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कैसे निश्चित करें कि कहां से शुरू करना चाहिए। कौन सा ऐसा अत्याचारी
यौनाचार है जिसे आंख ओझल कर दिया जाए, झूठ मान लिया जाए, कल्पना या
दमित स्वेच्छायें कहकर दरकिनार कर दिया जाए। मनुष्यों का संसार दिखने
में अच्छा लगे, सिर्फ़ इस वजह से बहुत सी बातें न कहना ही सज्जनता
है। खुले आंगनों में जो सब के सामने नहीं हुआ उसे न हुआ ही मान लेना
चाहिए। अपनी ही जाति को इतना कलंकित करके देखने से क्या लाभ। साहस की
भी एक सीमा होती है। सांस रोक कर वीभत्स बातें कब तक भले लोग सुन
सकते हैं। ऊपर से इतनी सरल और सीधी जिन्दगी के नीचे झांकने की क्या
ज़रूरत है। यह शरीफ़ लोगों के गली-मुहल्ले हैं, बाज़ार-कूचे हैं। कुछ
सिरफिरे दिन-दहाड़े आईने लिए घूमते हैं कि देखो इन आईनों में देखो।
उन आईनों पर पड़ने वाला सूरज उछल कर घर के अन्धेरे कोनों को चुंधिया
रहा है। यह हरकतें बन्द होनी चाहिए, हम जैसे भी हैं - ठीक हैं। यही
हमारे समाजों का तौर-तरीका अब तक रहा है। आँखें बन्द।
(2)
अलग-अलग समाजों के आंकड़े देखकर हैरानी होती है कि इतने व्यापक स्तर
पर बाल यौन शोषण मौजूद है - खासकर घरों में। जो अपराध दूसरे लोगों
द्वारा, परायों द्वारा किए जाते हैं, उन से बचने के उपाय अपेक्षाकृत
आसान हैं। पर यौन शोषण के ज़्यादा अपराध घरों में अपनों द्वारा किए
जाते हैं। कौन नज़र रखे हर वक्त पिताओं, भाईयों, सम्बन्धियों पर।
चाचा-ताया कह कर हर वक्त घर में घुसे रहने वालों पर, अध्यापकों
पर, खेल सिखाने वाले कोचों पर, हर समय बच्चों के सम्पर्क में आने
वाले तमाम वयस्कों पर। यहां तक कि अध्यापिकाओं, आयाओं पर, और हां कुछ
माँओं पर भी। यौनगन्ध घरों की बैठकों, कुर्सी
मेज़ों, पर्दों, खिड़कियों पर चिपकी हुई है। बच्चों को बहुत बचपन से
ही यह यौनाभास और गन्ध अबूझी अपरिचित नहीं लगती। सिर्फ़ आहत करती है।
इतना क्रूर अनुभव उन्हें किसी अपने से मिलेगा, यह उन्हें सोचने का
अवसर ही नहीं दिया जाता। उन का मन एक आतातायी मौन से कुंठित हो जाता
है, उन्हें एक ऐसी असमर्थ स्थिति में डाल देता है जैसे किसी चमकते
पौधे को ज़हरीली ज़मीन में रोप दिया जाए। निठारी काण्ड की घटना पर
इक्कीसवीं सदी की मोहर दर्ज हो जाएगी। ऐसी घटनाएं जाने कब से धरती के
नीचे गड़ी हुई हैं। बहुत प्राचीन समय में बच्चों के मृतांगों को
एकत्रित करके एक जगह इक्ट्ठे करने की कथा समय संगत थी। अपनी पूर्ण
शुद्धि समृद्धि में ये अमानवीय कृत्य तब भी हुए थे। एक संस्थागत ढंग
से हुए थे, जिनमें अपराध बोध या कर्म का कुत्स भी शामिल नहीं था। कुछ
समय पहले कारथेज (CARTHAGE) में एक कब्र समूह मिला है जो आज से ढाई
हज़ार साल पुराना है। कारथेज मेडिटरेनियन सागर क्षेत्र में स्थित
ट्यूनिशिया का एक शहर है जो प्राचीन काल में रोमन और ग्रीक संस्कृति
और शक्ति का केंद्र था। वहां करीब बीस हज़ार बच्चों के कंकाल तरह-तरह
के बर्तनों में दफनाए हुए मिले हैं। ये बच्चे अनेक माता-पिता द्वारा
बलि चढ़ाए गए थे जाने किस-किस देवता को किस-किस समृद्धि की प्राप्ति
के लिए। बच्चों की बलि दिया जाना जिस मानव समाज में सामान्य या
नियोजित हो, वहाँ यौन शोषण उस समय का या आज का कितना धुंधला पड़ जाता
है। इन बलि आयोजनों-समारोहों में गीत-संगीत, मंदाधता और कच्ची
कन्याओं का शरीरहरण विधिवत शामिल था। छोटी उम्र की कन्याओं का अपने
आत्मीयों द्वारा सामूहिक बलात्कार। ये दो हज़ार साल अपनी दीर्घकालीन
पिशाचावस्था में आज भी बहुत जगह जीवित है - एण्डीज़ की पहाड़ियों में
इस तरह की बाल हत्याएं और यौन शोषण अपनी अपराध भावना को शमित करने के
लिए, अपने कोकेन के व्यापार से उत्पन्न अन्ध आर्थिक कूप में मुँह
छिपाने के लिए वह ईसा पूर्व का समय आज भी जीवित है। विश्व के अन्य
बेशुमार क्षेत्रों में अपने ही आत्मीयों द्वारा व्यक्तिगत या समूहगत
बाल यौन उत्पीड़न तरह तरह के आकारों, व्यवहारों में मौजूद है।
अजीब-अजीब तरह के बाल अत्याचारों से हमारी स्मृति दहक रही है। जो हुआ
उस से भी और जो हो रहा है, उस से भी। पुराने समय में किसी भवन की
आधारशिला का काम हो - बाल बलि, कोढ़ जैसी बीमारी का इलाज - बाल लहू
में स्नान, नपुंसकता का इलाज - बच्चों के साथ मैथुन, किसी घर में
प्लेग के कीटाणु हैं या नहीं - पहले कुछ दिन एक दो बच्चों को वहाँ रख
दो पता लग जाएगा। उन्नीसवीं सदी के अन्त तक इंग्लैण्ड में छोटी
लड़कियों का शोषण करने वाले अपराधी को न्यायघर Old Bailey (लण्डन का
उच्च अपराध न्यायालय। 1539 में स्थापित इस न्यायालय में तब भी साधारण
जन शामिल हो सकते थे) में लाया जाता था। अधिकतर अपराधियों को इसलिए
छोड़ दिया जाता था कि, 'उसने अपने यौन-गुप्त रोग के उपचार के लिए ऐसा
किया है।'
एक पाश्चात्य पुरानी मेडिकल पाठ्य पुस्तक में लिखा हुआ है, लायड
डिमूज़ के एक अध्ययन के अनुसार, कि एक कुंवारी कन्या की सील तोड़ना
बहुत सी बीमारियों का उपचार है। उसे पीट-पीट कर बेहोश कर देना
डिप्रेशन का इलाज है। इस से नपुंसकता दूर होती है। कामुकता और
अन्धविश्वास, वासना और कुरीतियां कहां समानान्तर चलती हैं और कहां
अलग दिशाओं में चली जाती हैं, इस अन्तर को समझना आसान नहीं।
इन्सानी समाजों में बहुत देर तक, मध्ययुग के बाद तक यौन सम्बन्धों का
नियमन सिर्फ़ ढुलमुल था और व्यक्तिगत या स्तरगत था। यौन शोषण को हंसी
मज़ाक का विषय समझा जाता था। प्रारम्भिक ग्रीक और रोमन हास्य
नाटिकाओं के मंच पर छोटी लड़कियों का बलात्कार दर्शकों को हंसाने
वाली बात समझा जाता था। इसी तरह परिवारों के लड़के पड़ोसियों या अन्य
व्यक्तियों को यौन क्रियाओं के लिए उपहारित किए जाते थे। प्लूटार्क
(PLUTARCH 67-146 A.D.) ने अपने Morality Essays (MORALIA) के एक लेख
में ज़िक्र किया है कि अपने बेटे किस तरह के व्यक्ति को यौन संग के
लिए भेंट किए जाने चाहिएं। उस समय सात वर्ष की उम्र से ही लड़कों का
इस तरह आदान-प्रदान सहज सामाजिकता थी। लड़कों को 'बाल' आने से पहले
तक इस काम के लिए ज़्यादा अच्छा माना जाता था। बच्चों के वेश्याघरों
का ज़िक्र भी आता है। इस तरह की 'बाल सेवाएं' पैसा कमाने के लिए
विधिवत मान्यता प्राप्त सेवाएं थीं। पेट्रोनियस (Petronius A.D.
