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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

21. बिहार प्रांतीय किसान - सम्मेलन, ( 12-13 मार्च 1949), ढाकाइच, शाहाबाद)
 

मुख्य सूची खंड-1 खंड-2 खंड-3 खंड-4 खंड-5 खंड-6
आजादी का खोटा सिक्का
घुटके मर जाएँ!
वहाँ और यहाँ
राजनीतिक पंडागिरी
निरी मक्कारी
बाबू मठाधीश!
संस्कृत शिक्षा
बेसिक शिक्षा
शिक्षकों की दुर्दशा
पुलिस के सिपाही
होमगार्ड्स या रक्षावाहिनी
छात्रों में लहर
व्यापक असन्तोष
अप्रत्यक्ष करों की वृध्दि
सत्यनाशी सेल्स टैक्स
जमींदारी खत्म न होगी
जमीनों की छीना-झपटी

पानी के करते बे पानी
ऊखवाले किसान
भावली की नगदी
लड़ाई का दूसरा पर्व
वैधानिकता का मोह
कांग्रेस-तब और अब
साम्यवाद का हौआ
साम्यवाद आ रहा है
साम्राज्यवादियों से गठबंधन
भेड़िया आया
दमन का ताण्डव
ज़मीन की कमी और आधुनिक खेती
किसान और खेत मजदूर
सीधा संघर्ष - तुम या हम
फिर वही दो दल
जय किसान, जय मजूर

आजादी का खोटा सिक्का

किसान बंधुओं,

आइये, अपना घर देखें। मर-खप कर हमने आजादी हासिल की। मगर आजादी का यह सिक्का खोटा निकला। आजादी तो सभी तरह की होती है न? भूखों मरने की आजादी, नंगे रहने की आजादी, चोर-डाकुओं से लुट-पिट जाने की आजादी, बीमारियों में सड़ने की आजादी भी तो आजादी ही है न? तो क्या हमारी आजादी इससे कुछ भिन्न है? अंग्रेज लोग यहाँ के सभी लोहे, कोयले, सीमेंट और किरासिन तेल को खा-पीकर तो चले गये नहीं। ये चीजें तो यहीं हैं और काफी हैं। फिर भी मिलती नहीं! जितनी पहले मिलती थीं उतनी भी नहीं मिलती हैं! नमक की भी वही हालत है। कपड़ा यदि मिलता है तो पारसाल से डयोढ़े दाम पर साहु बाजार में और उससे भी ज्यादा पर चोरबाजार में। क्या पारसाल से इस साल किसान के गल्ले वगैरह का दाम एक पाई भी बढ़ा है? ऊख का दाम तो उलटे घट गया। तब खुद सरकार ने कपड़े का दाम इतना क्यों बढ़ा दिया? जब चोरबाजार में सभी चीजें जितनी चाहो मिलती हैं तब तो उनकी कमी न होकर नये शासकों में ईमानदारी, योग्यता और नेकनीयती की कमी ही इसका कारण हो सकती है। लोगों में इन गुणों की कमी ठीक ही है; क्योंकि 'यथा राजा तथा प्रजा'।

हमें आए दिन पुलिस और हाकिमों की झिड़कियों को सहना पड़ता है, बिना घूस के कोई भी काम हो नहीं पाता और मिनिस्टरों के पास पहुँच नहीं। रात में बदनाम चोर-डकैतों के मारे नाकोंदम है, खैरियत नहीं और दिन में इन नेकनाम डकैतों के डाके पड़ते हैं। मालूम होता है जनता की फिक्र किसी को भी नहीं है। खाना नहीं मिलता-महँगा होता जा रहा है। फिर भी ये मिनिस्टर बड़ी उम्मीदें बाँध रहे हैं कि वोट तो अगले चुनाव में इन्हें और इनके कठमुल्ले 'खाजा टोपी' धारियों को जरूर ही मिलेंगे। जन साधारण को ये गधों से भी गये-बीते समझते जो हैं। यही है हमारी नयी आजादी का नमूना और इसी का दमामा बजाया जाता है। किसान समझता था और मजदूर मानता था कि आनेवाली आजादी यदि चीनी-मिश्री जैसी नहीं तो गुड़ जैसी मीठी होगी ही। मगर यह तो हर हर माहुर साबित हुई जिससे हमारे प्राण घुट रहे हैं।

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घुटके मर जाएँ!

जो नेता आज गद्दीनशीन हैं वह चिल्लाते थे कि नागरिक स्वतन्त्रता सबसे जरूरी है-उसकी रक्षा मरकर भी करेंगे। मगर उनने गद्दी पर बैठते ही उसी के खिलाफ जैसे जेहाद बोल दिया है। तीस दिन और बारह महीने सभाओं, मीटिंगों और जुलूसों पर रोक लगी है। सिर्फ पुलिस की नहीं, अब तो जिलाधीशों की आज्ञा के बिना आप कभी कुछ नहीं कर सकते। अखबार तो प्राय: सभी उन्हीं की हुऑं में हुऑं मिलाते हैं। जो कुछ बोलते भी हैं सिर्फ दबी जुबान से। नहीं तो जुबाँ खींच ली जाये ऐसा डर लगा है। जो खुलकर बोलते हैं वे लटका दिये जाते हैं।

साम्प्रदायिकता के दंगों को दबाने के लिए सार्वजनिक रक्षा के नाम पर कानून बनाया गया। मगर उसका प्रयोग नागरिक स्वतन्त्रता के विरुध्द सरासर हो रहा है। दिनोंदिन उसे और भी सख्त बनाकर करेले को नीम पर चढ़ाया जा रहा है! नागरिक स्वतन्त्रता के मानी रह गये हैं सिर्फ लीडरों की बातों को दुहराना और शासक जो कहें उसी को सही-दुरुस्त बताना, 'ऊँट बिलैया ले गयी, तो हाँ जी-हाँ जी कहना।' थोड़े में 'न तड़पने की इजाजत है न फरयाद की है। घुट के मर जायें मर्जी यही सैयाद की है।' रामगढ़ कांग्रेस के बाद जिस भाषण की स्वतन्त्रता के नाम पर कांग्रेस ने लड़ाई छेड़ी थी वह आज उसी कांग्रेस के राज्य में शूली पर लटका दी गयी है। फिर भी उम्मीद की जाती है कि लोगों के दिलों में बेचैनी की आग धक धक नजले!

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वहाँ और यहाँ

सोवियत रूस को जारशाही से वैसी ही आजादी 1917 के मार्च में मिली थी जैसी हमें 1947 के अगस्त में प्राय: तीस साल बाद ब्रिटिश साम्राज्यशाही से मिली मानी जाती है। मगर क्या उसके साथ हमारी कोई तुलना है? रूस के बारे में महामना लेनिन ने अपने 'अप्रैल वाले मन्तव्यों' में लिखा है कि 'दुनिया के मुल्कों में रूस सबसे अधिक स्वतन्त्र है। रूसी जनता की हिंसा लापता है और यहाँ की जनता ऑंख मूँद कर रूसी सरकार में, जो पूँजीपतियों की है, विश्वास करती है।' भारत तो संसार में आज सबसे कम स्वतन्त्र है। उसकी जुबान और लेखनी पर जंजीरें जकड़ी हैं। जनता की हिंसा भी जोरों से जारी है, चाहे अमन कानून के नाम पर शासकों के द्वारा या चोर-लुटेरों के द्वारा। यहाँ नेहरू सरकार बेशक पूँजीपतियों की है और अभी तक शायद जनता का इसमें विश्वास भी है। मगर वह ऑंख मूँद कर तो नहीं ही है। उसकी जड़ हिल चुकी है और जनता ने खुले और छिपकर इस सरकार को कोसना-लथाड़ना शुरू कर दिया है! वर्तमान शासक यह जान भी गये हैं।

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राजनीतिक पंडागिरी

उन्हें भय है कि आगे उनकी पूछ न होगी। इसीलिए एक ओर जहाँ साम्यवाद एवं अराजकता के नाम पर दमन का दौर-दौरा है तहाँ दूसरी ओर उनने राजनीतिक पंडागिरी भी शुरू कर दी है जो बड़ी भयंकर होगी, अगर फौरन रोकी तथा दफनायी न गयी। वह खूब समझते हैं कि फासिस्टी दमन से देर तक भूखी, नंगी, कराहती जनता को दबा रखना असम्भव है। इसीलिए दमन के साथ ही बापू के नाम पर राजनीतिक मूर्तिपूजा उनने जारी कर दी है। स्थान-स्थान पर महात्माजी की मूर्तियाँ बन चुकी और तेजी से बन रही हैं, जिनके पंडे वही 'खाजा टोपी' वाले बन रहे हैं! गाँधीजी की आत्मा को खून के ऑंसू रुलाने वाले ये बाबू दिन-रात उनकी सत्य, अहिंसा को एक ओर बेमुरव्वती से कत्ल करते हैं। दूसरी ओर उनकी जय बोलते और 'रघुपति राघव राजा राम' गाकर भोली जनता पर मिस्मरिज्म वाला जादू चलाना चाहते हैं। इनके कुकर्मों से जनता ऊबी है। लेकिन धार्मिक पंडों से क्या कम ऊबी है? फिर भी यदि उन पंडों के पाँव पड़ती और चढ़ावा चढ़ाती है तो इन नये राजनीतिक पंडों को भी पैसे और वोट का चढ़ावा जरूर चढ़ायेगी, इसी खयाल से महात्मा जी के नाम पर यह पंडागिरी चालू हो रही है जो निहायत ही खतरनाक होगी। धार्मिक पंडागिरी में तो सुधार हो सकता है, वह मिट सकती है। मगर इसमें सुधार की गुंजाइश कहाँ? इसलिए यह पनपने ही न पाये, यही करना होगा। इसके विरुध्द अभी से जेहाद बोलना होगा नहीं तो किसान-मजदूर मर जायेंगे यह ध्रुव सत्य है। ये बाबू पंडे 'गाँधीजी की जय' और 'रघुपति राघव' को अपना राजनीतिक हथकण्डा बनाने जा रहे हैं, याद रहे। इसलिए हमें इसे मटियामेट करना होगा।

