खतरे के बीच में
किसान साथियो,
आज हम जब एक लम्बी मुद्दत के बाद आपके जिले की किसान-कान्फ्रेंस में मिल
रहे हैं, हमारा मुल्क खतरे के बीच में पड़ा है। यह सुनकर शायद बहुतों को
हैरत हो कि जब मुश्किल से पाँच हफ्तों के बीतते-न-बीतते यहाँ डोमिनिया राज
कायम होने को और उसके फलस्वरूप अंग्रेजी सल्तनत एवं उसका निशान यूनियन जैक
यहाँ से हमेशा के लिए विदा होने को है, तो यह खतरे की बात कैसी? यह तो उलटे
खतरे से छुटकारे की बात हो सकती है, होनी चाहिए। लेकिन हैरत और ताज्जुब का
कोई सवाल है नहीं। हम दरअसल भारी खतरे के दरम्यान आ चुके हैं, उसके बीच से
गुजर रहे हैं। हमारे मुल्क का बँटवारा हमारी आनेवाली मुसीबतों का श्रीगणेश
है, चाहे हमें हजार सब्जबाग क्यों न दिखाये जायें। हमारी बदकिस्मती है कि
हमारे नेता इसे समझ नहीं रहे हैं। उनने अपनी और राष्ट्र की आत्मा की पुकार
के खिलाफ राजनीतिक गुंडेपनी के सामने सर झुकाकर आगे के लिए उसका रास्ता साफ
कर दिया है। अब ऐसे गुंडों को हिम्मत हो गयी है कि जितना ही ऊधाम मचायेंगे,
उतनी ही कामयाबी हासिल होगी। उनने उसका मजा चख लिया है। घड़ियाल को खून का
चसका लग चुका है। इसलिए रह-रह कर हमले करता रहेगा। पाकिस्तान हमारी आजादी
का कब्रिस्तान बनेगा, हमारे मुल्क में भाई-भाई की लड़ाई को व्यापक और भयंकर
बनायेगा और हमारी प्यारी मातृभूमि को बाहरी और भीतरी दुश्मनों के हमलों का
शिकार और लूट-खसोट की क्रीड़ास्थली बनायेगा, ऐसा मानने को हम मजबूर हैं।
अभी-अभी उस दिन दिल्ली में सिन्धा के तपे-तपाये कांग्रेसी लीडरों ने साफ ही
कहा था कि वहाँ के लीगी मिनिस्टर हिन्दुओं से खुल्लम-खुल्ला कहते हैं कि हम
मालिक और हाकिम हैं और तुम गुलाम हो। अगर गुलामों की तरह रहना है तो रहो,
वरना चले जाओ। कमीनापनी की ये बातें बताती हैं कि हवा का रुख किधार है। ये
पुकार कर कहती हैं कि वहाँ और दूसरी जगह हिन्दू-मुस्लिम दंगे बेतहाशा
बढ़ेंगे और यह आग सारे मुल्क को एक बार खाक करके ही दम लेगी। क्रिया की
प्रतिक्रिया होगी, एक्शन का री-एक्शन होगा और मुल्क का कोना-कोना जलती
भट्ठी बनेगा, ऐसा खतरा है।
हमारे रहनुमा और लीडर कहते हैं कि नहीं ऐसा न होगा, हम ऐसा हर्गिज होने न
देंगे। अगर सिन्धा में या कहीं भी लीगी सरकार ने हिन्दुओं पर ज्यादतियाँ
कीं, तो भारत की संयुक्त राष्ट्रीय सरकार उसे बाकायदा नोटिस देगी कि इसे
बन्द करो, नहीं तो नतीजा बुरा होगा, जैसाकि स्वतन्त्रा देशों की सरकारें
ऐसे मौकों पर दूसरे मुल्कों की सरकारों को ऐसी ही नोटिसें देती हैं, अगर
उनके देशवासियों पर दूसरी सरकारें जुल्मो-सितम ढाती हैं। नतीजा होगा, कि
डरकर लीगी सरकार ज्यादतियाँ बन्द कर देगी, होने न देगी।
लेकिन आज तक का अनुभव तो यही बताता है कि लीगी भलेमानस और उनकी सरकार डरना
जानती ही नहीं। नोआखाली और कलकत्ताा इस बात के सबूत हैं। अगर डरें, तो उनका
पाकिस्तान बने कैसे? अधाकचरा और लूला-लंगड़ा पाकिस्तान मुकम्मिल और तगड़ा
होगा कैसे? याद रहे कि मियाँ जिन्ना की कौंसिल ने 3 जून की योजना को
साफ-साफ कबूल करने के बजाय सिर्फ इतना कहा है कि वह भारत के बँटवारे के
उसूल को, जो उस योजना की नींव है, स्वीकार करती है। इस तरह आगे चलकर उस
बँटवारे को अपने मन के मुताबिक बना डालने का रास्ता उसने खुला छोड़ दिया है।
मियाँ जिन्ना कदम-ब-कदम आगे बढ़ते हैं, न कि एक ही बार छलाँगें मारते हैं,
यह हम बखूबी जानते हैं। इसलिए यदि वे न डरें और सिन्धा, पंजाब या बंगाल में
हिन्दुओं पर जुल्म करते रहें तो? यदि जुल्म करने के बहाने भी उनने ढूँढ़
निकाले तो?