27-66) को रचनाशीलता का परम सुख मिलता होगा जब वह वयस्कों को छोटे
बच्चों के यौनांगों को सहलाते हुए चित्रित करता था।
बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार किसी भी समय में अपवाद की स्थिति में
नहीं रहा। सामान्य सामाजिक स्तर पर इसे चीन्ह कर अलग किए जाने वाले
अनुसन्धनात्मक तरीके भी नहीं थे। किसी स्थान की स्थितियां वहां के
ऐतिहासिक चरित्र, धर्मों और लोक-कथाओं के माध्यम से ही जानी जा सकती
हैं। यह बात खुल कर सामने आती है कि भाई बहनों के यौन सम्बध और अपने
माता पिता के अपने बच्चों के साथ शारीरिक सम्बन्ध कोई 'मिथ' नहीं
हैं, एक घातक (आज की मानसिकता के अनुसार) वास्तविकता हैं। रानी
एलिज़ाबेथ प्रथम को बचपन में अपने अभिभावकों द्वारा यौन शोषित किया
गया था। मिश्र की रानी क्लीयोपेट्रा एक भाई-बहन माता पिता की सन्तान
थी और उसने खुद बाद में अपने भाई टोलेमी XIII (Ptolemy XIII) से
विवाह किया। मिस्र के इतिहास में ऐसा समय भी रहा जब भाई बहन के आपसी
सम्बन्धों को राजसी इतिहास की ज़रूरत मात्र समझा जाता था। सत्ता अपने
ही घराने में केन्द्रित रहे, इस लोलुपता के परिणाम भी इस तरह के
सम्बन्ध थे। दूर-दराज़ के क्षेत्रों में इस तरह की प्रथाओं का ज़िक्र
भी मानव शास्त्री करते हैं। इन्का लोगों में भी विशेषकर उच्च
भूमिधरों या नील वर्णों (राजसी) में रक्तसांझ (विशेषकर भाई-बहनों
में) के उदाहरण मिलते हैं।
'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' वाली बात शायद यह नहीं थी। व्यापक तौर पर
उन सत्ताधारियों का आचरण सामान्य धरातल पर आकर विशिष्ट भी नहीं रह
जाता। धर्मों ने, लगभग सभी धर्मों ने अपनी कथाओं में इस तरह के
स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को ढील दी है। किसी कारणवश नहीं, अनायास ही
धर्म-कथाओं में निकटतम रक्तसांझ की बात आती है। ग्रीक माईथॉलोजी
(धर्मकथाओं) में जूस (मुख्य देवता) और हेरा भाई बहन हैं और पति-पत्नी
भी। वे क्रोनस और रीया की सन्तान थे जो भाई-बहन भी थे। टाईटन
महामानवों में यह प्रथा विस्तृत पैमाने पर मौजूद थी। नोर्स
धर्म-कथाओं में भी वनीर लोगों में यह प्रचलित थी। बाईबल में
भी, विशेषकर जैनेसिस (GENESIS) में इस तरह की कथाएं आती हैं जिन में
परिवारिक यौन-परस्परता के उदाहरण हैं। अब्राहम की कथा इन्हीं
पारिवारिक यौन सम्बन्धों की कथा है। बाईबल की ही Lot की कथा में लॉट
के दोनों बच्चे मोआब और बेनामी उसकी दोनों पुत्रियों की सन्तान थे।
Exodus में भी ऐसी कथाएं हैं। दसियों कथाएं हैं जिनका ज़िक्र यहां
करना असंगत होगा। हिन्दू धर्म में यद्यपि वर्ण व्यवस्था इतनी संकुचित
है कि किसी प्रकार के अन्तः यौन सम्बन्धों को स्वतः ही वर्जित कर
दिया जाता है। लेकिन हमारे वेदों में विशेषकर ऋगवेद में भाई बहन के
प्रणय सम्बन्धों का ज़िक्र आता है। अग्नि और अश्विन अपनी बहनों के
प्रेमी हैं। पिता-पुत्री का प्रणय सम्बन्ध प्रजापति की प्रसिद्ध कथा
में आता है जिसमें प्रजापति को दण्डित भी किया जाता है इस अपराध के
लिए। मान्यता प्राप्त और समाज संगत ये सम्बन्ध तब भी नहीं थे, लेकिन
इन का संदर्भ ही समस्या की व्यापकता को बताता है। मध्ययुग के बहुत
बाद तक प्रचलित देवदासियों की प्रथा कोई छिपाने की चीज़ भी नहीं थी।
बात केवल इतनी है कि सुविधा और वासना ही मानव यौन सम्बन्धों के आधार
में व्यापक रूप से मौजूद रहे हैं। हमारी मानसिकता का प्रतीक ये
कथायें सभी धर्मों और लोककथाओं में प्रचुरता से मौजूद हैं।
(3)
ऐसा लगता है जैसे धर्म और लोक साहित्य हमारी सभी
वासनाओं, कामनाओं, वर्जित-अवर्जित गहन आत्मकांक्षाओं को आश्रय देने
वाला विश्रामस्थल रहा है। इन स्रोत तालों में झांकते ही हमें अपनी
छवि नज़र आने लगती है। आज तक इन स्मृति कक्षों से खोज-खोज कर हम अपने
आप को ढूंढने में लगे हुए हैं। टुकड़ा-टुकड़ा अपनी छवियां बटोर कर एक
आकृति गढ़ने में लगे हुए हैं। चाहे जिस तरह के सम्बन्धों और शारीरिक
रोमांचों को हमने भोगा हो, यह सत्य है कि हमने अपने दुखते हुए मानस
से ही मानव सम्बन्धों के औचित्य-अनौचित्य को निर्मित किया है।
माँओं, बहनों, बेटियों, पिताओं और अन्य निकटतम सम्बन्धों द्वारा जनित
यातनाओं और उनकी कटु स्मृति दंशों ने ही एक लम्बे अन्तराल के बाद
व्यवहार रीतियों को जन्म दिया है। लेकिन फिर भी अतिक्रमणों को हम आज
भी अपने चारों तरफ, सभी देशों, संस्कृतियों में बिखरा हुआ देखते हैं।
हमारे पालन पोषण के तरीकों में हमारी वासनाएं मुखर होकर सामने आती
हैं। शायद ये वासनायें भी नहीं होतीं। मौलिक प्रवृत्तियों के अलग-अलग
स्वरूप हैं जो मानव विकास के साथ बनते-बदलते रहे। पालन पोषण की ऐसी
अनेक दैनिक क्रियाएं हैं जो आज के अति उत्सुक वातावरण में शोषण की
परिभाषा की परिधि में आ जायेंगी या बच्चों के प्रति कामुक व्यवहार
कहलायेंगी। कई संस्कृतियों में साधारण और जनमान्य शारीरिक व्यवहार
व्यापक तौर पर यौनांगों से किसी न किसी प्रकार सम्बद्ध होता था।
बच्चों के यौनांगों को छूना, सहलाना, थपकना, मसलना, यहां तक कि चूमना
और चाटना भी निकटतम लाड़ प्यार की क्रियाएं हो सकती थीं। यौनांगों के
नाम ले लेकर किसी छोटे बच्चे को आलोड़ित-लालायित करना अपने ही
मातृत्व-पितृत्व के अहसास की किसी न किसी रूप में पुनरावृत्ति थी या