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निरी मक्कारी

जो समझते हैं कि ये बातें महात्माजी के प्रति इन बाबुओं की भक्ति की सूचक हैं वे भूलते हैं। इन्हें उस भक्ति से क्या ताल्लुक? इन्हें तो अपना पाप छिपाना और उल्लू सीधा करना ठहरा और इनने देखा कि अगर कंठी-माला और राम नाम के पीछे सारे कुकर्म छिप जाते हैं तो हम भी नये किस्म के राम नाम और नयी कंठी-माला तैयार करें। इनकी यह निरी राजनीतिक कलाबाजी है। यह जयजयकार, यह रामधुन और यह चरखा धुन की कोरी आधुनिक कंठी-माला है। इन्हीं सब चीजों के पीछे राजनीतिक महापाप छिपे-धुलेंगे ऐसा इनने मान लिया है। धार्मिक साधु-फकीरों से ही धूर्ततापूर्ण राजनीतिक फकीरी का पाखण्ड इनने चालाकी से सीखा है। महात्मा ने लाख मना किया कि माउण्टबेटन योजना को लात मारो और भारत को छिन्न-भिन्न मत होने दो। तो क्या इन बाबुओं ने उनकी एक भी सुनी? बापू ने कहा कि कांग्रेस को तोड़कर लोक सेवक संघ बनाओ और इस तरह चुनावों में होनेवाले घोरतम कुकर्मों में उसे मत सानो। परन्तु क्या इन राजनीतिक कलाबाजों ने उधर कान भी किया? 1947 के 15 अगस्त के बहुत पहले क्या इनने गाँधीजी की अहिंसा को ठुकराकर उन्हें मर्मान्तिक वेदना नहीं पहुँचायी थी? तब उनके प्रति भक्ति का क्या सवाल? जीते पिता के ठुकराने और निरन्तर निरादर करने के बाद मरने पर उसका पिण्डा-पानी करना इसे ही कहते हैं। यही तो मक्कारी है, और किसानों का भला तब तक न होगा जब तक इस मक्कारी का पर्दाफाश अमली तौर पर नहीं करते।

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बाबू मठाधीश!

इनकी राजनीतिक पंडागिरी का एक और पहलू भी देखिये। मठ-मन्दिरों और धार्मिक सम्पत्तियों के नियन्त्रण एवं सुसंचालन के नाम पर इनने बिहार में धर्मादाय सम्पत्ति बिल तैयार किया है जिसे कानूनी जामा पहनाने के लिए भी ये आतुर हैं। हमने वह बिल पढ़ा है। यदि उसे कानूनी रूप मिला तो वर्तमान महन्तों एवं पंडे-पुजारियों का स्थान ये 'खाजा टोपी' धारी बाबू ले लेंगे और उनकी समस्त सम्पत्ति या तो चुनावों में लगेगी या इनके तथा इनके चेले-चाटियों के पेट में समायेगी, वह ध्रुव सत्य है। मठ-मन्दिरों के प्रभाव से भी चुनाव में काफी फायदा उठाया जायेगा। जिनने राजनीति और अर्थनीति में सभी कुकर्म खुलकर किये, जो ऐसा करने में आज जरा भी नहीं हिचकते, वह धर्मनीति को सीधो फाँसी लटकाकर सारी सम्पत्ति को द्रविड़ प्राणायाम के द्वारा डकार जाने में साँस भी न लेंगे।

मठ-मन्दिरों को मिटा देना है तो साफ कहिये। द्रविड़ प्राणायाम की क्या जरूरत? उन्हें यदि वर्तमान पंडे-पुजारी और महन्त मिट्टी में मिला रहे हैं तो बाबू लोग उससे भी बुरा करेंगे। अप्रत्यक्ष संगठित लूट प्रत्यक्ष लूट से कहीं बुरी है। क्योंकि पकड़ी नहीं जा सकती है। यह बिल अप्रत्यक्ष लूट का रास्ता साफ करता है। सुधार तो इससे होगा नहीं।

पंजाब में सिख-धर्म के मठ-मन्दिरों का संशोधन-सुधार जैसे संगठित सिखों ने किया और संघर्ष के द्वारा उन्हें गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के हवाले किया, वही बात हिन्दू-मुस्लिम मठ-मन्दिरों के बारे में होगी। तभी इनका उध्दार होगा। जो साधु-फकीर और पण्डित राष्ट्रवादी, जनवादी और सर्वभूतहितवादी हैं, और आज ऐसों की कमी नहीं है, उनकी ही राय से उन्हीं के तत्वावधान में मठ-मन्दिरों का उध्दार या संहार जो भी उचित हो होना ठीक है। बाबूभैयों और दूसरों को इसमें टाँग अड़ाने का हक नहीं । हाँ, ये सुझाव पेश कर सकते और सहायता दे सकते हैं। मगर इसका श्रीगणेश वे साधु-फकीर और पण्डित ही करेंगे, उन्हीं का यह हक है।

यह भी बात है कि धर्म का प्रश्न पेचीदा और खतरनाक है। आज यह सवाल नहीं कि ये मठ-मन्दिर भले हैं या बुरे। चाहे ये जो भी हों, जैसे भी हों इनके पीछे हजारों वर्षों की अनन्त लोगों की भावना है जो बड़ी ही मजबूत है। धीरे-धीरे उसमें खराबी आयी है सही। फिर भी यह अपनी जगह पर है और उसके सम्बन्धा में कुछ भी उलट-फेर करने के पूर्व जनता के सामने वह प्रश्न जाना चाहिए। आज जो असेम्बली है उसके सदस्यों के चुनाव के समय यह सवाल उठाया गया न था। फलत: जनता ने इसके बारे में अपनी कोई राय न दी। इतने महान प्रश्न पर जब तक जनमत न लिया जाये असेम्बली को कोई हक नहीं है कि बोले, सो भी बुनियादी परिवर्तन के लिए। यह भी सही है कि जब तक बुनियादी परिवर्तन न हों, कुछ होने जाने का नहीं। जो धार्मिक बातों के पण्डित नहीं, जो इस मामले में अधिकारपूर्वक बोल नहीं सकते, वही इसी के लिए कानून बनायें यह सरासर गलत है। उन्हें इसमें हाथ डालने का हक नहीं है। फिर भी राजनीतिक लाभ के लिए इसमें दखल देने पर तुले बैठे बाबुओं को हम आगाह दें कि अलग, अलग दूर, दूर।

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संस्कृत शिक्षा

ये बाबू आज शिक्षा के साथ भी मखौल कर रहे हैं, खासकर संस्कृत-शिक्षा के साथ। मिडिल स्कूलों में दो-चार संस्कृत की किताबें पढ़ाने से संस्कृत का उध्दार होने के बजाय वह अधकचरी बन जायेगी और देश में अधकचरे संस्कृतज्ञों की बाढ़ लायेगी। फिर तो प्रगाढ़ विद्वानों और संस्कृत के महारथियों को कोई पूछेगा तक नहीं। आज संस्कृत साहित्य के अगाध समुद्र के महामंथन की आवश्यकता है जिससे अमूल्य रत्न निकलें। घर-घर, गाँव-गाँव मथानी चलाने से वह काम न चलेगा। मुल्क में सैकड़ों संस्कृत विश्वविद्यालय हों जिनसे सम्बध्द लाखों संस्कृत विद्यालय एवं महाविद्यालय और हजारों अन्वेषण शालाएँ हों, जहाँ साहित्य, आयुर्वेद आदि के सम्बन्धा में सभी प्रकार के अन्वेषण, सब तरह की खोज निर्बाध चले। एतदर्थ प्रत्येक प्रान्तीय सरकारों को करोड़ों रुपये हर साल खर्चने होंगे। संस्कृत के मुख-चुम्बन मात्र की जगह सर्वांग प्रगाढ़ आलिंगन की आवश्यकता है। उसे पुष्ट-प्रौढ़ बनाने की जगह दूषित कलुषित करने का यह प्रयत्न निन्दनीय है। यह सही है कि कुछ नामधारी पण्डितों को टुकड़े मिलेंगे और लोगों की धार्मिक भावना की तुष्टि भी होगी। इस तरह शासकों के पोषकों का एक नया दल देश में तैयार होगा जो हाँजी, हाँजी करेगा। मध्यमा परीक्षोत्तीर्ण लोग आगे बढ़ने के बजाय टुकड़खोरी में लगेंगे। संस्कृत विद्या शान और सम्मान की वस्तु रही है, न कि महज टुकड़खोरी की। उसे उस उच्च स्थान से गिराने का राजनीतिक कुयत्न बर्दाश्त के बाहर है। मैं संस्कृत का सदा से प्रेमी रहा हूँ और जीवन का सुन्दर भाग उस साहित्य के मन्थन में गुजारा है। इसी से मुझे इस बात का दर्द है।

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बेसिक शिक्षा

संस्कृत शिक्षा की दुर्दशा के प्रसंग से शिक्षा संबंधी ही एक और बात याद आती है जिसका ताल्लुक पूरी शिक्षा से है। मेरा मतलब बेसिक शिक्षा से है जिस पर हमारे नये शासकों का बड़ा जोर है। उसका प्रचार गाँधीजी के नाम पर किया जा रहा है इसका मुझे दर्द है। फिर भी मैं जानता हूँ कि गाँधी-मन्दिर के ये पंडे उनकी पूजा कहाँ तक करते हैं। चाहे जो हो, यह बेसिक या बुनियादी शिक्षा शैतान की तरह फैल रही है और डर है, मुल्क की दिमागी तरक्की को ले डूबेगी, यदि फौरन से पेशतर इस पर रोक न लगी। जो मुल्क अपने बच्चों के छह घण्टे में कमबेश चार घण्टे केवल चर्खा, तकली, धुनकी, पूनी आदि में लगायेगा वह मस्तिष्क के विकास और ज्ञान की दृष्टि से रसातल जायेगा। इसमें शक नहीं। हमें आज लाखों-करोड़ों इंजीनियरों, मिस्त्रियों, डॉक्टरों आदि की आवश्यकता है, हर चीज के लक्ष लक्ष विशेषज्ञों की जरूरत है। लेकिन यदि बच्चों के दिमाग को अच्छी तरह विकसित होने न दिया गया तो आगे का तो रास्ता ही बन्द समझिये। यदि छोटे बच्चों की मानसिक एकाग्रता के अभ्यास के लिए एकाध घण्टे सूत कातना सिखाया जाये तो बात दूसरी है। मगर आज तो शिक्षा का बंटाधार होने जा रहा है। पुराने शासकों ने राष्ट्रीयता से भयभीत हो शिक्षा पर अपने ढंग से यहाँ जंजीर जकड़ी जो अभी तक ज्यों की त्यों है। नये शासक उस पर गाँधीवादी ढंग की यह दूसरी जंजीर कसने जा रहे हैं। इससे मुल्क के ज्ञान का दिवाला निकलेगा अवश्य। सम्भव है, नौकरियों के अपनाने की घुड़दौड़ में किसी छोटे-मोटे दल को इससे लाभ हो-शिक्षा पर जंजीर जकड़ने की इस नयी प्रणाली से विशेष फायदा हो। फिर भी मुल्क को तो इसका बागी बनाना ही होगा।