इन्हीं बहानों के बल पर तो मरी-सरी लीग 1937-39 में तगड़ी बनी और आज
कांग्रेस को ललकार कर पछाड़ रही है, यह किसे मालूम नहीं है? वे बिहार,
उड़ीसा, मद्रास, मधयप्रान्त वगैरह के लीगियों को इशारा करेंगे कि वे इस बात
का तूफान मचायें कि मुसलमानों पर जुल्म पर जुल्म हो रहे हैं। इस बात की
हजारों झूठी मिसालें भी पेश करेंगे, यह तयशुदा बात है। फिर क्या होगा?
इन्हीं चीख-पुकारों की बिना पर लीगी सरकारें वहाँ नंगा नाच करें और
हिन्दुओं को आठ-आठ ऑंसू सिन्धा, पंजाब या बंगाल में रुलायें तो? तब हमारे
ये लीडर किसे कैसी नोटिस देंगे? नोटिसें तो पहले उलटे इन लीडरों और उनकी
सरकारों को ही मिलेंगी, याद रहे। और अगर पहले ये लीडर ही नोटिसें दें,
लेकिन लीगी सरकारें उसकी परवाह न करें तो यही होगा न कि हमारे लीडरों की
सरकारें भी मुसलमानों पर वैसे ही अत्याचार करेंगी? नतीजा होगा कि मुल्क के
कोने-कोने में ये दंगे फैलेंगे और उसे जलायेंगे, और यही हमारा कहना है, यही
खतरा हमें दीखता है।
(शीर्ष पर वापस)
राष्ट्रीय संस्था या हिन्दू सभा
मगर इससे भी भारी और बुनियादी खतरा है। लीगी सरकारें तो एक सम्प्रदाय या दल
की हैं। फलत: यदि दूसरे सम्प्रदाय के लोगों पर जुल्म करें, तो उनका क्या
बिगड़ेगा? वे तो ज्यों की त्यों बनी रहेंगी, बल्कि और भी तगड़ी होंगी। विपरीत
इसके, कांग्रेस तो राष्ट्रीय संस्था ठहरी, ऐसी हालत में सिन्धी या पंजाबी
हिन्दुओं पर होनेवाले जुल्मों के जवाब में बिहार, यू.पी. या सी.पी की
कांग्रेसी सरकारें वहाँ के निर्दोष मुसलमानों पर जुल्म किस मुँह से करेंगी
और अगर करें तो कांग्रेस की राष्ट्रीयता कहाँ रहेगी? तब तो वह हिन्दू-सभा
बन जायेगी न? तब तो उसका खात्मा हो जायेगा और यह बुनियादी खतरा है।
कांग्रेस अपने फैसले के फलस्वरूप खुद मिट जाये या हिन्दूसभा बन जाये, यह तो
आत्मघात ठहरा। हमारे काइयाँ शासक यही चाहते हैं और हमारे नेताओं को उनने
इसीलिए फाँसा है। वे तो चाहते हैं कि मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा यही दो
संस्थाएँ आमने-सामने डटी रहें और लड़ें और ये साम्राज्यवादी उनकी पंचायत
करते रहें। हमें खेद है कि उनका मकसद पूरा होने जा रहा है, हमारे लीडरों की
गलती और दब्बू-नीति के चलते ही।
(शीर्ष पर वापस)
आजादी खतरे में
सबसे बड़ा खतरा हमारा आजादी के लिए है, जो मिलकर भी नहीं मिली जैसी हो
जायेगी। बालकन प्रदेश भी तो आजाद है, ग्रीस भी स्वतन्त्रा है और तुर्की का
तो कहना ही क्या? मगर हालत यह है कि ये मुल्क अपनी रक्षा खुद कर सकते नहीं।
इसीलिए कभी इन्हें ग्रेट ब्रिटेन की शरण जाना पड़ता है, कभी अमेरिका का दामन
पकड़ना पड़ता है, तो कभी सोवियत रूस के सामने सिज्दा करना पड़ता है। कोई एक का
मुँह ताकता है, तो कोई दूसरे का। फलत: इनकी आजादी गैरों की मर्जी पर है,
नकली है, खतरे में पड़ी है। उनके सर पर नंगी तलवार कच्चे धाागे में बँधाी
लटक रही है जिसे जोरदार हवा के थपेड़े पर थपेड़े लग रहे हैं। वह कभी न कभी
गिरेगी और आजादी का खून करेगी।
इस बँटवारा के चलते हूबहू यही दशा भारत की होगी। मन्त्री-मिशन की योजना
में, जो पारसाल 16 मई को प्रकाशित हुई थी, साफ ही माना गया है कि पूरे
बंगाल और आसाम तथा समूचे पंजाब, सीमाप्रान्त, सिन्धा और बलोचिस्तान को
मिलाकर पाकिस्तान बनाने पर भी बाहरी हमले से मुल्क की रक्षा असम्भव हो
जायेगी। क्योंकि हमले के समय मुल्क काफी लम्बा-चौड़ा होने पर जगह-जगह
मोर्चेबन्दी के साथ जमकर लड़ाई की जा सकती है। इसे ही अंग्रेजी में 'डिफेंस
इन डेफ्थ' कहते हैं! मगर पाकिस्तान तो इसके लिए छोटे होंगे और जब पूर्व या
पश्चिम के पाकिस्तान में यह 'डिफेंस इन डेफ्थ' गैरमुमकिन होगा, तो
