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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

20. बिहार प्रांतीय किसान - सम्मेलन, 14 वाँ अधिवेशन (21-22जून 1947 जहानाबाद, गया)

 

मुख्य सूची खंड-1 खंड-2 खंड-3 खंड-4 खंड-5 खंड-6

बदलती हुई दुनिया
तीसरे महायुध्द के आसार!
हमारे मुल्क में भी
कांग्रेस की अन्तिम घड़ियाँ
राष्ट्रीयता अनिवार्य अभिशाप
रहके जाना और जाके रहना
आखिरी धक्का
यह चुपके स्वीकार क्यों?

कांग्रेस मालदारों की?
हमारी आर्थिक राजनीति
जमींदारी का खात्मा
बकाश्त का नया कानून
कण्ट्रोल जहन्नुम जाएँ
गन्ना और गुड़
किसान सभा, किसान सेवक, किसान कोष
दलबन्दी और किसान सभा

बदलती हुई दुनिया

किसान-बंधुओं,

आज एक साल के बाद हम मिल रहे हैं। मगर इस दरम्यान दुनिया की, हमारे मुल्क की और हमारे किसानों की भी हालत बहुत कुछ बदल गयी है, परिस्थिति निराली और अजीब-सी बन गयी है। साथ ही, परिवर्तन और रद्दोबदल इतनी तेजी से हो रहे हैं कि बिजली की चाल को भी मात किये देते हैं। अनेक मुल्कों की दशा दयनीय है, उनकी सरकारें रह-रह कर बदलती हैं, किसी में भी मजबूती नहीं आती, जनता की मुसीबतें बेहद बढ़ गयी हैं, उनकी सरकारों और उनके नेताओं को कोई रास्ता सूझता ही नहीं कि जनता की जरूरतों को पूरा करके उसके बढ़ते हुए असन्तोष और गुस्से के उफान को रोक सकें। गत महायुध्द ने समाज की सारी पुरानी नींव हिला दी है, उसकी पुरानी व्यवस्था मटियामेट कर दी है, उसकी कड़ियों और जोड़ों को बेतरह ढीला कर दिया है। मालूम होता है, जलजला और भूकम्प आ रहा है और सारे का सारा समाज चकनाचूर होकर ही रहेगा। उसके हरेक अंग को जैसे लकवा मार गया है। सभी सामाजिक एवं राजनीतिक बन्धान बेतरह ढीले पड़ गये हैं। ऐसा लगता है कि न तो कोई कानूनी व्यवस्था है और न सामाजिक मर्यादा। अराजकता और उच्छृंखलता का बाजार गर्म है, बोलबाला है। हड़तालों पर हड़तालें होती हैं, उनसे लोगों की मुसीबतें और भी बढ़ती हैं और इस तरह यकायक ज्वालामुखी के फट जाने का पूरा सामान तैयार हो रहा है। ऐसा जान पड़ता है, संसारव्यापी क्रान्ति और इनकिलाब होकर रहेगा।

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तीसरे महायुध्द के आसार!

तेजी से होनेवाली इस उथल-पुथल और परिवर्तनों के फलस्वरूप ही तीसरा साम्राज्यवादी महायुध्द जल्द-से-जल्द होगा, ऐसे आसार नजर आने लगे हैं। अभी दूसरे महायुध्द के घाव और जख्म सूखने भी न पाये, उनकी मरहम-पट्टी भी न हो सकी, कि तीसरे के लिए लँगोटा कसा जाने लगा! चारों ओर से यही आवाज आ रही है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के प्रेसिडेण्ट साहब तो, मालूम पड़ता है, हिटलर के दादा बनना चाहते हैं। ब्रिटिश साम्राज्य का स्थान अमेरिकन साम्राज्यवाद लेने जा रहा है, ऐसा साफ नजर आ रहा है। स्टर्लिंग या पौंड की जगह पर डालर गद्दीनशीन होगा, ऐसा लक्षण बहुत ही साफ है। चीन, फिलस्तीन, बलकान, ग्रीस और तुर्की में-युध्द और व्यापार की दृष्टि से महत्तव रखनेवाले सभी मुल्कों में-अमेरिका का जाल बिछ रहा है। ब्रिटिश शासकों के साथ भीतर-ही-भीतर त्रूमान साहब और उनकी सरकार की तनातनी तो चली रही है। मगर सोवियत रूस के साथ खुलकर कहा-सुनी और डाँट-डपट चालू है। अमेरिका के प्रेसिडेण्ट महाशय रह-रह कर स्तालीन को ऑंखें दिखा रहे हैं। उधर न सिर्फ प्रशान्त महासागर में, बल्कि भारतीय समुद्र, अरब समुद्र और भूमधयसागर में भी अपना फौलादी पंजा जमाने की सरतोड़ कोशिश कर रहे हैं। जहाँ पहले महायुध्द के 20-21 साल बाद दूसरा शुरू हुआ, तहाँ, अन्दाज है, तीसरे के लिए उसका आधा समय भी शायद ही लगे! यही है संसारव्यापी भीषण परिवर्तनों का नमूना और करिश्मा। पाप का घड़ा लबालब भर गया है। वह जल्द फूटेगा। साम्राज्यवादी नये-पुराने लुटेरों ने दुनिया की कमानेवाली किसान-मजदूर जनता का जो खून बेरहमी से पिया है, किया है, वही सर पर चढ़कर बोल रहा है। लोहा जल्द-से-जल्द बजेगा, साम्राज्यवाद का दुर्ग सदा के लिए संसार से ढहेगा और समस्त भूमण्डल के कमानेवाले सुखी होंगे, उनका राज्य कायम होगा।

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हमारे मुल्क में भी

इन तूफानी उथल-पुथलों से हमारा मुल्क भी बचा नहीं है। यहाँ भी कशमकश जारी है। एक ओर किसानों और मेहनतकशों की मुसीबतें बेतहाशा बढ़ रही हैं, हालाँकि कहने के लिए सभी प्रान्तों में और केन्द्र में भी जनता के द्वारा चुने गये लोगों की सरकारें कायम हैं जिन्हें राष्ट्रीय और जनप्रिय सरकार कहने की भी हिम्मत की जाती है। राष्ट्रीय नाम इन सरकारों को दिया जाना तो किसी प्रकार समझ में आ भी सकता है। मगर जनप्रिय कहने के क्या मानी? इन सरकारों से हमारी जनता ऊबी हुई है, गुस्से से जल रही है। जीवन की निहायत जरूरी चीजें सिवाय चोर-बाजार के शायद ही मिलती हैं, अफसरों की घूसखोरी और पुलिस की सीनाजोरी बढ़ती ही जा रही है, गल्ले की जबरन वसूली के चलते गरीबों और साधारण किसानों का दम घुट रहा है, जबकि सचमुच ही ज्यादा गल्ला उपजानेवाला प्राय: अछूते पड़े हैं, भाई का गला भाई और पड़ोसी का पड़ोसी काटने में नहीं हिचकता और इस तरह खून का फाग खेला जा रहा है, अरब-खरब की सम्पत्ति धर्म-मजहब और राजनीति के नाम पर 'अग्नये स्वाहा' की जा रही है, आपसी तनातनी घटने के बजाय रोज-रोज बढ़ रही है, और जन-प्रियता का दावा करनेवाली ये सभी सरकारें 'टुक-टुक दीदम, दम न कसीदम' को चरितार्थ कर रही हैं! इनसे कुछ होता-जाता नहीं दिखता! अगर कहीं कुछ हो भी गया है, सरकार ने कुछ किया भी है, तो वह नहीं के बराबर ही है। मालूम होता है, मौजूदा सरकारों की ताकत के बाहर की बात है इन बेहूदा हरकतों और कामों को रोकना। सरकार की बेबसी का खासा नमूना है रेलों की यात्रा में अराजकता-पूर्ण अराजकता। बिना टिकट के, सो भी ऊँचे-से-ऊँचे क्लास में चलना, मनमाने ढंग से ट्रेन को रोक देना, पावदान और छत पर चढ़कर चलना, गाड़ियों में, और खासकर ओ.टी. रेलवे की गाड़ियों में, रोशनी तथा पंखे का प्राय: सर्वत्र अभाव, प्लेटफार्म वगैरह की दम घोंटनेवाली गन्दगी, आदि बातें पुकार-पुकार कर बता रही हैं सरकार और कानून दोनों ही की बेबसी को! अगर रेलवे के कर्मचारी इन्हें रोकना चाहें, तो बुरी तरह पिट जाने का खतरा बराबर बना है! यदि हथियारबन्द पुलिस या फौज के लोगों के साथ ये कर्मचारी चलें, तो रेलों की सारी आमदनी उसी में खर्च हो जाये! इससे साफ है कि हम और हमारा समाज क्रान्ति के दरवाजे पर खड़े हैं। वह खुलेगा और जल्द खुलेगा और समूचा कूड़ा-कचरा, समूचे का समूचा यह पूँजीवादी एवं जमींदारी मनोवृत्ति वाला समाज उसी में समाकर तहस-नहस होगा, मटियामेट होगा, और उसी क्रान्ति के पेट से शोषण से रहित वर्ग-विहीन समाज का नया जन्म होगा, जिसमें कमानेवाला खायेगा, मौज करेगा और मुफ्तखोर, जमींदार मालदार लापता होंगे। हमें उसी क्रान्ति के लिए तैयारी करनी है और किसानों को मुस्तैद करना है।

