(10)जेल
से बाहर-
राजनीति से विराग
जहाँ
तक याद है सितम्बर के महीने में मैं रिहा हुआ और कोडरमा तक बस में जा
के वहीं से रेल से रवाना हुआ। दूसरे ही दिन सवेरे बिहटा पहुँच गया।
पटने से लेकर बिहटा तक बहुत लोग मिलते गये रिहाई की खबर सभी को थी।
बिहटा में तो स्वागत के लिए अपार भीड़ थी। अभी तक सत्याग्रह जारी रहने
के कारण जोश बना था। उस दिन आश्रम के बगल में एक अच्छी सभा हुई थी।
मगर मैं उस सभा में नहीं गया। लोगों के प्रेम और उमंग का आभारी मैं
जरूर बना। हालाँकि दिल के भीतर जो वेदना थी वह अवर्णनीय थी। मैं उसे
किस पर प्रकट करता?
खुशी इस बात की थी कि उस इलाके के लोगों ने जैसा
साथ दिया था वैसी ही मुस्तैदी नजर आती थी! मैंने सभी से मिल-मिलाके
और उनके चन्दन, फूल,
माला आदि को स्वीकार करके उन्हें खुश किया। मेरा
स्वास्थ्य देखकर लोगों को घबराहट बहुत हुई। मगर अब तो चिन्ता न थी।
उसे ठीक होने में ज्यादा देर न लगी। फिर भी कई महीने तो लगी गये। इस
बीच कोई भी साथी मुझे छेड़ने न आये कि काम में लगिये। आते भी कैसे?
शरीर की हालत तो देखते ही थे। फिर भी सरकार तो
सतर्क थी ही।
अखबारों के
द्वारा ही मेरा राजनीतिक संसार से सम्बन्ध था। इसी बीच
पं.
मोतीलाल नेहरू की हालत खराब हुई। वे मरणासन्न हुए। इधर गांधी जी
समझौते में लगे थे। दिल्ली में जमावड़ा था और बातें होती थीं। गांधी
जी,
वायसराय लार्ड
अरविन से प्राय: मिलते थे। पं. नेहरू को यह जानकर खुशी हुई कि वे मर
तो रहे हैं,
मगर
उनका ध्येय सिध्द हो रहा है। उन्हें क्या पता था कि वह मृगमरीचिका थी
और उसका बदला सूद सहित देश को,
खासकर
उनके प्रान्त को आगे चुकाना पड़ा। खैर उनका शरीरान्त हुआ।
मैंने पढ़ा कि
मरण से पूर्व गायत्री जपने में वे लगे थे। हम लोगों में-आदमियों
में-धार्मिक
भावना कितनी निरूढ़ और मूलबध्द है इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता
है कि जो जीवन भर
धर्म
की बातों से अलग रहे वह भी मरण काल में गायत्री
या नमाज पढ़ने लगे। यह हमारी कमजोरी की निशानी है कि जिन्दगी भर कुछ
खयाल न करके अन्त में उसे सोचें और मानें। कुछ कट्टर नास्तिकों के
बारे में भी सुना है कि अन्त में उन्हें कहना पड़ा कि
''यदि
कोई भगवान् है तो वह मुझे बचाये-If
there be any God, O god save me”
लेकिन
क्रान्तिकारी और गैरक्रान्तिकारी नेतृत्व का पता भी इसी से लग जाता
है। यह न होता तो सभी नेता क्रान्तिकारी ही माने जाते।
हाँ तो,
राम-राम करके सन्
1931
ई. के प्रथम चतुर्थांश के बीतते-न-बीतते सरकार से सुलह हो गयी और सभी
लोग जेल से बाहर आ गये। सरकार ने जो सपनों में भी न सोचा था वह
जागृति और त्याग देखकर वह चक्कर में बह पड़ी। फिर तो उसने उससे निकलने
का अच्छा मौका ढूँढ़ा ताकि आगे के लिए तैयारी कर ले। इस बार तो अनजान
में और धोखे में वह भरपूर तैयारी न कर सकी थी। कांग्रेस ने आक्रमण
किया और उसने अपनी रक्षा की। अब आगे उसने स्वयं आक्रमण करने की ठानी
और कांग्रेस को अपनी रक्षा करने की फिक्र में डालने का विचार कर
लिया। इसीलिए साइमन कमीशन की रिपोर्ट को बेकार समझ गोलमेज कॉन्फ्रेंस
का पँवारा उसने फैलाया। ताकि उसी में फँसा के उसके पर्दे में इसी
दरम्यान में अपनी पूरी तैयारी कर ले। तब एकाएक कांग्रेस पर छापा
मारे।
कहते हैं,
नमक
कानून का राजनीति से क्या सम्बन्ध?
फिर भी
उसी के करते हमारे देश में नवजीवन आया। मगर उसी जाल में फँस के सन्
1932
ई. में हमने धोखा भी तो खाया। सरकार ने नमक की
रियायतें
कुछ मान
लीं और हमने अपनी जीत समझी। यदि यह बात न रहती और कोई असली राजनीतिक
या आर्थिक प्रश्न को लेकर लड़ाई जारी हुई रहती तो न सरकार उस पर झुकती
और न हम घपले में पड़ते। इसीलिए बुध्दिमानी इसी में है कि राजनीति में
सदा वैसे ही प्रश्न सामने लाये जायें और उन्हीं को लेकर लड़ा जाये।
गैर-राजनीतिक सवाल खड़े करके लड़ाई कभी न छेड़ी जाय। इसमें सदा खतरा है।
इधर मेरा
ज्यादा समय आश्रम में ही उसी के कार्य में बीतता था। राजनीति से तो
मैं अलग था ही। लड़ाई बन्द होने पर तो उसकी जरूरत भी न थी। मगर बिहार
प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी की ओर से बाबू श्री कृष्ण सिंह बाबू
राजेन्द्र प्रसाद आदि ने गया जिले में और पटने के मसौढ़ा परगने में
जिसका वर्णन पहले कर चुका हूँ,
दौरे
किये और किसानों की समस्याओं की जाँच की। बल्कि एक प्रकार की जाँच
कमिटी बनाकर जाँच की गयी। उनके सामने बड़ी भीषण बातें पेश हुईं।
किसानों से उनने प्रतिज्ञा की कि हम तुम्हारे दु:ख दूर करेंगे। कहते
हैं कि वे लोग हालात देख-देखकर सचमुच रोये! यह भी बताया जाता है कि
गया जिले में जब वे लोग गये तो एक विधावा बाभनी (ब्राह्मणी) सामने
आयी और कहने लगी कि एक बकरी पाली थी कि उसे बेच कर गुजर करती। लेकिन
टेकारी राज के कर्मचारी उसे बलात् ले जाकर चट्ट कर गये! अब मैं क्या
करूँ?
इस पर उन
लोगों को खून के ऑंसू बहाने पड़े। मगर इसका नतीजा क्या हुआ सो तो आगे
बतायेंगे। असल में गरजने वाले तो बरसते नहीं!
बात असल में
यह थी कि सन्
1930
ई. में जो लहर मुल्क में आयी उसके करते किसानों में अभूतपूर्व जागृति
हुई। फलत: उनकी समस्याएँ खामख्वाह ऊपर आ गयीं,
जो अब
तक दबी पड़ी थीं। जब उन्होंने नेताओं के कहने से त्याग और बलिदान किया
तो उन्हें हिम्मत हुई कि नेताओं से भी हम कुछ कहें और अपने दुखड़े
सुनायें। इसी का नतीजा था कि यह जाँच-पड़ताल हुई। आखिर नेता लोग इनकार
कैसे कर सकते?
अभी तो
किसानों से उन्हें बहुत काम लेने थे। इसीलिए उनकी बातों को लेकर
जाँच-पड़ताल की और उन्हें आश्वासन दिया। इसी बीच युक्त प्रान्त में भी
किसानों का यह प्रश्न उठा और बड़ा भीषण हो गया। यहाँ तक कि
युक्तप्रान्त की सन्
1932
ई. वाली लड़ाई किसानों के प्रश्नों को लेकर ही हुई और कर बन्दी चली।
और-और प्रान्तों में भी यह बात जरूर आयी। मगर जहाँ किसानों में
जागृति ज्यादा थी वहाँ यह प्रश्न भी तेज हो गया।
लेकिन इस
जाँच-पड़ताल से मेरा कोई सम्बन्ध न था। न मैं पूछा गया और न उसमें
शामिल हुआ। यह ठीक है कि गया जिले के डॉ. युगलकिशोर सिंह मुझसे
हजारीबाग जेल में किसानों की बातें बहुत करते थे। वहाँ किसान-सभा तथा
किसान आन्दोलन को चलाने की चर्चा बराबर होती थी। मगर मैं तो अब
विरागी था। कांग्रेस या राजनीति से जो भीषण विराग हुआ उसने किसान-सभा
से भी विरागी बना दिया। मुझे भी ताज्जुब है कि उस विराग से किसान-सभा
का तो कोई नाता था नहीं?
