कुछ जिज्ञासाएं अभी तक अनुतरित हैं। विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र सभी
ईमानदारी से स्वीकार करते हैं उन विषयों पर अपनी सीमाओं को। सम्पूर्ण
विश्व ब्रह्माण्ड निस्सीम है। उत्पत्ति, समय काल, सभी धुंध में या उस
से भी परे। ज्ञान के जितने भी साधन या वाहक हैं - सिर्फ़ आँख़ें
मिचमिचाकर रह जाते हैं। ज्ञान का साहस, दम्भ, पाखण्ड कुछ भी नहीं
चलता। विवशता भी नहीं है, साधनहीनता भी नहीं। सिर्फ़ स्वीकारोक्ति है
कि हम नहीं जानते। अभी तक नहीं जानते। ऐसे में एक मानव इस विश्व में
अपने स्थान, अपनी अल्पकालता, अपनी क्षणभंगुरता के प्रति प्रश्नकुलता
से आगे नहीं जाता। एक तटस्थता, अहंकारहीनता और निर्मम उत्सुकता ही
मनुष्य को संवेदित और प्रबुद्ध रखती है। यही है धर्म का वह वैज्ञानिक
अध्यात्म पक्ष जहां ईश्वर, अनीश्वर की स्थिति स्थगित रहती है। इस के
बाद दर्शन और व्याख्या शुरू होती है। रहस्य का भेद खोलने की कोशिशें।
ईमानदार दर्शन की प्रारम्भिक स्थिति जो बहुत शुद्ध और लम्बी जिज्ञासा
से प्रेरित होती है। ईश्वर का जन्म भी इसी स्थिति में होता है। इसी
रास्ते पर थोड़ा आगे अध्यात्म का एक भिन्न रूप शुरू होता है। आत्मा,
परमात्मा और विलय के सिद्धांत और प्राप्ति के साधन।
आगे फिर इसी दर्शन और अध्यात्म की व्याख्याएं हैं, अनेकानेक
श्रुतियां और स्मृतियां हैं। पण्डितों, विद्वानों, गुरुओं की
पाठशालाएं, ग्रन्थावलियां, वाद-संवाद श्रृंखलाएं हैं। धार्मिकता की
होड़ है, रीति-नीति है, अधिक से अधिक धार्मिक ज्ञान होने का अहंकार
है। अधिक से अधिक धर्म-पालन का पाखण्ड है, अधिक से अधिक आंख मूंदकर,
मूक-बधिर होकर धर्म को समर्पित होने की सामाजिक प्रतिष्ठा है। अपना
सब कुछ किसी के हाथों सौंप देने की गुरू शरणागतता है। समधार्मिक के
प्रति सहिष्णुतता है। अनुयायियों की असंख्यता की सत्ता है, शक्ति है।
अपनी-अपनी धार्मिक पवित्रता है, कर्मकाण्ड है, दण्ड विधान है,
धर्मसत्ता, राज्य सत्ता का महामिलन है। क्षणभंगुरता, अल्पकालता की
अहंकारहीन वैज्ञानिकता का पूर्ण अन्त! फिर एक लम्बा अन्तराल सा!
वैज्ञानिक वस्तुपरकता और औद्योगीकरण के अपने मोह और मोह भंग का
अन्तराल।
कुछ पहले तक जीवन के और आयाम भी थे। एक इन्सान दूसरे का तरह-तरह से
पूरक होता था। आपस के सौ तरह के संपर्कों, उत्सवस्थितियों से दैनिक
जीवन भरा-पूरा सा था। आज इन्सान की ज़िन्दगी हर तरफ़ से खाली और
खोखली होकर बाज़ार में खड़ी है। आज लगता है, इस अकेलेपन में, बाज़ार
और धर्म की भीड़ में ही सुरक्षा और प्रतिष्ठा है। सम्पन्नता की
नुमाईश है। बगैर किसी सच्चे विश्वास के आंखें मूंद कर पाखण्ड की
तृप्ति है। बाज़ार और धर्म दोनों ही बिल्कुल खाली और अकेले,
सम्बन्धहीन इन्सानों की शरणस्थली हैं। यहां तक कि आज के लगभग सारे
गोरिल्ला या सैनिक युद्धों के पीछे धनलोलुपता और धार्मिक आक्रमकता की
ऐसी दलदल है जिस में कौन ऊपर और कौन नीचे का अता-पता नहीं। समय के इस
छोर से उस छोर तक एक बन्दर छलांग ही लगाई जा सकती है।
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सच तो यह है कि दलितों और अन्य जातपात की, साम्प्रदायिकता की,
स्त्रियों की स्थिति की, पूजा-पाठी आडम्बर की, धर्म-गुरुओं द्वारा
शोषण की, धर्म स्थानों द्वारा करोड़ों-अरबों का धन इक्ट्ठा करने की,
देश और सरकार के साधनों के अपव्यय की, झूठे-दंभी-अहंकारी धार्मिक
मूल्यों में जीने की बात को केन्द्र में रखे बिना आज धर्म की चर्चा
नहीं की जा सकती। यही बातें आज धर्म के नाम से बीमार चमड़ी की तरह
सामाजिक शरीर से चिपकी हुई हैं। इसी के खिलाफ़ एक जिहाद (धार्मिक
युद्ध ) छेड़ने की ज़रूरत है।
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हर धर्म के बुनियादी इख़लाकी और दुनियावी-गैरदुनियावी फ़लसफ़ों से
किसी सोच-मन्द इन्सान को शिकायत नहीं है। धर्म के पैगम्बरों और उन की
शिक्षाओं, आदर्शों और उसूलों से किसी का झगड़ा नहीं है। अपनी-अपनी
समझ के तहत उन्होंने इन्सानियत के लिए ऊंचे से ऊंचा ख्वाब देखा। पूरी
ईमानदारी से आम इन्सान के हक की बात की। अवाम पर ज़ुल्म ढाती हुई
ताकतों को निहत्थे होकर भी ललकारा। तमाम वार खुद पर लेते हुए
कमज़ोरों की हिफाज़त का ज़िम्मा लिया। विचार और अन्धविश्वास की लड़ाई
में पैगम्बरों ने हमेशा विचार का साथ दिया। अपने वक्तों और कुछ देर
बाद तक उन की ताकत की रोशनी मौजूद रही। उन की ताकत की रोशनी का
फ़ायदा उठाया उन पैगम्बरों के संदेश-वाहकों ने। उन्होंने उन
पैगम्बरों के नाम पर संस्थाएं बनाईं और आम आदमी का शोषण किया जो अब
तक जारी है, उस का विरोध हम करते हैं।
(2)
वस्तु ज्ञान और भौतिक सिद्धांतों के युग में आज जब धर्म की बात होती
है तो उन सारे विश्वासों, घोर धार्मिक प्रक्रियाओं, प्रचलित धार्मिक
व्यवहारों से कन्नी काट कर - पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक,
करमों का फल, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की अवहेलना करके आज के
विद्वान, धर्म को, सारी संस्कृतियों, सभ्यताओं, मानव व्यवहारों,
मूल्यों, नैतिकताओं का एकमात्र आधार मान कर महामंडित करते रहते हैं।
यथार्थ यह है कि पिछले दो-ढाई हज़ार वर्षो तक किसी भी प्रकार के