अपनी ऊर्जा, शक्ति सम्पन्नता का बोध था। पुरुष बालकों को अपनी यौन
शक्ति के अहसास से भरना बचपन से ही शुरू हो जाता था। उन की
वासनाओं, उत्तेजनाओं को कुछ ज़्यादा ही आक्रान्ता की स्थिति में रख
कर देखा जाता था। और यह भी हुआ कि लड़कियों को अधिकतर संस्कृतियों
में बहुत शीघ्र यौन ऊर्जित होने का दोषी माना जाता रहा और उन के दमन
की नीति रीति निश्चित करने का लोक-प्रयास लगभग सभी जगह रहा। उन्हीं
की कामुकता पर आँख गढ़ा कर रखी गई। उन्हीं के यौनांगों पर अंकुश
लगाया गया, बिद्ध किया गया, काटा-पीटा गया। उन्हीं को केवल प्रजनन के
माध्यम से ज़्यादा नहीं रहने दिया गया। उन्हीं की वासनाओं को
सर्वभक्षी माना गया। उन्हें ही नियन्त्रित करने का क्रूरतम
संस्कृतिकरण हुआ। या फिर उन्हें दया का पात्र बनाकर पेश किया गया -
कोमलांगी या अंकशायिनी से ऊपर नहीं उठने दिया गया। इन्हीं विपरीत
दिशाओं में उन्हें आंका-परखा गया। पशु-पक्षियों की स्थिति हमारे लिए
हमेशा ही स्पर्धा का विषय रहेगी।
(4)
देखना यह है कि पुरानी संस्कृतियों में और आज भी व्यापक रूप से
प्रचलित व्यवहारों में दोषपूर्ण क्या रहा और क्या ज़बरदस्ती अति
उत्साह की स्थिति में हमने गलत मान लिया और असन्तुलन की स्थिति पैदा
की। आसपास के वातावरण में अति कामुकता का प्रदूषण फैलाने वाले
शारीरिक व्यवहार कौन से हैं और उन के विपरीत अन्य अकामुक व्यवहार
क्या हैं, जिन्हें आज के मनौवैज्ञानिकों ने अति उत्साह में
प्रदूषण-शोषण का दर्ज़ा दे डाला है। उन व्यवहारों पर नज़र डालना
ज़रूरी है।
कई समाजों में बच्चों के सामने अपने को निर्वस्त्र करना साधारण बात
रही। छोटे बड़े को लिंग भेद का ध्यान किए बगैर साथ सुलाने की
प्रथा, इक्ट्ठे नहा लेने की बात, लेकिन इस के साथ ही बच्चों द्वारा
बड़ों के यौनांगों को छूने और छुआने की प्रथायें। कई समाजों में
मैथुन का प्रशिक्षण और यौनांगों को तरह तरह से सुव्यवस्थित करना आज
नितान्त शोषण है। लेकिन कई जगहों पर ये क्रियाएं साधारण की सूची में
ही आती हैं। प्रशान्त महासागर के द्वीपों और अफ्रीका की कई जातियों
में प्रचलित कुवांरियों के प्रजनांगों को चूमचाट कर विशेष प्रयोजन के
लिए तैयार करने की रीति उस समाज में एक साधारण सी बात है। जूल्ज़
हेनरी ने ब्राज़ील, कोलम्बिया, वेनज़ुएला इत्यादि की जातियों की
विस्तृत चर्चा की है जहाँ इतना अधिक अंग प्रदर्शन और पारस्परिक
स्पर्श बच्चों के सामने किया जाता है कि बच्चे अन्य बच्चों के साथ
खेलने के अनिच्छुक बन जाते हैं। वे अत्याधिक यौन उत्तेजना में ही
रहने के आदी हो जाते हैं।
सामान्य रीतियां प्रथाएं कह-कर जिन व्यवहारों को विश्व भर में
स्वीकार किया जाता रहा है, वे स्त्री पुरुषों की अत्यन्त कामुक
प्रवृत्तियों का समाजीकरण मात्र है। जो सभी करना चाहते हैं, उसे
मान्यता मिलने से कौन रोके। जिन शारीरिक व्यवहारों में बच्चों के
यौनांगों को खुले तौर पर खेल की वस्तु बनाया जाता हो, वह केवल एक
कामजन्य मानसिकता है। मातृत्व या पितृत्व का वात्सल्य नहीं है। अपने
पैरों चलने की उम्र के बच्चे बच्चियां किसी भी तरह की छुअन का भाव
समझने लगते हैं। उनके रोमांच सुख का अन्दाज़ा उनकी प्रतिक्रियाओं से
लगाया जा सकता है। बच्चे बड़ों को छूकर तृप्ति, सुख का अनुभव करते
हैं, भाग-भाग कर आते हैं आलिंगनों के लिए। शरीर के कुछ भागों को
चूमना उन्हें भला लगता है। वे अपनी
माँओं, पिताओं, बहनों, भाईयों, अन्य नज़दीकी वयस्कों को चूमकर खूब
खुश होते हैं। लेकिन यौनांगों को छूना उनकी किसी शारीरिक मानसिक
खुशी/विकास का हिस्सा नहीं बनते। जो वे खुद नहीं करना चाहते, दूसरों
से अपने प्रति करवाना भी नहीं चाहते। उनका अपना व्यवहार ही प्रकृति
का, शरीर विज्ञान का वास्तविक सिद्धांत है। बड़े अपनी कामुकता को
उनके लिए कभी 'स्वाभाविक' स्थिति में नहीं ला सकते। अपने व्यवहार को
बाल मनों और शरीरों पर आरोपित करना घोर शोषण की स्थिति है, जो सदा से
है। सामान्य साधारण वात्सल्य बच्चे खूब समझते हैं, उससे भागते भी
नहीं। कभी ऐसा भी होता है कि हम अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों में
व्यवहार कर रहे होते हैं। किसी भी कोमल, सुन्दर चीज़ को हस्तगत करना
चाहते हैं, छूना-पकड़ना चाहते हैं। खूब स्पर्श की स्निग्धता में
डूबना चाहते हैं। वह कामुक स्थिति नहीं होती, फिर भी निश्चित ही यह
एक वयस्क मनस्थिति है, एक वयस्क अन्तः प्रेरणा है। अपनी तमाम कुंठाओं
को स्थगित करने की मनस्थली है। लेकिन बच्चे इस बात को नहीं जानते, वे
कई ऐसी स्थितियों में वयस्क व्यवहारों से शर्माए रहते हैं, डरे रहते
हैं और बहुत सी स्थितियों में आतंकित हुए रहते हैं। वे दूर भागते
हैं, बड़े उन्हें अवांछित ढंग से पकड़ने में लगे रहते हैं। ऐसी
स्थितियों में भी हर हाल में बाल स्वीकृति आवश्यक है। वास्तविकता यह
है कि जिन स्थितियों को बच्चे किसी भी तरह स्वीकृत-अस्वीकृत करने की
स्थिति में नहीं होते - हम अपना स्पर्श उन पर अंकित करना शुरू कर
देते हैं। और वासनाएं पिशाचनियां हैं जो भेष बदल बदल कर आती हैं
जिन्हें हम खुद भी शायद पहचान नहीं सकते। हम कामुक होने से इन्कार
करते हैं। पर कामुक होना सिर्फ़ ऊपरी व्यावहारिक स्थिति कभी भी नहीं
होती। सौंवी बार का स्पर्श भी पहले स्पर्श से श्रृंखलित है जहाँ
