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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

7.ऑल इंडिया किसान सभा आठवाँ अधिवेशन ( 14-15 मार्च, बेजवाड़ा, आन्ध्रप्रदेश)

मुख्य सूची खंड-1 खंड-2 खंड-3 खंड-4 खंड-5 खंड-6

1 नग्नचित्र
2 क्रान्ति और हम
3 किसान सभा का संगठन
4 आर्थिक मसले
5 राजनीतिक परिस्थिति

6 पाकिस्तान और हिन्दुस्तान
7 पाकिस्तान और आत्मनिर्णय
8 कांग्रेस और किसान-सभा
9 किसान कौन हैं?
10 धर्म और ईश्वर

 

1 नग्नचित्र

साथियो,

आज मैं भारत के उन करोड़ों नर-नारियों-किसानों-के प्रति श्रध्दा-भक्ति प्रकट करने के लिए यहाँ खड़ा हूँ जिन्होंने अपने नि:स्वार्थ त्याग से-उन्हीं के लिए त्याग जिन्होंने उनका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तरीक़े पर शोषण किया है और करे रहे हैं और उनका सारा खून चूस चुके हैं-मुझे और मेरे जैसे हजारों को अपना पुजारी बना लिया है। किसान न सिर्फ मानव-व्यवहार की उन्हीं आवश्यक वस्तुओं के उपजाने वाले हैं जिनके अभाव में जीवन नष्ट हो जाता है, दिमाग़ काम नहीं करता और कोई भी अंग-प्रत्यंग हिल नहीं सकता, बल्कि आधारभूत कच्चे माल को भी, जो तैयार माल के रूप में बदल करे जीवन-यापन को आसान और सुखद बना देते हैं( जिनके चलते हमारे विचार विस्तृत और परिष्कृत होते हैं, प्रगतिशील बनते हैं, और जिनने दुनिया को भूत और वर्तमान रूप दिया है। अपने पुत्र-पुत्रियों के द्वारा वे फैक्टरियों और खानों को चालू रखते, ऑफिस चलाते, और वर्तमान शासन व्यवस्था की रक्षा के लिए-इसके दुश्मनों को डराकरे और ज़रूरत पड़ने पर हराकरे भी-उन्हीं पुत्रा-पुत्रियों को फौजी गोलों का शिकार बनाते हैं। ये वही हैं जो अपने खून को पसीना करे शासन व्यवस्था के कामों और उन्हीं के आराम के लिए, जो उन्हें अत्यन्त निर्दयतापूर्वक पैरों तले रौंदते हैं, राजमहल, किले और गृह-निर्माण करते हैं। अपार धानराशि और साधानों के होते हुए भी यदि आज किसान उन बाबुओं से असहयोग करे लें, उन्हें चावल, गेहूँ, चना, तरकारी, दूध और उससे बने सामान देना बन्द करे दें, तो वे एक भी प्रथम क्यों द्वितीय श्रेणी के ही, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री अथवा शासक, जिनका उन्हें गर्व है, पैदा करे नहीं सकते।

उपर्युक्त बातों से मोटी अक्लवालों के लिए भी यह साफ है कि सिर्फ एक ही श्रेणी के लोग-किसान ही-हैं जिनके अनन्त स्वार्थ-त्याग से ही यह दुनिया टिकी हुई है। सचमुच यह बड़े ही दु:ख की बात है कि जबकि वे किसान अपने वार्षिक घरेलू बजट में दूसरे सबों के लिए पूरी ताकीद और गुंजाइश रखते हैं-देवी और देवता, साधु और फ़कीर, भिखमंगे और नेता, पुलिस और मजिस्ट्रेट, शासक और शोषक, उपदेशक और गुरु और यहाँ तक कि मृतात्माओं के लिए भी-कोई किंचित मात्र भी उनके लिए परवाह नहीं करता और न उनके सम्बन्ध में कुछ क्षण सोचने-विचारने का कष्ट ही उठाता है। नहीं तो, यह पूरा-का-पूरा किसान वर्ग क्यों अधापेट खाकरे अधानंगा रहता है? वे दूसरों को खाना, पहनना देते हैं। तो क्या यह दूसरों के लिए न्याय और उचित है कि उनके लिए कुछ न करें? क्या किसानों का जो ऋण उन पर लदा है, उसे वे नहीं चुका सकते अथवा उन्हें नहीं चुकाना चाहिए इस विषय में क्या वे सचमुच ही असमर्थ है? जबकि जमींदार और पैसे वालों के कुत्तो, बिल्ली चूहे, शेर आदि किसानों की गाढ़ी कमाई पर गुलछर्रे उड़ाते हैं, क्या किसान इन जानवरों के व्यवहार में आने वाले अच्छे खान-पान और वस्त्र का एक भाग भी पाने के हक़दार नहीं? क्या वे जमींदारों, राजाओं, महाराजाओं और अफसरों द्वारा प्यार-भरी बातें सुनने के भी अधिकारी नहीं? क्या किसान जानवरों से भी कम उपयोगी और गये-गुजरे हैं? धानिकों के कुत्तो पहले दर्जे में सफ़र करते हैं और सोने के प्याले में दूध पीते हैं! किन्तु किसानों, उनके बच्चे-बच्चियों को तीसरे दर्जे में भी सफ़र करने का साधन नहीं! उन्हें रोटी के टुकड़ों के भी लाले पड़े हैं! जबकि जमींदारों के कुत्तो अच्छी-से-अच्छी मोटर गाड़ी में उनकी गोद में बैठते हैं, किसान उन तक फटक भी नहीं सकते! उन्हें बैलगाड़ी तक नसीब नहीं! यह बात किसी की बुध्दि में नहीं ऍंटती और इससे दिल के टुकड़े हो जाते हैं। इसे लोग दुर्भाग्य कहते हैं। किन्तु यह एकमात्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अन्धेरखाता है।

चाहे जैसे हो, इसे तो बन्द करना ही होगा और यह जितना शीघ्र बन्द हो जाये उतना ही अच्छा और जब तक हम लोग, जो जन-सेवा के ठेकेदार होने का दम भरते हैं, बिना किसी हिचकिचाहट के इसकी पूरी कीमत चुकाने को तैयार न होंगे, इस अव्यवस्था, अन्धेरखाता तथा समूचे गोलमाल के अन्त होने की कोई आशा नहीं। इसी उद्देश्य की सिध्दि के लिए हमें ऐसे स्वार्थहीन किसान सेवकों की जरूरत है जो अपने जीवन को किसानों की सेवा में उत्सर्ग किये हुए हों, गाँवों में धुनी रमाने के लिए व्याकुल हों और बिना किसी पारितोषिक के लोभ के अपनी सारी शक्ति, चातुरी और अक्ल इस महान कार्य में लगा देने वाले हों। सारांश हम हजारों किसान पुजारी चाहते हैं।

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2 क्रान्ति और हम

हमारे मौलिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सारी दुनिया की व्यवस्था को बदल देना पड़ेगा और इसे बिलकुल नया ही बनाना होगा। यदि क्रान्ति को सफल होना है तो छोटे-मोटे परिवर्तनों से काम नहीं चलने का और समाज तथा देश के इस बाहरी परिवर्तन के पहले हृदय परिवर्तन, स्वभाव-परिवर्तन और पूरे दृष्टिकोण का परिवर्तन आवश्यक है। इन्हीं परिवर्तनों से बाहरी परिवर्तन होता है-अन्त:क्रान्ति द्वारा ही बाह्य क्रान्ति होती है-शारीरिक क्रान्ति का ही प्रभाव है-और यही सबसे मुश्किल काम है। सदियों से प्रचलित आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के सम्बन्ध की भावनायें कठिनाई से दूर होती हैं, खासकरे दकियानूस भावनायें। अत: जब तक जनता मर- मिटने के लिए अधीर नहीं हो जाती और प्रचलित व्यवस्थाओं को एक क्षण भी बर्दाश्त नहीं करने को तैयार नहीं हो जाती, जब तक आगे बढ़ने और पूरे सामाजिक ढाँचे को तोड़-फोड़ देने के लिए सामूहिक रूप से जनता की वास्तविक प्रबल इच्छा नहीं हो जाती, शोषितों के लिए कोई आशा नहीं और उस इच्छाशक्ति को लाना और दृढ़ करना सचमुच अत्यन्त ही कठिन काम है। जोंक के जैसे चूसने वाले लोग और वर्ग और उनसे पिट्ठू निसन्देह अपने अधिकार और सुविधाओं को देश के कानून और रिवाज के ऊपर आधारित बतलाते हैं। किन्तु ये कानून स्वेच्छाचारी अथवा कुछ चालाक लोगों की इच्छामात्र और अन्ततोगत्वा जनता की इच्छा मात्र नहीं तो और हैं क्या? अत: यदि जनता चाहे तो वे पूरे के पूरे क्षण-भर में बदले जा सकते हैं। उनके मानने वाली जनता के सहयोग और इच्छा के सिवा उनकी कोई वकअत नहीं। उस इच्छा को हटा लो और वे खत्म! सचमुच कभी-कभी यह इच्छा बहुधा मतलबियों, स्वार्थी व्यक्तियों, थोड़े-से चालाक लोगों और स्वेच्छाचारियों के हाथों अपना मतलब साधाने के अनुकूल बना ली जाती है। और एक क्रान्ति की पूर्ण सफलता के लिए इस प्रकार की हरकत को होने देने का मौका नहीं देना चाहिए। यह दूसरा कठिन कार्य है। कहा जाता है कि लोगों को समझा देना बहुत आसान है, किन्तु उनकी शिथिलता दूर करना अत्यन्त ही कठिन। यही कारण है कि अत्यन्त ही विश्वासी किसान कार्यकर्ताओं की जमआत की नितान्त आवश्यकता है-ऐसे किसान सेवकों की जमआत जिनकी भक्ति किसान समस्याओं और किसान सभा तक ही सीमित हो, अर्थात् जो किसानों के पुजारी हों।