ज्ञान को सिर्फ़ धर्म के माध्यम से व्यक्त किया जाता रहा है।
समाजशास्त्र, अर्थ शास्त्र, शिक्षा शास्त्र, खगोल शास्त्र, यौन
शास्त्र, न्याय शास्त्र इत्यादि सभी विधायें ऋषियों द्वारा एक धर्म
आवरण ओढ़कर प्रसारित होती थीं। प्राचीन देशों में मिस्र, चीन, यूनान
और अन्य कबीलाई सभ्यताओं में अलग-अलग अलंकृत नाम ही हमारे
ऋषि-मुनियों का पर्याय थे। वे सभी धर्म के विशाल वितान तले थे। ज्ञान
को अलग-अलग श्रेणियों में बांट कर देखने का रिवाज ही नहीं था। ज्ञान
के अगर अलग-अलग वर्गीकरण थे भी तो सर्व-शक्तिमान धर्म इसे अपनी ही
अलग-अलग शाखाएं और सूत्र मान कर प्रसारित करता था। नृत्य, नाटक,
संगीत, कथाएं, साहित्य इत्यादि भी धर्म के ही अलग-अलग दार्शनिक
आध्यात्मिक अलंकरण थे।
लेकिन आज ज्ञान का वर्गीकरण इतना सूक्ष्म है कि एक शाखा को दूसरी
शाखा के नाम से पुकारना अज्ञानता गिनी जाती है। ज्ञान के वर्गीकरण
सिद्धांत के अनुसार आज यह नहीं कहा जा सकता कि सारी संस्कृति,
सभ्यता, मूल्यों का आधार सिर्फ़ हमारे धर्म हैं। अतीत में भी हमें
गणित, आयुर्वेद, भूगोल, नक्षत्र-ज्ञान, संगीत, कला, ज्ञानविज्ञान
यानी सभी ज्ञान की शाखाओं को अलग-अलग मानना होगा। सारी बातों का
श्रेय हम धर्म को नहीं दे सकते। उसी अनुपात में सभ्यता संस्कृति के
निर्माण में अलग-अलग श्रेय सब शाखाओं को देना होगा।
हमारी पूरी संस्कृति और सभ्यता ज्ञानविज्ञान के संचय का एक सामूहिक
स्वरूप है। इस के विपरीत अधिकतर धर्म तो केवल ईश्वर और आत्मा के
अलग-अलग स्तरों, सम्बन्धों, विलय के अलग-अलग साधनों-व्यवहारों की
अनन्त व्याख्याओं पर आधारित रहे।
(3)
नैतिकता को धर्म से जबरदस्ती जोड़ा गया है। ठीक उसी तरह से जैसे जीवन
के बाकी नियमों को धर्म से जोड़ कर देखने का रिवाज़ था। जैसे सारी
सामाजिक बुराईयों को अनैतिक समझा जाता था और धर्म से जोड़ कर उन्हें
पाप से जोड़ दिया जाता था। चोरी करना पाप है, झूठ बोलना पाप है, किसी
की हत्या करना पाप है। परस्त्रीगमन महापाप है। लेकिन किसी ऊंचे
उद्देश्य के लिए ये सभी कर्म जायज़ हैं, किए जा सकते हैं। किसी की
सहायता के लिए झूठ बोलना, चोरी करना पाप नहीं। किसी पापी की, आततायी
की हत्या करना पाप नहीं। खास उद्देश्य के लिए परस्त्रीगमन पाप नहीं।
परपुरुषगमन भी पाप नहीं। इसी तरह की अनेक उथलीपुथली नैतिकताएं हर
धर्म में, हर समय में रही हैं। आधारभूत नैतिक मूल्य नाम की कोई चीज़
एक जैसी एक भी जगह कभी नहीं रही। लेकिन धर्मों ने नैतिकता का राग
बहुत ज़्यादा अलापा है। व्यक्तियों, समूहों, आचरण समूहों को अनैतिक
कह कर दुत्कारा है। अनैतिक कर्म करने पर निर्मम हत्याएं की गईं हैं -
स्त्रियों की ज़्यादा, पुरुषों की कम। सब से तेज़ धार हथियार धर्म के
हाथ में नैतिकता रही है। जिसे मर्जी समय और धर्म के अनुसार अनैतिक
कहकर दंडित किया जा सकता है।
नैतिकता का कोई स्थिर निश्चित स्वरूप न होने की स्थिति में समर्थ लोग
हमेशा अनैतिक को नैतिक और नैतिक को अनैतिक सिद्ध कर सकते हैं। आज
नैतिकता वैसे भी असंगत और अर्थहीन हो चुकी है। आज कानून निर्धारित
करता है कि हम क्या कर सकते हैं, क्या नहीं। चोरी सभी के लिए जुर्म
है चाहे किसी की मदद के लिए की गई हो। इसी तरह सभी आचरणों के लिए
कानून हैं। सज़ा दी जा सकती है या नहीं, ठीक या गलत, कानून निश्चित
करता है। धर्म और नैतिकता की उपयोगिता इन क्षेत्रों में बिल्कुल
अर्थहीन हो गई है। कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें कानून द्वारा
सिद्ध-असिद्ध नहीं किया जा सकता, वे शायद नैतिकता में आती हों। लेकिन
वह नितांत सामाजिक स्तर पर होगा, धर्म का उससे कोई सम्बन्ध नहीं
होगा। जैसे किसी को गन्दी गाली देना, अपमान करना, शायद किसी कचहरी
में दण्ड का भागी न सिद्ध किया जा सके, लेकिन सामाजिक स्तर पर इन्हें
हम अनैतिक कह कर ही दुत्कारेंगे। धर्म वाले वैसे भी इन छोटे मामलों
में टांग नहीं अड़ाते। कानूनों-कायदों के दौर में क्या करना चाहिए,
क्या नहीं, आज इतना महत्व नहीं रखता। क्या किया जा सकता है और क्या
करने की इजाजत कानून नहीं देता, इस बात का ही महत्व अधिक है। इसलिए
नैतिकता का प्रश्न किसी भी तरह धर्म के साथ जोड़ने का महत्व नहीं
रहा।
हाँ, यदि गम्भीरता और ईमानदारी से नैतिकता को लिया जाए, तो ऊंची आवाज
में कहा जा सकता है कि अमेरिका का ईराक पर आक्रमण अनैतिक कार्य है।
इतने देशों पर इतने लम्बे समय तक धींगामस्ती से राज्य करना, कौमों को
गुलाम बनाना, जगह-जगह सैनिक और राजनैतिक हस्तक्षेप करना इत्यादि महा
अनैतिक कर्म थे और आज भी हैं। इन सब अनैतिकताओं का भी धर्म से कभी
कोई संबंध नहीं रहा। असली अनैतिकताओं का धर्म ने कभी विरोध नहीं
किया। बल्कि इसके विपरीत इतिहास की सब से बड़ी अनैतिकताएं धर्म ने ही
इन्सानियत पर थोपीं। एक पूरे मनव समूह को शूद्र बना कर अछूत रखा और
स्त्रियों को नर्क का द्वार कहा। सामाजिक अनैतिकता का सब से बड़ा
उदाहरण अमेरिका और कई दूसरे देशों में लम्बे समय तक रहा जब काले
अफ्रीकनों को जानवरों से भी बदतर गुलाम बना कर लाया गया और यातनाएं
दी गई और हर मानव अधिकार से वंचित रखा गया। यह भी धर्म की अनैतिकता
की श्रेणी में कभी नहीं आया।
कानून कायदों की अवहेलना जहां दण्डित न हो सकती हो, वह अनैतिक
