विषय-प्रवेश
आगे के पृष्ठों में किसान-सभा के संस्मरणों का जो संकलन मिलेगा वह
तैयार किया था हजारी बाग जेल की चहारदीवारी के भीतर। 1940 की लम्बी
जेल-यात्रा के पहले ही मित्रों एवं साथियों ने बार-बार अनुरोध किया
था कि इन संस्मरणों को अवश्य लिपिबद्ध करूँ। किसान-सभा से मेरा
सम्बन्ध गत बीस वर्षों की भारी मुद्दत में अविच्छिन्न रहने के कारण
मैं इसके बारे में आधिकारिक रूप से लिखने वाला माना गया। इस सम्बन्ध
में तरह-तरह के अनुभव सबसे ज्यादा मुझी को हुए हैं, यह भी बात है। यह
अनुभव मजेदार भी रहे हैं और आगे की पंक्तियों से यह स्पष्ट है। फलतः
इनके कलम बन्द करने में मजा भी मुझे काफी मिला है। जेल से बाहर समय न
मिलने के कारण मित्रों की इच्छा वहीं पूरी करनी पड़ी।
जमींदारों के अखबारों ने कभी-कभी मुझे अक्ल देने की भी कोशिश की है
और लम्बे उपदेश दिए हैं कि राजनीति संन्यासी का काम नहीं है। इसमें
पड़ने से वह दुहरा पाप करता है। किसान-सभा के सिलसिले में होने वाले
मेरे रोज-रोज के तूफानी दौरों पर व्यंग्य करके उनने उन्हें ‘मनोविनोद
के सैर (Pleasure Trips) नाम दिए हैं और आश्चर्य से पूछा है कि इन
सैर-सपाटों का लम्बा खर्च मुझे कौन देता है? उन्हें पता ही नहीं कि
जिन्हें इन सैर-सपाटों की गर्ज है, जो इसके लिए बेचैन हैं, वही यह
खर्च देते हैं-वही जो इन समाचार-पत्रों के मालिकों के महल सजाते हैं।
आगे की पंक्तियाँ यह भी बतायेंगी कि ये सैर-सपाटे हैं या कड़ी कसौटी।
ये संस्मरण लिखे तो गये जेल के भीतर ही 1941 में; मगर इनके प्रकाशन
में परिस्थिति-वश काफी देर हो गयी है। फिर भी इनका महत्त्व ज्यों का
त्यों बना है। सोचा गया कि जिस किसान-सभा से सम्बन्ध रखने वाले ये
संस्मरण हैं, उसका इतिहास यदि इन्हीं के साथ न रहे तो एक प्रकार से
ये अधूरे रह जायँगे। पाठकों को इनके पढ़ने से पूरा सन्तोष भी न होगा
और न वह मजा ही मिलेगा। इसीलिए भूमिका स्वरूप किसान-सभा का संक्षिप्त
इतिहास और उसका कुछ विस्तृत विवेचन भी इन संस्मरणों के साथ जोड़ दिया
गया है और इस प्रकार एक पूरी चीज तैयार हो गयी।
"कहीं-कहीं किनारे पर जो अंक लिखे गये
हैं वह इस बात के सूचक हैं कि किस दिन कितना भाग जेल के भीतर लिखा
गया था।"
-स्वामी सहजानन्द सरस्वती
बिहटा, पटना
10-2-47
भारत में किसान-आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास
(अ)
बहुत लोगों का खयाल है कि हमारे देश में किसानों का आन्दोलन बिलकुल
नया और कुछ खुराफाती दिमागों की उपज मात्र है। वे मानते हैं कि यह
मुट्ठीभर पढ़े-लिखे बदमाशों का पेशा और उनकी लीडरी का साधन मात्र है।
उनके जानते भोलेभाले किसानों को बरगला-बहकाकर थोड़े से सफेदपोश और
फटेहाल बाबू अपना उल्लू सीधा करने पर तुले बैठे हैं। इसीलिए यह
किसान-सभाओं एवं किसान-आन्दोलन का तूफाने बदतमीजी बरपा है, यह उनकी
हरकतें बेजा जारी हैं। यह भी नहीं कि केवल स्वार्थी और नादान
जमींदार-मालगुजार या उनके पृष्ठ-पोषक ऐसी बातें करते हों। कांग्रेस
के कुछ चोटी के नेता और देश के रहनुमा भी ऐसा ही मानते हैं। उन्हें
किसान-सभा की जरूरत ही महसूस नहीं होती। वे किसान-आन्दोलन को
राष्ट्रीय स्वातन्त्रय के संग्राम में रोड़ा समझते हैं। फलतः इनका
विरोध भी प्रयत्क्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं।
परन्तु ऐसी धारणा भ्रान्त तथा निर्मूल है। भारतीय किसानों का आन्दोलन
प्राचीन है, बहुत पुराना है। दरअसल इस आन्दोलन के बारे में लिपि-बद्ध
वर्णन का अभाव एक बड़ी त्रुटि है। यदि सौ-सवा सौ साल से पहले की बात
देखें तो हमारे यहाँ मुश्किल से इस आन्दोलन की बात कहीं लिखी-लिखाई
मिलेगी। इसकी वजहें अनेक हैं, जिन पर विचार करने का मौका यहाँ नहीं
है। जब यूरोपीय देशों में किसान-आन्दोलन पुराना है, तो कोई वजह नहीं
है कि यहाँ भी वैसा ही न हो। किसानों की दशा सर्वत्र एक सी ही रही है
आज से पचास-सौ साल पहले। जमींदारों और सूदखोरों ने उन्हें सर्वत्र
बुरी तरह सताया है और सरकार भी इन उत्पीड़कों का ही साथ देती रही है।
फलतः किसानों के विद्रोह सर्वत्र होते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के
मध्य में-1850 में-शोषितों के मसीहा फ्रेड्रिक एंगेल्स ने ‘जर्मनी
में किसानों का जंग’ (दी पीज़ेण्ट वार इन जर्मनी) पुस्तक लिखकर उसमें
न सिर्फ जर्मनी में होने वाले पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों के
सन्धि-काल के किसान-विद्रोहों का वर्णन किया है, वरन् आस्ट्रिया,
हंगरी, इटली तथा अन्यान्य देशों के भी ऐसे विद्रोहों का उल्लेख किया
है। उससे पूर्व जर्मन विद्वान् विल्हेल्म जिमरमान की भी एक पुस्तक
‘महान् किसान-विद्रोह का इतिहास’ (दी हिस्ट्री ऑफ दी ग्रेट पीज़ेण्ट
वार) इसी बात का वर्णन करती है। यह 1841 में लिखी गयी थी। फ्रांस में
बारहवीं-तेरहवीं सदियों में फ्रांस के दक्षिण भाग में किसानों की
बगावतें प्रसिद्ध हैं। इंग्लैण्ड की 1381 वाली किसानों की बगावत भी
प्रसिद्ध है, जिसका नेता जौन बोल था। इसी प्रकार हंगरी में भी 16वीं
शताब्दी में किसानों ने विद्रोह किया।
इस तरह के सभी संघर्ष एवं विस्फोट सामन्तों एवं जमींदारों के जुल्म,
असह्य कर-भार तथा गुलामी के विरुद्ध होते रहे, और ये चीजें भारत में
भी थीं। यह देश तो दूसरे मुल्कों की अपेक्षा पिछड़ा था ही। तब यहाँ भी
ये उत्पीड़न क्यों न होते और उनके विरुद्ध किसान-संघर्ष क्यों न
छिड़ते? यहाँ तो साधारणतः ब्रिटिश भारत में और विशेषतः रजवाड़ों में आज
भी ये यन्त्राणाएँ किसान भोग ही रहे हैं।
तो क्या भारतीय किसान यों ही आँख मूँद कर सारे कष्टों को गधे-बैलों
की तरह चुपचाप बर्दाश्त कर लेते रहे हैं और उनके विरोध में उनने सर
नहीं उठाया है? यह बात समझ के बाहर है। माना कि आज के जमींदार डेढ़ सौ
साल से पहले न थे। मगर सरकार तो थी। सूदखोर बनिए महाजन तो थे।
जागीरदार तथा सामन्त तो थे। फिर तो कर-भार, गुलामी और भीषण सूदखोरी
थी ही। इन्हें कौन रोकता तथा इनके विरुद्ध किसान-समाज चुप कैसे रह
सकता था? भारतीय किसान संसार के अन्य किसानों के अपवाद नहीं हो सकते।
फिर भी यदि उनके आन्दोलनों एवं विद्रोहों का कोई विधिवत् लिखित
इतिहास नहीं मिलता, तो इसके मानी हर्गिज नहीं कि यह चीज हुई ही
नहीं-हुई और जरूर हुई-हजारों वर्ष पहले से लगातार होती रही। नहीं तो
एकाएक सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले, जिसके लेख मिलते हैं, क्यों हुई? और अगर
इधर आकर वे संघर्ष करने लगे तो मानना ही होगा कि पहले भी जरूर करते
थे।
यह भी बात है कि यदि लिखा-पढ़ी तथा सभा-सोसाइटियों के रूप में,
प्रदर्शन और जुलूस के रूप में यह आन्दोलन न भी हो सकता था, तो भी
अमली तौर पर तो होता ही था, हो सकता ही था और यही था असली आन्दोलन।
क्योंकि ‘कह सुनाऊँ’ की अपेक्षा ‘कर दिखाऊँ’ हमेशा ही ठोस और कारगर
माना जाता है और इधर 1836 से 1946 तक के दरम्यान, प्रारम्भ के प्रायः
सौ साल में, जबानी या लिखित आन्दोलन शायद ही हुए, किन्तु अमली तथा
व्यावहारिक ही हुए। इसका संक्षिप्त विवरण आगे मिलेगा। इससे भी मानना
ही होगा कि पहले भी इस तरह के अमली आन्दोलन और व्यावहारिक विरोध
किसान-संसार की तरफ से सदा से होते आये हैं। (किसान तो सदा ही मूक
प्राणी रहा है। इसे वाणी देने का यत्न पहले कब, किसने किया? कर्म,
भाग्य, भगवान, तकदीर और परलोक के नाम पर हमेशा ही से चुपचाप कष्ट सहन
करने, सन्तोष करने तथा पशु-जीवन बिताने के ही उपदेश इसे दिये जाते
रहे हैं। यह भी कहा जाता रहा है कि राजा और शासक तो भगवान के
अंशावतार हैं। अतः चुपचाप उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने में ही कल्याण
है। इस ‘कल्याण’ की बूटी ने तो और भी जहर का काम किया और उन्हें
गूँगा बना दिया।) फलतः कभी-कभी ऊबकर उन्होंने अमली आन्दोलन ही किया
और तत्काल वह सफलीभूत भी हुआ। उससे उनके कष्टों में कमी हुई।
इधर असहयोग युग के बाद जो भी किसान-आन्दोलन हुए हैं उन्हें संगठित
रूप मिला है, यह बात सही है। संगठन का यह श्रीगणेश तभी से चला है।
इसका श्रीगणेश तभी से होकर इसमें क्रमिक दृढ़ता आती गयी है और आज तो
यह काफी मजबूत है, हालाँकि संगठन में अभी कमी बहुत है। मगर असंगठित
रूप में यह चीज पहले, असहयोग युग से पूर्व भी चलती रही है। संगठित से
हमारा आशय सदस्यता के आधार पर बनी किसान-सभा और किसानों की पंचायत से
है, जिसका कार्यालय नियमित रूप से काम करता रहता है और समय पर सभी
समितियाँ होती रहती हैं। कागजी घुड़दौड़ भी चालू रहती है। यह बात पहले
न थी। इसी से पूर्ववर्ती आन्दोलन असंगठित था। यों तो विद्रोहों को
तत्काल सफल होने के लिए उनका किसी-न-किसी रूप में संगठित होना
अनिवार्य था। ‘पतिया’ जारी करने का रिवाज अत्यन्त प्राचीन है। मालूम
होता है, पहले दो-चार अक्षरों या संकेतों के द्वारा ही संगठन का
महामन्त्रा फूँका जाता था। यद्यपि यातायात के साधनों के अभाव में उसे
वर्तमान कालीन सफलता एवं विस्तार प्राप्त न होते थे। फिर भी हम देखते
हैं कि जिन आन्दोलनों एवं संघर्षों का उल्लेख आगे है वे बात की बात
में आग की तरह फैले और काफी दूर तक फैले। संथाल-विद्रोह में तो लाखों
की सेना एकत्र होने की बात पायी जाती है और यह बात अँग्रेज अफसरों ने
लिखी है। ऐसी दशा में इतना तो मानना ही होगा कि वह चीज भी काफी
संगठित रूप में थी, यद्यपि आज वाली दृढ़ता, आज वाली स्थापिता उसमें न
थी। होती भी कैसे? उसके सामान होते तब न?
