प्रस्तावों में साफ लिखी हैं, कोई छिपी-छिपाई
बात नहीं है। सभा ने तो यह भी साफ ही कह दिया है कि हम भारतीयों के लिए यह
अपनी लड़ाई तभी हो सकती है, जब इसे राष्ट्रीय सरकार चलाये-वह सरकार, जिसे
सभी लोगों का, जनता का खुशी-खुशी दिली सहयोग हासिल हो। हमने बिहटा के
अधिावेशन में तो यहाँ तक कह दिया कि बिना राष्ट्रीय सरकार के इस मुल्क की
हिफाजत हर्बा-हथियार से बखूबी की जा सकती है नहीं। यह तो वही सरकार कर सकती
है। फिर हम पर इल्जाम कैसा? यह ठीक है कि अगर हमने इस लड़ाई में मदद नहीं की
है, तो उसका विरोधा भी नहीं किया है। हम बराबर तटस्थ रहे हैं और हैं(
क्योंकि अगर हम मौजूदा गुलामी से ऊबे हैं और इससे फौरन से पेशतर पिण्ड
छुड़ाना चाहते हैं, तो जापानी या हिटलरी गुलामी कैसे पसन्द कर सकते हैं? और
हमने, गलत या सही, यही तय किया है कि तटस्थता के अलावे मदद या विरोधा करने
के मानी मौजूदा हालत में यही हो जाते हैं कि हम दो में एक गुलामी को, अनजान
में ही सही, पसन्द करते और तरजीह देते हैं-यह हमारा पक्का निश्चय है।
गुलामी बहुत ही अखरनेवाली चीज है, फिर चाहे वह पुरानी अंग्रेजी गुलामी हो,
या नयी ताजा जापानी और हिटलरी। अगर हम यह सपने में भी खयाल तक नहीं कर सकते
कि हमारे किसी काम से अंग्रेजी गुलामी यहाँ टिके या मजबूत हो( इसीलिए इसके
खिलाफ लड़ते हैं, तो हम ऐसा कोई भी काम कैसे कर सकते हैं, जिससे जापानियों
की हिम्मत हो कि इस मुल्क पर हमला करे और अंग्रेजों के बजाय वही हमें गुलाम
बनाये? यही है रहस्य लड़ाई के कामों के खिलाफ हमारे कुछ भी न कहने-करने का
और यही है हमारी तटस्थता के मानी।
कहा जाता है कि किसान सभा तो तिरंगे झण्डे को छोड़कर रूस का लाल झण्डा मानती
है और उसकी नीति भी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में है। मगर यह बात भी सरासर
गलत है। अब तक हम मानते हैं कि तिरंगा झण्डा हमारी आजादी की लड़ाई का निशान
है। इसलिए हम उसे फहराने और उसकी इज्जत करने के साथ ही हमें किसान-मजदूरों
के अपने खास निशान के रूप में लाल झण्डे को अपनाना चाहिए। तिरंगा सारे
मुल्क का झण्डा है और लाल झण्डा सिर्फ किसान-मजदूरों का। अगर आज हम यहाँ
उसे देख नहीं रहे हैं, तो इसलिए नहीं कि किसान सभा ने उसे छोड़ दिया है।
नहीं-नहीं, ऐसा हर्गिज नहीं है। हम बराबर उसे मानते और उड़ाते हैं। आज तो वह
लहराता नजर नहीं आता है सिर्फ इसीलिए कि बिहार सरकार ने ऐसे मौकों पर उसका
लहराना गैर-कानूनी करार दे दिया है। इसीलिए जब तक कानून तोड़ने को आमादा न
हों, तब तक कोई कांग्रेसजन भी अपनी मीटिंगों में उसे फहरा नहीं सकते।
कम्युनिस्ट पार्टी की नीति की भी बात ऐसी ही है। किसान सभा की नीति पहले ही
बतायी गयी है और वह स्वतन्त्रा है। उस पर किसी पार्टी की मुहर नहीं है और न
हो सकती है। वह तो साफ है और उस पर किस कांग्रेसजन या राष्ट्रवादी को उज्र
होगा? पाकिस्तान के मामले में भी किसान सभा चुप है और उसे कांग्रेस पर छोड़
दिया है। फिर सभा पर किसी पार्टी की नीति के लादने का क्या सवाल?
