शक्ति
का सच्चा स्वरूप और उसका विकास
जिस
पदार्थ,
धर्म,
गुण या विशेषता के
सम्बन्ध
से या होने से संसार के कोई भी पदार्थ
वांछनीय
या माननीय हो अथवा उनके रहने की आवश्यकता मानी जाय-महसूस हो-उसे ही शक्ति
कह सकते हैं। इसी के नाम योग्यता,
सामर्थ्य, पॉवर
(power),
एनर्जी (Energy)
आदि भी
हो सकते हैं। जो पदार्थ शक्ति या योग्यता से शून्य है,
जिसमें कोई विशेषता या चमत्कार नहीं,
उसके रहने की जरूरत ही क्या?
सृष्टि की रचना करनेवाला, फिर वह चाहे कोई या
कुछ भी क्यों न हो, व्यर्थ के पदार्थों की रचना
कर नहीं सकता। जरूरत के ही पदार्थों की सृष्टि से जब उसे अवकाश नहीं तो फिर
भारभूत बेकार चीजों को क्यों बनाने लगा? इसीलिए
तो देखा जाता है कि ज्यों ही कोई वस्तु अशक्त या बेकार हुई कि रहने ही नहीं
पाती। संसार में जो जीवन-स्पर्धा
या जीवन-होड़ (Struggle for
existence)
चल रही
है उसका भी यही रहस्य है और
'जीवो
जीवस्य जीवनम्' ऐसा जो पुराने लोग कह गए हैं,
उसका भी यही अभिप्राय है। प्रकृति या सृष्टि-कर्तव्य
को यह कभी भी इष्ट नहीं कि दूषित,
गलित या अशक्त पदार्थ जमा होकर उसकी कृति को चौपट करे।
इसीलिए वह सतत इस प्रयत्न है कि ऐसा पदार्थ जल्दी-से-जल्दी खत्म हो जाय,
उसका रूपान्तर-उपयोगी रूप बन जाय। देखते ही हैं कि
ज्यों ही कोई मरा कि सड़-गलकर खाद बना,
पशु-पक्षियों का खाद्य बनकर उनका जीवनदाता हुआ और इस प्रकार उसकी व्यर्थता
गयी तथा यह रूपान्तर से उपयोगी हो गया। यही कारण है कि जन्म लेते ही या
उत्पन्न होते ही स्वभावत: प्रत्येक पदार्थ बिना किसी के कहे या दबाव दिए ही
शक्ति-सम्पादन में प्रवृत्ता हो जाता है। अंकुर निकलने के साथ ही बढ़ने और पत्र,
पुष्प, कलादि सम्पादन की
तैयारी में लग जाता है; बच्चा उत्पन्न होते ही
हिलने-डोलने और खाने पीने या रोने की ओर झुक जाता है। बच्चे का रोना यह सिद्ध
करता है कि वह अपनी अशक्ति को दूर करना चाहता है। क्योंकि रोना तो अशक्ति
का ही चिद्द है। इसीलिए यदि रोने से रोनेवाले ही अशक्ति दूर न हो सकी तो वह
खतम भी हो जाता है और मालूम होता है कि उसमें अब शक्ति-सम्पादन माद्दा रह
ही नहीं गया जिससे समपादन-सामग्री को जुटाने और आकृष्ट करने में वह समर्थ
हो जाता। कुम्ळारने ज्यों ही बर्तन गढ़कर तैयार किया कि वह सूखने को गोया
जोर मारने लगा,
जिसका तात्पर्य यही है कि वह कुम्हार का शीघ्रातिशीघ्र
उसे पकाने के लिए विवश करने पर कटिबद्ध
है जिससे जलादि लाने के काम में आ सके। सारांश,
शक्त्-सिम्पादन की प्रक्रिया और प्रवृत्ति
ईश्वरदत्ता है,
प्राकृतिक है, नैसर्गिक है,
स्वाभाविक है और अकृत्रिम
है जिससे प्रत्येक पदार्थ स्वयमेव उस ओर खिंच जाते हैं। अन्यथा वे रह ही
नहीं सकते। यह भी नहीं कि वह शक्ति कहीं बाहर से लायी जाती है। शक्ति तो
ऐसी वस्तु नहीं कि बाहर से आवे। वह तो स्वाभाविकी है,
ठीक उसी तरह जिस प्रकार उसके सम्पादन की प्रवृत्ति
स्वाभाविकी है। वह तो हर पदार्थ में जन्म से ही अनुद्भुत रूप में रहा करती
है जो अगोचर होती है और सम्पादन-प्रवृत्ति
उसे गोचर या उद्भुत कर देती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि शक्ति का माद्दा
हर वस्तु में स्वयं सिद्ध
है और जिसमें वह माद्दा न रहे वह पदार्थ मृत या विनष्ट होता है। फलत:
शक्ति-सम्पादन और कुछ नहीं है सिवा अन्तर्निहित प्रसुप्त शक्ति के उद्बोधन
के,
जिसे विकास कहते हैं। यही कारण है कि
श्वेताश्वतरोपनिषद् के षष्ठाध्याय
में उसे स्वाभाविकी कहा है-
परास्य
शक्तिर्विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च॥ (6/8)
यद्यपि
कहा जा सकता है कि उपनिषद् के उक्त वाक्य में केवल परमात्मा की शक्ति
स्वाभाविकी कही गयी है,
तथापि उसका अभिप्राय शक्ति मात्र की स्वाभाविकता के प्रतिपादन में ही है।
इसीलिए उसी उपनिषद् के आरम्भ में ही-
देवात्मशक्ति स्वगुणैर्निगूढ़ाम्॥ (1/3)
-देव
और आत्मा (ईश्वर और आत्मा) दोनों की ही शक्ति के पता लगने का वर्णन है और
आत्मा-शब्द तो
'स्व'
को
या अपने आपको कहता है। फलत: हर एक पदार्थ को ही
'स्व'
शब्द से ले सकते हैं-सभी अपने आप हैं-कौन नहीं है?
अतएव शक्ति की स्वाभाविकता में विवाद व्यर्थ है। रह गयी उसके वास्तविक
स्वरूप और प्रकार की बात। बहुतों की यह धारणा है कि शक्तियाँ अनेक हैं,
असंख्य हैं। दृष्टान्त के लिए उत्पादनशक्ति और संहार शक्ति को ले सकते हैं।
दोनों एक हो नहीं सकतीं। उसी प्रकार पाशविक तथा आध्यात्मिक आदि शक्तियों
की बात है। ये परस्परविरोधिनी होने के कारण अलग-अलग हैं। लेकिन हमारा विचार
है कि शक्ति तो केवल एक ही है,
जैसा कि उक्त उपनिषद्-वाक्य से स्पष्ट है। हाँ,
उत्पादक,
सहारक,
पाशविक,
आध्यात्मिक आदि उसी के विभिन्न आकार-Diflerent
phases of aspects
हैं।
शक्ति की उत्पादकता या संहारकता हमारी मनोवृत्ति
पर ही अबलम्बित है। हम चाहे तो उसी से संहार कर दें या किसी को पैदा करें।
एक ही विद्युच्छक्ति से पदार्थ बनाए भी जाते हैं और उनका नाश भी किया जाता
है। रेल या ट्राम में लगी बिजली से रोशनी होती और गाड़ी दौड़ती है,
जिससे लोगों को पढ़ने-देखने और आने-जाने में आराम होता
है। लेकिन दुर्घटना होने से उसी के द्वारा गाड़ी
दग्ध
हो जाती,
वायुयान जल जाता और लोग मर जाते हैं। नीतिकारों ने जो
यह कहा है कि-
विद्या
विवादाय धनं मदाय
शक्ति:
परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेत
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
-उसमें
स्पष्ट ही एक ही विद्यादि वस्तु के दो विपरीत प्रयोजन मनुष्य की मनोवृत्ति
के अनुसार बताए गए हैं और विशेष रूप से एक ही शक्ति के तो रक्षण और परिपीडन
रूप दो विरोधी काम स्पष्ट ही कहे गए हैं तथा इस बात की विशद व्याख्या कर दी
गयी है कि साधु एवं असाधु रूप आश्रय के भेद से एक ही शक्ति का कैसा विलक्षण
रूप हो जाता है। इसीलिए उक्त श्वेताश्वत के वचन में शक्ति को
'विविध'
कहा है,
जिसका अर्थ है
'अनेक
प्रकार की'
न
कि 'अनेक'।
क्योंकि प्रकार तो कहते ही है एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों को। हमारे
धर्मान्तरशास्त्रकारों ने जो अर्थशास्त्र या राजनीति को धर्मान्तरशास्त्र
या धर्मान्तरनीति से दुर्बल और धर्मान्तर नीति को प्रबल या प्रधान कहा है,
जैसा कि याज्ञयल्क्यका-
-उसका
भी यही अभिप्राय है कि बलवान् और शक्ति शाली होने पर लोग अन्धे होकर शक्ति
का दुरुपयोग कर सकते हैं,
जिससे उत्पीड़न बढ़ जायेगा। इसीलिए राजकीय या पाशविक शक्ति और भौतिक बल के
सम्पादन के समय उसमें आध्यात्मिकता का
(dose)
देना
उन्होंने आवश्यक बताया है,
जिससे आजकल के पाश्चात्य या पौरस्त्य देशों की
शक्ति-सचंय की
अन्ध
प्रतिस्पर्धा
में अखिल संसार संहार के मार्ग की ओर जिस प्रकार अग्रसर हो रहा है,
सो भी द्रुतगति से, ऐसा होने
न पावे। उन्होंने अपने अनुभव और दूरदर्शिता से ऐसे अर्न्थ की सम्भावना की
कल्पना पहले ही कर ली थी। क्योंकि आध्यात्मिकता
(Spiritualism)
की
लगाम के बिना निरंकुश भौतिकता (Materialism)
अन्धी
होती है और उसका चरम परिणाम संहार के सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता।
अब प्रश्न
हो सकता है कि यदि वांछनीयता या माननीयता ही शक्ति की परिभाषा हो,
जिससे किसी पदार्थ की सत्ता की आवश्यकता ही उनकी शक्ति का परिचायक हो तो
आसुरी शक्ति वाले पदार्थों की या लोगों की आवश्यकता कभी भी न होने से
उन्हें एक क्षण के लिए भी यहाँ रहना न चाहिये। लेकिन हुआ है ठीक इसके
विपरीत। आसुरी साम्राज्य तो सदा ही रहता है-पहले भी था,
आज
भी है। यह मानकर भी कि आसुरी शक्ति का काम केवल संहार करना ही है,
लोग उसी ओर बेतहाशा दौड़ लगाते देखे जाते हैं। संसार में बिरले ही माईके लाल
अध्यात्मवाद या धर्मान्तर की पिपासावाले मिलते हैं। यदि प्रकृति या
सृष्टिकर्तव्य को ऐसा पसन्द नहीं है कि अनावश्यक पत्युत अनर्थकारी
पदार्थों की सत्ता रहे तो फिर आसुरी शक्ति का संहार क्यों नहीं स्वयमेव हो
जाता?
नित्सन्देह यह शंका होती है और होनी ही चाहिये। लेकिन जरा गम्भीरतापूर्वक
विचार करने से इसका रहस्य विदित हो जायेगा। आखिर जो यह कहा और देखा जाता है
कि अधिक शक्तिशाली के सामने न्यून शक्तिवाले असमर्थ,
अशक्त (Impotent)
हैं
उसका क्या अर्थ है?
क्या न्यून शक्तिवाले शक्ति शून्य हो जाते हैं?
उनमें शक्ति तो रहती ही है। हाँ,
उसकी
मात्र
कम भले ही हो। एक बात और। गुण-दोष और भले-बुरे का लक्षण क्या है?
यही न कि
मात्र
का आधिक्य?
यदि 'अतिरूपेण वै सीता,
अतिदानाद्वलिर्बद्ध:,
अति सर्वत्र
वर्जयेत्'
का कुछ भी अर्थ है तो यही कि कोई चीज कितनी ही सुन्दर
या भली क्यों न हो, ज्यों ही
मात्र
से ज्यादा हुई कि बुरी हुई। नमक या मीटा किसी चीज का स्वाद बनाने के लिए
दिया जाता है,
खटाई और मिर्च का प्रयोग भी इसीलिए करते हैं। परन्तु जब
इन चीजों की
मात्र
ज्यादा हो जाती है तो उसी पदार्थ को स्वाद या अमृत कहने की जगह
'जहर
हो गया।', 'खराब हो गया', 'मुँह
में न पड़ा', ऐसा कहने लगते हैं। भोजन जीवन-शक्ति
का दाता और पोषक माना
जाता है
लेकिन
जब वही
मात्र
में अधिक
हो जाता है तो बीमारियों का कारण और नाशक हो जाता है। आभूषण शोभावर्धक
माना जाता है। लेकिन जब बेहिसाब लाद दिया गया तो वही पदार्थ बुरा या भद्दा
कहा जाता है। रोशनी देखने-पढ़ने के लिए उपकारी पदार्थ है लेकिन जब बहुत
ज्यादा हो जाती है तो चकाचौंध
पैदा करके उन्हीं कामों में
बाधक
और कभी-कभी दृष्टि-विनाशक सिद्ध
होती है,
हालाँकि वह दृष्टि की उपकारिका मानी जाती है। अतएव यह
मानना ही पड़ेगा कि
मात्र
या परिमाण में अधिक्य,
या यों कहिये कि किसी वस्तु की नियमित मर्यादा का भंग
ही, उसे सद्गुण की जगह दुर्गुण या भलाई की जगह
बुराई में बदल देता है। इस प्रकार जब एक नियमित मर्यादा का उल्लंघन कर गयी
तो वह शक्ति शक्ति रह ही नहीं गयी-उसे शक्ति कहना अनुचित होगा,
संसार के नियम और व्यवहार का अपलाप होगा। यह भी तो देखा
जाता है कि कोई काम बुरा या भला इसीलिए नहीं होता कि उसका स्वरूप ही ऐसा
होता है। संसार में ऐसी बात या ऐसा काम कोई नहीं जिसके साथ बुराई-भलाई
दोनों का ही साक्षात्
सम्बन्ध
न हो। अवतार,
पैगम्बर, औलिया,
नेता या सुधारक
का जीना निहायत जरूरी है। तभी वह कोई अच्छा काम कर सकता है। लेकिन जीवन के
लिए साँस लेने से लेकर भोजनादि जितनी क्रियाएँ हैं उनमें क्या अनन्त
सूक्ष्म जीवों का जो वायु,
जल आदि में व्याप्त हैं,
संहार नहीं हो जाता? पलक मारते ही करोड़ों ऐसे
जीव या कीटाणु मर जाते हैं-
पक्ष्मणोऽपि विपातेन येषां स्यात्पर्वसंक्षय:।
-ऐसा
प्राचीनों ने कहा है। तो क्या इतने से ही सभी का जीवन बुरा ही माना जाये?
क्या अवतारों और पैगम्बरों-का होना बड़े-से-बड़े अहिंसावादिंको का जन्म-बुरा
समझा जाय?
इसी प्रकार चोरी बुरा कर्म है। लेकिन चोरों और लुटेरों का होना क्या लोगों
को सावधनी और सतर्कता की शिक्षा नहीं देता?