जैसा कि पहले कह चुके हैं, आज से प्रायः सौ-सवा सौ साल पहले वाले
किसान-संघर्षों एवं आन्दोलनों का वर्णन मिलता है। अतः हम उन्हीं से
शुरू करते हैं। इसमें सबसे पुराना मालाबार के मोपला किसानों का
विद्रोह है, जो 1836 में शुरू हुआ था। कहने वाले कहते हैं कि ये
मोपले कट्टर मुसलमान होने के नाते अपना आन्दोलन धार्मिक कारणों से ही
करते रहे हैं। असहयोग-युग के उनके विद्रोह के बारे में तो स्पष्ट ही
यही बात कही गयी है। मगर ऐसा कहने-मानने वाले अधिकारियों एवं
जमींदार-मालदारों के लेखों तथा बयानों से ही यह बात सिद्ध हो जाती है
कि दरअसल बात यह न होकर आर्थिक एवं सामाजिक उत्पीड़न ही इस विद्रोह के
असली कारण रहे हैं और धार्मिक रंग अगर उन पर चढ़ा है तो कार्य-कारणवश
ही, प्रसंगवश ही। 1920 और 1921 वाले विद्रोह को तो सबों ने, यहाँ तक
कि महात्मा गांधी ने भी, धार्मिक ही माना है। मगर उसी के सम्बन्ध में
मालाबार के ब्राह्मणों के पत्र ‘योगक्षेमम्’ ने 1922 की 6 जनवरी के
अग्रलेख में लिखा था कि "केवल धनियों तथा जमींदारों को ही ये
विद्रोही सताते हैं, न कि गरीब किसानों को"
"Only the rich and the landlords are
suffering in the hands of the rebels, not the poor peasants."
अगर धार्मिक बात होती तो यह धनी-गरीब का भेद क्यों होता? इसी तरह ता.
5/2/1921 में दक्षिण मालाबार के कलक्टर ने जो 144 धारा की नोटिस जारी
की थी उसके कारणों में लिखा गया था कि "भोले-भोले मोपलों को न सिर्फ
सरकार के विरुद्ध, वरन् हिन्दू जन्मियों (जमींदारों-मालाबार में
जमींदार को ‘जन्मी’ कहते हैं) के भी विरुद्ध उभाड़ा जायगा"-
"The feeling of the ignorant Moplahs
will be inflamed against not only the Government but also against
the Hindu Jenmies (landlords) of the district."
इससे भी स्पष्ट है कि विद्रोह का कारण आर्थिक था। नहीं तो सिर्फ
जमींदारों तथा सरकार के विरुद्ध यह बात क्यों होती?
बात असल यह है कि मालाबार के जमींदार ब्राह्मण ही हैं। उत्तरी
मालाबार में शायद ही दो-एक मोपले भी जमींदार हैं। और ये मोपले गरीब
किसान हैं। इनमें खाते-पीते लोग शायद ही हैं। इन किसानों को जमीन पर
पहले कोई हक था ही नहीं और झगड़े की असली बुनियाद यही थी, यही है। यह
पुरानी चीज है और शोषक जमींदारों के हिन्दू (ब्राह्मण) होने के नाते
ही इन संघर्षों पर धार्मिक रंग चढ़ता है। नहीं-नहीं, जान-बूझकर चढ़ाया
जाता है। 1880 वाले विद्रोह में मोपलों ने दो जमींदारों पर धावा किया
था। उनने तत्कालीन गवर्नर लार्ड बकिंघम को गुप्तनाम पत्र लिखकर
जमींदारों के जुल्मों को बताया था और प्रार्थना की थी कि उन्हें रोका
जाय, नहीं तो ज्वालामुखी फूटेगा। गवर्नर ने मालाबार के कलक्टर और जज
की एक कमेटी द्वारा जब जाँच करवाई तो रिपोर्ट आयी कि इन तूफानों के
मूल में वही किसानों की समस्याएँ हैं। पीछे यह भी बात ब्योरेवार
मालूम हुई कि जमींदार किसानों को कैसे लूटते और जमीनों से बेदखल करते
रहते हैं। इसीलिए तो 1887 वाला काश्तकारी कानून बना।
1921 तथा उसके बाद मौलाना याकूब हसन मालाबार के कांग्रेसी एवं
गांधीवादी नेता थे। मगर उनने भी जो पत्र गांधी जी को लिखा था उसमें
कहते हैं कि ‘‘अधिकांश मोपले छोटे-छोटे जमींदारों की जमीनें लेकर
जोतते हैं और जमींदार प्रायः सभी हिन्दू ही हैं। मोपलों की यह पुरानी
शिकायत है कि ये मनचले जमींदार उन्हें लूटते-सताते हैं और यह शिकायत
दूर नहीं की गयी है’’-
"Most of the Moplahs were cultivating
lands under the petty landlords who are almost all Hindus. The
oppression of the Janmies (landlords) is a matter of notoriety and
a long-standing grievance of the Moplahs that has never been
redressed."
इससे तो जरा भी सन्देह नहीं रह जाता कि
मोपला-विद्रोह सचमुच
किसान-विद्रोह था।
1836 से 1853 तक मोपलों ने 22 विद्रोह किये। वे सभी जमींदारों के
विरुद्ध थे। कहीं-कहीं धर्म की बात प्रसंगतः आयी थी जरूर। मगर असलियत
वही थी। 1841 वाला विद्रोह तो श्री तैरुम पहत्री नाम्बुद्री नामक
जालिम जमींदार के खिलाफ था, जिसने किसानों को पट्टे पर दी गयी जमीन
बलात् छीनी थी। 1843 में भी दो संघर्ष हुए-एक गाँव के मुखिया के
विरुद्ध और दूसरा ब्राह्मण जमींदार के खिलाफ। 1851 में उत्तर मालाबार
में भी एक जमींदार का वंश ही खत्म कर दिया गया। 1880 की बात कह ही
चुके हैं। 1898 में भी उसी तरह एक जमींदार मारा गया। 1919 में
मनकट्टा पहत्री पुरम् में एक ब्राह्मण जमींदार और उसके आदमियों को
चेकाजी नामक मोपला किसान के दल ने खत्म कर दिया और लूट-पाट की।
क्योंकि उसने चेकाजी के विरुद्ध बाकी लगान की डिग्री से सन्तोष न
करके उसके पुत्र की शादी भी न होने दी।
1920 के अक्तूबर में कालीकट में जो काश्तकारी कानून के सुधार का
आन्दोलन शुरू हुआ, 1921 वाली बगावत इसी का परिणाम थी। जमींदार मनमाने
ढंग से लगान बढ़ाते और बेतहाशा बेदखलियाँ किया करते थे। इसीलिए सैकड़ों
सभाएँ हुईं। स्थान-स्थान पर किसान-सभाएँ बनीं, कालीकट के राजा की
जमींदारी में एक ‘टेनेन्ट रिलीफ असोसियेशन’ कायम हुआ और मंजेरी की
बड़ी कॉन्फ्रेेंस में किसानों की माँगों का जोरदार समर्थन हुआ। इसी के
साथ खिलाफत आन्दोलन भी आ मिला। मगर असलियत तो दूसरी ही थी। इस तरह
देखते हैं कि आज से सैकड़ों साल पूर्व विशुद्ध किसान-आन्दोलन किसान
हकों के लिए चला और 1920 में आकर उसने कहीं-कहीं संगठन का जामा पहनने
की भी कोशिश की।
अच्छा, अब मालाबार के दक्षिणी किसान-आन्दोलन से हटकर उत्तर में बम्बई
प्रेसिडेंसी के महाराष्ट्र, खानदेश और गुजरात को देखें। वहाँ भी 1845
और 1875 के मध्य किसानों में रह-रह के उभाड़ होते रहे। कोली, कुर्मी,
भील, ब्राह्मण और दूसरी जाति के लोग-सभी-इस विद्रोह में शरीक थे।
1845 में भीलों के नेता रघुभंगरिन के दल ने साहूकारों को लूटा-पाटा।
पूना और थाना जिलों के कोलियों ने भी समय-समय पर ऐसी लूटपाट और
मारकाट की। इस सम्बन्ध में 1852 में सर जी. विन्गेट ने ;ैपत ळण्
ॅपदहंजमद्ध बम्बई सरकार को लिखा था कि ‘‘बम्बई प्रेसीडेंसी के परस्पर
सुदूरवर्ती दो कोनों में जो कर्जदारों ने दो साहूकारों को मार डाला
है यह कोई यों ही नहीं हुआ है, जो कही-कहीं महाजनों के जुल्मों के
फलस्वरूप है। किन्तु मुझे भय है कि ये एक ओर किसानों और दूसरी ओर
सूदखोर बनियों के बीच सर्वत्र होने वाले आम तनाव के दो उदाहरण मात्र
हैं। और अगर ऐसा है, तो ये बताते हैं कि एक ओर कितना भयंकर
शोषण-उत्पीड़न और दूसरी ओर कितना अधिक कष्ट-सहन मौजूद है’’-
‘‘These two cases of village money-landers murdered by their
debtors almost at the opposite extremities of our presidency must,
I apprehend, be viewed not as the results of isolated instances of
oppression on the part of craditors, but as examples in an
aggravated form of the general relations subsisting between the
class of mone-landers and our agricultural population, And if so,
what an amount of dire oppression on the one hand and of suffering
on the other, do they reveal to us?’’