अब सवाल है किसानों में काम करने का। अगर कांग्रेसजन स्वतन्त्रा रूप से
उनमें काम करें, कांग्रेस के ही नाम में, तो इसमें उज्र किसे होगा? किसानों
की तकलीफें इतनी हैं और जमींदारी जुल्म इतने बढ़े हैं कि जितना भी काम किया
जाये, थोड़ा ही है। मगर याद रहे, काम असली हो, ठोस हो, न कि दिखावटी। यह भी
लोग न भूलें कि ठोस काम शुरू होते ही जमींदार नंगे रूप में आ जायेंगे और
कांग्रेस-वांग्रेस किसी की एक भी न सुनेंगे। कुछ कांग्रेसजनों ने किसानों
में प्रचार शुरू किया है कि किसानों के अधिाकार कौन-कौन से हैं, जिन्हें
कांग्रेसी मन्त्रिायों ने दिलाया है। अच्छा है, प्रचार करें। मगर वे जान
लें कि इस प्रचार की जरूरत है नहीं। यह तो किसान बखूबी जानते हैं। हमने
क्या अब तक यह प्रचार भी नहीं किया है? जरूरत है उन हकों को दिलाने की।
क्योंकि कानूनी होने पर भी जमींदारों ने उन हकों को जबर्दस्ती किसानों से
छीन रखा है। जब आपने प्रचार शुरू किया, तो याद रहे, उनके लिए लड़ना भी
होगा-सो भी जमकर। नहीं तो, जमींदार माननेवाले नहीं। और अगर आपने यह लड़ाई
सचमुच लड़ी, तो फिर जमींदार कांग्रेस के जानी-दुश्मन होकर ही रहेंगे, यह भी
न भूलिए। फिर तो आप हमारे ही, किसान सभा के ही, साथी बन जायेंगे। देखिये न,
मुंगेर जिले में ही बड़े-बड़े जमींदारों का अड्डा है और वे क्या कर रहे हैं?
एक-दो नमूने लीजिए। श्री देवनन्दन बाबू बड़े जमींदार हैं और शेखपुरा थाने का
इलाढ़ा मौजा उन्हीं का है। वहाँ आहर पर पचीस सौ रुपये की मिट्टी दिलाने का
हुक्म डिप्टी साहब ने दिया था। जमींदार ने एक महीने की मुहलत ली। फिर भी
मिट्टी न पड़ी। तब उस पर ढाई सौ या पाँच सौ रुपये जुर्माना हुआ। उसने
जुर्माना दे दिया सही। मगर फिर भी मिट्टी न दिलायी और अब, सुना है, कहता है
कि ऐसे जुर्माना देते रहेंगे( मगर किसानों की मर्जी न चलेगी और मिट्टी न
दिलायेंगे। ऐसा ही हमें बताया गया, हाल में ही जब हम वहाँ गये थे। अगर यह
सही है, तो यह खासा नमूना है और कांग्रेसजनों के वहाँ जाकर जमने और भिड़ने
का सुनहला मौका है। इसी तरह, कहा जाता है, सूर्यगढ़ा थाने के लक्ष्मीपुर में
यही जमींदार दफा 112 (अ) के मुताबिक मंजूर हुई लगान की छूट किसानों को नहीं
देता है। मुझे तो भरी सभा में यही बताया गया था। अब वहाँ कांग्रेसजन जायें
और देखें। मैंने ता. 22-1-45 को लखीसराय के पास जानकीडीह के एक बूढ़े किसान
श्री शामलाल भगत के केस का फैसला पढ़ा, जो गये नवम्बर में एक मजिस्ट्रेट ने
लिखा है। शामलाल खैरा इस्टेट का रैयत है और फैसले में साफ लिखा है कि खैरा
इस्टेट पुराने गरीब किसानों पर गजब ढा रहा है, उन्हें उजाड़ रहा है, ताकि
उनकी जमीनें छीनकर नये सिरे से बन्दोबस्त करे और काफी पैसा ले। जाइये और
उसे सँभालिए। ऐसे जुल्मों से दबे हजारों गाँव हैं। उन्हें सँभालिए, उनकी
खबर लीजिये। मैं किन-किनके नाम गिनाऊँ? सभी तो एक-से जालिम हैं और किसानों
पर जुल्म का पहाड़ ढा रहे हैं। जाइये और देखिये लड़िये( हाँ, लड़िये।