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शिक्षकों की दुर्दशा

शिक्षा का एक और पहलू भी है जो नये शासकों की मनोवृत्ति पर प्रकाश डालता है। मुद्दत से इस गुलाम मुल्क के शिक्षकों की हालत निहायत बदतर रही है, खासकर वेतन की दृष्टि से। इस कमरतोड़ महँगी के जमाने में भी आठ, दस, बारह या पन्द्रह रुपये मासिक वेतन वे पाते रहे हैं जो एक बाबू के जलपान के लिए भी पूरा न था। यह शर्म की बात थी और स्वराजी शासक इसे फौरन मिटायेंगे यह आशा थी। तीन-चार साल की निरन्तर चीख-पुकार और हड़ताल की धमकी के बाद भी जो कुछ आज किया गया है वह जले पर नमक जैसा ही है। हम यह न भूलें कि बिहार के प्राइमरी शिक्षकों को जो फीस छात्रों से मिलती है वह उनकी आय है और वह शीघ्र ही बन्द होगी।

ऐसी दशा में 20, 25 या 30 रुपये मासिक वेतन की क्या कीमत है? ट्रेण्ड मिडिल या अन्ट्रेण्ड मैट्रिक को 20 रु. देना जले पर नमक नहीं तो आखिर है क्या? अन्ट्रेण्ड ग्रेजुएट को 50 रु. मिलेंगे। क्या खूब! जब हम यह याद करते हैं कि चीनी की मिलों के मेहतर को भी पूरे 55 रु. मासिक मिलते हैं तो ग्रेजुएट के 50 रु. पर शर्म से जमीन भी धाँस जाती है, हो सकता है हमारे नये मालिक और हाकिम इसमें भी शान ही समझें।

चीनी की मिलों में तो 'मुफ्त का माल और दादा का फातिहा' हुआ है न? किसानों की ऊख का दाम पूरा न देकर और चीनी का दाम काफी बढ़ा कर चीनी की मिलों के मजदूरों का वेतन बढ़ाया गया है। यह भी न भूलें कि तीन-चौथाई चीनी किसान ही खर्चते हैं। मामूली श्राध्द, विवाह या निमन्त्रण में गरीब किसान भी दस बीस सेर चीनी खर्चता है जो सैकड़ों बाबुओं के चाय-नाश्ते में कई महीने के लिए काफी है। इस प्रकार चीनी के दाम की बढ़ती और ऊख के मूल्य की घटती ने दुधारी तलवार की तरह किसानों का कत्ल करके चीनी के मजदूरों का पेट भरा है। वह सीधा और मूक ठहरा न? वह बकरी और मुर्गी है न? इसी से आसानी से उसे दोनों ओर से जिबह किया जा सका है। यदि वैसी मुर्गी और भी होती तो उसी के खून से शिक्षकों को भी, जो अधिकांश किसान-मजदूरों के ही बच्चे हैं, कम-से-कम 55 रु. दिये जाते और उनका पेट भरा जाता। मगर अफसोस कि वह मिली ही नहीं। फिर भी गल्ले की बिक्री पर इसी वेतन के लिए टैक्स लगेगा और सेस भी बढ़ेगा! ठीक ही है, गल्ला बहुत ही सस्ता जो है! किसान मालामाल जो हो गया है! तभी तो बढ़ा हुआ सेस चुकायेगा और महँगा गल्ला खरीद कर खायेगा। याद रहे कि 80 फीसदी किसानों और खेत-मजदूरों की अपनी उपज से साल-भर गुजर नहीं होती। उन्हें गल्ला खरीदना ही पड़ता है।

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पुलिस के सिपाही

इस प्रकार जहाँ एक ओर शिक्षकों की गरीबी और बेबसी के साथ मखौल की जाती है तहाँ दूसरी ओर पुलिस के सिपाहियों, जमादारों, हवलदारों और जेल के वार्डरों के साथ भी बेरुखी का ही बर्ताव होता है। क्या हमारे स्वराजी शासक बतायेंगे कि चीनी की मिलों के मजदूरों से भी हलकी मेहनत और कम जिम्मेदारी इन पुलिसवालों और वार्डीरों पर है? दिन-रात की पहरेदारी और चोर-बदमाशों के भाग जाने की जवाबदेही किन पर है? 50 रु. या 60 रु. मासिक पाकर कौन सिपाही भरपेट रोटी और घी-दूध खा सकेगा और इस प्रकार तगड़ा बनकर अपने सामने से भागने वाले चोर-डकैत को ललकार कर पकड़ लेगा? ऐसी दशा में उनके लिए 50 रु. या

60 रु. वेतन रखने में शर्म न आये तो दोषी कौन? और यदि इसी वेतन को बढ़ाने तथा आत्मसम्मान के रक्षार्थ वे कुछ भी करें तो बागी करार दिये जायें! अफसरों का जो बर्ताव उनके साथ है वह तो झल्लाहट पैदा करता है, कलेजे में डंक मारता और टीस लाता है। फिर भी जुबान खोलने की, चीखने की, कराहने की भी मनाही है। यदि ऐसा करने की गुस्ताखी की तो फाँसी का तख्ता और जेल के सीखचे तैयार पड़े हैं, खबरदार! बस, खून की घूँट पीकर रह जाना पड़ता है! उनके दिलों पर क्या गुजरती है, कौन बतायेगा?

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होमगार्ड्स या रक्षावाहिनी

होमगार्ड्स के नाम पर स्वराजी सरकार ने एक दूसरी ही रक्षावाहिनी तैयार करने की ठानी है। नाम तो बहुत ही सुन्दर है। पर काम भी जब ऐसा ही हो तब न? महामना लेनिन ने राष्ट्रीय जनसेना (National Miltia) पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। कहा है कि नौकरीपेशा फौजियों की जगह जनसेना ही रहे। यदि वही बात यहाँ भी होती तो क्या कहना? मगर एक तो खूब ठोंक-पीट कर पक्के सरकारपरस्त ही इसमें लिए जाते हैं। जो सरकार के विरुध्द चूँ भी कभी करेंगे ऐसे लोगों से दूर रहा जाता है। दूसरे ट्रेनिंग कैम्पों में हरेक के पीछे खुफिया लगे रहते हैं जो उन्हीं में से होते हैं। यह तो मध्यमवर्गीय लोगों की एक नयी फौज और पुलिस तैयार की जा रही है जिसमें मध्यमवर्गीयता की भावना कूट-कूट कर भरी जा रही है। वर्तमान पुलिस और फौज से नये शासक घबराते हैं, भयभीत हैं। भविष्य में खतरे का भी अन्देशा है। इसीलिए शायद रक्षावाहिनी के नाम पर नयी सेना खड़ी की जा रही है जो उनके लिए संकट की घड़ी में काम आये! जो लोग आजाद हिन्द फौज पर विश्वास न कर सके वही जनता की सेना संगठित करेंगे यह विश्वास राजनीति का बच्चा ही कर सकता है। लेकिन इतना तो सही है कि जब खतरे की घण्टी बजेगी तब यह रक्षावाहिनी पिघल जायेगी और काम न दे सकेगी। रूसी जार की सेना में घुड़सवारों का प्रधान दल कज्जाकों का था जो जार के पूरे पालतू थे। मगर 1917 की फरवरी वाली क्रान्तिमें उनने भी ऐन मौके पर साथ छोड़ दिया। सचमुच ही क्रान्ति की हवा वह जादू की लकड़ी है जो छूते ही सबों को पलट देती है। वह ऐसी गर्मी है जो पत्थर को पिघलाती है।

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छात्रों में लहर

जिन छात्रों पर हमारे नेताओं का नाज था उनमें भी घोर असन्तोष की लहर आज हिलोरें मार रही है। बिहार के कॉलेजों के छात्रों की हड़ताल इसका प्रकट रूप था। पटना में विशेष रूप से जो नजारा दीखा वह भूलने का नहीं। साम्राज्यशाही के विरुध्द शान के साथ जूझनेवाले बहादुर छात्रों को पालतू समझने की नादानी करने वाले नये मालिकों की ऑंखें खुलीं जरूर और असलियत का नंगा रूप उनकी ऑंखों के सामने आ गया अवश्य। कहा जाता था कि इस हड़ताल और हठ के फलस्वरूप छात्रों का एक साल चौपट हो गया। लेकिन कहनेवाले भूल जाते थे कि स्वराजी शासकों को गद्दीनशीन करने में यदि इन्हीं छात्रों ने कई साल चौपट किये और इस पर खुशी जाहिर की गयी तो उनके खिलाफ अलार्म बजाने में भी एक साल जाये तो बला से। गर्व में चूर नेताओं को तमाचे तो लगें और वे देखें कि कितने गहरे पानी में हैं। पटने में छात्रों ने जिस क्रान्तिकारी एवं संगठन वाली मनोवृत्ति का परिचय दिया वह ऐतिहासिक वस्तु है। इतिहास साक्षी है कि दुनिया के छात्र सदा ऐसा ही करते रहे हैं। वे स्वदेशी, विदेशी किसी गुलामी को बर्दाश्त नहीं करते हैं।