हिन्दोस्तान का बाकी हिस्सा आसानी से दुश्मनों के कब्जे में चला जायेगा।
क्योंकि उसमें पहाड़ों की कुदरती दीवार है नहीं, जो हमले को रोक सके। भारत
का आज तक का इतिहास यही बताता है कि उसकी सीमा से आगे बढ़ने पर
आक्रमणकारियों का रोका जाना गैरमुमकिन हो गया और सारा देश उनकी मर्जी के
मातहत हो गया।
ऐसी दशा में इस नन्हे से पाकिस्तान के लिए यह और भी असम्भव है कि मुल्क के
संतरी का काम कर सके। 'पान इस्लामिज्म' या मुसलमानों के एका और भाईचारे के
सिध्दान्त की हामी लीगी सरकार यह रक्षा करना शायद ही चाहे। पश्चिमी सरहद के
आगे बहुत दूर तक मुस्लिम राष्ट्र ही पाये जाते हैं और उन्हीं को हमले के
लिए उकसाया भी जा सकता है। फिर भी ताज्जुब है कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीय
विभाजन की योजना को खुद पेश किया है। तो क्या उस सरकार के एतत्सम्बन्धी
विचार बदल गये हैं? या कि इस दरम्यान 'डिफेंस इन डेफ्थ' के मानी कुछ और ही
हो गये हैं? अगर नहीं, तो क्या अब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को भारत की
रक्षा की फिक्र नहीं है? यहाँ अपने रोजगार-व्यापार की हिफाजत की
चिन्ता-परवाह नहीं है? वे पूरे महात्मा बन गये हैं?
और अगर सोवियत रूस के साथ उनकी बज जाये तो? बजने के सामान तो मुहैया हो रहे
हैं और अगर अगले नवम्बर में लन्दन में होनेवाली मित्रा-शक्तियों की
कान्फ्रेंस में कोई समझौता नहीं हुआ, जैसी कि पूरी सम्भावना बतायी जाती है,
तो? तब तो भिड़न्त होगी ही, इसकी करारी तैयारी होगी ही और सारी दुनिया दो
हिस्से में बँट जायेगी-एक सोवियत रूस के साथियों का और दूसरा उसके
विरोधियों या अमेरिका एवं ग्रेट ब्रिटेन का। उस दशा में भारत की रक्षा का
क्या होगा? रूस तो इस्लामी मुल्क भी नहीं कि मियाँ जिन्ना इस्लामी बिरादरी
का लिहाज करके उसे रोकना न चाहें (बल्कि वह तो नवाबों, बादशाहों और
खानबहादुरों का जानी दुश्मन है और लीग इन्हीं का अव ठहरी। फिर तो रूस का
मुकाबला करना लीगी सरकारों का फर्ज हो जायेगा। मगर मालिकों का फरमाना है कि
पाकिस्तान में 'डिफेंस इन डेफ्थ' असम्भव है, तब क्या होगा? होगा क्या खाक?
यही होगा कि हमारे आक़ा यह काम खुद करेंगे, भारत की रक्षा की जवाबदेही अपने
ही माथे रखेंगे। इसीलिए तो मन्त्री-मिशन वाली रक्षा-सम्बन्धी बात वे
स्वयमेव हजम कर गये और उनने बँटवारे पर अपनी मुहर लगा दी।
लेकिन उनके लिए यह 'डिफेंस इन डेफ्थ' तो नामुमकिन हो जायेगा। आखिर ठोस
भौगोलिक परिस्थिति को वे भी बदल तो नहीं सकते। इसीलिए वे अभी से भारत की
सीमा पर हर तरह की किलेबन्दी करना चाहते हैं। लार्ड इज्मे और फील्ड मार्शल
मान्टगोमरी का आना, सिंगापुर तक जाकर देखभाल करना और युध्द के विशेषज्ञों
से राय लेना इसी बात की ओर इशारा करता है। बड़े लाट कभी कश्मीर और कभी
हैदराबाद जाने को आमादा होते हैं इसीलिए। देशी रियासतों को पूर्ण
स्वतन्त्राता के ऐलान के लिए उकसाया जाता है सिर्फ इसीलिए कि वहाँ भी
ब्रिटिश सेना के जबर्दस्त अड्डे और बेड़े रहें। इस दृष्टि से त्रावनकोर की
काफी अहमियत है। हैदराबाद निजाम की भी महत्ता है।
(शीर्ष पर वापस)
सीमाप्रान्त की मतगणना
और प्रान्तों में मतगणना न करके बँटवारे के बारे में सीमाप्रान्त में ऐसा
करने का रहस्य भी यही है कि वह पाकिस्तान में चला जाये, जिससे वहाँ हमारे
काइयाँ साम्राज्यवादी अपना फौजी अव बखूबी जमा सकें। अगर सीमाप्रान्त
पाकिस्तान न जाये, तो उनका मजा ही किरकिरा हो जाये। यों तो कराची से कश्मीर
की पूर्वी सरहद तक अब वे बेखटके अपनी किलेबन्दी कर सकेंगे। यदि उनकी यह
बदनीयती न होती, तो एक ही साँस में बड़े लाट दो विरोधी बातें क्यों बोलते?