व्यवस्था है। निर्बल और असहाय की प्रताड़ना जहां संभव हो, वह अनैतिक
व्यवस्था है। व्यक्तिगत रूप में भी और सामूहिक रूप में भी हमेशा ही
धर्म ऐसी व्यवस्थाओं, अनियमों, अनियमिताओं, क्रूरताओं का घर रहा है।
धर्म की नैतिकता और उस का क्षेत्र बहुत सकुंचित सीमित रहा है। आज जो
अनैतिकताएं चारों तरफ़ लगातार हो रही हैं, धर्म वाले उन से अपना कोई
सम्बन्ध नहीं देखते। इसलिए नैतिकता के प्रश्न को सिर्फ़ सामाजिक या
राजनैतिक मुद्दा मान कर ही देखा जाना चाहिए। धर्म से इस को खारिज कर
देना चाहिए। मानवीय मूल्यों का पालन या हनन आज नैतिक, अनैतिक मुद्दे
हैं। इनके लिए भी मानवाधिकार संस्थान (Human Rights Commission) तथा
अन्य संस्थाएं हैं, वे सभी सामाजिक या राजनैतिक इकाईयां हैं। धर्म का
वहां कोई दखल नहीं। धर्म वाले अपने प्रवचनों, कथा-कीर्तन, भजन-पूजन
में, आत्म-उत्थान में ही लगे हुए हैं।
(4)
धर्म और अहंकार मिल कर क्रूर अनुभवों की रचना करते हैं। सामर्थ्य,
सत्ता और महत्वाकांक्षा किसी भी भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ, माला, तस्बीह
से कहीं ज़्यादा प्रभावशाली रहती है। हालांकि दुनिया के सब से बड़े
धर्म ईसाइयत का शुरुआती इतिहास ऐसा रहा है जैसे किसी क्रूरता के
खिलाफ़ जन-आंदोलन का इतिहास होता है। गरीब या निचले तबके के लोगों ने
ऊपर वाले तबकों से लड़ कर ईसाइयत का आधार रखा। पिछले गरीब देहाती
किसानों ने बड़े ताल्लुकदारों, जमींदारों से मुक्ति का स्वप्न ईसाई
एकता में देखा। लेकिन सत्ता आते ही, राजाओं का धर्म बनते ही,
पादरियों की फौज के हत्थे चढ़ते ही, महाराजाओं के महाराजा पोप ऑफ़
रोम का स्वर्ण सिहांसन बनते ही - युद्ध , जीत-हार और नरसंहार का
इतिहास शुरू हो गया जो अब तक जारी है।
रामायण, महाभारत से लेकर सिकंदर, साईरस, मौर्यवंश, गुप्तवंश, चाऊ
वंश, बाबर, अकबर, औरंगज़ेब, उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम में सभी शासक
आपस में लड़ते-मरते रहे हैं। लेकिन फौजों के अतिरिक्त दूसरी जनक्षति
उन युद्धों में कम ही होती थी। जनता को रौंदते हुए मंगोलों और
अब्दाली जैसी मिसालें कम ही हैं। लेकिन धर्म को लेकर हुए युद्धों में
जितने मासूम लोग कटे, उनकी गिनती इतिहास के पास नहीं है। धर्म
युद्धों के बाद धार्मिक जनउन्मादों की असंख्य घटनाएं हुईं लाखों
लोगों को जानमाल, असबाब से वंचित करती हुईं।
बड़े-धार्मिक युद्ध हुए 1095 से, जब रोमन कैथोलिक धर्माधिकारी पोप
ईनोसेन्ट ।। ने पश्चिम योरोप के सभी राजाओं और जनता को धर्म का
वास्ता देकर इक्ट्ठा किया। इस्लाम के खिलाफ़ धर्म-युद्ध छेड़ देने
को ललकारा क्योंकि अरब की मुस्लिम शक्तियों ने जेरूसलम पर कब्जा कर
लिया था। पूर्वी योरोप, उत्तरी अफ्रीका इत्यादि सब इस्लाम के कब्ज़े
में थे। पोप ने कहा कि यह ईश्वर के हक की लड़ाई होगी। जो लोग इस
युद्ध में मरेंगे, वे पाप मुक्त हो जाएंगे और उन्हें स्वर्ग में जगह
मिलेगी। जिन लोगों ने भी यह धर्मोन्माद का संदेश सुना वे पागल हो
उठे, ईश्वर की इच्छा समझकर वे अपना झोला और हथियार उठाकर युद्ध में
कूद पड़े। सारे योरोप से लाखों आदमी, औरतें, बच्चे, भूमिधरों,
राजघरानों से लेकर भिखारियों तक, साधारण जन से लेकर मुजरिमों और
वेश्याओं तक ने इस युद्ध में शामिल होना अपना भाग्य समझा। जेरूसलम को
आज़ाद कराना था मुस्लिम गद्दारों से जिन्हें तब के ईसाई सिर्फ़
आततायी और जालिम समझते थे। ये उन्मादी फौजें योरोप को पार करतीं,
पूर्वी रोमन साम्राज्य - (अब ग्रीस और इटली) से गुज़रतीं, कत्लेआम
करतीं आगे बढ़ती गईं। उन्होंने रास्ते में यहूदियों को बेरहमी से
मारा। अपने ईसाइयों को भी खूब लूटा। दो साल के इस रक्तिम धार्मिक
यात्रा के बाद 1097 में ये ईसाई उन्मादी फौजें मध्यपूर्व के
क्षेत्रों में पहुंच गर्इ। वहां इन्होंने मुस्लिम फौजों को हराया और
1099 में जेरूसलम पर पुनः कब्ज़ा कर लिया। इन उन्मादियों ने किसी
नियम का पालन नहीं किया। औरतों, बच्चों, बूढ़ों, सभी को बेरहमी से
कत्ल किया। इस धर्म युद्ध के ही एक चितेरे (जो इस युद्ध में शामिल
था), लार्ड रेमन्ड आफ़ एग्वाईलज़ ने इस युद्ध का वर्णन करते हुए
लिखा है -
''बेहद अजीब दृश्य थे। हमारे जो सिपाही ज़्यादा दयावान थे, उन्होंने
शत्रुओं के सिर्फ़ सिर काटे, दूसरों ने उन्हें यातनाएं देकर मारा।
उन्हें आग में फेंक दिया। घुटनों तक गहरे खून में उन के घोड़े चल रहे
थे। उन की लगामें खून में भीगी रहती थीं। ये ईश्वर का शानदार इन्साफ़
था कि ये स्थान अधर्मियों के खून से सन गया था।''
ईश्वर का न्याय यह भी था कि बारहवीं सदी में एक और खून-खराबे के बाद
जेरूसलम फिर से मुस्लिम सिपेहसालार सलाहद्दीन ने ईसाइयों से छीन लिया
था। पन्द्रहवीं सदी में फिर तुर्की मुसलमानों ने योरोप को अपना
निशाना बनाया। पूर्वी योरोप में कान्सटेन्टिनोपल पर कब्ज़ा किया। ये
लड़ाईयां सतारहवीं सदी तक चलती रहीं। नरसंहार जारी रहा। धर्म
फलते-फूलते रहे। इस्लाम और ईसाइयत के बीच यह युद्ध आज भी जारी है।
देखने वाले इसे राजनीतिक कारणों से जोड़ कर देखते रह सकते हैं लेकिन
आज इस संघर्ष को धर्म का ही संघर्ष मानने वालों की भी कमी नहीं है।
Huntington का Clash of Civilizations लेख इस बात को बेहिचक बयान
करता है।