कांग्रेस का भले ही था,
किसान-सभा तो उस समय राजनीतिक संस्था थी भी नहीं। सपने में भी यह
सोचा न जा सका था कि उसे राजनीति में घसीटा जाय। फिर राजनीति से होने
वाले विराग का शिकार वह क्यों हुई यह एक पहेली है।
मालूम पड़ता है,
यह
स्वाभाविक सूचना थी इस बात की,
कि सभा
को गहरी राजनीति में पड़ना है। शायद इसीलिए यह न जानते हुए भी मैं
उससे विरागी बन गया। मैं सबको एक ही समझता था,
और
मानता था कि किसान आन्दोलन में जाने पर फिर वहीं खिंचकर चला जाऊँगा।
इसीलिए किसान-सभा से भी अलग ही रहा।
इसी बीच सन्
1932
ई. के आते-न-आते दूसरा सत्याग्रह संग्राम छिड़ गया। सरकार का दमन चक्र
तेजी से चलने लगा। वह चक्र ऐसा तेज था कि जरा सा शक होते ही किसी की
भी खैरियत न थी! मैंने देखा कि शायद मैं भी न बच सकूँ और खामख्वाह
सरकार का कोपभाजन बनूँ। फलत: आश्रम को भी सरकार हड़प लेगी और मैं पूरा
बेवकूफ बनूँगा! इसीलिए मैंने आश्रम औरों को सौंपा और उन्हें पत्रादि
लिख दिया। इसके बाद अलग जा बैठा। कुछ दिनों तक तो बिहटा आया ही नहीं।
कभी सुरतापुर,
कभी
सिमरी और कभी और जगह रहा। मेरे पास अभी तक कोई जाता भी न था। मगर जब
फिर आश्रम में आकर रहने लगा और प्रान्त के सभी नेता लोग पकड़े जा चुके,
कुछ ही
बचे थे,
तो मेरे पास
पैगाम पर पैगाम आने लगे। कई बार लोग आकर मिले कि चलिए और प्रान्त को
डिक्टेटरशिप स्वीकार कीजिये। जिस चीज से मैं हजारीबाग जेल में डरता
था वही हुई और दबाव पड़ने लगा। मगर मेरा वैराग्य और क्रोध इतना ज्यादा
था कि अभी तक शान्त न हो पाया था। इसलिए हजार कहने पर भी मैंने साफ
इनकार कर दिया और नहीं ही शामिल हुआ।
उस समय कुछ
लोगों से इस बारे में जो मेरी बहस हुई और मैंने अपना जो दृष्टिकोण
उनके सामने रखा वह बड़ा ही मजेदार तथा सुनने लायक है। मेरा कहना था कि
कांग्रेस के भीतर बहुत ही अनाचार और धाँली है। उसके नाम पर अनेक
कुकर्म किये जाते हैं। यद्यपि मैं कट्टर गांधीवादी था। तथापि ये
शिकायतें तो गांधीवादी न होने पर भी नैतिक दृष्टि से उचित ही थीं।
मगर गांधीवादी होने के कारण ये मुझे विशेष अखरती थीं। मैंने यह भी
कहा कि मैं जैसे चाहूँ उस संस्था को चला सकता हूँ नहीं। क्योंकि मेरी
आवाज वहाँ सुनता कौन है?
और जिस
संस्था को अपनी मर्जी के अनुसार न चला सकें उसमें रहना उचित नहीं।
क्योंकि रहने का सीधा अर्थ होता है उन अनाचारों और कुकर्मों की
जवाबदेही लेना। अनजान में यह बात हो भी सकती थी। लेकिन जब मैंने ये
बातें जान लीं तब कैसे रह सकता हूँ?
जान-बूझ कर जवाबदेही लेना होगा ही। अगर इस प्रकार समझने वाले लोग
संस्था से हट जाये तो वह खत्म हो जाय। फिर तो उसके नाम पर कोई गड़बड़ी
ही न हो सके। इसीलिए जान-बूझ कर उसमें रहने वालों के ऊपर जवाबदेही
खामख्वाह आ ही जाती है। वह उससे बच नहीं सकते। इसलिए मेरे विचार से
उन सब बातों की सबसे बड़ी जवाबदेही गांधी जी पर ही होनी चाहिए।
मुझे अच्छी
तरह याद है कि मैं हजार कोशिश करने पर भी लोगों को इस मामले में समझा
न सका। आज भी शायद ही किसी को समझा सकूँ। मगर मेरा कुछ ऐसा स्वभाव है
कि आज भी मैं ऐसी बात किसी-न-किसी प्रकार मानता ही हूँ। तब से लेकर
आज तक के अनुभवों ने मुझे बताया है कि जान-बूझकर तरह देने का नतीजा
बहुत बुरा होता है। यह ठीक है कि उस समय मैं अतिवादी था और अनेक
बातों को सिध्दान्त के रूप में मानता था। यह बात आज नहीं है। फिर भी
सार्वजनिक चरित्र (Public
Morality - Character)
नाम की एक
चीज ऐसी है,
जिसके बिना कोई सार्वजनिक संस्था चल नहीं सकती,
अपना ठीक उद्देश्य पूरा कर नहीं सकती। फलत: अगर
उसमें ऐसे लोग ज्यादातर आ
जाये,
तो इस बड़ी सी बात से,
इस महान् गुण से शून्य हों तो या तो उससे अलग हो जाना या उसे तोड़
देना, दो में एक ही चीज होनी चाहिए। नहीं
तो नष्ट चरित्र लोग दूसरों के नाम पर मजा उड़ाते ही रहेंगे। इस मामले
में मनुष्य कमजोरियाँ बहुत दिखाता है। कभी-कभी मुझे भी इन कमजोरियों
का शिकार होना पड़ा है। मगर अन्त में मैंने सीखा है कि कमजोरी दिखाना
भी वैसा ही अपराध है बल्कि उससे भी भारी। आखिर सार्वजनिक सेवकों की
और क्या बात हो सकती है जिसके बल पर लक्ष्यसिध्दि की आशा की जाय,
यदि यह पब्लिक मोरैलिटी और कैरेक्टर ही न रहा?
हममें तो इसकी आज बड़ी कमी है। शायद गुलाम देशों
में ऐसा ही होता है। लेकिन हमें आजाद भी तो आखिर होना है। इसीलिए तो
यह चरित्र निहायत जरूरी है।
(शीर्ष पर वापस)
(11)युनाइटेड
पार्टी और नकली किसान-सभा
इस
प्रकार मैंने जो पहले ही संकल्प कर लिया था वह ज्यों का त्यों बना
रहा। लाख कोशिश होने पर भी मैं कांग्रेस में या उसकी लड़ाई में सन्
1932
ई. में शामिल न हुआ। मगर जो तूफान था और जनता के
जोश को ठण्डा करने के लिए आर्डिनेन्स राज्य के जरिये सरकार ने जो
आतंक कायम कर रखा था वह वर्णनातीत था। लाठीचार्ज,
गोली काण्ड, जेल,
जायदाद की जब्ती और जुर्माने आदि के जरिये सरकार
ने इस बार आन्दोलन को दबाया ही आखिर। फलत: सन् 1930
ई. वाला रंग न रहा। बेशक इस बार जो प्रोग्राम एके
बाद दीगरे लड़ाई के लिए आते गये वह शुध्द राजनीतिक थे। युक्त प्रान्त
की लगान बन्दी और बिहार में चौकीदारी टैक्स का जहाँ-तहाँ बन्द किया
जाना, नमक बनाने जैसी अराजनीतिक चीज थोड़े
ही थी। रेलगाड़ियों की जंजीर खींचकर उन्हें रोक देना तो और भी उग्र
चीज थी। सारांश आन्दोलन गहराई में पहुँच रहा था। उसी के साथ दमन भी
भीषण रूप धरण कर रहा था।
ऐसी हालत में
सत्य की बात कहाँ तक निभ सकती थी और अहिंसा भी कहाँ तक चल सकती थी?