स्रोत है वासना का। सौंवीं बार का स्पर्श कामुक नहीं लगता, पर
स्रोतधार वही है। सिर्फ़ हम उसे प्रथम स्पर्श से जुड़ा हुआ देख नहीं
पा रहे हैं। सो, आज जिन व्यवहारों को हम कामुक नहीं समझ रहे, बच्चों
के लिए वह प्रथम स्पर्श की तरह हैं। बच्चे का प्रथम स्पर्श एक पल या
एक घड़ी लम्बा नहीं होता। वह उस के सारे अस्तित्व, नए कोरे अस्तित्व
को अंकित कर रहा होता है। एलफ्रेड किन्ज़ी द्वारा 1950 के एक अध्ययन
के अनुसार पांच महीने की उम्र से ही बच्चे यौनभिज्ञ होने लगते हैं।
वे सारे स्पर्शों को केवल शारीरिक माध्यम से ही ग्रहण करते हैं।
दूसरा तरीका जो सामाजिक व्यवहार से अर्जित होता है, वह उन में लम्बे
समय तक विकसित नहीं होता। उचित और अनुचित का सामाजिक बोध उन्हें पांच
वर्ष की आयु के बाद समझ आने लगता है। इसलिए और भी आवश्यक है कि
बच्चों की शारीरिक क्रियाओं से पैदा होने वाले आभासों और उत्तेजनाओं
को बाहरी हस्ताक्षेपों (स्पर्शों) से दूषित न किया जाए। अजीब-अजीब
तरीकों से हम बच्चों को ऐसी उत्सुकताओं से भर देते हैं जिन का उत्तर
देने का साहस वयस्क करते ही नहीं और उनके अपने आप उत्तर खोजने का
प्रयास समाजोचित नहीं रह जाता। दोनों तरफ से वयस्कों की दुनिया
बच्चों को निराश करती है। इसी निराश और उत्सुक स्थिति में बच्चों का
शोषण शुरू होता है।
(5)
आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं की भिन्नता के कारण ऐसा लग सकता है कि
बाल यौन शोषण की स्थिति अलग-अलग भूभागों में काफी भिन्न है। लेकिन जब
हम संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययन और आंकड़े देखते हैं तो लगता नहीं
कि अधिक अन्तर है। दूर से देखने में तीन भिन्न स्थितियों वाले समाजों
- भारत, अमेरिका और अफ्रीका में यौन शोषण विशेषकर बाल यौन शोषण के
आंकड़ों में चौंका देने वाला अन्तर नहीं है। आर्थिक सम्पन्नता जहां
बच्चों और बड़ों को मनमानियां करने का अवसर देती है, वहां उन्हें
सचेत भी करती है। शिक्षा और अन्य सामाजिक संसाधन एक संवाद जारी रखते
हैं। चारों ओर खुली बातचीत कर सकने का माहौल बना रहता है। मीडिया
जहां अपनी लोलुपता में लोगों को अनेकानेक लालचों का शिकार बनाता
है, वहीं ज्ञान प्रसारण का एक साधन भी मीडिया ही बनता है। एक
तुलनात्मक विवेक जागृत होने से संतुलन की आकांक्षा भी बढ़ती है। यह
ठीक है कि जो हर समय हमारे सामने आता है, केवल उसी के प्रभाव में
ज़िन्दगी नहीं चलती। परोक्ष में सामाजिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य
सम्बन्धी साधन हैं जो हर समय सामने न रह कर भी समाज को
निर्देशित-संचालित करते हैं। भारत जैसी माध्यम आर्थिक स्थिति वाले
समाज में ज़रूरत से ज़्यादा दिखाने की मानसिकता बन जाती है। मध्यवर्ग
की वैसे भी यह मानसिकता रही है। कुण्ठाएं भी वहीं अधिक जन्म लेती
हैं। साधन इतने नहीं हैं कि हर तरह की ज़रूरतों को पूरा कर सकें।
ज्ञान प्रसार की आवश्यकता भी उन आवश्यकताओं में से एक है। परोक्ष और
प्रत्यक्ष में यहाँ वास्तविक अन्तर रहता है। परोक्ष इतना शक्तिशाली
नहीं होता। किसी भी समाज की आन्तरिक शक्ति इन्हीं परोक्ष साधनों पर
टिकी होती है। मूल्य चाहे नैतिक हों या शारीरिक, आर्थिक संकट के
वातावरण में न बनते हैं, न टिकते हैं। वहां यौन शोषण भी बाकी संकटों
जैसा एक संकट बना रहता है। वहां आंकड़े इक्ट्ठे करना एक हास्यास्पद
स्थिति बन जाती है।
इस विषय पर आंकड़े 1950-60 के बाद ही किए जाने लगे। ठीक स्थिति का
जायज़ा तो 1975-80 के बाद ही हुआ। बहुत सी संस्थाओं ने विश्व भर में
इस स्थिति पर काम करना शुरू किया। भारत में काफी संस्थाओं और
व्यक्तियों ने इस तरफ महत्वपूर्ण ढंग से ध्यान दिलाने का काम किया।
ग्रेस पूर (Grace Poore) द्वारा संपादित The Children We Sacrifice
के अनुसार : 1997 में साक्षी संस्थान द्वारा दिल्ली की 350 स्कूली
छात्राओं के सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि 63 प्रतिशत लड़कियों का
पारिवारिक सदस्यों द्वारा शोषण हुआ। इन में से 25 प्रतिशत का किसी
प्रकार का बलात्कार हुआ। लगभग 33 प्रतिशत - एक तिहाई ने कहा कि उनका
शोषण - पिताओं, दादाओं या अन्य पारिवारिक सदस्यों-मित्रों द्वारा
हुआ। 1999 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सर्विसिज़ द्वारा 1994-95
में मुम्बई की 150 लड़कियों के अध्ययन अनुसार 58 प्रतिशत लड़कियों का
अल्पायु यौन शोषण दस वर्ष की उम्र से पहले हुआ, 58 में से 50 प्रतिशत
का शोषण करने वाले परिवार के सदस्य ही थे। 1997 में दिल्ली में
(RAAHI) राही संस्थान द्वारा दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता और गोआ में
रहने वाली 1000 मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लड़कियों के अध्ययन में
सामने आया कि इनमें 76 प्रतिशत का शोषण बचपन में हो चुका था। इन में
71 प्रतिशत का शोषण परिवार के सदस्य ने या निकट परिचित ने किया।
बैंगलोर की एक संस्था 'संवाद' अनुसार 1996 में हाई स्कूल में पढ़ने
वाली छात्राओं से मालूम हुआ कि 47 प्रतिशत का यौन शोषण हो चुका था।
पिंकी विरानी और उनके सहयोगियों द्वारा एक अध्ययन में 1985 में देखा
गया कि 30 प्रतिशत औरतों और दस प्रतिशत आदमियों का बचपन में ही यौन
शोषण हो चुका था।