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बड़ी हैरानी की बात है कि आज से ढाई हज़ार साल पहले ही धर्म अपनी
क्रूर पाशविक व्यावहारिक स्थिति में पहुंच गया था। ईसाई धर्म का,
इस्लाम धर्म का तब उदय नहीं हुआ था। ब्राह्मणवाद तथा उसी से
मिलती-जुलती व्यवस्थाओं से जुड़े कर्मकाण्ड तब अपने शिखर पर पहुंचे
हुए थे। ऐसे ही समय में महात्मा बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 563 के
आस-पास हुआ था, यानी लगभग छब्बीस सौ साल पहले। बुद्ध ने अपने समय में
होने वाले ब्राह्मणवाद को चुनौती दी थी। कर्मकाण्ड के पाखण्ड को
चुनौती दी थी। समाधि से उठने पर बुद्ध को जब लोगों ने पूछा कि आप कौन
हैं? क्या कोई देवता हैं जिसे ईश्वर ने धरती पर भेजा है? बुद्ध ने
जवाब दिया - मैं केवल जागृत हूं। वही एक शब्द 'जागृत' उन के जीवन का
मूलमन्त्र बन गया। ईश्वर की प्रप्ति के लिए और आत्मा परमात्मा के
आपसी सम्बन्ध को लेकर जो भी कर्मकाण्ड और उस से जुड़ी रीति-नीति थी
बुद्ध ने नकार दी। ईश्वर की बात ही नहीं की। है तो है, नहीं है तो
नहीं है। ईश्वर रहित विश्व की पहली कल्पना उस जागृत महामानव ने की
थी। धर्म के जितने शक्तिस्तम्भ रहे हैं, बुद्ध ने सब का खण्डन किया।
एक आश्चर्यचकित कर देने वाली क्रांति बुद्ध ने अपने समय में की थी।
लेकिन धर्म का शिकन्जा टूटता नहीं, कुछ समय के लिए, कुछ स्थानों पर
ढीला शायद पड़ जाता हो। ब्राह्मणवाद ने भारत पर फिर कब्जा किया था।
उस से भी कहीं ज़्यादा क्रूर रूप में। बुद्ध धर्म भी समय के साथ उतना
ही कथावादी और अवतारवादी, कर्मकाण्डी और अन्धविश्वासी हो गया था।
इसी तरह हमारे पड़ोसी देश चीन में भी हुआ। लगभग उसी समय बुद्ध
(सिद्धार्थ) के करीब 15 साल आगे-पीछे के अन्तराल में एक महापुरुष ने,
जिसका आज कोई सानी नहीं। हालांकि बुद्ध धर्म चीन में रहा, लेकिन
प्रभावित आज भी चीन को वही महापुरुष करता है, जिसका नाम कंगफुत्ज़ू
(कन्फ्यूशियस) था और जो ईसा से लगभग साढ़े पांच सौ साल पहले पैदा
हुआ। उस का समयकाल चीन के इतिहास में बेहद उथल-पुथल का था। चाऊ वंश
अपने पांच सौ साल पूरे करते-करते अपना प्रभुत्व खो चुका था।
छोटे-बड़े भूमिधरों और रजवाड़ों में रक्तपात का माहौल पैदा हुआ था।
लाखों लोग मौत के घाट उतारे जा रहे था। समाज को इक्ट्ठा रखने वाली
पारम्परिक शक्तियां एक-एक कर टूट रही थीं। कंगफुत्ज़ू चाऊ वंश की
सुनहरी परम्पराओं को फिर से एक नये ढंग से स्थापित करना चाहता था।
उसने भी चीन को वही बुद्ध वाला मार्ग ही सुझाया। ईश्वर को इस
महापुरुष ने भी याद नहीं किया।
इस तरह की शक्तिशाली सोच भारत और चीन में एक ही समय उदय हुई। बुद्ध
और कंगफुत्ज़ू से लेकर ईसा तक लगभग पांच सौ साल का अन्तराल है। इस
बीच का इतिहास धर्म और दूसरे ज्ञान-दर्शनों का इतिहास है। भारत में
उपनिषद काल यही था। ग्रीस का स्वर्णकाल का यही समय था जब हर क्षेत्र
में ऊंचाईयां हासिल हुईं, सिर्फ़ सिकन्दर जैसे विजेता ही नहीं हुए।
सुकरात, प्लाटो और एरिस्टोटल जैसी त्रिकालदर्शी त्रिमूर्ति के
कार्यकाल का अन्तराल भी वही था। इस से कुछ पहले अपने समय का सब से
घुमन्तू इतिहासकार हिरोडो़टस हो चुका था, बुद्ध से कोई चार वर्ष
पहले। बुद्ध और ईसा के बीच अनेकानेक वैज्ञानिक और दार्शनिक हुए।
पाईथागोरस, एनैक्सागोरस जैसे वैज्ञानिक, होमर, विरजिल, होरेस, ओविड
जैसे कवि, सोफोक्लीज़, यूरीपिडीज़ और एरिस्टोफेन्स जैसे नाटककार भी
उसी अन्तराल में हुए। इन पांच सौ वर्षों ने पूर्व और पश्चिम दोनों
गोलार्द्धों में इतना ज्ञान और दर्शन संचित किया जो आज तक हमारी कभी
न खत्म होने वाली निधि बनी हुई है।
जैसा प्रकाश ज्ञानविज्ञान और साहित्य का उस समय के आकाश को जगमगा रहा
था, आज इतनी दूर बैठे हुए हम, ख़ासतौर पर स्याह काली सदियों से निकल
कर आए हुए हम, उस की कल्पना से सिहर उठते हैं। उस समय का प्रकाश आज
के वैज्ञानिक प्रकाश से पूर्णतयः भिन्न था। वह सुकरात की मासूम लेकिन
ज़िद्दी प्रश्नाकुलता, प्लाटो के आदर्शवाद, एरिस्टोटल की सहज
बुद्धिमता का समय था। देवताओं से लड़ते हुए महामानवों की धीर ऊर्जा
का समय था। गणित और नक्षत्रों के ज्ञान का उदय हो रहा था। भारत में
भगवत्गीता का समय भी वही था, उपनिषदों का समय भी वही था। महावीर
स्वामी और पातंजलि भी उसी समय हुए। चीन में भी दार्शनिकों की लम्बी
कतार थी। जीवन-मरण, धरती-आकाश, लोक-परलोक के रहस्यों को जानना ही
जैसे उन पांच सौ वर्षों का पागलपन रहा हो। तब के पांच सौ वर्षों का
पागलपन इन्सानी इतिहास में एक लम्बे चमकदार दिन जैसा था जिस के बाद
घनी काली रात का आना ही जैसे अनिवार्य हो।
इन पांच सौ सालों के अन्तिम छोर पर ईसा का जन्म उस समय हुआ जब
यहूदियों पर रोमनों की बर्बर क्रूरताएं टूट रही थीं। उन्हें सभी
मानवाधिकारों से वंचित - एक तरह से गुलामी का जीवन जीना पड़ रहा था।
यहूदियों के समाज में धार्मिक पवित्रता-अपवित्राता के नाम पर कड़ा
विभाजन था। जीसस ने सारे वर्गीकरण को नकारा। असली बात है सहृदयता और
सभी का स्वीकार। ईश्वर के लिए कोई पापी नहीं, ईश्वर सब को प्यार करता
है। ईश्वर की नज़र में सभी एक हैं। ऐसा प्रचार जीसस का रहा। बाद में
ही जीसस के अनुयायियों ने जीसस के क्रास पर चढ़ने के उपरान्त, उनके