तात्पर्य यह कि संसार के सभी पदार्थ गुणदोषमय हैं-
जड़
चेतन गुन-दोषमय,
बिस्व कीन्ह करतार।
फिर भी
जिसके द्वारा लाभ या भलाई की अपेक्षा बुराई और हानि ज्यादा है वह बुरा है
और जिससे लाभ या भलाई अधिक है वह अच्छा है। सोलहों आना अच्छा या बुरा तो
कोई भी नहीं है। इस तरह देखने से आसुरी शक्ति को शक्ति की कोटि में ला नहीं
सकते। क्योंकि वह तो संहारकारक है और यह संहार सृष्टि के नियमों के विपरीत
है। यों तो सृष्टि के साथ भी नाश होता ही है,
फिर भी सामूहिक या व्यापक संहार प्रलय के नियमान्तर्गत है न कि सृष्टि के,
और
आसुरी शक्ति यही करती है। फलत: सृष्टि-नियम के विपरीत होने से आसुरी शक्ति
को शक्ति कहना नितान्त अनुचित है। इसीलिए वैसी शक्तिवालों का संहार परस्पर
संघर्ष या दैवी शक्ति से हो जाया करता है और यही अवतारों का रहस्य है।
इतने
विवेचन से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं। एक तो यह कि जिस चीज के रहने से
तत्सम्बन्धी पदार्थों की वा×छनीयता
हो और मर्यादा का उल्लंघन न करके जो चीज या
धर्मान्तर
सृष्टि के निमयों के अनुकूल हो वही शक्ति है-वास्तविक और सच्ची शक्ति है।
दूसरे यह कि वह शक्ति एक ही है यद्यपि उसके प्रकार या आकार
(Aspects)
अनेक
हैं। पानी एक ही होता है,
लेकिन नीम, आम,
ऊख, मिर्च,
इमली या नीबू की जड़ में देने से कड़वे,
मीठे, तीते,
खट्टे आदि उसके कई आकार-प्रकार हो जाते हैं,
मूलत: उसमें भेद नहीं होता। ठीक उसी प्रकार शक्ति भी
आश्रय या आधार
के प्रभाव से ही,
अथवा जिस भावना एवं मनोवृत्ति
से यह सम्पादन की जाती है उसी के करते अनेक प्रकार की हो जाया करती है,
न कि मूलत: वह कई प्रकार की होती है। यदि इन बातों पर
दृष्टि रख के हम आगे बढ़ते हैं तो इससे हमारे सारे संकट एवं समस्त बुराइयाँ
ही दूर हो जाती हैं। क्योंकि किसी प्रकार की शक्ति के सम्पादन या
शक्ति-विकास से पूर्व हमें देखना होगा कि जब वह एक ही है और उसकी मर्यादा
का उल्लंघन न होना चाहिये तो फिर उसकी मर्यादा ठीक रहे और उसके सम्पादन की
मनोवृत्ति
या भावना भी शुद्ध
और
पवित्र
रहे। इसी जगह
धर्मान्तर
या आध्यात्मिकता
की प्रधानता
को जड़वाद या भौतिकता के ऊपर रखने की आवश्यकता प्रतीत होगी और इसी से शक्ति
की मर्यादा
बँध
जायेगी और भावना भी
पवित्र
हो जायगी। क्योंकि
धर्मान्तर
या आध्यात्मिकता
की छाप लग जाने का अर्थ ही होगा कि अपने ही समान औरों के भी सुख-दु:खों को
अनुक्षण अनुभव करना,
महसूस करना, फील
(Feel)
करना,
जैसा कि गीता ने कहा है कि-
आत्मौपम्येन सर्वत्र
समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं
वा यदि वा दु:खं स योगी परसो मत:॥(6/32)
कारण,
धर्मान्तर का पर्यवसान इसी विचार में होता है,
न
कि किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता
(Dogmatism)
में।
इसीलिए महाभारत के शान्ति पर्व में तुलाधार
ने जाजलि
से
धर्मान्तरज्ञान
की कसौटी और उसका निचोड़ बताते हुए कहा है कि मनसा,
वाचा, कर्मणा जो प्राणी सबका
सुहृद् और सबकी भलाई में तत्पर हो वही
धर्मान्तर
के रहस्य को जानता है-
सर्वेषां च सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रत:।
कर्मणा
मनसा वाचा स
धर्म
वेद जाजले॥ (261/9)
यही कारण
है कि हमारे धर्मान्तरचार्यों ने
'सर्वेऽपि
सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:'
का
डिंडिमनाद किया है। यदि पूर्वकाल की आसुरी शक्ति के विस्तार का पर्यवेक्षण
किया जाय तो उससे भी यही सिद्ध होता है कि उसके सम्पादकों के साथ
धर्मान्तर का सम्बन्ध छत्तीस का-सा ही था,
उन्होंने धर्मान्तर को पाँव-तले रौंदकर धता बताया था। वर्तमान समय के
महासमरों और उसकी तैयारियों की ओर यदि दृष्टि की जाय तो यह स्पष्ट ही
प्रतीत होता है कि आध्यात्मिकता और धर्मान्तर से विहीन वर्तमान सभ्यता ही
इसका कारण है और जबतक इसका अन्त होकर सभी देशों,
राष्ट्रों और उनके संचालकों के दृष्टिकोण में धर्मान्तरमूलक परिवर्तन नहीं
होता तबतक बाहरी बातों और निरस्त्रीकरण के घपलों से इस संहारक मनोवृत्ति
का अन्त न होगा और शक्ति के नाम पर यह वास्तविक अशक्ति अपना बलिदान लेकर ही
रहेगी। कारण,
इस
आसुरी या पाशविक शक्ति का,
जिसे शक्ति करना
'शक्ति'
शब्द का परिहास करना है और जिसे प्रवृत्ति भले ही कह सकते हैं नियन्त्रण हो
ही नहीं सकता।
इस शक्ति
को 'ज्ञानवलक्रिया
च'
कहा है,
जिसका अभिप्राय है कि इसके ज्ञान,
बल
और क्रियात्मक तीन आकार हैं। ईश्वरकृष्ण के
'सत्वं
लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रज:। गुरु वरणकमेव तम:...'
(सां.
का. 13)
तथा गीता के
'सत्तवं
सुखे संज यति रज: कर्मणि',
'सर्वद्वारेषु
देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते'
(14/9/11)
के अनुसार
ज्ञान,
बल
और क्रिया का अभिप्राय है सत्व,
तम
और रज-इन तीन गुणों से। क्योंकि सत्तव का स्वरूप और काम ही है ज्ञान,
तथा रजका स्वरूप है क्रिया या हलचल। तम भारी माना जाता है जिससे वह दबाता
है। अतएव बलका अभिप्राय तमसे ही है। क्योंकि बल के ही प्रभाव से कोई वस्तु
दबती है। इस प्रकार शक्ति त्रिगुणात्मिका सिद्ध होती है जिसका स्पष्ट अर्थ
यह है कि जिस शक्ति में ज्ञान क्रिया और बल। इन तीनों को या तीनों में किसी
एक को भी स्थान नहीं है वह शक्ति कही जा सकती ही नहीं। इसलिए मनु ने कहा है
कि 'विद्वत्सु
कृतबुद्धय:। कृतबुद्धिषु कर्तव्यर: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥'
(1/97)।
इसका तात्पर्य यह है कि कोरा ज्ञान,
कोरी क्रिया या कोरा बल वांछनीय नहीं है,
मनुष्य-जीवन का चरम ध्येय नहीं है,
किन्तु तीनों का उचित सम्मिश्रण चाहिये।र् कर्तव्य कर्तव्य का निश्चय,
उसके अनुसार कार्य करने का बल और साहस तथा निश्चयानुसारिणी क्रिया के साथ
ब्रह्मज्ञान का होना जरूरी है। यह ब्रह्मज्ञान वही है जिसे
'आत्मौपम्येन
सर्वत्र'
इत्यादि वचनों के द्वारा धर्मान्तर का पर्यवसान कहा है,
अध्यात्मवाद का अन्तिम स्वरूप बताया है। अतएव इस संसार का वास्तविक
कल्याण-सच्चा श्रेय इसी बात में है कि शक्ति तथा अशक्ति का पूर्ण विवेचन
करके उसके ज्ञान,
क्रिया और बलात्मक तीनों रूपों का सम्पादन-विकास किया जाय और इस प्रकार
उसमें धर्मान्तर का पुट देकर उसे मर्यादित किया जाय जिसमें विश्व का
कल्याण हो। कोरा ज्ञान,
कोरी क्रिया याकोरा बल एकांकी और विनाशकारी है। पूर्वाचार्यों ने जो हर बात
के सम्पादन के समय अधिकारी की परख लगायी है और कहा है कि अनाधिकारी को कोई
बात बतायी न जाय और न वह ऐसा साहस ही करे कि कुछ सीखे-जाने,
उसका भी यही रहस्य है। क्योंकि मनोवृत्ति और भावना पर नियन्त्रण हुए बिना
ऐसे पुरुष को जो सामर्थ्य,
योग्यता या शक्ति प्राप्त होगी उसका दुरुपयोग हो सकता है,
वह
विनाशकारिणी हो सकती है। उपनिषदों में ब्रह्मा के द्वारा बलि के ठुकराये
जाने और उपदेश न देने का भी यही अभिप्राय है। इसीलिए निरुक्तकारने
'असूयकायानृजवेऽयताय
मा मा ब्रूया:'
कहा है और मनुने भी इसी का अभिप्राय
'विद्या
ब्राह्मणमेत्याह'
इत्यादि के द्वारा व्यक्त किया है। यदि ऐसा न हो तो अपात्र या अनाधिकारी के
पास जाकर समस्त ज्ञान शैतान के हाथ में मसाल का काम करने लगे। इसका सबसे
उत्ताम दृष्टान्त मनुस्मृति के
8वें
अध्याय का
168
वाँ श्लोक
है जिसे नैषध के पढ़ने वाले जानते हैं। वह
'बलाद्दत्तां
बलाद्भुक्तम्'
इत्यादि है,
जिसका सरल अर्थ यही है कि जो काम अनिच्छापूर्वक जबरदस्ती कराया जाता है
उसकी जवाबदेही करने वाले पर नहीं रहती। लेकिन उस श्लोक के पद ऐसे हैं जिससे
यह अर्थ भी किया जा सकता है कि जबरदस्ती किए-कराए कामों की कोई गिनती नहीं
होती,
वे नहीं
ही समझे जाते हैं। इसलिए चार्वाक ने उस वचन का यह अर्थ लगा लिया कि
जबरदस्ती चोरी,
सीना-जोरी,
ढकैती या दुराचार-व्यभिचार करने में कोई हर्ज नहीं है,
क्योंकि ऐसी आज्ञा मनुने दी है।
फलत:
अधिकारी का विचार करने से वास्तविक मर्यादा का न तो उल्लंघन ही होगा और न
दूषित मनोवृत्ति का प्रसार ही होगा। फिर तो ताण्डव नृत्य का अवसर आयेगा ही
नहीं और समस्त शक्ति का विकास उचित रूप और मात्र में होकर वह ज्ञान,
क्रिया और साहस रूप अपने उक्त तीनों आकारों से सम्पन्न होगी और इस प्रकार
उसके ऊपर अर्थ से इति तक धर्मान्तर का-वास्तविक और सच्चे धर्मान्तर का
पुट होने से वह निसर्गत: कल्याणकारिणी ही होगी और इस प्रकार गीता के
'रजस्तमश्चाभिभूय
सत्तवं भवति भारत'
(14/10)
के अनुसार
विपरीतगामी और विरोधी भी रज एवं तम सत्तव के अनुगुण और सहकारी बनकर क्रिया
और साहस के द्वारा उसके पोषक होंगे और समय-समय पर उसे विश्राम देकर सदैव
अक्षीणशक्ति बनाए रखेंगे। इस प्रकार सोने में सुगन्ध की तरह परस्पर विरोधी
भी ये गुण विश्व को कल्याण की ओर अग्रसर करेंगे। क्योंकि अकेला ज्ञान,
अकेली क्रिया या अकेला साहस बेकार होता है,
जिससे परस्पर सहकारिता अपेक्षित है और यही सृष्टि का नियम है।
(शीर्ष पर वापस)
स्वामी
सहजानंद सरस्वती का उद्घाटन भाषण
(1
जून, 1945 नेत्रकोना, मैमनसिंह, पूर्वी बंगाल)
आपने
अपने छात्र
सम्मेलन के उद्घाटन की जो इज्जत मुझे बख्शी है उसके लिए मैं आप सबका
अत्यन्त आभारी हूँ। लेकिन सचमुच मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि तमाम लोगों
यह जिम्मेदारी आपने मुझे क्यों सौंपी है-यह जिम्मेदारी तो केवल बौद्धिक
महारथी और आत्मा हिमाग वाले लोग ही निभा सकते थे जो आपके बैनर पर लिखे स्वतन्त्रता,
शान्ति और प्रगति के रास्ते पर ले जाने के लिए सबसे
उचित और अनुकूल सलाह देने में पूरी तरह सक्षम हैं। अगर आपको हमारी प्यारी
मातृभूमि की स्वतन्त्रता
के संघर्ष के इन कठिन दिनों में कुछ गम्भीर राजनीतिक दिशा निर्देश और
प्रेरणा की जरूरत थी तो बेहतर होता कि आप देश के कट्टावर राजनीतिज्ञों से
सम्पर्क करते जिन्होंने इस मकसद के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया है और
जिनकी जिन्दगी हम सबको प्रेरित करने वाले त्याग का मूर्तिमान उदाहरण बन गयी
है। लेकिन गलत या सही यह जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी है। मैं आपके आदेश के
सामने सिर नवाता हूँ और अपनी शक्ति भर इस काम को बखूबी निभाने की कोशिश
करूँगा।
गुलामी हमारा
कलंक
दो सौ
साल पहले गुलामी के सबसे पीड़ादायी और अपमानजनक
बंधन
में हमें जबर्दस्ती
बाँध
दिया गया था। तब से इस
बंधन
को टुकड़े-टुकड़े कर देने और अपनी प्यारी धरती पर से गुलामी के इस धब्बे को
समूल उखाड़ फेंकने का हमारा बहादुराना संघर्ष जारी है। बिना शक अनेक मौकों
पर और खासकर पिछले पच्चीस सालों में इसने गम्भीर रूप
धारण
किया है।
1921 के ऐतिहासिक असहयोग आन्दोलन के दौरान प्रत्याशित
घटनाएँ घटी। 1857 के सर्वाधिक
परेशानी भरे दिनों और बंग भंग के बाद एक क्षण की सूचना पर सक्रिय हो जाने
वाला दमन और उत्पीड़न का जो
तन्त्र
ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने खड़ा किया था उसके कारण वह देश में अपने आपको सर्वाधिक
सुरक्षित मानता था। उसी साम्राज्यवाद से दृढ़तापूर्वक और निरन्तर
संघर्ष
के लिए पूरा देश राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलनात्मक आवाहन पर एक जुट होकर
खड़ा हो गया। परिणाम यह हुआ कि शब्दश: इसी बुनियादें हिल उठी और तत्कालीन
गवर्नर-जनरल,
कार्ड रीडिंग ने सार्वजनिक रूप से माना कि जो कुछ घटित
हुआ उससे वह हैरान और परेशान रह गए। पहली बार जनता और उसे गुलाम बनाने वाले
दोनों ने महसूस किया कि जन समुदाय में प्रचंड शक्ति छिपी हुई है जो आश्चर्य
जनक काम कर सकती है अगर उसे ठीक से जाग्रत कर दिया जाये। इस गौरव शाली
संघर्ष स्वतन्त्रता
प्राप्ति का आत्मविश्वास हमारे भीतर भर दिया। उसके बाद से निस्सन्देह समूचे
देश ने इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं। लेकिन मेरा
सिर उसे स्वीकार करते हुए शर्म से झुक जाता है कि वह कलंक अभी खत्म नहीं
हुआ है। इसकी बजाय दबे छुपे में जंजीरें और कसी जा रही हैं। बिना और समय
खोए अगर हम एक राष्ट्र के बतौर सामूहिक रूप से और दृढ़तापूर्वक इस बात का
संकल्प नहीं करते कि युद्ध
के समाप्त होते-होते हम इस गुलामी के धब्बे को अतीत की चीज बना देने की
महलम कोशिश करेंगे तो मुझे भय है कि भविष्य में और कुछ नहीं गहन निराशा
हमारे हाथ आयेगी। और छात्र
अगर चाहें तो इस दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं।
(शीर्ष पर वापस)
दृढ़
राष्ट्रवाद ही हमारी दवा है
लेकिन
हम सबके लिए ही यह सबसे कठिन काम है। इस दिशा में किसी भी आन्दोलन की ठोस
योजना बनाने से पहले हमें एक क्षण के लिए भी वास्तविक परिस्थितियों से नजर
नहीं हटानी चाहिये। यूरोप में युद्ध
मित्र
शक्तियों की अनुपम विजय के साथ खत्म हुआ है। सुदूर पूर्व में भी मुझे भरोसा
है कि यह जल्दी ही खत्म हो जायेगा। इन परिस्थितियों में धरती पर ऐसी कोई
शक्ति नहीं है जो इंग्लैंड की ताकत को सशस्त संघर्ष में या भौतिक टकराव में
आसानी से चुनौती दे सके। हमारी तरफ से तो ऐसे किसी टकराव की बात भी सोचना
एकदम निरर्थक विचार और महज दिखा स्वप्न है क्योंकि य कठोर सच्चाई है कि
1942
के अगस्त के बाद के दिनों में दुर्भाग्यवश जो घटनाएँ
घटीं उनके कारण हम निहत्थे हैं और निष्क्रिय पड़े हुए हैं। लगता है कि कम से
कम वर्तमान समय में हमने सारी पहल कदमी खो दी है और समूचे देश को एक तरह का
लकवा मार चुका है। अन्यथा कपड़ों और अन्य जरूरियात की सार्वत्रिक
कभी की वजह से लोगों के उबलते हुए विक्षोभ और जरूरत अशांति को,
इस छोर से उस छोर तक समूचा देश गहराई से जिसके कारण
हिंसक रूप से आदोलित हो उठा और कोई भी व्यक्ति जिससे अछूता और अनुत्तोजित
नहीं रह गया है उस गुस्से को एक
धारा
में संगठित करने में हमारी राष्ट्रीय स्तर की निष्क्रियता को और कैसे समझा
जा सकता है?