एक ओर तो मानते हैं कि मौजूदा प्रान्तीय असेम्बलियाँ ठीक-ठीक लोकमत का
प्रतिनिधित्व करती है। यही बात उनने 4 जून को अखबारवालों की सभा में कबूल
की थी। ऐसी हालत में सीमाप्रान्त की असेम्बली की ही राय से सन्तोष न करके
मतगणना की क्या जरूरत थी? इसीलिए न, कि इधार लीग ने काफी जहर फैलाया है और
वह कामयाब होगी। 3 जून की घोषणा में जो यह कहा गया है कि सीमाप्रान्त की
भौगोलिक स्थिति और दूसरी बातों को मद्देनजर रखकर ही मतगणना की बात मानी गयी
है, उसका भी मतलब यही है। भौगोलिक स्थिति ब्रिटिश सैनिक अड्डे
को आमन्त्रित
करती है। दूसरी बातें और कुछ नहीं, सिवाय हाल वाली लीगी गुंडाई के, जिसका
नतीजा साम्राज्यवादियों के अनुकूल ही होने को है।
(शीर्ष पर वापस)
तीन ओर से घेरा
अभी और भी बला की बातें हैं। ब्रिटिश शासकों को रूस से खतरा है। वे डरते
हैं कि कहीं रूमानियाँ, बलगेरिया, हंगरी आदि की ही तरह चीन पर भी रूस का
प्रभाव न जम जाये। इसका खतरा बराबर बना है। ऐसी हालत में भारत की पश्चिमी,
उत्तरी और पूर्वी सीमाओं पर रूसी भिड़न्त की चिन्ता उन्हें रह-रहकर सताती
है। बन्दिश भी वह यही कर रहे हैं कि कराची से लेकर चटगाँव तक की समूची सीमा
उनकी किलेबन्दी के अन्दर आ जाये। इसी कोशिश और चाल का एक पहलू पाकिस्तान और
उसी की कामयाबी के लिए सीमाप्रान्त की मतगणना है।
मगर इतने से ही सारी सीमा पाकिस्तान में आ जाती नहीं। कश्मीर और आसाम के
दरम्यान पाकिस्तान कहाँ है? पाकिस्तान का पता आसाम में भी नहीं है। बंगाल
के दो उत्तारी जिले, दार्जिलिंग और जलपाईगोड़ी गैर-पाकिस्तानी आसाम से बिहार
को मिलाते-से हैं। इन दोनों को पाकिस्तान में हजम करना जरूरी है। तभी आसाम
भारत के संयुक्त राष्ट्र से विच्छिन्न होकर अलग पड़ जायेगा और तभी सरदार और
नेहरू मियाँ जिन्ना से प्रार्थना करेंगे कि कोई दूसरा समझौता हो आसाम के
बारे में। फिर तो पाकिस्तान के दोनों टुकड़ों को जोड़ने के लिए गलियारे का
सवाल ये लीगी डटकर छेड़ेंगे और उसे ले करके ही दम लेंगे। उसी के बाद आसाम के
हजम करने का सवाल तेजी से उठेगा। उसके पहले उसका मसाला तैयार किया जाता
रहेगा। वह गलियारा भी नेपाल और भूटान की सरहदों से मिला-जुला उनसे दक्षिण
माँगा जायेगा ताकि मौका पाकर नेपाल और भूटान को भी या तो पाकिस्तान के पेट
में ही डाला जा सके, या बेलजियम की तरह उन्हें नाममात्रा का 'बफर स्टेट' और
फौजी तैयारी का अव बना रखा जाये। एके बाद दीगरे यही चीज होने को हैं, अगर
लीगी पॉलिसी और साम्राज्यवादी कूटनीति के कुछ भी मानी हैं। उसके बाद क्या
होगा, यह साफ है। हम साम्राज्यवादी शतरंजी चाल की गोटियाँ बनेंगे और खून
देकर हासिल की गयी आजादी को यों ही दुश्मनों के सुपुर्द कर उनका मुँह ताकने
को मजबूर होंगे।
(शीर्ष पर वापस)
मरेंगे या मारेंगे
इस पर कहा जायेगा, तो आखिर इसका रास्ता भी क्या है? उपाय भी क्या है? अगर
कांग्रेस समझौते को ताक पर रखकर लड़े भी, तो गृहयुध्द को-भीषण गृहयुध्द
को-कौन रोक सकेगा? उसके सामान तो अब पूरे हो चुके हैं। वह पहला जमाना चला
गया, जब लीग तैयार न थी और इसी से 1942 में या उससे पहले भी वह ऐसा करने
में असमर्थ रही। आज तो वह सोलह आने तैयार है, मुस्लिम जनता पर उसका असर भी
मुकम्मिल है और इसीलिए मुल्क के कोने-कोने में खून की नदियाँ बहा छोड़ेगी,
अगर कांग्रेस ने युध्द का रास्ता पकड़ा। फलत: इस बार का संघर्ष लोहे का चना
साबित होगा, याद रहे।
मगर यह समझौता तो मन्द विष (Slow Poison) की घूँट और बटी है, जो
धीरे-धीरे हमें मारकर ही दम लेगी। लोहे के चने के तो हजम होने में ही
दिक्कत है। फलत: वह उपचार और दवा के जरिये बाहर निकाल दिया जा सकता भी है,