पुनः जीवित हो उठने को आधार बना लिया, चर्च की संस्था स्थापित करने
का। देखते ही देखते चर्च की संस्था ने पाप-पुण्य के आधार पर नरक और
स्वर्ग के जाने का मार्ग पक्का किया। हम सभी पापी हैं और ईश्वर से ही
अपने पापों को क्षमा करवाना है - अपने कामों से, स्वीकरोक्तियों से।
जन्म से मरण तक सारा जीवन चर्च की गिरफ्त में आ गया। वही ब्राह्मणवाद
ईसाई महन्तों में आ गया। राजा से रंक तक सभी चर्च की शरण में आ गये।
पादरियों, बिशपों, आर्क बिशपों का जाल फैल गया। हर वैज्ञानिक प्रगति
के रास्ते में आने वाली संस्था चर्च रहा। व्यक्तिगत आज़ादी का कट्टर
विरोधी चर्च रहा।
ईसा और बुद्ध की तरह ही अपने वक्त की ज़रूरत थी एक और पैगम्बर का
उदय। उस मरूस्थली भाग में जब लोग तरह-तरह की पशु पूजा से लेकर
अनेकानेक ईश्वरों को मान कर आपस में लड़भिड़ रहे थे, डाकाजनी उस
रेगिस्तान में शूरवीरता का प्रतीक बना हुआ था। खुशहाली वहां कभी थी
ही नहीं। छठी सदी के आसपास तो वहां का सियासी निज़ाम भी बिलकुल दरहम
बरहम हो चुका था। कोई इन्सानी या खुदाई इन्साफ़ कहीं कारगर नहीं था।
ऐसे वक्त में हज़रत मुहम्मद का जन्म मक्का के बड़े खानदान में सन्
570 ईसवी में हुआ। मुहम्मद ने अपने 23 वर्षों के तप और दैवी उदघोषों
के आधार पर ज़िन्दगी का एक मानचित्र उस दुनिया को दिया। सभी ईश्वरों
से उपर सिर्फ़ एक ही ईश्वर है 'अल्लाह'। सिर्फ़ उसी की परस्तिश में
निजात है। उन के दुश्मनों की कमी नहीं रही। मक्का में फैली 360
मस्जिदों को खतरा पैदा हो गया। साल के हर दिन के लिये एक अलग-अलग
पूजा-घर था। इन्हीं को हज़रत मुहम्मद ने चुनौती दी थी।
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सभी महापुरुष अपने दैवी आध्यात्मिक प्रभाव में केवल अपने ही समय में
प्रभावशाली रहे दीखते हैं। सौ पचास साल बीतते-बीतते उन के सिद्धांतों
को अपने स्वार्थों के लिए प्रयोग करने वाली वही लौकिक शक्तियां इस
संसार को वैसा ही, बल्कि और अन्धकारमय बना देती हैं। इन स्वार्थी
तत्वों को एक बनी-बनाई संस्था मिल जाती है। एक मंच पर एक छत्र के
नीचे खड़े लोगों की मासूम भीड़ मिल जाती है। मंच खड़ा करना आसान
प्रक्रिया नहीं होती। ये धूर्त लोग मंच खड़ा करने की शक्ति नहीं
रखते। ये हमेशा बने बनाए मंचों को ही हथियाते हैं। धर्म का मंच
हथियाना हमेशा ही आसान इसलिए होता है कि उसमें किसी को एकदम कुछ देने
का वायदा नहीं करना पड़ता। स्वर्ग-नरक पाने के लिए मरने का इन्तज़ार
करना पड़ता है।
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मध्य युद्ध के काफी आगे तक नया ज्ञान-विज्ञान शैतानियत मानी जाती
रही है। सब से बड़ा दोष रहा है अपनी अलग आज़ाद सोच। अधार्मिक सोच
नहीं, धर्माधिकारियों के बनाए लौह यन्त्र के बाहर रहने की सोच। एक
नृशंस सत्य है कि युग चेतना धार्मिक संस्थागत यातनाओं, हत्याओं और
सामूहिक दैत्य कुकृत्यों को मूक-बधिर होकर देख-सुन और सह लेती थी।
विरोध की कोई कंकरी भी इस घोर महासमुद्र में नहीं गिरती थी।
कोई भी आज़ाद सोच जो धर्म के लिए ज़रा भी चुनौती बने, उसे कड़े से
कड़े दण्ड देने की अनुमति धर्माधिकारियों ने जाने कहां से प्राप्त की
हुई थी। उन की शक्ति ही शास्त्र संगत मानी जाती थी। धर्म द्वारा
दण्डित और आहत लोगों की न कोई गणना है, न स्वरूप। चारों तरफ़
चींटियों की तरह लकीर में चलते हुए मानव-समूह धर्म की अगवाही और
पिछवाही में व्यतीत और अतीत होते रहते थे। धरती पर और आकाश में भी
उनका भाग्य दृश्य और अदृश्य धार्मिक महन्तों-सामन्तों के चरण कमलों
में था। लेकिन कभी-कभी ऐसी आंधी भी आती है, थोड़ी देर के लिए ही सही
कि वृक्ष पर एक पत्ता भी नहीं रहता। ऐसी ही आंधी मध्ययुग में जोन ऑफ़
आर्क बन कर आई थी। तीन वर्ष में ही एक किशोरी ने नीचे से ऊपर तक धर्म
वृक्ष को झिंझोड़ दिया था। इस फ्रांसीसी युवती ने स्वयं दैवी आवाज़ें
सुनने और उन के अनुसार चलने का दावा किया। उसने पुरुषों जैसे कपड़े
पहनकर सब के धार्मिक और नैतिक शील को भंग किया। अपने देश फ्रांस के
राजा और देश की रक्षा के लिए फौजों का नेतृत्व किया, बड़े-बड़े
सेनापतियों को अंगूठा दिखाया और फ्रांस के शत्रुओं को हराया। लेकिन
ऐसी शक्तिशाली 17-18 वर्षीय युवती को धर्म वाले कैसे सहन कर सकते थे।
उस पर जादूगरनी होने का, धर्म के प्रतिनिधियों के खिलाफ जाने का,
अपनी निजी आवाज़ें सुनने का आरोप लगाया गया। धर्म की अदालत बिठायी गई
और चौराहे पर ज़िन्दा ज़ला दिये जाने की सज़ा सुनाई गई। जोन को लालच
दिया गया कि वह क्षमा मांग ले, अपने पाप स्वीकार कर ले, चर्च की शरण
में आ जाए तो उस की जान बख्श दी जाएगी। जान का नहीं, आज़ादी का लालच
उसे क्षणिक प्रलोभन में डा़लता है। जार्ज बर्नाड शॉ अपने नाटक 'सेन्ट
जोन' में इन क्षणों को बांधता हैं। धार्मिक उद्दण्डता और व्यक्ति की
आज़ादी को जीवन्त करती यह साहित्यिक कृति जोन ऑफ आर्क को पुनः जीवित
कर देती है।
आखिर जोन को चौराहे पर आग के हवाले कर दिया गया। चर्च को लगभग छः सौ
साल लगे अपनी गलती स्वीकार करने में जब 1920 में उन्होंने जोन को
'सेन्ट जोन' की उपाधि से विभूषित किया। जोन व्यक्तिगत आज़ादी का
ज्वलन्त प्रतीक है। जोन का ज्ञान उस की आवाज़ें थीं जो चर्च के लिए