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3 किसान सभा का संगठन

इस प्रकार हम किसान सभा के संगठन की ओर आते हैं। जितनी भी संस्थाएँ हैं उसमें किसान सभा ही ऐसी संस्था है जिसका देहातों में रहने वाले अत्यन्त पिछड़े 80 प्रतिशत लोगों की सेवा और प्रतिनिधित्व का दावा सही है। अत: किसान सभा ही जन-समुदाय की सर्वोत्तम संस्था है।

किसान राजनीति बहुत ही कम जानते हैं। किन्तु अपनी, आर्थिक समस्याओं और रोजमर्रा की शिकायतों को बखूबी समझते हैं। वे साधारणत: सामूहिक रूप से लड़ने के ज्ञान एवं अपने अधिकारों के संगठित दावे से सर्वथा शून्य होते हैं। अत: अपने आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उन्हें इन बातों की पूर्ण शिक्षा देनी होगी और कुशल बनाना होगा।

कोरी और दुरूह राजनीति किसानों के हक में सदा खतरनाक और ठगने वाली साबित हुई है। अत: उन्हें अपनी छोटी-मोटी माँगों के लिए रोजमर्रा की लड़ाई के द्वारा उन्हें सुलझाने के जरिये ही ठोस राजनीति सीखनी चाहिए। इसीलिए ही तो किसान सभा राजनीति की अर्थनीति के जरिये देखती है और उसे ऐसा ही देखना भी चाहिए। अत: यह अर्थनीति प्रधान राजनीतिक संस्था है, जबकि दूसरे संस्थायें राजनीति के द्वारा अर्थनीति को देखने वाली हैं, अथवा जो सिर्फ अपने आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही लड़ती हैं। अत: वे राजनीति प्रधान अर्थनीतिक संस्थायें हैं, अथवा सिर्फ राजनीतिक या अर्थनीतिक। जबकि किसान सभा के लिए अर्थनीति साध्य या लक्ष्य है तथा राजनीति साधन या उपाय, अन्य संस्थाओं के लिए ठीक इसके विपरीत की बातें हैं अथवा वे अर्थनीति की सीमा के बाहर नहीं जातीं। किसान सभा के लिए राजनीति को जाँचने की कसौटी सिर्फ यह बात है कि वह उत्पादन करने वाली जनता की दाल-रोटी की समस्या को किस हद तक ठिकाने के साथ हल करती हैं( जबकि दूसरे संस्थायें अर्थनीति को, उनकी राजनीति में वह जहाँ तक मदद पहुँचाती है वहीं तक, ठीक मानती हैं, अथवा चाहती है कि अर्थनीति अपने ही तक सीमित रहे। इस हालत में यह बहुत कठिन ही नहीं, बिलकुल असम्भव हो जाता है कि दोनों दृष्टिकोणों को किसी एक ही ऐसे व्यक्ति में सामंजस्य किया जाय जो किसान सभा का तथा ऊपर कहे गये किसान सभा के कार्यकर्ताओं की फौज का आदमी है। ऐसे व्यक्ति, जो दूसरी संस्थाओं से सम्बन्धित हैं, किसानों एवं किसान सभा के निहायती एवं शुभेच्छु हो सकते हैं और इस कारण उनकी हरेक सहायता का हम स्वागत करते हैं। किन्तु मेरी विनम्र राय में-और मुझे डर है कि मेरी इस राय के लोग और तरह से समझ सकते हैं-वे सभा की कार्यकारिणी के सदस्य नहीं हो सकते। वे किसानों और किसान सभा के साथ रह सकते हैं, किन्तु वे किसानों के अथवा सभा के आदमी नहीं हो सकते। मुझे डर है, क्योंकि ऊपर बतलायी गयी स्थिति का हमने विश्लेषण करने की अब तक काफी कोशिश नहीं की है, सभा आज तक व्यक्ति-विशेष तथा संस्थाओं के कार्यक्रम एवं इच्छापूर्ति का एक साधन-मात्र रह गयी है अथवा दूसरे शब्दों में यों कहें कि इसे दूसरी संस्थाओं का पुछल्ला बनने दिया गया है और सच पूछिये तो पुछल्ला बनाया गया है। हमारे विधान में वर्णित उद्देश्यों को यदि प्राप्त करना चाहते हैं तो इस बात को बन्द करना ही होगा। अब इसे विभिन्न दलों, संस्थाओं या आदमियों का क्रीड़ा-क्षेत्र नहीं बनने देना चाहिए।

कुछ लोग यह सोचते हैं कि सभा एक मंच-मात्र है। अत: हरेक दल तथा संस्था अपने कार्यक्रम की पूर्ति के लिए अपनी ताकत-भर इसे व्यवहार करने एवं अपने तरीके और सिध्दान्त के मुताबिक इसे अपने ढाँचे में ढाल लेने के लिए स्वतन्त्र है। लेकिन लोग मुझे माफ करेंगे यदि मैं यह साफ कहूँ कि वे सभा की बनावट, उसके इतिहास और उसके विकास को नहीं जानते। सर्वप्रथम तो इसका विधान एकांगी है, संघबध्द नहीं, जिससे कि केन्द्रीय नियन्त्रण को कमजोर बना इसे एक मंच-मात्र बना दिया जाय और भी, लगातार नियमित रूप से यह अपने स्वतन्त्र राजनीतिक मार्ग और सिध्दान्त को अब तक मानती आयी है। सबके आखिर में यह अपने दोस्तों अथवा दुश्मनों के द्वारा समान रूप से एक अलग राजनीतिक संस्था के जैसे देखी गयी है और मानी भी गयी है। थोड़े में, इसी प्रकार की एक परम्परा इसके चारों ओर पैदा हो गयी है और मान लिया, किसान सभा एक मंच-मात्र है तब हमारे जैसे लोगों का क्या कर्तव्य रह जायेगा जिनकी न तो किसी दल के प्रति भक्ति है और न जो ऐसा चाहते ही हैं और न जिनका कोई अपना निजी मतलब साधन है( साथ ही जो किसानों की सेवा भी करना चाहते हैं? क्या वे सिर्फ दलबन्दी का समर्थन या विरोध करते रहें और जब यह किसी दल विशेष द्वारा ग्रस्त हो जाय, तो इससे अलग हट जायें और आत्मघात करे लें? या कि ऐसों के लिए किसान सभा में जगह हुई नहीं? अत: यह हमारा अनिवार्य कर्तव्य हो जाता है कि इसके लिए ऐसे कार्यकर्ताओं का प्रबन्ध करें जिनकी सभा में अनन्य भक्ति है और जिनकी हरकतें एवं काम अन्य दलों और संस्थाओं की अपेक्षा सभा के स्वतन्त्र मार्ग और सिध्दान्त के सम्बन्ध में बाहरवालों के दिल में किसी भी प्रकार का शक-शुबहा या उलझन कभी नहीं पैदा करते हैं( दुर्भाग्यवश सभा के चारों ओर जो कुहासा तथा पर्दा छाया हुआ है उसे एकबारगी हम साफ करे दें( साफ शब्दों में इसकी स्थिति को जाहिर करे दें और इसकी बिलकुल स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता के आधार पर कायदे-कानून बनायें।