यह आंकड़े समाजशास्त्रियों के तथ्य भले ही हों, सामाजिक तथ्य ये नहीं
हैं। उन समाजों में जहां अब तक खुल कर यौन शोषण की बात न की जा सकती
हो, वहां आंकड़े सिर्फ़ एक ऊपरी तस्वीर ज़रूर दिखा सकते हैं। निश्चित
ही समस्या आंकड़ों से कहीं अधिक गम्भीर और गहरी है।
अमरीकी समाज में आए दिन आंकड़े आते हैं और बदलते हैं। लेकिन तथ्य कुछ
इस प्रकार है कि लगभग 62 प्रतिशत स्त्रियां और 31 प्रतिशत पुरुष अपने
बचपन में ही शोषित हो चुके थे। इनमें 20 प्रतिशत को शोषण पिताओं
द्वारा हुआ। लगभग बीस प्रतिशत का शोषण अन्य निकट सम्बन्धियों द्वारा
हुआ। लगभग 55 प्रतिशत का शोषण माँओं द्वारा हुआ। यह 2002 के
राष्ट्रीय आंकड़े हैं।
अफ्रीका में केवल घरेलू यौन शोषण इतना अधिक है जितना योरोप जैसे
विकसित देशों में कुल मिलाकर है। युगांडा में 46 प्रतिशत, तन्ज़ानिया
में 60 प्रतिशत, केन्या में 45 प्रतिशत और ज़ाम्बिया में 45 प्रतिशत
स्त्रियों का केवल उन के घरों में ही शोषण किये जाने के आंकड़े हैं।
फिर वही बात है कि उसकी सही तस्वीर सामने नहीं आती और कुछ ऐसी
प्रथाएं हैं जिन्हे वहां शोषण गिना ही नहीं जाता। घाना के एक गांव की
स्त्रियों से बातचीत के दौरान सामने आया कि 70 प्रतिशत माँए अपनी
बेटियों को शादी से पहले यौन सम्बन्ध रखने को मजबूर करती हैं या
उत्साहित करती हैं।
जो एक बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है वह यह कि बाहरी बलात्कार तुलना
में बहुत कम होते हैं और उन में से अधिकतर पता लगने पर दण्डित भी
होते हैं। घरेलू बलात्कारी शोषणों का खुलेआम पता नहीं चलता और
दोषियों को अधिकतर दण्ड मिलने का प्रश्न ही नहीं। निकट सम्बन्धियों
को जेल कौन भेजे। अपना ही मुंह कौन काला कराये। जीवन कोयला होने पर
भी मुंह काला नहीं होना चाहिए।
(6)
फ्रॉयड ने उन्नीसवीं सदी के तीसरे पहर में ही बहुत कुछ कह दिया था।
वह शायद पहला व्यक्ति था जिसने खुल कर कहा था कि हिस्टीरिया बीमारी
उसके कुछ मरीज़ों को इसलिए है कि बचपन में उनके साथ यौन अत्याचार हुआ
था। दमित स्मृतियां बाद में चलकर हिस्टीरिया का रूप ले गई। फ्रॉयड ने
अपने खुद के बचपन की स्मृतियों के बारे में साफ़ कहा कि वे कल्पना की
बातें या दमित स्मृतियां नहीं हैं। उन्हें स्पष्ट याद था कि बचपन में
उनकी आया ने उनके साथ यौनाचार किया और यहां तक कि अपने मासिक
रक्तस्राव से सने पानी में उन्हें नहलाया। वह बेहद भोंदू थे और किसी
से उन्होंने नहीं कहा। लेकिन जहां वह चूक गए थे, वह उस जमाने की
पुरुष सतात्मक मानसिकता भी थी और फ्रॉयड का अपना बाल यौन विकास का
सिद्धांत भी। उन्होंने बच्चों को ही दोष दे डालते हुए कहा कि बच्चे
स्वयं इन यौन प्रक्रियाओं में आकर्षित होते हैं और बड़े उसमें ढूँढ
लेते हैं अपनी कामुकता के स्रोत्र। बाद में मेसन और मिलट जैसे
मनौवैज्ञानिकों ने कहा कि फ्रॉयड ने साहस की कमी के कारण यह सब कहा।
उनके समकालीन जुंग भी इस मामले में चुप रहे। फिर भी फ्रॉयड का योगदान
इतना महत्वपूर्ण है कि उनके बाद इस शोषण के महासमुद्र का मंथन शुरू
हो गया। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण आज भी इस क्षेत्र का सूक्ष्म दर्शक
ही बना हुआ है। शरीर विज्ञान उन कारणों में नहीं जाता जहां चारों ओर
फैला हुआ सामाजिक प्रदूषण है जो वास्तव में इस शोषण का कारण बनता है।
समाजशास्त्रियों का हस्ताक्षेप इसीलिए इस क्षेत्र में काफी कारगर
साबित हो रहा है। सन्तुलित प्रयास आज भी उन समाजों में उतने नहीं हो
रहे जहां इस विषय पर खुल कर बात करना एक नैतिक झिझक पैदा करता है और
जहां शिक्षा के क्षेत्र इस बात से अनछुए हैं। ऐसी ही स्थिति में
हमारा समाज भी आया हुआ है। एक विस्फोट है जिसने साधारण समझबूझ के
परखचे उड़ा दिये हैं और इधर-उधर बिखरे हुए मूल्य तृणों को इक्ट्ठा
करके एक समूची सामाजिक चेतना का चित्र बना पाना एक असमंजस की स्थिति
पैदा करता है। समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों के विश्लेषण और
सिद्धांत ग्रन्थ आम आदमी के सम्पर्क में उस तरह नहीं आते जैसे
साहित्य आता है। इस विषय पर एक विपुल सामग्री साहित्य में मिलती है।
उपन्यास, कथा, आत्मकथा, संस्मरण, जीवनी तथा अन्य विधाओं में बाल यौन
शोषण का परिस्थिति केन्द्रित ऐसा चित्रण है जहां हमारे शास्त्रियों
को भी अपने सिद्धांत निर्मित करने की विस्तृत अवसर-भूमि मिलती है।
साहित्य इस समस्या के बीचों बीच से गुज़रता है। जो घटित है वही
नहीं, जो घट सकता है उस का अन्देशा भी वहां मिलता है। सम्भावनाएं एक
तिकोने सच की तरह लम्बाई, गहराई और ऊचाई नाप जाती हैं। संकरी जीवन
वीथियों से गुजरते हुए, सम्भावनाओं का विस्तार जिस तरह साहित्य में
हो सकता है, शायद और जगह नहीं। पश्चिम में, विशेषकर अमेरिका में
हज़ारों कृतियां है जो युवा वयस्कों के लिए विशेष रूप से आवर्णित की
जाती हैं। सभी सम्बन्धों को समेटती हुई बाल मनों की ये व्यथा कथाएं
विशेष रूप से प्रसारित और वितरित की जाती हैं। हम कुछ ही
विश्वविख्यात कृतियों से अपने पाठकों का परिचय करवा रहे हैं। ये
कृतियां घर-घर में जानी मानी जाती हैं और कुछ कृतियां पाठ्यक्रमों
का हिस्सा भी बनती हैं।
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सैंकड़ों तरह के शोषण की बात हम करते हैं - खुलकर, हर जगह बैठ