इसी प्रकार 1871 और 1875 के मध्य खेड़ा (गुजरात), अहमदनगर, पूना,
रत्नागिरी, सितारा, शोलापुर और अहमदाबाद (गुजरात) जिलों में भी
गूजरों, सूदखोरों, मारवाड़ियों दूसरे बनियों तथा जालिमों के विरुद्ध
जेहाद बोले गये, जिनका विवरण 'दक्षिणी किसान दंगा-जाँच कमीशन' की
रिपोर्ट में दिया गया है। 1871 और 1855 के बीच का समय भी बेचैनी का
था। 1865 वाले अमेरिका के गृहयुद्ध के चलते भारतीय रुई का दाम तेज
हुआ। फलतः किसानों ने काफी कर्ज लिये। मगर 1870 में उस युद्ध के अन्त
होते ही एकाएक मन्दी आयी, जिससे 1929 की तरह किसान तबाह हो गये। यह
भी था कि 1865 से पूर्व सरकार ने समय-समय पर सर्वे कराकर लगान भी बढ़ा
दिया था। जब उसे न दे सकने के कारण किसानों की जमीन-जायदाद साहूकारों
के हाथों में धड़ाधड़ जाने लगी तो उनने विद्रोह शुरू किये। फलतः सरकारी
जाँच कमीशन कायम हुआ और उसी की रिपोर्ट पर दक्षिणी किसानों को
सुविधाएँ देने का कानून बनाया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि सरकार और
महाजनों से किसान इसीलिए बिगड़ पड़े कि उनकी जमीनें छीनी जा रही थीं।
कहा जाता है कि बम्बई प्रेसिडेंसी में जमींदारी प्रथा है नहीं, वहाँ
जमींदार हैं नहीं। रैयतवारी प्रथा के फलस्वरूप वहाँ किसान ही जमीन के
मालिक हैं। मगर दरअसल अब यह बात है नहीं। वहाँ भी साहूकार-जमींदार
कायम हो गये हैं और असली किसान उनके गुलाम बन चुके हैं। यह
साहूकार-जमींदारी शुरू हुई थी 1845 में ही, जब किसानों की जमीनें
महाजन कर्ज में छीनने लगे। किसानों के विद्रोह भी इसी छीना-झपटी को
रोकने के लिए होते रहे। आज तो रैयतवारी इलाके का किसान इसी के चलते
जमींदारी प्रान्तों के किसानों से भी ज्यादा दुखिया है। क्योंकि उसे
कोई हक हासिल नहीं है, जब कि जमींदारी इलाके वालों ने लड़ते-लड़ते बहुत
कुछ हक हासिल किया है। इसीलिए दक्षिणी विद्रोह के जाँच कमीशन की
रिपोर्ट में मिस्टर आकलैण्ड कौलबिन ने लिखा है कि ‘‘तथाकथित रैयतवारी
प्रथा में धीरे-धीरे ऐसा हो रहा है कि रैयत टेनेन्ट हो गये हैं और
मारवाड़ी (साहूकार) जमींदार (मालिक)। यह तो जमींदारी प्रथा ही है।
फर्क इतना ही है कि उत्तरी भारत की जमींदारी प्रथा में किसानों की
रक्षा के लिए जो बातें कानून में रखी गयी हैं वे एक भी यहाँ नहीं
हैं। मालिक गैर जवाबदेह हैं और किसान का कोई बचाव है नहीं। फलतः
रैयतवारी न होकर यह तो मारवाड़ी (साहूकारी) प्रथा होने जा रही है’’-
"Under so called ryotwari system it
is gradual by coming to this, that the ryot is the tenant and the
Marwari is the proprietor. It is a zamindari settlement; but it is
a zamindari settlement stripped of all the safeguards which under
such a settlement in Upper India are though indispensable to the
tenant. The proprietor is irresponsible, the tenant unprotected.
It promises to become not a ryotwari but a Marwari settlement."
उत्तर भारत के बिहार-बंगाल की सम्मिलित सीमा का संथाल आन्दोलन भी, जो
1855 की 7 जुलाई से शुरू हुआ, किसान-आन्दोलन ही था। भील नेताओं के
अंग संरक्षक ही तीस हजार थे। बाकियों का क्या कहना? संथालों के घी,
दूध और अन्नादि को बनिये मिट्टी के मोल लेकर नमक, वस्त्रा खूब महँगे
देते थे। इस प्रकार उनकी सारी जमीन, बर्तन और औरतों के लोहे के जेवर
तक ये बनिये लूट लेते थे, ठग लेते थे। मिस्टर हंटर ने 'देहाती बंगाल
का इतिहास' में लूट का विशद, पर हृदय-द्रावक, वर्णन किया है। और जब
पुलिस वालों ने भी इन बनियों से घूस लेकर उन्हीं का साथ देना शुरू
किया, तो फिर इन पीड़ित संथालों के लिए विद्रोह ही एकमात्र अस्त्रा रह
गया था। उनने उसी की शरण ली। इस तरह हम 1836 से चलकर 1875 तक आते हैं
और इसी के बीच में वह संथालों का किसान-आन्दोलन भी आ जाता है। बल्कि
मालाबार वाले 1920 के विद्रोह को लेकर तो हम असहयोग-युग के पूर्व तक
पहुँच जाते हैं।
हमें एक चीज इसमें यह भी मिलती है कि धीरे-धीरे यह आन्दोलन एक संगठित
रूप की ओर अग्रसर होता है। मोपलों के 1920 वाले संगठन का उल्लेख हो
चुका है। दक्षिणी विद्रोह में भी 1836-53 वाले मोपला विद्रोह की
अपेक्षा एक तरह का संगठन पाया जाता है जिसके फलस्वरूप वे आग की तरह
बम्बई प्रेसीडेंसी के एक छोर से दूसरे छोर तक बहुत तेजी से पहुँच
जाते हैं, ऐसा सर विन्गेट ने तथा औरों ने भी लिखा है। मगर 1875 के
बाद यह संगठन धीरे-धीरे सभा का रूप लेता है 1920 में मालाबार में;
हालाँकि वह भी टिक नहीं पाता।
उत्तर और पूर्व बंगाल में नील बोने वाले किसानों का विद्रोह भी इसी
मुद्दत में आता है। बिहार के छोटा नागपुर का टाना भगत आन्दोलन भी
असहयोग युग के ठीक पहले जारी हुआ था। 1917 में चम्पारन में निलहे
गोरों के विरुद्ध गांधी जी का किसान-आन्दोलन चला और सफल हुआ अपने
तात्कालिक लक्ष्य में। गुजरात के खेड़ा जिले में भी उनने
किसान-आन्दोलन इससे पूर्व उसी साल चलाया था। मगर वह अधिकांश विफल
रहा। अवध में असहयोग से पहले 1920 में बाबा रामचन्द्र के नेतृत्व में
चालू किसान-आन्दोलन वहाँ के ताल्लुकेदारों के विरुद्ध था, जिसमें
लूट-पाट भी हुई। इस प्रकार के आन्दोलन मुल्कों में जहाँ-तहाँ और भी
चले। मगर उन पर विशेष रोशनी डालने का अवसर यहाँ नहीं है।
(शीर्ष पर वापस)
इनका निष्कर्ष, इनकी विशेषता
असहयोग युग के पूर्ववर्ती आन्दोलनों की विशेषता यह थी कि एक तो वे
अधिकांश असंगठित थे। दूसरे उनको पढ़े-लिखे लोगों का नेतृत्व प्राप्त न
था। अवध वाले में भी यही बात थी। तीसरे उनने मार-काट का आश्रय लिया।
तब तक जनान्दोलन का रहस्य किसे विदित था? यह भी बात थी कि ये विद्रोह
और आन्दोलन पहले से तैयारी करके किये न गये थे। जब किसानों पर होने
वाले जुल्म असह्य हो जाते थे और उन्हें अपने त्राण का कोई दूसरा
रास्ता दिखता न था तो वे एकाएक उबल पड़ते थे। फिर तो मार-काट अनिवार्य
थी। परिस्थिति उन्हें एतदर्थ विवश करती थी या यों कहिये कि जमींदार
और शोषक अपने घोर जुल्मों के द्वारा उन्हें इस हिंसा के लिए विवश
करते थे। यही उनकी कमजोरी थी। इसी से वे दबा दिये गये और विफल से
रहे; हालाँकि उनका सुन्दर परिणाम किसानों के लिए होकर रहा यह सभी
मानते हैं। कितने ही कानून किसान हित-रक्षा के लिए बने उन्हीं के
चलते।
यह ठीक है कि उनमें कुछ को पढ़े-लिखों का नेतृत्व प्राप्त था।
दृष्टान्त के लिए 1920 वाले मोपला-आन्दोलन को ले सकते हैं। मगर वहाँ
भी छिटपुट हिंसा की शरण लेने से भयंकर Ðास हुआ। खिलाफत और
पंजाब-काण्ड के बाद ही होने तथा इनके साथ मिल जाने से भी उसका निर्दय
दमन किया गया। फलतः वह बेकार-सा गया। अहिंसा की प्रचण्ड लहर का युग
होने से वह उसी में डूबा, यह भी कह सकते हैं।
मगर खेड़ा, चम्पारन और युक्तप्रान्त का पं. नेहरू के द्वारा
संचालित
आन्दोलन शान्तिपूर्ण होने के साथ ही उदात्त नेताओं के हाथों में रहा;
यद्यपि संगठित रूप उसे भी नहीं दिया जा सका। फिर भी जनान्दोलन का
शान्तिपूर्ण रूप मिल जाने से ही और पठित नेतृत्व के कारण ही उन सबको
कम-बेश प्रत्यक्ष सफलता मिली। उनके क्षेत्र और उद्देश्य जितने ही
संकुचित या व्यापक थे, और उनमें जैसी शक्ति थी तदनुकूल ही उन्हें कम
या अधिक सफलता मिली। खेड़ा का आन्दोलन तो जिले भर का था, ठेठ सरकार के
विरुद्ध। फलतः उसे उतनी कामयाबी न मिल सकी। चम्पारन वाला था कुछ खास
इलाके का, सिर्फ निलहों की नृशंसता एवं मनमानी घरजानी के विरुद्ध।
फलतः वह पूर्ण सफल रहा। अवध वाला था लम्बे इलाके के विरुद्ध, जिसमें
बहुत जिले आ जाते हैं। युक्त प्राप्त का भी प्रश्न उसने साधारणतः
उठाया। इसी से उसकी सफलता बहुत धीमी चाल से आनी शुरू हुई और अब तक भी
पूर्ण रूप से पहुँच न सकी।
असहयोग के पूर्व किसान-आन्दोलन में जो दृढ़ता न आ सकी और उसे जो पूर्ण
संगठित रूप मिल न सका उसके दो बड़े कारण थे, जिसका उल्लेख अब तक किया
न जा सका है। एक तो किसान जनता में आत्मविश्वास न था। सदियों से
कुचले, पिसे किसान आत्मविश्वास खो चुके थे। अतः विश्वासपूर्वक
सामूहिक रूप से खम ठोक कर अपने उत्पीड़कों से लड़ न सकते थे। फलतः एक
बार फिसले तो हिम्मत हार गये और चुप्पी मार बैठे। फिर संगठन कैसा?