अगर हम जलियाँवाला बाग की
त्रासदी
का समूचे देश को जाग्रत करने में पूरी तरह उपयोग कर सके जिसने हमारे शासकों
के सामने दमदार चुनौती प्रस्तुत की,
इस तरह के बावजूद कि उस
त्रासदी
से बाकी देश केवल आत्मगत रूप से जुड़ा हुआ था,
तो कपड़ों की इस
त्रासदी,
जिसे देश में हरेक आदमी वस्तुगत रूप से महसूस कर रहा है,
का फायदा उठाकर हम ऐसा मजबूत जन उभार क्यों नहीं पैदा
कर पाते जिसके सामने हवाइट हाल घुटने टेक दे और विदेशी शासन का अंत हो?
हमें इस सवाल का जवाब पाने के लिए गम्भीरता पूर्वक अपना
दिल टटोलना चाहिये ताकि भविष्य में हम और तैयार रह सकें। लेकिन मेरा एक
आसान जवाब है कि उपर्युक्त सामूहिक लकवे और व्यापक होत्साह के अलावा,
मुझे क्षमा करिए, हमारे भीतर
लोगों के बतौर उस समझौता विहीन न ज्वलंत राष्ट्रवाद की कमी है जो रास्ते की
भारी से भारी मुश्किल की एकदम परवाह नहीं करता,
कोई रुकावट या पराजय नहीं जानता, और अनथक
कार्यवाही तथा दुश्मन के समर्पण
के पहले टूट सकता है,
झुक नहीं सकता। हमारे शरीर की हरेक कोशिका को अपनी
गुलामी के खिलाफ विद्रोह करना चाहिये और तब तक शान्त नहीं होना चाहिये जब
तक इसे राख न कर दिया जाये और जमीन में गाड़ न दिया जाये। अगर हम ऐसे
राष्ट्रवादी हैं तो इस गुलामी की कल्पना से ही हमारा खून उबल पड़ना चाहिये।
लेकिन जब तक इस विशाल और प्राचीन देश में रहने वाले 40
करोड़ लोग, या कम से कम उनकी
बहुसंख्या, को इस राष्ट्रवाद के घेरे के भीतर
नहीं लाया जाता तब तक हम इस मंजिल तक पहुँचने की उम्मीद नहीं कर सकते।
जितना जल्दी यह हो सके, उतना अच्छा। और अगर छात्र
सामूहिक रूप से एक जुट होकर कठिन काम को पूरा करने की जिम्मेदारी उठा लें
तो वे इसे आसानी से पूरा कर सकते हैं क्योंकि शायद ही कोई गाँव या कोई घर
हो जो उनसे और उनके सम्पर्कों से अछूता हो।
(शीर्ष पर वापस)
राष्ट्रीय
एकता की एकमात्र कुंजी
सैकड़ों
बार यह विचार दुहराया जा चुका है कि राष्ट्रीय मुक्ति की प्राप्ति तब तक
असम्भव है जब तक देश के सभी
धर्मों
और समुदायों को समेट लेने वाली व्यापक तक सम्भव एकता न स्थापित हो। हमारे
शासक इसे हर-हमेशा और बार-बार घोषित करते रहते हैं और हम भी उसे ही दुहराते
हैं। फिर भी हम उन पर आरोप लगाते हैं कि सत्ता
हस्तांतरण को रोके रखने का यह उनका बहाना है। मुझे खुलकर यह कहने दीजिए कि
मैं इस
विरोधभास
को समझ नहीं पाता। अगर यह केवल ब्रिटिश शासकों का बहाना है तो हम इसके बारे
में इतना क्यों चिन्तित हों?
जितना ही हम इस एकता को हासिल करने की कोशिश करते हैं
उतना ही यह पीछे छूटती चली जाती है। फिर भी इस दिशा में किए जा रहे अपने
प्रयासों की निरर्थता को हम महसूस नहीं करते। लेकिन इसके लिए जोर-जोर से
चिल्लाने और अपना अधैर्य प्रदर्शित करने की बजाय अगर हम कुछ देर के लिए इसे
भूल जाएँ और अपनी समूची ऊर्जा और सारा कौशल उस दृढ़ राष्ट्रवाद की आग्नि को
जाग्रत करने, पैदा करने और प्रसारित करने में
लगा दें जिसका जनता में अब भी भयानक अभाव है तो मुझे विश्वास है कि वह एकता
उसी तरह अपने आप चली आयेगी जिस तरह रात के बाद दिन आता है। और इस तरह हम
स्थायी राष्ट्रीय एकता की पक्की बुनियाद रख सकेंगे। ज्वलंत राष्ट्रवाद के
बिना राष्ट्रीय एकता स्वतोव्याघात है।
(शीर्ष पर वापस)
कार्यवाही की
अपील
जनता
के बीच उग्र राष्ट्रवाद प्रसारित करने के हमारे ईमानदाराना प्रयासों और
अनथक कार्यों के अलावा एक और व्यावहारिक रास्ता है जिससे एकता हासिल की जा
सकती है और विभिन्न साम्प्रदायिक समूहों के बीच टकराव रोका जा सकता है।
1929
के अन्त में लाहौर कांग्रेस के पहले हिंदुओं और
मुसलमानों के बीच खूब तनाव था फिर भी 1930 और
1932 में कांग्रेस द्वारा संचालित सिविल
नाफरमानी आंदोलन किसी भी साम्प्रदायिक टकराव और दंगे से उल्लेखनीय रूप से
मुक्त रहे। इस तरह वास्तविक लोकप्रिय एकता को उन्होंने अभिव्यक्ति दी
हालाँकि भारतीय स्वतन्त्रता
के दुश्मन इसके उल्टा होने की घोषणाएँ करते रहे। इसी तरह अगस्त
1942
के दुर्भाग्यपूर्ण दिनों के ठीक पहले तक देश के दो
प्रमुख समुदायों के बीच तनाव और सामान्य झगड़ों की तात्कालिक घटनाएँ बहुत अधिक
होती दिखाई देती हैं। लेकिन आन्दोलन की शुरुआत के साथ ये तनाव पूरी तरह
खत्म हो गए और जब तक आन्दोलन जारी रहा तब तक उनका कोई निशान नहीं दिखाई
पड़ा। हमारी अपनी स्मृति में ये तथ्य अकाटय हैं। इन और इनसे पहले के
उदाहरणों में आसानी से यह सिद्ध
हो जाता है कि चाहे वे कम भी हों तो भी सचेतन और दृढ़निश्चयी लोगों द्वारा
राष्ट्रीय शक्ति के लिए शुरू किया गया तथा निरन्तर और अनथक रूप से चलाया
गया दीर्घकालीन संघर्ष लोगों के छोटे-मोटे आपसी भेदभाव भुला देने और उस
आन्दोलन के लिए दृढ़तापूर्वक एकताबद्ध
होने तथा उसकी सफलता के लिए कामना करने की सच्ची सफल कार्यवाही गत अपील
होती है और इसी तरह की अपील लोगों के दिलों तक पहुँचती है तथा सफल होती है।
इसलिए जल्दी या देर से जब तक हम इस तरह की अपीलों के लिए तैयार नहीं होते
तब तक मुझे डर है कि हम वैसी सर्वव्यापी राष्ट्रीय एकता हासिल करने की
उम्मीद नहीं कर सकते जो हमारी स्वतन्त्रता
प्राप्ति की पूर्वशर्त है। केवल इस तरह की अपील ही जनता को अपने
साम्प्रदायिक नेताओं और उनकी सलाहों की उपेक्षा करने और राष्ट्रीय कांग्रेस
की लाड़ाई में अचूक रूप से ऐसी एकता प्रदर्शित करने के लिए तैयार कर सकती है
जो गुलामी और विदेशी शासन के विरुद्ध
राष्ट्रीय विद्रोह का प्रतीक बन जाये।
(शीर्ष पर वापस)
कांग्रेस की
भूमिका
अवश्य
ही कांग्रेस गुलामी के विरुद्ध
हमारे सामूहिक विद्रोह और उससे लड़कर स्वतन्त्र
हो जाने की हमारी इच्छा और निश्चय का प्रतीक है। खुदगुख्तारी की भारतीय
आकांक्षा और देश में राजनीतिक सत्ता
पर हमारे कब्जे का एक ठोस रूप है। मुझे यह भी साफ साफ करने की इजाजत दीजिए
कि पहली बार में सत्ता
हथियाए जाने और दखल किए जाने के बाद भारतीय पूँजीपति के हाथों में जाने को
बाध्य
है,
निश्चय ही वह खेतों,
कारखानों और दीगर जगहों के लाखों मेहनतकशों के हाथ नहीं आयेगी। वह चरण बाद
में आ सकता है। ब्रिटिश राज को सम्भवत:
सीधे
किसान,
मजदूर राज के जरिये बेदखल नहीं किया जा सकता। यह कतई
असम्भव है। पूर्ण स्वतन्त्रता
या स्वराज इन दोनों का मध्यवर्ती
चरण होगा। समूची दुनिया के स्वतन्त्रता
आन्दोलनों के इतिहास से हमें यही सीख मिलती है और भारत इस नियम का अपवाद
नहीं हो सकता। इसलिए इतिहास और राजनीति का कोई भी गम्भीर छात्र
इस तथ्य से इन्कार नहीं कर सकता कि राष्ट्रीय कांग्रेस का आज जैसा संगठन है
उसमें वह भारतीय पूँजीपति के हाथों में समूची राजनीतिक सत्ता
सौंपने की माँग करती है और उसे ऐसा ही करना पड़ेगा,
और भारतीय क्रान्ति के चरण
पर विचार करते हुए राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा छेड़े गए निरन्तर संघर्ष की
यही सम्भव और तार्किक व्याख्या हो सकती है। रूस में भी सोवियतें अपने
संघर्ष की इस तथ्यपरक व्याख्या से बच नहीं सकीं जब उनके संघर्ष के कारण जार
निकोलस द्वितीय द्वारा खाली की गयी भद्दी पर रूसी पूँजीपति जा बैठे हालाँकि
यह शासन कुल आठ महीने की अल्प अवधि
तक ही चला। इसलिए इस मामले में कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिये और जो लोग भी
इससे जुड़े हुए हैं उन्हें यह बात दिमाग में रखनी चाहिये कि हम किसान सभा के
लोग,
जो पंचायती या किसान मजदूर राज की माँग करते हैं,
वे ऑंखें खुली रखकर ही कांग्रेस और स्वतन्त्रता
के इसके संघर्ष का पूरे दिल से समर्थन करने का वादा करते हैं। पूरी तरह से
परिपक्व ढंग से सोच विचार कर हम इस
अप्रतिरोध
और अपरिवर्तनीय नतीजे पर पहुँचे हैं कि केवल कांग्रेस ही स्वराज या भारतीय
स्वाधीनता
प्राप्त कर सकती है और इस तरह किसान मजदूर राज के लिए रास्ता साफ कर सकती
है। इसलिए,
हम सबका यह सर्वोच्च कर्तव्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद
और इसके प्रमुख संगठन कांग्रेस को हम देश की अदम्य ताफत बना दें। और जो लोग
इस भारतीय राष्ट्रीवाद को उसकी प्रमुख हैसियत से नीचे उतारने या समझौता
करने की कोशिश करते हैं वे हमारी आजादी के दुश्मन हैं।
(शीर्ष पर वापस)
किसान सभा की
स्थिति
मैं यह
मानता हूँ कि किसान सभा को अन्य वर्गीय संगठनों की तरह ही भारतीय कियानों
के पूरी तरह स्वतन्त्र
वर्गीय संगठन के रूप में बने रहना चाहिये जो मुख्यत: किसानों के अधिकारों
और हितों के लिए ट्रेड यूनियन की तरह संघर्ष करेगी। मैं स्वतन्त्र
किसान सभा की हिमायत करता हूँ और इस स्वतन्त्रता
में किसी भी राजनीतिक समूह या पार्टी अथवा पार्टियों से उसकी स्वतन्त्रा
शामिल है। कम्युनिस्ट पार्टी से किसान सभा के अलग होने के अनेक कारणों में
से एक यह भी था कि वह किसान सभा को अपने मातहत रखने की लगातार कोशिश करती
रहती थी,
और वह
सम्बन्ध
विच्छेद अन्तिम है। मैं ऐसी किसी योजना या विचार का पक्षधर नहीं हो सकता
जिसमें किसान सभा को कांग्रेस की एक शाखा या विभाग के रूप में संगठित किया
जाये या बना दिया जाये जिसमें इसके सभी प्राथमिक सदस्य अनियार्यत: कांग्रेस
के भी सदस्य हों। दरअसल तो हम इसका स्वागत करेंगे कि इसके सभी सदस्य अपनी
मर्जी से कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर लें। हम इसे प्रोत्साहित भी कर सकते
हैं। लेकिन हम अपने सदस्यों के लिए ऐसा करने का नियम नहीं बना सकते। अगर हम
ऐसा कोई नियम बना दें तो इसका नतीजा यही निकलेगा कि किसान सभा का पूर्ण
विकास रुक जायेगा। पिछले दो दशकों के दौरान हमारा ऐसा ही अनुभव रहा है।
हमें अपनी स्वतन्त्र
सत्ता
और अस्तित्व बनाए रखना चाहिये और किसानों के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों
तथा अन्तत: किसान मजदूर राज के लिए लड़ाई में किसी भी किस्म के
बंधन
से मुक्त रहना चाहिये। किसी भी उत्पीड़न,
संगठन या सत्ता
से लड़ने के लिए हमारे हाथ खुले चाहिये ताकि किसान सिर उठाकर खड़ा हो सके।
(शीर्ष पर वापस)
स्वतन्त्र
किसान सभा क्यों
चूँकि
कांग्रेस की प्रकृति ही राष्ट्रीय और गैर-तबकाई है इसलिए उससे कल्पना में
भी यह आशा नहीं की जा सकती कि वह एक नियम के बतौर विशेषकर तबकाई हितों का
पूरी तरह प्रतिनिधित्व
कर सकती है। और प्रभावी ढंग से उनके लिए लड़ सकती है। ऐसा करने से उसका
राष्ट्रीय चरित्र
नष्ट हो जायेगा। इसीलिए तबकाई या वर्गीय संगठनों की जरूरत है,
दी उनका औचित्य है। इसी कारण कांग्रेस के रहते हुए भी
चैम्बर आफ कामर्स और लैण्डहोल्डर्स एसोसिएशन जैसे संगठन हैं जो पूँजीपतियों
और जमींदारों के तबकाई हितों का प्रतिनिधित्व
करते हैं और उनके लिए लड़ते हैं और यह एक अकाटय तथ्य है इसी कारण कि वे जैसा
चाहें वैसा करने के लिए कांग्रेस को आसानी से प्रभावित कर लेते हैं। फिर भी
वे इस पर कभी भरोसा नहीं करते। इसी तरह कारखानों के मजदूर भी हैं जो अपनी
टूटे यूनियन कांग्रेस में संगठित हैं और अगर कांग्रेस पूँजीपतियों या
जमींदारों अथवा मजदूरों से उनके स्वतन्त्र
वर्गीय संगठनों को समेट लेने के लिए गम्भीरतापूर्वक नहीं कहती तो फिर
किसानों के स्वतन्त्र
वर्गीय संगठन को भंग करने की कोशिश क्यों होनी चाहिये?