यदि पच न सका। मगर इस मन्द विष की तो कोई दवा नहीं। इसे निकालने का कोई
उपाय नहीं। जब तक सारे शरीर में पूरा असर न कर ले, हमें इसका पता भी न
चलेगा। आज वही बात साफ देख रहे हैं। हमारे दूरदर्शी नेता तक आज इसे समझ
नहीं पाते। ऐसी हालत में हमारे लिए एक ओर खौलती कड़ाही और दूसरी ओर जलती आग
है। और जब इन दोनों में एक को हमें चुनना ही है, तो कड़ाही छोड़ आग ही
चुनेंगे। कड़ाही में तो पड़ते ही हमारा खात्मा है। मगर आग से तो, चाहे हम
झुलस के ही सही, निकल भागने की पूरी उम्मीद है।
और लड़नेवाले कब दुश्मन की ताकत का ही हिसाब लगाते हैं और डरकर दुबक जाते
हैं। जब हमारे अस्तित्व पर ही खतरा है, जब हमारे मिट जाने का ही सवाल है,
तो नामर्दों की तरह घुल-घुल कर मरने से कहीं अच्छी है मर्दों की मौत।
मैदानेजंग में लड़ते-लड़ते मरेंगे या मारेंगे। जब कांग्रेस ने जेठ के मधयाद्द
के तपते सूर्य के समान जलानेवाली अंग्रेजी सरकार की परवाह 1921 से आज तक न
की और उसके हुक्म से सारा देश सर पर कफन बाँधाकर बराबर लड़ता और अन्त में
विजयी होता रहा है, तो फिर आज कौन-सी नयी बात आ गयी कि हम हारेंगे? लीग के
नवाबों और खानबहादुरों के विरोधी दल में जुट जाने से कौन-सी बड़ी चीज हो
गयी? लड़ाई के तो नाम से ही इनके देवता काफूर हो जाते हैं और ये किनाराकशी
कर लेते हैं। फिर डर किस बात का?
(शीर्ष पर वापस)
धुन और लगन की लड़ाई
कहा जायेगा कि इन खानबहादुरों और नवाबों के पीछे मुस्लिम जनता जो है, इसी
से खतरा बढ़ गया है। इस बार हालत बेढब हो गयी है इसलिए। नेताओं को डर भी इसी
जनता का है, न कि नवाबों का। मगर यह दलील और कुछ नहीं है, सिवाय इस बात के
सबूत के, कि हमें जनता पर विश्वास नहीं है, फिर चाहे वह मुस्लिम जनता हो या
दूसरी (अपने-आप पर भी विश्वास नहीं है, और अपने लक्ष्य पर भी नहीं है। नहीं
तो ये दलीलें हर्गिज न देते। शोषितों और पीड़ितों की लड़ाई कभी चली नहीं
सकती, यदि यह दलील सही हों। शोषकों और उत्पीड़कों के पास काफी ताकत और साधान
होते हैं, जिनसे वे न सिर्फ घोर दमन करते, बल्कि जनता के एक खासे बड़े भाग
को ही उनकी लड़ाई के खिलाफ उभाड़ देते हैं। यह बात हमेशा ही देखी जाती है।
फिर भी अन्त में मजलूमों की जीत होकर ही रहती है। जनता चाहे किसी भी धार्म
या सम्प्रदाय की हो, उसका दिल-दिमाग हमेशा ठीक रहता है और पीड़ितों की लड़ाई
में उसकी दिली हमदर्दी रहा करती है। सिर्फ हमें उसमें विश्वास चाहिए।
अपने-आप में भी और अपने लक्ष्य में भी ज्वलन्त विश्वास चाहिए। विजय के लिए
तीनों विश्वास मूलाधार हैं, बुनियाद हैं। हमें यह मान कर ही आखिरकार चलना
होगा कि जनता का स्वार्थ एक ही है और उसे धार्म-मजहबों, प्रान्तों या देशों
के साथ अलग-अलग बाँटा नहीं जा सकता। वह अविभाज्य है और जनता इसे बखूबी
समझती भी है। हमें अपनी लगन और कामों से उस जनता की हिचकिचाहट और पसोपेश को
सिर्फ दूर कर देना होगा और यह बात हम झूम-झूम कर हँसते-हँसते युध्द करके ही
कर सकते हैं। उसी के द्वारा हम समस्त जनता को अपनी ओर वैसे ही बलात् खींच
सकते हैं, जैसे चुम्बक लोहे को खींचता है। महात्मा तालस्ताय ने कहा कि
हमारी गर्मा-गर्म स्पीचें जनता को हमारी ओर खींच नहीं सकती हैं। यह तो
हँस-हँस कर की गयी हमारी कुर्बानी, हमारा बलिदान ही है, जो उसे
मन्त्रा-मुग्धा करके हमारे चरणों पर ला गिराता है।
(शीर्ष पर वापस)
आर्थिक प्रोग्राम ही रास्ता
एक बात और। किसान चाहे हिन्दू हो, या मुसलमान( मजदूर, चाहे किसी जाति या
धार्म का हो, उसके आर्थिक सवाल एक ही होते हैं। जमींदारी का खात्मा, लगान
की कमी, बकाश्त की वापसी, पैदावार की तरक्की और उसकी काफी कीमत वगैरह बातें