यह ठीक
है कि हिंसा का बाहरी रूप असम्भव और घातक था। मगर भीतर से दबाव डाल
के करवाना और धमकी आदि से काम लेना जरूरी हो गया। अगर सरकार अधीर एवं
उतावली (desperate)
थी तो
नेताओं और
कार्यकर्ताओं
का भी वैसा ही हो जाना स्वाभाविक था। इसलिए छिपकर काम होने लगा।
विलायती कपड़े पर शराब डालकर पहनना तथा इस प्रकार डाक ले जाने में
सुविधा प्राप्त करना आम बात थी। इसी प्रकार चोरी-चोरी सभी काम होने
लगे। यह बात अनिवार्य थी। जब आजादी की लड़ाई गहराई में पहुँचती है तो
ऐसा होता ही है। यह बात
गांधी
जी को भी मालूम होती रही। सत्याग्रह स्थगित करने में यह भी एक कारण
उन्होंने बताया था।
खैर,
मैं
लड़ाई में तो शामिल न हुआ। मगर उसका परिणाम भी दूसरे रूप में अच्छा ही
होने वाला था। जब बिहार की सरकार ने देखा कि कांग्रेस इसमें फँसी है
और प्राय: सभी नेता जेलों में बन्द हैं तो उसने एक चाल चली। उसने
अपने दोस्त जमींदारों की पीठ ठोंक के खड़ा किया कि यही मौका है,
बिहार
प्रान्त में अपना नेतृत्व और अपनी धाक जमा ले। मैदान खाली है। इसलिए
एक नयी पार्टी बनाकर उसके द्वारा अपना प्रभुत्व कायम करें। पटने में
तो सलाह हुई ही। मगर जाड़ा आते-न-आते राँची में भी सभी बड़े जमींदार और
सरकार के पिट्ठू जमा हुए। वहीं गवर्नर से गुपचुप सलाह-मशविरा करके
'युनाइटेड
पार्टी' (संयुक्त
दल) की स्थापना की घोषण् की गयी। यह प्रचार किया गया कि इस पार्टी
में जमींदार,
किसान,
पूँजीपति,
मजदूर,
हिन्दू,
मुस्लिम,
ईसाई सभी
शामिल हैं। इसीलिए यही तो असली संयुक्त दल है। सीधा मतलब इसका यह था
कि कांग्रेस को भी नीचा दिखाया जाय। जहाँ-तहाँ इसके लेक्चर भी हुए और
समाचार-पत्रों आदि के द्वारा खूब ढिंढोरा भी पीटा गया।
मगर इतने से
ही तो कुछ होने-जाने का था नहीं। पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए कोई
आधार और जरिया भी तो होना चाहिए। फिर सोचा गया कि सिवाय टेनेन्सी
(काश्तकारी) कानून के संशोधान के और हो क्या सकता है?
यह
झमेला बहुत दिनों से चलता था कि किसानों को पेड़ों में हक मिले या
नहीं,
जमीन की
खरीद-बिक्री वे बेरोकटोक करें या नहीं,
ईंट,
खपड़ा,
कुऑं,
तालाब
और पक्का मकान अपनी कायमी जमीन में बनावें या नहीं। जमींदार भी चाहते
थे कि सर्टिफिकेट का हक उन्हें आसानी से मिले,
सलामी
काफी पायें और जोत जमीन का दस प्रतिशत तक जीरात बना सकें। ये और इसी
प्रकार की बातें किसान जमींदार समस्या को सदा पेचीदा बनाये रहती थी।
यारों ने सोचा कि यही मौका है,
किसानों को थोड़ी-बहुत ये चीजें देकर अपनी जड़ मजबूत कर लें,
खास कर
जीरात और सर्टिफिकेट के बारे में।
मौजूदा कानून
के अनुसार जमींदार की जीरात,
जिसे
कामत और सीर भी कहते हैं,
एक इंच
भी बढ़ नहीं सकती थी। जो पहले थी,
वही रह
सकती है। सर्टिफिकेट का अधिकार कहने को तो था मगर मिलता न था। उसके
लिए जो दिक्कतें थीं,
उन्हें
दूर करना जमींदारों के लिए जरूरी था। ऐसा होने पर,
बकाया
लगान की नालिश करने की जरूरत रही न जायगी। बेखटके वसूली हो जायगी।
इसके लिए किसानों को कायमी जमीन में मकान,
ईंट,
खपड़ा
वगैरह बनाने का हक कुछ शर्तों के साथ देने,
पेड़ों
और बाँसों में भी कुछ ऐसा ही करने और एक मुकर्रर सलामी देने पर जमीन
की खरीद-बिक्री का हक स्वीकार कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं,
ऐसा
उन्होंने तय किया। ये अधिकार देने में कुछ-न-कुछ कानूनी दाँव-पेंच तो
रखे ही जाते। कान छेदने के समय जब बच्चे रोते हैं और छटपट करके छेदने
नहीं देते तो गुड़ या मिठाई के बहाने वे शान्त किये जाते हैं। वही चाल
यहाँ भी चलने के लिए सोचा गया।
मगर,
आखिर
यह हो कैसे?
सोचा
गया,
कांग्रेस ने
तो संशोधान का विरोध किया था। किसान-सभा का तो कहना ही क्या?
लेकिन
कांग्रेस तो लड़ाई में फँसी है। फलत: वह तो कुछ कर सकती नहीं। वह
किसान-सभा भी तो इस समय खटाई में पड़ी है। उसका काम बन्द है। उसका
सभापति इन कामों से विरागी हो रहा है। ऐसी दशा में जो उसके एकाध और
आदमी हैं उन्हें मिलाकर एक नकली
(bogus)
किसान-सभा
खड़ी की जाय। फिर जो बिल युनाइटेड पार्टी के नाम से जमींदार तैयार
करें उस पर उसी बनावटी किसान-सभा और उसके स्वयंभू लीडरों की मुहर
दिला कर उसे ही कौंसिल में पास कर लिया जाय। कौंसिल में कांग्रेस
पार्टी के न रहने से जैसा भी बिल चाहेंगे पास कर ही लेंगे। इस प्रकार
जमींदारों और सरकार के दोस्तों का काम भी बन आयगा और यह ढिंढोरा भी
चारों तरफ पिट जायगा कि किसानों को जो हक कांग्रेस और पुरानी
किसान-सभा न दिला सकी उसे ही युनाइटेड पार्टी ने इस नयी किसान-सभा और
उसके नेताओं की सहायता से दे दिया। इसका अनिवार्य परिणाम यही होगा कि
यूनाइटेड पार्टी और उसकी पुछल्ला यह नकली किसान-सभा,
ये दोनों ही, किसानों
में प्रिय बन
जायेगी।
बस,
यही तो चाहिए। इतने से ही तो काम बन जायगा।
इसके बाद उन
लोगों ने-जमींदारों
और उनके सलाहकारों ने दो काम किये। एक तो किसानों के नाम पर कभी-कभी
कौंसिल में बोलकर सस्ती किसान लीडरी का सेहरा अपने सिर बाँधने वाले
श्री शिवशंकर झा,
जो पहले भी करते थे और आज भी जमींदारों की सहायता
और मैनेजरी करते हैं को, और बाबू गुरुसहाय
लाल, जो हमारी सभा के सहायक मन्त्रियों
में एक थे को, युनाइटेड पार्टी का मेम्बर
बना लिया। गो यह बात छिपाई गयी। क्योंकि इससे किसान और दूसरे लोग भड़क
जाते। दूसरे उन्हें और खासकर श्री गुरुसहाय बाबू को उकसाकर तैयार
किया गया कि चटपट एक नकली किसान-सभा बना डालें। बाद में उसी की ओर से
बिहार के किसानों के नाम पर जमींदारों से टेनेन्सी कानून के बारे में
समझौता करने का ढोंग रचकर युनाइटेड पार्टी का मनोरथ पूरा करें। जहाँ
तक याद पड़ता है सन् 1933 ई. के शुरू में
ही बनावटी सभा खड़ी की गयी।
आगे बढ़ने के
पहले प्रसंगवश एक बात कह देना जरूरी है। सन्
1931
ई. में पहला सत्याग्रह स्थगित होने के बाद जब कांग्रेस की तरफ से
पटना एवं गया में किसानों की तकलीफों की जाँच हुई तो उस समय कुछ नये
लोग,
जिनका
कांग्रेस से सम्बन्ध था और पीछे तो सोशलिस्ट बनने का भी दावा करने
लगे थे,
किसान सेवक बन
बैठे। ये लोग किसान-सभा चलाने के स्वप्न भी देखने लगे थे। उनकी