हिन्दुस्तान मजदूर सेवक संघ के सचिव श्री गुरुजारी लाल
नंदा ने इसके उद्देश्यों और कार्यवाहियों के बारे में हाल के एक बयान में
कहा कि यह संस्था महात्मा गाँधी
के आशीर्वाद और सहमति से शुरू की गयी है। इससे यह स्पष्ट है कि वे ट्रेड
यूनियन कांग्रेस की स्वतन्त्र
सत्ता
को स्वीकार करते हैं और इसकी राह में रुकावट नहीं पैदा करना चाहते या कोई
प्रतिद्वन्द्वी संगठन भी नहीं शुरू करना चाहते। अगर और कुछ नहीं तो कम से
कम इतनी सदाशयता का हक तो किसान सभा का भी बनता ही है। इस तथ्य का भी खंडन
नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रीय और उच्चतर हितों के मुकाबले साधारण
लोगों के लिए तबकाई हित ज्यादा आकर्षक होते हैं और इसीलिए वे स्वाभाविक रूप
से ऐसे संगठनों का सदस्य बनने,
उन्हें मजबूत करने और खासकर अपने तबकाई और वर्गीय हितों
की सेवा करने और उनके लिए लड़ने में उत्सुक और प्रवृत्ता होते हैं। इसीलिए
यह और भी जरूरी है कि किसानों को अपनी स्वतन्त्र
किसान सभा का सदस्य बनने की सलाह और स्वतन्त्रता
देनी चाहिये क्योंकि यह उनके वर्गीय हितों की रक्षा के लिए लड़ती है,
और फिर सभा के जरिये उन्हें कांग्रेस और उसके संघर्ष
में सक्रिय रूप से शामिल होने की चेतना पैदा करनी चाहिये। इसीलिए यह
कांग्रेस को मजबूत बनाने का सबसे आसान और सबसे गारंटी शुदा रास्ता है।
(शीर्ष पर वापस)
किसान मजदूर
राज के लिए
फिर भी
कांग्रेसियों का एक हिस्सा ऐसा है जो स्वतन्त्र
किसान सभा का
विरोध
करता है। उनका कहना है कि
8
अगस्त 1943 का अखिल भारतीय
कांग्रेस कमेटी का बम्बई प्रस्ताव किसान मजदूर राज की स्थापना करने की
प्रतिज्ञा करता है, जो अन्य बातों के अलावा कहता
है कि राष्ट्रीय सरकार की शक्ति ''कारखानों
खेतों और अन्य जगहों पर मजदूरों में निहित होगी।''
वे यहीं रुक जाते हैं और किसानों और मजदूरों की तरफ से
अपनी स्वतन्त्र
सभाओं के रूप में पूर्ववर्ती कदमों और भरपूर तैयारियों की कोई जरूरत नहीं
महसूस करते जो इसकी स्थापना और निर्माण के लिए सहमति और गारंटी का काम
करें। लेकिन स्वतन्त्र
और मुक्ति संघर्षो का विश्व इतिहास सैकड़ों ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करता है जब
किसान और मजदूर मुक्ति के लिए लड़के वाले संगठनों और उनके नेताओं के ऐसे
वादों और घोषणाओं पर बेहतरीन उम्मींदें पाले रहे और संकट पूर्ण समय में
उन्हें
धोखा
दिया गया और मूर्ख बनाया गया और नंगी सचाइयाँ सामने आने पर जब वे चेते तो
काफी देर हो चुकी थी। और ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ ऐसे ऊँचे-ऊँचे
वादे केवल कहने भर से और पहले से ही पूरवर्ती कदमों को अपनाने में असफल
जनता की ओर से पूरी तैयारी के अभाव में पूरे किए गए हों। मजबूत और अच्छी
तरह से संगठित किसान सभा ही एकमात्र
ऐसा कदम है जो ऐसे वादों को पूरा करने के दबाव डाल सकती है और उन्हें पूरा
करवा सकती है और वह भी निरन्तर संघर्ष के उपरान्त ही,
उसके बगैर तो निश्चय ही नहीं। इसलिये इस मामले में
किसान कोई भूल नहीं कर सकते अगर उन्हें राजनीतिक सत्ता
दखल का अपना चरम लक्ष्य हासिल करना है।
लेकिन अगर
हमारे आलोचक अब भी यही सोचते हैं कि जनता स्वतन्त्रता प्राप्ति के अपने
संघर्ष के सीधे नतीजे के रूप में पूरी तरह राजनीतिक सत्ता पर कब्जा कर सकती
है तो उनका भ्रम टूटना निश्चित है जब वे ऐसा एक भी मामला नहीं देखेंगे जहाँ
क्रान्ति की पहली मंजिल में ही,
जिससे हमारा देश गुजर रहा है,
सत्ता पर जनता अन्तिम और निश्चित रूप से काबिज हो गयी हो अगर कहीं शोषित और
सम्पत्ति हीन जनसमुदाय ने इस दौर में सत्ता पर कब्जा कर भी लिया हो तो कभी
वे इसे टिकाए नहीं रख सके और अन्तत: वह राष्ट्रीय पूँजीपति के हाथों में
चली गयी जो सफल जनतान्त्रिक क्रान्ति के फलस्वरूप गद्दीनशीन हुआ। और इस
संघर्ष की सफलता के लिए अब से किसानों और मजूदरों को मजबूत बुनियाद और ठोस
आधार पर स्थापित अपने स्वतन्त्र वर्गीय संगठनों का निर्माण करना ही होगा।
और मान लीजिये,
प्रान्तों में फिर से कांग्रेसी मन्त्रीमण्डलों का गठन होता है। तो पहले
की तरह ही जमींदार और पूँजीपति अपने मजबूत सुसंगठित संगठनों के जरिए प्रेस
तथा अपनी थैलियों के सहारे अपने पक्ष में उन मन्त्रिमण्डलों को प्रभावित
करके जाएँगे और मजदूर तथा किसान अपने वर्ग शत्रुओं की तरह की अपनी
स्वतन्त्रतापूर्वक संगठित आवाज के अभाव में गलती से मारे जाएँगे। इसलिये
उनके स्वतन्त्र वर्गीय संगठनों की महती आवश्यकता है। अगर वे केवल कांग्रेस
की शाखा या विभाग होंगे तो वे कांग्रेस के अनुशासन से हमेशा बँधे रहेंगे,
जिसका परिणाम यह होगा कि वे अपनी मजबूत और दृढ़ आवाज कभी बुलंदन कर सकेंगे
जो सभी सम्बन्धित लोगों का ध्यान आकर्षित कर सके।
(शीर्ष पर वापस)
नेहरू क्या
कहते हैं
मई
1937
में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
के रूप में इसी मुद्दे के
सम्बन्ध
में एक लम्बा वक्तव्य जारी किया था। इसमें उन्होंने अन्य बातों के साथ यह
भी कहा कि,
''लेकिन इन सबके बावजूद कांग्रेस एक राष्ट्रीय संगठन है
और इसे ऐसा ही बने रहना है, और मजदूरों तथा
किसानों के कार्यकारी या वर्गीयहितों का यह हमेशा प्रतिनिधित्व
नहीं कर सकती। यह ट्रेड यूनियन या किसान सभी की तरह काम नहीं कर सकती।
मजदूरों और किसानों को
सीधे
कांग्रेस के भीतर लाने के महत्व पर इतना जोर देने के बाद अब हमें अलग मजदूर
वर्गीय संगठनों की जरूरत पर भी विचार करना चाहिये। इसमें कोई सन्देह नहीं
कि औद्योगिक मजदूरों और किसानों दोनों को अपने आपको संगठित करने का
स्वाभाविक हक हासिल है या होना चाहिये। यह एक बुनियादी किस्म का हक है जिसे
अनेक बार कांग्रेस ने मान्यता दी है। इसके बारे में तर्क की कोई गुँजाइश
नहीं है। कांग्रेस ने तो इससे भी एक दम आगे बढ़कर कम से कम इतिहास में,
ऐसी यूनियनों के निर्माण को प्रोत्साहित किया है।''
''कांग्रेसी लोग व्यक्तिगत रूप से ऐसी यूनियनों के
सदस्य और दोस्त हो सकते हैं और उन्हें होना चाहिये तथा उन्हें अपनी सलाह भी
देते रहना चाहिये। लेकिन किसी कांग्रेस कमेटी को किसी ट्रेड युनिमन पर नियन्त्रण
करने को कोशिश नहीं करनी चाहिये।''
''हम यह नहीं कह सकते कि कोई किसान संगठन होना ही नहीं
चाहिये। ऐसा करना कांग्रेस की घोषित नीति के विरुद्ध
होगा। ऐसा करना सिद्धान्तत:
गलत होगा और हमारे चारों तरफ जो दिखाई दे रहा है उस जीवन्त आन्दोलन और
आलोड़न के खिलाफ जायेगा। न ही हम यह कह सकते हैं कि किसान सभा को कांग्रेस
की एक शाखा ही होना चाहिये,
जिसमें सभा का हरेक सदस्य कांग्रेस का भी प्राथमिक
सदस्य हो। ऐसा करना बेवकूफाना होगा, क्योंकि फिर
ऐसी परिस्थिति में किसान सभा की कोई जरूरत ही नहीं होगी। किसान संगठन को आल
इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन या विलेज इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के समकक्ष रखना भी
विचार योग्य बात नहीं लगती। ऐसे
प्रतिबंध
अलग किसान संगठनों के विकास को नहीं रोक सकते : इनका परिणाम केवल यही होगा
कि ये संगठन कांग्रेस के घेरे के बाहर हो जाएँगे और कांग्रेस को कुछ कुछ
दुश्मन संगठन के बतौर देखने लगेंगे।''
(शीर्ष पर वापस)
कांग्रेस और
किसान सभा
भारतीय
स्वतन्त्रता
की प्राप्ति के लिए मैं कांग्रेस और किसान सभा के बीच सहयोग का हिमायती
हूँ। किसी भी हालत में सभा को कांग्रेस के स्वतन्त्रता
संघर्ष के खिलाफ नहीं जाना चाहिये। आफ इंडिया किसान सभा के संविधान
में दूसरा और तीसरा
धारा
में इसे स्पष्ट किया गया है जो निम्नवत हैं।
''सभा
का उद्देश्य है अन्य वर्गों और लोकतान्त्रिक
आन्दोलनों,
खासकर राष्ट्रीय स्वाधीनता
आन्दोलन के साथ मिलकर किसानों की आर्थिक और राजनीतिक शोषण से पूरी तरह आजाद
कराना और भारत में ऐसे लोकतान्त्रिक
राज्य की स्थापना करना जिसमें समस्त आर्थिक और राजनीतिक सत्ता
जनता में निहित होगी।''
''अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सभा किसानों को
उनकी तात्कालिक माँगों के आधार
पर रोजमर्रा के संघर्ष चलाने के लिए संगठित करेगी और स्वतन्त्रता
आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए अन्य शक्तियों के साथ मिलकर काम करेगी।''
किसान सभा जैसे वर्गीय संगठन जितना ही मजबूत और प्रभावी
होंगे, जितना ही वे अपनी
धारा
के भीतर करोड़ों किसानों और सामान्य,
जनसमुदाय को खींच लाएँगे जो उनके साथ हाड़मांस की तरह
जुड़े हों और उन्हें अपना संगठन मानते हों,
कांग्रेस इस सहयोग के कारण उतना ही आर्थिक मजबूत और संगठित होगी बशर्ते सभा
का नेतृत्व दृढ़ और जीवन्त राष्ट्रवाद से अनुप्राणित हो। इसी तरह वर्ग सचेत
और सचमुच जागृत किसान देश के ऐसे अन्य वर्गों और तबकों के साथ सहयोग करेंगे
जो राष्ट्रीय मुक्ति की स्थापना के लिए सर्वाधिक
अधीर
हैं और देश की मुक्ति तथा किसानों की आजादी का यही एकमात्र
रास्ता है।
(शीर्ष पर वापस)
छात्रों की
भूमिका
आपका
इतना सारा समय मैंने उन मुद्दों पर बातचीत करने के लिए किया जिनका छात्रों
से कोई सीधा
सम्बन्ध
नहीं है। अब मुझे स्वतन्त्रता
संग्राम में उनकी भूमिका के बारे में भी कुछ शब्द कहना चाहिये। रूस,
चीन, ईजिरा तुर्की और
अन्यान्य देशों के स्वतन्त्रता
संग्राम के इतिहास को विहंगावलोकन करने से भी हमें पता चलता है कि इन देशों
के छात्र
समुदाय ने जो अद्भुत भूमिकाएँ निभाई हैं वे अत्यन्त चमकदार कीर्तिमान की
तरह हैं। वास्तव में इन्हीं के महत्ताम त्याग,
चाहे मूक हो अथवा अन्य किसी तरह का,
के आधार
पर लेनिन,
ट्राट्स्की, च्यांग,
जगलुल, कमाल और अन्य नायकों
तथा राष्ट्र निर्माताओं ने अपने भविष्य के स्थापत्य की सबसे गारंटी शुदा और
सबसे सुरक्षित बुनियाद रखी। उन्होंने हजारों की संख्या में होंठों पर
मुस्कान और दिलों में दृढ़ निश्चय के साथ गोलियों,
कारागार और अन्य तमाम मुसीबतों का मुकाबला किया वे
सिर्फ इसलिये मरे ताकि उनकी जनता जी सके। रूस में वे छात्र
ही थे जो शिक्षा की खोज में विदेश गए और उसी से पहला क्रान्तिकारी आवेग उस
देश में पैदा हुआ। छात्र
ही 1825
में जार की सेवा में पहले विद्रोह के प्रेरक थे। रूसी
भाषा में 'छात्र'
और 'हड़ताल'
शब्द पर्यायवाची हैं। चीन का वह महान विद्रोह जिसने
1925-1926 में क्वोमिनताङ् को शासन में स्थापित
कर दिया वह मुख्यत: चीनी छात्रों
की बहादुराना कार्यवाहियों के चलते सम्भव हुआ,
यह घटना तो पूरी तरह हमारी स्मृति में है। इसी तरह की
घटनाएँ अन्य देशों में भी घटित हुईं। यहाँ भारत में भी महान असहयोग आन्दोलन
जिसने इतिहास का निर्माण किया और सरकार को बुरी तरह से हिला दिया,
उसमें भी उन छात्रों
की अकथनीय तकलीफों और विराट कुर्बानियों का असीम योगदान है जिन्होंने
राष्ट्र के आवाहन पर स्कूल और कालेज खाली कर दिए और गाँवों में किसानों तथा
गरीबों और कस्बों-नगरों में झुग्गी झोपड़ियों में धाँस गए। और वे ही थे
जिन्होंने कार्ड कर्जन के स्थायी बंग-विभाजन को अस्थायी कर दिया। दरअसल जब
कभी देश ने पुकारा है कभी उनकी कमी नहीं पड़ने पाई है। हमारे देश के
राष्ट्रीय गौरव को बनाए रखने और बुलन्द करने के लिए हमारे छात्रों
के त्याग और बलिदान का जो लम्बा इतिहास रहा है उस पर कोई भी देश गर्व कर
सकता है। तब क्या अपने देश के चेहरे पर से गुलामी की बची खुची का लिख पोंछ
देने और अपने झंडे को ऊँचा उठाए रखने के लिए अगर हम कुछ और कुर्बानियों की
उम्मीद करें तो यह बहुत ज्यादा होगा
?