मगर एक बात कहता हूँ, गौर कीजिये। रचनात्मक काम में हम किसान सभावालों की
जरूरत है, जरूरत होगी। अगर आपको इस सिलसिले में किसानों में कुछ ठोस काम
करना है, आप हमें छोड़कर वह काम ठीक-ठीक शायद ही कर सकें। आपको बड़ी दिक्कत
होगी। हम गुजश्ता पन्द्रह साल वही काम करते-करते उसमें चतुर और जानकर हो
गये हैं, विशेषज्ञ (Expert) हो गये हैं, यह तो आपको मानना ही होगा। आखिर हम
इस मुद्दत में भाड़ झोंकते तो रहे हैं नहीं। किसानों की सैकड़ों लड़ाइयाँ हमने
शान से लड़ी हैं, पूरी शान्ति के साथ अहिंसापूर्वक। आपके ही जिले में
बढ़हियाटाल में लाठियाँ खाकर और सर तुड़वाकर भी हमने, हमारे कार्यकर्ताओं ने,
मर्दों और औरतों ने उफ़ तक नहीं की। रेवड़ा, साँढ़ा, मझवे, मझियावाँ वगैरह
(गया), दरमपुरा (पटना), देकुली, नेहरा (दरभंगा), डुमराँव (शाहाबाद), अमवारी
(सारन), आलसनगर (भागलपुर), वगैरह जगहों में भी हमने यही किया और हमारी
निराली शान्ति की, गजब की अहिंसा की तारीफ सरकारी अफसरों तक ने की। कोई कह
नहीं सकता कि हमने एक जगह भी अपनी ऑंखें लाल कीं, या किसी पर एक डण्डा भी
चलाया, हालाँकि लहूलुहान थे, सो भी सैकड़ों की तादाद में। आपको मानना ही
होगा कि अहिंसामूलक किसान-काम करने में हम पास हो चुके हैं, सर्टिफिकेट
हासिल कर चुके हैं। फिर क्या वजह कि हमें छोड़कर आप किसान का काम करने चले
हैं, करेंगे? ऐसा करके पछताइयेगा, नोट कर लीजिये और फिर हमीं को बुलाइयेगा।
फिर आज ही क्यों नहीं साथ लेते? चरखा चलाने और खादी बनाने में अगर पुराने
कारीगरों के बिना आपका काम नहीं चलता और उन्हीं को वह काम सौंपना पड़ता है,
तो याद रहे, हम भी किसानों में काम करने के कारीगर हैं। इसलिए हमीं को यह
काम सौंपिये और आप भी उसमें लगिये। तभी कामयाबी होगी। हम उसका दाँव-पेंच
खूब जानते हैं, उस कुश्ती के खिलाड़ी हैं, गामा है, बेअदबी माफ हो। आइये, हम
आप सभी मिलकर हर जिले में हजारों की तादाद में किसानों के बीच जा धामकें और
जमींदारों ने जो फिर पुराना जमाना ला दिया है, उसे मिटायें। बँटाई की जगह
फिर वही दानाबन्दी, मनखप या मनहुण्डा और चौरहा चल पड़ा है, रसीदें फिर नहीं
दी जाती हैं, हरी-बेगारी फिर चालू है, अमलेसाजी ने फिर सर उठाया है,
मार-पीट फिर जारी हो रही है और जमींदार या उनके अमले फिर कानून अपने ही हाथ
में लेने लगे हैं, तरह-तरह से। इन बातों के लिए बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी होंगी। तब
कहीं उनके मंसूबे ठण्डे होंगे, याद रहे यह मामूली काम नहीं है। हिमालय
लाँघना है।
मगर किसानों की तकलीफें सिर्फ जमींदारों के ही चलते नहीं हैं। देखिये न,
चीनी की मिलों ने क्या-क्या गजब नहीं ढाया है? ऊख लेकर जानेवाली गाड़ियाँ
दो-दो, तीन-तीन दिनों के बाद घर वापस जाती हैं। सड़कें तो यमपुरी का रास्ता
बन गयी हैं, जिनमें बैल मर जाते हैं। तौल की चोरी और पुर्जी मिलने में
घूसखोरी कहाँ रुकी है? तिसपर भी तुर्रा यह कि सरकार ने ऊख का दाम बहुत ही
कम तय किया है और उसमें भी फी मन दो आने की कटौती होती थी, जबरन। वह अभी