हरकतें यों तो बाहर खुली तौर पर मालूम न हुईं। फिर भी इधर-उधर की
बातों से उनकी इस दिली अरमान और तमन्ना का पता लगता रहता था। उनमें
कुछ ने एकाध बार मुझसे भी शिष्टाचार के नाते कहा कि हमारा पथ
प्रदर्शन करें। श्री अम्बिकाकान्त सिन्हा ने तो यह भी कहा कि हमें
जमींदार फुसला लेंगे। इसलिए हमें रास्ता बताते चलिए। मैं तो खूब
समझता था कि उनके कथन का क्या मतलब है और वे कहाँ तक किसानों की सेवा
कर सकते हैं। फिर भी मैंने उसमें पड़ने से साफ इनकार किया। उन्हीं की
तरह एक और भी सज्जन,
श्री
देवकी प्रसाद सिन्हा किसान नेता होने का सपना देखते थे। कभी-कभी वह
भी किसानों की भाषा बोल चुके थे। वकील तो थे ही। बस,
नये
सिरे से सेहरा बाँधने के लिए इतना ही पर्याप्त था।
जमींदार तो इस
ताक में थे ही कि कुछ लोग मिल जायें जिससे बिहार प्रान्तीय किसान-सभा
के नाम पर आसानी से धोखे की टट्टी खड़ी की जा सके। उनके लिए ये दोनों
सिन्हा और गुरुसहाय बाबू पर्याप्त थे। उनने इनकी पीठ ठोंक दी। इन्हें
पैसे भी दिए। ताकि उसी से ये लोग सभा बनायें। फलत: एक दिन अचानक सन्
1932
के अन्त या
सन् 1933
के शुरू में
अखबारों में पढ़ा कि पटने में बाबू गुरुसहाय लाल के घर पर किसानों और
किसान सेवकों का जमाव हुआ और पुनपुन (पटने के निकट) के श्री डोमा
सिंह किसान की अध्यक्षता में सभा होकर बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की
स्थापना हुई। जिसके सभापति वही डोमा बाबू बने और मन्त्री पूर्वोक्त
तीन महारथी-श्री
अम्बिकाकान्त सिन्हा,
श्री देवकी प्रसाद सिन्हा और श्री गुरुसहाय लाल
बनाये गये। किसी अजनबी स्वामी का भी नाम पढ़ा कि मीटिंग में मौजूद थे।
पहले तो एक किसान को कहीं से ढूँढ़ लिया,
ताकि लोग समझें कि सचमुच किसान-सभा बनी। दूसरे असली चीज-मन्त्री-यार
लोग जो बने!
मुझे पढ़ कर
हवा के रुख का कुछ पता लगा। क्योंकि हजार अलग रहने पर भी किसानों की
बात थी न?
इसलिए उस पर
दृष्टि रखना मेरे लिए स्वाभाविक था। युनाइटेड पार्टी की बातों को भी
बड़ी सतर्कता से देख रहा था। मुझे सारा अन्दाज लग गया कि कैसा
षडयन्त्र है और क्या होने जा रहा है। मगर थोड़ा ताज्जुब जरूर हुआ कि
श्री गुरुसहाय लाल जैसे वकील और पढ़े-लिखे आदमी ने,
जो अभी
तक हमारी सभा के सहायक मन्त्री थे,
ऐसा
काम कैसे कर डाला और एक प्रतिद्वन्द्वी किसान-सभा बना डाली। तुर्रा
तो यह कि न तो हमसे पूछा ही और न हमारी सभा से इस्तीफा ही दिया। वे
कौंसिल में स्वराज्य पार्टी के मेम्बर भी रह चुके थे और उसी की आज्ञा
से कौंसिल से इस्तीफा भी दिया था। उन्हें ऐसा करने के पूर्व या तो
हमारी सभा से पहले इस्तीफा देना था,
या
कम-से-कम हमसे पूछना तो था। नहीं तो उसी की मीटिंग बुलाकर यह प्रश्न
उसी में पेश करना था। इससे मरी धारणा और भी दृढ़ हो गयी कि इन लोगों
ने पूरी तैयारी कर ली है और कुछ-न-कुछ होने वाला है। लेकिन फिर भी
मैं तटस्थ ही रहा और इसकी परवाह न की कि क्या हो रहा है। हालाँकि,
न जाने
क्यों दिल थोड़ा सा बेचैन सा हो जाता था।
इसके बाद
एकाएक एक दिन पूर्व के अखबारों में पढ़ा कि ता.
14-2-33
को बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की बैठक गुलाबबाग,
पटना
में दोपहर के बाद होगी। उसी में किसान-जमींदार समझौते पर विचार होगा।
मुझे पीछे यह भी मालूम हुआ कि इस बारे में एक छोटी सी छपी नोटिस भी
हिन्दी में बँटी थी। खास कर बिहटा के आस-पास के इलाके में। लेकिन
मुझे इस सभा की खबर न मिले इसकी पूरी कोशिश की गयी। इसीलिए न तो मेरे
पास ही नोटिस पहुँची और न बिहटा में ही या पास के गाँवों में ही। हाँ,
उसी
रास्ते बिक्रम और मसौढ़ा में जाकर कोई बाँट आया। यह भी पता लगा कि कुछ
लोगों ने किसानों के नाम पर जमींदारों से कोई समझौता किया है। उसकी
कुछ शर्ते भी ठीक की गयी हैं। मगर सिवाय आश्चर्य करने के मैंने और
कुछ नहीं किया। देखता रहा कि क्या होता है।
इस बीच एक
घटना घटी,
जिसने यारों
के सारे किये-किराये पर पानी ही फेर दिया। किसान-सभा के इतिहास में
इससे एक भारी पलटा भी हुआ। इसी के करते मैं उसमें फिर सारी शक्ति के
साथ खिंच आया। या यों कहना ज्यादा ठीक होगा कि असली बिहार प्रान्तीय
किसान-सभा और किसान-आन्दोलन का इसी से सूत्र पात हुआ। मैं पहले गया
के डॉ. युगल किशोर सिंह का जिक्र कर चुका हूँ। ठीक
13
फरवरी को ही,
पं.
यदुनन्दन शर्मा ने जो आज हमारे किसान आन्दोलन के प्रधान स्तम्भ हैं,
तथा
अन्य कई किसान सेवकों ने भी पटने की इस किसान-सभा में किसानों के लिए
भारी खतरा देखा और क्या अब करना चाहिए,
सोचा।
अन्त में यही तय किया कि डॉ. युगल किशोर सिंह फौरन स्वामी जी के पास
जाकर यदि किसी प्रकार उन्हें उस किसान-सभा में लाने में सफल हों तभी
यह खतरा टल सकता है। दूसरा उपाय है नहीं;
फलत:
डॉक्टर साहब को मेरे पास भेजा। उनके पाँव में भारी जख्म था। फिर भी न
जानें कैसे वे मरते-जीते चल पड़े और पटने में पहुँचे। सबसे पहले देवकी
बाबू के डेरे में गये जहाँ अम्बिका बाबू भी हाजिर थे। उन्होंने सभा
के बारे में पूछताछ की खासतौर से यह जानना चाहा कि स्वामी जी और
कार्यी जी को खबर दी गयी है या नहीं और वे लोग इसमें शामिल होंगे या
नहीं। उनसे मिथ्या ही कहा गया कि जरूर खबर दी गयी है और वे लोग जरूर
आयेंगे। आप निश्चिन्त रहें। डॉक्टर साहब ने मिलने पर मुझसे ये बातें
कही थीं। लेकिन उन्हें कुछ शक हुआ। फलत: बिहटा चलने के लिए इच्छा
जाहिर की। इस पर वे रोके गये कि जाने की जरूरत नहीं। स्वामी जी तो कल
आयँगे ही। मगर जब उन्होंने हठ किया कि खामख्वाह जायेगे तो हारकर वे
लोग चुप हो गये। इस प्रकार डॉक्टर साहब
13
फरवरी सन् 1933
ई. की शाम को मेरे पास पहुँचे और दण्ड प्रणाम के बाद बैठे।
जब मैंने उनसे
आने का कारण पूछा तो सारी दास्तान उनने सुनाई। पटना कल जरूर चलिए यह
भी कहा। मैंने साफ इनकार किया और कहा कि नहीं जाता। एक तो मैं
किसान-सभा से अलग हूँ,
गो
इस्तीफा नहीं दिया है। दूसरे जब मुझे उन लोगों ने खबर तक देना उचित
नहीं समझा,
हालाँकि,
सभी जानते हैं
कि यहीं हूँ,
तो फिर
मेरा वहाँ बिना बुलाये जाना उचित नहीं। इसलिए हर्गिज नहीं जा सकता।
इस पर उस बेचारे की मानसिक दशा क्या हुई यह कौन बताये?