ख़तरा बन गई। जोन ऑफ़ आर्क आज भी चौराहे पर खड़ी है। चिताएं आज भी
उसके लिए तैयार हैं।
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गैलिलियो, कोपरनिकस, ब्रूनो को बारबार याद किये जाने पर भी आज़ाद सोच
और ज्ञान-विज्ञान का विरोध और तरह-तरह की भोंडी धुंध में लिपटी
अस्पष्ट तार्किकता की ज़िद जारी है। पिछली सदी में डार्विन ने विकास
सिद्धांत रखा, छोटी सी बात कि यह दुनिया किसी ने एक जगह बैठ कर सात
दिन या सात वर्षों में नहीं बनाई। धर्म का कोई भी बुनियादी असूल इस
जानकारी से खंडित नहीं होता। निर्मल, स्वच्छ हृदय से स्वीकार किया जा
सकता है कि धर्मग्रन्थों का ज्ञान अपने समय में सीमित था। नई
जानकारियां किसी भी धर्म के ईश्वर और उस से जुड़े मान्यताओं के
रास्ते में नहीं आतीं। एक स्पष्टीकरण के तौर पर भी धर्म वाले इन
विकासों को मान-अपमान का सवाल बनाए रखते हैं। विकासवाद को सीधे-सीधे
न मान कर एक विज्ञविकास (Intelligent Design) की बात करते हैं। कहते
हैं ईश्वर ने सोच-समझ कर अलग-अलग अन्तराल में जीवों की रचना की,
इसलिए जो कुछ सीधा विकास की श्रृंखला में नहीं बैठता, जहां एक भी
कड़ी टूटी हुई लगती है - वही ईश्वरीय विज्ञता है। वे कहते हैं कि
विकासवादी इन अनुपस्थित कड़ियों का कारण नहीं बता सकते।
''इन्टैलिजेन्ट डिज़ाईन'' (विज्ञप्रयोजन) नाम से परम्परावादियों ने
विकास सिद्धांत का नया संस्करण प्रस्तुत करते हुए अमेरिका के स्कूल
कालिजों में इस विज्ञप्रयोजन सिद्धांत को डा़र्विन के विकास सिद्धांत
के बराबर रख कर पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाने की मांग की। एक फैडरल
कोर्ट ने इस सिद्धांत को एक छद्म विज्ञान (Pseudo Science) कह कर
खारिज कर दिया। लेकिन ज़िद जारी है। सितम्बर, 2007 के टाईम मैगजीन
में दो प्रख्यात वैज्ञानिकों की बातचीत प्रकाशित की गई है - ईश्वर
बनाम विज्ञान God vs.Science के अर्न्तगत। रिचर्ड डाकिन्स एक
बायोलोजिस्ट और फ्रांसिस कालिन्ज़ एक जैनेटिस्ट की बातचीत से ज्ञान
और विश्वास के तर्क-वितर्क से यह धुंध भरा आकाश साफ़ नहीं होता।
विज्ञान के अनुसार जो कुछ भी संभावना के अर्न्तगत आ सकता है, वही
सत्य है। लेकिन विश्वास वाले क्रिश्चियन वैज्ञानिक का तर्क है कि
संभावना ईश्वर की स्वतन्त्र इच्छा का परिणाम है। ईश्वर ने करोड़ों
साल इस संसार को मनुष्य की रचना के लिए स्थगित रखा था। विकास
प्रक्रिया अपनी इच्छा से जारी रखी। भौतिकी वाले कहते हैं कि
गुरुत्वाकर्षण का अनुपात यदि एक लाखवां हिस्सा भी इधर से उधर होता तो
यह विश्व उस महान विस्फोट के बाद संभव न होता। प्रोफ़ेसर डाकिन्स का
उत्तर डा. कालिन्ज़ के पास सीधा है कि अनुपात तय करना या छः निश्चित
इकाइयों में से किसी को बदलना, ईश्वर ही तय करता है। जो हमारे सामने
नहीं है, जिसे हम जानते नहीं उस की संभावना का स्त्रोत ईश्वर ही है।
ईश्वर के होने और न होने की बहस सिर्फ़ इसी बात पर समाप्त नहीं होती।
इस बारे में बुद्ध की तरह चुप्पी साध ली जा सकती है। लेकिन ईश्वर के
नाम पर फैलाए गये तमाम अन्धेरों में कब तक ठोकरें खाता फिरे इन्सान -
सवाल इस बात का है। नास्तिकता पर पिछले दो वर्षों में अनेक किताबें
आईं जो लाखों की संख्या में बिकीं लेकिन सिर्फ़ नास्तिकता के खप्पर
में इन्सानी न्याय तो नहीं परोसा जा सकता। इन्सान की आज़ादी को
दूर-दूर तक धार्मिक विश्वासों ने कुंठित किया है। साधारण भोजन के
नियमों से लेकर यौनाचार तक के नियम प्रतिपादित किये हैं। बर्थ
कन्ट्रोल का उत्कट विरोधी धर्म रहा है। भ्रूण हत्या के नाम पर
धर्मवालों ने बावेला खड़ा कर के रखा है। दुनिया भर के जीवों को
मार-मार कर खा जाने वाले धार्मिक विश्वास के लोग भ्रूण जीवन की
चिन्ता में पड़े हुए हैं। दूसरी तरफ़ जीव हत्या के विरोधी धर्म के
नाम पर नरसंहार को जायज़ मानते हैं। सुबह उठते ही धर्म का अंकुश लगना
शुरू हो जाता है। नैतिकता धर्म का आविष्कार है। कपड़े पहनने से लेकर
कपड़े उतारने तक पर नैतिकता का अंकुश है। वासना कोई हो, अनैतिक है।
कामना अनैतिक नहीं है। सुबह से शाम तक हर चीज़ की कामना करो और उसे
प्राप्त करने का प्रयत्न करो, पूजा-पाठ करो, गुरू की शरण गहो।
व्यक्ति जब तक सो नहीं जाता या मर नहीं जाता, धर्म वाले उस के आचरण
को अनुशासित करना चाहते हैं। कई लोग कहते सुने जाते हैं कि हम पर तो
कोई रोक-टोक नहीं, हम जैसे चाहें, अपनी मर्ज़ी से जीते हैं। हम तो
धार्मिकता या नैतिकता के चक्कर में नहीं पड़ते। हम नैतिक, अनैतिक की
परवाह नहीं करते। उन्हें पता नहीं है कि वे कुछ भी अनैतिक करेंगे तो
आस-पास वाले उन्हें छोड़ेंगे नहीं। आस-पास वाले सभी अघोषित रूप से
नैतिकता के सिपाही होते है । उन्हें पता भी नहीं होता कि उन के अन्तस
और सहज बुद्धि के तार कहां से नियन्त्रित हो रहे हैं। इतने गहरे
संस्कार और प्रवृतियां हैं कि उन्हें सरल तरीके से धार्मिक भी नहीं
कह सकते। देखने में वे सब सामाजिक नियम जैसे लगते हैं लेकिन वे समाज
के बनाए नियम नहीं हैं। वे धार्मिक समाज के नियम हैं जो सदियों से
हमारी सोच का आधार और आचरण का आवरण बने हुए हैं। जितनी कट्टर
धार्मिकता जिस समाज में होगी, उतने ही गहरे और अदृश्य उस समाज के
नैतिक नियम होंगे।