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कांग्रेस की अन्तिम घड़ियाँ

जिस राष्ट्रीय कांग्रेस ने लगातार साठ साल से ऊपर ब्रिटिश शासकों से लोहा लिया, जिसकी पुकार पर, खासकर गत 27 साल के दरम्यान, समूचे देश को जाने कितनी ही बार सर पर कफन बाँधकर स्वातन्त्रय संग्राम में प्राणों की बाजी लगानी एवं सर्वस्व की आहुति देनी पड़ी, उस महान कांग्रेस के भी अन्तिम दिन आ गये! क्योंकि हमारे आका अब बोरिया-बधना बाँधकर हमारा पिण्ड छोड़ने को तैयार हो चुके हैं-कम-से-कम बाहरी तौर पर वह ऐसा करने पर आमादा हैं। जिस तरह कठपुतली का नचानेवाला कहीं छिपकर बैठता और अपना काम करता है, हमारे काइयाँ शासक भी अब वही करेंगे और भविष्य में शासक न रहकर ही हमें नचायेंगे, यही उनका फैसला हो चुका है। हर हालत में कांग्रेस का काम पूरा होने जा रहा है-उसका लक्ष्य सिध्द होने ही को है। फिर तो उसका अन्त, उसकी निर्वाण-मुक्ति, उसका खुशी-खुशी खात्मा अवश्यम्भावी है। आजादी और पूर्ण स्वतन्त्रता ही उसका लक्ष्य है और गत 3 जून की ब्रिटिश घोषणा ने ऐलान कर दिया है कि जो विधान-परिषद बन चुकी है या बननेवाली है, वह भारत की भावी स्थिति के बारे में फैसला करने को स्वतन्त्र है। वह चाहे ब्रिटेन के साथ रहने का फैसला करे या सम्बन्धा तोड़ लेने का। फिर हमारे राष्ट्रीय नेताओं को और कांग्रेस को भी और चाहिए ही क्या? और ऐसा हो चुकने पर कांग्रेस की और उनकी नेतागिरी की जरूरत रही क्या जायेगी? इसके लिए अधिक समय भी अपेक्षित नहीं है। अगले अगस्त के मधय तक ही वारा न्यारा होने को है। बड़े लाट ने यही फरमाया है। गो वह उस समय पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य की ही बात कहते हैं, न कि पूर्ण स्वतन्त्रता की। ताहम उनका यह भी कहना है कि यह उसी की तैयारी है अगर भारतीय वही चाहते हों फिर और बाकी रहा ही क्या? तब कांग्रेस क्यों रहने दी जाये? इस प्रकार हमने देखा कि बदलती हुई दुनिया के भीतर हिन्दोस्तान भी आ गया और कांग्रेस भी। इस उथल-पुथल और उलटफेर ने किसी को भी न छोड़ा।

हम जानते हैं कि इसके बाद भी कांग्रेस को कायम रखने की कोशिशें होंगी। ऐसी कोशिशें हो भी रही हैं। कहा जा रहा है कि राजनीतिक क्रान्ति कर चुकने के बाद सामाजिक क्रान्ति की जरूरत है और उसी के लिए कांग्रेस को बरकरार रहना चाहिए। एक ओर यह कहना है। दूसरी ओर सामाजिक क्रान्ति के लिए जिन किसान, मजदूर और विद्यार्थियों के स्वतन्त्र एवं सुदृढ़ संगठनों की जरूरत है, उन्हें या तो छिन्न-भिन्न या अपने उदरस्थ करने की भरपूर कोशिश हमारे राष्ट्रीय नेता कर रहे हैं। यह उलटी बात है। राष्ट्रीय संस्था केवल राष्ट्रीय या राजनीतिक क्रान्ति ही कर सकती है और हमारे नेताओं ने समझौतेवाली मनोवृत्ति के चलते उसे भी न होने देकर उसकी जगह साम्राज्यवाद से समझौते को ला बिठाया। खूबी तो यह कि इस समझौते को ही क्रान्ति नाम देकर हमें उल्लू बनाने की कोशिश की जाती है। समझौता और क्रान्ति परस्पर दो विरोधी चीजें हैं। यदि क्रान्ति हुई रहती, तो भारत के छिन्न-भिन्न होने की नौबत नहीं आती, जिसपर आज हमें खून के ऑंसू रोने पड़ रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीतिक क्रान्ति के ज्वालामुखी के विस्फोट होने पर महासभा, लीग, देशी रजवाड़े और दूसरी सभी जन-विरोधी ताकतें धूल में मिल जातीं और अंग्रेजी सत्ता का नामोनिशान यहाँ रह नहीं जाता, यह ध्रुव सत्य है, इतिहास की ठोस शिक्षा है। मगर समझौता करके एक ओर तो चौका लगाया, गधों को शेर बनाया और इस तरह भारतीय जनता की वास्तविक गुलामी को नया रूप देने का रास्ता साफ किया गया। दूसरी ओर इसे ही क्रान्ति का नाम देकर जले पर नमक छिड़का जा रहा है और जब इतने से भी सन्तोष न हुआ, तो कहा जा रहा है कि सामाजिक क्रान्ति के लिए इसी कांग्रेस और उसके नेतृत्व को चिरजीवी होना चाहिए। तभी शोषित-पीड़ितों का उध्दार होगा। इस पर हमारा यही अर्ज है कि 'मसीहाई को रख छोड़ें, हमें बीमार रहने दें'। इस राष्ट्रीयता के महान अभिशाप को खत्म करें और हम पर रहम करें। हम अपनी खबरगिरी खुद करेंगे। हम पर बड़ी रहम होगी, अगर हमारे वर्ग-संगठनों-किसानों और मजदूरों की सभाओं-को आजाद छोड़ दिया जायेगा। हम इन्हीं के बल पर सामाजिक क्रान्ति बखूबी कर लेंगे।

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राष्ट्रीयता अनिवार्य अभिशाप

इसका अभिप्राय स्पष्ट कर देना ठीक होगा। गुलाम मुल्क के लिए प्रचण्ड और व्यापक राष्ट्रीय भावना-राष्ट्रीयता-अनिवार्य रूपेण आवश्यक है। उसके बिना न तो आजादी की लड़ाई जोरदार और भीषण होगी और न स्वतन्त्रता प्राप्त होगी। इसीलिए पराधीन देश देश के रग-रेशे में, कण-कण में, हवा-पानी में इस राष्ट्रीयता का ओत-प्रोत होना निहायत जरूरी है। भारत में यही हो रहा है। हमारी कांग्रेस उसी राष्ट्रीयता का प्रतीक है। हमने इसीलिए उसे दिलोजान से अपनाया है और उसकी आज्ञा पर सर्वस्व बलिदान किया है। यही बात निर्बाध-रूप में हम तब तक करते रहेंगे, जब तक यूनियन जैक एवं ब्रिटिश शासन की विदाई सदा के लिए हमारे देश से नहीं हो जाती और भारत में भारतीयों का शासन कायम नहीं हो जाता। वह शासन किसका होगा, इससे हमें मतलब नहीं। मालदार-जमींदारों का ही होगा, हम यह भी जानते हैं। किसान-मजदूरों का तो हर्गिज नहीं होगा, उसके लिए तो अभी भीषण संग्राम करना बाकी ही है। संसार में आजादी की लड़ाई के इतिहास से हमने यही सीखा है। इसलिए हम इसके लिए भी तैयार हैं कि यहाँ मालदारों का ही शासन स्थापित हो, मगर विदेशी शासन विदा तो हो। यहाँ तो समझौता हो रहा है। मगर रूस में तो मार्च की क्रान्ति के बाद भी धनियों की ही सरकार बनी, हालाँकि क्रान्ति की किसान-मजदूरों ने ही। फलत: विदेशी शासन की छाया भी जब तक यहाँ रहेगी और यूनियन जैक उड़ता रहेगा, तब तक हम किसी भी प्रलोभन या मोह में पड़कर कांग्रेस के विरुध्द न जायेंगे। क्योंकि उसी से हमारी आशा है कि विदेशी शासन को मार भगाये। यह काम दूसरी कोई भी सभा या पार्टी या सभी मिलकर भी नहीं कर सकती हैं। यही कठोर सत्य है, ध्रुव बात है।