मैंने
कोरा उत्तर दे तो दिया मगर वे ठण्डे न पड़े। रह-रह के आह भरने जैसे
एकाध शब्द बोलकर चलने का आग्रह करते। वह शब्द भी आधा बाहर होता और
आधा मुँह के भीतर ही रह जाता। पाँव के जख्म से उन्हें ज्वर भी हो आया
था। इसलिए दो कष्टों के बीच आहें भरते थे। कभी कहते
'किसान
मारे जायेगे'।
कभी बोलते 'चलते
तो भला होता'
फिर
कराहते कि 'उन्हें
कौन बचायेगा?'
सारांश,
जब तक
मैं जगा रहा वह ऐसा ही करते रहे। पर मैं इनकार ही करता रहा। फिर सो
गया। मगर उनकी मार्मिक व्यथा पूर्ण अपील ने धीरे-धीरे मुझ पर असर
किया। खासकर बीमारी की दशा में जो आह निकलती थी वह हृदय में जा
बिंधी। फलत: सवेरे उठने पर नित्य कर्म करते-करते मैं पिघला और उनसे
कह दिया कि ''लो
अब चलूँगा।''
फिर तो
उनका चेहरा खिल गया।
आखिर,
खा-पी
के दोनों ही दस बजे के करीब ट्रेन से रवाना हुए और पटने में पहुँचकर
इधर-उधर घूमते-घामते निश्चित समय से पूर्व ही गुलाब बाग में पहुँचे।
वहाँ देखा कि तीनों मन्त्री बैठे हैं और सारी तैयारी है। देखते ही,
'आइये
आइये'
हुआ। मैंने
गुरु सहाय बाबू और अम्बिका बाबू के पास बैठकर फौरन कहा कि
''भई,
खबर भी
न दी। यह क्या?
यह तो
डॉक्टर का काम था कि सत्याग्रह करके बलात् घसीट लाया''।
इस पर जो भी बहानेबाजी हो सकती थी दोस्तों ने की। इतने में ही मेरी
ऑंख एक लेटरपेपर पर सहसा गयी तो देखा कि बाबू गुरु सहाय लाल का नाम
धाम उस पर छपा है और उसी के नीचे अंग्रेजी में कई बातें हाथ से लिखी
हुई हैं। नीचे किसी का हस्ताक्षर नहीं था। तब तक उन्होंने उसे उठाकर
उस पर छपा हुआ अपना नाम और पता फाड़ दिया। बाकी छोड़ दिया। उस समय मैं
इसे समझ न सका। परन्तु पीछे इसका रहस्य मालूम हो गया।
असल में
तथाकथित समझौते की शर्ते उस पर लिखी थीं और कहीं मैं यह न समझ लूँ कि
गुरु सहाय बाबू ने ही वह शर्ते तय की हैं फलत: वह भी उनमें एक पार्टी
हैं,
इसीलिए अपना
नाम-धाम उनने फाड़ लिया। इतने में ही देखा कि बिहार लैण्ड होल्डर्स
असोसियेशन के स्तम्भ श्री सच्चिदानन्द सिन्हा और राजा सूर्यपुरा,
श्री
राधिकारमण प्रसाद सिंह भी सभा में पधारे। मैं आश्चर्य में था और कुछ
समझ न सका कि ये महानुभाव यहाँ क्यों पधारे जब कि यह किसान-सभा है।
मगर कुछ बोला नहीं।
(शीर्ष पर वापस)
(12)नकली
का भण्डाफोड़ और असली सभा फिर
फिर
सभा का काम शुरू हुआ। बिहार प्रान्तीय किसानों की सभा क्या थी,
खासी दिल्लगी थी। थोड़े से शहर के लोग थे। दो-चार
बाहर के भी थे और शायद दस-बीस किसान। चटपट गुरु सहाय बाबू ने कहा कि
किसान-सभा का अध्यक्ष
किसी किसान को ही होना चाहिए। अत: मैं बाबू डोमा सिंह का नाम इसके
लिए पेश करता हूँ। देवकी बाबू ने समर्थन किया और श्री डोमा सिंह
अध्यक्ष
बने। उसी समय मैंने जाना कि यही डोमा सिंह हैं। इसके बाद फौरन मैंने
सवाल उठाया कि एक बिहार प्रान्तीय किसान-सभा पहले से है। हममें कुछ
लोग उसके पदाधिकारी आदि भी हैं। ऐसी दशा में बिना उसे या उसके
मेम्बरों और पदाधिकारयों को एक मौका दिये ही दूसरी सभा खड़ी करने से
आगे खतरा हो सकता है। इसलिए या तो दोनों को मिलाकर नयी सभा बने या
कम-से-कम पुराने लोगों को एक मौका दिया जाय कि वे क्या करना चाहते
हैं?
ताकि पीछे उन्हें कुछ करने का न्यायोचित हक न रह
जाय। इस पर गुरु सहाय बाबू ने कहा कि ''ठीक''।
मगर देवकी
बाबू घबराये। वे अपनी लीडरी खतरे में देख बोल बैठे कि वे लोग तो कुछ
करते-धरते नहीं। फिर हम क्यों रुकें रहें?
मैंने
कहा कि सो तो ठीक है। मगर कायदे के अनुसार उन्हें मौका देने के लिए
रुकना ही चाहिए। वे बोले,
क्या
हम लोग भी बैठे ही रहें,
यदि वे
लोग कुछ नहीं करते?
मैंने
कहा,
खुशी से काम
कीजिये,
खूब कीजिये,
बैठने
को कौन कहता है?
मगर दो
सभाएँ बन के आपस में ही न लड़ें,
इसके
लिए एक मौका उन्हें दीजिये। इसमें आप ही को लाभ है। इस पर लोगों ने
मान लिया और पुराने पदाधिकारियों आदि को खबर देने की ठहरी। जहाँ तक
याद है, 29
फरवरी को फिर दोनों की संयुक्त मीटिंग करने का निश्चय हुआ। इससे वहाँ
बैठे राजा सूर्यपुरा और दूसरे लोग घबराये सही। मगर करते क्या?
यह तो
कायदे की बात ठहरी।
फिर प्रश्न
उठा कि जमींदारों के साथ किसानों के समझौते की जो शर्ते हैं,
उन पर
विचार हो। लोग हाँ-हाँ कर बैठे और अम्बिका बाबू ने चटपट वही कागज पर
लिखी उसकी तथाकथित शर्ते पढ़ सुनाईं। फिर राय देने लगे कि जहाँ तक ये
शर्ते किसानों को अधिकार देती हैं वहाँ तक तो मान ही लेना चाहिए और
ज्यादे के लिए आन्दोलन भी जारी रखना चाहिए। यह निराली दलील थी। मैं
हैरान था कि समझौता भी हो और उसके बाद उससे अधिक हक के लिए आन्दोलन
भी जारी रहे वह अजीब समझौता है। इसे विरोधी (जमींदार) कैसे मानेंगे
कि हम आन्दोलन जारी रखेंगे।
लेकिन इस पचड़े
में पड़ने के बजाय मैंने फिर कायदे-कानून का ही प्रश्न उठाया और इस
सवाल को फिलहाल स्थगित करना चाहा। मैंने कहा कि कुछ भी निश्चय करने
के पूर्व आखिर हमें मालूम भी तो हो कि क्या शर्ते हैं। आप यहाँ एक
कागज पर लिखी बातें सुना रहे हैं और कहते हैं कि यही शर्ते हैं। मैं
माने लेता हूँ कि यही हैं। मगर जब तक इन्हें छाप कर आपने किसानों में
बाँटा नहीं और उन्हें इनकी जानकारी कराई नहीं,
तब तक
उन्हीं के नाम पर इन्हें स्वीकार करने की बात आप कैसे कर सकते हैं?