सभी किसान चाहते हैं। वेतन की वृध्दि, रहने का आराम, पढ़ने-लिखने एवं
दवा-दारू की सुविधाा, बुढ़ापे का पेंशन आदि चीजें सभी मजदूर बिना जाति-धार्म
के भेद के चाहते हैं। यह भी सही है कि ये आर्थिक बातें, ये रोटी-भात, कपड़े,
दवा, जमीन आदि चीजें धार्म-मजहब से बड़ी हैं, भगवान और खुदा की छाती पर भी
मूँग दलती हैं। कहने के लिए चाहे ऐसा न भी हो। लेकिन अमली तौर पर हमेशा यही
देखा जाता है। कचहरियों में सदा ज़र, जोरू और जमीन के लिए-इन्हीं चीजों के
लिए-सभी हिन्दू, मुसलमान, क्रिस्तान आदि कुरान, पुराण, बाइबिल की झूठी
कसमें खाते और इस तरह धार्म-मजहब और भगवान-खुदा को पटकनियाँ-पर-पटकनियाँ
देते पाये जाते हैं। यही आए दिन का अनुभव है, ठोस सत्य है और हमें इसी अमली
पहलू पर यकीन है, विश्वास है, विश्वास करना चाहिए, विश्वास करना होगा।
नहीं-नहीं, आम जनता के भीतर अपने कामों से विश्वास पैदा करना होगा, यकीन
दिलाना होगा कि हम बिना किसी दूसरे खयाल और मजहबी पक्षपात के साफ-साफ
शोषित-पीड़ित जनता की रोज की दिक्कतों को दूर करना और उसे हर तरह से आराम
देना चाहते हैं। फिर देखेंगे कि लीग और महासभा की महज खयाली बातें, खयाली
पुलाव जनता के दिमाग से काफूर होकर ठोस आर्थिक एवं भौतिक मसले उनकी जगह पर
आ बैठेंगे और हमारी तरफ उस जनता को हठात रुजू करेंगे।
यह काम कांग्रेस को करना होगा, यदि इस आनेवाली बला को खत्म करना और मुल्क
को आत्मघात से बचाना है। यह उसी की जिम्मेदारी है। हमने उसे इसीलिए बनाया
और खून देकर सींचा है। अगर यह न किया गया तो आनेवाली आजादी कौड़ी कीमत की भी
न होगी, कांग्रेस का अब तक का किया-कराया व्यर्थ जायेगा और हमारी सारी
कुर्बानी हाथी का नहाना साबित होगी। हम यह मानने को तैयार नहीं कि कांग्रेस
से यह काम न होगा। दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत को जो कांग्रेस उखाड़ सकती है,
उसके लिए यह सिर्फ बायें हाथ का खेल है, मामूली-सी चीज है, वह बड़ी है,
महान् है, अप्रतिम है और अगर वह जनता का आर्थिक प्रोग्राम अपने हाथों में
ले, तो बात-की-बात में कमाल कर दे, युगान्तर ला दे और सारी दकियानूसी
ताकतें हक्का-बक्का हो जायें। अधिाकांश सूबों में कांग्रेसी सरकारें हैं,
मुल्क के कोने-कोने में कांग्रेस का संगठन है और इस मामले में किसान सभा
आदि दूसरी सभी प्रगतिशील संस्थाओं का सवा सोलह आना सहयोग उसे मिलेगा। फिर
तो ऐसा बवण्डर और तूफान पैदा होगा कि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी
किसान-मजदूर कांग्रेस के पीछे बात-की-बात में खिंच आयेंगे, किसी की भी न
सुनेंगे और मुल्क का बेड़ा पार होगा। लेकिन अगर इतने पर भी वह ऐसा नहीं
करती, तो सारा गुड़-गोबर होगा। आनेवाली सन्तान उसे कोसेगी और सबों को ही यह
मानने को मजबूर होना पड़ेगा कि हो, न हो दाल में काला है।
(शीर्ष पर वापस)
हमारा कर्तव्य
लेकिन हर हालत में किसान एवं किसान-सेवकों कार् कत्ताव्य साफ है। हम
हाथ-पर-हाथ धारे बैठ नहीं सकते। राजनीतिक गुंडाशाही मुल्क में आंतक-राज्य
पैदा करे और हम चुप रहें, यह होने का नहीं। यह तो जीते-जी मौत होगी। इसलिए
आत्मरक्षा के लिए सभी स्त्राी-पुरुषों को तैयार हो जाना है और लाठी का जवाब
लाठी से देना है। यह हमारा नैतिक और कानूनी हक है। हम उसे छोड़ नहीं सकते।
हमारी कायरता को देख आज चोर-डकैतों को काफी हिम्मत हो आयी है और वे खुलकर
खेलने लगे हैं। उनके छक्के छुड़ाने होंगे। वे हिम्मत हार जायें ऐसा करना
होगा-सो भी फौरन से पेशतर। तभी हम राजनीतिक गुंडों को भी दुरुस्त कर
सकेंगे, उन्हें छठी का दूधा याद करा सकेंगे। ग्राम-ग्राम में किसान सेवक