मगर विदेशी सत्ता के मिटते ही यदि शासन-सत्ता यहाँ धनियों के हाथ जाती है तो जाये। इसमें हमारी लाचारी है। हम इसके लिए तैयार हैं। इससे हमें-किसान-मजदूरों को-यही फायदा है कि तब राष्ट्रीयता का अभिशाप-हाँ, अभिशाप-हमारा पिण्ड छोड़ देगा, तब उसका प्रतीक यह कांग्रेस न रहेगी और तब हम आर्थिक एवं सामाजिक कार्यक्रम के आधार पर शोषित जनता की असली लड़ाई ठीक-ठीक चला सकेंगे। इस समय वह चल पाती नहीं और इसका प्रधान कारण यह राष्ट्रीयता ही है। उसके चलते हमारी समस्याओं के आर्थिक पहलू स्पष्ट होने नहीं पाते-धुँधले पड़ जाते हैं। देश के विभिन्न आर्थिक वर्गों-जमींदार-किसान एवं पूँजीपति-मजदूर-के स्वार्थों का परस्पर विरोध और उनकी आपसी टक्कर स्पष्ट हो पाती नहीं, उसका विस्पष्ट अनुभव हो पाता नहीं, और अगर कभी यह अनुभव होता भी है और उसके आधार पर किसान एवं जमींदार की आपसी लड़ाई छिड़ती भी है, तो वह बन्द कर दी जाती है, ज्यों ही आजादी के संग्राम की पुकार हुई। यह भी सोचा जाता है कि यदि विदेशी शासन रहा, तो किसी-न-किसी रूप में यहाँ अनेक शोषकों का जमघट रहेगा ही। उनके बिना विदेशियों की लूट चल नहीं सकती। इन मौजूदा जमींदार-मालदारों का शोषण भी तो विदेशी शासन की छत्र-छाया में ही, उसकी पुलिस एवं मजिस्ट्रेसी (मजिस्ट्रेटों) की सहायता से ही चल रहा है। यदि पुलिस आदि न हों, तो ये जमींदार-मालदार दुम दबाकर भाग जायें और एक मिनट टिक न सकें। यही वजह है कि राष्ट्रीयता की शरण लेकर हम सबसे पहले विदेशियों को यहाँ से भगाना चाहते हैं। इसीलिए हमारी आर्थिक लड़ाई जमकर और डटकर चल पाती नहीं। किसान और जमींदार दोनों ही जब कन्धो से कन्धा भिड़ाकर गुलामी के विरुध्द लड़ते हैं, तो उनका परस्पर स्वार्थ-संघर्ष ख़ामखाह नीचे दब जाता है, ऊपर नहीं आता और हमें अपनी ओर बलात् आकृष्ट कर नहीं सकता। यही है राष्ट्रीयता का अभिशाप, उसकी बड़ी बुराई, और आजादी हासिल करके इस राष्ट्रीयता को दफनाते हुए हम इसी बुराई से अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं; ताकि किसान-जमींदार और पूँजीपति-मजदूर का संघर्ष खुलकर निर्बाध चलाया जा सके। यही बहुत बड़ा फायदा है विदेशी सत्ता के मिटने तथा स्वदेशी मालदारों की सरकार यहाँ कायम होने में। आज तो राष्ट्रीयता के नाम पर खूँखार जमींदार-मालदारों को भी चुनाव में वोट देने के लिए किसान-मजदूर विवश होते हैं। मगर तब? तब तो यह विवशता जाती रहेगी, और यह बड़ी बात है। इसी में शोषितों का उज्ज्वल भविष्य छिपा है। हमें भय है कि आजादी मिलने पर भी कांग्रेस को जिला रखने की प्राणपण से चेष्टा होगी; ताकि इस अभिशाप से हमारा पिण्ड छूटने न पाये और रह-रह कर हमारा दम घुटता रहे। फलत: हमें उस चेष्टा के विरुध्द डटकर लड़ना होगा, जबकि आज हम उसका समर्थन करते हैं। किसानों को इस खतरे से आगाह हो जाना चाहिए।

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रहके जाना और जाके रहना

प्रश्न हो सकता है कि ये सारी बातें इस आधार पर हैं कि अंग्रेजी शासन की विदाई यहाँ से जल्द होनेवाली है। लेकिन अगर ऐसा न हो और प्राय: दो सौ साल से यहाँ का मजा लूटनेवाले ये फिरंगी अपना बिस्तर न बाँधों तो? तब तो कांग्रेस को जबर्दस्त बना रखना ही होगा। फिर मेघ उमड़ा देख घड़ा फोड़ देने जैसी यह बात कैसी? जब वे यहाँ से चले जायें, तभी इन बातों का मौका आयेगा। अभी नहीं है।

दरअसल बात यह है कि अंग्रेजों का शासन का यहाँ से खत्म होना तयशुदा है। उनने फैसला कर लिया है कि अपना पसारा समेट लेने में ही खैरियत है। आज उनके सामने दो ही रास्ते हैं-यहाँ रहके जाना और यहाँ से जाके रहना। अगर वे यहाँ टिके रहने की नादानी करते हैं, तो खतरा यह है कि हमेशा के लिए हर तरह से उनकी विदाई यहाँ से हो जायेगी। चाहे भारतीय आपस में भले ही लड़ें और सरकटौवल करें। मगर विदेशी शासन को बर्दाश्त करने के लिए कोई भी तैयार नहीं। यह ठोस सत्य है, चाहे इसके कारण कुछ भी क्यों न हो और हमारी ज्वलन्त राष्ट्रीयता और कांग्रेस की यह लासानी विजय है। ऐसी हालत में ये साम्राज्यवादी शासक ऐसे ज्वालामुखी के मुँह पर बैठ रहना भारी नादानी समझते हैं जो किसी भी समय फूट सकता है। यदि लोगों को यह पता चल जाये कि अभी अंग्रेजों को अपना झण्डा यहाँ उड़ाने की मर्जी है, तो यकायक विद्रोह की आग भड़क उठेगी। ऐसी व्यापक हड़ताल होगी कि उनके शासन के धुर्रे उड़ जायेंगे और पता नहीं किन-किन मुसीबतों का सामना उन्हें करना पड़े। फलत: वे यहाँ से बुरी तरह पामाल होकर सदा के लिए हर तरह से विदा होंगे। इसे ही यहाँ रहके जाना कहते हैं।

विपरीत इसके अगर वे अभी चले जायें, तो उन्हें आशा है कि देशव्यापी गुस्से के शिकार होने से वे और उनके रोजगार-व्यापार-दोनों ही-बच जायेंगे। सद्भाव बने रहने की भी उम्मीद वे करते हैं। यह भी सोचते हैं कि यदि कहीं यहाँ भीषण अराजकता और मारकाट फैली, तो खुद भारतीय जनता ही उन्हें साग्रह निमन्त्रित करेगी कि कृपा कीजिये और रह जाइये। और नहीं, तो भावी युध्द की दृष्टि से भारत का बहुत बड़ा महत्तव होने के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ (U. N. O.) को ही इसका फैसला करना पड़ेगा कि भारतीय अराजकता को मिटाने के लिए आइये ब्रिटेन, अमेरिका और रूस इन तीनों का ही संयुक्त शासन यहाँ कायम करें। इस तरह उनका यहाँ से जाकर भी रहना हो जायेगा। यही वजह है कि उनने जाने का निश्चय कर लिया है और इसमें उनकी मजबूरी है। ठोस परिस्थिति उन्हें ऐसा करने को विवश कर रही है। अत: ब्रिटिश शासकों का यहाँ से शीघ्र जाना और उसके फलस्वरूप भारत की आजादी अनिवार्य है। यह आजादी महज दिखाऊ होगी या ठोस, यह दूसरी बात है। हम मानते हैं कि ठोस तो होगी नहीं। मगर अगर हमारे राष्ट्रीय कर्णधार इसी पर लट्टई हैं, तो हम क्या करें?

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आखिरी धक्का

हम हमेशा यही मानते रहे हैं कि अंग्रेज लोग भेद-नीति के बल पर ही हम पर शासन करते आये हैं। फलत: जब तक उनकी यह भेद-नीति सफल और कामयाब रहेगी, हमें कहना ही पड़ेगा कि उनका शासन यहाँ मौजूद ही है। चलते-चलाते भी उनने भयंकर भेद-नीति से काम लिया है यह तो स्पष्ट है। भारत के टुकड़े-टुकड़े करने के बाद ही वे यहाँ से हटना चाहते हैं। कुछ टुकड़े तो उनने मुसलमानों के नाम पर कर ही दिये। बाकियों का रास्ता भी साफ कर दिया है। क्योंकि हुजूर बड़े लाट ने अखबार वालों की मीटिंग में साफ ही फरमा दिया कि अगर देशी रजवाड़े ब्रिटिश सरकार से आर्थिक तथा युध्द-संबंधी समझौता-सुलह करना चाहेंगे, तो मैं उनकी यह दरख्वास्त ब्रिटिश सरकार के पास पहुँचा दूँगा। तो और चाहिए ही क्या? क्या यह रजवाड़ों को इशारा नहीं है कि आप लन्दन की ओर नजर फेरें और पूजा-सिज्दा करें? अगर आयरलैण्ड जैसे नन्हे-से टापू में, जो हमारे किसी एक जिले के बराबर ही है, उनने एक अल्स्टर बनाकर उसके नाकोंदम कर दिया है, तो यकीन रहे, यहाँ कई सौ अल्स्टर बनने जा रहे हैं। ट्रावनकोर के 'सर' और निजाम ने उसका मार्ग भी प्रशस्त कर दिया है। तब इससे बढ़कर भेद-नीति की भयंकर सफलता और क्या हो सकती है? याद रहे कि अब तक भारत की एक जबर्दस्त सरकार रखकर ही यह भेद-नीति काम में लायी जाती रही है, उसी को और भी मजबूत बनाने के लिए। मगर अब तो यहाँ अनेक सरकारें बनाकर उन्हीं को ताकत देने के लिए यह बात हो रही है। फलत: यह हजार गुना जहरीली और खतरनाक है। इससे अंग्रेजों का प्रभुत्व गुप्त रूप से हमारे देश में बहुत अधिक बढ़ेगा, यह ध्रुव सत्य है। अंग्रेजों ने चलते-चलाते यह आखिरी धक्का (Parting kick) दिया है, जिससे सँभलना हमारे लिए कठिन होगा, असम्भव होगा। अगर आयरलैण्ड में उनके सौभाग्य से एक सर (पीछे लार्ड) एडवर्ड कार्सन पैदा हुए, तो यहाँ हजारों हैं। फलत: यदि उनने एक अल्स्टर बनाया, तो हमारे ये जयचन्द और मीरजाफर हजारों बनाकर ही दम लेंगे। और अगर एक अल्स्टर से आयरलैण्ड का दम घुट रहा है, तो इन हजारों से हिन्दोस्तान मर जायेगा। यह भी आशा कि थोड़े दिनों के कटु अनुभव के बाद फिर सब मिलकर एक होंगे, निरी नादानी एवं राजनीतिक ज्ञान का कोरा दिवालियापन है। जब पचीसों साल के बाद वह अल्स्टर शेष आयरलैण्ड के साथ एक होने को रवादार नहीं, तो ये क्योंकर होंगे? उलटे हम आपस में ही सदा कट मरेंगे। मुस्लिम लीग की यही मंशा है, उसकी यही नीति है।