दूसरे, आन्दोलन चलाने के लिए बहुसंख्यक पठित कार्यकर्त्ता और नेता भी
नहीं प्राप्त थे-ऐसे नेता और कार्यकर्त्ता जिन्हें आत्मविश्वास हो और
जो धुन के पक्के हों कि लक्ष्य तक पहुँच कर ही दम लें।
ये दो मौलिक कमियाँ थीं, जिन्हें असहयोग आन्दोलन ने पूरा कर दिया।
1921 में बड़ी-से-बड़ी शक्तिशाली और शस्त्रास्त्रा सुसज्जित सरकार को
एक बार निहत्थे किसानों ने कँपा दिया, हिला दिया। फलस्वरूप उन्हें
अपनी अपार अन्तर्निहित शक्ति का सहसा भान होने से उनमें आत्मविश्वास
हो गया कि जब इतनी बड़ी सरकार को हिला दिया, तो जमींदार, ताल्लुकेदार
और साहूकार की क्या बिसात? उन्हें चीं बुलाना तो बायें हाथ का खेल
है। असहयोग ने हजारों धनी कार्यकर्त्ता भी दिए जो ऊपर आ गये-मैदान
में आ गये। असहयोग की सफलता के मुख्य आधार किसान ही थे, जो पहली बार
सामूहिक रूप से कांग्रेस में आये थे। इसलिए वे तथा उनके लिए
कार्यकर्त्ता-दोनों ही-आत्मविश्वास प्राप्त करके आगे बढ़े।
यद्यपि ये बातें कुछ देर में हुईं। क्योंकि आत्मविश्वास और दृढ़
निश्चय के लिए समय और मनन की आवश्यकता होती है। तथापि ये हुईं अवश्य।
इसीलिए, और राजनीतिक उलझनों के चलते भी, संगठित किसान-आन्दोलन
किसान-सभा के रूप में 1926-27 में बिहार में तथा अन्यत्र शुरू हुआ।
इतनी देर कोई बड़ी चीज न थी। 1928 वाला बारदोली का आन्दोलन भी इसी का
परिणाम था। वह सफल भी रहा।
इस प्रकार हम आधुनिक संगठित किसान-आन्दोलन के युग में प्रवेश करते
हैं। असहयोग आन्दोलन ने हमें-सारे देश को-जो जनान्दोलन का अमली सबक
सिखाया और अपार शक्ति हृदयंगम करायी, उसके फलस्वरूप आगे चलकर
किसान-आन्दोलन को भी जनान्दोलन का रूप मिला, यह सबसे बड़ी बात थी।
असहयोग के कारण कांग्रेसी लोग प्रान्तीय कौंसिलों से बाहर रहे। फलतः
मद्रास, बम्बई आदि में अब्राह्मण दल के मन्त्री बने और उनने अपना
प्रभुत्व जमाया। उसे कायम रखने के लिए उन्हीं लोगों ने आन्ध्र में
आन्ध्र प्रान्तीय रैयत असोसियेशन के नाम से एक किसान-सभा उस समय,
1923-24 में बनाई, ऐसा कहा जाता है। मगर उसकी कोई विशेष कार्यशीलता
पायी न गयी। अलबत्ता बिहार में इस लेखक ने अपने कांग्रेसी साथियों के
सहयोग से 1927 में नियमित रूप से, सदस्यता के आधार पर, किसान-सभा की
स्थापना पटना जिले में करके धीरे-धीरे 1929 में उसे बिहार प्रान्तीय
किसान-सभा का रूप दिया। उस समय बिहार की कौंसिल में किसान-हित-विरोधी
एक बिल सरकार की ओर से पेश था और जरूरत इस बात की थी कि किसान उसका
संगठित विरोध करें। इसीलिए कांग्रेसी नेताओं ने बिहार प्रान्तीय
किसान-सभा की जरूरत महसूस की और इसीलिए उसका जन्म हुआ। उसमें
कांग्रेस के सभी लीडर शामिल थे, सिवाय स्वर्गीय ब्रजकिशोर बाबू के।
उस सभा का काम लेखक की अध्यक्षता में खूब जोरों से चला और अन्त में
सरकार को वह बिल लौटा लेना पड़ा। इस तरह जन्म लेते ही सभा को
अभूतपूर्व सफलता मिली। वर्तमान प्रधानमन्त्री बा. श्रीकृष्ण सिंह उस
समय किसान-सभा के मन्त्री थे। आगे चलकर सभा को और भी संघर्ष करने
पड़े। इस प्रकार संघर्षों के बीच वह फूली, फली और सयानी हुई।
सन् 1918-19 में ही इलाहाबाद में श्री पुरुषोत्तमदास जी टण्डन की
देख-रेख में किसान-आन्दोलन शुरू हुआ था और उसने कुछ काम भी किया।
उसके बाद, असहयोग के उपरान्त, कांग्रेस जन इस काम में और भी लगे,
यहाँ तक कि 1932 के सत्याग्रह से पूर्व वहाँ की प्रान्तीय कांग्रेस
कमेटी ही एक किसान समिति के द्वारा किसानों में आन्दोलन चलाती रही,
तथा जरूरत होने पर उन्हें करबन्दी के लिए भी तैयार करती रही, जिसके
फलस्वरूप वहाँ किसानों ने 1932 के कांग्रेस संघर्ष में करबन्दी को
तेजी से चलाया। श्री टण्डन जी ने ही उसी के बाद प्रयाग में
‘केन्द्रीय किसान संघ’ की स्थापना की, जो भावी अखिल भारतीय किसान-सभा
के सूत्र रूप में ही था। पं. नेहरू, टण्डन जी प्रभृति कांग्रेस नेता
सदा से महसूस करते थे कि किसान-संगठन कांग्रेस से जुदा ही रहना ठीक
है। इसीलिए यू. पी. में पहले किसान समिति बनी और पीछे केन्द्रीय
किसान संघ का जन्म हुआ।
फिर लखनऊ कांग्रेस के अवसर पर 1936 में अखिल भारतीय किसान-सभा की
नियमित रूप से स्थापना हुई। पहला अधिवेशन वहीं पर लेखक की ही
अध्यक्षता में हुआ। यह बात अब महसूस की जाने लगी थी कि संगठित
किसान-आन्दोलन को अखिल भारतीय रूप दिये बिना काम चलने का नहीं।
इसीलिए यह बात हुई। 1936 से लेकर 1943 तक इसका काम चलता रहा और कोई
गड़बड़ी न हुई। 1936, 1938 और 1943 में लेखक इसका अध्यक्ष और शेष
वर्षों में प्रधानमन्त्री रहा। 1937 में प्रोफेसर रंगा, 1939 में
आचार्य नरेन्द्रदेव, 1940 में बाबा सोहन सिंह भखना, 1942 श्री
इन्दुलाल याज्ञिक अध्यक्ष थे।
उसके बाद कम्यूनिस्टों की नीति ने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी कि वे
अकेले रह गये और शेष सभी प्रगतिशील विचार वाले वामपक्षी उनसे जुदा हो
गये। कुछ दिन यों ही गुजरे। इसी दरम्यान 1942 के राजबन्दी जेलों से
बाहर आने लगे और 1945 के मध्य से ही आल इण्डिया किसान-सभा के पुनः
संगठन का काम लेखक तथा टण्डन जी के अथक उद्योग से शुरू होकर गत 9
जुलाई 1946 को बम्बई में ‘हिन्द किसान-सभा’ के नाम से पुनरपि उसका
संगठन हो गया है। उसके सभापति श्री पुरुषोत्तमदास जी टण्डन और संगठन
मन्त्री यह लेखक हैं। अन्यान्य मन्त्रियों तथा मेम्बरों को मिलाकर
25 सज्जनों की कमिटी भी बनी है, जिनमें चार सदस्य अभी तक चुने नहीं
गये हैं।
संक्षेप में भारतीय किसान-आन्दोलन का यही क्रमबद्ध विकास है, यही
उसकी रूपरेखा है। भारत के विभिन्न प्रान्तों में उसकी शाखाएँ हैं,
जिनमें कुछ तो सक्रिय हैं और कुछ शिथिल। परन्तु सबों को पूर्ण सक्रिय
बनाने का भार संगठन-मन्त्री पर दिया गया है। वह इस महान् कार्य में
पूर्णतः संलग्न भी हैं। आज भारत के कोने-कोने में किसान संगठन की
पुकार है, तेज आवाज है और यह शुभ लक्षण है।
(शीर्ष पर वापस)
(ब)
किसान-सभा किसानों की वर्ग संस्था है। वर्ग से अभिप्राय है आर्थिक
वर्ग से, न कि धार्मिक या जातीय वर्ग से। किसान वर्ग के शत्रुओं,
जमींदार-मालदारों से किसानों की रक्षा करना और उनके संगठित प्रयत्न
के द्वारा उनके हकों को हासिल करना इस सभा का ध्येय है। जब तक सभी
प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक शोषणों का अन्त होकर