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4 आर्थिक मसले

सभा की संगठन सम्बन्धी बातों के प्रति मेरे क्या विचार हैं, यह प्रकट करने के बाद मेरे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि मैं किसानों एवं किसान सभा ही नहीं, बल्कि सारे देश के सामने जो आर्थिक और रोजमर्रे की समस्याये हैं, उन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ। यही समस्यायें हैं जिनके चलते किसान अन्ततोगत्वा राजनीति की बातें भी सोचते और करते हैं। अत: इसके पहले कि मैं राजनीति की चर्चा करूँ, इन पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। यह सर्वविदित सत्य है कि जमीन के वास्तविक जोतने-कोड़ने वाले और सरकार के बीच में, जमींदारी तथ रैयतवारी दोनों ही इलाकों में, ऐसे लोग भरे पड़े हैं जिन्हें देश के विभिन्न भागों में जमींदार, जागीरदार, खातेदार, मालगुजार, जनमी आदि नामों से पुकारते हैं और जिन्हें युध्द के पूर्व के दिनों में किसान सभा की लड़ाइयों और संघर्षों के कारण अपने जुल्म, नाजायज वसूलियों और अन्याय से हाथ खींच लेने को बाध्य होना पड़ा था। मगर ये बीच के दलाल सिर पर उठा रहे हैं और खास करके अगस्त-आन्दोलन के बाद देहातों में नि:शंक आतंक फैलाये हुए हैं। मालूम होता है, उन्हें खुल करे खेलने का मौका मिल गया है और यह भी मालूम होता है कि किसान सभा इस मामले में निरुपाय है! क्योंकि भारत-रक्षा कानून ने उनके इन जुल्मों और अन्यायों का सफलतापूर्वक सामना करने के मार्ग में हजारों रोड़े ऍंटका दिये हैं, जिससे गरीबों के इन लहू चूसने वालों और उनके पुछल्लों में हिम्मत आ गयी है। सचमुच किसान सभा में एकदम शिथिलता आ गयी है और हमारी लज्जा की यह बात कब तक बनी रहेगी, कोई नहीं करे सकता। इस बात को स्वीकार करते हुए दिल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। क्या हम साहस नहीं करे सकते और अभी यहाँ ही कोई रास्ता नहीं ढूँढ़ निकाल सकते? शायद नहीं।

ठोस आर्थिक समस्याओं की बातें करते हुए हम पाते हैं कि जूट तथा ऊख उपजाने वाले और गुड़ तैयार करने वाले किसानों को सारी चीजों की सबसे महँगी के इस जमाने में सबसे बड़ा धक्का लगा है। जूट तथा ऊख की कीमत बराबर माँग और खपत Supply and demend के नियम के आधार पर तय होती रही है। आज तक अधिक-से-अधिक कीमत भी जो किसानों को मिलती रही है उससे किसानों की खेती का कम-से-कम खर्च भी नहीं पूरा होता रहा है। मुनाफे की बात तो दूर रही। किसान सभा अपने प्रारम्भिक दिनों से ही इन दोनों चीजों की वाजिब कीमत माँगती रही है, जिसका मतलब खेती-बारी के पूरे खर्च के ऊपर थोड़ा मुनाफा रहा है। इसने ऊख और जूट से सम्बन्धित सबों के सामने इनके उपजाने के खर्च का मोटा-मोटा हिसाब भी रखा है, लेकिन किसी ने कभी इसकी ओर ध्यान नहीं दिया! बल्कि किसान सभा द्वारा तैयार किये गये ऑंकड़ों को बहुतों ने घृणा की हँसी में उड़ा दिया! समय-समय पर सरकार द्वारा नियुक्त जाँच-समितियाँ निसन्देह इस खर्च के ऑंकड़ों पर अपने ढंग से पहुँची हैं। खर्च के बहुत से मुख्य और बड़े मद, जैसे जमीन पर, जो कि अब प्राय: शत-प्रतिशत हस्तान्तरित हो गयी है, लगायी गयी पूँजी के ऊपर सूद का उन समितियों द्वारा कभी भी विचार नहीं किया गया है। अत: उनका हिसाब ग़लत और अमान्य है। जिस प्रकार जूट और चीनी मिलवाले अपने उत्पादन की कीमत तय करने एवं माँग करने के समय छोटे-छोटे खर्च के मद को भी अपने हिसाब में शामिल करे लेते हैं, यहाँ तक कि सरकार भी उन सबों को मान लेती है, उसी प्रकार जूट और ऊख उपजाने वाले भी अपने खर्चे के पूरे विवरण सहित हिसाब तैयार करें जिसमें कुछ भी छूटने न पाये और इस आधार पर वे कम-से-कम दाम, जिसमें कुछ मुनाफा भी शामिल हो, की माँग करें। एक अखिल भारतीय किसान सभा ही है जो ऐसा करे सकती है और जिसे करना चाहिए। इसे अभी और यहाँ ही एक जाँच-समिति कायम करनी चाहिए जो खेती-बारी के खर्चे का पूरा विवरण बनाये-कम-से-कम जूट और ऊख के खर्चे का-और अपनी रिपोर्ट तैयार करे। तभी हम इन बातों की सरकारी रिपोर्ट को चुनौती दे सकते हैं और जूट एवं ऊख के लिए वाजिब कम-से-कम कीमत माँग सकते हैं। इस साल तो खास करके सरकार ने ऊख की कीमत तय करने में पूरी गड़बड़ की है, इस संबंध में किसानों की निरुपायता से फायदा उठाया है एवं उनकी बेबसी के साथ खिलवाड़ किया है। लेकिन मुझे विश्वास है वह अगले साल अपनी इस सत्यानाशी और कोरी नीति का फल वह भोगेगी, जबकि ऊख बहुत ही कम मिलेगी( क्योंकि कोई भी किसान दस-बारह आने जैसी कम कीमत के लिए ऊख कभी उपजा ही नहीं सकता। इस सम्बन्ध की तथा गुड़ की एक दूसरी भी गम्भीर बात है। यह ठीक है कि चीनी की कीमत भारत सरकार द्वारा समान भाव पर नियन्त्रित की जाती और तय की जाती है। शायद एक ही अन्तर होता है-भाड़े का। इस आधार पर ऐसी आशा थी कि सारे देश में खेती-बारी आदि के खर्चे में स्थानीय छोटे-मोटे अन्तर के कारण थोड़ी-बहुत कमी-बेशी के साथ ऊख की कीमत तय की जायेगी। किन्तु ऐसा मालूम होता है कि इसे मामले में एक प्रकार का प्रान्तीय स्वायत्ता-शासन है। नहीं तो, यह कैसी बात है कि जब कि बंगाल सरकार द्वारा सबसे अधिक तय की गयी फी मन कीमत 1 है और प्रति मन की दर से किसी प्रकार की कोई कटौती भी नहीं है, तब पंजाब में बिना किसी कटौती के वही दर है यू.पी. और बिहार में । प्रति मन है और ऊपर से मन की जबरिया कटौती भी है, ग्वालियर राज्य में से प्रति तक मन है और आन्धा में सिर्फ मन ही है, पर कोई कटौती नहीं है? यह तो सिर्फ बड़े अफसरों के बड़े दिमाग हैं जो शिमला अथवा दूसरी जगहों की चोटी पर बैठे इस अन्तर को समझ सकते हैं और इसका समर्थन करे सकते हैं। लेकिन हर हालत में यह तो अच्छी तरह साबित हो जाता है कि ऊख की काफी अधिक कीमत वाली किसान सभा की माँग वाजिब है और थी नहीं तो, बंगाल की सरकार उसी ऊख की कीमत को 1 से लेकरे 1 तक कैसे तय करे सकी?