वे ही तो भारत के भविष्य निर्माता हैं। इसलिये उन्हें
ही विजय अभियान का नेतृत्व करना चाहिये और उसके फलों का उपयोग करना चाहिये।
उनकी ही मुख्य जिम्मेदारी है और मुझे आशा है कि अतीत की तरह ही वे इस बार
भी उठ खड़े होंगे।
(शीर्ष पर वापस)
सोई हुई
शक्तियाँ
जनता
के भीतर असंख्य क्रान्तिकारी शक्तियाँ सोई पड़ी हैं और
बंधन
में हैं और वे वर्तमान युद्ध
की ही तरह के हिंसक युद्धों
के द्वारा जागृत हो जाती हैं और मुक्त कर दी जाती हैं। ये युद्ध
जितना ही व्यापक विनाश करते हैं और
विध्वंस
पैदा करते हैं उतनी ही अदम्य शक्तियों को वे मुक्त कर देते हैं और उतनी ही
जल्दी ये शक्तियाँ दुनिया को शोषण,
उत्पीड़न और तकलीफों से पूरी तरह मुक्त कराकर अपने आगोश
में ले लेती हैं। पिछली बार इन शक्तियों ने रूस,
जर्मनी, तुर्की और अन्य देशों में राजाओं,
सम्राटों और
सुल्तानों
को लील गईं और उसी कम या ज्यादा हद तक जनता को मुक्त करा ले गईं जिस हद तक
में लोग परिस्थितियों का यथायोग्य और समयोचित इस्तेमाल कर सके और जिस हद तक
में लोग जनता को जागृत और नए जीवन तथा जिम्मेदारियों के लिए तैयार कर सके।
अब भारत की बारी है और अब से हमें अपने आपको जब भी और जैसे भी ये शक्तियाँ
मुक्त हुईं उनके स्वागत के लिए तैयार करना होगा। हमें उनके साथ आगे बढ़ने के
लिए और उनका पूरी तरह इस्तेमाल करने के लिए तैयार करना चाहिये और छात्रों
का यह निश्चित कर्तव्य है कि वे देश को इसके लिए तैयार करें। हमारे पास
खोने को एकदम समय नहीं है इसलिये कृपया जल्दी कीजिए।
(शीर्ष पर वापस)
हम और
कम्युनिस्ट
अपनी
बात खत्म करने के पहले मुझे कुछ शब्द किसान सभा को भीतर से तोड़ देने के
कम्युनिस्ट षड़यन्त्र
के बारे में भी कहना चाहिये। चूँकि छाल अपने प्यारे संगठन को भीतर से नष्ट
कर देने के उद्देश्य से लक्षित ऐसे षड़यन्त्रों
से अच्छी तरह वाकिफ हैं,
इसलिये इसमें उनकी भी रुचि हो सकती है। इसी जिने में ने
त्रकोना
में कम्युनिस्ट पार्टी ने हाल में ही विद्रोही आल इंडिया किसान सभा का
सम्मेलन आयोजित किया था,
उसे कम्युनिस्ट किसान सभा ही कहना बेहतर होगा क्योंकि
नीचे से ऊपर तक तमाम महत्वपूर्ण पदों पर इसमें अब केवल कम्युनिस्ट ही बैठे
हैं। आचरण
सम्बन्धी
अपने नियमों के मुताबिक उन्होंने मुझ पर अनेक आधारहीन
आरोप लगाए हैं। इन आधारहीन
आरोपों का जवाब देकर मैं आपका कीमती वक्त बरबाद नहीं करना चाहता हूँ। लेकिन
मैं केवल संक्षेप में उनके और अपने बीच झगड़े के मुख्य कारण और प्रमुख भेदों
का वर्णन करना चाहता हूँ जिनके कारण मैं अन्तिम रूप से उनसे अलग हुआ और वे
सभा को छोड़कर चले गए।
किसान सभा
के तीन मूलभूत सिद्धान्त हैं जहाँ तक मैं उन्हें समझ पाया हूँ और जिन पर
हमारे बीच बुनियादी मतभेद हैं। वे हैं : सबसे पहले,
सभा बिना किसी समझौते के जमींदारी उन्मूलन की हिमायत करती है जिसकी
संस्तुति फ्लाउड कमीशन ने बंगाल के लिए भी की है और बंगाल में प्रशासन के
बारे में खबर देने वाली हाल की एक आधिकारिक कमेटी ने सभी सम्बद्ध लोगों को
फिर से इसकी याद दिलाई है और इसे लागू करने के लिए दबाव ढाला है।
परिणामस्वरूप हम इस उद्देश्य के लिए आन्दोलन करते हैं और बिना रुके काम
करते रहते हैं। लेकिन वे (भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ) या संधि कर बैठे हैं,
शायद अधिक अन्न उपजाने के लिए,
और
उन्होंने इस विचार को त्याग दिया है,
कितने दिनों के लिए,
मैं नहीं कह सकता। क्या उन्होंने नेत्रकोना में यह नारा लगाया है या इस तरह
का कोई प्रस्ताव पास किया है?
मुझे बताया गया कि उन्होंने नहीं किया है और आप तो इसे निश्चित ही जानते
होंगे।
दूसरे,
हमारा लक्ष्य है,
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है,
समस्त राजनीतिक और आर्थिक सत्ता को जनता में विहित करना। और इसीलिए हम
मुख्य रूप से इस कार्यभार को पूरा करने के लिए वृत संकल्प हैं। लेकिन उनका
कहना है कि इस जनयुद्ध के दौर में,
जैसा कि वे इसे कहते हैं,
किसान सभा का मुख्य कार्यभार जनता के लिए और युद्ध के मोर्चे के लिए अधिक
अन्न उपजाना है और वे इसे सभा पर उसी तरह थोपना चाहते हैं जैसे वे पहले
बुनियादी बिन्दु के बारे में करते हैं।
तीसरे,
इन
दोनों मूलभूत सिद्धान्तों पर सफलता प्राप्त करने के लिए सभा को मजबूत बनाया
जाना चाहिये और इस उद्देश्य के लिए जो भी राजनीतिक समूह और पार्टियाँ सभा
के बुनियादी सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं उन्हें वास्तविक व्यवहार में
किसान सभा के भीतर स्वतन्त्रतापूर्वक काम करने और इसे मजबूत बनाने की
अधिकतम आजादी दी जानी चाहिये। इसी बात से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि सभा
को किसी कठोर राजनीतिक पार्टी की तरह एकरूपता के सिद्धान्त पर नहीं चलाया
जा सकता । इसके विपरीत वे हर जगह दूसरे सभी लोगों की कीमत पर केवल अपने
आपको मजबूत बनाने पर तुले हुए थे। इसीलिए स्वाभाविक रूप से वे किसान सभा को
भी अपने (कम्युनिस्ट पार्टी के) जेबी ब्यूरो में बदल देना चाहते थे और उसे
एकसम बनाना चाहते थे। वे इसे लेकर कटिबद्ध थे और चाहे जो कुछ हो इसे किसान
सभा पर थोपना चाहते थे। फिर भी वे इतने ढीठ हैं कि कहते हैं कि मैं अपनी
तानाशाही चलाना चाहता था जबकि वे जनवादी अनुशासन से बँधे हुए हैं।
इस तरह इन
तमाम मूलभूत सिद्धान्तों पर मेरे और उनके बीच मतभेद था और ऐसी स्थिति में
मैं उनके साथ किसी तरह तभी तक रह सकता था जब तक इन मतभेदों को मैं पूरी तरह
खोज न लेता और उन्हें निश्चित न कर लेता। लेकिन जिस क्षण मैं इन चीजों के
बारे में समझ गया उसी क्षण मैंने उनसे ........ होने का मन बना लिया।
उन्होंने भी इस बात को महसूस कर लिया और सभा में लागू तमाम निर्णयों और
नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाने को तैयार हो गए। यहाँ तक कि उन्होंने सभा
से मेरे औपचारिक अलगाव का भी इन्तजार नहीं किया और विद्रोह कर बैठे। इसी
कारण मुझे पूरी स्थिति पर फिर से विचार करना पड़ा और निष्कासित करना पड़ा।
संक्षेप में मामला यही है और मैं इसे लोगों पर छोड़ता हूँ कि वे इस पर
निर्णय लें और निर्णय दें। मैं इतना ही और कह सकता हूँ कि उनके विद्रोह से
किसान सभा न केवल शुद्ध हो गयी है बल्कि और मजबूत हो गयी है। इस शुद्धिकरण
के फलस्वरूप हम और मजबूत हुए हैं। जब से वे अलग हुए हैं। तबसे मुझे रोज
प्रसिद्ध किसान नेताओं,
संगठनों और तकरीबन सभी प्रान्तों की किसान सभाओं से पत्र मिल रहे हैं जो
कहते हैं कि उन्हें जरूरी ही सबसे मजबूत आल इंडिया किसान सभा से जोड़ा जाये।
इसलिये किसान सभा के दुश्मन और उसे तोड़ने वाले कम से कम खुश तो नही हों।
मेरी बात
खत्म हुई। मैंने विवादास्पद मुद्दों को यहाँ अनावश्यक रूप से उठाकर आपका
बहुत सारा कीमती वक्त बरबाद किया,
और
मुझे इसका दर्द भरा अहसास है। लेकिन फिर समूचा जीवन ही और कुछ नहीं बल्कि
संघर्षों की एक शृंखला है जो विवादों और प्रति द्वंद्विताओं से पैदा होते
हैं। अगर मैंने राष्ट्र जीवन के सारे पहलुओं पर विचार किया तो मैं इससे बच
नहीं सकता था। और फिर इसके जिम्मेदार तो आप स्वयं हैं,
क्योंकि आपने ही इस काम के लिए एक ऐसे आदमी को चुनने की गलती की भी जिसकी
जिन्दगी किसानों और गरीबों तथा गरीबों और देश के लिए समर्पित है,
और
इसीलिए जो हर महफिल में वही गाना गाने का आदी है। बहाहाल,
मैं क्षमा चाहता हूँ कि मैंने इतना रसहीन और अनचाहा उपदेश आपको दे डाला।
सम्पादक-स्वामी,
1944 वैजबाड़ा के आठवें किसान
अधिवेशन
से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पाकिस्तान समर्थक नीति,
सुभाष के वनिस्पत गाँधी
को नेता मानने की नीति,
किसान मोर्च पर शिथिल हो 'अधिक
अन्य उपजाओं'
की अंग्रेज परस्त नीति जनसंस्कृति की अवहेलना के कारण
सुवध
चल रहे थे। नेत्रकोना
में नवम् किसान
अधिवेशन
चल रहा था जो मैमन सिंह पूर्वी बंगाल में ही उपस्थित था। स्वामीजी मैमन
सिंह तक गए पर वहाँ जाकर भी कम्युनिस्ट पार्टी के वर्चस्व वाली किसान सभा
में शरीक न होकर छात्रों
की सभा में चले गए और कम्युनिस्ट पार्टी से अपने मतभेदों का इस भाष में
खुलासा किया है। मतभेद का एक बिन्दु है किसान आन्दोलन कम्युनिस्ट पार्टी
द्वारा स्थगित कर लिया युद्ध
में व्रितानी सरकार को मदद दूसरा है किसान सभा को अपना जेवी संस्था बनाना,
तीसरा है उनकी अधिक
अन्न उपजाओं में ज्यादा दिलचस्पी।
(शीर्ष पर वापस)
छोटानागपुर के
किसान और उनकी समस्या
(3-4 जुलाई, 1939 को घाटशिला में सम्पन्न
सिंहभूमि जिला किसान सम्मेलन के अध्यक्ष पद से दिया
गया स्वामी सहजानन्द सरस्वती जी का भाषण)
सिंहभूमि के इस अभेद्य पहाड़ी हिस्से के मूक और पद-दलित मानव का
धूर्त
और चालाक नहीं होने की वजह से निरन्तर इस हृदयहीनता से शोषण हो रहा है,
कि वे मनुष्य के प्रारम्भिक अधिकारों
से भी वंचित हैं। नहीं तो ब्रिटिश सरकार समूचे छोटा-नागपुर और संथाल परगना
को पिछड़ा हिस्सा क्यों करार देती
?
उन्होंने इसको अपने शोषण और प्रभुत्व के लिए रिजर्व कर
रखा है। इनके प्रचुर खनिज
साधनों
का उन्हें बेहद लालच है। इसीलिए आदिवासियों का रक्षा के नाम पर नागपुर यह
बड़ी ठगयी चल रही हैं। इस सभ्य और कानूनी लूट में हमारे देशवासी ही उनकी मदद
कर रहे हैं,
जो बात तो जनता की करते हैं पर करनी उल्टी होती है।
वस्तुत:
दुनिया में दो ही जातियाँ हैं जो एक दूसरे के प्रतिकूल हैं। एक ओर है
शोषकों या निहित स्वार्थवालों की और दूसरी ओर शोषितों या पैदा करने वालों
की। इसमें जाति या देश का भेद नहीं। वैज्ञानिक अविष्कारों की बाढ़ ने
प्राकृतिक सीमाओं की बाधा को तोड़ भगाया है और जहाँ तब सभी देशों के शोषकों
का सम्बन्ध है,
वे
दूसरी तथा रंग और जाति की भिन्नता रहते हुए भी यह जान गए हैं कि उनका
स्वार्थ एक है। लेकिन शोषितों के लिए तो ये बन्धन अभी लगे ही हैं। हाँ,
ज्यों-ज्यों उनमें किसानों और मजदूरों में,
जन-जागरण की लहर फैलती है,
ये
बन्धन ढीले पड़ रहे हैं। जितनी तेज इस जाग्रति की गति होगी उतनी ही जल्दी यह
ऊँची दीवार टूटेगी,
जो
दुनिया के कमानेवालों,
किसानों और मजदूरों को विभाजित करती है। अत: हमारा यह कर्तव्य होगा कि इसी
एकता के लाने की दिशा में हम यत्नशील हों और हमारी सफलता और विफलता की
परीक्षा इसी से होगी। हमारी कोशिश इसी एक दिशा में होनी चाहिये,
वह
है किसानों और मजदूरों में यह भाव भरना कि वे शोषितों की एक ही श्रेणी के
हैं।
(शीर्ष
पर वापस)
हमारे
उद्देश्य
निश्चय
ही हम सिर्फ इस भूभाग के किसानों को कुछ कानूनी सहूलियतें ही दिलाने के लिए
प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। यह तो उन्हें कब न मिल जाना चाहिये। था। अबतक
उन्हें ये चीजें नहीं मिली है,
यह महान
अपराध
और अन्याय है। और ये चीजें किसानों को तुरन्त मिल जायं यदि वे जाग्रत हों
और सम्मानपूर्ण जीवन एवं श्रम के फल के
निर्बाध
उपयोग के अपने अधिकार
की लड़ाई को शुरू कर दें। बिना उसकी स्पष्ट और समझपूर्ण अनुमति के किसी को
भी दूसरे के श्रम के फल को लेने का अधिकार
नहीं है। और यदि इस काम के लिए कोई कानून या तरीका है तो वह साफ-साफ डकैती
है और उसकी अवश्य निन्दा होनी चाहिये। आश्चर्य तो इसमें है कि यह डकैती अब
एक वैध चीज हो गयी है और इसके खिलाफ आवाज उठाने को वे भी
अपराध
करार देते हैं जिनकी ताकत जनता की इच्छा और समर्थन पर निर्भर है। नहीं तो
इसका क्या अर्थ है कि कांग्रेसी प्रान्तों के गृहमन्त्री
भी,
जहाँ तक जाता फौजदारी और जाब्ता ताजीरात हिन्द से
सम्बन्ध
है मजदूर और किसान संस्थाओं को साम्प्रदायिक संस्थाओं के साथ सम्बद्ध
कर देने में सहमत हुए। लेकिन किसी भी अवस्था में हमे इन चीजों के बावजूद भी
निर्बाध
बढ़े चलना है और दुनिया को दिखा देना है कि हम अपना काम जानते हैं और कितनी
भी दमन और
धमकियाँ
हमें अपने काम बन्द करने कोम जबूर नहीं कर सकतीं। हम समाज से सदा के लिए
मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को खत्म कर संसार में शाश्वत शान्ति और
समानता,
प्रेमपूर्ण भ्रातृत्व और वास्तविक स्वतन्त्रता
स्थापित करने को निकले हैं। हमारे लिए यही पूर्ण स्वराज्य,
मुकम्मल आजादी या किसान-मजदूर राज है और हमारी स्वाधीनता
की लड़ाई का यही मकसद है। यह तो पूर्ण नहीं हो सकता जब तक जमींदारी प्रथा
मिटा नहीं दी जाती और पूँजीवाद जड़ से खत्म नहीं कर दिया जाता। इस स्वराज्य
के लिए हमें वर्तमान समाज के इन दो अभिशापों को मिटाना है जिनने समाज को
नरक बना दिया है।
(शीर्ष पर वापस)
हमारे दोहरे
काम
अत:
स्वाधीनता
की लड़ाई में किसान सभा को दोहरे काम करने होंगे। एक ओर ब्रिटिश
साम्राज्यशाही के खिलाफ देश की दूसरी साम्राज्य विरोधी
ताकतों के सहयोग से निरन्तर युद्ध
चलाए चलना है। अत: इसे देखना है कि ये ताकतें आपस में फूटती नहीं और वे
अपने समान दुश्मन से लड़ने में एक दूसरे से पूरा सहयोग करती है। हमारे ये
विदेशी आका किसानों और मजदूरों को सर्वदा जरूरतमन्द,
नंगे और भूखे रखना चाहते हैं,
नहीं तो उनकी पुलिस, फौज,
जेल के जमादार या कचहरी के अरदली में कौन गुलामी करेगा?