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व्यापक असन्तोष

कहा जाता है, कि साम्राज्यवादी युध्द के बाद का समय क्रान्तिकारी होता है। यही कारण है कि देश में व्यापक असन्तोष है। किसानों, छात्रों, पुलिस और अधयापकों के अलावे रेलवे, डाक-तार, खानों और कारखानों के मजदूरों के कलेजों में तो सचमुच ज्वलन्त असन्तोष की लहर उमड़ रही है। हाल की घटनाएँ इसका सबूत हैं। हड़तालें होती हैं, टूटती हैं, उनकी सूचनाएँ दी जाती हैं, रोकथाम होती है। मगर हालत नाजुक है। देर-सवेर किसी दिन विस्फोट हो सकता है। फोड़ा फूटेगा और मवाद बाहर आयेगा। दरअसल नौकरीपेशा लोगों की हालत बुरी है। चीजों की कीमत चार से छह गुनी हो गयी है। लेकिन वेतन तो सब मिला कर दूना भी शायद ही हुआ है। मलेरिया तो कुनीन की चार गोलियों के बजाय एक-दो से भागेगा नहीं। तीन गज के बजाय एक गज से कुरता भी न बनेगा। धोती-साड़ी भी एकाध गज की हो नहीं सकती। पावभर की जगह एक छटांक से पेट का काम चलने का नहीं। गरीबों को जाड़ा कम सताये सो भी नहीं। वह तो और भी परेशान करता है। फिर तो वे मन ही मन कर्म, तकदीर, भगवान, सरकार और मालिकों को कोसते हैं, उन पर जलते-कुढ़ते हैं और अन्त में हार कर जैसे हो दिल का बुखार निकालते हैं। हड़तालों का यही रहस्य है। मजदूर और नौकरीपेशा लोग गधो नहीं हैं कि उकसाने से सामूहिक रूप से काम छोड़ दें। भूख, बर्खास्तगी और जेल का खतरा मुँह बाये सामने खड़ा जो रहता है। जारशाही ने हड़तालों के विरुध्द क्या नहीं कर रखा था? फिर भी फरवरी की क्रान्ति के समय भयानक हड़तालें हुईं जिनने जारशाही को उदरसात् करके ही दम ली। और इतिहास का पुनरावर्तन होता ही है।

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अप्रत्यक्ष करों की वृध्दि

स्वराज्य पदार्पण ने गरीब जनता पर कमरतोड़ करों को लादना शुरू किया। यह प्रक्रिया निरन्तर जारी है। इस साल रेलों का किराया डयोढ़ा-दूना कर दिया गया। फिर भी रेलों में आदमी पर आदमी की जैसे बोराबन्दी होती है। डाक का खर्च बराबर बढ़ता गया है और पहली अप्रैल से कार्ड का दाम पौन आना तथा लिफाफे का दो आना होगा। कपड़े, चीनी, पेट्रोल आदि पर भी कर लदा है। जानकारों का कहना है कि नेहरू का बजट तो धनियों का है, न कि जन साधारण का। स्टाम्प का खर्च भी पहले ही बढ़ा है। बैलगाड़ियों, साइकिलों, लादने वाले जानवरों पर कर लगाने की बात पहले से ही है। हाँ, करों को घटाया इस तरह गया है कि कारखानेदार और धनी लोग लाभ उठायें। महीन कपड़े का कर घटा है।

कहा जाता है, मुद्रा वृध्दि को रोकने के लिए नेहरू सरकार आसमान-जमीन एक कर रही है। मगर इन अप्रत्यक्ष करों की वृध्दि से मुद्रा प्रसार और भी बढ़ता है। चीजों की कीमत बढ़ती जो है। जिस चीज पर कर लगे वह कपड़ा, चीनी आदि महँगी तो होगी ही और मुद्रा प्रसार रोकने के मानी हैं कि चीजें सस्ती हों। एक ओर मजदूरों का वेतन बढ़ाते हैं। दूसरी ओर जरूरी चीजों पर कर बढ़ाकर इन्हें महँगी करते हैं। फिर वेतन बढ़ाना भी बेकार होता है-गज स्नान होता है। प्रत्यक्ष या सीधो करों को बढ़ाइये, जैसे आय कर को। सो तो उन्हें घटाते हैं। यह भी अजीब बात है कि हाल ही में केन्द्र के खाद्यमंत्री श्री जयराम दास ने फरमाया था कि चीनी का दाम अभी ज्यादा है, उसे घटाये जाने की सोच रहे हैं। लेकिन फी बोरे डेढ़ रुपये की बढ़ती कर दी गयी।

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सत्यनाशी सेल्स टैक्स

सैकड़ों प्रकार के अप्रत्यक्ष करों से काम न चलने पर सरकार ने एक नये खतरनाक टैक्स को जन्म दिया है जिसे सेल्स टैक्स कहते हैं और जिसकी बाढ़ सुरसामुख की तरह हो रही है। यह हर चीज पर लगता है। शायद ही कोई वस्तु बची हो। इसका जहरीला असर जीवन के हर पहलू पर पड़ता है। क्योंकि जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ इसके पेट में आ जाती हैं। यही कारण है कि इसकी आय दिनोंदिन बढ़ती जाती है। इसमें धोखा देने की भी पूरी गुंजाइश है। इसीलिए चालाक बनिये रोज हजारों की खरीद-बिक्री करके भी सरकार को ऍंगूठा दिखा देते हैं। अफसरों की केवल थोड़ी-सी पूजा कर देते हैं। हाँ, ईमानदार लोग पिस जाते हैं, उनकी परेशानी बढ़ जाती है। अफसरों का गुस्सा भी उन्हीं पर उतरता है। अगर यह कर कायम रहा तो लोगों को तबाह कर देगा। इसीलिए इसका तो खासतौर से जोरदार विरोध होना चाहिए। अन्न पर अब तक यह न था। अब उस पर भी लगने को है। फिर तो किसानों को रुलायेगा।

बिहार सरकार को यदि रुपये की कमी है तो छोटानागपुर की कोयले, अबरक आदि की खानों पर कब्जा क्यों नहीं कर लेती? बड़ी दिक्कत से अगले साल सब मिलाकर सरकारी आय प्राय: 24 करोड़ होगी। लेकिन सिर्फ छोटानागपुर की इन खानों से ही कमबेश उतनी ही आय फौरन होगी जो उत्तारोत्तार बढ़ेगी, ऐसा जानकारों का कहना है। फिर पैसे की कमी होगी? क्या? मगर इसमें पूँजीपतियों तथा नेहरू सरकार के रंज होने का खतरा जरूर है।

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जमींदारी खत्म न होगी

जमींदारी मिटाने का प्रश्न मुद्दत से सामने है। नये शासक खयाली पुलाव के रूप में कई साल से हमारे सामने इसे रखते आ रहे हैं। असेम्बलियों में प्रस्ताव पास हुए। फिर कानूनी मसविदा बना और पास हुआ। लेकिन वह बड़े लाट के यहाँ त्रिाशंकु की तरह उलटा लटका तप कर रहा है। कहा है, उसमें कुछ संशोधन करके कानूनी रूप दिया जायेगा। कभी कहा जाता है, पाँच हजार की आय से कम वाली जमींदारी न मिटेंगी। फिर आवाज आती है सरकार खुद ही जमींदारियों का प्रबंध करेगी। फिर सुनते हैं, तीन ही महीने में जमींदारी खत्म होगी।

लेकिन यह सब लीडरों की विशुध्द माया है। ये लीडर जमींदारी मिटा नहीं सकते। यदि जमींदारी के लिए मूल्य या मुआवजे की बातें ये भले आदमी नहीं करते रहते तो मिटा सकते थे। मगर मूल्य देने में जो सबसे बड़ी बाधा है वह है नये सर्वे की जब तक सभी जमींदारियों का सर्वे नहीं हो जाता कि किसकी कितनी जमीन है, कैसी है और उसकी आय कितनी है तब तक मूल्य कैसे दिया जायेगा? एक ही जमींदार की जमींदारियाँ कई जिलों में हैं। प्रान्तव्यापी सर्वे के बिना किसी की आय का पता चलेगा कैसे जिसके हिसाब से मूल्य दिया जाये? और यह सर्वे तो वर्तमान दशा में असम्भव है। इसे पूरा करने में बहुत साल लगेंगे, यह जानकारों का कहना है। यह एक बाधा है।

दूसरी बाधा है कि यह मूल्य बाजार दर से सोलहों आना नगद देना होगा। मुआवजे का यही अर्थ है। यह नहीं कि आप जो चाहें वही दे दें और नगद दें या उधर। नहीं-नहीं, बाजार दर से पूरा दाम कौड़ी-कौड़ी नगद चुकाना पड़ेगा। मुआवजे के बारे में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट का यही फैसला है। मुआवजे के मानी में जो अंग्रेजी का शब्द 'कम्पेन्सेशन' आया है उसका यही अर्थ है जो बदला जा सकता नहीं। याद रहे कि यह मुआवजा सिर्फ बिहार में चार अरब से कम न होगा। वह छह अरब और उससे भी ज्यादा हो सकता है जिसे चुकाना बिहार सरकार की शक्ति के बाहर है। यहाँ तथा अन्य प्रान्तों में उसे नगद चुकाने पर मुद्रावृध्दि ऐसी होगी कि चावल शायद रुपये का आधा सेर बिकने लगे।

तीसरी बाधा छोटानागपुर की कीमती खानों को लेकर है। ये खानें पूँजीपतियों के हाथों में हैं जिनसे छीनकर उन्हें रंज करने को नेहरूजी तैयार नहीं हैं। इसीलिए खानों की जमींदारी अछूती रखने की पेशबन्दी हो रही है। अगले चुनाव में करोड़पतियों से हमारे नेता पैसे कैसे लेंगे यदि उन्हें नाखुश किया? और फण्ड के करोड़ों रुपयों के बिना चुनाव लड़ा कैसे जायेगा? उद्योग-धन्धों के राष्ट्रीयकरण की बात फिलहाल जो दस साल के लिए टाली गयी है उसके भीतर ऐसे ही कारण हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से जो समझौता हुआ है उसमें भी यह मुख्य शर्त होगी। तब खानों को कैसे ले सकते हैं? और जमींदारी मिटा के क्या होगा यदि 20-25 करोड़ की इस आय को छोड़ ही देना है?