गुड़ के सम्बन्ध में तो जितना ही थोड़ा कहा जाय, उतना ही अच्छा। सबसे पहले यू. पी. और बिहार की सरकारों ने सबसे अच्छे गुड़ के लिए क्रमश: 8 और 8 प्रति मन का भाव रखा। यू. पी. और बिहार जैसे सटे प्रान्तों की कीमत में प्रति मन का यह अन्तर सचमुच दुर्बोधय और तर्कहीन है। किंतु मानो जले पर नमक छिड़कने के लिए अधिकारियों ने खानगी एजेंसियों के द्वारा इन प्रान्तों के बाहर गुड़ भेजने पर ही एकदम ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया है, और यदि खुद उसके कुछ भेजा भी है तो यू. पी. से बहुत ही कम और बिहार से तो शायद बिलकुल ही नहीं! यहाँ तक कि प्रान्त के भीतर भी बिना विशेष आज्ञा Permit के गुड़ की आवा-जाही पर स्थानीय Regional प्रतिबन्ध लगाया गया है और विशेष आज्ञा प्राप्त करना दुश्वार ही नहीं, असम्भव-सा है। इससे यू. पी. में गुड़ की कीमत 5 और 5 मन तक हो गयी थी। कुछ ही दिन हुए, वहाँ यह प्रतिबन्ध लोगों का काफी नुकसान हो जाने पर उठा लिया गया है अवश्य। किन्तु बिहार में यह अभी भी लागू है। मालूम होता है, नौकरेशाही गुड़ के व्यवसाय को एकदम नष्ट ही करे देनी पर तुली हुई है।

यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जबकि चीनी 20% आबादी को भी कदाचित् ही मिलती है, सो भी बहुत कठिनाई के साथ, बाकी 80% लोगों को सिर्फ गुड़ पर ही निर्भर करना पड़ता है। शासकों की इस नीति का दुखद परिणाम अब आसानी के साथ देखा जा सकता है। इस नीति का एक प्रत्यक्ष परिणाम यह है कि जब बिहार और यू. पी. में खरीदारों की कमी के कारण गुड़ सड़ रहा है, नुकसान हो रहा है, महाराष्ट्र और दूसरे-दूसरे खपत करने वाले प्रान्तों में यह 20 से 30 मन तक पर बिक रहा है! इतना ही नहीं, बिहार के भीतर राँची और हजारीबाग में इस कीमत पर भी यह मुश्किल से मिलता है! जैसे इतना ही काफी न हो, अधिकारियों ने गुड़-व्यवसाय पर एक और आघात पहुँचाया है। पंजाब, बंगाल और अन्धेर में चीनी की फैक्टरियों के हलके में गुड़ का बनाना एकदम बन्द करे दिया गया है। ग्वालियर राज्य भी इस मामले में पीछे न रहा। हाँ, इस चोट से अभी तक बिहार और यू. पी. बचा है जरूर। लेकिन इनके भी सर पर नंगी तलवार कच्चे धागे के सहारे लटक रही है और इस साल भी किसी समय गिर सकती है। किसी भी हालत में अगले साल यू. पी. और बिहार में भी निश्चय ही जिस किसी भी दाम पर सरकार चाहेगी उसी के इशारे पर ऊख बेचना होगा और जो कुछ भी गुड़-व्यवसाय इन प्रान्तों में इस साल बच जायेगा उसके ऊपर भी भारी आफत आने को है। नौकरेशाही की इस वाहियात और अन्धा नीति पर जो लाखों-करोड़ों मन गुड़, जो देश में तैयार होता है और जिसे अधिकतर गरीब लोग ही खाते हैं, के व्यवसाय को चौपट करे रही है, अशक्त जैसी किसान सभा क्रोध से अधीर हो उठती है जरूर। मगर क्या यहाँ हम अपने तेज को प्रकट नहीं करे सकते और कम-से कम ऊख और गुड़ के मामले में अपनी माँग को पूरा कराने के लिए शासकों पर दबाव नहीं डाल सकते? अवश्य ही हम इसे करे सकते हैं, यदि हममें इच्छा हो, और इसी 'यदि' पर सबकुछ निर्भर करता है।

जहाँ तक अन्न, वस्त्र, किरासन तेल, चीनी, दवा आदि जीवनोपयोगी सामानों की कमी और उनके नहीं मिलने का सवाल है, मैं इस विषय को विस्तार करके आपका अधिक समय बरबाद नहीं करना चाहता( क्योंकि इसके सामने सारी समस्यायें तुच्छ पड़ जाती हैं। जितना ही हम अधिक अन्न पैदा करते हैं, वह दुष्प्राप्य होता जाता है और सारे देश के सामने अकाल मुँह बाए खड़ा होता जा रहा है। फिर भी, हमारे आका लोग हमारी अच्छी-सी-अच्छी सलाह एवं सामयिक तथा उचित विरोध को सुनने को बिलकुल तैयार नहीं पाये जाते। हम सचमुच इन सारी उलझी समस्याओं को सुलझाने के ख्याल से अपने तरीके और अपनी सलाहों का काम में लाने के लिए, सरकार पर दबाव डालने के तौर पर, उसके सामने अपनी अन्न-समितियों और इससे सम्बन्धित दूसरे कामों के रूप में उदाहरण रखकरे बहुत-कुछ करना चाहते हैं और यह जायज भी है किन्तु सिवा भयंकर निराशा के हमारे लिए कहीं भी कुछ नहीं है। ऊपर लिखे हर मोर्चों पर, जो कि हमारे जाने-बूझे हैं, बुरी तरह पाँव उखड़ने के बाद जीवनोपयोगी सामानों को मुहैया करने के मामले में अपने दृष्टिकोण को मानने के लिए सरकार को झुकाने की हमारी उम्मीद या इच्छा रखने में मैं कोई मानी नहीं देखता। फिर भी यदि हम कभी ऐसा करते हैं तो हम कितने बेवकूफ हैं! नौकरेशाही जब चाहती है, जहाँ चाहती है, हमारा उपयोग करे सकती है। पर, हम दावे के साथ कहते हैं कि हमारे बढ़िया-से-बढ़िया उपाय Plans भी, जो इन बुरी परिस्थितियों का सामना करने के लिए बनाये जाते हैं, हमारे शासकों के दिमाग में स्थान नहीं पा सकते। इन सबकी जड़ में राजनीति है। मुझे डर है, बिना राजनीतिक समस्या के हल के कोई भी ऐसी समिति और इससे उत्पन्न हुई एकता से कुछ भी नहीं होने को है। क्योंकि इस प्रकार की एकता ठीक वैसी ही है जैसे बिना आत्मा के शरीर हमने इस प्रकार की बहुत-सी एकता को देखा है जबकि ऊख की कीमत को भी अधिक बढ़ाने की माँग की गयी और रेल-भाड़ा नहीं बढ़ाया जाये का नारा लगाया गया। किन्तु इससे कोई मतलब नहीं निकला। अत: इस प्रकार की क्षणिक एकता पर कोई उम्मीद क्यों बाँधी जाय? किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जीवनोपयोगी चीजों को मुहैया करने के मामले में हम कोई भी कोशिश न करें।

संचित करने के आन्दोलन Investment Drive के सिलसिले में पहले तो रक्षा-ऋण और अब राष्ट्रीय-बचत सर्टिफिकेट के नाम पर की जाने वाली सरकारी जबर्दस्ती के विरुध्द लोगों के काफी असन्तोष फैल चुका है। समाज के बहुत-से प्रतिक्रियावादी लोग एक ओर तो अपने आर्थिक फायदे के लिए और दूसरी ओर सरकार में अपनी नामवरी हासिल करने के लिए इस अत्याचार में शामिल हैं। उनकी ओर से लगातार मोल-तोल चालू है। उन्होंने लोगों का उलटा-सीधा समझा, उन्हें डरा-धामकाकरे देहातों के दरिद्रतम व्यक्तियों से भी कुछ-न-कुछ वसूल करे लिया है अथवा वसूलने की कोशिश करते हैं। देहात के अज्ञान और साधारण वाशिंदों को इस प्रकार उनके चंगुल में फँस कुछ-न-कुछ देना ही पड़ता है पर यह रकम जमा होने के बजाय इन बेईमानों की जेब से चली जाती है। इन चीजों की शिकायत यहाँ तक जोरों में की गयी है कि ये बातें हाल में केन्द्रीय असेम्बली तक में उठायी गयी। पर कोई परिणाम न निकला। किसान सभा के लिए वास्तविक काम यही है। उसे चाहिए कि निर्दयतापूर्वक लगातार इन बुराइयों और धााँधालियों का पर्दाफाश करे और इस प्रकार इन्हें असम्भव बना दे। गरीबों की सेवा करने की हमारी सारी चीख-चिल्लाहट और घमण्ड के बावजूद भी इस काम के मुकाबले में देहातों में क्या हमारी कोई वास्तविक संगठन शक्ति भी है? यह स्वीकार करते हुए मेरा सिर शर्म से झुक जाता है कि ऐसी कोई भी शक्ति हममें नहीं है।

फिर हमारे सामने आता है केन्द्रीय सरकार का वह न झुकनेवाला रुख, जिसके मुताबिक सारे देश में प्रबल प्रतिरोध के होते हुए भी 1 अप्रैल से रेल-किराया 25% बढ़ाया जाने को है। यह एक सबूत है, यदि कोई सबूत देने की ही जरूरत पड़ी, कि यहाँ जनमत के प्रति हमारे शासकों में कितनी अवज्ञा और कठोरता भरी हुई है। रेल-किराए की इस बढ़ती से लोगों को खासकरे तीसरे दर्जे में चलने वाली जनता को, बहुत ही धक्का लगेगा। मगर इस मामले में हम सिवा अपनी नपुंसकता पर ऑंसू बहाने के कुछ भी नहीं करे सकते।