वर्गविहीन समाज नहीं बन जाता तब तक यह लक्ष्य हासिल नहीं होगा। फलतः
इस ध्येय का, इस लक्ष्य और मकसद का पर्यवसान इस वर्ग-विहीन समाज में
ही होता है जिसमें मनुष्य का शोषण मनुष्य न कर सके, सबों को अपने
सर्वांगीण विकास की पूरी सुविधा हो और इस प्रकार मनुष्य मात्र की
सारी जरूरतों की पूर्ति निरबाध और बेखटके होती रहे।
इसलिए सभी जाति, धर्म और सम्प्रदाय के उन लोगों की यह संस्था है
जिन्हें खेती करनी पड़ती है, जो खेतिहर हैं और प्रधानतया खेती करे
बिना जिनकी जीविका नहीं चल सकती है। इस प्रकार खेत-मजदूरों की भी
संस्था यह किसान-सभा है। खेत-मजदूर किसानों के भीतर आ जाते हैं। वे
दरअसल किसान हैं, जमीन जोतने-बोने वाले हैं, tillers of the Soil
हैं। फिर वे किसान वर्ग से पृथक् कैसे रह सकते हैं? यह भी नहीं कि
खेत-मजदूर हरिजन, अछूत या किसी धार्मिक सम्प्रदाय विशेष के भीतर आते
हैं। आज परिस्थिति ऐसी है कि हर साल पूरे नौ लाख से भी ज्यादा किसान
अपनी जोत-जमीन गँवा कर, बिना खेत के या यों कहिये कि खेत-मजदूर बनते
जा रहे हैं और वे सभी जातियों और धर्मों के हैं। उनमें कुछी लोग
दूसरी जीविका कर पाते हैं। अधिकांश खेत-मजदूर ही बनते हैं-अधिकांश को
मजबूरन खेत-मजदूर ही बनना पड़ता है।
धार्मिक और जातीय आधार पर किया गया मनुष्यों का वर्गीकरण धोखा देता
है और झूठा है, गलत है। कानून की नजरों में टेनेन्ट या किसान मात्र
के हक समान ही हैं, फिर चाहे वह क्रिस्तान, मुसलमान, हिन्दू आदि कुछ
भी क्यों न हों; ब्राह्मण, शूद्र, शेख, पठान वगैरह क्यों न हों।
जमींदारों के हक की भी यही हालत है। अपने-अपने हकों की लड़ाई भी इसी
दृष्टि से होती है। न तो कोई हिन्दू जमींदार हिन्दू किसान के साथ
रिआयत करता है और न मुसलमान मुसलमान के साथ। चाहे किसी भी धर्म का
किसान क्यों न हो, उसके विरुद्ध सभी हिन्दू-मुसलमान जमींदार एक हो
जाते हैं, एक ही आवाज उठाते हैं। जमींदारों के खिलाफ सभी धर्म, जाति
और सम्प्रदाय के किसानों को भी ऐसा ही करना चाहिए, ऐसा ही करना होगा।
इसी तरह एक ओर संगठित होकर अपनी आवाज बुलन्द करनी होगी और हक के लिए
मिलकर लड़ना होगा। यही वर्ग संस्था के मानी हैं और यही संगठन
किसान-सभा है। जब तक किसान एक सूत्र में बँधे नहीं हैं, संगठित नहीं
हैं, तब तक अपने वर्ग के शत्रुओं के विरुद्ध वे जो कुछ भी चीख-पुकार
करते हैं वह निरा आन्दोलन कहा जाता है। मगर ज्यों ही वे एक सूत्र में
बँध कर यही काम करते हैं त्यों ही उसका नाम किसान-सभा हो जाता है।
जितना ही जबर्दस्त उनका यह एक सूत्र में बँधना होता है उतनी ही मजबूत
यह किसान-सभा होती है। इसमें उनके भी वर्ग शत्रुओं और उन शत्रुओं के
मददगार साथियों के लिए कोई भी गुंजाइश नहीं है। क्योंकि तब यह वर्ग
संस्था रहेगी कैसे? संस्था तो गढ़ है न? फिर उसमें शत्रु या उनके
संगी-साथी कैसे घुसने पायेंगे? घुसने पर तो वह गढ़ ही शत्रुओं का हो
जायगा और जिस कार्य के लिए वह बनाया गया था वही न हो सकेगा।
जिस प्रकार चूहे और बिल्ली के दो परस्पर विरोधी वर्ग हैं और एक वर्ग
दूसरे को देखना नहीं चाहता, चूहे बिल्ली को और वह चूहों को खत्म कर
देना चाहती है, ठीक यही बात जमींदारों और किसानों की भी है। वे
एक-दूसरे को मिटा देना चाहते हैं। चाहे किसान परिवार भूखों मर जाय,
दवा के बिना और कपड़े के अभाव में कराहता फिरे; फिर भी उसी की कमाई पर
गुलछर्रे उड़ाने वाले जमींदार उसके साथ जरा सी भी रिआयत करने को
रवादार नहीं होते, एक कौड़ी भी लगान या अपने पावने में छोड़ना नहीं
चाहते। सैलाब या अनावृष्टि से फसल खत्म हो गयी और महाजनों से कर्ज
लेकर किया हुआ किसान का सारा खर्च मिट्टी में मिल गया। फिर भी
जमींदार अपना लगान पाई-पाई वसूल करता ही है। और न्यायालय भी उसी की
मदद करते हैं। किसान की फरियाद अनसुनी कर दी जाती है। विपरीत इसके
यदि किसान के पास रुपये-पैसे हों तो भी वह जमींदार को एक कौड़ी भी
देना नहीं चाहता, अगर उसके बस की बात हो। यदि देता है तो विवश होकर
ही, कानून और लाठी के डर से ही। वह दिल से चाहता है कि जमींदार नाम
का जीव पृथ्वी से मिट जाय। जमींदार भी किसान से न सिर्फ लगान चाहता
है, वरन् उसकी सारी जमीन किसी भी तरह छीन कर खुदकाश्त-बकाश्त बनाना
और अपने कब्जे में रखना चाहता है। इससे बढ़कर परस्पर वर्ग-शत्रुता और
क्या हो सकती है? फलतः जैसे जमींदारों ने अपने वर्ग के हितों की
रक्षा के लिए जमींदार सभाएँ अनेक नामों से मुद्दत से बना रखी हैं और
उन्हीं के द्वारा अपने हकों के लिए वे लड़ते हैं; ठीक उसी तरह किसानों
के वर्ग-हित की रक्षा के लिए किसान-सभा है, किसान-सभा की जरूरत है,
किसान-सभा चाहिए। तभी उनका निस्तार होगा। जमींदार तो मालदार और
काइयाँ होने से बिना अपनी सभा के भी अपनी हित-रक्षा कर सकते हैं। वह
चालाकी से दूसरी सभाओं में घुसकर या उन पर अपना असर डाल कर उनके
जरिये भी अपना काम बना सकते हैं। रुपया-पैसा, अक्ल और प्रभाव क्या
नहीं कर सकते? मगर किसान के पास तो इनमें एक चीज भी नहीं है। इसीलिए
किसान-सभा जरूरी है।
कहा जाता है कि जब अंग्रेजों से लड़ने और उन्हें पछाड़ने के लिए
कांग्रेस मौजूद ही है और उसके 90 फीसदी मेम्बर किसान ही हैं, तो फिर
उससे जुदी किसान-सभा क्यों बने? यह भी नहीं कि कांग्रेस किसानों के
लिए लड़ती न हो। फैजपुर वाला उसका किसान-कार्यक्रम (Agrarian
Programme) और हाल में जमींदारी मिटाने का उसका निश्चय इस बात के
ज्वलन्त प्रमाण हैं कि वह किसानों की अपनी संस्था है। यदि उसमें
जमींदार या उनके मददगार भी हैं तो इससे क्या? वह फिक्र तो रखती है
किसानों के लिए। यदि कहा जाए कि कांग्रेस कमिटियों पर ज्यादातर कब्जा
और प्रभुत्व मालदारों का ही रहता है, तो यह भी कोई बात नहीं है। यह
तो किसानों की भूल है, उनकी नादानी है कि चुनावों में चूकते हैं। जब
अधिकांश कांग्रेस-सदस्य वही हैं तो फिर सजग हो के चुनाव लड़ें और सभी
कमिटियों पर कब्जा करें। जब देश के लिए कांग्रेस के द्वारा लड़ने-मरने
वाले अधिकांश किसान ही हैं तो फिर कांग्रेस उनकी नहीं तो और किसकी
है, किसकी हो सकती है? इसीलिए मानना ही होगा कि कांग्रेस ही सबसे
बढ़कर किसानों की संस्था है, किसान-सभा है--Congress is the Kisan
organisation par excellence.