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हमारे समय के उच्चतम शिखर पर बैठे हुए दार्शनिकों में बर्टरन्ड रसेल
एक ऐसे चिन्तक हुए हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को लेकर बहुत दूरगामी
दृष्टि हमें दी है। अपने लेख Has Religion made Useful Contribution
To Religion में वे कहते हैं ईसाई धर्म के बारे में कि ''ऐतिहासिक और
सामाजिक दृष्टि से सब से अधिक महत्वपूर्ण चर्च है, जीसस नहीं। अगर हम
ईसाई धर्म को एक सामाजिक शक्ति के रूप में आंकना चाहें तो हमें
Gospels (जीसस के उपदेशों) पर नहीं जाना चाहिए। जीसस हमें सिखाते हैं
कि अपना सब कुछ गरीबों को दे दो, कि तुम्हें लड़ना नहीं चाहिए, कि
तुम्हें चर्च नहीं जाना चाहिए, कि तुम्हें adultery (पराई स्त्री से
सम्बन्ध रखने) की सज़ा नहीं देनी चाहिए। लेकिन किसी कैथोलिक या
प्रोटेस्टेण्ट ने इन्हें मानने की कभी भी इच्छा नहीं जताई। कुछ
फ्रांसिसकन्ज़ ने ज़रूर पैगम्बर वाली निर्धनता के आदर्श का प्रचार
करने की कोशिश की। लेकिन पोप ने उन्हें दुत्कारा और उन के सिद्धांतों
को धर्म से गद्दारी कहा। जो ईसाई धर्म के बारे में सही है, वही बुद्ध
धर्म के बारे में भी सही है। बुद्ध जागृत थे और बहुत उदार तथा
सहिष्णु थे। अपनी मृत्यु पर वे अपने शिष्यों पर हंसे जो उन्हें
अनश्वर समझते थे। लेकिन बुद्ध के बाद उन के पुजारी (भिक्षु) जैसा कि
तिब्बत में देखने को आया, बड़े अन्धविश्वासी और हद दर्जे के आततायी
और ज़ालिम रहे।''
तिब्बत के किस समय की वे बात करते हैं, हमें मालूम नहीं। लेकिन बौद्ध
मठों के बारे में उनकी यह बात सर्वविदित है। उन्होंने कहा कि कुछ साल
पहले एक जनमत जर्मनी में लिया गया था कि जो राजघराने अब अपने राज्य
से वंचित हो गए हैं क्या उन्हें अपनी निजी सम्पत्ति पर हक होना चाहिए
कि नहीं। तो चर्च ने एक विज्ञप्ति जारी की थी कि ईसाई धर्म के
सिद्धांत किसी की सम्पत्ति छीन लेने की आज्ञा नहीं देते।
धर्म ने गुलाम प्रथा समाप्त करने का भी विरोध किया और सामाजिक न्याय
को नहीं माना। किसी भी समाजवादी अर्थव्यवस्था को गलत ठहराया। एक
औपचारिक विज्ञप्ति में समाजवाद के खिलाफ़ फ़तवा जारी किया गया।
बर्टरन्ड रसेल कहते हैं कि एक धार्मिक व्यक्ति के लिए रिश्वतखोर इतना
क्रोध पैदा नहीं करता जितना एक दूसरी स्त्री के साथ सोने वाला
व्यक्ति पैदा करता है। उस का सारा दण्ड विधान यौन रूप से चरित्रहीन
व्यक्ति के लिए तत्पर है, सामाजिक व्यभिचार के लिए नहीं।
आंईस्टाईन आत्मा-परमात्मा के बारे में अपना कोई स्पष्ट मत नहीं देते।
वे तीन स्थितियों - भयजनित, नैतिक और ब्रह्माण्डीय धर्म (Cosmic
Religion) की बात करते हुए पहली दो की व्यथर्ता की चर्चा करते हैं।
वे कहते हैं कि मनुष्य को अपने आप को एक विस्तृत ब्रह्माण्ड का ही एक
हिस्सा मानकर देखना चाहिए। सांसारिक प्रयोजनों को अलग से सिद्ध करने
को वे कायरता और अहंकार का स्त्रोत मानते हैं। सभी बड़े दार्शनिकों,
वैज्ञानिकों ने धर्म को एक नकारात्मक शक्ति के रूप में ही देखा है
समाजवादी चिन्तकों ने सबसे ज़्यादा आक्रामक हो कर धर्म को नकारा है।
1994 में एक साक्षात्कार में नॉम चोमस्की कहते हैं कि एक जनमत के
अनुसार यह तथ्य सामने आया कि तीन चौथाई अमरीकन धार्मिक चमत्कारों में
यकीन रखते हैं। यह संख्या किसी भी अन्य विकासशील देश से ज़्यादा है।
(7)
आज धर्म के उग्र व्यवहारी पक्ष को देख कर इस के सारे पहलुओं की
उपयोगिता से जुड़े प्रश्न भी उग्र हो उठे हैं। इस बात के शिकार
सिर्फ़ वही नहीं है जिन्हें हम अनपढ़ कह कर भकोसते रहते हैं। बल्कि
वे इस श्रेणी में कम हैं जिनके पास ये सब कुछ करने के साधन इतने नहीं
हैं। वे मोटे-मोटे गुरू धारण करने की क्षमता नहीं रखते। उन्हें
चमचमाते, ऐश्वर्य महलों जैसे मन्दिरों में जाने का साहस भी नहीं
होता। धर्म-करम के लिए समय भी वे जुटा नहीं पाते। दो जून रोटी खट कर
उन्हें सिर्फ़ खाट चाहिए। अगले दिन फिर बदन तोड़ना है।
असली धर्म कर्म करने वाले तो वे हैं जिनके पास सब कुछ खो जाने का डर
है। वही हैं ये सब लोग जिन को हम समाज में पढ़ा-लिखा कह कर या साधन
सम्पन्न कह कर आदर देते हैं। गुरुओं, पूजा-स्थलों, तीर्थों,
कथा-कीर्तनों की शरण ग्रहण करने वालों में ज़्यादा हैं - हमारे
व्यापारी, डाक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, विश्वविद्यालयी
प्राध्यापक-अध्यापक, कुलपति, उपकुलपति, अफ़सर, वकील, प्रशासक,
राजनेता, अभिनेता। यही लोग आज धर्म को स्वर्णमंडित कर रहे हैं,
गुरुओं को जगमगाता रेशमी चोगा पहना रहे हैं।
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जब भी धर्म की बात चलती है तो किसी भी वैचारिक या यथार्थवादी ढंग से
चर्चा करना मुश्किल हो जाता है। एकदम धर्म के आदर्शों और मूल्यों की
बात लेकर तर्क-वितर्क होने लगता है। अस्पष्ट और अपारदर्शी तर्कों का
घटाटोप पैदा हो जाता है। जो वास्तव में आज या कभी भी इन्सानी धर्म का
कारोबारी हिस्सा रहा है या इन्सानी ज़िन्दगी को लेकर जो कुछ भी धर्म
के नाम पर घटित हुआ या हो रहा है, उसकी बात हमेशा ही उस राख के पहाड़
के नीचे दब कर रह जाती है जिन्हें ऊंचे आर्दशों, मूल्यों, नैतिकताओं
के नाम से धर्म के साथ जोड़ा जाता है। कोई भी ऊंची दृष्टि जीवन के