कर, दूसरे तमाम शोषणों की बात सिर उठाकर करते हैं। लेकिन बाल यौन
शोषण की बात आज भी दबी ज़बान में ही की जाती है। यह बात नहीं है कि
लोग यौनाचारों की बात कहने या सुनने में शर्म करते हैं। ज़्यादातर
गालियों में इन्हीं कुत्सित यौनाचारों का भरपूर ज़िक्र होता है। ये
गालियां ऐसी आवाज़ें हैं जिन्हें सुनकर हमें कुछ नहीं होता। न गुस्से
या शर्म से चेहरे लाल होते हैं, न मन में जागता है कि इस गाली-गलौच
के खिलाफ़ कार्यवाही होनी चाहिए। यौनांगों के नामों का खुला प्रयोग
शर्म की बात नहीं है, यौन शोषण विशेषकर बाल यौन शोषण का ज़िक्र शर्म
की बात है। आसपास फैले हुए इस गरल को चुपचाप अपने कण्ठ में धारण करके
आँखें मूंद कर सब शंकर हो जाते हैं। इस बात की घर-घर जाकर चुगली करने
वाला कोई नारद भी नहीं मिलता। अशक्त और मासूम बच्चे अपने चारों ओर की
बड़ों की दुनिया में निडर होकर, अपनी पीड़ा की बात कह सकें, ऐसा
माहौल उन्हें कहीं नहीं मिलता। अपने
माँ-बहन, भाई, पिता, चाचा, ताऊ, टीचर, पड़ोसी या सम्बन्धी को आँखों
में आँखें डाल कर बता सकें कि पिछली रात, पिछले दिन, पिछले महीने, या
हर रात, हर दिन उनके साथ कौन क्या कर रहा है। सिर उठा कर कह सकें कि
जिसे वह अंकल कहता/कहती है, उसने उस के साथ क्या किया। 'बच्चे झूठ
बोलते हैं' बड़ों की दुनिया का यह ब्रह्मास्त्र या वेद काव्य बच्चों
के मनों में घात लगाये बैठा रहता है। बच्चों के विश्वास का घर कच्ची
मिट्टी भी नहीं है, बड़े हर रोज़ उसे गिराते हैं, दिन में कई बार
गिराते हैं। बड़ों की शिकायत बड़ों से ही कैसे करें। बात-बात पर
झिड़की खाने वाले बच्चे नंगे होकर कैसे दिखाएं कि उन के जिस्म कितने
ज़ख्मी हैं। माँए अपने पतियों की जूठन चाटते-चाटते अपने ही
बच्चों/बच्चियों के लिए मरे बराबर हो जाती हैं। बड़ी होती हुई बहन की
हर हरकत भाई को ज़हर दिखाई देने लगती है। कैसे कोई बच्ची अपनी ही
उम्र के भाई से कहे कि पड़ोसी ने उसके साथ क्या किया है या वह जो
पिता के चचेरे थे उसे कहां-कहां छू गये हैं। जिन समाजों में पिताओं
से अपने प्रेम की बात बेटियां न कर सकती हों, अपना शोषण की बात खुल
कर कैसे करेंगी।
ऐसे ही एक-एक दिन से मिलकर सारा बचपन, बिन्धा हुआ बचपन बना होता है।
बड़ा होकर बच्चा ठीक वैसा ही बन जाता है जैसे हम सब बड़े हैं। वैसे
ही कपड़ों से ढका हुआ एक नंग धड़ंग बड़ापन। इस युद्धलिप्त दुनिया का
हताहत सिपाही या बड़ा 'विजेता'।
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शुरू से ही ऐसा रहा है। दो शब्द हमारी सभ्यता और संस्कृति के जनक भी
रहे हैं और पोषक भी - उपयोगिता और उपभोग। ये दोनों शब्द ही हमारे
बच्चों को देर तक समझ नहीं आते। बच्चे काफ़ी देर तक उत्सुकता के
सिद्धांत पर ही बड़े होते हैं। वे हर बात जानने के उत्सुक होते हैं।
हमारी तमाम वासनाएं अपनी आदिम यात्रा में बहुत जल्दी ही ऐसी स्थिति
को प्राप्त हो गई थीं कि उन्हें उतना ही सामने आने दिया जाए, जितनी
उनकी उपयोगिता है। बाकी हिस्से को ढक कर रखा जाए। लेकिन वासनाएं
सीमित उपभोग या उपयोग से शाँत नहीं होतीं। उन्हें छिपाने के प्रयास
में दम घुटता है। और इसलिए तरह-तरह से उन्हें ज़ाहिर करने के तरीके
सभ्यताओं ने निकाल लिए। प्रकट करने और छिपाने का खेल बालमनों को बहुत
उत्सुक बनाता है। किसी न किसी बहाने, इशारों में, मज़ाकों
में, गालियों में, लतीफ़ों में उन्हें हर जगह वासनाओं के संकेत मिलते
रहते हैं। मां बाप के बिस्तर में सोने वाला बच्चा जो देखता-सुनता
है, उसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है। सामान्य बात यह है कि बच्चे कम
उम्र में ही इतनी उत्सुकता से भर जाते हैं कि आसपास के माहौल में
इसका समाधान खोजते हैं।
वे अपने जिस्म की वासना को भी समझते हैं, उन अंगों को सहज ही
छूने-सहलाने की स्थिति में भी आए रहते हैं। उत्तेजित भी होते हैं। पर
लुकाछिपी उनमें एक व्यर्थ की उत्सुकता को जन्म देती है।
डरते-सहमते, बचते बचाते वे अपनी उत्सुकताओं को पूरा करने के प्रयास
घरों के ही अन्धेरे कोने में ढूंढने लगते हैं।
बच्चे आपस में एक दूसरे की इतनी क्षति नहीं करते। एक दूसरे को
लहूलुहान नहीं करते, हिंसा नहीं बरतते। वे सिर्फ़ कौतूहल पूरे करते
हैं या बड़ों द्वारा जगाई गई उत्तेजनाओं को शाँत करते हैं। पर जब एक
भाई बहन से चार छः साल बड़ा हो, पड़ोसी लड़का जो कालेज में पढ़ता हो
तो एक पांच सात साल की लड़की का खून ही बहा रहा होता है, उसकी
शारीरिक उत्तेजना शांत नहीं कर रहा होता। पाँच-छः साल का लड़का अपने
चाचा के पास भरोसे से चिपक कर सोने जाता है। सोते समय बच्चे का
पायजामा खोल कर जब नीचे खिसकाया जाता है, उस समय बच्चे का अस्तित्व
स्थगित हो जाता है। सुबह उठने तक बच्चा अपने आप को खो चुका होता है।
वह अपनी मां को अजीब नज़रों से देखता है, पिता को देखता ही नहीं। भाई
बुलाता है जो जवाब नहीं देता। अपनी गोरी चिट्टी बहन उसे काली नज़र
आने लगती है। वह चाचा मुस्करा कर मां बाप से बतिया रहा होता है। मां
भी मुग्ध होकर उसे खाना खिलाने में लगी रहती है। पिता उसे एक दिन और
रुक जाने की ज़िद करता है। चाचा बच्चे को बुलाता हुआ कहता है कि यह
आज भी मेरे साथ सोएगा। बच्चा चुप्प।
बाप झिड़क कर कहता है - 'चाचा को जवाब क्यों नहीं देता?'