ऊपर से देखने से बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है। यह सही है कि
कांग्रेस ने जमींदारी मिटाने का निश्चय किया है। इससे पहले किसान-हित
के प्रोग्राम भी उसने बनाये हैं। आगे भी वह ऐसा करेगी, इसमें भी
विवाद नहीं। वह प्रगतिशील संस्था है, यह भी मानते हैं। तभी तो
प्रतिदिन बदलती दुनिया में वह टिक सकती और आजादी का सफल संग्राम चला
सकती है। इसीलिए किसान उस कांग्रेस से चिपकते हैं, उन्हें उससे चिपके
रहना चाहिए जब तक जंगे आजादी जारी है और हम स्वतन्त्रा नहीं होते।
कांग्रेस कमजोर हुई कि आजादी की आशा गयी। गुलामी के विरुद्ध समस्त
राष्ट्र के विद्रोह की प्रतीक और प्रतिमूर्त्ति ही कांग्रेस है।
आजादी के लिए सारे देश की दृढ़ प्रतिज्ञ और बेचैनी का बाहरी या
मूर्त्त रूप ही कांग्रेस है। राष्ट्रीयता ने हममें हरेक की रगों में
प्रवेश किया है, हमारे खून में वह ओत-प्रोत है। वह हमारी रग-रग में
व्याप्त है। यह राष्ट्रीयता जितनी ही व्यापक और संघर्ष के लिए
व्याकुल-लालायित (militant) होगी, आजादी हमें उतनी ही शीघ्रता से
मिलेगी। इसीलिए हर किसान को इस राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होना ही और
कांग्रेसी बनना ही चाहिए ताकि हमारा मुल्क जल्द-से-जल्द पूर्ण
स्वतन्त्रा हो। गुलाम भारत में किसान-राज्य या समाजवाद की आशा महज
नादानी है।
इस प्रकार जब किसान कांग्रेस को शक्तिशाली बनायेंगे सीधी लड़ाई के
द्वारा और चुनावों में मत देकर भी, तो इसके बदले में कांग्रेस को भी
उनका खयाल करना ही होगा। और उनके हकों के लिए समय-समय पर लड़ना ही
होगा। इन कार्यक्रमों को और जमींदारी मिटाने की बात मानकर कांग्रेस
यही करती भी है। कांग्रेसी नेता खूब समझते हैं कि यदि वे ऐसा न
करेंगे और जमींदारी न मिटायेंगे, तो उन्हें खुद मिट जाना होगा, उनकी
लीडरी जाती रहेगी और कांग्रेस भी खत्म हो जायगी। यह ठोस सत्य है।
राष्ट्रीयता सर्वथा उपादेय और सुन्दर चीज होने पर भी वह भावुकता की
वस्तु है, भावना और दिमाग की चीज है, महज खयाली पदार्थ है। वह कोई
ठोस भौतिक पदार्थ नहीं है, ठीक जिस प्रकार धर्म, ईश्वर और
स्वर्ग-नर्क आदि हैं। ये भी महज खयाली हैं। इसीलिए समय-समय पर भौतिक
पदार्थों-जर, जोरू, जमीन के सामने ये टिक नहीं सकते, इनकी अवहेलना
होती है और लोग जमीन-जायदाद के लिए गंगा-तुलसी, कुरान-पुरान आदि
उठाकर झूठी कसमें खाते हैं। इसी प्रकार भौतिक हितों के निरन्तर विरोध
में यह राष्ट्रीयता टिक नहीं सकती, इसे मिट जाना होगा। यही वजह है कि
कांग्रेसी लीडर किसानों के भौतिक हितों की बातें समयानुसार करते रहते
हैं। भावनामय कोरी राष्ट्रीयता भौतिक स्वार्थों को साथ लेकर ही टिक
सकती है, लक्ष्य-सिद्धि में कामयाब हो सकती है। यदि इन भौतिक
स्वार्थों को वह छोड़ दे या उनसे टकरा जाय, तो उनके लिए भारी खतरा
बेशक पैदा हो जायगा।
मौत बुरी है, बड़ी खतरनाक है। उसके मुकाबले में जूते की काँटी का
चुभना कोई चीज नहीं है। फिर भी मौत से बचने के लिए कोई शायद ही
फिक्रमन्द दिखता है। मगर काँटी के कष्ट से बचने का यत्न सभी करते
हैं। यही ठोस सत्य है और हम इसे भुलाकर भारी धोका खायँगे। ठीक
राष्ट्रीयता को भी इसी तरह भारी धक्का लगे, अगर वह किसानों की
तात्कालिक माँगों और तकलीफों का खयाल करके उनके सम्बन्ध में अपना
प्रोग्राम स्थिर न करे। राष्ट्रीयता को अमली और व्यावहारिक जामा
पहनना ही होगा और भौतिक दुनिया को देखकर ही चलना होगा। तभी वह पूर्ण
स्वतन्त्रता के युद्ध में सफल होगी। यही वजह है कि राष्ट्रीय नेता
जमींदारी मिटाने की बातें करते और जमींदारों के गुस्से का सामना करते
हैं। इसमें उनकी चालाकी और व्यवहार-कुशलता की झाँकी मिलती है।
यह भी न भूलना होगा कि फ्रांस में जमींदारी का खात्मा नेपोलियन जैसे
साम्राज्यवादी के हाथ से हुई। उसे कोई नहीं कह सकता कि वह किसान
मनोवृत्ति का था, या उसकी संस्था किसान-सभा जैसी थी। उसकी सरकार घोर
अनुदार, पर दूरंदेश थी। उसने देखा कि फ्रांस के प्राचीन राजघराने के
लोग दो दलों में विभक्त होकर एक जमींदार वर्ग का समर्थक है तो दूसरा
मध्यमवर्ग, बुर्जुवा या कल-कारखाने वालों का। किसानों का पुर्सां
किसी को न पा उसने जमींदारी मिटाकर उन्हें अपने साथ किया और फौज में
किसान युवकों को भर्ती करके महान् विजयों के द्वारा
साम्राज्य-विस्तार किया। इसमें उसकी व्यवहार-कुशलता एवं दूरंदेशी के
सिवाय और कुछ न था। वह न तो किसान था और न किसान-मनोवृत्ति का, और
इसका पता एक मुद्दत गुजरने पर किसानों को तथा दुनिया को भी लग गया जब
उसी के बनाये ‘नेपोलियन वाले कानूनों’ के द्वारा उन्हीं किसानों की
जमीनें धड़ाधड़ बैंकों एवं महाजनों के पास चली गयीं। संयुक्त-राष्ट्र
अमेरिका की सरकार ने तो वहाँ जमींदारी प्रथा होने ही न दी और अधिकांश
किसानों को, विशेषतः पश्चिमी भाग में, मुफ्त जमीनें दीं। यह बात
लेनिन की चुनी लेखमाला के अंग्रेजी संस्करण के बारहवें भाग के 194
पृष्ठ में स्पष्ट लिखी गयी है। अन्यान्य देशों में भी अनुदार या
दकियानूस दल वालों ने ही जमींदारी मिटाई है।
दरअसल देशों में उद्योग-धन्धों की अबाध प्रगति के लिए जिस कच्चे माल
की प्रचुर परिमाण में जरूरत होती है उसके उत्पादन में यह जमींदारी
प्रथा बाधक होती है। यह प्रथा भूमि की उत्पादन शक्ति को बेड़ी की तरह
जकड़ने वाली मानी जाती है। फलतः मध्यमवर्गीय मालदार ही इसका उन्मूलन
करते हैं और भारत में भी ‘बम्बई-पद्धति’(Bombay Plan) के प्रचारक एवं
निर्माण-कर्त्ता, टाटा, बिड़ला आदि करोड़पतियों ने ही जमींदारी मिटाने
की आवाज गत महायुद्ध के जमाने में ही बुलन्द की थी। पीछे चलकर
कांग्रेस नेताओं ने उसे ही माना है और टाटा-बिड़ला का संगठन कोई
किसान-सभा नहीं है, यह सभी जानते हैं। अतः जमींदारी मिटाने की बात
इसका प्रमाण नहीं है कि कांग्रेस किसान-सभा बन गयी। हाँ, यदि
क्रान्तिकारी ढंग से जमींदारी मिटाने की बात वह बोलती और वैसा ही
करती, जैसा सोवियत रूस में हुआ, तो एक बात थी। तब ऐसा सोचा जा सकता
था; हालाँकि फ्रांस में क्रान्तिकारी ढंग से ही ऐसा होने पर भी उसके
कराने वाले किसान-विरोधी ही सिद्ध हुए। क्रान्तिकारी तरीके के मानी
ही हैं जबर्दस्ती जमीनें और जमींदारों की सारी सम्पत्तियाँ छीन लेना
और उन्हें राह का भिखारी या महाप्रस्थान का यात्री बना देना।
यह भी सोचना चाहिए कि कांग्रेस तो 1936-37 वाले चुनावों में भी पड़ी
थी। उसी समय उसने फैजपुर का एक अत्यन्त लचर कार्यक्रम भी इसी सिलसिले
में स्वीकार किया था, पर वह भी कांग्रेसी-मन्त्रिमण्डलों के बनने पर
सर्वत्र खटाई में ही पड़ा रह गया। प्रत्युत युक्तप्रान्त में ऐसा
काश्तकारी कानून बनाया उन्हीं मन्त्रियों ने जिसके चलते गत महायुद्ध
के जमाने में, सरकारी बयान के अनुसार ही, पूरे दस लाख एकड़ जमीनें
किसानों से जमींदारों ने छीन ली और किसानों में हाहाकार मच गया। उसी
का प्रायश्चित्त इस बार वहाँ कांग्रेसी मन्त्रियों को करना पड़ रहा
है। बिहार में भी ऐसी ही बातें होने वाली थीं। मगर यहाँ किसान-सभा की
जागरूकता और उसके प्रबल आन्दोलन ने बहुत कुछ रोका। फिर भी बहुत कुछ
अनर्थ हो गये। यदि कांग्रेस ही किसान-सभा होती, तो क्या ऐसा होता?
उलटे बिहार की किसान-सभा को कांग्रेसी मन्त्रियों और लीडरों ने
इसलिए कोसा कि वह कांग्रेस विरोधी है। परन्तु प्रश्न तो यह है कि इस
निर्जीव और लचर किसान-कार्यक्रम की जगह उसी समय कांग्रेस ने जमींदारी
मिटाने का प्रोग्राम क्यों न कबूल किया था? क्या पहले वह दूसरी थी और
आज बदल गयी?