आखिर
लोगों को पहले से इनकी जानकारी भी तो हो। साथ ही पहले से जानकारी
रहने पर इनके बारे में सोच-समझ कर यहाँ लोग आते। मगर जो लोग यहाँ हैं
उन्हें भी तो इनकी जानकारी पहले थी नहीं ताकि वे तैयार होकर आते और
अपनी राय इनके बारे में देते। भला यह भी कोई तरीका है कि इतने
महत्त्व पूर्ण और प्रान्त भर के किसानों के जीवन-मरण से सम्बन्ध रखने
वाले प्रश्नों के बारे में हम फैसला करने बैठे और उन पर पहले जरा सा
गौर भी नहीं किया?
अब तो लोग दंग
थे। सबों के मनोरथ पर पाला पड़ता नजर आया। केवल गुरुसहाय बाबू बोले कि
हाँ,
यह तो ठीक है।
मगर देखा कि राजा सूर्यपुरा बुरी तरह बेचैन हैं और चाहते हैं कि
शर्तों के बारे में कुछ-न-कुछ फैसला यहीं हो जाय। उन्हें गुरुसहाय
बाबू से बड़ी आशा थी। मगर वह तो मेरे चंगुल में आ गये। बाकी दो उनके
बिना बेकार साबित हुए। इससे राजा साहब को गुरुसहाय बाबू पर गुस्सा
हुआ जो भीतर ही रहा। बाहर आता भी कैसे?
तब तो
सारी कलई जो खुल जाती। मगर पीछे निकाला गया जब कौंसिल में उनका
नामिनेशन न करवा के बाबू शिवशंकर झा का करवाया गया। क्योंकि,
जैसा
पीछे पता चला,
गुरुसहाय बाबू को नामजद कराने का वचन जमींदार दे चुके थे।
यद्यपि राजा
साहब मजबूर थे और कुछ कर न सकते थे। तथापि उनने दलील शुरू की और कहा
कि अच्छे काम में देर करना ठीक नहीं,
खतरा
हो सकता है। मैंने कहा कि
''राजा
साहब,
मजबूरी है,
या
करें?''
बोले,
''शर्ते
तो सामने हैं''।
मैंने कहा कि ''आखिर
सोचें भी तो,
क्या
यों ही राय दें। कहीं किसानों का गला कटा तो?''
उनने
फिर कहा, ''आखिर
समझौता ही तो है। इसमें
'गिव
एण्ड टेक'
(Give and take)
की बात है।
कुछ आप छोड़ें,
कुछ हम छोड़ें, और काम
चले।'' मैंने कहा, ''राजा
साहब, सो तो ठीक है। मगर,
यही तो सोचना है कि किसे कितना छोड़ना है। आपका और
गरीब किसानों का छोड़ना-दोनों
बराबर नहीं हो सकता। हाथी के सामने पाँच मन खाने के लिए चावल पड़ा था
और चींटी के सामने सिर्फ एक चावल था। बात-ही-बात में हाथी ने चींटी
से कहा कि ले मैं भी एक चावल छोड़ता हूँ और तू भी छोड़ दे। बस,
हमारी और तेरी बहस खत्म। तो क्या यह ठीक होगा?
देखने में तो दोनों का समान ही त्याग है। मगर एक
चावल छोड़ने से जहाँ हाथी का कुछ न होगा,
वहाँ चींटी का सारा परिवार भूखों मर जायगा। फलत: हमें यही तो सोचना
है कि ये
शर्ते
चींटी के परिवार को कहीं मारने वाली तो नहीं हैं?
इसीलिए समय चाहते हैं। साथ ही,
जमींदार-सभा के प्रतिनिधि आप लोग चुनें और
किसान-सभा के हम चुनें और जरूरत हो तो काफी बातचीत करके कमी-बेशी या
उज्र पूरा किया जाय, यहाँ किससे पूछें?
जमींदार-सभा ने किसी को चुना है या नहीं कौन कहे?
यह कौन है यह भी कैसे जानें?''
बस फिर तो
राजा साहब की बोलती बन्द हो गयी। उन्होंने पहली बार देखा कि यह तो
गजब के आदमी से पाला पड़ा। मैंने भी पहली ही बार उन्हें देखा और उनकी
दलील सुनी। यों तो बहुत सुन रखा था कि वे खूब ही होशियार और
चलते-पुर्जे हैं। मैंने देखा कि वे निराश-से हो रहे हैं। लेकिन इससे
क्या?
आखिर उसी
29
फरवरी को ही
तो मिल कर फैसला करने का निश्चय हुआ। तब तक मन्त्री जी को हुक्म हुआ
कि समझौते की शर्ते छपवा कर बाँटें। उन्हीं के साथ
29वीं
की मीटिंग की सूचना भी हो। यह भी आदेश रहे कि लोग अपने-अपने इलाकों
में सभाएँ करके किसानों को ये शर्ते समझायें और उनकी राय लेकर आयें।
खूब आन्दोलन और प्रचार हो यह बात भी तय पायी। ये शर्ते छपीं और बँटीं
भी।
मगर अब जो
सबसे बड़ी दिक्कत पेश आई वह यह कि ये शर्ते किसके दरम्यान तय पाईं और
इनमें पार्टी कौन-कौन हुए। यह प्रश्न उठना जरूरी था। मैं तो चाहता ही
था कि सब बातों की सफाई हो। इसीलिए तो मौका लिया गया। मगर यहाँ तो
तबेले में लतियाहुज शुरू हो गयी। पता ही नहीं चलता था कि कब और किसके
दरम्यान ये शर्ते तय पायी थीं। यह भी नहीं पता चला कि आया यही शर्ते
थीं या कि कुछ और। यह भी नहीं मालूम हुआ कि कभी ये या और शर्ते दो
पार्टियों के बीच किसी कागज पर लिखकर उस पर उन दोनों के हस्ताक्षर भी
हुए थे। यहाँ तक नौबत पहुँची कि कुछ शर्तों के बारे में गुरुसहाय
बाबू का कहना कुछ था और चन्द्रेश्वर बाबू का कुछ दूसरा ही। यही नहीं,
जमींदारों की तरफ से भी इन शर्तों के विभिन्न रूप छपे और अन्त में
मैंने देखा कि तथाकथित समझौते की शर्तों के तीन स्वरूप लोगों के
सामने समय-समय पर आये जिनमें एक दूसरे में कुछ-न-कुछ अन्तर जरूर था।
बात यह थी कि यों ही जबानी गोलमटोल बातें करके जमींदार लोग किसानों
को ठगना चाहते थे। उधर जो लोग किसानों की तरफ से बोलने का दम भरते थे
उन्हें न तो इसकी तमीज थी और न परवाह। उन्हें तो अपना मतलब अलग ही
साधाना था। जमींदारों की अक्ल के सामने वह टिक भी नहीं सकते। फलत:,
आसानी
से चकमे में आ गये।
खैर,
सभा का
काम तो इस प्रकार पूरा हुआ और मेरा जो मतलब था वह सिध्द हो गया। डॉ.
युगलकिशोर सिंह जिस मतलब से मुझे लेने बिहटा गये थे वह सोलहों आना
पूरा हुआ। साथ ही जिन लोगों ने अपना मतलब गाँठने के लिए यह कुचक्र
रचा था वे भग्न मनोरथ भी हो गये। उनके दिल पर क्या गुजरती थी इसका
पता गैरों को क्या हो सकता था?
लेकिन
अभी कुछ होना बाकी था और वह भी पूरा हो के रहा।
अब तक हममें
किसे पता था कि बिहार लैण्डहोल्डर्स असोसियेशन के कर्णधारों के पैसे
से ही यह किसान-सभा बुलाई गयी थी और यही किसानों के भाग्य का निपटारा
टेनेन्सी कानून के पेचीदे मामले में करने वाली थी। सो चलते-चलाते
उसका भी भण्डाफोड़ होई गया। बात यों हुई कि यारों ने सोचा,
शिष्टाचार के अनुसार कुछ लोगों को धन्यवाद तो दे लें। इसलिए विसर्जन
होने के पूर्व धन्यवाद दान चला और याद नहीं कि किसे-किसे धन्यवाद
दिये गये। मगर आखिर में देवकी बाबू ने कहा कि सिन्हा साहब (श्री
सच्चिदानन्द सिन्हा) को भी धन्यवाद दिया जाय। मैंने कहा,
किसान-सभा को उन्हें धन्यवाद देने से क्या ताल्लुक?