इसमें सन्देह नहीं कि मुद्रा विस्तार-निवारण के नाम पर रेल-किराया बढ़ाने और इस तरह के अन्य काम करते हुए सरकारी अफसरों और दूसरों की यह बार-बार दुहराने की आदत-सी हो गयी है कि किसान निहायत महँगे दर पर गल्ला वगैरह बेचने के कारण मालामाल हो गए हैं। लेकिन यह पक्की बात है कि 80 प्रतिशत किसानों की जमीनें गुजर-बसर के योग्य भी नहीं हैं। और इसी कारण 90 प्रतिशत किसानों को आधा पेट खाकरे अधानंगे रहना पड़ता है क्योंकि उनकी उपज इतनी भी नहीं होती कि वे अपने और अपने परिवारवालों को खिला-पिला और कपड़े पहना सकें। फिर 'किसान मालामाल हो गये' के कुत्सित नारे दुहराते रहकरे नाकोंदम करने में सरकारी अफसरों या दूसरों का क्या मतलब है? क्या वे यह समझते हैं कि युध्दकाल में किसानों की जमीन का उपजाऊपन अधिक हो गया है? लेकिन यह ध्रव सत्य है कि उपज कतई नहीं बढ़ी है और इसीलिए 90 प्रतिशत किसानों को बची हुई पैदावार बेचने का मौका कहाँ मिलता है जिससे वे धनी हों? यह भी सत्य है कि ये किसान साधारणत: खाद्यान्न ही उपजाते हैं और पैसा पैदा करने वाली चीजें बहुत ही कम पैदा करते हैं। अतएव 'अधिक दाम पाकरे किसान धानी हो गये' का नारा एकदम कल्पित बात है।

अपने आर्थिक और रोजमर्रा के कष्टों, तकलीफों और माँगों के विस्तृत क्षेत्र को छोड़ने के पहले मैं एक ज्वलन्त बात का जिक्र करूँगा जो अन्धेर के रायलसीमा के किसानों और जनता से सम्बन्ध रखती है। मद्रास प्रेसिडेंसी में आ मिले हुए जिलों का वह भाग प्रतिवर्ष वर्षा के अभाव के कारण अकाल का शिकार हो गया है। यह चिरकालिक दुर्भिक्ष कभी-कभी उग्र हो जाता है जैसा इस साल हुआ। जब तक सरकार की ओर से सिंचाई के लिए नहर का समुचित प्रबन्ध अतिशीघ्र इस भाग के लिए नहीं होता तब तक लोग हजारों की तायदाद में भूख से मरते ही रहेंगे और अपने ही भरोसे से छोड़ देने पर उनके लिए कोई भी आशा नहीं है। अन्धेर के किसान और किसान सभा सरकार से बराबर यह माँग करती रही है कि वह नहर की खुदाई फौरन जारी करे। लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। हम किसान सभावालों में कम-से-कम कुछ लोग ऐसे हैं जो 'अन्न अधिक उपजाओ' आन्दोलन तथा दरअसल ज्यादा अन्न उपजाने में बहुत कुछ सफलता प्राप्त करे लेने का दावा करते हैं। उनकी यह भी धारणा है कि लड़ाई की वर्तमान दौर में किसान सभा का यही प्रधान काम है। वे हमेशा यही सोचते रहते भी हैं कि चाहे जैसे हो सभी चीजों की पैदावार खूब बढ़े। इसी आधार पर सरकार से रायलसीमा में कुछ नहरें फौरन खुदवाने की माँग में क्या हम लोग सफलीभूत नहीं हो सकते? मुझे डर है, हम लोग सफल नहीं हो सकते, और यह बात हम लोगों को कम-से-कम हृदय-अन्वेषण का मौका तो देती है।

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5 राजनीतिक परिस्थिति

आर्थिक तथा संगठन सम्बन्धी बातों पर विस्तृत रूप से बोलने के पश्चात् मुझे राजनीति पर भी कुछ शब्द कहने की आप अनुमति दें। क्योंकि अन्त में हम लोगों को राजनीति पर ही पहुँचना है। यहाँ हम लोग ऐसे समय पर मिल रहे हैं जबकि देश अण्टाचित- सा पड़ा नज़र आता है( विदेशी हुकूमत का प्रतिरोध करने की हमारी सारी शक्ति गोया खाली हो गयी सी है, और राजनीतिक बातों में हम लोगों की कार्यारम्भ प्रवृत्ति सदा के लिए लुप्तप्राय-सी हो गयी है। इसी कारण नौकरेशाही का दिमाग आसमान पर चढ़ा हुआ है। वह खुशियाँ मना रही है और जनमत की घोर उपेक्षा जानबूझ करे ही रही है। उसका रुख जरा भी झुकने का नहीं है। भारतीय राजनीति को ढुलकने दिया जा रहा है। राजनीतिक गतिरोधा के समस्या-सुलझाव का कोई धुधला चिद्द भी नहीं दीखता। जितना ही यह देश इस चीज़ को दूर करने की कोशिश करता है उतनी ही समस्या उलझी हुई तथा दुरूह जान पड़ती है। हमारे कुछ साथी यह सोचते हैं कि क्योंकि जनता से सरकार एकदम अलग है जैसी कि पहले कभी न हुई थी, इसलिए वह कमजोर हो गयी है। लेकिन मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ और यहाँ मुझे सहसा 1921 और 1930 के दैवी असहयोग और भद्र अवज्ञा के दिनों की याद आती है( जबकि भारत के उदार नेता, जमींदार, दलित वर्ग की संस्था, राजभक्त और दूसरे लोगों ने भारतीय कांग्रेस और इसके नेतृत्व की असंदिग्धा रूप से भर्त्सना की थी और उन पर देश में अराजकता फैलाने और उपद्रव बढ़ाने का दोषारोपण किया था। लेकिन सरकार मानों कांग्रेस के साथ चिपकना चाहती थी और इसके साथ समझौता करने के लिए अति चिन्तित थी। 1931 में इसने समझौता किया भी यह भर्त्सना जितनी ही तेज हुई सरकार ने उतना ही अधिक यह उत्सुकता दिखायी। मगर अब? अब तो ऐसा लगता है कि हवा ही बिलकुल पलट गयी है। आज तो मुल्क में जिनकी कुछ भी हस्ती है प्राय: वे सभी एक स्वर से बराबर यही माँग पेश करते हैं कि कांग्रेस नेता रिहा हों तथा कांग्रेस एवं सरकार के बीच समझौता हो। लेकिन सरकार घृणा के साथ सबकुछ अनसुना करे देती है और माँगों, प्रार्थनाओं एवं अनुनय- विनयों का उसके पास 'कोरा नाही' ही एकमात्र उत्तर है। सरकार के जनता से उत्तारोत्तार अलग होते जाने के बावजूद इसी से पता चलता है, कि सरकार आज अपेक्षाकृत कितनी मजबूत और देश कितना कमजोर है। ऐसा होने के उन अनेक कारणों के सिवाय जिनसे हम बखूबी परिचित हैं, अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति भी कारण है, और दुर्भाग्यवश हमने अपनी नादानी से उस परिस्थिति में लाभ नहीं उठाया।

यहाँ बहुत से ऐसे हैं जो असेम्बली और म्युनिसिपल एवं डि. बोर्डों के उपनिर्वाचनों का परिणाम सोच करे और वस्तुत: देखकरे निकट भविष्य के लिए बहुत आशावादी हो गये हैं और यथार्थत: वे खुशियाँ भी मना रहे हैं। वे इसमें कांग्रेस की विजय एवं देश की बढ़ती हुई राजनीतिक शक्ति का आभास पाते हैं। लेकिन फिर यहाँ भी मैं उनकी धारणा से असमहमत हूँ। सर्वप्रथम इसलिए कि यह अधिक से अधिक वैधानिक शक्ति-वृध्दि ही कही जा सकती है, न कि क्रान्तिकारी, और देश के वर्तमान राजनीतिक विकास को देखते हुए क्रान्ति की शक्ति वृध्दि की ही दरअसल जरूरत है। देश की राजनीतिक शक्ति विदेशियों के हाथों में है और वे इससे पृथक होने की अनिच्छा में उत्तारोत्तार मजबूत और दृढ़ होते जा रहे हैं। अभी तक हम लोग उनके अनिच्छावाले हाथों से यह शक्ति छीन लेने में अक्षम रहे। यह काम तो जनता की क्रान्तिकारी भावना से ही सम्पन्न हो सकता है क्योंकि वैधानिक युध्दकला में हमारे शासक सिध्दहस्त हैं। वे इस युध्द को खत्म करना और बेकार बना देना अच्छी तरह जानते हैं।