जमींदारियों का प्रबंध सरकार करे ऐसी तैयारी जो आज की जा रही है वह भी जमींदारी न मिटाने के पाप को छिपाने के ही लिए। इससे भोले किसान समझेंगे कि जमींदारी मिट गयी। मगर खासमाहाल के किसान कम पामाल नहीं हैं। जमींदारों के अमले कलक्टर की मातहती में गजब करेंगे और करैला नीम पर चढ़ जायेगा। हम लाखों जमींदारों को हटाकर उनकी गद्दी पर कलक्टरों और माल मंत्री को बिठाने का विरोध सारी शक्ति लगा कर करेंगे। हमें जमींदारी मिटानी है, न कि उसकी शक्ल बदलनी और तमाशा करना है। हम जानते हैं कि जब सरकार जमींदारियों को हथियाने की धमकी देगी तो डर से जमींदार कहेंगे कि जो भी हो सके हमें कीमत दी जाये। इसी के लिए यह तैयारी है। मगर हम इसके विरोधी हैं। जमींदारों को कीमत के रूप में एक कौड़ी भी न देकर उनके लिए अच्छे गुजारे का प्रबंध हो और उनके योग्य काम उन्हें दिया जाये, हम यही चाहते हैं। उनके पढ़ने-लिखने, दवा-दारू, रहन-सहन में कोई कठिनाई न रहे हम ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जरूर।

लेकिन जमींदारी न मिटने पर जिन लाखों लोगों की बहालियाँ इसीलिए हुई थीं उनका क्या होगा, यह प्रश्न होगा। मगर इसका उत्तार वही दें जिनने ये बहालियाँ कीं। शायद इन नये नौकरों से अगले चुनाव में काफी सहायता लेने की तैयारी थी जिस पर पानी फिरा चाहता है। सम्भव है, इन्हें कहीं और फँसाया जाये। नहीं तो बहाल करने वालों की छाती पर भूत की तरह ये खुद चढ़ेंगे और इस तरह नेताओं को लेने के देने पड़ेंगे।

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जमीनों की छीना-झपटी

जमींदारी तो मिटी नहीं। लेकिन किसानों की जमीनों की छीना-झपटी तेज हो गयी। जमींदारी जाने के भय से जमींदारों ने जोर मारा है कि जितनी भी हो सकें जमीनें हथिया लें। बकाश्त के बढ़ते झमेले का यही रहस्य है और बकाश्त बोर्ड इसी पर पर्दा डालने के लिए ही है। यदि किसानों ने संगठित रूप से इसका जल्द सामना न किया तो उनकी अधिकांश जमीनें छिन जायेंगी जरूर मुझे भय है। इसके लिए सीधी लड़ाई एकमात्र रास्ता रह गयी है। सो भी सत्याग्रह नहीं, जेल भी नहीं। अब तो लाठियों और गोलियों का ही सामना करना पड़ेगा, याद रहे। इधर कुछ दिनों से स्वराजी शासक जो कुछ इस सम्बन्धा में कर रहे हैं वह तो इसी बात का सबूत है कि हवा का रुख किधर है।

लेकिन जमींदारों के साथ ही सरकार भी इस छीना-झपटी में शामिल है। फार्म बनाने के नाम पर बंजर और पड़ती जमीनों को छोड़ टटुपुँजिये किसानों एवं गरीबों की जमीनें छिनी जा रही हैं। हमें यह चीज बन्द करवानी है। अन्न कम पैदा होता है और भुखमरी का सवाल है। जमीनें छिन जाने पर ये गरीब कहाँ जायेंगे? क्या इसी भुखमरी के लिए ही वे अंग्रेजों से लड़ते रहे हैं? बंजर जमीनों को फार्मों के लिए सरकार ही आबाद कर सकती है। तब आबाद जमीनों को लूटने के क्या मानी?

इतना ही नहीं। पड़ोस में बक्सर के पूर्व आधो दर्जन गाँवों की खेती वाली जमीनों में मिलें खोलने की तैयारी हो चुकी थी जो बड़ी दिक्कत से रोकी जा सकी। पता नहीं फिर भी वह सर उठायेगी या नहीं। यदि उठाये तो हमें पूरी ताकत से लड़ना होगा। वे मिलें डुमराँव में या अन्यत्र बंजर जमीनों में अच्छी तरह बन सकती हैं। तब किसान के खेत उन्हीं के लिए क्यों छीने जायें? यही बात मुल्क में आज लाखों मिलों को लेकर जारी है जिससे करोड़ों किसान और गरीब प्यारी जमीनों और घर-बार से हाथ धोते हैं। वे कहाँ बसेंगे, क्या खायेंगे, यह पूछने वाला भी कोई नहीं। जब तक उन्हें दूसरी जगह खेत देने और बसाने का पूरा प्रबंध नहीं हो जाता, हम ये मिलें बनने न देंगे और लड़ेंगे, ऐसा दृढ़संकल्प किये बिना काम न चलेगा।

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पानी के करते बे पानी

एक ओर यह है। दूसरी ओर प्राय: हर साल गंगा, गंडक, कोसी आदि नदियों की बाढ़ों से उनके नजदीक और दियारे में बसने वाले किसान बरबाद हो जाते हैं। यह बात पहले इतनी भी भीषण न थी जितनी इधर दिनोंदिन होती जा रही है। खूबी यह कि उनकी रक्षा का उपाय स्वराजी शासक भी कुछ नहीं कर रहे हैं। बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए सरकार से लाखों रुपये दिये जाने की घोषणा जरूर होती है। मगर वे रुपये एक तो दाल में नमक के समान भी नहीं होते और जले पर नमक का काम करते हैं। दूसरे वे कुछ स्वार्थी नेताओं और उनके दलालों के ही पेटों में चले जाते हैं। यह पक्की बात है। हमें इसपर अपना गुस्सा जाहिर करना जरूरी है।

दूसरी ओर सिंचाई का प्रबंध न होने से लाखों एकड़ जमीनों में फसल होती ही नहीं, या नाममात्र को ही होती है। जहाँ सम्मेलन हो रहा है वह ढकाइच और पास-पड़ोस के गाँव इस बात के नमूने हैं। यदि नहर से पानी मिले, पुनपुन, पैमार काव जैसी छोटी-बड़ी नदियों को बाँधकर उन्हीं का पानी खेतों में पहुँचाया जाये, बिजली के कुओं का प्रबंध हो और बरसात के रत्ती-रत्ती पानी को जमा करने का इन्तजाम सरकार करे तो सिंचाई का प्रश्न हल हो, पैदावार चौगुनी हो और जमीनें दोफसिला जरूर बन जायें। अधिक अन्न उपजाने का यही रास्ता है। कहीं पानी न मिलने से और कहीं पानी के मारे ही किसान बेपानी हो रहे हैं। यह शीघ्र बंद होना जरूरी है। नहरों के इलाके में लम्बी मुद्दत के सट्टे के लिए जो नियम हैं वे निहायत बेहूदे हैं। उन्हें फौरन बदलना होगा। नहीं तो किसान घूसखोरी से तबाह होते ही रहेंगे। बिजली के नये कुओं के नियम तो और भी गतरबूद हैं। बिना पानी दिये भी रेट वसूली का कायदा है। नाजायज पानी के बारे में भी बहुत बेढंगे नियम हैं। सबों को फौरन बदलवाना होगा। तभी अधिक अन्न उपजेगा।

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ऊखवाले किसान

उधर ऊख वाले किसानों के गले पर छुरी चल रही है। उनकी ऊख का दाम पूरा-पूरा देना तो दूर, अधूरा भी नहीं दिया जाता है। इस साल मैंने खर्च का हिसाब लगाकर सरकार को साफ बता दिया कि चार रुपये मन उसका दाम चाहिए। धीरे-धीरे दो-चार साल में वही घटाकर रुपये या आठ आने तक कैसे किया जा सकता है और फिर भी किसान को लाभ ही होगा यह भी बता दिया। मगर सरकार ने निहायत बेशर्मी और बेदर्दी से वह दाम पारसाल से भी घटा दिया। युक्तप्रान्त की सरकार तो और भी नीचे चली गयी। किसानों को बता दूँ कि पारसाल उन्हें सवा रुपये मन के ही लिए तैयार होकर ही गन्ना उपजाना चाहिए। नहीं तो पछतायेंगे। दो रुपये मन गन्ने का दाम देकर भी चीनी का दाम 30 रु. मन करना ठीक था। यदि बढ़ाया था तो किसानों को और भी पैसे देने थे-फी मन आठ आने तो जरूर ही। पारसाल ऐसा न किया गया। इस साल तो और भी घटा। आगे ज्यादा घटेगा और गन्ने की खेती के विकास के अभाव में चीनी का कारोबार खत्म होगा यह पक्की बात है। सरकार ने सेस के नाम पर कई करोड़ रुपये किसानों से ही लिए हैं-उन्हीं के दाम में से ये रुपये आये हैं। फिर भी ऊख के विकास और अधिक उपज के लिए क्या हुआ, यह सवाल डटकर करना होगा। तभी खब्बू मलों की नींद टूटेगी।

भावली की नगदी

भावली की नगदी के जो मुकदमे हुए उनने किसानों को न घर का रखा, न घाट का। बंशी में मछली की तरह फँसा कर किसान जिबह कर डाले गये। अपीलों का सिलसिला चालू है और नगदी फैसले के बावजूद भी भावली की वसूली हो रही है। फिर भी गाँधीवादी शासकों के कानों पर जूँ नहीं रेंगती। किसान लुटते हैं तो बला से। लीडरों ने रद्दी कानून बनाये तो बला से। सरकार ने नियम-नोटिसें गलत निकालीं तो उससे क्या? मरते तो हैं किसान। भावली की जमीनों में लाश तो उनकी जलायी-दफनायी जा रही है।

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लड़ाई का दूसरा पर्व

आर्थिक मसलों के साथ ही हमें भीतर और बाहर के राजनीतिक सवालों पर भी धयान देना जरूरी है। दरअसल राजनीति हमारी जान है। फलत: उसके समझे बिना हम मर जायेंगे, तबाह हो जायेंगे, यह तयशुदा बात है।

मुद्दत की भिड़न्त और जुझार के बाद हमारे मुल्क ने अंग्रेजी जुआ उतार फेंका यह सभी जानते हैं। हम कहते थे, ललकारते थे कि तुम रहोगे या हम; दोनों रह नहीं सकते। हुआ भी वही। वे जो हमारी छाती पर कोदो दलते थे चोर की तरह भाग निकले। खूब ही दबाया, जलाया, दिल खोल कर दमन किया। मुल्क को दमन की आग की जलती भट्ठी बना दी। फिर भी भागते ही बना, सो भी चोरों की तरह।