उन्होंने पुनरपि हठ किया कि नहीं,
धन्यवाद तो देना ही चाहिए उन्हें भी। मैंने साफ कहा कि यह अनुचित है।
तब हारकर चुपके से उनने मुझसे कह दिया कि उन्होंने सभा के काम के लिए
रुपये जो दिये थे। इस पर मैंने धीरे से उनसे कह दिया कि तब तो और भी
बुरा होगा,
यदि
आपने उनका नाम लिया। क्योंकि लोग समझ जायेगे कि आपकी यह सभा
जमींदारों के ही पैसे से बनी है। इस पर चुप हो गये और सभा विसर्जन
हुई।
इसी दरम्यान
तथाकथित समझौते के आधार पर एक टेनेन्सी बिल तैयार करके श्री
रायबहादुर श्यामनन्दन सहाय ने जमींदारों की तरफ से कौंसिल में पेश भी
कर दिया था। उसका अधिवेशन चालू था। और खासतौर से बाबू शिवशंकर झा
वकील (मधुबनी,
दरभंगा) इसके समर्थन के लिए किसानों के प्रतिनिधि के नाम में
जमींदारों के ही द्वारा नामजद भी करवाये गये थे। बाबू गुरुसहाय लाल
ने जो कमजोरी हमारी सभा में उस दिन दिखायी उसके करते जमींदारों ने
उन्हें पहले नामजद नहीं कराया। मगर पीछे मालूम होता है,
भीतर-ही-भीतर उनने भी दरबारदारी की। अत: आखिर में वह भी नामजद किये
गये। उस सभा के बाद एक दिन वह मेरे पास बिहटा आश्रम में भी आये और
पूछने लगे कि क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि आप तो हमारे आदमी हैं।
इसलिए युनाइटेड पार्टी में हर्गिज शामिल न हों। नहीं तो बुरा होगा।
उन्होंने कहा,
मैं
ऐसा कभी कर नहीं सकता। वहीं पहली बार मैंने उनसे कहा कि आपका और सर
गणेश का चुनाव क्षेत्र एक ही है और मैं चाहता हूँ कि उनके मुकाबले
में आप आगामी चुनाव में जीतें,
मैं
आपको जिताऊँ। इसीलिए आपको सजग किये देता हूँ। इसके बाद वह चले गये।
उसके उपरान्त
समझौते के नाम पर जो शर्ते छपीं और बँटीं उनका जिक्र पहले ही कर चुका
हूँ। याद रहे,
सत्याग्रह जारी था और धरपकड़ चलती ही थी। फिर भी मैंने सारी शक्ति
लगाकर उस समझौते का भण्डाफोड़ किया। प्रान्त में जगह-जगह सभाएँ कीं।
इधर देखा कि जमींदार के दलाल भी काफी मुस्तैद थे। कभी-कभी अखबारों
में पढ़ते थे कि पूर्णिया तथा और जगहों में किसान-सभाओं के नाम से उस
समझौते के समर्थन हो रहे हैं। ऐसी सभाओं की खबर कई बार पढ़ी और चौंके
भी। उधर बाबू गुरुसहाय लाल भी धीरे-धीरे जमींदारों की गोद में चले
गये,
मगर चुपके से।
क्योंकि प्रत्यक्ष होने पर कहीं के न रहते। फिर तो उनकी कोशिश होने
लगी कि प्रान्तीय किसान-सभा मीटिंग में उस समझौते का समर्थन हो जाय।
इसीलिए अपने साथियों को तैयार किया कि उस दिन सबको जमा करो और ज्यादा
किसान लाओ जो पक्ष में वोट दें। इससे दूसरे लोग घबराये। एक दिन बाबू
बलदेव सहाय,
वकील
शाम को बिहटा तक पहुँचे भी यही खबर लेने कि ऐसा न हो कि मैं हार
जाऊँ। उन दिनों बाबू विनोदानन्द झा प्रान्तीय कांग्रेस के डिक्टेटर
थे। उनका सन्देशा भी मिला कि चाहें तो कुछ खास मदद की तैयारी की जाय।
मैंने सबों को धन्यवाद दिया और निश्चिन्त रहने को कहा। हाँ,
सभी
जिलों में प्रचार हो जाय और समझदार लोग आ जाये,
यही
बात कर देने को मैंने कहा। फिर वे चले गये।
ठीक समय और
तारीख पर मीटिंग हुई। जोश बहुत था। उधर तैयारी थी कि आज जीतना है
चाहे जैसे हो। इसीलिए गुरुसहाय बाबू के दोस्त नौजवान वकील लोग बहुत
गर्म हो रहे थे और मुस्तैदी दिखा रहे थे।
5-6
घण्टे तक झमेला और वाद-विवाद होता रहा। बड़ी तनातनी थी। आखिर में
मजबूर होकर गुरुसहाय बाबू को मेरी यह दलील माननी पड़ी कि यों जब चाहें
जिस किसी को यों ही खड़ा करके जमींदार इसी तरह समझौते का ढोंग रच सकते
हैं। यही समझौता उनके लिए पक्का दृष्टान्त हो जायगा। और इस तरह वे
किसानों को तबाह करते रहेंगे। इसलिए आज इस समझौते के गुण-दोष को न
देख इस सिध्दान्त के आधार पर ही इसका विरोध होना चाहिए। इसीलिए मैंने
कहा कि जमींदार लोग फिलहाल इसे रद्द करें। फिर फौरन बाकायदा
किसान-सभा से समझौता करें। उसमें आप ही हमारे प्रतिनिधि रह सकते हैं।
हमें उज्र न होगा। आज तो इसका समर्थन करना किसानों के लिए भविष्य में
भारी खतरा तैयार करना होगा। बस,
वे चुप
रहे। करते भी क्या?
वोट
लेने पर भी जब हारने का लक्षण उन्होंने देखा तो यही बात मान ली।
फिर जो
प्रस्ताव पास हुआ उसमें साफ लिखा गया कि किसान-सभा सिध्दान्त की
दृष्टि से इस समझौते को गलत समझ इसका घोर विरोध करती है और सरकार से
माँग पेश करती है कि इसके आधार पर टेनेन्सी बिल को रोक दे। गुरुसहाय
बाबू को सभा के मन्त्री की हैसियत से कौंसिल में इस बिल के विरोध
करने का आदेश दिया गया। पर सरकार यदि न माने और बिल पर विचार होने ही
लगे तो उन्हें इस्तीफा देने की आज्ञा दी गयी। एक ही प्रस्ताव में यह
सभी बातें लिखी गयीं और अन्त में यह भी कहा गया कि श्री शिवशंकर झा
किसानों के प्रतिनिधि नहीं हैं।
अगले ही दिन
कौंसिल में बिल पेश होने को था और उससे पहले यह प्रस्ताव सरकार को और
सभी मेम्बरों को मिल जाना चाहिए था। इधर रात के नौ बजे थे। और प्रेस
बन्द थे। फिर राय हुई कि रातोंरात किसी प्रेस में छपवाने की कोशिश
हो। एक पत्र (Covering letter)
के
साथ ही यह प्रस्ताव अंग्रेजी में छपे और तड़के मैं बिहटा से आ के
सभापति की हैसियत से
पत्र
पर हस्ताक्षर करूँ। उसके बाद फौरन ही कौंसिल में इसे पहुँचाया जाय।
यही हुआ। रात में मैं बिहटा गया। वहाँ से सवेरे ही आकर
पत्र
पर हस्ताक्षर किया। मगर करते-कराते देर हो गयी।
फिर जब स्वयं
एक आदमी के साथ कौंसिल भवन में गया तो उसका काम शुरू हो चुका था।
इसलिए मेम्बरों को साक्षात् देना असम्भव समझ उसके सभापति के द्वारा
बँटवाने का प्रबन्ध किया गया। तब तक तो सनसनी मची ही थी और सभी जान
रहे थे। सभापति थे बाबू निरसू नारायण सिंह। उन्होंने उसे मेम्बरों को
दिया ही नहीं। कौंसिल के बीच में स्थगित होने पर बाहर इसके लिए मुझसे
उन्होंने यह कह के क्षमा माँगी कि कौंसिल के एक मेम्बर पर (उनका
अभिप्राय श्री शिवशंकर झा से था) इस प्रस्ताव में आक्षेप होने के
कारण मैं इसे बँटवा न सका। यह जान कर मुझे गुस्सा आया और सोचा कि जब
यह हजरत अगले चुनाव में खड़े होंगे तो देखूँगा कि कैसे चुने जाते हैं।
मगर संयोग ऐसा हुआ कि उसके बाद वे गवर्नर की कार्यकारिणी के सदस्य बन
गये। इससे खड़े ही न हुए। उस सदस्यता से हटने पर तो वह चुनाव से अलग
ही हो गये।
कौंसिल भवन
में ही मैं श्री गुरु सहाय बाबू से मिला और पूछा कि आप तो ठीक हैं न?