हमारे लीडर और उनके वकील इस मामले में बार-बार आत्मनिर्णय और स्वतन्त्र फैसला करने के हक की याद दिलाकर केवल जले पर नमक छिड़कते हैं, गुस्ताखी माफ हो। अगर यही बात है, तो फिर सीमा प्रान्त को भी यह आजादी क्यों नहीं है कि वह जो चाहे वही फैसला करे? उसे भारत के दो भागों में एक के साथ जबर्दस्ती बाँधने की कोशिश क्यों हो रही है? और क्या बिहार के छोटानागपुर के आदिवासियों को भी यह अधिकार मिलेगा कि शेष बिहार से अलग होने का फैसला कर सकें और इस प्रकार उसे खनिज पदार्थों से शून्य बनाकर मियाँ जिन्ना तथा साम्राज्यवादियों के मनोरथों को पूरा करें? इसी प्रकार यदि देशी रजवाड़े भी स्वतन्त्र हो जायें, तो क्या वह आत्मनिर्णय न होगा? लाठी और गोली के बल से वहाँ भी ऐसी मतगणना आसानी से हो सकती है। आखिर सिन्धा की हाल की असेम्बली वाली मतगणना को हम बखूबी जानते हैं कि वह कैसी हुई। सीमा प्रान्त में दूसरी होगी, यह कैसे माना जाये? फलत: इन सड़ी और लचर दलीलों से काम नहीं चलेगा।

अहिंसा और बेजा दबाव न देने की बात भी कुछ ऐसी ही है। अगर सिन्धा, पंजाब या बंगाल पर बेजा दबाव डालकर साथ रखना हिंसा है, तो कातिलों को फाँसी लटकवाना या हड़तालों में लोगों को गोली के घाट उतारना क्या अहिंसा है? मगर कांग्रेसी सरकारें भी यही काम करती हैं, करेगी! तब अहिंसा का क्या सवाल? और देशी रजवाड़ों को जब हमारे लीडर धमकाते हैं कि साथ में आ जाओ, नहीं तो खैरियत नहीं, तो क्या यह बेजा दबाव नहीं है? यह भी तो बात है कि यदि हिंसा और दबाव देकर कुछ भी करना बेजा है, तो उसके या गुंडाई के सामने झुकना उससे भी बुरा है। मगर हम साफ ही देखते हैं कि लीगी उत्पात और गुंडाशाही के सामने हमारे नेता बराबर ही झुकते हैं। आज भी यह बात इसीलिए हो रही है, हिन्दोस्तान का बँटवारा एवं सीमा प्रान्त की मतगणना इसीलिए उनने गले के नीचे उतारी है, बेअदबी माफ हो। इसका नतीजा आगे चलकर और भी खतरनाक होगा। लीग वाले रह-रह कर यही करेंगे। कभी गलियारे का सवाल उठायेंगे, तो कभी कलकत्ता जैसे बन्दरगाह के हथियाने का। हम लोग और हमारे नेता कभी चैन से रहने न पायेंगे, याद रहे। यह केवल मिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना की बात नहीं है। यह तो साम्राज्यवादियों की गहरी कूटनीति है, जिसके शिकार हमारे नेता हो चुके। अगर डेंजिंग को लेकर संसार में महाभारत हो सकता है, तो यहाँ भी इतिहास की पुनरावृत्ति क्यों न होगी? अगर दोनों प्रुशिया को मिलाने के लिए डेंजिंग का गलियारा जरूरी था, तो दोनों पाकिस्तानों को जोड़ने के लिए यहाँ भी जरूरी है, और वह उन्हें मिलकर रहेगा, यह डर है। फिर तो आपसी मारकाट न रुकेगी, यह भी ध्रुव है।

यह भी कहा जाता है कि लीग के साथ यह एक तरह का समझौता हुआ है, सेटलमेण्ट हुआ है। मगर क्या 1916 में लखनऊ में भी इसी तरह एक समझौता नहीं हुआ था? और अगर उसे मिस्टर जिन्ना ने पाँवों तले रौंदा, तो इसकी क्या हस्ती? वह तो खुद उन्हीं के साथ सीधो कांग्रेस ने किया था। मगर यह तो वैसा नहीं है। यह तो हमारे आकाओं के बीच-बचाव से हुआ है। फलत: निहायत लचर और कमजोर है, बेकाम है। तब इसकी धज्जियाँ क्यों न उड़ेंगी? और जब इसे चर्चिल जैसे भारत के जन्मजात शत्रु का वरदान तथा ब्रिटिश पूँजीपतियों के आर्थिक पत्र लंदन के 'एकनामिस्ट' का आशीर्वाद प्राप्त है, यहाँ तक कि वह पत्र इसे बड़े लाट और ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर की विजय मानता है, तो फिर हमारा तो सिर्फ खुदा ही हाफ़िज है, भारत की खैरियत नहीं। आखिर चर्चिल तो बदले नहीं, हम चाहे भले ही बदल जायें-वही चर्चिल जिनने कल तक इसी ब्रिटिश योजना को पानी पी-पीकर कोसा था और भारत के प्रति पार्लियामेण्ट में कोरी आग उगली थी। हमारा हृदय भले ही बदल जाये, परिवर्तित हो जाये, क्योंकि हम हृदय परिवर्तन के कायल हैं; मगर उनका नहीं। उनकी नेकनीयती और ईमानदारी का सर्टिफिकेट हम चाहे हजार दें, मगर ब्रिटिश शासकों में ईमानदारी नाम की चीज है नहीं। दरअसल राजनीति में नेकनीयती और ईमानदारी के लिए स्थान है ही नहीं। फलत: जो इन बातों का दावा करता है, वह या तो देवता है या गधा। यों तो दुनिया में ही इनके लिए शायद ही गुंजाइश है, केवल अपवाद रूप से। मगर राजनीति में तो यह भी नहीं है।

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यह चुपके स्वीकार क्यों?

जैसाकि हमने पहले कहा है, यदि आज क्रान्ति का रास्ता हमारे राष्ट्रीय नेता पकड़ते-हमारा आशय उसी क्रान्ति से है, जो अब तक दुनिया में होती आयी है, फ्रांस, रूस आदि देशों में हो चुकी है-तो भारत को अंग-भंग करके कब्रिस्तान बनानेवालों का पता ही नहीं रहता। मगर उसे छोड़ उनने समझौते का रास्ता पकड़ा। क्यों? उत्तार साफ है। यह उनकी गलत राजनीतिक दाँव-पेंच है। सीधो-सादे लोग समझते हैं कि जब विदेशी शासन को ही हटाना था और वह यों ही हट रहा है, तो फिर क्रान्ति वाले ताण्डव नृत्य की क्या जरूरत थी? जब शत्रु गुड़ से ही मर जाये तो उसे जहर क्यों देना? मगर उनने देखा कि शत्रु हटा तो सही, हटने वाला तो है सही, लेकिन हमें तहस-नहस करके ही, हमारी ऍंतड़ी निकाल करके ही। यह बात क्रान्ति में न हो पाती।

तो फिर हमारे नेता ऐसा क्यों करते हैं? क्या वे पाकिस्तान या भारत का अंग-भंग चाहते हैं? उत्तार आसान है। यदि नहीं चाहते तो बँटवारे पर मुहर क्यों देते हैं? जबानी जमा-खर्च बेकार है। अमली सबूत क्यों नहीं देते कि भारत जिन्दा है, न कि मुर्दा। फिर उसे काटकर टुकड़े-टुकड़े होने देना, बोटी-बोटी करना हम क्यों मानें? ऐसा मानने से वे साफ इनकार क्यों नहीं करते? कहा जायेगा कि तब तो गुलामी रही जायेगी? तो क्या आज बँटवारा मानने पर जाती रही? जाती रहेगी? अब तक जो गुलामी साफ नजर आती थी, वही अब छिप कर रहेगी, भीषण-रूप में और यह बुरा होगा-बहुत बुरा। जिन्दा रहने पर हम आह भी न करें, ऊह भी न करें, यह असम्भव है। तब तो मानना होगा कि भारत मर गया और मुर्दे की गुलामी क्या और आजादी क्या? उसे तो कब्रिस्तान चाहिए और वही होने जा रहा है। और अगर हमारी कांग्रेस, जो भारत की आत्मा है, यह आह-ऊह करे, तो क्या इन विदेशियों की हिम्मत होगी कि ऐसा करें? कभी नहीं। और अगर करें, तो उन्हें कड़वा नतीजा भोगना होगा, यह वह खूब जानते हैं। फिर चुपके से यह स्वीकार क्यों? इस अंग-भंग पर हमारी मुहर क्यों? हम मुर्दा क्यों? आसमान को फाड़नेवाली चीख-पुकार क्यों न मचायें? जख्म या फोड़ा-फुंसी की मवाद निकालने के लिए यह कोई हितैषी डॉक्टर का ऑपरेशन नहीं है। यह तो मीठी बातें करके और हँस-हँसकर कलेजा ही निकाला जा रहा है। फिर भी हम उछल-कूद और उठाव-पटक न करें, यह शर्म की बात है। आनेवाली सन्तान हमें कोसेगी, याद रहे।

(शीर्ष पर वापस)

कांग्रेस मालदारों की?