क्या जमींदार पूँजीशाही या दूसरे निहित स्वार्थ वाले?
हर्गिज नहीं और यदि किसान मजदूर भूखे नहीं रहेंगे तो वे
वे यह गुलामी करना क्यों पसन्द करेंगे। इसीलिए विदेशी शासकों से न्याय की
उम्मीद रखना भ्रम है। उन्हें तो हमारे देश में एक शासक की हैसियत से विदा
लेनी ही है। और इन्होंने ही तो जमींदारों और पूँजीपतियों को बनाया है। इन
स्वदेशी शोषकों से भी मुक्ति पाने के लिए उन्हें हिन्दुस्तान से निकलना ही
होगा।
तब क्या
अमेरिका अंग्रेज प्रभुओं को निकालकर अपने देश के किसानों और मजदूरों को
मुक्त कर सका है,
उन्हें सुखी बना पाया है?
नहीं,
तो क्यों?
क्योंकि स्वाधीनता की लड़ाई जीतने के बाद भी निहित-स्वार्थवाले अक्षुण्ण रख
छोड़े गए थे। इतना ही नहीं,
उनके बेरोक विकास के लिए पर्याप्त क्षेत्र छोड़ दिया। उसी का नतीजा है कि आज
200,00,000
आदमी बिना किसी जीविका के जी रहे हैं। सोवियत रूस को छोड़कर कम-बेशी कर सारी
दुनिया की आज यही हालत है। हमें इसी जाल से बचना है और सुरक्षा की कोई झूठी
भावना हमें जमींदारों और पूँजीवादियों को हटाने में निष्क्रिय न कर दे,
इसकी ओर हमें खबरदार रहना है। इसलिये दूसरी ओर किसान सभा जमीन्दारी सहित इन
निहित स्वार्थों के विरुद्ध युद्ध ठान कर उस युद्ध को जीतने में अपनी सारी
ताकत लगा देगी,
उनके खिलाफ वातावरण ही तैयार कर दम नहीं लेगी। वह लड़ाई लम्बी और निरन्तर
चलने वाली होगी ब्रिटिश साम्राज्यशाही का,
उसके दोस्तों सहित सर्वनाश करके छोड़ेगी। सिर्फ जमींदारी के खिलाफ ही कोई
अलग लड़ाई नहीं की जायगी। इस तरह तो जमींदारी भी नहीं उठ सकती।
(शीर्ष पर वापस)
हमारी
जवाबदेही
हमारा
कर्तव्य का यह दोहरा रूप स्वाधीनता
की लड़ाई के प्रति हमारी जवाबदेही को बढ़ा देता है और हमें सदा सतर्क रहना
पड़ेगा,
नहीं तो हमारा एक बेसमझ और असमय का काम इसको कमजोर न कर
दे। हमें
ध्यान
में रखना है कि किसानों की मुसीबतों,
उनके दु:ख और लांछनों का अन्त तब तक नहीं होगा जबतक
ब्रिटिश साम्राज्यशाही का 'पालो'
हमारे कंधों
से उतार नहीं दिया जाता और हम स्वतन्त्र
हवा में सांस नहीं लेते। हमारे सभी दुर्गुण
इसी से पैदा हुए हैं। इसलिये हमें
'अर्थवाद'
में ही फँसे रहने के खतरे से अपने को सचेत रखना है।
किसान सभा ऐसी श्रेणी-संस्था के लिए यह सब से बड़ा खतरा है। अर्थनीति अब
राजनीति से अलग नहीं की जा सकती। दोनों अनन्योन्याश्रित हैं। इसीलिए तो
शोषकों के शुभचिन्तक लेनिन ने कहा है-''श्रेणी-संघर्ष
में सुधार
सहायक
साधन
हैं,
और प्रत्येक श्रेणी-संघर्ष राजनीतिक संघर्ष है। अत:
श्रेणी संघर्ष के क्रम में हुए प्रत्येक लाभ को उस संघर्ष को बढ़ाने का
साधन
बनाना चाहिये। सुधार
वास्तव में कोई बात नहीं रखती,
इसके उपयोग के पीछे छिपी जो मनोवृत्ति
रहती है,
वही असल चीज है।'' इसलिये
किसान सभा किसानों के जीवन के अच्छा करने वाले कुछ निकट के भौतिक लाभों को
प्राप्त कर या जमींदारी को ही उठा कर लड़ाई बन्द नहीं कर सकती। निस्सन्देह
इनके लिए तो लड़ना जरूरी ही है, लेकिन ये आखिरी
मकसद नहीं है, ये तो कमानेवालों की सामाजिक,
आर्थिक और राजनीतिक लड़ाई को आगे बढ़ाने के
साधन
हैं-और यही लड़ाई सभा की अन्तिम मंजिल है।
(शीर्ष पर वापस)
तात्कालिक माँगें
किन्तु,
वह लड़ाई चल नहीं सकती यदि हम किसानों की तात्कालिक
जरूरतों और माँगों पर अपना
ध्यान
केन्द्रित नहीं कर देते। यह जान लेना है कि कमाने वाले बिना स्वराज्य के भी
रह सकते हैं जैसा वे आजतक करते रहे हैं,
पर वे कभी भी जमीन, रोटी और
कपड़े के बिना नहीं रह सकते। वे स्वराज्य की लड़ाई में निर्वाण और मुक्ति
पाने के उद्देश्य से नहीं आते हैं, वे अपनी
जरूरतों से स्वराज्य की परख करते हैं और जो उसे पूरा नहीं करेगा,
वह उनके लिए अर्थ नहीं रखता। किसान सभा और मजदूर संघ
अपने को किसान-मजदूरों को विश्वास पात्र
तभी बना सकते हैं। उन्हें स्वाधीनता
की लड़ाई में,
तभी ला सकते हैं, जब वे उनकी
दिन-दिन की मुसीबतों को दूर करनेवाली छोटी-छोटी आंशिक लड़ाइयाँ लड़ेंगे। साथ
ही कमानेवालों को आखिरी मैदान में लड़ने के लिए तैयार करने में यह छोटे
अखाड़ों का काम देगा। इससे उनमें आत्मविश्वास,
दृढ़ता और बहादुरी आवेगी वे विद्रोही बनेंगे और अपने अभीष्ट के लिए उनमें
जलती आस्था होगी। साथ ही यह उस लड़ाई के लिए कार्यशील नेतृत्व पैदा करेगा,
पंडितों और मौलवियों का बातें बनानेवाला नेतृत्व नहीं।
सिर्फ स्वराज्य की बातें करना वैसी
धार्मिक
चीज है जो मरने पर
उपलब्ध
होगी,
जीते जी नहीं। कमानेवाले ठोस नेतृत्व चाहते हैं,
सिर्फ आदर्शवाद नहीं, और वह
दिन-दिन के संघर्ष से ही पैदा होगा। यह नकली नेतृत्व को भी तभी अपने सही
रूप में दिखा कर खत्म कर देगा।
(शीर्ष पर वापस)
सिंहभूमि के किसान
छोटानागपुर काश्तकारी कानून तथा उसके आजतक के संशोधनों के बावजूद सिंहभूमि
के किसानों की हालत बदतर ही होती चली आयी है। नतीजे में इन कानूनों ने इनके
अपने ढंग से अपने झगड़ों तय को करने की प्रणाली को मिटा दिया है और उन्हें
कचहारियों में घसीट कर उनका बचा खुचा भी उनसे छीन लिया है। घाव पर नमक
छिड़कने के लिए,
जंगल कानून ने जो उन्हें प्रकृति की घास,
जलावन, लकड़ी,
बांस, पत्तो,
जड़, फल आदि से भी वंचित कर
रखा है। उसके लिए एक कुआं खोदना दुश्वार काम है और सरकार तथा जमींदार को
इसकी कुछ भी फिक्र नहीं। इस परिस्थिति में उनका सहारा झरनों पर हैं,
ये झरने घने जंगलों में हैं,
और सभी जंगल रिजर्व हैं। अत: अपनी या अपने जानवर की प्यास बुझाने के लिए ये
अभागे जंगल अधिकारियों
को बिना कुछ दिए जंगल में नहीं प्रवेश कर सकते। रिजर्व जंगल की घास सूखकर
खत्म हो जायगी,
मगर गरीब किसान इसे छू नहीं सकते। इतने पर भी सन्तोष
नहीं हुआ तो जंगल के असफर और जमींदार के अमले किसानों का सतत सताते रहते
हैं, जिससे उनका जीवन नरक बन गया है। इन चीजों
को किसी भी तरह बन्द होना ही है और इस बार छोटा नागपुर में जो अखिल भारतीय
राष्ट्रीय महासभा होने जा रही है, उसकी सफलता
इसी से देखी जायगी कि कहाँ तक कांग्रेसी मन्त्री
और नेता उनकी इन तकलीफों को दूर करते हैं। यहाँ का जंगली हिस्सा जानवरों के
लिए कसाई घर बना हुआ है। वे जंगल के कर्मचारियों और जमींदारों के अमलों के
हाथों में बने बनाए
यन्त्र
हैं,
जिनके रुपए की प्यास गरीब किसानों के लिये शान्त करना
कठिन है। सिंहभूमि के सहित छोटा नागपुर जहाँ तक अबरक,
कोयला, लोहा आदि से
सम्बन्ध
है,
भारत का सबसे समृद्ध
हिस्सा है। इसकी लकड़ियाँ और पत्थर भी बड़े मूल्यवान हैं। फिर भी यहाँ के
निवासी और ज्यादातर आदिवासी सबसे गरीब हैं। वे प्राय: नग्न रहते हैं और
आबकारी कानून ने तो उनके जीवन को और भी बदतर बना दिया है। क्योंकि शराब के
बिना वे जी नहीं सकते। और शराब बनाने का अब हक नहीं रहा तो वे खरीदेंगे।
अत: जो भी उनके पास है उससे भी वे वंचित हो जायेंगे।
और उनकी
नैतिक और मानसिक दुर्गति क्या कम है?
1931
के सेन्सस के सुपरिन्टेन्डेन्ट मि. हडसन ने लिखा है
''इनके
लिए शिक्षा तक कोई अच्छी चीज नहीं क्योंकि यह उनके रहन-सहन के अनुकूल नहीं
पड़ती।''
हडसन की राय में इनके लिए विदेशी शासन का भार ही वरदान है जो कभी नहीं हटना
चाहिये। शिक्षा और स्वाधीनता का प्रेमी एक अंग्रेज इस प्रकार सोचता है-मुझे
इससे हैरत है। तभी तो एक ओर छोटानागपुर के खनिज साधनों पर ताता और दूसरे
करोड़पति बन रहे हैं और दूसरी ओर इस समूचे भूभाग में मुश्किल से कुछ बी.ए.
और मैट्रिक पास होंगे। यह महान अन्याय है। इसका प्रायश्चित यह है कि ताता
और छोटानागपुर का शोषण करनेवाले दूसरे लोगों पर पूरा टैक्स लगे और उस रुपए
से इन पिछड़े लोगों की तरक्की हो।
(शीर्ष पर वापस)
तातावालों की हरकतें
बाहरी
दुनिया की ऑंखों में तातावाले जमशेदपुर में सिर्फ लोहे के कारखानेदार हैं
और वे आले दर्जे के पूँजीपति हैं। बहुत थोड़े लोग यह जानते हैं कि तातावाले
भी जमींदार हैं जिनकी जमशेदपुर के करीब20
गाँवों से 10-25 हजार रुपए
की आमदनी है। इनकी मुसीबतों की कोई इन्तहा नहीं है। पिछली अप्रैल में मेरे
पास उन्होंने जो मेमोरेन्डम पेश किया था-उसमें लिखा है-''हम
जमशेदपुर के आसपास के गाँवों के रहनेवाले हैं,
जो पहले दालभूम के राजा के अधीन
थे। 1019-20
में कम्पनी के लिए सरकार ने ये जमीनें ले लीं। कम्पनी
ने हम लोगों से पूर्ववत रहने का आश्वासन दिया और कहा कि हम लोगों की सेवाओं
की उसे हर तरह जरूरत पड़ेगी। इस प्रकार जमीन की दखली एक महज कागजी कार्यवाही
मात्र
रही। लेकिन
धीरे-धीरे
1906-6
की लगान दर टूटी और कड़ी मालगुजारी बांधी
गयी। चीजों की दर उस समय ऊँची थी इसलिये उस समय हम लोगों ने यह बर्दाश्त
किया।
जब कुछ
वर्ष बीत गए और कम्पनी वालों ने अपना सिलसिला जमा लिया तो अपने काम के लिये
हमें अपने घर बार से निकालने की कोशिश करने लगे।
1932
में हम लोगों पर लगान नहीं चुकाने का इल्जाम लगाकर जमीन से मुकदमा करके
हटाना चाहा परन्तु हम लोगों की विजय रही। इससे हारकर हमलोगों पर बल प्रयोग
किया गया। हमलोगों की जमीन में जबर्दस्ती घुसने के कारण चीफ टाउन
एडमिनिस्ट्रेटर,
जो
जमशेदपुर नोटिफायड एरिया कमेटी के चेयरमैन भी हैं,
कुछ साथियों के साथ अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए और हाइकोर्ट की अपील से भी
सजा बहाल रही। फिर
145
दफा ता
तॉता बंध गया पर जीत हमलोगों की ही होती रही।
हमें अपने
छप्पर छाने के लिए भी हुक्म लेने को कहा जाता है। हमें शुद्ध पानी भी नहीं
मिलता है। हम एक कुऑं भी नहीं खोद सकते हमारे लिए न सड़कें हैं,
न
रोशनी,
न
सफाई और न हमारे गाँवों में शिक्षा का ही प्रबन्ध है। चारागाह के काम आने
वाली परती जमीनें पारसाल से जोती और बन्दोबस्त की जा रही हैं। इससे हमारे
जानवरों की मौत है। और इस हालत में या तो हमें भूखों मरना पड़ेगा या इस
स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जाने को मजबूर होना पड़ेगा। हम इन कठिनाइयों और
ऊँची मालगुजारी के चलते लगान नहीं चुका पाते हैं और कम्पनी ने हमारी बहुत
जमीन नीलाम करा ली है। आज की लगान की दर सेटलमेंट के समय की दर से दस गुणा
अधिक है और मौजूदा दाल-भूमि की दर से चार गुणा अधिक है।
कम्पनी
पानी को नदी में गिराने देती है,
परन्तु उसे रैयतों को सिंचाई के काम में इस्तेमाल नहीं करने देती। हम लोगों
को गाड़ी टैक्स और मरे पशु को फेंकने का टैक्स
5/-5/
रु. देना
होता है। पहले की सिंचाई की सुविधा भी जाती रही। लगान चुकाने पर रसीद नहीं
दी जाती। बिहार सरकार के अर्थमन्त्री तथा प्रधानमन्त्री के यहाँ भी
दरखास्तें हम लोगों ने दीं,
पर
अभी तक कुछ हुआ नहीं।''
इस पर
मेरी ओर से कोई टीका-टिप्पणी अनावश्यक।
(शीर्ष पर वापस)
और मि. होमी?