रुकी है और अब पन्द्रह आने फी मन ऊख के मिलने लगे हैं। क्यों? क्या किसानों
का हक उसे समझ कर ऐसा किया गया है? नहीं-नहीं। सरकार ने गुड़ बनाने और उसे
बाहर चालान करने में अड़ंगे लगाकर भी जब देख लिया कि किसान एक तो ऊख की खेती
कम करते चले जा रहे हैं और दूसरे खड़ी ऊख भी मिलों में देने को रवादार नहीं
हैं, तो हारकर उसने कटौती रोकी और दाम कुछ और बढ़ाया है। यह इसीलिए कि किसान
धोखे में आकर आगे के लिए ज्यादा ऊख बोयें। ऊख बोने का समय जो आ गया है।
मगर खबरदार, भूलिए मत। ज्योंही ज्यादा ऊख बोई कि फिर वही पुरानी बात होगी
और दाम कम हो जायेगा। यहाँ तो तरीका यह है कि कम बोओ, तो ज्यादा दाम और
ज्यादा बोओ, तो कम मिलता है! हाँ, सरकार दाम और भी बढ़ा दे, आगे के लिए
गारण्टी कर दे कि उसे घटायेगी नहीं और कटौती भी न करेगी, और मिलवाले जो
तरह-तरह की चालें ऊख ज्यादा होने पर चलते हैं और किसानों को लूटते हैं,
उससे बचाने का भी ऐलान कर दे, तभी ज्यादा ऊख बोने का सवाल हो सकता है।
देखिए न, जब 30 रुपये मन चावल बिका, तो ऊख का दाम सिर्फ दस आना नगद मिला और
आज जब 10 रुपये मन बिकता है, तो पन्द्रह आना मिल रहा है। क्या यही इंसाफ
है? क्या यही अक्लमन्दी है? कुछ नहीं। जब देखा कि किसान ऊख की खेती खत्म कर
देंगे, तब सरकार की करवट बदली है। मगर अगर आपने खेती और भी घटा न दी, या
बढ़ा दी, तो फिर वही पुरानी बेढंगी रफ्तार जारी हो जायेगी। जब तक गवर्नर
साहब का यह खयाल बना रहेगा कि दस या पन्द्रह आना फी मन ऊख का दाम मिलने पर
भी किसान को फी बीघा सब खर्च रत्ताी-रत्ताी बाद देकर भी सौ-डेढ़ सौ रुपये का
नफा होता है तब तक कुछ होने-जाने का नहीं। जब तक ऊख का दाम घटाना-बढ़ाना
सिर्फ चालबाजी के रूप में या मजबूरन होगा, तब तक न्याय की आशा नहीं है।
किसानों का वाजिब हक समझकर जब काफी दाम उन्हें दिया जाए, उनकी खेती के खर्च
का रत्ती-रत्ती हिसाब वाजिब तौर से लगाया जाये और खर्च और उसके सूद के
अलावे उन्हें फी मन कुछ नफा दिया जाये, जैसाकि चीनी का दाम ठीक करने में
मिलवालों को दिया जाता है, तभी किसानों के साथ इंसाफ होगा और तभी वे काफी
ऊख बोएँगे। उसके पहले तो थोड़ी बोयें, यही मेरी पक्की राय है। नहीं तो, रोना
होगा। शासकों और चीनी की मिलों की मनमानी रोकनी का दूसरा रास्ता है नहीं।
एक बात और है। लोगों की जरूरत की चीजें-किरासन, कपड़ा, चीनी, दवा, नमक वगैरह
का देहातों में मिलना गैर-मुमकिन हो गया है और जब तक सरकारी रेट से ज्यादा
पैसे न दें, ये चीजें मिल नहीं सकती हैं सरकार की ताकत बहुत बड़ी है, जो न
सिर्फ कांग्रेस को दबा सकती है, बल्कि हिटलर और जापान के भी नाकों चने चबवा
सकती है। मगर इन मुनाफाखोरों और चोर-बाजारवालों के सामने उसकी एक भी नहीं
चलती नजर आती है। कहते हैं कि बड़े-बड़े बत्ताख आदमियों तक पर झपटते हैं। मगर
सियार को देखते ही सिपक जाते और चूँ तक नहीं करते। वही बात यहाँ भी तो नहीं
है? असल में कंट्रोल डिपार्टमेंट में भी ज्यादातर नीचे से ऊपर तक वही