लोग समझते थे, अब विपदा की रात का बिहान हुआ, हमारे कष्ट भागेंगे। जो समझदार थे, जिन्हें आजादी के युध्दों का इतिहास ज्ञात था, वे ऐसा तो नहीं मानते थे कि जनता के कष्टों का खात्मा होगा। मगर इतना तो वे भी मानते थे कि मुसीबतें बढ़ेंगी नहीं; उनमें बहुत कमी होगी। लेकिन आज सभी हैरत में हैं कि उलटी बात हुई और जनसाधारण पर आफत के पहाड़ टूट पड़े। फिर भी यह तो होना ही था। किसान-मजदूर माने बैठे थे कि अब लड़ना न होगा। लेकिन उनकी ऑंखों ने भी असलियत को ताज्जुब के साथ देखा। आज वे भी मानते हैं कि अभी बड़ी जुझार बाकी ही है। रूस में आजादी आने के बाद जब लेनिन ने समझाना चाहा कि श्रमजीवियों को और भी जूझना है तो लोग कहते थे कि उसका माथा फिर गया है। वे मानते थे कि अब हमारे अपने ही लोग-स्वजन ही-शासक हैं। कुछ ही देर बाद उन्हें भी स्वजनों का नंगा रूप देखने को मिला और लोग लड़ने को आमादा हुए। यहाँ भी स्वजनों की असली सूरत साफ नजर आ रही है। फलत: महाभारत के पहले पर्व के बाद दूसरा जरूरी है यह मान्यता किसान-मजदूरों की हो चली है। आजादी के फलस्वरूप जो सर्वत्र होता है भारत में भी हो रहा है। इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है। यदि द्वितीय पर्व के आरम्भ में हमने देर की तो मर जायेंगे याद रहे। यों तो दूसरा पर्व जारी ही है। किसानों और मजदूरों की अनवरत लड़ाइयाँ वह पर्व ही तो हैं। उन्हीं को व्यापक और संगठित रूप देना शेष है।

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वैधानिकता का मोह

बहुतेरे माने बैठे हैं कि हमारी शेष लड़ाई वैधानिक ही होगी। अक्तूबर वाली क्रान्ति के पहले लेनिन ने भी ऐसा ही कहना शुरू किया था। मगर उसकी पैनी दृष्टि ने वास्तविकता को जल्दी ही देखा। आजादी मिलने के बाद, इतिहास साक्षी है, वैधानिकता का मोह सभी देशों में सर पर सवार हुआ और किसान-मजदूर उसी मृगमरीचिका के पीछे मारे गये। वे शासनशक्ति को हथिया न सके। लेनिन ने भी उसी सनातन पक्ष को अपनाना चाहा था। मगर उसकी ऑंखें जल्द खुलीं। हम समझते हैं वही अंतिम परीक्षा थी। कमाने वाली जनता को शासन की गद्दी पर बिठाने की तमन्ना वालों को वह मोह-माया सदा के लिए त्याग देना चाहिए। अधिनायकतन्त्र और फासिज्म के उदय के बाद तो विधानवाद के लिए कहीं स्थान रह ही न गया। आजादी की रक्षा के नाम पर भारत में एकतंत्र शासन को भी फीका बना देने वाला जो अंधा दमन चालू है हमारी ऑंखें खोलने के लिए वही पर्याप्त है। इधर चुनावों के जो कुछ कटु अनुभव हुए हैं वे चिल्लाकर बताते हैं कि वैधानिकता के दिन लद गये। अधिकारारूढ़ दल गद्दी कायम रखने के लिए कोई भी काम गाँधीजी के नाम पर कर सकता है। वह किसी भी हद तक नीचे जा सकता है। इसलिए चुनावों के द्वारा बहुमत तभी हो सकता है जब क्रान्तिकारी ताकतें शत्रुओं की कमर तोड़ दें। शासनचक्र को अछूता रखकर सिर्फ मंत्रिायों के बदलने से किसान-मजदूर राज्य कभीकायमनहोगा। समस्त शासन चक्र मटियामेट कर नयी सृष्टि बनानी होगी। नहीं तो नये मंत्री उसी चक्र को चलाने में ही फँसेंगे। मार्क्सवाद यही है और उसके सिवाय दूसरा रास्तानहीं।

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कांग्रेस-तब और अब

कांग्रेस के कर्णधार कहने लगे हैं कि वे किसान-मजदूर राज्य कायम करेंगे। जिन्हें कल तक इसी राज्य के नाम पर छींक आती थी, माथे में चक्कर आता था वही जब किसान-मजदूर राज्य का नाम लेते हैं तो गुस्सा आता है। कल तक के इसके कट्टर शत्रु ऐसा कहने में शर्माते भी नहीं। जब तक किसान और मजदूर अपने राज्य के लिए संगठित न किए जायें, वर्ग-संघर्ष के आधार पर पूर्णरूप से तैयार न किए जायें, वह राज्य धोखे की टट्टी होगा। वह राज्य पूरी तैयारी के बिना आयेगा नहीं और आने पर टिकेगा नहीं और वर्ग-संघर्ष से लाख कोस दूर भागने वाली कांग्रेस उसे ला नहीं सकती। उसका काम था अंग्रेजी सरकार को हटाना और यहाँ के पूँजीपतियों के हाथ में शासन सौंपना। यह काम हो चुका। इसीलिए उसका निर्वाण आवश्यक है। वह कृतकृत्य जो हो चुकी। बापू ने अपने महाप्रयाण से एक दिन पूर्व यही कहा भी था। 15 अगस्त, 1947 के पूर्व जो कांग्रेस आजादी के दीवानों की जमात थी, योग संस्था थी उसके बाद निश्चय ही वह भोग संस्था बनने लगी यह कटु सत्य महात्मा की तीक्ष्ण दृष्टि ने देखा और चाहा कि वह जिस शान से जीवित रही उसी शान से दफना दी जाये। तिल-तिल करके उसकी दुर्दशा और मौत उन्हें बर्दाश्त न थी। योगियों की जमात बदल कर भोगियों का मठ बने यह सोच कर भी वह तिलमिला उठे और कांग्रेस को समाधिस्थ करने को कहा। मगर महन्ती के भूखे चेलों ने गुरु की एक न सुनी। छोटे से बड़े तक कांग्रेसी कौन कुकर्म नहीं करते? अखबारों के पन्ने इससे रंगे रहते हैं। हाईकोर्ट ने शासकों और उनके चेलों की पीठें नंगी कर जो कोड़े लगाये हैं और कचहरियों एवं न्यायालयों के कामों में उनकी दस्तन्दाजी पर जो डाँट-फटकार बतायी है वह इस बात का सबूत है कि कांग्रेस का कितना पतन है। गद्दीनशीनों की गद्दी बनाये रखने और उन्हें तथा उनके पिछलग्गुओं की टुकड़खोरी का साधन मात्र वह रह गयी है। इसीलिए किसान-मजदूर राज्य के लिए लड़ने वाले उससे निकल भागे हैं। एक ने किसी किसान से कहा कि अपने ही हाथों बनायी कांग्रेस से अलग होना ठीक नहीं। उसने उत्तार दिया कि अपने ही हाथों बनाये घर से लोग भाग खड़े होते हैं जब प्लेग के चूहे घर में गिरते हैं। विशुध्द जातीयता के हामी लोगों की वहाँ बड़ी पूछ है। आगे चलकर चुनावों में इस जातिवाद की नाव पर चढ़कर तथा अनेक कुकर्मों के डांड, पतवार के बल पर ही वे चुनाव का तूफानी समुद्र पार करने की आशा रखते हैं। फिर भी उसीकांग्रेस के कर्णधार किसान-मजदूर राज्य कायम करने की बातें करने में जरा भी नहीं शर्माते।

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साम्यवाद का हौआ

एक ओर तो चिल्लाते हैं कि किसान-मजदूर राज्य स्थापित करेंगे। दूसरी ओर वही लीडर साम्यवाद से इतने भयभीत हैं कि सोते-जागते उसी के सपने देखते और उससे बचने की तरकीब सोचते हैं। यही तो वंचना है। साम्यवाद कोई दूसरी चीज नहीं है सिवाय विशुध्द किसान-मजदूर राज्य के। साम्यवाद होने पर हरेक आदमी से उतना ही वही काम लिया जायेगा जिसे वह जितना कर सके। लेकिन बदले में उसकी सभी आवश्यकताएँ पूरी की जायेंगी, यही साम्यवाद कहलाता है। तब इसी का हौआ क्यों खड़ा किया जाता है? साम्यवाद धर्म को मिटाता है, यह तो उसके शत्रुओं का झूठा प्रचार है। सोवियत रूस में धर्म को मिटाने का नाम भी वहाँ की सरकार कहाँ करती है? वहाँ तो हरेक को आजादी है कि धर्म माने या न माने। हाँ, साम्यवादी सरकार धर्म की घूँटी किसी को नहीं पिलाती और न उसके पक्ष-विपक्ष में प्रचार करती है जो ठीक ही है। साम्यवाद में अमीर-गरीब नाम की चीज नहीं होती-सभी सुखी होते हैं यह सुन्दर बात है। सभी नागरिकों को समान रूप से पूरा अवसर मिलता है सर्वांगीण समुन्नति का। फिर उसका विरोध कैसा?