फिर वही चाचा या कोई और इसी तरह का व्यवहार उसके साथ करता है। उसी
बच्चे के साथ या किसी दूसरे के साथ यह होता है या दृश्य कुछ बदल जाता
है। गली, मुहल्ले, स्कूल, कालिज का दादा सरेआम अपना लिंग खोल कर बैठ
जाता है। बच्चे उसे बारी-बारी छुएं या पिटें। या फिर कोई
सर्वशक्तिमान अध्यापक उस बच्चे को अपनी कामुक शरण में ले लेता है।
नन्ही बच्चियां अपने बड़े सम्बन्धियों की गोद में बैठे कितनी चुभन सह
जाती हैं। जब तक उन्हें इस बात का अहसास होता है, सम्बन्धी अपने खेल
में बहुत आगे निकल गया होता है। जबरदस्ती खींच कर गले लगाये जाना हर
दस बारह साल बच्ची की ज़िन्दगी का हिस्सा होता है। पन्द्रह साल की
होने के पहले कितनी ही लड़कियां अपने परिवारिक सदस्यों या परिचित
द्वारा आधी अधूरी हो कर रह जाती हैं। ये बलात्कार जैसे बलात्कार भी
नहीं होते।
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शरीर ही केन्द्र में रहा है। अध्यात्मिकों ने लाख पापड़ बेले, लेकिन
वे शरीर को अपदस्थ नहीं कर सके। कभी योग भी (आज Yoga) भी आत्मिक
उत्थान के लिए शारीरिक प्रयास था। आज वह भी शरीर के सुगठन-संवर्धन तक
ही सीमित है। चारों तरफ तनाव की एक स्थिति है। मांसपेशियां अकड़ी हुई
हैं। जो कुछ हमने अपने श्रम से अर्जित किया है - उसकी परिणिति केवल
स्खलन में ही हो जैसे - ऐसा माहौल है। अपनी प्रगति और सम्पन्नता के
साथ ही आज यौन तप्तता भी जुड़ी हुई है। जो शरीर विलास में आधुनिक
नहीं, वह पिछड़ा हुआ है। यह सब केवल एक शरीर संस्कृति नहीं रह गई
है, एक सम्पूर्ण मानसिकता बन गई है। जो सिर से पैर तक जुड़कर आलिंगन
नहीं कर सकता, वह तंगदिल है। नैतिक यही है कि तुम जहां बैठो, चलो
फिरो, अपनी यौनगन्ध हवा में दृश्य-अदृश्य रूप से उछालते रहो। वस्त्र
अपने आप में कुछ नहीं कहते, पहनने वाले का अपना ताप है जो बाहर आना
चाहिए। किसी भी उचित, अनुचित व्यवहार के लिए ब्रह्मवाक्य हैं। उन्हीं
में से एक है, 'क्या हर्ज़ है, कोई हर्ज़ नहीं।' और ये कि 'बहुत
अच्छा लगा, तुम्हें भी अच्छा लगेगा।' वगैरह ऐसे ही फ़िकरे हैं जो इस
कमीज़ से इस ब्लाऊज़ तक, इस पतलून से उस स्कर्ट तक उड़ते, बैठते
फिरते हैं। खाने की मेज़ों पर भिनकते रहते हैं। स्त्री पुरुष का
अच्छा लगने का एक मात्र अर्थ 'सैक्सी' लगना है। हर मां अपनी
बेटी-बेटे को सैक्सी दिखने वाला देखना चाहती है। कहना भी शुरू हो ही
गया होगा - ''तुम्हें सैक्सी लगना चाहिए, बेटी।''
खूब खुल कर गले लगना जब अपनी ही आयु के लोगों में होता है तो उसमें
'कुछ हो जाने' की संभावना का आभास मन को सचेत भी रखता है। वासना जहां
जोड़ती है, वहां अलग भी करती है। एक ही उम्र के युवक-युवतियों का
जुड़ाव एक अलगाव भी बनाए रखता है। लेकिन एक युवक, अधेड़ या बूढ़ा जब
पाँच, दस, पन्द्रह साल के बच्चे से उस तरह खुलता है तो संकट पैदा
होता है। उस आंलिगन में एक चुभन होती है। पता लगने पर एकदम
छिटका-झटका नहीं जा सकता।
चारों तरफ़ फैली हुई यौन उष्णता में इस कंटीली उमस को परे धकेलने में
भी झिझक होती है। छोटा बच्चा सब से ज़्यादा इस खुलेपन का शिकार होता
है। इतना खुलापन होता है कि आसानी से कोई भी परिचित या सम्बन्धी
बच्चे की त्वचा तक पहुंच सकता है। बहलाना-फुसलाना ऐसे लोगों को बहुत
आता है। वे बहुत मीठे और मक्कार होते हैं। एक दम कुछ नहीं कहते, हाथ
खींच कर रखते हैं, धीरे-धीरे मुट्ठी खोलते हैं। बच्चा बड़ों पर पूरा
भरोसा करके अपने छोटे लालच पूरे करने की सोचता है। एक दूसरे का
विश्वास प्राप्त करने का प्रयास दोनों तरफ से चलता है। अन्तर केवल
इतना है कि बच्चा अपना स्वाभाविक भरोसा लेकर आगे बढ़ता है। बड़ा
सिर्फ़ अपने भरोसे का यकीन दिलाता है। 'इस में कोई हर्ज़ नहीं' का
रामबाण बच्चे पर चलाता है।
एक-एक कदम बढ़ता है शोषण, लेकिन यह कदम बहुत छोटे और तेज़ होते हैं।
शोषण शुरू होने पर रुकने का नाम नहीं लेता। साथ-साथ डराना, धमकाना भी
चलता रहता है। तुम्हारा कौन विश्वास करेगा अगर बताओगे। तुम्हारी बहन
के साथ भी यही करूंगा। बच्चा इन बातों को संभव मान कर डरा रहता है और
वह सम्बन्धी या परिचित इस बच्चे के इलावा दूसरे शिकार भी खोजता रहता
है। एक ही बच्चे से किसी भी शोषक का काम नहीं चलता। शोषकों का अपराध
जब भी सामने आया है, यही देखा गया है कि कई-कई बच्चों का शोषण उस
व्यक्ति ने किया होता है। शोषक सुरक्षित, सम्मानित और सुशस्त्रित
घूमता रहता है।
बलात्कार सिर्फ़ एक बार घट कर समाप्त होने वाली घटना नहीं होती।
शरीरहीनता का बोध किसी सुख को सुख और दुख को दुख नहीं रहने देता।
मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? मुझ में ही कोई कमी है, मुझे अपने आप को
समाप्त कर लेना चाहिए। इस तरह की आत्मग्लानि किसी से सामान्य
तादात्म्य स्थापित नहीं करने देती। अपने इन्सान होने के अधिकारों से
स्वयं ही वह व्यक्ति अपने आप को वंचित करता चला जाता है। न कुछ लेना
चाहता है, न देना चाहता है। क्रोध किस पर करे? सभी कुछ को होते चला
जाने देने की अपदार्थ स्थिति में आकर अन्यमनस्कता घेरे रखती है। एक
दुःस्वप्न की तरह दुर्घटना का कभी एक टुकड़ा तो कभी दूसरा मन
मस्तिष्क को कोयला कर जाता है। वे ठंडी हो जाती हैं, बड़े होने पर
उनका प्रेमी भी उन्हें शरीर की दहकती अवस्था में वापिस नहीं ला सकता।
दूसरा पक्ष है, हिंसा जगाने का, स्वयं बलात्कारी बनने का। लड़कियां
बलात्कारी तो नहीं बन सकतीं, लेकिन तरह तरह से अपनी ही कामुकता को
कगार पर धकेलती रहती हैं, जगह-जगह यौन तृप्ति के लिए भटकती
हैं, वासना के अधर में झूलती रहती हैं। तृप्ति का कोई पड़ाव भी नहीं
होता, बस आकांक्षा की आक्रामकता ही ग्रसित रखती है। दोनों पक्ष ही
क्रूर हैं।
शोषित होने वाले बच्चों में मस्तिष्क के तीनों भाग प्रभावित होते