दूसरे, इन दिनों कांग्रेसी नेताओं के जेल में बन्द रहने के कारण जनता का भाव आमतौर से कांग्रेस के प्रति मैत्रीपूर्ण है। अतएव यह सफलता स्वाभाविक ही है लेकिन देश के राजनीतिक जीवन में इसे स्थायी सफलता का रूप कदापि नहीं दिया जा सकता। हम लोगों को पिछले समय का पर्याप्त अनुभव है जिससे ऐसे विजयों से अतीव उत्साही होने की गुंजाइश नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि साधारणत: देश की राजनीतिक चेतना कई गुना बढ़ गयी है। लेकिन इसकी कोई निश्चित रूपरेखा नहीं होने और जनता की क्रान्तिकारी भावना से हीन होने के कारण ठोस राजनीति में इसका कोई खास महत्त्व नहीं है।

तीसरे, यदि आयरलैण्ड के, एक कोने में पड़ा अल्स्टर श्री डी. वेलरा के मनोवांछित स्वतन्त्र आयरिश स्टेट में तरह-तरह की बाधाएँ डाल सकता है, जो हमें शक है, हमारे प्रभुओं को, जो भारत के कोने में हजारों अल्स्टर बनाने पर तुले हुए हैं, हिन्दुस्तान से सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के चले जाने के बाद, तत्पश्चात् एक के बाद दूसरी दुखपूर्ण घटनाओं के घटित होने तथा उनके फलस्वरूप अन्त में 1942 वाले अप्रिय काण्ड के बाद, एक सुनहला मौका हाथ आया कि हिन्दुस्तान में भी वही हालत पैदा करें। और अब तो अखण्ड हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, द्राविड़िस्तान, हरिजनिस्तान, जंगलिस्तान के नारे बुलन्द होने लगे हैं। यह दृश्य उन लोगों के हृदयों को विदीर्ण करता है जो देश और जनता के दृष्टिकोण से सोचते हैं। मुझे लाचार होकरे मानना पड़ता है कि हाल ही केन्द्रीय असेम्बली में तथा अन्यत्र गृह-सदस्य एवं अन्यों द्वारा दिये गये वक्तव्य और जवाब, भारतीय व्यवस्थापिका में बड़े मधुर शब्दों में लार्ड वावेल का उन्हीं पर मुहर लगाने वाला भाषण और जेल में नजरबन्दी की हालत में ही श्रीमती कस्तूरबा की मृत्यु, जिस पर हम सभी यहाँ शोक मना रहे हैं और जो इसीलिए हुई कि श्रीमती बा की रिहाई के लिए किये गये हमारे सभी यत्न बेकार गये, भारत पर विदेशियों की शक्ति और दृढ़संकल्पता के पक्के सबूत हैं।

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6 पाकिस्तान और हिन्दुस्तान

मुझे पाकिस्तान या अखण्ड हिन्दुस्तान की चिल्लाहट में विश्वास नहीं है और न इस प्रकार के दूसरे ही नारे बुलन्द करने में। एक समय था, जब बर्मा भी अखण्ड हिन्दुस्तान का एक अंग था। कन्धार, खीवा और बुखारा भी भारत के भू-भाग में ही कभी सम्मिलित थे। किन्तु इन प्रदेशों के निकल जाने पर भी यदि हिंदुस्तान आज अखंड ही कहा जा सकता है, तो यदि कुछ और भाग भी निकाल लिए जायें तो भी इसकी अखण्डता तो बनी ही रहेगी।

निसन्देह हमारे लिए तो वही अखण्ड हिन्दुस्तान है और वही कल्पनीय और वांछनीय भी है जो प्रत्येक जाति, वर्ग, सम्प्रदाय और धर्म, जो इस हमारी प्राचीन महान भूमि में पाये जाते हैं, की अक्षुण्ण तथा अखण्ड भक्ति का विषय हो। इसी हिन्दुस्तान की आज जरूरत भी है। लेकिन सचमुच हिन्दू, मुसलमान और दलितवर्ग जब एक-दूसरे के दुश्मन हो रहे हों-जब एक-दूसरे के प्रति निरन्तर लाठी और हथियार उठाते हों तथा ऐसे युध्दकाल के अतिरिक्त, समय-कुसमय पर जब एक-दूसरे के प्रति छींटाकशी करते हों-हम ऐसे भारत का स्वप्न भी नहीं देख सकते। यह तो तभी हासिल हो सकता है जब, या तो सभी सम्प्रदाय, वर्ग और जाति के शान्त प्रकृति एवं व्यापक-विचार रखने वाले नेता 'दो और लो' की भावना से अनुप्राणित होकरे आपस में खूब विचार-विनिमय करें, या काफी छान-बीन करे तैयार की हुई निर्भीकता एवं दृढ़ता से कार्यान्वित की जाने वाली कोई आर्थिक-योजना निश्चित की जाय और धुनी लोग उसे अमल में अवश्य लायें।

यहाँ कुछ ऐसे लोग भी हैं जो उस आर्थिक योजना से तत्काल फल की आशा नहीं रखते और परस्पर समझौते में ही विश्वास रखते हैं। समझौते की बातचीत शुरू होने और उसकी सफलता के लिए अनिवार्य आधाररूप में एक उपाय बड़ी तत्परता के साथ वे पेश करते हैं। पाकिस्तान का अर्थ वे लोग लगाते हैं मुसलमान जातियों के लिए राष्ट्रीय आत्मनिर्णय( और रूस का सहारा लेकरे वे हिन्दू और कांग्रेसी नेताओं पर दबाव डालते हैं कि वे इसे स्वीकार करे लें। किसान सभा ने इस मामले में अपने स्वार्थ के हित की दृष्टि से अपने को तटस्थ रखा है और मेरी समझ से यही रास्ता नहीं है। किन्तु दुर्भाग्यवश सवाल बहुत ही पेचीदा हो गया है। हममें से कुछ ने, जो सभा की इस नीति के लिए जवाबदेह रहे हैं और हैं, सभावादी होने के अलावे अपनी दूसरी हैसियत से अनजानते अथवा जान करे ही सभा की स्थिति में बहुत बड़ा गोलमाल पैदा करे दिया है। इसलिए, यदि हम लोग चाहते हैं कि सभा की यह नीति विशद रूप में जारी रहे तो यहाँ हम लोगों को इसे फिर से साफ-साफ दुहराना चाहिए और भविष्य में पुन: कोई गड़बड़ी न हो ऐसा कोई नियम-कायदा बना लेना चाहिए।

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7 पाकिस्तान और आत्मनिर्णय

लेकिन जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत सम्बन्ध है, मुझे भय और शक है कि हिन्दुस्तान की राजनीतिक उन्नति की इस वर्तमान अवस्था में मुस्लिम समस्या में लागू किये जाने वाले आत्मनिर्णय को सफलता शायद ही मिले। बल्कि मुझे डर है कि इस नीति का खतरनाक दुरुपयोग होगा। सर्वप्रथम खुद महान स्तालिन के ही शब्दों में-''इन जातियों अल्पसंख्यकों या पिछड़ी हुइयों का केन्द्रीय रूस के साथ स्वेच्छापूर्वक सैनिक और आर्थिक संघ का संघटन और इन सभी बातों को किसानों की पूर्ण मुक्ति एवं सारी राजनीतिक शक्तियों को सीमावर्ती जातियों के श्रमजीवियों के हाथों में एकत्रीकरण के ऊपर आधारित करना ही राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के सिध्दांत का सार है।'' ऊपर की बातों से यह साफ है कि विभिन्न जातियों और देश के बाकी हिस्से की सैनिक और आर्थिक एकता और इसके आधार के रूप में किसानों और मजदूरों के हाथों में पूर्णतया अधिकार सौंप देना यही तीन राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के सिध्दान्त के मूलतत्व और स्वरूप हैं। तो क्या हम पूछ सकते हैं कि श्री जिन्ना, मुस्लिम लीग या मुस्लिम नेता इसके लिए तैयार हैं? मैं समझता हूँ वे तैयार नहीं है।