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साम्यवाद आ रहा है

यह साम्यवाद भारत के दरवाजे खटखटा रहा है। 20-25 वर्षों की कशमकश के बाद चीन में उसकी विजय पूरी होने ही को है। बर्मा में साम्यवाद एवं पूँजीवाद के बीच जीवन-मरण की भिड़न्त जारी है। चीन और बर्मा के मध्यवर्ती देशों की भी कमबेश यही हालत है। लक्षण है कि ये सभी देश जल्द पूँजीवाद को गर्दनिया दे साम्यवाद को अपनायेंगे। तब भारत की पारी आयेगी। चाहे हमारे लीडर लाख चीख-पुकार मचायें। मगर यह बात होकर रहेगी। आज यह प्रश्न नहीं है कि हम साम्यवाद को पसन्द करते हैं या नहीं। आज तो वह चट्टान जैसी ठोस चीज के रूप में हमारे सामने खड़ा है। चीन की 95 प्रतिशत जनता च्यांग कै शेक को सलाम करके मावसेतुंग का साथ दिल खोल कर क्यों दे रही है, यदि साम्यवाद बुरी चीज है और साम्यवादी लोग शैतान हैं? जनता के ही बल से तो साम्यवादियों की विजयों पर विजयें हो रही हैं। यह भी नहीं कि वह साम्यवाद सोवियत रूस से चीन में लाया जा रहा है। उसका वृक्ष चीन में ही ठेठ बीज से अंकुरित होकर वृक्ष के रूप में सामने आ रहा है। भारत में भी यही होना है। 1939 और 1945 के दरम्यान भारत में पूर्व से एक बवंडर आया जो अंग्रेजी शासन को डुबाकर चलता बना। पुनरपि उसी पूर्व से दूसरा तूफान आ रहा है जो शीघ्र पूँजीवाद को भी यहाँ से भगायेगा और शोषित-पीड़ित जनता के हाथों में शासन सौंपेगा। यही जमाने का रुख है-यही समय की पुकारहै।

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साम्राज्यवादियों से गठबंधन

ऐसी दशा में समाजवाद का नारा लगाने वाले नेहरू जब अपनी वैदेशिक नीति में ब्रिटेन तथा अमेरिका के साम्राज्यवादियों से गठबंधन करते हैं तो बड़ी झल्लाहट होती है। वीतनाम और मलाया में साम्राज्यवादी नग्न नृत्य करते और जनता की आजादी के युध्द को खून में डुबाते हैं तो नेहरू तमाशा देखते हैं। मगर हिन्द-एशिया के लिए दक्षिण-पूर्व एशियायी देशों का सम्मेलन करते हैं जिसमें वीतनाम और मलाया को न पूछ न्यूजीलैंड तथा आस्ट्रेलिया के प्रतिनिधि बुलाये जाते हैं। जापान के विरुध्द चीन की स्वतन्त्रता के नाम पर युध्द करने वाले च्यांग कै शेक से हाथ मिलाने के लिए कभी जो नेहरू चुंकिंग तक पहुँचे आज उसी चीन में पूर्ण स्वतंत्रता का पर्दापण होते देख उनके पास एक शब्द भी बधाई का नहीं है। बल्कि उन्हें घबराहट होती है। किसान मजदूर राज्य के हामी नेहरू की यह अनोखी मनोवृत्ति है। विदेशियों पूँजीपतियों और सामन्तों की सत्ता को खोदकर उसके मूल में मठा देने वाले मावसेतुंग, शाबाश यह कहने की हिम्मत उन्हें नहीं। क्योंकि डालर देवता इससे नाखुश होंगे, यही न? स्टर्लिंग भगवान क्रुध्द होंगे यही न? अमेरिका और इंगलैंड के सरमायादार बुरा मानेंगे यही न? गत महायुध्द में तुर्की जैसे देश उदासीन थे। आज वे भी साम्राज्यवादियों के क्रीड़ा क्षेत्र बन चुके। फिर भी भारत समुद्र के मालिक नेहरू तटस्थता का ही स्वप्न देखते हैं। युध्द की दृष्टि से भारत सागर का और भारत का भी बड़ा महत्तव है, खासकर तृतीय महायुध्द की दृष्टि से, जो सीधो साम्यवाद एवं साम्राज्यवाद के बीच होगा और जो भारत की सीमा पर या इसी के पास-पड़ोस में होगा। फिर भी नेहरू सरकार तटस्थ रहेगी। क्या यह भी बात है कि अगला युध्द अटलांटिक या प्रशान्त महासागर में होगा? यह तो कोई सोचता भी शायद ही हो। तब तटस्थता का क्या सवाल? भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता के सम्बन्धा में भी जो नेहरू ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से सौदा करने में जरा भी न हिचके और भारत को घुमा-फिराकर ब्रिटेन का उपनिवेश ही बना डाला; जो नेहरू इसीलिए भारतीय कारखानों का राष्ट्रीयकरण करने से बाज आये कि ब्रिटिश प्रभु रंज होंगे; छोटानागपुर की खानों की भी जमींदारी मिटाने के सिलसिले में लेने से जिस नेहरू ने इसीलिए मना कर दिया है कि देशी-विदेशी थैलीशाह रंज होंगे वही तटस्थ हैं और बीच का रास्ता चुन चुके, यह कौन मानेगा?

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भेड़िया आया

भेड़िया आया वाली कहानी हम जानाते हैं और यह भी जानते हैं कि आखिर भेड़िया आया कहने वाले पर भेड़िया का सफल आक्रमण होकर रहा। हमारे शासकों एवं नेताओं की भी आज वही भेड़िया आया वाले की दशा है। जहाँ देखो, सुनो, पढ़ो वे चीखते हैं, कम्युनिस्ट, कम्युनिस्ट, कम्युनिस्ट! हर काम में, हर मौके पर उन्हें कम्युनिस्टों का ही भूत नजर आता है। जो भी संघर्ष का काम है, हक के लिए लड़ने का काम है उसमें उन्हें कम्युनिस्टों का ही हाथ दीखता है। यहाँ तक कि चोरी-डकैती में भी वही देखते हैं। हथियार बन्द चोरी-डकैतियों की भरमार है। उस काम के लिए हथियार जुटाने में लुटेरे लोग व्यस्त हैं। फिर भी ऐसे सभी काम कम्युनिस्टों के ही बताये जाते हैं और 'बदनाम करके लटका दो' के अनुसार कम्युनिस्टों को पीस डालने में सरकार की सारी ताकत लग रही है। खूबी यह कि आमतौर से उनकी पार्टी गैर कानूनी नहीं की गयी है। नेहरू के दमन का यह नया रूप है। जितना जोर कम्युनिस्टों के विरुध्द है चोर-डकैतों के खिलाफ वैसा जेहाद बोला गया है क्या?

हम कम्युनिस्टों के वकील नहीं। वे अपनी वकालत खुद करते हैं, कर सकते हैं-जबान से और कामों से भी। वे दूसरों की वकालत चाहते भी नहीं। वे गलतियाँ भी कर सकते हैं-करते हैं। लेकिन क्या नेहरू और उनकी सरकार भूलों पर भूलें नहीं करती? भूलता कौन नहीं? तो भी मजलूमों की आवाज बुलन्द करना न तो भूल है, न पाप। लेकिन जब अंग्रेजों के शासन के समय यही नेहरू मजलूमों की आहों को ऊँची करते थे तो हमारे आका उसे भूल और जुर्म करार देते थे-कहते थे कि यह उनकी आह नहीं है बनावटी चीज है। नेहरू की सरकार भी वही कर रही है। इतिहास तो दुहराया जाता है न? दिलों को टटोलने की बात है, न कि गुस्सा करने की। जो नेहरू खुद लम्बी तनख्वाह लेते, उनके दूसरे संगी-साथी-केन्द्र में और प्रान्तों में भी-कांग्रेस के कराची के हुक्म को ठुकराकर लम्बे-से-लम्बे वेतन और भत्तो लेते, जिनके गवर्नर, गवर्नर जनरल तथा विदेश स्थित दूत न सिर्फ लम्बी तनख्वाहें लेते, वरन 20-25 हजार से लेकर 50 हजार की मोटरों पर सैर करने में शर्माते नहीं और जिनके लिए विदेशों से अच्छे-से-अच्छे फर्नीचर मँगाये जाते हैं, सारांश जो भारी वेतन, ठाट-बाट और फिजूलखर्ची में ही शान समझते हैं, वही नेहरू 20 रुपये के मासिक वेतन को 60 रुपये और 100 रुपये के 300 रु. करने-करवाने के संघर्ष को जब जुर्म, राष्ट्रीय अपराध और पाप करार देकर कम्युनिस्ट, कम्युनिस्ट चिल्लाते हैं तो लोगों का जी चाहता है कि कम्युनिस्टों को गले लगा लें। जो हड़ताल नेहरू खुद करवाते रहे वही आज जुर्म हो गई है। ठीक ही है, 'ऊधो बनिआये की बात'है।

मगर नेहरू और उनके दोस्त एक बात याद रखें। उनने जो कम्युनिज्म और कम्युनिस्ट का हौआ खड़ा किया है उससे कम्युनिस्टों का लाभ और उन्हीं की हानि होगी यह ध्रुव सत्य है। वे इस तरह इन चीजों को जनप्रिय बना रहे हैं। जो कल तक कम्युनिस्टों के घोर शत्रु थे उनके दिलों में भी इस धुऑंधार दमन और हौवे के करते उनके प्रति हमदर्दी हो रही है, याद रहे। एक जमाना था जब रूस के किसान-मजदूर बोलशेविक और बोलशेविज्म का नाम भी न जानते थे। फिर भी मजलूमों के हकों के लिए जमकर बोलने-लड़नेवालों को जार के कठमुल्ले और मालदार बार-बार यही कहते थे कि यह तो बोलशेविक है। परिणाम यही हुआ कि सभी धीरे-धीरे बोलशेविकों को बहादुर और अच्छे समझ खुद बोलशेविक बन गये। वही बात जब भारत में हो जायेगी तब नेहरू को पता चलेगा।

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दमन का ताण्डव

कम्युनिस्टों की क्या बात? आज तो किसान-मजदूरों के विरुध्द नग्न दमन का निर्लज्ज नृत्य हो रहा है। सभी प्रान्तों में किसान मजदूर और उनके सहस्र-सहस्र सेवक जेलों में सड़ रहे हैं, सीखचों में कराहते हैं, लाठी-गोलियों के निशान बन चुके और बन रहे हैं। यह नंगा नाच न सिर्फ जमींदारों और थैलीशाहों के लठियल करते हैं, खुद जमींदार-मालदार करते हैं, बल्कि सत्ताधारी अधिकारी करते हैं। अकेले बिहार में कितनी औरतें मारी गयीं, कितने के पेट से बच्चे चोट खाकर बाहर जा गिरे, कितनी बच्चों के साथ ही सो गयीं सदा के लिए, कितने पर लाठियाँ गिरीं और गोलियाँ बरसीं, कौन कहे, कौन गिनाये? बकाश्त संघर्ष में औरतों को अंग्रेज और उनकी पुलिस छूने से डरती थी। मगर आज नेहरू और श्री कृष्णसिंह की स्वराजी सरकार सब कुछ करती है बेहिचक। इसीलिए, जैसा कि कहा जा चुका है, अब तो संघर्ष का रूप ही बदल गया है। अब तो लाठी-गोली का सामना करने वाले ही बकाश्त के या दूसरे संघर्ष कर सकते हैं। लेकिन यदि शोषण-शून्य समाज बनाना है, समाज से रोग, भुखमरी, गरीबी को मार भगाना है तो दूसरा उपाय है भी नहीं।