दरअसल उस समय किसान-सभा ऐसी जोरदार न थी और उसने भी जमींदारी मिटाने
का प्रश्न अभी तेज न बना पाया था, जिससे कांग्रेस पर उसका दबाव पड़ता
और वह उसे मानने को मजबूर होती। तब समय का रुख ऐसा बेढंगा न था इस
जमींदारी के बारे में। तब कांग्रेस के आधार-स्तम्भ किसान-समाज में
जमींदारी के मिटा देने के बारे में ऐसी भीषण मनोवृत्ति न थी जैसी आज
है। उनमें इसके प्रति ऐसा रोष-क्षोभ न था जो आज है। फलतः उसके मिटाने
का प्रश्न न उठाकर भी कांग्रेस उस समय किसानों को अपने साथ ले सकती
थी। अब जमींदारी न मिटाकर कांग्रेस का टिकना या किसानों को अपने साथ
ले सकता असम्भव है। इसीलिए पूरे दस साल बाद उसने जमींदारी मिटाने की
बात अपनाई है। सो भी मुआवजा या कीमत देकर।
इससे कई बातें सिद्ध होती हैं। एक यह कि कांग्रेस ने खुद ऐसा न करके
किसान-सभा, किसान-आन्दोलन और किसानों के दबाव से ही ऐसा किया है या
यों कहिये कि उसने समय का रुख पहचाना है। इससे उसकी और उसके नेताओं
की अवसरवादिता सिद्ध होती है, जो बेशक किसान-सभा या किसान नेता होने
का लक्षण कदापि नहीं। किसानों का हित तो 1936-37 में ही पुकारता था
कि जमींदारी मिटाओ।
इससे किसान-सभा और कांग्रेस का मौलिक एवं बुनियादी भेद भी सिद्ध हो
जाता है। जहाँ किसान-सभा अर्थनीति और आर्थिक कार्यक्रम को राजनीति के
द्वारा देखती हुई उसे साधन और आर्थिक बातों को, अर्थ-नीति को साध्य
मानती है, और इसीलिए राजनीतिक हार-जीत की वैसी परवाह न करके सदा
किसानों की आर्थिक बातों को ही देखती रहती है और वैसा ही कार्यक्रम
चाहती है, तहाँ कांग्रेस राजनीति को ही अर्थनीति के द्वारा, इसी आईने
में देखती है। फलतः उसके लिए ये आर्थिक बातें तथा प्रोग्राम साधन हैं
और राजनीति साध्य या लक्ष्य। यही वजह है कि जब 1936-37 में मामूली
आर्थिक प्रोग्राम से ही उस राजनीतिक चुनावों में जीत सम्भव थी तो
उसने वैसा ही प्रोग्राम बनाया। लेकिन इस बार वैसा सम्भव न देख
जमींदारी मिटाने की बात उठाई।
सारांश, हर हालत में किसानों को साथ लेकर उसे राजनीति में सफल होना
है। फलतः उनका हित कांग्रेस लीडरों का लक्ष्य न होकर साधन मात्र है।
किसान-हित की बातों और वैसे कामों के द्वारा वे अपना मतलब निकालना
चाहते हैं। यह बात किसान नेताओं एवं किसान-सभा में नहीं हो सकती।
उनका तो काम ही है किसानों के हित को ही अपना अन्तिम लक्ष्य बनाना और
आगे बढ़ाना और इस प्रकार एक न एक दिन उसी रास्ते राजनीति में भी विजयी
होना।
दूसरी बात यह है कि यदि कांग्रेस से जुदा स्वतन्त्रा रूप से कोई
किसान-आन्दोलन और किसान-सभा न हो तो फिर कांग्रेस पर दबाव किसका
पड़ेगा? आज जो कांग्रेस प्रगतिशील मानी जाती है वह इसीलिए न, कि वह
समय की गति पहचान कर तदनुसार ही कदम बढ़ाती है? यही उसकी सबसे बड़ी
खूबी है, उसमें यह गुंजाइश है, यही उसकी जान और शान के लिए बड़ी चीज
है। मगर, अगर दबाव न हो तब? तब तो वह दकियानूस ही बन जाय, उसकी
प्रगति जाती रहे और वह निर्जीव हो जाय, जैसी नरम दलियों की संस्थाएँ
हैं। ऐसी दशा में आजादी के संग्राम में पूर्ण सफलता की आशा की जाती
रहे। इसीलिए कांग्रेस की प्रगतिशीलता एवं लक्ष्य की सफलता के लिए भी
जिस किसान दबाव की सख्त जरूरत है, उसके लिए स्वतन्त्रा किसान-सभा का
होना नितान्त आवश्यक है। क्योंकि तभी किसान-हित की दृष्टि से
स्वतन्त्रा आन्दोलन करके ऐसा वायुमण्डल बनाया जा सकता है जिसका दबाव
कांग्रेस पर पड़े और वह प्रगतिशील कार्यक्रम बनाकर किसान समूह को अपनी
ओर खींचे। इसके अभाव में वह नरम दलियों एवं लिबरलों की तरह निर्जीव
प्रोग्राम बनाकर किसानों को अपने साथ अन्ततोगत्वा ले चलने में समर्थ
नहीं हो सकती, यह ध्रुव सत्य है।
यदि किसान-सभा स्वतन्त्रा न होकर कांग्रेस का अंग या उसका एक विभाग
मात्र हो तो वह न तो स्वतन्त्रा आन्दोलन ही कर सकती और न वैसा
प्रचण्ड वायुमण्डल ही बना सकती, जो कांग्रेस पर दबाव डाल कर उसे आगे
बढ़ाये और प्रगतिशील बनाये। क्योंकि ऐसी किसान-सभा कांग्रेस के निश्चय
का ही मुँह देखेगी और तदनुसार ही चलेगी अनुशासन के खयाल से। वह
स्वतन्त्रा रूप से कोई भी काम या आन्दोलन कर नहीं सकती।
और आखिर यह मुआविजा क्या बला है? क्या इससे किसानों का लाभ है? क्या
यह किसान-हित की दृष्टि से दिया जाने को है? साफ शब्दों में कहा जा
सकता है कि यह तो किसानों के भविष्य को पहले से ही मुस्तगर्क करना या
जकड़ देना है। उनके भविष्य को पहले से ही बन्धक रख देना है। आगे चलकर
उनके लिए यह बड़ा रोड़ा सिद्ध होगा। आखिर ये रुपये किसानों से ही तो
वसूल होंगे। आज जो भी कर्ज इस मुआविजे को चुकाने के लिए सरकार लेगी
उसका भार किसानों पर ही तो पड़ेगा, वह उन्हीं से तो सूद के साथ वसूल
होगा। जो भी रुपया कर्ज लेकर या सरकारी खजाने से दिया जायगा वही अगर
किसान-हित के कामों में खर्च होता तो वे कितने आगे बढ़ते? यही रुपये
यदि उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य-सुधार, ग्रामीण सड़कों, सिंचाई, खेती की
तरक्की, मार्केटिंग के प्रबन्ध आदि में खर्च हों तो सचमुच किसान
प्रगति की छलाँग मारने लगेंगे। यही वजह है कि किसान-सभा इस मुआवजे की
सख्त मुखालिफत करती है।
कहा जाता है कि किसान-सभा ने 1937 में बने कांग्रेसी-मन्त्रिमण्डलों
को काफी परेशान और बदनाम किया। मगर यही तो कहने का भद्दा तरीका है।
विरोध का सदा स्वागत किया जाता है। जब तक विरोध न हो ठीक रास्ते पर
कोई नहीं चलता। विरोधी ही अधिकारारूढ़ दल की कमजोरियों को बताकर
उन्हें सँभलने का मौका देते हैं। यदि मोटर और इंजन में ब्रेक न हो तो
पता नहीं मोटर और रेल कहाँ जा गिरें? और आखिर यह ब्रेक है क्या चीज,
यदि विरोध, रुकावट या ‘अपोजीशन’ नहीं है? उन दिनों किसान-सभा
कांग्रेसी मन्त्रियों को क्या गिराना या पदच्युत करना चाहती थी?
क्या इसका कोई प्रमाण है? उसने तो सिर्फ खतरे और खामियाँ सुझाकर
मन्त्रियों को समय-समय पर सजग किया कि सँभल कर काम करें, जमींदारों
के माया-जाल और चकमे में पड़कर पथ-भ्रष्ट न हों। फलतः मन्त्री लोग
सँभलें जरूर और इस तरह किसानों को अपने साथ रख सके। आखिर तेली के बैल
की तरह किसानों की आँखें मूँद कर हमेशा के लिए रखी नहीं जा सकती थीं।
वे खुलतीं कभी न कभी जरूर और कांग्रेस के लिए बुरा होता। यदि अपने आप
खुलतीं या यदि कहीं कांग्रेस के शत्रु खोलते तो तब तो भारी खतरा
होता। किसान-सभा ने इन दोनों से कांग्रेस को बचाया। फलतः इसके लिए
उसका कृतज्ञ होने के बजाय यह उलाहना और गुस्सा? उसने मित्र का काम
किया। फिर भी यह नाराजगी?
यह भी बात है कि राष्ट्रीय संस्था होने के नाते कांग्रेस सभी वर्गों
की संस्था है। उसमें सभी वर्ग शरीक हैं, वह सभी दलों और श्रेणियों का
प्रतिनिधित्व करती है। यही उसका दावा है। यही चाहिए भी। तभी सभी वर्ग
के लोग उससे चिपकेंगे, उसे अपनी संस्था मानेंगे और फलस्वरूप उसे
मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे। ऐसी दशा में वह किसानों की संस्था या
सभा कैसे हो सकती है। वह केवल एक वर्ग का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती
है? यह तो उसकी कमजोरी का सबसे बड़ा कारण होगा; कारण, तब जमींदार,
मालदार आदि दूसरे वर्ग उसका न सिर्फ साथ न देंगे, प्रत्युत उसके घोर
शत्रु हो जायँगे। जमींदारी मिटाने का प्रश्न जो मुआविजा देकर उठाया
गया है, उसका भी यही तात्पर्य है। जमाना बदल रहा है और अपार
धन-सम्पत्ति लेकर जमींदार उसे उद्योग-धन्धों में लगायेंगे और मालामाल
होंगे। जमीन से होने वाली एक बँधी-बँधाई आमदनी की जगह कल-कारखानों से
होने वाली उत्तरोत्तर वृद्धिशील आमदनी होगी इन जमींदारों को, फिर
चाहिए क्या? उस दशा में जमींदार कांग्रेस के शत्रु क्यों बनें? यदि
वे विरोध करते हैं तो या तो नादानी से या यह उनकी चालबाजी है। ऐसा न
करते तो शायद किसानों के दबाव से कांग्रेस उन्हें मुआविजा भी न देती।
आखिर कांग्रेस दल में अधिकांश जमींदार मालदार और उनके संगी-साथी ही
तो हैं। किसान-मनोवृत्ति के हैं कितने एम. एल. ए.? और यही लोग
जमींदारी मिटाने की बात का इस रूप में समर्थन करते हैं। तो क्या वे
सनक गये हैं?