बारे में कहीं से भी आई हो, धर्म वाले उसे हथिया लेते हैं। धर्म ने
ही इन्सानियत को ऊंचाई बख्शी है, ऐसा ही धर्म प्रचार रहा है। जो काली
करतूतें, बर्बरताएं, असभ्य, कुकृत्य, हिंसा मानव जाति के भाग्य में
लिखी गईं, वो किन्हीं अन्य कुशक्तियों का प्रभाव था, धर्म का नहीं
ऐसा धर्म वालों का प्रचार रहा है। धर्म के हिसाब से ईसा के सभी
अनुयायी ईसा जैसे सच्चे हो सकते हैं, बुद्ध के सभी सच्चे अनुयायी
बुद्ध जैसे हो सकते हैं ऐसा प्रचार धार्मिक नेताओं का रहा है। उनके
अनुसार, दुनिया वाले धर्म को पूरी तरह से नहीं मानते। इसलिए सारे
पाप, कष्ट, दुख, यातनाएं हैं। वरना कोई सच्चा बौद्ध कैसे दुखी हो
सकता है? सच्चा ईसाई, सच्चा हिन्दू, सच्चा मुसलमान, सच्चा सिख, सच्चा
बौद्ध कैसे हुआ जा सकता है, उसे बताने वाले पंडितों, पादरियों,
मुल्लाओं की पूरी फौज हर समय मौजूद रही है। उस के लिए पूरे सिद्धांत,
रीति-नीति, कर्मकाण्ड, पूजा-अर्चना ज़रूरी है। पूरा विश्वास उन
प्रतिनिधियों पर ज़रूरी है। जैसा वे कहें, वही करने मानने से धर्म
बचेगा। इसी ठेकेदारी का सारा झगड़ा है। धर्म की उपयोगिताओं का छत्र
बड़ा विशाल रहा है। पहले जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था जिस का
निर्देशन धर्म न करता हो। धर्म की उपयोगिता हर प्रश्न से ऊपर थी।
असंदिग्ध थी। हज़ारों सालों तक कभी कम, कभी ज़्यादा यही तरीका रहा
है। उपयोगिता का प्रश्न अलग से उठाया ही नहीं जा सकता था। लेकिन आज
प्रश्न केवल उपयोगिता का है। धर्म की क्या उपयोगिता है? क्या
स्वर्ग-नरक में विश्वास किया जाए? क्या पाप-पुण्य के विधान को माना
जाए? क्या पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और देवी-देवताओं के मन वांछित फल
देने की शक्ति को माना जाए, क्या शिक्षा संस्थानों को धर्म के नियमों
पर चलाया जाए, पाठ्यक्रम निश्चित किये जाएं, प्रार्थनाएं की जाएं?
क्या हमारा न्याय-विधान धार्मिक ग्रन्थों या धार्मिक नेताओं के
निर्देशन में चले? क्या हमारे राजनीतिक दल धर्म से अगवाही लें? क्या
हमारे अर्थ-शास्त्री धर्म से आयोजित सिद्धांतों को ध्यान में रखें?
क्या विचार-धाराएं धर्म शास्त्रों के मार्ग से होकर आएं? क्या तर्क
संगत है? जन्म होते ही अपना भविष्य जानने की कोशिश करें, जन्म
कुण्डली बनवाएं? क्या अपने मन की शान्ति के लिए गुरू धारण करें? कैसे
जीवन जिया जाए-यह जानने के लिए किसी गुरू का प्रवचन सुनें? इन सब
बातों को किसी तरीके से अगर ज़िन्दगी से एकदम निकाल दिया जाए तो क्या
इन्सानियत के आदर्श मर जांएगे, हमारा आत्मविश्वास समाप्त हो जाएगा?
क्या हमारा जीवन अन्धकारमय हो जाएगा? क्या इन्सानी कौम एक दम ही दिशा
भ्रमित होकर भटकने लगेगी? क्या ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, राजनीति सब एक
झटके में कुन्द हो जाएंगे? हमारा दर्शन, कला, गीत-संगीत क्या एकदम
अर्थहीन हो जाएंगे? हमारा साहित्य क्या हमें दृष्टि देना बन्द कर
देगा? जो भी धर्म से इतर आज तक महापुरुषों ने सघन श्रम, त्याग और
साधना से अर्जित किया, जो ज्ञान-विज्ञान है क्या वह धराशायी हो
जाएगा? क्या ज़िन्दगी हमारे चिन्तकों, वैज्ञानिकों, समाज-सुधारकों,
दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों, विचारकों, शिक्षा-शास्त्रियों, अर्थ
शास्त्रियों, चिकित्सकों, न्याय-विधायकों, संस्कृति कर्मियों,
साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों, कारीगरों, कर्मियों द्वारा
अर्जित विशाल ज्ञान-अनुभव दृष्टि और मूल्यों के आधार पर चलने में
असमर्थ रहेगी?
उपयोगिता आज बड़ा प्रश्न है। धार्मिक स्थलों पर अरबों लोगों का अरबों
रुपया पैसा एक तरफ़, धर्म के नाम पर आज भी युद्ध रत संसार एक तरफ़ और
दूसरी तरफ़ एक-एक कौर को तरसती भूखी-नंगी मासूम-निर्दोष दुनिया, दवाई
की एक गोली के बिना मरते करोड़ों पवित्र इन्सान, साधनों से वंचित
गरीब शिक्षा-घर। आज उपयोगिता का सीधा सवाल आन खड़ा हुआ है। क्या
उपयोगिता है धर्म की, लकदक करते धर्मस्थलों की, स्वर्ग-नरक की,
देवी-देवताओं की, मठाधीशों की, भविष्य बताते करोड़ों कमाते
शास्त्रियों की उपयोगिता का प्रश्न ईश्वर के होने न होने से इतना
नहीं जुड़ता, ईश्वर के नाम पर होने वाले उन सारे हथकण्डों से जुड़ता
है जिन्होंने कुछ भी तर्क-संगत रहने नहीं दिया। मानव संसाधनों को सोख
लिया और ज्ञान-विज्ञान को ज्ञान-विज्ञान नहीं रहने दिया।
ज्ञान-विज्ञान को जीवन की शक्ति नहीं बनने दिया। ज्ञान-विज्ञान को
आस्था और अंधविश्वास की चौखट पर ही खड़े रखा। सब कुछ फिर से शुरू
करना होगा। इंसान को सिर्फ़ इन्सान बन कर अपना परिचय देना होगा।
हमारी प्राचीनता की जो सघनता और गहनता है वह हमारी चेतना को अप्रयास
ही संवाहित करती रहेगी। वह समाप्त नहीं होगी। हमारा दर्शन, कला,
संगीत जो भी हमें आंदोलित, प्रवाहित करता रहा है, वह अधिक शुद्ध और
पवित्र होकर हमारी मानसिक ऊर्जा को एक तेज़ रोशनी की तरह प्रज्जवलित
रखेगा। हमें आजकल के ज्ञान-विज्ञान की लोलुप क्षुद्रताओं से सचेत
करता रहेगा। वह हमारी दूरदर्शिता और दूरगामिता का अजस्त्र स्त्रोत
बना रहेगा। वह हम से कोई नहीं छीन सकता। लेकिन आज की अनिवार्यता यही
है कि हमें एक धार्मिक अपरिचय की स्थिति में आना होगा।
(दिसम्बर 2007)