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ज़मीन की कमी और आधुनिक खेती

जमींदारी मिटाने की बात से जो लोग घबराते हैं उन्हें भूलना न चाहिए कि जमीन का एक ही काम है कि मुल्क के सभी लोगों को सुन्दर खाना दे और कारखानों के लिए पूरा कच्चा माल पैदा करे। आवश्यकता-भर गेहूँ, बासमती, सागभाजी, फल, मेवे और घी-दूध जब तक न पैदा हो स्वराज्य क्या? किसान-मजदूर राज्य क्या? अगर लाखों कारखानों के लिए कच्चा माल न पैदा हो तो मुल्क का काम कैसे चलेगा? यह भी याद रहे कि गत 70-80 साल के भीतर जनसंख्या 20 करोड़ से 40 करोड़ हो गयी। इतने ही साल में 80 करोड़ और डेढ़ सौ वर्ष बाद 160 करोड़ हो जायेगी। तब उतने लोगों को अन्न-वस्त्रा कहाँ से आयेगा, जबकि आज ही नहीं आता? यह सबसे बड़ा प्रश्न है और सारे देश इसी के हल करने में लगे हैं। हमें भी यही करना है। जमीन के ऊपर से व्यक्ति विशेष की मिल्कियत हटा कर उसे खेती करने वालों के हवाले कर देना और उन्हें विश्वास दिला देना है कि खूब अन्नादि उपजाओ, स्वयं डटकर खाओ, पीओ, भोगो और जो बचे उसमें से सरकार को दो-समाज को दो। जमीन की उपज आज से कई गुनी किये बिना काम न चलेगा और यह बात असम्भव है जब तक मोटर के हलों से खूब गहरी जुताई, काफी सिंचाई, भरपूर खाद और अच्छे बीजों का प्रबंध सरकार खुद नहीं करती। इसीलिए हमें एक ओर फौरन ऐसी सरकार बनानी है जो किसान-मजदूरों की अपनी हो, जिसका इनके साथ दिली अपनापन हो, जिसे ये समझें कि वास्तव में हमारी है।

दूसरी ओर सभी मिल्कियतों को जमीन के ऊपर से फौरन मिटा देना है, ताकि किसान जमीन को भी सरकार की ही तरह अपनी समझने लगें, यह उनकी अपनी हो जाये। जमीन पर जमींदारों या गैरों का कुछ भी हक रहने पर ऐसा न होगा और जब तक जमीन के साथ किसान का अपनापन न होगा वह उसकी उपज बढ़ाने में अपने खून को पानी न करेगा।

इसी के साथ खेतों की बीचवाली सीमाओं और मेंड़ों को भी मिटा देना है।तभी ट्रैक्टरों से खेती होगी। नन्हे-नन्हे खेतों में ट्रैक्टर चल नहीं सकते। हर गाँव में इन मेंड़ों के मिटाने से पचासों बीघे जमीन और भी निकल आयेगी। अगर खाद, सिंचाई, जुताई आदि की पूरी सुविधा होगी तो किसान पैदावार काफी बढ़ायेगा, खासकर जब उसे यह विश्वास हो कि उपज में सर्वप्रथम उसे सपरिवार के सुख के लिए खर्च करनाहै।

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किसान और खेत मजदूर

इसीलिए यह सवाल होता ही नहीं कि किसान यदि जमींदारी को मिटाते हैं तो खेत-मजदूर किसानों को भी मिटायेंगे उनकी जमीनें छीनकर। छीनने का प्रश्न होता ही नहीं। जमींदारी तो सिर्फ इसीलिए हटायी जा रही है कि खेती में बाधक है, रोड़ा है, उसके चलते जमीन के साथ किसान का अपनापन हो नहीं पाता। मगर किसान क्यों मिटेगा? हम तो जमींदार को भी नहीं मिटाते, किन्तु उसे भी सुखी बनाना चाहते हैं, पूरे आराम से रखना चाहते हैं। हम सिर्फ जमींदारी मिटाते हैं। तो क्या किसानी मिटायी जायेगी। किसानी तो खेती में साधक है न? जमींदारी की तरह बाधक नहीं, कि मिटायी जाये। साथ ही किसान तो खुद मजदूर है, खेतों की उपज के लिए दिन-रात काम करता है, फिक्र करता है, चिन्ता करता है। खेती में कोई हल चलाता, कोई कुदाल; कोई बैलों को खिलाता; कोई खेत-खलिहान की रक्षा करता; कोई खाद-गोबर डालता, कोई दौनी-ओसौनी करता है। इसी तरह सैकड़ों काम हैं। फिर किसान क्यों मिटेगा? केवल हल चलाने से या किसी एकाध काम से ही तो खेती होती नहीं। और किसान की जमीन छिनेगी कैसे? वह जायेगी कहाँ? जो छीनेगा उसका पेट भी बिना उपज बढ़ाये कैसे भरेगा? जनसंख्या दिनोंदिन बढ़ती जो जा रही है। फलत: सबों को मिलकर सरकार की पूरी मदद से उपज बनाना जरूरी है। इसीलिए किसान और खेत-मजदूर का झगड़ा भी बेकार है। उसकी गुंजाइश है ही कहाँ? हम तो उन सबों को खेत के मजदूर ही मानते हैं जो खेती से जीते हैं-जिनकी जीविका का प्रधान साधन खेती है। वह तो पक्का किसान है जिसके पास किसी प्रकार कामचलाऊ या नाममात्र को ही जमीन है या न भी है, मगर खेती ही जिसकी जीविका का साधन है। हम ऐसों ही को सारी जमीन सौंपना और उन्हीं को समस्त सुविधाएँ देना चाहते हैं। नहीं तो वर्तमान जनसंख्या के होते ही जब फी आदमी कमबेश एक ही एकड़ जमीन खेती लायक है या हो सकती है तो आगे चलकर दिनोंदिन कम ही होती जायेगी। फिर भोजन कैसे मिलेगा?

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सीधा संघर्ष - तुम या हम

हम तो पूर्ण स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ते रहे हैं जिसमें अंग्रेजों के विरुध्द हमारा नारा रहा है कि तुम रहो या हम-दोनों रह नहीं सकते। वह युध्द अभी जारी ही है। उसका एक पर्व पूरा हुआ है, दूसरा शेष ही है। पूर्ण स्वतन्त्रता अभी तक फाँसी पर लटकी ही है। कांग्रेसी नेताओं ने समझौता करके डोमिनिया राज्य से ही सन्तोष कर लिया, चाहे शब्दाडम्बर कुछ भी रखें। फलत: हमें पूर्ण स्वराज्य लेना है और वही किसान-मजदूर राज्य भी होगा। इसीलिए हमें तो इन नेताओं के विरुध्द वही नारा जारी रखना है कि तुम रहो या हम रहें, दोनों रह नहीं सकते। मुखर्जी, चेट्टी, मथाई, सिंह, भाभा, अम्बेडकर जैसे लोग, जो सदा कांग्रेस के विरोधी रहे हैं, जब कांग्रेसी मंत्रिामण्डल में लिए जाते हैं, सो भी अर्थमंत्री, व्यापार मंत्री, कानून मंत्री, युध्द मंत्री, के पदों पर, तब साफ हो जाता है कि नेहरू कितने गहरे पानी में हैं और उनका किसान-मजदूर राज्य किस धोखे की टट्टी है। भारत को टूक-टूक किया। अब काश्मीर के भी दो टूक करने की तैयारी है। बजट में जो कुछ किया जाता है वह थैलीशाहों के ही लिए। भाषणों में उन्हीं से आरजू-मिन्नत की जाती है, उद्योग-धंधों का राष्ट्रीयकरण न करने के वादे किये जाते हैं। फिर भी किसान-मजदूर राज्य वही लोग लायेंगे? कभी नहीं। उन्हें तो हटाना होगा। सो भी जल्द। तभी खैरियत होगी।

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फिर वही दो दल

15 अगस्त, 1947 के पूर्व दो दल थे-एक शासकों का, दूसरा आजादी के दीवानों का। आज भी वही दो दल हैं, वही दो दल होने चाहिए और दोनों का प्राणपन से वैसा ही संघर्ष चाहिए। हमारा-वामपंथियों का कांग्रेस के साथ हजार मतभेद होते हुए भी उसके साथ हम सभी एक होकर शासकों से लड़ते थे। आज भी हम सभी वामपंथियों को, आपसी भेद के बावजूद भी, मिलकर बेखटके शासकों से लड़ना है, लीडरों से निपटना है। हम सभी चौराहे पर खड़े हैं जहाँ राहें पृथक् होती हैं। हमें मिलकर अपनी राह चुन लेनी है। जो इसमें चूकेगा वही किसान-मजदूर राज्य का शत्रु है। शासक हमें आपस में लड़ाकर एके बाद दीगरे सबों को कुचल देंगे, याद रहे। इसलिए उनसे सजग रहें और आपस में हर्गिज न फूटें। हममें हरेक को यही निश्चय करना है। मैंने तो कर भी लिया है। बाकियों से भी क्या यही आशा करूँ?

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जय किसान, जय मजूर

हमने भारत माता की जय, जय हिन्द आदि नारे बहुत लगाये। अब समय पलटा है। नारे भी बदले जायें। 'जय किसान', 'जय मजूर' अब हमारे यही नारे होंगे। 'जो अन्न वस्त्रा उपजायेगा, अब सो कानून बनायेगा। भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलायेगा' यही हमारा मूलमंत्र हो। उसी के जाप से हमारी साधना पूरेगी और हमारा लक्ष्य-किसान-मजूर राज्य-प्राप्त होगा। एतदर्थ हमें हर किसान-मजूर स्त्री-पुरुष बालिग को किसान सभा में दाखिल करना होगा, सर्वत्र किसान सभा का जाल बिछाना होगा, गाँव में जो सबसे दबे-दुखिया हैं, मजूरी करते हैं उन्हें अपनाना होगा, उठाना होगा, तैयार करना होगा। अब उन्हीं का युग है। वही साथी बनेंगे, तभी विजय होगी, याद रहे। किसान सभा जिन्दाबाद! मजूर सभा जिन्दाबाद! किसान-मजूर राज्य जिन्दाबाद! जय किसान, जय मजूर!

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