कहते हैं, कांग्रेस मालदारों की, मधयवर्ग की संस्था है और वह चाहती है कि देश का शासन-सूत्र न सिर्फ भारतीय मालदारों के हाथ में जाये, वरन् वहीं पड़ा रहे, जैसा इंगलैण्ड, अमेरिका आदि देशों में हुआ। वह नहीं चाहती कि यह सूत्र मालदारों के हाथ में जाने पर भी उनसे छिन जाये और जल्द या देर से किसान-मजदूरों के हाथ में चला जाये। चले जाने का रास्ता साफ हो, यह भी वह नहीं चाहती। इसी से क्रान्ति के मार्ग से भागकर जीते-जागते भारत की काँट-छाँट भी स्वीकार करती है। क्योंकि क्रान्ति होने पर रूस के इतिहास की पुनरावृत्ति होकर रहेगी और देश की सत्ता मालदारों के हाथ में थोड़े ही काल तक रहकर फिर कमानेवाले शोषित-पीड़ितों के हाथ में अवश्य चली जायेगी। क्रान्ति उसका रास्ता साफ कर देगी। राष्ट्रीय नेताओं ने रूस की क्रान्ति से यही सबक सीखा है और क्रान्ति से उनके मुँह मोड़ने तथा यह भारी बला मोल लेने की यही वजह है। यदि वह क्रान्ति के पथ पर अग्रसर हों, तो यह कांग्रेस फिर तगड़ी बन जाये। नहीं तो जर्जर हो रही है और भीतर-ही-भीतर इसे घुन खा रहा है, जैसाकि इधर का अनुभव और खासकर बोर्डों के चुनाव के सम्बन्धा की करारी जानकारी उन लोगों को पुकार-पुकार कर बता रही है, जिन्हें ऑंखें हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस में महन्ती आ गयी है और गद्दी या माल चखने के लिए कांग्रेस-जन परस्पर बुरी तरह लड़ते देखे जाते हैं। यह गन्दगी धोकर उसे पुनरपि चमकदार और शानदार बनाया जा सकता है एक ही संघर्ष में। वह जनतन्त्र का हथियार है और उसपर शान चढ़ती है लड़ाई में ही। नहीं तो जंग उसे खाता रहता है, आदि आदि।

यह कहना ऐसे-वैसों का न होकर काफी समझदार और पूरे जवाबदेह लोगों का है। तो क्या दरअसल यही बात है? क्या सचमुच हमारे नेताओं को अब विदेशियों से उतना भय नहीं है जितना अपनी ही जनता से, अपने ही देशभाइयों से? क्या वे वास्तव में अपनी पैदा की हुई ताकत से ही डरने लगे हैं? अपनी ही परछाईं से भय खाते हैं? क्यों वे क्रान्ति का रास्ता छोड़ कर अपने कामों से ही यह सिध्द करने जा रहे हैं कि कांग्रेस मालदारों की संस्था है, भीतर से जर्जर हो चुकी है और बहुत जल्द उसे समाधिस्थ होना है? इसका उत्तार कौन देगा? आखिर हम यह भी तो जानें कि होने क्या जा रहा है? आखिर किसान भी तो इस राजनीतिक दाँव-पेंच की असलियत समझें, नतीजा चाहे जो कुछ भी हो।

(शीर्ष पर वापस)

हमारी आर्थिक राजनीति

यहाँ तक तो हुई राजनीतिक सर-खप्पन और उधोड़-बुन। हमें आर्थिक राजनीति को ही अपनाना है। किसान राजनीति को इसीलिए अपनाते हैं कि उनकी अर्थनीति सफल हो, आर्थिक दशा सुन्दर हो। इसी से किसान सभा और किसानों की राजनीति को हम आर्थिक राजनीति मानते हैं। उनका धयेय अर्थनीति ही है। राजनीति तो उसी का साधन है, जबकि मधयमवर्गियों की गति उलटी है। वे राजनीतिक अर्थनीति के उपासक हैं। उनके लिए आर्थिक बातें साधन हैं और राजनीति साधय। यहाँ हमारा मतलब किसान-मजदूरों की आर्थिक बातों से है। वे इन बातों की चर्चा और इनके लिए प्रयत्न भी सिर्फ इसीलिए करते हैं कि किसान-मजदूर उसी प्रलोभन से उनका साथ देकर उनकी राजनीति को सफल बनायें। शोषितों का सर्वांगीण उध्दार उनका लक्ष्य कभी नहीं होता। यही कारण है कि आजाद होने पर भी अमेरिका प्रभृति देशों में करोड़ों लोग निराश्रय और भूखे-नंगे रहते हैं और सरकारी या गैर-सरकारी दान से ही किसी प्रकार जीविका चलाते हैं। राजनीतिक अर्थनीति के यही मानी हैं, उसका यही नतीजा है।

विपरीत इसके सोवियत रूस में एक भी आदमी पराश्रय या निराश्रय नहीं है, बेकाम और बेरोजगार नहीं है, बेकार नहीं है। सबों के भरपूर कमाने और आराम से रहने के साधन वहाँ मौजूद हैं। वहाँ की सरकार का सर्वोपरि कर्तव्य है कि हर आदमी को काम दे और उसके आराम का प्रबन्ध करे। क्योंकि वहाँ आर्थिक राजनीति की मान्यता है। आगे क्या होगा, हम नहीं जानते। मगर वहाँ आज जो बात है वही हमारा लक्ष्य है, धयेय है किसानों को हम उसी ओर ले जाना चाहते हैं। किसान सभा का यही काम है। हम किस प्रकार उधर जायेंगे, इसका फैसला तो हमीं को करना है, किसानों को ही करना है। किसी की नकल करने से काम न चलेगा। परिस्थिति को तौलकर हमें अपने लिए खुद रास्ता तय करना होगा। सिर्फ लक्ष्य को हम जानते हैं। रास्ता और मंजिल तय करना अभी बाकी ही है।

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जमींदारी का खात्मा

उसी रास्ते के कूड़े-करकट को हटाने के रूप में ही जमींदारी को बिना मुआवजे के ही खत्म करने का प्रश्न हमने बराबर उठाया है। यह खात्मा हमारा साधन मात्र है, न कि धयेय। जमींदारी हमारे रास्ते की चट्टान है, जिसे दूर करना जरूरी है। दरअसल मुल्क की आर्थिक प्रगति का वह बाधक है। उसके मिटाये बिना पूँजीवाद का पूर्ण विकास तथा पूँजीवादी ढंग से मुल्क को आगे बढ़ाना असम्भव है। इसीलिए दूसरे मुल्कों में पूँजीवादियों ने ही इस जमींदारी को मिटाया है। फ्रांस इसका नमूना है। वहाँ जमींदारी का मिटानेवाला नेपोलियन कोई किसान या किसान सभावादी न था। वह कट्टर साम्राज्यवादी था। अमेरिका के पूँजीवादियों ने तो वहाँ जमींदारी पनपने ही न दी और अपने मुल्क की जमीनें डेढ़-डेढ़, दो-दो सौ एकड़ के लम्बे फार्मों के रूप में मुफ्त में ही खेती करने को दीं। बल्कि पैसे की भी मदद दी। तभी वहाँ पूँजीवाद सर्वोपरि प्रगति कर पाया। यही वजह है कि भारतीय पूँजीवादी भी इस जमींदारी को मिटाना चाहते हैं। गत महायुध्द के जमाने में ही 'बम्बई योजना' के नाम से यहाँ के पूँजीवादियों ने जो स्कीम युध्दोत्तार कल-कारखानों की प्रगति के लिए बनायी थी, उसके द्वितीय भाग के 20वें पैराग्राफ में साफ ही लिखा है कि इस जमींदारी को खत्म कर देने में ही मुल्क की और किसानों की भलाई है। उनने यह भी माना है कि ये जमींदार हर तरह से बेकार और निठल्ले साबित हुए हैं। उनने खेती-बारी की तरक्की के लिए कुछ भी नहीं किया है। इसीलिए यदि कांग्रेस ने अपनी चुनाव-घोषणा में जमींदारी मिटाने की बात मानी है, तो वह कोई किसान सभा के कहने से नहीं, गोकि यह सही है कि आज से मुद्दत पहले किसान सभा ने ही यह आवाज बुलन्द की थी कि जमींदारी प्रथा का नाश हो। अलबत्ता बिना मुआवजा के ही खत्म करने की पुकार हमने मचायी है। मगर न तो कांग्रेस ही इसे मानने को रवादार है और न पूँजीवादी ही। जो हमारी खास बात है, वह उन्हें मंजूर नहीं है।