रात
में जो तय हुआ उसी के अनुसार चलेंगे न?
क्योंकि उन्होंने पहले ही कह दिया था कि सरकार न मानेगी और बिल पर
विचार जरूर ही होगा। इसलिए मैंने उनसे पूछा कि इस्तीफा देंगे न?
इस पर
वे कुछ बिगड़कर बोलने लगे। मैंने उनका रंग बदरंग देखा। फिर तो साफ कहा
कि आप बिगड़ते किस पर हैं?
आप ही
ने सभा की। आप उसके मन्त्री हैं। सर्वसम्मति से गत रात्रि में ही
प्रस्ताव पास हुआ। आपने उसे माना और इस्तीफे का वचन भी दिया। अब
बिगड़ने की क्या बात है?
सभा का
प्रस्ताव और सबके सामने दिया हुआ अपना वचन इन दोनों को ही तोड़ कर
कहाँ रहियेगा?
आप ही
खत्म होइयेगा। मैं तो आप ही के लिए यह कह रहा हूँ। मगर उलटे आप बिगड़
रहे हैं?
मुझे क्या?
मैं
जाता हूँ। आपकी जो मर्जी हो कीजिये।
बस,
इसके
बाद मैं हट गया और वह कौंसिल में चले गये। मुझे पता चल गया कि सभा के
बाद जमींदारों से उनकी भेंट हुई और इन्हें समझाया गया कि सभा में तो
आपने भूल की। स्वामी ने आपको फिर ठग लिया,
अब अगर
विरोध करेंगे या इस्तीफा देंगे तो ठीक न होगा। असल में किसानों के
नाम से समझौते के कत्तर्-धात्तर् तो वही हजरत बने ही थे। हालाँकि,
छिपाते
चलते थे?
इसलिए
जमींदारों के सामने उसका विरोध या उससे इनकार करने की उनमें हिम्मत
कहाँ थी?
इसीलिए उसका
समर्थन किया और कहीं के न रहे?
उसी दिन वहीं
राजा,
सूर्यपूरा से
बहुत कुछ बातें हो गयीं। वे तो बहुत ही चतुर और व्यवहारकुशल आदमी
हैं। इसलिए उन्होेंने चाहा कि बाबा गुरु सहाय लाल की ही तरह मुझे भी
अपने चंगुल में फँसा लें। जहाँ तक याद है,
वही
युनाइटेड पार्टी के मन्त्री थे। मगर उस पार्टी और जमींदारों की सभा
(लैण्ड होल्डर्स असोसियेशन) में दरअसल कोई फर्क न था। कहने मात्रा के
ही लिए दो संस्थाएँ और दो नाम थे। बेशक,
युनाइटेड पार्टी में कुछ ऐसे लोगों के भी नाम थे जो जमींदार न थे और
कहने के लिए किसानों का प्रतिनिधित्व करते थे। मगर यह सब काम चलाने
के तरीके थे। इसीलिए वह बिल उस पार्टी की ही तरफ से,
कहने
के लिए पेश किया गया था।
हाँ,
तो
बातचीत में राजा साहब ने कहा कि ये किसान-जमींदार झगड़े कब तक
चलाइयेगा?
क्या ये खत्म
नहीं किये जा सकते?
मैंने
कहा,
मैं तो एक
क्षण भी इन्हें चलने देना नहीं चाहता। इससे तो किसानों की हानि
ज्यादा है। आप लोग तो बड़े हैं,
धानी
हैं। इसलिए हानियों को बर्दाश्त कर सकते हैं,
कर
लेते हैं। मगर किसान तो तबाह हो जाते हैं। कारण,
वे
गरीब जो ठहरे। इस पर वे बहुत खुश हुए और बोले कि तो फिर यह झगड़ा आखिर
मिटेगा कैसे?
मैंने
कहा,
आप युनाइटेड
पार्टी या जमींदार सभा की तरफ से पाँच आदमी चुन दें और हम किसान-सभा
की ओर से। उन्हें पूरा अधिकार हो कि जो कुछ तय कर लें हम दोनों दल
वाले उसे ही मान लें। यह सुनकर कम-से-कम ऊपर से तो वह खुश ही हुए और
बोले कि हाँ,
कुछ तो
होना ही चाहिए। मैंने कहा कि मेरा तो यह प्रस्ताव ही है। क्या आप इसे
स्वीकार करते हैं?
उन्होंने कहा,
सोचकर
जवाब दूँगा। मैंने कहा,
अच्छा।
उन्होंने उसी दिन रेल में या पटना स्टेशन पर उत्तर देने को कहा,
जब
मैंने उत्तर की अवधि पूछी। स्टेशन पर वे मिले भी और उसी ट्रेन से आरा
गये,
जिससे मैं
बिहटा गया। दानापुर में उनने मुझसे कहा कि महाराजा दरभंगा से पूछकर
मैं लिखूँगा।
इसके बाद तो
मैंने उन्हें कितने ही पत्र लिखे कि क्या आपने महाराजा से पूछा?
और अगर
हाँ तो क्या तय पाया?
पहले
तो वे अब मिलूँगा,
तब
मिलूँगा करते रहे। लेकिन मैं कब छोड़ने वाला था। सन्
1933
ई. की गर्मियों में जब वे नैनीताल थे,
मेरा
पत्र वहीं उन्हें मिला था जो सूर्यपुरा भेजा गया था। उन्होंने वहाँ
से आने पर महाराजा से मिलने की बात लिखी। उसके बाद मैंने अखबारों में
पढ़ा कि वे वहाँ से लौटे और महाराजा के ही पास दरभंगा गये भी। मगर कोई
पत्र नहीं लिखा। मैंने कुछ दिन और प्रतीक्षा करके आखिरी पत्र उन्हें
लिख दिया कि शायद आप लोग किसान-सभा के सभापति से पत्रव्यवहार करना
अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। इसीलिए तो वचन दे-देकर भी न तो उत्तर
देते और न साफ बातें लिखते हैं। आखिर,
नाहीं
या हाँ लिखने में क्या लगा है?
यह तो
मामूली शिष्टाचार मात्र है। इससे तो मैं अब यह भी मानने को विवश हूँ
कि मेरा प्रस्ताव आप लोगों को स्वीकृत नहीं। इसीलिए अब और पत्र आपको
न लिखूँगा।
हमारी और उनकी
इस सम्बन्ध की लिखा-पढ़ी की फाइलें मेरे पास सुरक्षित हैं। किसान-सभा
के विस्तृत इतिहास में उन्हें स्थान दिया जायगा,
या कभी
जरूरत होने पर प्रकाशित की जायेगी। इस आखिरी पत्र की स्वीकृति तक
उनने न भेजी।
असल बात तो यह
थी कि वह मुझे व्यक्तिगत रूप से बातचीत में फाँसकर अपना काम निकाल
लेना चाहते थे,
जैसा
कि जमींदार लोग तब तक बराबर करते आये थे। इसीलिए चर्चा उनने छेड़ी भी
थी। मगर मैं तो इस चकमे में फँसने वाला था नहीं। मेरी व्यक्तिगत
हैसियत थी भी और आज भी क्या है,
सिवा
एक घर-बारहीन भिक्षुक के?
फिर उस
हैसियत से मैं सोचता भी कैसे?
और
बिहार प्रान्तीय किसान-सभा को जब तक धोखा देना नहीं चाहता तब तक
सिवाय सभापति की हैसियत के दूसरे रूप में बात भी कैसे कर सकता था?
मेरी
दृष्टि में तो केवल सभा ही थी और अगर मैं कुछ भी था या अगर मुझे
उन्होंने पूछा भी तो उसी के करते। ऐसी हालत में मैं उसे ही कैसे भूल
जाता?
उन लोगों का
ऐसा सोचना ही भूल थी। मगर वह तो इस चाल में पहले सफल हो चुके थे।
इसीलिए इस बार भी वही चाल चली गयी। पर उन्हें पता क्या था कि पहले की
सभाएँ नकली और धोखे की थीं और यह असली है?
साथ ही,
वे यह
न समझ सके कि इस बार निराले आदमी से काम पड़ा है जो घर-बार,
और
यहाँ तक कि भगवान् के ढूँढ़ने का पुराना तरीका भी छोड़ के इस काम में
पड़ा है। इसीलिए,
इस बार
उन्हें ही धोखा हुआ और मुँह की खानी पड़ी। लेकिन,
हमेशा
के लिए यह चाल तभी से खत्म भी हो गयी।
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