दूसरे, मुस्लिम नेता मुसलमानों के अनेक राष्ट्र होने को स्वीकार नहीं करते, बल्कि इसकी मुखालफत करते हैं। वे दो राष्ट्रों के सिध्दान्त की ही बात करते हैं-हिन्दू और मुस्लिम। मुस्लिम राष्ट्रों की नहीं, वरन् एक अविभाज्य मुस्लिम राष्ट्र की बातें वे करते हैं। ऐसी हालत में जैसे ही आत्मनिर्णय का सिध्दान्त मान लिया जायेगा, वैसे ही पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच एक गलियारे की माँग तुरंत ही गम्भीर रूप से उठायी जायेगी। मेरा भय कोलम्बिया विश्वविद्यालय के भूतत्व-विद्या के प्रोफेसर श्री चार्ल्स के एक लेख से दृढ़ हो जाता है जिसे उनने वहाँ की सितम्बर वाली त्रौमासिक पत्रिका 'विदेशी मामले' में लिखा है और जिसमें उन्होंने पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बीच आर्थिक सुलझाव का ही हवाला देते हुए इस गलियारे का प्रश्न उठाया है। लेकिन यह प्रश्न भयंकर राजनीतिक रूप जरूर लेगा।

तीसरे, क्योंकि राष्ट्रीय प्रश्न मुख्यत: राज्य सम्बन्धी है, धार्मिक एवं सांस्कृतिक नहीं और क्योंकि किसानों की पूर्ण मुक्ति ही इसका मूल आधार अंश है, अत: स्वयं स्तालिन के शब्दों में इसका यह अर्थ होता है( 'किन्तु यह भी निसन्देह है कि किसानों का सवाल ही अन्तत: राष्ट्रीय सवाल का आधार और यथार्थ तत्तव है। इसी से यह बात सिध्द हो जाती है कि राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य फौज का किसान ही प्रतिनिधित्व करते हैं।' इस कसौटी पर कसने से पता चलता है कि पाकिस्तान के आन्दोलन का मुसलमानों के राष्ट्रीय आन्दोलन से कोई भी सम्बन्ध नहीं क्योंकि मुसलमान किसान कभी भी पाकिस्तान के आन्दोलन के साथ नहीं रहे। यदि रहे भी तो एक मुसलमान की हैसियत से, किसान की हैसियत से कदापि नहीं। और जब तक वे ऐसा नहीं करते, मुसलमान किसानों की पूर्ण मुक्ति का प्रश्न कभी उठी नहीं सकता। और सौभाग्य या दुर्भाग्य से यदि वे कभी ऐसा करेंगे भी, तो मुझे डर है, जितने भी नवाब-जमींदार, राजे-महाराजे, खाँ-बहादुर आदि पाकिस्तान के मामले में इस कदर शोर मचाये हुए हैं, या तो वे इस सवाल को ही नहीं उठायेंगे अथवा एक साथ ही चुपके से लीग को छोड़ अपना रास्ता लेंगे।

अन्त में, स्तालिन ने विभिन्न जातियों को राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार गृहयुध्द के पूर्व के दिनों में तब दिया था जब उसे विश्वास था और उसने अनुभव किया कि सोवियत रूस में क्रान्तिकारी शक्तियों को दबाने का कोई खतरा नहीं है। वह उसे इस समय भी अच्छी तरह दुहरा सकता है जब कि रूस में वह शक्ति एकदम अजेय हो गयी है। लेकिन उसने गृहयुध्द के दिनों में और उसके बाद भी सीमावर्ती प्रदेशों के अलग हो जाने का अपनी ताकत-भर घोर विरोध किया था। उसकी दलील थी कि अलग होने की उस समय की माँग प्रतिक्रान्तिवादनी Counter-revolutionary थी। अब मान लीजिए कि मुसलमानों को आत्मनिर्णय का अधिकार दे दिया गया और वे शीघ्र या कुछ समय के बाद ही अलग होने की माँग पेश करें, जैसा कि उनके नेताओं की आवाज से साफ प्रत्यक्ष है कि वे माँग करेंगे ही, और सचमुच ही अनिश्चित काल तक तो वे नहीं ही रुके रहेंगे-तब तक जब तक कि मुसलमान जनता में आर्थिक या राजनीतिक विचार से वर्ग-चेतना नहीं आ जाती है। उस दशा में हमारी स्थिति क्या होगी? क्या हम भी अपनी पूरी ताकत के साथ उसी आधार पर इसका विरोध करेंगे जिस आधार पर स्तालिन ने किया था? अच्छा, माना कि हम वैसा ही करेंगे, तो क्या यह हास्यास्पद नहीं मालूम होगा? अथवा क्या यह काम असम्भव बात के लिए लड़ने के समान नहीं मालूम होगा और तब क्या हम सफलता की आशा भी करे सकते हैं? मुझे डर है, तब ऐसा करके हम अपने को भयंकर दलदल में फँसा देंगे और इस तरह खौलती कड़ाही से निकल करे जलती भट्ठी में जा पड़ेंगे।

संक्षेप में मैं इन्हीं चन्द बुनियादी कारणों से इस मामले में अपने कुछ साथियों के साथ सहमत नहीं हूँ। इसीलिए मेरी पक्की राय है कि जब तक आपसी समझौते के लिए अनुकूल वातावरण तैयार न हो जाय तब तक हमें खूब सोच-विचार करे तैयार किये हुए आर्थिक प्रोग्राम पर ही सारी शक्ति लगा देनी चाहिए। वही धीरे-धीरे इसका रास्ता साफ करेगा।

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8 कांग्रेस और किसान-सभा

ऐसा मालूम होता है कि हमारे शासकों ने यह तय करे लिया है कि मुल्क में एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रीय कांग्रेस हमेशा के लिए मिटा दी जाय। क्योंकि रह-रह के उन्हें इसका सामना करना पड़ता है। इसीलिए मुल्क में वे एक कांग्रेस-विरोधी दल तैयार करना चाहते हैं, और उन्होंने समय-समय पर जो कांग्रेस और उसके नेताओं के साथ हमारे मौलिक मतभेदों को देखा है उससे शायद उन्हें उम्मीद है कि हम उनके इस घृणित काम में साथी होंगे।

लेकिन वे अगर ऐसा सोचते हैं तो मुझे अन्देशा है, वे बड़ी भूल करते हैं? बेशक कांग्रेस और उसके नेताओं के साथ हमारा मतभेद बहुत बातों में मौलिक है। लेकिन सबसे पहली बात तो यह है कि यह केवल हमारा भीतरी मामला है और इसका सम्बन्ध केवल हमसे और उनसे है। लेकिन हम इसे वहाँ तक नहीं ले जा सकते जहाँ देश की स्वतन्त्रता खटाई में पड़ जाय या जहाँ हमारी अपनी आजादी के दुश्मनों से मुकाबला हो। दूसरी बात यह है कि वे मतभेद ऐसे नहीं हैं जिनके करते हम अपनी गुलामी को क्षण-मात्र के लिए भी भूल जायें और उन्हीं हाथों को मजबूत करने लगें जो हमारी बेड़ियाँ कसते जा रहे हैं। हमने अपने दिल में ठान लिया है कि कांग्रेस विदेशी प्रभुत्व के विरुध्द देशव्यापी विद्रोह और दृढ़-संकल्प के सक्रिय रूप के अलावे और कोई चीज नहीं और जब तक वह प्रभुत्व मौजूद है तब तक कांग्रेस या उस जैसी दूसरी संस्था की जरूरत बनी ही रहेगी। हम ऐसे बेवकूफ भी नहीं हैं कि उसके नाश में मददगार बनें, सिर्फ इस मृग-मरीचिका के पीछे, कि कांग्रेस के नष्ट होने पर वैसी दूसरी संस्था बना लेंगे। यही वजह है कि हमने हमेशा यह माँग पेश की है और अभी भी करते हैं कि कांग्रेस कानूनी करार दे दी जाय और उसके नेता बिना शर्त रिहा करे दिये जायें।