वे
जमशेदपुर के मजदूरों का नेता होने का दावा करते हैं जो चुनौती से खाली नहीं
है,
परन्तु यह तो मजदूरों से
सम्बन्ध
रखती है,
चाहे वे जिसे नेता स्वीकार करें। लेकिन हमारा मतलब तो
सुवर्ण रेखा के उस पार के ग्राम माँगों, थाना
पोतामदा, मानभूमि के जमींदार,
नहीं प्रमुख मोक्करींदार होमी से है। मैंने वहाँ जो
देखा और मि. कीर्तो गौड़ प्रधान
जैसे लोगों से वहाँ के रैयातों के कष्ट का जो बयान सुना,
बहुत ही खतरनाक है। मैं और कुछ नहीं कह के अदालत के दौ
फसेलों का ही जिक्र करूँगा, जो इस प्रकार हैं-
''होमी
और उनके आदमियों के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट में दोष लगाए गए हैं कि,
उनके आदमी तथा दूसरी पार्टी के लोग रैयतों को धमकी,
मारपीट तथा गैरकानूनी ढंग से रुपए वसूल कर बहुत तरह से सताते हैं।''
ये वाक्य
हैं,
एस.के.
अहसन एस.डी.ओ. पूर्णिया के जिन्होंने मि. होमी के लिख कर वादा करने पर,
कि
अब से ऐसा नहीं करेंगे,
यह
चेतावनी देते हुए मामला स्थगित कर दिया कि होमी तथा उनके आदमी किसानों को
सताने से अपने को रोकें नहीं तो फिर मामला चलाया जायगा।
5-9-37
को श्री बी.के. गोखले,
जिला मजिस्ट्रेट,
मानभूस ने केस नं.
301 (1936)
के फैसले
में कहा था-''मेरे
सामने जो गवाही गुजरी है,
उससे देखता हूँ कि अब मि. होमी सूमचे जंगल और सभी वृक्षों को अपनी निजी
सम्पत्ति समझने लगे हैं,
जिन्हें वे अपनी इच्छा से काट सकते हैं,
और
गाँववाले जंगल के अपने परम्परागत अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाते हैं। इसी
तरह प्रधानी प्रथा के अनुसार वनचर भूमि को आबाद करने के अधिकार से भी
उन्हें वे वंचित करना चाहते हैं।...''
अन्त में
मि. होमी को उन्होंने चेतावनी दी थी कि मि. होमी इस प्रथा के खिलाफ चलने की
भावना को जितनी जल्दी त्यागें,
उतना ही उनके लिए तथा जिले की शान्ति के लिए अच्छा है।
इसके बारे
में और कुछ कहने की जरूरत नहीं।
(शीर्ष पर वापस)
क्या होना चाहिये?
जब बुद्धिमान
लोगों के ऐसे और व्यावसायिक संस्था के इस तरह के बर्ताव हैं तो जमींदारों
और उनके पिठुओं के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्छा। मानभूम के
किसानों के कष्टों का अन्त नहीं है। अत: उनकी तकलीफों का अन्त करने के लिए
जितनी जल्दी संगठित रूप से कार्रवाई शुरू की जाय उतना ही अच्छा। तब सवाल
है-क्या होना चाहिये इसका जवाब पहले ही दिया जा चुका है। हम लोगों को अनवरत
उद्योग तथा पत्रों
और मंचों के सतत प्रचार से किसानों में वर्ग-चेतना लानी होगी। उनकी
अन्तर्निहित शक्ति का ज्ञान कराना तथा उनमें आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास
जगाना होगा और उनकी तकलीफें आप से आप भूत के गर्भ में विलीन हो जायेगी।
उन्हें हम समझायें कि मानवता का देश,
जाति और
धर्मान्तर
के आधार
पर विभाग नहीं किया जा सकता हैं। दो ही विभाग हो सकते हैं,
शोबितों और शोषकों के। इसमें कोई हेरफेर नहीं हो सकता।
बंगाली और बिहारी, आदिवासी और दूसरों के सवालों
पर मामूली ढंग से आलोचना करना अनुचित है। मेरा विश्वास है कि वे अन्त में
असल पीड़ित लोगों के हित के लिए घातक सिद्ध
होंगे,
उनके शोषकों को सुरिक्षत और मजबूत बनायेंगे,
चाहे उनकी कोई भी जाति, मजहब
या
धर्मान्तर
क्यों न हो। मत भूलो कि खून चूसने वालों की जाति एक होती है। इसलिये ये
नारे
धोखा
देने वाले हैं। आदिवासियों का भविष्य मैं बहुत उज्ज्वल देखता हूँ अगर उनके
नेता ऊपर बताये गये तरीके से उनका संगठन करें। उस हालत में किसान सभा अपनी
पूरी ताकत लगाकर उनकी मदद करेगी क्योंकि वे यथार्थ में पीड़ित हैं और किसान
सभा कुछ भी नहीं,
यदि वह पीड़ितों और दलितों का प्रकट रूप से साथ नहीं
देती।
मैं उनके
नेताओं से सच्चे दिल से अपील करता हूँ,
कि
वे सोचें और मेरे तर्को में वजन देखें तो अपनी गलती सुधारें। वे विश्वास
रखें,
हम उनको
किसी तरह बाधा नहीं देने जा रहे-इन आशा से कि वे पीछे अपनी कार्य पद्धति की
गलती महसूस करेंगे,
क्योंकि कोई भी जन-आन्दोलन जब पूर्णता प्राप्त कर लेता है,
तो
उसी रास्ते पर जाता है जो ऊपर सुझाया गया है। और जैसा कि कुछ कहते हैं,
वह
जन-आन्दोलन नहीं है तब किसान सभा क्यों व्यर्थ परीशान हो और इसका विरोध
करे।
आप के लिए
संगठन के बहुत से काम पड़े हैं,
ग्राम और थाना किसान कौंसिलों को प्रारम्भिक इकाई मानकर आप देहात के
किसानों को सदस्यता के आधार पर संगठित कीजिये और उन्हीं के द्वारा रोजमर्रे
की लड़ाई शीघ्र शुरू कर दीजिये। बिना लड़ाई का तरीका अख्तियार किये आप इन
इकाइयों को मजबूत नहीं बना सकते। आप आंशिक लड़ाइयों द्वारा संगठन के इस पहलू
पर अपनी शक्ति लगाइये और निश्चय ही आप अजेय हो जाइएगा। किसानों और मजदूरों
की लड़ाई तब तक सफलतापूर्वक नहीं लड़ी जा सकती जबतक कि उनका नेतृत्व उनके
वर्ग के आदमियों के हाथ में नहीं जाता और ऐसे नेता लड़ाइयों और संघषों की
दौड़ान में पैदा होते हैं।
हमारी लड़ाई पूर्ण शान्त हो
लड़ाई
के हमारे तरीके और योजनाएँ एकदम शान्तिपूर्ण हों। हमें उनका कड़ाई से अनुगमन
करना होगा। मैं अहिंसा की गाँधी-प्रणाली
में विश्वास नहीं करता,
यह मैं साफ कह दूँ। मैं तो समझता हूँ कि यह प्रणाली देश
की अपनी पूर्ण स्वाधीनता
की मंजिल की ओर बढ़ने से रोक रही है।
20
साल तक कड़ाई से देश गाँधी
ऐसे कड़े शिक्षक के हाथ से अहिंसा का पाठ पढ़ता रहा। उसे आज अहिंसा के
दृष्टिकोण से गाँधी
जी बीस बरस पीछे ले जा रहे हैं,
हवा में हिंसा की उन्हें
गंध
लगती है। तब...(अपूर्ण) (जनता,
20 तथा 27 जुलाई
1939)
***
दिल्ली विद्यार्थी सम्मेलन
के अवसर पर
'मेरी
आशा नवजवानों,
खासकर विद्यार्थियों में है,
क्योंकि उनको राजनीति,
अर्थशास्त्र तथा इनसे सम्बन्धित विषयों पर अध्ययन और मनन करने की सुविधा
है। नाजुक परिस्थिति में उन्हें साहस और दूरदर्शिता से काम करना चाहिये,
जिससे वे अपने को सही माने में राष्ट्र का अगुआ साबित कर सकें। जब कि दूसरे
ढुलमुल यकीन हैं,
निराशा और विचलित हैं,
विद्यार्थियों को परिस्थिति के योद्धा की तरह दूरदर्शिता के साथ कदम आगे
बढ़ाते जाना चाहिये। सोवियत रूस और चीन से उन्हें प्रेरणा प्राप्त करनी
चाहिये। अपनी इस प्ररेणा का प्रसार वे देश के एक कोने से दूसरे कोने तक
करें। यदि उन्होंने ऐसा किया,
और
हमें उम्मीद है कि वे करेंगे,
तो
हम अवश्य ही अपने उद्धार का दिन देखेंगे-युग-युग की गुलामी और शोषण का
खात्मा हो जायेगा।
स्वामी सहजानन्द सरस्वती
(सन्
1942
की 15-16
मई को दिल्ली-विद्यार्थी-सम्मेलन के अवसर पर सभापति-पद से)
(शीर्ष पर वापस)
हमारा
ध्रुवतारा
धर्मान्तर
और मजहब के नाम पर;
स्वर्ग, बिहिश्त और बैकुण्ठ
के नाम पर; मुक्ति नजात और साल्वेशन के नाम पर
प्राय: लड़ाइयाँ होती रहती हैं और मन्दिर-मस्जिद एवं गोकुशी नमाज की लड़ाई भी
इन्हीं लड़ाइयों के अन्तर्गत है। इतना ही नहीं कि ये लड़ाइयाँ होती हैं,
किन्तु कभी-कभी इनका रूप इतना भीषण हो जाता है कि दिल
दहल जाता है और जिन
धार्मिक
सिद्धान्तों
की रक्षा के लिए ये आवश्यक बताई जाती हैं उन्हीं की प्रत्यक्ष हत्या इन्हीं
के द्वारा होती देख भी हमारी ऑंखें नहीं खुलती हैं। गोरक्षा और मस्जिद के
नाम पर आदमियों का कत्ल होता है और हम इस बेवकूफी से इसीलिये खुश होते हैं
कि हमने
धर्मान्तर
मजहब को बचा लिया,
या कम से कम उसे बचाने की कोशिश करके अपने
पवित्रर्
कर्तव्य
का पालन तो कर ही दिया! यह कैसा
पवित्रर्
कर्तव्य
है जिसके करते आदमी की जान को लेने के लिए आदमी ही उतारू है! आखिर ये
धर्मान्तर
और मजहब मनुष्यों के लिये बनाये गये हैं न कि मनुष्य ही उनके लिये है। कहते
हैं कि
धर्मान्तर,
मजहब आत्मा की खुराक है। आत्मा या रूह की भूख को शान्त
करने के लिये उसकी खोज हुई है, उसका आविष्कार
हुआ है। यह किसी को भी कहते नहीं सुना कि
धर्मान्तर
के लिये,
मजहब के लिये आत्मा का पता लगाया गया है। उसकी खोज हुई
है। ऐसी हालत में वह
धर्मान्तर
ही कैसा जिसके करते मनुष्य की,
आत्मा की, रूह की हत्या हो।
आखिर मनुष्य ही के लिये तो वह है, ठीक उसी तरह
जिस तरह देवी के लिये बकरा या आदमी के लिये भोजन। यह भी बात है कि मनुष्य
की ही आत्मा या रूह इस
धर्मान्तर
से लाभ उठा सकती है,
न कि पशु-पक्षियों की भी। ऐसी हालत में
धर्मान्तर
की वेदी पर मनुष्य क्यों बलिदान होता है,
कत्ल होता है, समझ में नहीं
आता! बकरे के लिये देवी तो बलिदान होती कभी देखी नहीं गयी। क्या गौ,
मन्दिर, मस्जिद,
गुरुद्वारा और गिर्जे वगैर : आदमी से बड़े हैं कि उनके
लिये मनुष्य तबाह और बर्बाद किया जाय? मनुष्यों
को खत्म करके यह सब कहाँ किसके लिये ठहरेंगे? तो
क्या किसी ने इस बात का ठेका लिया है कि केवल एक ही रास्ता स्वर्ग,
बैकुण्ठ, बिहिश्त में
पहुँचने या भगवान् से मिलने का है? क्या भगवान्
या खुदा कहीं जेल में कैद या नजरबन्द है कि उसके पास जाने का एक ही मार्ग,
दरवाजा है और उसके लिये किसी खास आदमी की आज्ञा लेनी
पड़ती है? एक ओर तो गीता के शब्दों में 'स्वधर्मे
निधानं श्रेय: परधर्मो भयावह:' (335) स्वे स्वे
कर्मण्यभिरत: संसिध्दिं लभते नर:' (18/45) की
पुकार हमारे धर्मोपदेशक मचाते हैं और कहते हैं कि अपने अपने
धर्मान्तर
का ही पालन करने से कल्याण होता है,
दूसरे
धर्मान्तर
की ओर लपकने या दूसरे को अपनी ओर बलात् घसीटते से नहीं और दूसरी ओर
धर्मान्तर
के लिये खतरे की घण्टी भी बजाते हैं!
धर्मान्तर
पर खतरा कैसा?
और यदि एक
धर्मान्तर
पर खतरा होने से वह बन्द भी हो जाय तो दूसरे ही रास्ते से खुदा के पास
पहुँचेंगे,
इसमें हर्ज ही क्या? इसमें
धर्मान्तरचार्यों
को घबराहट क्यों?
और अगर कोई उनके रास्ते से न जाय तो अपनी हानि करेगा
नकि उनकी, फिर उन्हें क्यों बेचैनी है?
वे लोगों को भेड़ों की तरह मूँड़ने को क्यों बेहाल हैं?
केवल
धर्मान्तरचार्य
ही नहीं,
बड़े मालदार और दिमागदार तो और भी परेशान हैं वे लोग,
जो
धर्मान्तर
से वस्तुत: सदा दूर ही रहते हैं,
सबसे ज्यादा चिन्तित रहा करते हैं,
उसी
धर्मान्तर
के लिये,
जो हिन्दू मसुलमान अपने भीतर सैकड़ों सम्प्रदायों को
हजमकर उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह खुदा और परलोक की ठीकेदारी सचमुच
सीधे-सादे
आदमी के लिये एक पहेली है!
लेकिन असल
बात यह है कि संसार में रोटी,
पैसा,
कपड़ा,
मकान,
जमीन,
इज्जत यही असली और ठोस चीजें हैं,
इन्हीं के लिये हम सब कुछ करने को तैयार रहते हैं,
सब
कुछ कर डालते हैं। आखिर आजकल के न्यायालयों में क्या होता है?