घूसखोरी चलती है। बहती गंगा में सभी डुबकी लगा लेना चाहते हैं। जब तक यह न
रुके, कुछ होने का नहीं। बाहरी मरहम-पट्टी बेकार है। आजकल देखभाल के लिए
सरकारी अफसर जहाँ-तहाँ कमिटियाँ बना देते हैं। मगर उनमें भी पिट्ठू ही भर
दिये जाते हैं। अगर कोई ईमानदार आदमी जाये और ठीक इन्तजाम करना चाहे, तो
अफसरों को बर्दाश्त नहीं। क्योंकि उनकी परेशानियाँ बढ़ जो जाती हैं और चैन
में बाधा पहुँचती है। इसलिए न तो ऐसे लोग अफसरों को पसन्द ही होते और न वे
इन कमिटियों में जाना ही चाहते, जहाँ सिर्फ हाँ-हाँ करना हो। नतीजा साफ है।
बावजूद इन कमिटियों के भी लोगों की तकलीफें ज्यों की त्यों बनी हैं। इन
कमिटियों और उनके सेक्रेटरियों वगैरह की हालत यह है कि जरा भी उनकी शिकायत
कीजिये या उनके इन्तजाम में उज्र कीजिये कि वे नादिरशाही करते हैं( शिकायत
की सुनवायी होना मुश्किल हो जाता है। हाल में मैं शेखपुरा के चेवारा मौजे
में गया था। पता चला कि वहाँ करीब डेढ़ दर्जन दर्जी हैं, जो सिलाई से गुजर
करते हैं। इसलिए रात में जलाने के लिए उन्हें किरासिन चाहिए। जब उन्हें वह
बहुत ही कम मिलने लगा, जिससे काम नहीं चलता था, तो उनमें एक शख्स शमी
उत्तौहीद ने उस कमिटी के मन्त्री से, जो उस थाने के लिए बनी है, इसकी
शिकायत की कि तेल का बँटवारा मुनासिब होना चाहिए। बस, चेवारा गाँव की कमिटी
के मन्त्री साहब के दिमाग का पारा चढ़ गया और उस गरीब को किरासिन ही रुकवा
दिया। थाने की कमिटी के मन्त्री भी बेबस हो गये और कुछ कर न सके। हारकर
किसान सभा में दर्जी की फरयाद आयी। फिर भी, उसे अभी तक किरासिन मिला या
नहीं, कौन कहे? यही तो हालत है। ऐसे हजारों नमूने पेश किये जा सकते हैं। जब
तक हजारों देश-सेवक इन जुल्मों को मिटाना ही अपना मकसद न बना लें, यह मिटने
के नहीं। बेमुरव्वती से इनका भंडाफोड़ होना ही एकमात्रा रास्ता है।
सेविंग्स सर्टिफिकेट की बात भी मामूली नहीं है। इसके चलते देहातों में
हड़कम्प है। पारसाल जो कुछ किया गया, उसे लोग भूले नहीं हैं और उसे याद करके
ही उनका दिल दहल रहा है। इस साल भी वही सरपंच गिध्दों की तरह मँडराने लगे
हैं और चौकीदारी से बीस-गुने से लेकर चालीस-गुने तक की वसूली की बातें चल
रही हैं। पलटन, पुलिस और गोरों के लाने की धामकियाँ भी दी जा रही हैं, जैसा
पारसाल किया गया। हम जानते हैं कि ये धामिकयाँ बेबुनियाद हैं। कभी कोई
पुलिस और फौज का आदमी इसके नजदीक नहीं जा सकता। इसमें तो अपनी मर्जी से ही
रुपया जमा करने की बात है और बड़े-से-बड़े अधिकारी यही दुहराते रहते हैं। यह
तो कानूनी या गैर-कानूनी टैक्स है नहीं। फिर जोर-जुल्म का क्या सवाल? मगर
देहातों के लोग तो सीधो होते हैं और पारसाल तो सख्तियाँ हुईं, उससे उन्हें
विश्वास नहीं होता कि इस साल ऐसा न होगा। इस साल भी जोश में आकर कहीं-कहीं
अफसर लोग भी बेजा दबाव डाल रहे हैं। इसी से यह घबराहट है। खुशी की बात है
कि मुंगेर जिले में जगह-जगह मजिस्ट्रेट मुकर्रर है इस वसूली के लिए( इससे
तो जुल्म की गुंजाइश कम है, बशर्ते कि वे मुस्तैदी और जवाबदेही से काम लें