दल, ग्राम रक्षक दल, राष्ट्र रक्षक दल या हिन्द रक्षक दल बनाने ही होंगे,
जो आततायियों को रास्ते पर लायेंगे या मिटा डालेंगे। यह राक्षस जब तक सर
उठाये, उसके पहले ही मसल दिया जाये। नहीं तो खैरियत नहीं। साम्प्रदायिकता
का यह जहर पैदा होते ही मार डाला जाये, या पैदा होने ही न पाये।
(शीर्ष पर वापस)
स्वावलम्बी बनें
इसीलिए हमें-किसानों और किसान-सेवकों को-सर्वात्मना स्वावलम्बी बनना होगा।
बात-बात में हम गैरों का मुँह देखा करते हैं। बकाश्त का प्रश्न हो, भावली
की नगदी हो, जमींदारी जुल्म से त्रााण पाना हो, या ऐसी ही दूसरी बातें हों।
किसान हर ऐसे मौके पर भाग्य, भगवान, तकदीर, नेता, देवता आदि की ही ओर देखता
है और खुद जूझने को, हक के लिए मर-मिटने को मुस्तैद नहीं होता। यह गलत है,
महापाप है, गुनाह है। इससे किसानों का उध्दार न होगा। उन्हें पहले खुद डटना
होगा, हँस-हँस के जूझना होगा, सपरिवार। फिर वे देखेंगे कि उनकी मदद के लिए
खुदा भी दौड़ पड़ेगा, दुनिया टूट पड़ेगी-कहते भी हैं कि जो अपनी मदद खुद करता
है, उसकी सहायता भगवान भी करता है-ज्यों ही किसान निर्भीक होकर कहे कि
दुनिया में इनकलाब और युगान्तर ला देंगे, यकीन रहे। उनमें बड़ी ताकत है, बड़ा
आकर्षण है। उनके कूद पड़ने में वह मोहनी है, वह चुम्बक की शक्ति है कि संसार
को अपनी ओर खींच ले और अन्याय, अत्याचार को खत्म कर दे। रेवड़ा, सिनुआरी,
साँढ़ा, मझियावाँ आदि के किसानों ने यह बात करके दिखा दी है। हमारी बकाश्त
की लड़ाई का यही रहस्य है, उसकी सफलता की यही कुंजी है।
इसी के साथ किसान सभा और किसान-सेवकों को भी पूरा स्वावलम्बी बनना है। यह
नहीं कि बात-बात में ये दोस्त-मित्राों की ही ओर ही ताकें। पैसे का प्रश्न
हो, तो उन्हीं की ओर दौड़ें, अन्न-पानी और सामान की जरूरत हो, तो सहानुभूति
रखनेवालों की दरबारदारी करें, लिखा-पढ़ी और दिमाग का सवाल हो, तो
संगी-साथियों को ढूँढ़ते फिरें, आश्रम बनाना और ऑफिस चलाना हो, तो धानियों,
अधिाकारियों तथा मददगारों को सत्ताू बाँधाकर तलाशते रहें। यह बुरा है, बहुत
बुरा। यह तो प्रकारान्तर से किसान सभा और सेवक-दल को दफनाना है। मँगनी के
सामान और अस्त्रा-शस्त्रा से युध्द में जीत नहीं होती। दिवालियापन बहादुरी
और मर्दानगी का बेशक चिद्द नहीं है। हर बात की बखूबी तैयारी हम पहले ही से
करें। जो किसान संसार को सर्वस्व देता है, वही किसान सभा और किसान-सेवकों
को सबकुछ देगा, यह पक्की बात है। हाँ, थोड़ा-थोड़ा करके देगा। उसके पास
ज्यादा है कहाँ? और बूँद-बूँद से ही तो तालाब भरता है-मूसलाधाार पड़े, तो
तालाब भी खुद जाये, मिट जाये और धारती बह जाये-प्रलय आ जाये। खबरदार, हम
दूसरों की आशा हर्गिज न करें। हमें तो किसान के ही अन्न, धान और जन से उसकी
लड़ाई चलानी है। तभी उसमें मजबूती आयेगी और वह अपने पाये हक की पीछे रक्षा
भी कर सकेगा। इस मामले में हम अपने आप में, अपने लक्ष्य में और किसान में
अटूट विश्वास रखें, आगे बढ़ें, तो विजयश्री हमारे चरण चूमेगी। हमें अन्न,
धान, जन किसी की जरा भी कमी न होगी। हमारा भण्डार हर तरह से पूर्ण रहेगा,
हाँ, महँगी करने के लिए इफ़रात चीजें, ज्यादा पैसे न मिलेंगे। मगर जरूरत के
लिए जितना चाहिए उतना मिलेगा, काफी मिलेगा, यकीन रहे। किसान कोष कभी भी
अन्न, धान से खाली न रहेगा और किसान सेवक दल में लाखों युवक-युवतियाँ सदा
तैयार रहेंगे। किसान सभा के लक्ष-लक्ष एकन्निया सदस्य अनायास बनते रहेंगे।
किसानों के उध्दार का यही एक रास्ता है। विपरीत इसके, यदि किसान सभा को
परमुखापेक्षी रहना है, तो उसका काम समेट लेने में ही ईमानदारी है।