इतना ही नहीं। महात्मा गाँधी की छाप कांग्रेस पर मानी जाती है और कहा जाता है कि उन्हीं की राय कांग्रेस में चलती है। लेकिन इस मामले में उनकी अत्यन्त स्पष्ट राय भी ठुकरा दी गयी है! बात यों हुई कि 1942 के जून में अमेरिकन अखबारनवीस मिस्टर लुई फिशर सेवाग्राम में गाँधीजी के साथ एक हफ्ते रहकर अनेक विषयों पर बातें करते रहे। उसी सिलसिले में जमींदारी मिटाने का प्रश्न भी उनने दो बार छेड़कर मुआवजे की बात उठायी। हर बार महात्माजी ने यही उत्तार दिया कि किसानों के लिए असम्भव है कि मुआवजा दें। वह बिना एक कौड़ी दिये ही जमींदारी को हजम कर जायेंगे। मिस्टर फिशर ने यह बात अपनी अंग्रेजी किताब 'गाँधी के साथ एक हफ्ता' (A weak with Gandhi) में लिखी है। 'गाँधी योजना' में भी जो कुछ लिखा गया है उसका निचोड़ प्राय: वही हो जाता है और जमींदारों को शायद ही कुछ मिले।

मगर कांग्रेस ने और कांग्रेसी मन्त्रियों ने यह बात कबूल न की और जमींदारी के खात्मा की जगह उसको खरीद करने का फैसला किया! क्यों? क्योंकि 'बम्बई योजना' यह कहती है और उसके खिलाफ यदि खुदा भी कहे, तो वे मानने को तैयार नहीं! आखिर दूसरी वजह हो भी क्या सकती है? और अगर है, तो क्या किसान उसके जानने के हकदार नहीं हैं?

यह तो हुई एक बात। इसी के साथ और भी बातें हैं। कांग्रेस की चुनाव-घोषणा में कहा गया है कि किसान और सरकार के मध्यवर्तियों को खत्म कर देना चाहिए- The removal of intermediaries between the peasant and the State’ अंग्रेजी पेजेंट शब्द का व्यावहारिक अर्थ है, खेतिहर, खेती करनेवाला। आप उसे अंग्रेजी के दूसरे शब्दों में 'कल्टिवेटर' या 'टिलर ऑफ दि स्वायल' कह सकते हैं, जिसके मानी हैं खाँटी किसान, वह किसान जो जमीन जोतता-कोड़ता है। खुद जोतता है अपने ही हाथों या दूसरों की सहायता से जोतता और खेती करता है। उसे खेतिहर होना चाहिए। युक्तप्रान्तीय असेम्बली में ता. 8-8-46 को जमींदारी मिटाने का जो प्रस्ताव पास हुआ, उसमें 'पेजेंट' की जगह यह 'कल्टिवेटर' शब्द ही लिखा है। शेष शब्द चुनाव-घोषणा के ही हैं। मगर बिहार की असेम्बली में एक तो गोलमोल शब्दावली दी गयी (दूसरे जमींदारी मिटाने के लिए जो बिल तैयार हुआ है उसके उद्देश्य में साफ ही लिख दिया है कि 'सरकार और रैयत के मधयवर्ती सभी वर्गों को हटाने में रैयतों की भलाई है।' To remove all intermediaries between the Government and Raiyats.’

एक तो ऐसा करने का कोई हक कांग्रेसमन्त्रियों को नहीं है कि वे चुनाव-घोषणा के शब्दों और आशय को बदलें। यह तो राजनीतिक ईमानदारी के विरुध्द है। प्रतिज्ञा को तोड़ना भी है। दूसरे, बिहार में ऐसे-ऐसे रैयत हैं, जिनके पास हजार एकड़ से लेकर दस-पन्द्रह हजार एकड़ तक रैयती जमीन है। वे उसमें खुद खेती करते नहीं, कर सकते नहीं! किन्तु दर रैयत या शिकमी और बँटाईदार किसानों को कड़े-से-कड़े लगान पर देते हैं, हालाँकि खुद जमींदार को नाममात्र का ही लगान चुकाते हैं। अब प्रश्न है कि क्या वे जमींदार से कम भयंकर और शोषक हैं? फिर भी वे खत्म न होंगे, सिर्फ इसीलिए कि रैयत हैं? या कि कांग्रेसी और कांग्रेसियों के दोस्त एवं नातेदार होने के कारण ही उनके साथ यह रिआयत हो रही है? और चुनाव-घोषणा को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है? वे तो वैसे ही बेकार हैं खेती की दृष्टि से, जैसे जमींदार। प्रत्युत जमींदार के रैयतों को तो कानूनी हक है कि जमींदारों को मजबूर करके आबपाशी आदि का प्रबन्धा करा दे। मगर इन बड़े-बड़े रैयत नामधारी शोषकों और लुटेरों के शिकमी और बँटाईदारों को कोई भी हक नहीं है कि उन्हें विवश कर सकें! फलत: ये जमींदारों से भी बुरे हैं, उनसे भी बेकार हैं।

ऐसी दशा में उसी उद्देश्य में आगे चलकर जो यह लिखा है कि 'जमीन के बन्दोबस्त की वर्तमान प्रणाली में आमूल परिवर्तन किये बिना खेती के सम्बन्धा के पुनर्निर्माण की कोई भी ऐसी पध्दति काम में लायी नहीं जा सकती, जो परस्पर सम्बध्द हो, जिसमें किसान को उचित लगान देना पड़े, जमीन का स्थायी बन्दोबस्त हो तथा स्थान-स्थान पर सिंचाई के साधनों की उचित व्यवस्था हो, जिसके फलस्वरूप पैदावार बढ़े और खेती का विस्तार हो।' ‘Without a redical change in the existiing system of landtenure no co-ordianted plan of agricultural re-construciton can be undertaken with a fair rent, fixity of tenure, proper maintenance of local irrigation systems and consequent increase in cropyield and extension of cultivation.’

भला हजारों बीघे वाले रैयतों को, जो शिकमी और बँटाईदार किसानों को अपनी जमीनें सख्त-से-सख्त लगान पर देते हैं, रखकर ये बातें की जा सकती हैं? वे तो जमीनों की छीना-झपटी भी करते रहते हैं और एक बँटाईदार से छीनकर दूसरे को देते रहते हैं। ऐसे लोगों से सरकार का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर भी खेती में क्या भलाई और उन्नति हो सकती है? पैदावार कैसे बढ़ सकती है और खेती का विस्तार कैसे हो सकता है? वे तो खुद खेती करते ही नहीं, या बहुत ही कम करते हैं, जैसाकि जमींदार भी करते ही हैं। तब जमींदारों को हटाकर उनसे भी खूँखारों को रखने के क्या मानी हैं?

यह भी बात है कि अभी-अभी गत अप्रैल के शुरू में किशनगंज (पूर्णिया) के राजनीतिक सम्मेलन में एतत्सम्बन्धाी मेरा ही लम्बा प्रस्ताव पास सर्वसम्मति से हुआ था। उसमें सभी ब्यौरे दिये गये हैं कि क्या-क्या किया जाना चाहिए और जमीन का नया बन्दोबस्त किस प्रकार का होना चाहिए। ये सारी बातें तय करने के लिए जानकारों की एक कमिटी बनाने की बात भी उसमें है। कमिटी बनाने की बात तो मंत्री लोग खुद चाहते थे। मगर अब चुप्पी है और यह बिल अपने ही मन से तैयार करवा लिया गया है! इस प्रकार बार-बार कांग्रेस के निश्चयों की अवहेलना का अर्थ समझना असंभव है। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा मनहूस बिल भी इस बार असेम्बली में पेश न किया गया, हालाँकि उसके लिए दमामा तो बहुत बजाया गया था। यदि पेश होता तो जनता के सामने आ जाने से उसकी बखूबी समालोचना बेदर्दी के साथ की जा सकती थी। न पेश होने से जमींदारों की हिम्मत भी बढ़ी। यह माया समझ में नहीं आती।

अन्त में यही कहना पड़ता है कि जमींदारी मर चुकी है। उसकी केवल श्मशान-यात्रा बाकी है, जिसे जल्दी ही करने में सबों की भलाई है। नहीं तो नाहक ही वह सड़ेगी और बदबू-बीमारी फैलायेगी। जो लोग इसे रखना चाहेंगे वे खुद भी शीघ्र ही मौत के शिकार होंगे और दुनिया से मिट जायेंगे। इसलिए इसे दफनाने में कुछ भी देर करना खतरनाक है। जमींदारों और मधयवत्तर्ाी सभी त्रिाशंकुओं को मिटाकर जमीन का मालिक उन्हीं को बनाना होगा, जो उसमें खेती करते हैं। तभी खैरियत है। कोरे रैयत के नाम पर हजारों एकड़वालों को कायम रखकर उन्हें खून चूसने का मौका देना बुरा है। खेती ही जिनकी जीविका का प्रधान साधन है, वही किसान हैं। उनके अलावे दूसरों के पास हर्गिज जमीन रहने न दी जाये।