यही न,
कि
रुपए पैसे आदि के लिए लोग रोज गंगा तुलसी,
कुरान-पुरान की झूठी कसमें खाते और धर्मान्तर को तिल तिल करके बेमुरव्वती
से जबह करते हैं?
रोजगार व्यापार में भी आज क्या होता है?
पैसे के लिये केवल रात-दिन जूआ-चोरी के सिवाय व्यापार और है ही क्या?
राजनीति क्या है?
जाल,
फरेब,
धोखा और झूठ के सिवाय और कुछ नहीं! आज धर्मान्तर क्या है?
श्राद्ध,
विवाह,
तीर्थ,
गंगा,
यज्ञ के
नाम पर सीधे लोगों को ठगना और उनसे पैसे ऐंठना। कौन नहीं जानता कि तीर्थों
के पण्डे और पुरोहित अधिकांश दुराचारी एवं मूर्ख होते हैं?
वे
कहाँ जाकर वेद और कुरान का पाठ करने आये हैं?
फिर भी हजारों रुपये उन्हें समर्पित होते ही रहते हैं और उन्हें ही पूड़ी
मलाई चभाई जाती है। वे पैसे केवल कुकर्म में व्यय होते हैं,
यह
सभी को मालूम है! यजमान के पास खाने को नहीं,
फिर भी उसी के पैसे से पण्डे पुरोहित जमींदारी खरीद के जुल्म करते और मौज
मारते हैं। व्यापार करके जूआचोरी को प्रश्रय देते हैं। क्या हम नहीं जानते
कि जब तक पैसे की हंड़िया खूब ठोंक बजाकर ली जाती है,
तो
फिर धर्मान्तर के नाम पर हजारों और लाखों रुपए का सौदा ऑंख मूँदकर क्यों
होना चाहिये?
फिर भी ऑंख मूँदते ही हैं और धर्मान्तर के नाम पर अक्ल और दलील,
तर्क और युक्ति को ताक पर रख देते हैं। जितनी निर्दयता धर्मान्तर के नाम
पर होती है उतनी और कहीं भी नहीं। गोकुशी और कुर्बानी के नाम पर हजारों जान
लेने में हम जरा भी नहीं हिचकते! एक एक दिन तक के भी बकरों और सूअरों के
बच्चे देवी-देवताओं के नाम पर कत्ल कर दिए जाते हैं,
हालाँकि छोटे बच्चों को देखकर भेड़िया वगैरह जंगली हिंस्र जन्तु भी हिंसा
छोड़ते और उनका पालन करते हैं,
ऐसा देखा गया है। ईसाई धर्मान्तर के नाम पर ही तो सैकड़ों वर्षों तक लगातार
युद्ध होते रहे और समय-समय पर लाखों आदमी जिन्दा जला दिए गए! जेरुसलम के
मन्दिर की कुर्सी तक खून से भर गयी ऐसा कहा जाता है,
हालाँकि दया और नम्रता ईसाई धर्मान्तर का सार बताया जाता है। असल में
धर्मान्तर के नाम पर नृशंसता और मारकाट चलाने में भी कुछ लोगों की रोटी,
पैसे और प्रतिष्ठा का सवाल है। आखिर धर्मान्तरचार्य लोगों के ही हुक्म से
तो ऐसा होता है और इस प्रकार करोड़ों लोगों पर उनकी धाक जमी रहती है जिसके
फलस्वरूप सदा गुलछर्रे उड़ते रहते हैं। नहीं तो भला मूर्ख पुजारियों,
पुरोहितों और मौलवियों को,
कौन पूछता?
उनके बच्चे क्यों कर मौज उड़ाते?
धर्मान्तर के नाम पर ऑंख मूँदकर काम करना भी उन्होंने इसीलिए सिखाया है कि
निरक्षर और मूर्ख भी धर्मान्तरधिकारी हमेशा शान से हुकूमत करता रहे और
उसके विरुद्ध कोई चूँ न करे। धर्मान्तर के नाम पर तर्क करने पर उसकी
टिक्की एक न एक दिन उखड़ जायेगी और सब मजा किरकिरा हो जायगा। जहाँ मन्वादि
ने स्पष्ट ही कहा है कि धर्मान्तर तो तर्क के सहारे ही जाना जाता है,
'यस्तर्केणानुसन्धात्तो
स धर्मं वेद नेतर:'
(मनु
12/106)
तहाँ उसी धर्मान्तर के नाम पर बुद्धि और तर्क की यह भीषण हत्या! लेकिन
करें क्या?
बिना इस हत्या के,
इस
कत्ल के धार्मिक संसार में कुछ लोगों की पाँचों उँगलियाँ सदा ही घी में
रहने न पातीं और वे दाने दाने के लिये तरसते रहते! इसीलिये हजार भक्ति,
प्रेम,
पूजा,
अराधना
करने पर भी बिना दक्षिणा और
'सुफल'
कराये कुछ नहीं होता और पण्डे पुजारी मुँह बिचका देते हैं,
'सराप'
दे
देते हैं तथा यजमान घबराकर क्षमा करवाता है। आखिर कहने के ही लिये
धर्मान्तर हृदय,
आत्मा की चीज है,
प्रेम,
भक्ति की चीज है;
लेकिन है वह असल में रुपये,
पैसे और हलवा पूड़ी की ही चीज,
वह
इन्हीं के द्वारा हासिल होता है। चाहे जनता समझे न समझे,
लेकिन धर्मान्तरधिकारी लोग तो इसे खूब ही समझते हैं और समझते हैं,
उन्हीं के साथ मालदार,
जमींदार और पूँजीवाले,
जो
दिन-रात इन्हीं धर्मान्तरधिकारियों की वकालत किया करते है! क्योंकि आखिर
धनियों और मालदारों को भी तो इन्हीं धर्मान्तरधिकारी पण्डे पुरोहितों की
पूँछ पकड़ के पार होना है! कारण,
ये
धर्मान्तर के ठेकेदार जन-साधारण को जो भी व्यवस्था और फतवा मालदारों के
सम्बन्ध में दे देंगे उसे ऑंख बन्दकर मानना ही होगा। धर्मान्तर के नाम पर
दलील न करने देने का एक यह भी तो मतलब है कि धर्मान्तरचार्यों के दोस्त
मालदारों की भी रक्षा हो,
उनका भी बेड़ा पार हो!
इस प्रकार
स्पष्ट है कि मालदार और धर्मान्तरधिकारी जिनकी संख्या बहुत ही थोड़ी है वह
तो असलियत को खूब समझते हैं और धर्मान्तर तथा परलोक के नाम पर अपनी रोटी
और दौलत,
अपनी जमीन,
अपनी प्रतिष्ठा आदि को बरकरार रखते हैं। बराबर उनकी नजर इन्हीं चीजों की ओर
रहती है,
यही चीजें उनका ध्रुवतारा हैं जिससे वे अपने दिग्भ्रम को मिटाते हैं यदि
कभी उसकी सम्भावना हो। धर्मान्तर के नाम पर जनसाधारण को जो आपस में लड़ाया
जाता है वह भी इन्हीं मालदारों के इशारे पर धर्मान्तरधिकारी किया करते
हैं। क्योंकि जब तक जनसाधारण जिनकी संख्या प्रतिशत
90
से ज्यादा
है,
लड़ते
रहेंगे तभी तक पंडे-पुजारी और इनके मित्र मालदार लोग निश्चितन्त,
सुरिक्षत रहेंगे। लेकिन ज्योंही जनता आपसी कलह को भूली कि इनकी खैर नहीं।
क्योकि शक्ति के सामने तब ये टिक न सकेंगे। यही कारण है कि ये मालदार और
उसके वकील धर्मान्तरधिकारी,
जहाँ अपने ध्रुवतारा को ठीक रखते हैं,
उसे भूलते नहीं,
तहाँ जनता के असली ध्रुवतारा रोटी,
वस्त्रा,
पैसा,
मकान और
इज्जत को भुलवा कर धर्मान्तर का नकली ध्रुवतारा उसके सामने रखने की बराबर
कोशिश करते रहते हैं और आज तक वे इसमें बखूबी सफल भी हुए हैं। उनका यह जादू
जब तक चलता रहेगा और जनता जब तक अपने ध्रुववतारे को-असली ध्रुववतारे को-न
पहचानेगी तब तक उसकी गरीबी,
उसकी दीनता,
उसकी पराधीनता कभी दूर न होगी। अतएव जनता को केवल यही शिक्षा देने की जरूरत
है कि जैसे धनी धर्मान्तरचार्य रोटी,
वस्त्रा,
पैसे आदि को नहीं भूलते,
उसके लिये सब कुछ करने को तैयार रहते हैं,
ठीक उसी तरह जनता को भी-किसानों मजदूरों को भी करना होगा,
करना चाहिये। तभी निस्तार होगा। जब भूखा आदमी भगवान् को न चाह कर रोटी
चाहता है,
रोगी मुक्ति (भगवान) को न माँग कर औषधि के लिये चिल्लाता है,
नंगा आदमी कपड़े की इच्छा रखता है न कि नंगा होकर मन्दिर,
मस्जिद में जाने को तैयार हो सकता है,
तो
स्पष्ट ही है कि रोटी,
वस्त्रा तथा दवा धर्मान्तर और भगवान् से भी बढ़कर हैं। इनके बिना भगवान् और
धर्मान्तर भी भूल जाते हैं। फलत: सबसे पहले यही जरूरी है कि सभी कमाने
वाले जिनकी संख्या प्रतिशत
90
से ज्यादा
है,
एक साथ मिल कर इन चीजों को हासिल कर लें। आखिर यह तो देखा ही जाता है कि
रोटी,
कपड़े के
लिये आदमी चोरी डकैती तक भी कर डालता है। लेकिन यह कभी भी देखा सुना नहीं
गया कि मुक्ति और भगवान् की प्राप्ति के लिए भी किसी ने चोरी डकैती की हो।
इसी से रोटी कपड़े का प्रश्न धर्मान्तर के प्रश्न के ऊपर आ जाता है। अत:
उसे ही चोरी डकैती की हो। इसी से रोटी कपड़े का प्रश्न धर्मान्तर के प्रश्न
के ऊपर आ जाता है। अत: उसे ही पहले हल कर लेना चाहिये। रोटी के प्रश्न में
एक खूबी यह भी है कि उसमें किसी भी धर्मान्तर,
सम्प्रदाय या जाति-पांति का भेद नहीं है। यह तो सभी धर्मान्तर और जाति
वालों को समान रूप से ही चाहिये। फलत: इसके हल करने में कोई दिक्कत नहीं
यदि हम इतनी सी मोटी बात समझ जायँ कि यही रोटी,
वस्त्रा हमारा-सारे संसार का-ध्रुवतारा है और जैसे ध्रुववतारे को जाने बिना
अगम समुद्र में नाविक को दिग्भ्रम हो जाता है और वह उसकी लहरों में तबाह
बर्बाद होता रहता है। ठीक वही हालत हमारी हो रही है। हमीं गेहूँ,
बासमती,
घी,
मलाई सभी कुछ पैदा करके भी उसका दर्शन तक केवल इसीलिये नहीं कर पाते कि
हमारा ध्रुवतारा भूल गया है और हम धर्मान्तर की भूलभुलैया में डाल दिये
गये हैं। उस भूलभुलैया से बाहर निकलना ही होगा। धर्मान्तर और परलोक तो
ख्याली चीज हैं। कारण है यही कि इसके नाम पर हम आसानी से फूसलाये और भुलाये
जा सकते हैं। यदि वह कोई ठोस चीज होती तो यह बात नहीं होती। क्योंकि तब तो
किसी के भी यह कहने पर कि
''धर्मान्तर
डूबा,
खतरे में
है'',
हम चट पूछ
बैठते कि कहाँ डूबा?
वह
तो देखो,
वह
ज्यों का त्यों है। यही तो मालदारों की दूरदर्शिता है कि हम उनकी चाल पकड़ न
सकें। लेकिन रोटी,
वस्त्रा आदि तो ठोस चीजें हैं और जिन कामों के करने से उन पर खतरा हो
उन्हें हम आसानी से समझ सकते हैं और इस प्रकार अपनेर् कर्तव्य-पथ का
निश्चय कर सकते हैं। हमें अन्ततोगत्वा यही करना होगा और अपना असली
ध्रुवतारा पहचानना होगा। हमारे निस्तार का दूसरा उपाय नहीं।
(संपादक-
प्रथम बार यह लेख 1936
ई. में भूमिहार ब्राह्मण पत्रिकाम कलकत्ता से छपा
था।)
(शीर्ष पर वापस)
एक सुनहली प्रतिक्रिया
काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी में हिन्दी विभाग के
रीडर डॉक्टर अवधोश प्रधान
का स्वामी सहजानन्द सरस्वती से
सम्बन्धित
एक लेख 'सन्दर्श'
में प्रकाशित हुआ था उस लेख को पढ़कर वयोवृद्ध
तपस्वी साहित्यकार डॉ. शिवकुमार मिश्र ने अपनी प्रतिक्रिया सम्पादक
'सन्दर्श'
को लिखी थी। वही प्रतिक्रिया यहाँ प्रकाशित की जा रही
है।
डॉ. मिश्र
एक प्रसिद्ध वामपंथी साहित्यकार समीक्षक हैं। सागर विश्वविद्यालय सागर में
आप आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी के सहयोगी रह चुके हैं।
'सन्दर्श'
में
बहावी आन्दोलन पर मेरे लेख के प्रकाशन और खास कर आप की व सलिल जी की
टिप्पणियों के लिए आपको
धन्यवाद
देता हूँ। 'सन्दर्श'
के इस अंक ने स्वामी सहजानन्द की स्मृतियों को जगा
दिया। जी चाहता है कि उनके
सम्बन्ध
में मैं आपको अपना एक संस्मरण दे ही दूँ-
हमने सन्
11939
में उन्हें कानपुर जिले के अरौल गाँव में चले वालण्टियर कैम्प में
आमन्त्रित किया वहाँ वे आये थे। उन्होंने किसान आन्दोलन पर क्लास लिया था।
उस क्लास में उन्होंने एक वाक्य कहा था जो प्राय: हूबहू मुझे याद है,
उसे मैं बहुत-सी सभाओं में दुहराता रहा था। किसान आन्दोलन के लक्ष्य की
सरलतम अभिव्यक्ति भी वह। उन्होंने कहा था : अगर भगवान् मुझसे पूछेगा कि
स्वग्र चलोगे,
तो
मैं उससे पूछूँगा-तुम्हारे स्वर्ग में जमींदार तो नहीं हैं,
ये
तालुकेदार तो नहीं हैं जो जनता का खून चूसते हैं,
ये
पटवारी,
कानूनगो तो नहीं हैं जो किसानों को खून के ऑंसू रुलाते हैं,
ये
पुलिस वाले,
ये
थाने,
ये
अदालतें तो नहीं हैं जो अत्याचार पर अत्याचार ढाए चले जाते हैं,
ये
पंडे और पुजारी तो नहीं हैं जो जनता को जहर की घुटी मिलाकर उसे तबाह किए
हैं। अगर भगवान् कहेगा-ये सब हैं,
तो
मैं उससे कह दूँगा,
मैं स्वर्ग में नहीं रहूँगा। तब मैं नर्क में रहना पसन्द करूँगा। वहाँ मैं
संघर्ष तो कर सकूँगा।
कितनी
सुन्दर और सरलतम अभिव्यक्ति थी! उनका नारा
'किसान
भगवान् की जय'
उत्तर प्रदेश में भी गूँजा था। उन्नाव में भी हम उसे खूब लगाते थे। यह नारी
बड़ा प्रभावशाली सिद्ध हुआ था। इस नारे ने जाति-पाँत के निभेदों और बन्धनों
को तोड़कर किसानों को एक सूत्र में पिरोने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की
थी।
(शीर्ष पर वापस) |