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बकाश्त संघर्ष
दरभंगा जिले में श्री रामलोचन सिंह की देख-रेख में किसानों का
बकाश्त-संघर्ष बड़ी शान्ति और बड़े शान से चलाया जा रहा है। यह हमारी किसान
सभा के लिए और इस जिले के लिए भी गौरव की बात है। उनके साथ एक जबर्दस्त
टोली जवाँमर्दों और बहादुरों की है यह और भी सुन्दर चीज है। यह टोली और यह
लड़ाई उत्तारोत्तार तरक्की करेगी, ऐसे लक्षण साफ नजर आ रहे हैं। इन सबों को
हमारे पुराने से पुराने साथी पं. यमुनाकार्यी का हार्दिक सहयोग और वरदहस्त
प्राप्त है, यह सोने में सुगन्धा है। यह संघर्ष यहाँ निराले ढंग से चल रहा
है, उससे हमें एक नया अनुभव प्राप्त हो रहा है इस लड़ाई के चलाने का। हमने
बकाश्त की सैकड़ों सफल लड़ाइयाँ चलायी हैं और हरेक से खुद कुछ-न-कुछ सीखा है।
इससे भी हमें वही शिक्षा लेनी है, वही शिक्षा मिल रही है। सचमुच ही यदि
यहाँ का तरीका अन्त तक सफल रहा, तो प्रान्त-भर में हमारा बकाश्त संघर्ष सरल
और आसान हो जायेगा और आपका दरभंगा इस मामले में सबों का पथप्रदर्शक बनेगा।
यह बड़ी बात है और इसके लिए मैं आप सबों को बधााई देता हूँ। आशा है, आप इस
संघर्ष को सदा शान्तिपूर्ण, वास्तविक हक की लड़ाई और मजलूमों के त्रााण का
आदर्श मार्ग बनाये रखने में पूरी मुस्तैदी रखेंगे।
इस सम्बन्धा में मैं आपको दो-एक बुनियादी बातें बताता हूँ, जिनकी ओर पहले
इशारा कर चुका हूँ। हमें अपनी लीडरी कायम रखने के लिए बकाश्त के संघर्षों
को गढ़ना नहीं है, बनाना और तैयार करना नहीं है। हमें ठोंक-पीट कर वैद्यराज
नहीं बनाना है। हमारे लिए यह हक की लड़ाई है और हक उसी को मिलता है, जो उसके
लिए मर-मिटने को मुस्तैद रहता है। फलत: बजाय इसके कि हम किसानों को ढूँढ़ते
फिरें कि कौन कहाँ बकाश्त संघर्ष छेड़ सकता है, किसान हमें खुद ढूँढ़ें कि वे
अपना संघर्ष चलाने की प्रतिज्ञा कर चुके और उसके लिए सपरिवार आहुति बनने को
तैयार हैं, हमें उनका पथ-दर्शन करना चाहिए। तभी हमें इसमें पड़ना चाहिए, सो
भी खूब ठोंक-ठाककर, किसान की अच्छी तरह परीक्षा करके। बल्कि जहाँ ऐसे किसान
या किसानों का पता लगे वहाँ हमें स्वयं बिना पूछे ही जा डटना होगा और पता
लगाना होगा कि आया यह हक की लड़ाई है या नाहक की। यदि हक की हो, तो सारी
ताकत लगानी होगी। नहीं तो वापस आना होगा। संघर्ष हर हालत में शान्तिपूर्ण
ही रहेगा। नहीं तो किसान हारेंगे, याद रहे। यदि मर्दों के साथ किसान औरतें
भी जूझने को तैयार न हों, तो भी हार निश्चित ही जानिये। यही नियम है। इसके
अपवाद हो सकते हैं। मगर हमें तो नियम की पाबन्दी करनी है।
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हमारा लक्ष्य
अन्त में किसानों के लक्ष्य किसान-मजदूर राज्य की ओर आपका धयान आकृष्ट करना
है। हम ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं, जिसमें शोषित-शोषक या
किसान-जमींदार आदि परस्पर-विरोधी वर्ग न हों, अतएव जिसमें किसी भी प्रकार
के शोषण का नाम भी न पाया जाये, जिसमें उत्पादन के सभी साधानों-भूमि, खान,
कारखाने आदि पर किसानों और मजदूरों का अधिकार हो, जिसमें व्यक्तिगत
सम्पत्ति लापता हो और जिसमें सबों के लिए समान रूप से हर तरह के आराम और
सर्वांगीण समुन्नति के सभी साधान सुलभ हों। सारांश, हम भूमण्डल पर ही
स्वर्ग, बैकुण्ठ या बहिश्त को बसाना चाहते हैं। दार्शनिकों और वैज्ञानिकों
ने इसे पूर्ण सम्भव और अनिवार्य माना है। यही वास्तविक क्रान्ति और सच्चा
इनकिलाब है, रेवोल्यूशन है। किसान सभा का संगठन हम इसी के लिए चाहते हैं।
इनकिलाब जिन्दाबाद! किसान सभा जिन्दाबाद!
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