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बकाश्त का नया कानून

हम मानते हैं कि कांग्रेसी मन्त्रियों ने इस बार गद्दीनशीन होते ही कानून में कई संशोधन ऐसे कर दिये जिनसे किसान उजड़ने से-उजाड़े जाने से-बच गये। किसानों की इससे बहुत कुछ भलाई हुई। भावली जमीन के भूसा-पुआल आदि का बँटवारा उनने फौरन बन्द किया, दफा 40 की रुकी नगदी जारी की, उसे तय करने में गल्ले की वही कीमत ली जाने का तय किया जो 1935 और 1939 के बीच सस्ती के समय में थी, जो नगदी होगी वह लागू होगी आमतौर से उसी साल के शुरू से ही या उससे भी पहले से जिस साल उसकी दरख्वास्त दी गयी थी, यह नियम बना दिया और ऐसे ही कुछ और भी जरूरी संशोधन काश्तकारी कानून में वे करने जा रहे हैं। किसान उनकी यह बातें भूलेंगे नहीं, हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं। मगर अगर किसानों की दरिद्रता, पामाली, लूट आदि का खयाल करें, तो पता चलेगा कि उनके उध्दार के लिए इसी तरह के हजारों काम जल्द-से-जल्द करने होंगे तभी वे जिन्दा रह सकते हैं। फलत: ये दो-चार काम दाल में नमक के बराबर भी नहीं हैं और जब दाल ही नहीं तो निरा नमक किस काम का? तब इन्हीं के करते किसानों के घोर असन्तोष, उनकी भयंकर बेचैनी के दूर होने की आशा महज नादानी है। वह तो और भी तेजी से बढ़ रही है। अंदेशा है कि जल्दी ही विस्फोट होगा, अगर उन्हें सन्तुष्ट करने के लिए फौरन से पेशतर कुछ गिने-गिने ये ठोस काम न किये गये।

दृष्टान्त के लिए बकाश्त सम्बन्धी नये कानून को ले सकते हैं। यों तो जमींदारी के दफनाने की बात सर्वोपरि है। बकाश्त का झमेला बहुत बड़ा है। किसान जमीन छोड़ने को रवादार नहीं, चाहे जो कुछ भी हो और जमींदार उसे बलात् छीनना चाहते हैं, खासकर जमींदारी मिट जाने का फैसला हो जाने के बाद से। किसान चाहे बीसियों साल से बकाश्त कही जानेवाली जमीन जोतता क्यों न हो, जमींदार उसका उसके ऊपर कब्जा साबित होने नहीं देता। इसीलिए लगान लेकर भी रसीद नहीं देता और हाकिम तो हल, बैल आदि को खेत पर कब्जे का साधन न मान और जमीन पर जाँच-पड़ताल न करके सिर्फ रसीद या कागजी सुबूत से ही किसान का कब्जा देखना चाहते हैं। यही वजह है कि दफा 145 में केस लड़ने पर किसान आमतौर से हारते हैं, जिससे दिक्कत बढ़ती है। यह बात पंचायती ढंग से तय हो इसी सम्बन्धा में पहले तो जल्दी-जल्दी ऑर्डिनेंस बना। पीछे बिल बनाकर वही बात असेम्बली से भी पास हो गयी। फिर भी उसके मुताबिक काम नहीं हो रहा है और वही 145 का बेढंगा रवैया अब भी जारी है, हालाँकि मुद्दत गुजर गयी! ऐसा क्यों होता है? यह ढीला-ढाला मामला क्यों है? जिसके लिए ऑर्डिनेंस बना, वही चीज वर्षों मुँह देखती रहे, यह गजब की बात है। हम मन्त्रियों से साफ कहना चाहते हैं कि आषाढ़ गुजर रहा है, किसान इस बार बकाश्त एक इंच भी न छोड़ेंगे और जमींदार उसके लिए सब कुकर्म करेंगे। नतीजा होगा मारपीट, खून-खराबी और जानें क्या-क्या। हम उसे बचाना चाहते हैं। इसीलिए हमारी जोरदार पुकार है कि बकाश्त संबंधी हाल के कानून के अनुसार सूबे के हर जिले और इलाके में फौरन वैसी पंचायतें कायम करके झटपट फैसला कराया जाये और जब तक फैसला न हो जाये, झगड़ेवाली जमीनों में खेती करने की बेरोक-टोक इजाजत किसान को दी जाये, ताकि गल्ले की महँगी और दुर्लभता के इस कठिन समय में एक इंच भी जमीन यों ही पड़ी न रह जाये। केवल इस साल की नयी खेती से तो कब्जा सिध्द होगा नहीं। फिर उस पर नाहक रोक-टोक क्यों? यदि हमारे मंत्री ऐसा न करेंगे, तो जवाबदेही उन पर होगी। क्योंकि हम तो उनका रास्ता साफ करने के लिए हमेशा तैयार हैं। तत्काल यह विकट समस्या है, जो फौरन सुलझे तो ठीक।

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कण्ट्रोल जहन्नुम जाएँ

इधर जीवन की जरूरी चीजों की महँगी और दुर्लभता जनसाधारण और किसान का जीवन-स्रोत सुखा रही है, सुखा चुकी है और इसके लिए सबसे ज्यादा जवाबदेह यह कण्ट्रोल का महापाप है। चाहे गलत हो या सही, सबों का खयाल यही है और जनतन्त्र के युग में इस विचार के सामने सर झुकाकर सरकार इन कण्ट्रोलों को-सबों को-अविलम्ब खत्म कर दे। तभी खैरियत है। इसमें दलील की गुंजाइश नहीं है। ऐसा करने और उसी आधार पर इन कण्ट्रोलों को कायम रखने में 'मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की' वाली बात ही चरितार्थ होगी, याद रहे। लोग इनसे ऊब चुके हैं। फिर भी यदि ये जल्द न हटे, तो भड़ाका होगा।

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गन्ना और गुड़

गन्ने की कीमत, गुड़ पर प्रतिबन्धा और चीनी के कारोबार का सवाल भी कम अहम और पेचीदा नहीं है और किसानों को रह-रह कर चुभता है। ऊख की खेती कमबेश सभी किसान करते हैं, छोटानागपुर और कुछ दूसरे इलाकों को छोड़कर। उसी ऊख से गुड़ बनता है, चीनी तैयार होती है। बिहार में चीनी की 30 मिलें हैं। फिर भी किसानों को-मिलों में ऊख पहुँचानेवाले किसानों को-भी आमतौर से चीनी कण्ट्रोल रेट पर शायद ही कभी सेर-आधासेर मिल जाती हो। जब कभी उन्हें विवाह-श्राध्द आदि के लिए एक-दो मन की जरूरत होती है, तो चोर-बाजार में प्राय: दो रुपये सेर के भाव से खरीदने को वे विवश होते हैं। फिर भी हमारे मंत्री मानते हैं कि चीनी की कीमत पर उनका कण्ट्रोल सफल हुआ है। शायद बाबुओं को देखकर ही वे ऐसा मानते हैं। मगर जब तक आम जनता को, खासकर देहातों में, कण्ट्रोल दर से चीनी दिलाने का प्रबन्धा वे नहीं कर लेते, उनका यह सोचना सरासर गलत है।

चीनी न मिलने पर गुड़ से काम चलाने की कोशिश होती है। मगर छोटानागपुर में उसके पड़ोसी जिलों से भी गुड़ जाने नहीं दिया जाता, जिससे वहाँ दुर्लभ और बहुत महँगा मिलता है! ऐसा इसलिए किया जाता है कि चीनी की मिलों को ऊख भरपूर मिले! यदि पूछें कि बिना ऐसा किये ही क्यों नहीं मिलती? तो उत्तार आता है कि किसान को गुड़ बनाने से ज्यादा पैसे मिलते हैं। इसीलिए घुमा-फिराकर गुड़ बनाने से रोका जाता है। मगर यह तो उलटा तरीका है। पैसे कम मिलने पर मिलों को किसान ऊख क्यों देगा? क्या चीनी के मिलवाले कम पैसे पर चीनी बेचेंगे? वे तो सरेआम चौगुनी कीमत पर बेचते हैं। किसान के लिए भी उचित था कि 40-50 रुपये मन के भाव से गुड़ बेचता। लेकिन वह तो 16 से 20 रुपये तक से ही सन्तोष करता है। फिर भी उसी पर गुस्सा? उसी पर यह वक्र दृष्टि? उसी को मिलनेवाले चार पैसों को रोकने-छीनने की यह भारी तैयारी? मच्छर को मारने के लिए इस तोप-बन्दूक की तैयारी से तो अच्छा और उचित था कि बाघों पर ही ये हथियार भिड़ाये जाते और चीनी की मिलों का चोर-बाजार होने न पाता। यही एक दवा थी, दवा है। दूसरी दवा है ऊख की कीमत काफी बढ़ाना और जितनी पारसाल थी उसकी दूनी कर देना। किसान सभा की यह पुरानी माँग है और इसका आधार जबर्दस्त है। हम चीनी का कारोबार यहाँ चमकाना चाहते हैं। इसी से यह माँग है। यदि मिलवाले घाटे में मिलें नहीं चला सकते, तो गरीब किसान से आशा करना कि घाटे में ऊख देगा, निरी नादानी है। पैसे की चाट और हाय से कौन बचा है?