यह काम हम करते हैं बावजूद इस पक्की बात के कि लड़ाई और तत्सम्बन्धी उद्योगों के सम्बन्ध में प्राय: गत दो वर्षों से कांग्रेस का जो रुख रहा है। उसका समर्थन हमने कभी नहीं किया है और अगस्त के बाद के दिनों में, चाहे गलती से ही और अनुचित ही क्यों न हो, उसके नाम पर जो कुछ किया गया है उसके प्रति खासतौर से हमने अत्यन्त अफ़सोस जाहिर किया है। सन् 1942 के शुरू में हमने नागपुर में जो निर्णय किया था उसके बाद युध्द सम्बन्धी उद्योगों का किसी भी रूप में विरोध करना हमने कतई बन्द करे दिया और उसी बात पर अब तक कायम हैं। हम यह सिर्फ इसलिए करते हैं कि इस विरोध से हमारी आजादी की लड़ाई में जरा भी सहायता नहीं मिलेगी और न इसके करते वह आजादी कुछ भी निकट आयेगी, ऐसा हमारा यकीन है। हम यह भी मानते हैं कि उस विरोध से धुरी-शक्तियों को प्रोत्साहन और हिम्मत मिलेगी कि भारत पर आक्रमण करें, और क्योंकि हम किसी भी तरह धुरी-राष्ट्रों की गुलामी को मौजूदा गुलामी से न तो पसन्द ही करते हैं और न उसके साथ हमारा कोई समझौता ही हो सकता है, इसीलिए हमने यह रुख अख्तियार किया है। लेकिन जहाँ तक युध्द-सम्बन्धी इन उद्योगों के साथ सहयोग की बात है इसकी आशा हमसे तब तक नहीं की जा सकती है और न की जानी चाहिए जब तक उसके अनुकूल मुल्क में वातावरण नहीं पाया जाता। यह तो हमारे शासकों का ही काम है कि वे ऐसा वायुमण्डल पैदा करें और इसके लिए जरूरी है कि देश में वे ऐसी राष्ट्रीय सरकार कायम करें जो भारत के लोगों और आम जनता के हार्दिक और स्वेच्छापूर्वक सहयोग के योग्य हो।

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9 किसान कौन हैं?

समाप्त करने के पहले यह पूछने की इच्छा होती है कि वे किसान कौन हैं जिनके नाम पर तथा जिनकी तरफ से हम बोलते और काम करते हैं और जिन्हें हम पूरे क्रान्तिकारी बनाना चाहते हैं? इस समय तो मध्यम श्रेणी के और बड़े-बड़े खेतिहर ही अधिकांश में किसान सभा और उसके काम के साथी हैं और अभी सभा की वर्तमान दशा में दूसरी बात हो भी नहीं सकती। साफ शब्दों में कह सकते हैं कि वही दोनों तरह के खेतिहर किसान सभा का उपयोग अपने हित और लाभ के लिए करे रहे हैं। साथ ही, हम भी सभा को मजबूत करने के लिए या तो उन दोनों का उपयोग तब तक करते या करने की कोशिश करते हैं जब तक खेतिहरों में सबसे निचले दर्जेवालों और उनके ऊपर वालों में अपने राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थों और जरूरतों की पूरी जानकारी नहीं हो जाती और उनमें वर्ग चेतना नहीं आ जाती। लेकिन सच पूछिये तो अर्धसर्वहारा या खेत-मजदूर ही, जिनके पास या तो कुछ भी जमीन नहीं है या बहुत ही थोड़ी है और टटुपुँजिये खेतिहर जो अपनी जमीन से किसी तरह काम चलाते और गुजर-बसर करते हैं, यही दो दल हैं जिन्हें हम किसान मानते हैं, जिनकी सेवा करने के लिए हम परेशान और लालायित हैं और अन्ततोगत्वा वही लोग किसान सभा बनायेंगे, उन्हें ही ऐसा करना होगा। जबकि दूसरे लोग किसान-सभा में रहते हुए भी किसान-सभा के नहीं हैं, ये दोनों सभा में हैं और सभा के हैं। फलत: हमारी यह हमेशा कोशिश होनी चाहिए कि उनके पास पहुँचें, उन्हें उत्साहित करें, और किसान-सभा में उन्हें लायें। जब तक हम इस यत्न में सफल नहीं हो जाते तब तक हमारा काम बराबर अधूरा और अपूर्ण ही रहेगा। समाज के जो स्तर और दल जितने ही गरीब और नीच हैं, उतने ही वे हमारे निकट हैं। इसीलिए जो सबसे नीचे के या खेत-मजदूर और हरिजन हैं वे हमसे अत्यन्त निकट हैं। उनके बाद टटुपुँजिये खेतिहर आते हैं और बस वही किसानों का वर्ग खत्म हो जाता है। इस मध्यम खेतिहरों को सिर्फ तटस्थ बना सकते हैं, ताकि वे शत्रु का पक्ष न लें। लेकिन हमारी आखिरी लड़ाई में वे साथ देंगे यह आशा हम नहीं करे सकते।

लेकिन अफसोस है कि ये असली किसान समाज के ऊपरी तबके वाले हम लोगों में विश्वास नहीं करते-उन्हीं हम लोगों में जो किसान सभा के विकास की वर्तमान दशा में अधिकांशत: उसमें काम करते और उसे चलाते हैं। यह है भी ठीक ही। इसीलिए हमारा यह अनिवार्य कर्तव्य है कि हम अपने अमल और बर्ताव के द्वारा उनके प्रति अपनी नेकनीयती का सबूत दें और इस तरह अपने को उनका प्रियपात्र बनायें।

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10 धर्म और ईश्वर

लेकिन इन असली किसानों को किसान सभा में लाने में हमारी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वे कट्टर भाग्यवादी बन गये हैं। उनने सभी कार्यारम्भशक्ति खो दी है और भविष्य के लिए वे निराश हो गये हैं। खूबी तो यह है कि भगवान और धर्म के नाम पर ही उनकी यह दशा हो गयी है! ऐसा कहा जाता है कि धर्म और भगवान की ओर प्राचीनों का, ऋषियों का, और भविष्यदर्शियों का ख्याल इसीलिए गया और ये धर्म तथा ईश्वर इसलिए प्रकट हुए कि आत्मा और जीव की भूख को शान्त करें। अपने जीवन-भर मैं संस्कृत-साहित्य, भारतीय दर्शनों तथा दूसरे दर्शनों का बड़े चाव और ध्यान से अध्ययन करता रहा हूँ और उनके द्वारा धर्म तथा भगवान के विषय में थोड़ा बहुत जानने और समझने का दावा भी रखता हूँ। मैंने गीता को भी हृदयंगम किया कि और वह मुझे प्रिय है। लेकिन मुझे उनमें किसी में भी उस अतलगर्त का पता नहीं लगा जिसमें 'अर्वाचीन धर्म' ने जनता को ढकेल दिया। इसीलिए इस तरह के धर्म को मिट जाना ही होगा। क्योंकि हमारे जीवन में इसके लिए स्थान हुई नहीं। इसकी तो हालत यह है कि आज यह आत्मा की भूख शान्त करने के बजाय दरअसल कमाने वाली जनता के शोषकों और लूटनेवालों की लिप्सा और तृष्णा की ही सन्तुष्टि करे रहा है और उसके लिए वायुमण्डल तैयार करे रहा है। क्योंकि वास्तव में इसने उस जनता की आत्मा को मार डाला है, उसके भीतर की सभी आरम्भिक शक्तियों को खत्म करे दिया है और उसे कट्टर भाग्यवादी बना दिया है। क्या मैं धार्माचार्यों, धार्मोपदेशकों और धर्मशिक्षकों से एक छोटा सा प्रश्न करूँ? क्या सचमुच धर्म और सर्वशक्तिमान भगवान का यही काम है? और अगर यही बात है तो अपने आपको कायम रखने का इन्हें क्या हक है? वे इस भूमण्डल से मटियामेट क्यों न करे दिये जायें? किसान सभा के सभी कार्यकर्ताओं का यह पवित्र कर्तव्य है कि 'अर्वाचीन धर्म' की इस प्रवंचना का भण्डाफोड़ करें और ख्याल रखें कि जनता के दिल और दिमाग से इसका जादू एकदम मिट जाय। जब तक ऐसा नहीं हो जाय, जनता के लिए कोई आशा नहीं।

इन्हीं शब्दों को कह करे मैं बैठता हूँ।

मैंने आपका बहुत सा अमूल्य समय ले लिया है और आपको थका भी दिया है। इसके लिए मैं माफी चाहता हूँ।

इनकलाब जिन्दाबाद!
     किसान सभा जिन्दाबाद!

नोट-यह भाषण महत्त्वपूर्ण है। इसमें कम्युनिस्ट पार्टी से मतभेद के बिन्दु खासकरे भारत विभाजन के उनके समर्थन के खिलाफ साफ उभरकरे आये हैं। इस सम्मेलन के बाद स्वामी जी का 1947 के 15 अगस्त तक संयुक्त मोर्चा कम्युनिस्टों से टूट गया। स्वामीजी मानव सेवा को ही असली वेदान्त समझते थे। धार्मिक होते हुए भी धर्म के ठकोसला, शोषण के खिलाफ थे।

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