और दूसरों पर यह काम हर्गिज न छोड़ें। और जिलों में भी यही होना चाहिए। मगर
सरकार ने जो यह तय कर दिया है कि फलाँ इलाके से फलाँ रकम तो वसूली जानी ही
चाहिए, यह बुरा है। इसी के करते तो अफसरों को भी मजबूरन जोर-जुल्म करना ही
पड़ता है( नहीं तो, सरकार की नजरों में नालायक साबित हों। इतने दिनों में
इतना वसूल हो, इससे भी बेजा दबाव देने का मौका मिलता है। मर्जी से होने और
देने की बात के साथ इन दोनों बातों का मेल नहीं है, यह याद रहे।
किसान सभा की नीति इस बारे में यही है, हम न तो इसका विरोधा करते हैं और न
किसी से कहने जाते हैं कि तुम ख़ामखाह दो या तुम्हें देना ही चाहिए। हाँ, जो
देना चाहे, जरूर दे। हम उसे मना नहीं करते और न इस तरह देना बुरा समझते
हैं। बचाकर जमा करना तो अच्छा ही है। मगर बचाने के नाम पर बर्तन, भांडा या
जमीन बेचने को मजबूर करना और रुपये लेना गुनाह है, पाप है-ऐसा हम मानते हैं
और इसे जरूर रोकना चाहते हैं, इसे रोकना फर्ज समझते हैं। इस वसूली की दो
मिसालें हमारे सामने हैं, जिनकी ओर लोगों का खयाल खींचना चाहते हैं। एक
मजिस्ट्रेट ने किसी गृहस्थ से 25 या 50 के बजाय 100 रुपया जमा करवाया,
समझा-बुझा के और यह कहकर कि हमारी इज्जत रखिये। उसके बाद जब उस गृहस्थ ने
हमसे कहा कि क्या करें, हमसे तो कह-सुनकर 100 रुपया ले लिया, तो हमने उससे
चट कह दिया कि बुरा क्या किया? इस तरह यदि वसूली हो, तब तो ठीक ही हो। यही
तो हम चाहते हैं। एक दूसरे गृहस्थ के पास रुपये न थे, वह दे न सकता था। मगर
जब मजिस्ट्रेट ने दबाव डाला, तो गृहस्थ ने कह दिया कि हमें तो किसी बनिये
से ज्यादा सूद पर कर्ज लेकर या जमीन बंधाक रखकर ही देना होगा। ऐसी हालत में
आप ही दो-चार कट्ठे लिखवा लें, हम कहाँ रुपये के लिए दौड़ें? बस, डिप्टी
साहब ठण्डे हो गये। जो न दे सके, उसे ऐसा ही जवाब देना चाहिए, जैसा उस गरीब
गृहस्थ ने दिया। मगर किसान सभा ने तो सरकार से यही अपील की है कि धाान की
बुरी हालत को देखकर और दूसरी बातों का खयाल कर इस साल किसानों और गरीबों से
यह वसूली कतई बन्द कर दी जाये।
यह सम्मेलन यहाँ हो रहा है। इसलिए जरूरी है कि बेगूसराय इलाके की भी दो-एक
बातों पर नजर डाली जाये। एक तो यहाँ का रिंगबाँधा है, जो शायद बेगूसराय की
हिफाजत के ही लिए कांग्रेसी मन्त्रिायों ने बनवाया था। उस समय तो इसका
आमतौर से ऐलान हुआ नहीं कि बाँधा का खर्च लोगों से ही लिया जायेगा और आज
लम्बी मुद्दत के बाद लोगों से उस रकम की वसूली ठीक नहीं है, मुनासिब नहीं
है। सरकार खुद इसे बर्दाश्त करे। बर्दाश्त तो कर ही चुकी है। अब लोगों से
लेने का खयाल छोड़ दे।
दूसरी बात है, रामदीरी मौजे का ठेका। खासमहाल का यह मौजा है और शायद
खास-महाल मैनुएल में ही कभी पढ़ा था कि ज्यादातर जमींदारियाँ औरों को देकर
भी सरकार ने जो कुछ मौजे खासतौर से अपने पास रखे हैं उसका मकसद यही है कि
उन मौजों का बहुत बढ़िया इन्तजाम करके सरकार दूसरे जमींदारों को दिखा दे कि
जमींदारी का बढ़िया-से-बढ़िया इन्तजाम कैसे किया जा सकता है, जिसमें किसानों