देखे गए हैं। गहरे में स्थित (Hypothalamus) - हाईपोथैलेमस (जो यौन
परिपक्वता को निर्देशित करता है और उसे हमारे भावनात्मक प्रसारण से
जोड़ता है) काफ़ी हद तक अनियन्त्रित हो जाता है। बीच वाला भाग
(Amygdala) अमिगडैला उन्हीं वीभत्स क्षणों, चित्रों और स्मृति की
पुनरावृत्ति करता रहता है। बारबार वही दृश्य मुंह बाये सामने आकर
खड़े हो जाते हैं। मस्तिष्क का तीसरा मुख्य भाग हिपोकैम्पस
(Hippocampus) शोषण के कुप्रभाव में बौद्धिक विकास को क्षीण कर देता
है।
दूसरी और बलात्कारी अपनी शारीरिक या सामाजिक कुण्ठाएं खो देता है।
इसका कारण उसके मस्तिष्क की सरंचनात्मक क्रियाओं का सामान्य न रह
जाना बताया जाता है। कुछ रसायनों की मात्र भी रक्त में बढ़ जाती है -
केटेकोलामिन्ज़ (Catecholamines) उनमें से एक हैं। मस्तिष्क की बनावट
भी कई बलात्कारियों में कुछ अलग सी हो जाती है। किसी न किसी
मनोवैज्ञानिक विकार के शिकार वे ज़रूर होते हैं। यह बात अलग-अलग
सामाजिक स्तरों पर चलने वाले यौन-शोषण पर लागू नहीं होती। अधिकतर
शोषक तो सामान्य पुरुष या स्त्री ही होते हैं।
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एक वयस्क को शायद इस अन्धेरी खाई से बाहर निकाला जा सकता है। अपने
भीतर को उस बाहरी कुकृत्य ने छुआ भी नहीं, ऐसा समझाया जा सकता है।
किसी ने काया के भीतर ज़बरदस्ती प्रवेश किया, वह एक दुर्घटना थी शरीर
के साथ - मन वहां था ही नहीं। किसी बुद्धिसम्पन्न वयस्क को यह बात
समझाई जा सकती है, पर एक बच्ची को नहीं। और फिर 'इस लड़की का रेप हुआ
था' वाली भंगिमा को कोई कैसे सहे, किसी का रेप जैसे भीतर ही भीतर सब
के मनोरंजन का साधन हो। रेप के साथ जुड़ा हुआ रोमांच उसी जानवर का
रोमांच है, जिसने यह कुकृत्य किया था। ऐसी स्थिति हर समाज में रही
है। अब हर तरफ प्रयास तेज़ हो रहे हैं समस्य को सही रूप में देखने
के। एक रोगी को दवा भी चाहिए और प्यार भरा स्पर्श भी - इस बात को
समझा जा रहा है। बलात्कार के साथ चिपकी हुई मिट्टी और खरोंचों तक
निर्झरणी पहुंच रही है। शीतल और सुखद निर्झरणी। सामाजिक समझ, सांझ और
सहानुभूति की निर्झरणी।
घरों में बाल शोषण रोकने के लिए जो कुछ किया जा सकता है उस के लिए धन
की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ़ हमें अपने पालन-पोषण के तरीकों में
सावधानियां बरतनी होंगी और अपने साधारण ज्ञान को थोड़ा विकसित करना
होगा। बच्चों की आज़ादी और खुलेपन को कुंठित नहीं करना है। उन्हें
सुरक्षित रखने के लिए इधर-उधर से काटना छांटना नहीं है। प्यार देने
और प्यार पाने के उन के अधिकार को सीमित नहीं करना है। उन की दौड़
भाग करने की प्रकृति को और अधिक जगह देनी है ताकि वे खुल कर भाग दौड़
सकें। बहुत छोटी आयु से ही, चार वर्ष की आयु से ही, उन का ध्यान सही
और गलत तरह की पकड़ की ओर दिलाना ज़रूरी है। उन्हें पूरी तरह सचेत
किया जा सकता है कि किस तरह के स्पर्श उन के लिए ठीक नहीं हैं।
उन्हें गणित की तरह या भौगोलिक आकृति की तरह शरीरों के उन क्षेत्रों
के बारे में बताया जा सकता है जिन्हें बिना कारण छुआ छेड़ा नहीं जा
सकता। बड़ों की गोदियां सबसे सुरक्षित आश्रय-स्थलियां रही हैं और अब
भी हैं लेकिन उन आश्रय-स्थलियों में छिपे हुए कीलों-कांटों से भी
उन्हें सावधान किया जा सकता है। बच्चों के सामने हमें अपने व्यवहार
को खूब निर्ममता से परखना होगा। यदि हमारी संस्कृति जन्य आत्मिकताएं
और संसर्ग की भूखप्यास उन्हें अपने पास सुलाए बगैर तृप्त नहीं होती
तो अपने ऊपर घोर नियन्त्रण रखना होगा। परिचितों और सम्बन्धियों के
साथ सोना बच्चों का करीब करीब वर्जित होना चाहिए। इस मामले में प्यार
की दुहाई देना बिल्कुल अपर्याप्त है। ऐसे साहस से हमें अपने बच्चों
को हर समय भर कर रखना होगा कि वे किसी भी अनुचित स्पर्श को एकदम किसी
को बता सकें। अपने भाई बहनों, मां-बाप या जो भी कोई घर में हो। यह
साहस देना और विश्वास प्राप्त करना शायद हमारे पालन-पोषण की सबसे
बड़ी सफलता होगी। हमारी इस क्षेत्र की सबसे बड़ी विजय। हम खूब खुल कर
इस बारे में नियमित रूप से एक संवाद जारी रखें तभी यह सम्भव है।
किस सीमा तक यौन शिक्षा बच्चों को स्कूलों में दी जाए, यह बड़ा विवाद
का विषय बना हुआ है, हमारे समाज में भी और बाहरी समाजों में भी।
लेकिन बात घर से स्कूल और स्कूल से घर की निरन्तरता में ही सभंव हो
सकती है। अभी तो बच्चे को न स्कूल में विश्वास है और न घर में।
सिर्फ़ बीमारी की अवस्था में ही एक सिकुड़े से विश्वास के साथ हम
डाक्टर के पास जाते हैं। डाक्टर और भी ज़्यादा सिकुड़ कर बैठता है।
इस तरह की स्थिति में सिर्फ़ यही उम्मीद की जा सकती है कि बच्चे के
शरीर की जांच करते हुए शोषण के लक्षणों पर भी नज़र डाल ली जाए। जो
बात बच्चा माता-पिता को नहीं बता पाया वह डाक्टर बता सकता है। इस
क्षेत्र की सम्भावनाएं हमारे मानसिक क्षेत्र के उपचार में बहुत अधिक
दूरगामी हो सकती हैं। स्कूली शिक्षा की अगली कड़ी क्लास रूम से बाहर
स्कूल की नर्स या डाक्टर हो सकता है। इन कामों पर अधिक धन व्यय नहीं
होता। सिर्फ़ एक योजना की आवश्यकता है।
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इतनी अधिक मात्रा में शोषण हमारे चारों तरफ मौजूद है इस बात पर
विश्वास करने वालों की संख्या भी अभी बहुत कम है। इस सच्चाई का अहसास
दिलाने के लिए आंकड़े कभी भी काफ़ी नहीं होंगे। उन्हें किसी न किसी
उद्देश्य पूर्ति का साधन मान लिया जाएगा। इस बारे में हमारे वयस्कों
को हमारे बच्चे ही विश्वास दिला सकते हैं। उन के साथ कुठांरहित
वातावरण में संवाद की ज़रूरत है। सच का पता चलते ही प्रयत्न भी शुरू
होगा। उम्मीद भी जागेगी।
हज़ार साल से जलते हुए इस जंगल में सिर्फ़ उम्मीद का इक पेड़
हरा है अब भी।
(मार्च 2007)