युक्तप्रान्त का रास्ता देखने और इस मामले में उसी तरफ इशारा करने से काम नहीं चलेगा। सधवा के सर में सिन्दूर देखकर विधवा अपना सर फोड़े और उसे सुर्ख करे यह कोई समझदारी नहीं है। युक्तप्रान्त की अपेक्षा यहाँ खेती की मजदूरी और दूसरे खर्च ज्यादा हैं। गेहूँ, चावल का जो भाव यहाँ है, उसकी आधी कीमत वहाँ है और यह ठोस चीज है। इसलिए खेत के मजदूर ज्यादा मजदूरी चाहते हैं। लोहा, लक्कड़ आदि खेती की जरूरी चीजें भी वहाँ से यहाँ महँगी मिलती हैं और किसान के लिए जरूरी कपड़े आदि भी यहाँ बहुत महँगे हैं। क्यों हैं, इसका जवाब हमें नहीं देना है। यह तो सरकार का काम है कि जवाब दे और महँगी को दूर करे। हम तो ठोस सत्य कहते हैं और जब तक यह महँगी है यू.पी. वालों के भाव में यहाँ का किसान मिलों को काफी गन्ना कभी न देगा, यह बात मिलवाले और मिनिस्टर जितना जल्द समझ लें, उतना ही अच्छा। अगर कहीं गुड़ पर रोक डालकर या दूसरी तरह से उसे ज्यादा दबाया गया, तो ऊख की खेती ही खत्म हो जायेगी। यहाँ का किसान अपने हानि-लाभ की बातें थोड़ी-बहुत समझता भी है। अत: उसे भेड़ों की तरह मूँड़ा नहीं जा सकता। उसे समझा-बुझाकर ही काम लेना होगा और इस काम में हम समझानेवालों का साथ देने को सदा तैयार हैं, बशर्ते कि समझाने का रास्ता कामचलाऊ और व्यावहारिक हो। चीनी की मिलों के खत्म होने में किसान की सबसे बड़ी हानि है, यह हम मानते हैं। मगर जब मजबूरी हो, तो क्या किया जाये? इकलौता बेटा मरने, आग लगने और मालमता चोरी होने में भी तो भारी हानि होती है, और अपनी जमीन-जायदाद के लिए मार-पीट करने में क्या कम हानि होती है? मगर मजबूरन उसे बर्दाश्त करना ही पड़ता है। हमें इतना ही कहना है कि जिद में आकर या ऑंख मूँदकर हम कुछ भी नहीं करते; किन्तु सोच-समझकर ही। हो सकता है, हमारी समझ गलत हो। मगर वह गलती जब तक दोस्ताने ढंग से हमें सुझायी नहीं जाती, तब तक वैसा ही करने का हमें पूरा हक है और गलती सुझाना दूसरों का काम है। अत: इसके लिए हम उन्हें निमन्त्रित करते हैं कि या तो वे हमें समझायें या हमसे खुद समझें। कहीं ऐसा न हो कि दोनों की या एक ही की नासमझी से चीनी का सारा कारोबार ही यहाँ से विदा हो जाये। फिर भी यदि उनने कुछ न किया, तो सारी जवाबदेही उन्हीं पर होगी।

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किसान सभा, किसान सेवक, किसान कोष

अन्त में हमें किसानों को उनकेर् कत्ताव्यों की याद दिलानी है। आखिर जो कुछ होगा उनके अपने यत्न से, अपने ही संघर्ष से होगा। वे संगठित होकर सरकार को विवश कर सकते हैं, जमींदारों को दुम दबाकर भागने के लिए मजबूर कर सकते हैं, अपने हक हासिल कर सकते हैं और दुनिया में सुखमय मानव जीवन गुजारते हुए सर ऊँचा करके चल सकते हैं। दूसरा रास्ता है नहीं। इसीलिए संघर्ष की तैयारी में लग जायें और किसान सभा को गाँव-गाँव, थाने-थाने जिले-जिले और प्रान्त-भर में मजबूत करें। उसके लक्ष-लक्ष मेम्बर बने, किसान सेवक दल स्थान-स्थान पर कायम करके उसमें हजारों की संख्या में भर्ती हों और किसान सभा के लिए अन्न-धन का, किसान कोष का संग्रह मुस्तैदी से करें। बिना कोष और सेवक दल के कुछ होने-जाने का नहीं, किसान सभा दृढ़ होने की नहीं और इसके बिना दु:ख दूर होने के नहीं, यह पक्की बात है। सभा, सेवक दल तथा कोष यही तीन चीजें जरूरी हैं, किसानों के सर्वस्व हैं, उनके निस्तार के साधन हैं। हर जिले के किसान कोष में लाखों रुपये और प्रचुर अन्न हो, लाखों किसान सेवक हों और किसान सभा के लाखों मेम्बर हों। फिर तो बेड़ा पार है। जो किसान दुनिया के तथा अपने लूटनेवालों के कारोबार चलाने के लिए अरब-खरब रुपये देता है, गेहूँ-बासमती देता है, अपने भाई-बन्धुओं और पुत्र-पुत्रियों को देता है, क्या वही किसान सभी लूट और शोषण को मिटाने के लिए अपनी सभा को लाखों रुपये और सेवक न देगा और मेम्बर बनकर सभा को दृढ़ न बनायेगा? मेरा अटल विश्वास है कि वह ऐसा जरूर करेगा और मुल्क में इनकिलाब लायेगा।

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दलबन्दी और किसान सभा

एक ही बात और कहनी है। बीसियों साल के कटु अनुभव के बल पर ऐसा कहने को हम बाधय हैं कि विभिन्न राजनीतिक दल और पार्टियाँ किसान सभा जैसी वर्ग-संस्थाओं के लिए क्रूर ग्रहों का ही काम करती हैं और राहु-केतु की तरह इन्हें ग्रसने के लिए ही सदा तैयार रहती हैं। हर पार्टी इन संस्थाओं को अपनी दुम में बाँधने की ही ताक और फिक्र में रहती है। यदि मालदारों की संस्थाएँ इन वर्ग-संस्थाओं के लिए मृत्यु हैं, तो ये पार्टियाँ उससे जरा भी कम नहीं हैं, गुस्ताखी माफ हो। जब तक स्वतन्त्र रूप से किसान सभा, मजदूर सभा आदि वर्ग संस्थाएँ फूलें-फलें नहीं, संगठित हों नहीं, कुछ होने-जाने का नहीं और यही काम ये पार्टियाँ होने नहीं देती हैं, यह साफ बात है। इसीलिए हमें इस बड़े खतरे से सावधान रहना और पार्टियों के मायाजाल में खुद कभी नहीं पड़ना है और न किसान सभा को पड़ने देना है। इन पार्टियों और पार्टीवालों से हमारी पट नहीं सकती। अत: हम इनसे दूर ही रहें और किसानों को रखें, तभी खैरियत है।

जब जनतन्त्र और जनजागरण का युग न था, तब ये पार्टियाँ बनीं लोगों के पथदर्शन के लिए, यह बात समझ में आती है। यद्यपि मुट्ठी-भर लोगों ने ही पार्टियाँ बनायीं और दूसरे लोगों के उपदेशक बन बैठे धर्मोपदेशकों और मसीहा लोगों की तरह। तथापि उस समय इनकी उपयोगिता समझ में आ सकती थी। लोगों पर ये पार्टियाँ अपनी बातों और अपने आपको लादना चाहती थीं सही। फिर भी जनजागरण के अभाव में यह बात सह्य थी, समझ में आ सकती थी।

लेकिन आज तो संसारव्यापी जनजागरण है, जनतन्त्र की आवाज सर्वत्र गूँज रही है। भारत भी उसी लहर में बह रहा है। तब इनकी क्या उपयोगिता है? तब ये क्यों बर्दाश्त की जायें? तब इन्हें किसान और मजदूर अपने माथे पर क्यों लादें? अगर किसान इन्हें नीचे से ऊपर तक चुनाव के जरिये बनाते, तो एक बात थी। यदि किसान सभा या किसान-मजदूर सभाएँ चुनाव के जरिये कोई राजनीतिक दल बना डालतीं, तो उन दलों की आज्ञा, उनके उपदेश और उनके सिध्दान्त एवं 'थीसिस' किसानों और किसान सभा पर लादे जाते और समझ में आते। मगर यह बात तो है नहीं। यहाँ तो बाहर ही बाहर बनी ये पार्टियाँ 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' और 'दाल भात में मूसरचन्द' बनना चाहती हैं। तब इन्हें क्या हक ऐसा करने का है? जनतन्त्र के आधार पर बनी राष्ट्रीय कांग्रेस की मातहती को छुड़ाकर अपनी मातहती करवाने के लिए ये पार्टियाँ जमीन-आसमान एक करती हैं! यह अजीब बात है। हम यह कभी मान नहीं सकते, किसान यह कभी न मानें और हर तरह से स्वतन्त्र किसान सभा का जबर्दस्त संगठन बनायें। तभी क्रान्ति होगी, तभी किसान-मजदूर राज्य कायम होगा।

किसान सभा जिन्दाबाद! इनकिलाब जिन्दाबाद!

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