को कोई तकलीफ न हो, उनपर कोई जुल्म न हो। ऐसी हालत में खासमहाल के मौजे का
ठेका ही नामुनासिब और बेमानी है, गलत है( सो भी वह ऐसे जमींदार को दिया
जाये, जिसकी आमतौर से बहुत ही शिकायतें होने के कारण ही यह ठेका
कांग्रेस-मन्त्रिायों ने पहले छीन लिया था। सरकार की नजरों में वह उलाव का
जमींदार बड़ा ही भला और खैरखाह क्यों न हो, बहादुर क्यों न माना जाये( मगर
रामदीरी के किसान तो अपने को उससे दूर ही रखना चाहते हैं। क्योंकि एक बार
भुगत जो चुके हैं। फिर हिम्मत नहीं है। बिल्ली मुर्गे को बख्श दे, वह लंगड़ा
हो कर ही रहेगा, मगर उससे अलग। उसी ठेकेदारी से जो दिक्कतें पैदा हुईं और
किसानों की कुछ जमीनें छीनी गयीं, उसका झमेला अभी तक चल ही रहा है। फिर नये
ठेके से तो जाने क्या बला आये।
तीसरी बात है एक और जमींदारी की। ये हैं दुलारपुर के महन्तजी। जब इधार
आइये, तो इनके खिलाफ शिकायतों और किसानों की आहों का ताँता बँधा जाता है।
अभी हाल में शेखपुरा के चेवारा मौजे में गया था। वहाँ भी इनका हिस्सा एक
मौजे में है। किसानों ने आकर पुकार मचायी कि न तो रसीद देते हैं और न 112
(अ) दफा की छूटें देते हैं। पारसाल दुलारपुर के ही गणपति ताँती की इनने
करीब दो बीघे जमीन निगल ली थी। सुनता कौन? मगर बेचारे ने किसान सभा में
फरयाद की और सभा ने यह सवाल कसकर पकड़ा। तब कहीं जाकर महन्तजी को उस जमीन के
पूरे छब्बीस सौ रुपये उगलने पड़े और उस ताँती को मिले। जब अधिाकारियों ने
धामकी दी( क्योंकि सभा ने उन्हें पकड़ा, तब महन्तजी का आसन हिला। मगर गणपति
ताँती जैसे तो हजारों गरीब उनके शिकार हो चुके और हो रहे हैं।
अन्त में आप लोगों से यही कहना है कि सभी बालिग स्त्राी-पुरुषों को किसान
सभा का मेम्बर बनकर उसे काफी मजबूत करना चाहिए, तभी आपके लिए वह लड़ सकेगी।
किसान वही है, जिसका गुजारा खेती के बिना नहीं हो सकता। फिर चाहे वह अपनी
जमीन में खेती करता हो, जिसका खुद मालिक हो या दूसरों से जमीन लेकर खेती
करता हो। उस खेती में जिन हलवाहे-चरवाहों से काम लिया जाता है, वही
खेत-मजदूर हैं। इनके दु:ख-सुख को किसान अपना ही दु:ख समझें और उन्हें अपने
परिवार के ही समझ उनके साथ वैसा ही सलूक करें, तभी किसानों की भलाई है। आप
मजदूरों के साथ सलूक अच्छा रखें, मुहब्बत रखें, उन्हें आराम से रखें। वही
खेती के हाथ-पाँव हैं और हाथ-पाँव को मजबूत रखने में ही खैरियत है।
बिहार सरकार ने जो प्रान्त के प्रमुख नेताओं को अपने-अपने गाँवों में हाल
में नजरबन्द किया है, उसकी निन्दा किये बिना मैं अपना वक्तव्य पूरा कर नहीं
सकता। जब गाँधाीजी खुद कहते हैं कि सत्याग्रह का समय यह नहीं है, तो बिहार
के ये पाँच नेता उसी की तैयारी में थे, यह कहना दूर की कौड़ी लाना है और
दुनिया को बुध्दू समझना है। बहानेबाजी क्यों करते है? साफ बोलिए कि हम उनकी
आजादी देख नहीं सकते।
इनकलाब जिन्दाबाद! किसान सभा जिन्दाबाद! कमानेवाला खायेगा, इसके चलते जो
कुछ हो!
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