ऐसी दशा में न तो वह किसान जैसे एक वर्ग की संस्था बन सकती और न
किसान-सभा कांग्रेस के अधीन या उसकी मातहती में ही रह सकती है, रखी
जा सकती है। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। जब कभी किसान-सभा
किसान-हितों के लिए जम°दारों से भिड़ना चाहेगी, तभी कांग्रेस के
अनुशासन की नंगी तलवार उस पर आ गिरेगी। उसे कांग्रेस का रुख देखकर ही
प्रतिपल चलना होगा। कांग्रेस का मुख्य काम है विभिन्न वर्गों के
स्वार्थों का सामंजस्य रखना और ऐसा करते हुए ही आगे बढ़ना। वह तो एक
वर्ग को दूसरे के विरुद्ध संघर्ष करने देना नहीं चाहती, नहीं चाहेगी।
वह होगा वर्ग-युद्ध या श्रेणी-संघर्ष और वैसा होने पर कांग्रेस को
किसी एक वर्ग का साथ उसमें देना ही पड़ेगा। फलतः उसकी राष्ट्रीयता
जाती रहेगी। जिस वर्ग के विपरीत दूसरे का साथ देगी वह उससे हट जाएगा।
यह हटना समय-समय पर होता ही रहेगा, कारण, वर्ग-संघर्ष एक ही बार न
होकर बार-बार होगा। तब उसकी राष्ट्रीयता कैसे निभेगी और सभी वर्गों
की संस्था होने का सफल दावा वह कर सकेगी कैसे? इसी से उसे
वर्ग-सामंजस्य का रास्ता पकड़ना ही है। वह यही करती भी है। अतएव उसकी
मातहत किसान-सभा को या उसके किसान-विभाग को भी यही करना होगा। उसे भी
वर्ग-सामंजस्य की माला जपनी होगी। फिर भी उसे किसान-सभा का नाम देना
उसका उपहास करना है, जब तक कि स्वतन्त्राता- पूर्वक यह किसान-हितों
के लिए संघर्ष न कर सके, ऐसा करने की पूरी आज़ादी न हो।
कहा जा सकता है कि इस वर्ग-सामंजस्य की नीति के फलस्वरूप जमींदार
वर्ग की भी हित-हानि हो सकती है। क्योंकि उनके लिए भी तो कांग्रेस
कभी संघर्ष न करेगी। तब घबराहट क्यों? बात ऊपर से ठीक दीखती है। मगर
असलियत कुछ और ही है। कभी किसी ने देखा-सुना ही नहीं कि कांग्रेस
जमींदार सभा को भी अपनी मातहती में रखे या अपना एक
जमींदार-डिपार्टमेंट खोले। उसका यत्न तो केवल किसान-सभा को ही न होने
देने तथा अपने मातहत रखने में है। मजदूर-सभा की भी स्वतन्त्रा सत्ता
वह स्वीकार करती है और जमींदार-सभा की भी। पूँजीपतियों की सभा का तो
कुछ कहना ही नहीं। बल्कि यों कहिये कि पूँजीपतियों एवं जमींदारों की
सभाएँ कांग्रेस की परवाह भी नहीं करती हैं। वह अपना स्वतन्त्रा कार्य
किये जाती हैं। इसीलिए कांग्रेस के वर्ग-सामंजस्य वाले सिद्धान्त से
उनकी हानि नहीं होती, नहीं हो सकती। उनकी संस्थाएँ निरन्तर लड़ती जो
रहती हैं। बस, सारी बला किसानों पर ही आती है, आने वाली है। क्योंकि
उनकी स्वतन्त्रा संस्था रहने न पाये इसी के लिए कांग्रेसी नेता
परेशान रहते हैं और इस तरह किसान-सभा को पनपने नहीं देते। तब किसानों
के हित चौपट न हों तो होगा क्या? वे सभी वर्ग संस्थाओं को समान रूप
से पनपने न देते तो एक बात थी। मगर सो तो होता नहीं। ऐसी दशा में
कांग्रेस के अधीन किसान-सभा का ढाँचा खड़ा करना निरी प्रवंचना है।
दरअसल कांग्रेस में जमींदारों का प्रभुत्व ठहरा और वह इसी ढंग से
किसानों को उठने देना नहीं चाहते। यह उनकी चाल है कि अनेक वर्गीय
संस्थाओं के अधीन किसानों की वर्ग संस्था को बनाने का ढोंग रचकर
उन्हें सदा पंगु ही रखें। पहले तो किसान-सभा के नाम से ही नाक-भौं
सिकोड़ते थे। मगर उससे कुछ होता-जाता न देख अब यह दूसरा प्रपंच खड़ा
किया जा रहा है।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस में दूसरे वर्ग-जमींदार, पूँजीपति और
मजदूर-नगण्य से हैं; फलतः वे अपनी अलग सभाएँ बनाकर भी कांग्रेस का
कुछ बिगाड़ नहीं सकते जब तक किसान कांग्रेस के साथ हैं। हाँ, यदि
किसान भी अलग हों तो भारी खतरा होगा और उनकी स्वतन्त्रा
संस्था-किसान-सभा-बन जाने में इसकी पूरी सम्भावना है। किसानों ने यदि
कांग्रेस को छोड़ा तो उसकी जड़ ही कट जायगी।
लेकिन यह कोई दलील नहीं है, यदि किसान-सभा का संचालन कांग्रेस-जन ही
करें तो क्या हर्ज है? तब किसानों को उसके विरुद्ध जाने का मार्ग कौन
सिखायेगा? क्या वही कांग्रेसी ही? यह तो विचित्र बात है। और अगर यह
बात हो तो आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी? किसानों को सदा
कांग्रेस की दुम में बाँध रखना असम्भव है। संसार में और भारत में भी
वर्ग संस्थाएँ हैं, यह ठोस सत्य है। फिर किसान इससे अछूते रहें,
उन्हें यह वर्ग संस्था की हवा न लगे, यह गैर-मुमकिन है। परिणाम यह
होगा कि अभी तो कांग्रेस-जन ही वह वर्ग संस्था बना सकते हैं, बनाते
हैं। मगर पीछे कांग्रेस के विरोधी बना के ही दम लेंगे और ये
कांग्रेसी लीडर उनका कुछ कर न सकेंगे। फलतः कांग्रेस-विरोधियों का
प्रभुत्व किसान-सभाओं पर न हो, सिर्फ यही देखभाल कांग्रेस की दृष्टि
से अवश्य की जानी चाहिए जब तक आजादी की लड़ाई जारी है और मुल्क
स्वतन्त्रा नहीं हो जाता। इसके आगे जाना अनुचित काम एवं अनधिकार
चेष्टा है। जमींदार हजार उपायों से किसानों को तबाह करते रहें और आप
से कुछ नहीं होता मगर ज्यों ही किसान अपनी संघ-शक्ति के द्वारा उनका
संगठित रूप से सामना करने की तैयारी करता और एतदर्थ किसान-सभा बनाता
है कि आप लोग हाय-तोबा मचाने लगते हैं। यह बात अब किसान भी समझने लगा
है और कांग्रेस के लिए यह अच्छा नहीं है।
यदि किसान-सभा कांग्रेस का पुछल्ला नहीं बनती, यदि इसमें किसानों के
लिए खतरा है और इसीलिए स्वतन्त्रा किसान-सभा का बनना अनिवार्य है, तो
वह अनेक राजनीतिक दलों तथा पार्टियों की भी दुम न बनेगी। यदि उस पर
कांग्रेसी लीडरों की हुकूमत असह्य है, तो फिर पार्टी लीडरों की मुहर
भी क्यों लगे? उसकी स्वतन्त्राता तो दोनों ही तरह से चौपट होती है और
वह मजबूत हो पाती नहीं। हम उसे बलवती वर्ग संस्था बनाना चाहते हैं और
ऐसा करने में यदि कांग्रेस बाधक है तो ये पार्टियाँ कम बाधक नहीं
हैं। गत पन्द्रह साल के अनुभव से हम यह बात कहने को विवश हैं।
पार्टियों की पहली कोशिश यही होती है कि किसान-सभा या मज़दूर-सभा उनका
पुछल्ला बनें, उनका प्रभुत्व और उनकी छाप इन सभाओं पर लगे। यदि ऐसा
हो गया, तो ये सभाएँ बनें; नहीं तो जहन्नुम में जायँ। यदि कई
पार्टियाँ हुईं-और हमारे देश में दुर्भाग्य से सोशलिस्टों,
कम्युनिस्टों, फारवर्ड ब्लाकिस्टों, क्रान्तिकारी सोशलिस्टों,
बोल्शेविकों आदि की अलग-अलग पार्टियाँ हैं-तो किसान-सभा उनके आपसी
महाभारत का अखाड़ा बन जाती है। उनकी आपसी खींच-तान से यह ठीक-ठीक पनप
पाती नहीं, तगड़ी और जबर्दस्त बन पाती नहीं। हरेक पार्टी का अपना-अपना
मन्तव्य होता है। वह भला होता है या बुरा, इससे हमें कोई मतलब नहीं।
मगर वह परस्पर विरोधी तो होता ही है। यह बात चाहे ऊपर से देखने कहने
के लिए न भी हो, फिर भी भीतर से होती ही है। यह ठोस सत्य है। यदि
मन्तव्य का परस्पर विरोध न हो तो फिर कलह कैसी? फिर ये पार्टियाँ आपस
में मिल जाती हैं क्यों नहीं? कम से कम लीडरी का विरोध तो रहता ही।
हरेेक पार्टी अपनी लीडरी चाहती है और यह और भी बुरी बात है। ऐसी दशा
में बेचारी किसान-सभा इनके आपसी झगड़े का अखाड़ा क्यों बने, क्यों बनने
दी जाय? और अगर किसी कल, बल, छल से एक पार्टी ने सभा में अपना बहुमत
बनाना चाहा, तो ऐसा क्यों होने दिया जाय? इन्हें तो अपनी लीडरी का
मर्ज है। किसान और उनकी सभा जायँ जहन्नुम में। किसानों और उनकी सभा
का नाम यदि इन्होंने भी कभी लिया है तो केवल अपनी लीडरी साधने के
लिए। नाम चाहिए, काम जाय जूल्हे में। एकान्त में बैठकर ये पार्टी
लीडर कोई बात तय करें, कोई मन्तव्य ठहरायें, और किसान-सभा में आकर उस
पर उसे ही लादें यह बुरी बात है, असह्य चीज है। सभा में ही बैठकर वह
मन्तव्य ठीक क्यों नहीं करते? शायद तब उनकी लीडरी न रहे। मगर
किसान-सभा तो रहेगी और जबर्दस्त रहेगी। यदि ये पार्टी लीडर ईमानदार
हों तो उन्हें यही करना चाहिए। नहीं तो सभा को बख्श देना चाहिए।
एक बात और भी है। इन सभी पार्टियों का दावा है कि ये मजदूरों की
पार्टियाँ हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का तो यही दावा है। लेनिन की
कम्युनिस्ट पार्टी का नामकरण या जन्म बोल्शेविक पार्टी से ही हुआ रूस
की अक्टूबर 1917 की क्रान्ति की सफलता के बाद। और यह बोल्शेविक
पार्टी बनी थी रूस की सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी के ही बहुमत से।
उस लेबर या मजदूर पार्टी के बहुमत ने जो निर्णय किया उसे अल्पमत ने न
माना और वह अलग हो गया। इस तरह स्पष्ट है कि आज की कम्युनिस्ट पार्टी
मजदूरों की ही पार्टी है। लेनिन के लेखों में सर्वत्र यही बात पायी
जाती है। मार्क्स और एंगेल्स ने भी शुरू-शुरू में दूसरे-दूसरे नामों
से इसे मजदूर पार्टी के रूप में ही बनाया। ऐसी दशा में किसानों की
वर्ग संस्था उस मजदूर पार्टी की छत्रछाया या लीडरी में कैसे बन सकती
और सबल हो सकती है? मजदूर पार्टी की अधीनस्थ किसान-सभा किसानों की
स्वतन्त्रा वर्ग संस्था वास्तविक रूप से बन पायेगी कैसे? और अगर
कम्युनिस्ट पार्टी इस ठोस सत्य को मिटाकर यह दावा करे कि वह किसानों
तथा मजदूरों की-दोनों की-पार्टी है, तो प्रश्न होता है कि वह अनेक
वर्गों की संस्था होकर किसानों की वर्ग संस्था को अपने अधीन कैसे रख
सकेगी और उसके साथ न्याय कर सकेगी? किसान-सभा की नकल वह भले ही खड़ी
करे। मगर असली और बलवती किसान-सभा वह हर्गिज न बनने देगी। बहुवर्गीय
संस्था होने के नाते यदि कांग्रेस के मातहत किसान-सभा नहीं बन सकती
तो कम्युनिस्ट पार्टी का पुछल्ला क्यों बनेगी?
कहा जा सकता है कि कांग्रेस के भीतर रहने वाले वर्ग परस्पर विरोधी
हैं। दृष्टान्त के लिए जमींदारों का विरोध किसानों से है। फलतः उसकी
मातहती में किसान-सभा नहीं बन सकती है। मगर किसानों तथा मजदूरों के
स्वार्थों का तो परस्पर विरोध है नहीं, किसान और मजदूर भी परस्पर
विरोधी वर्ग इसीलिए नहीं हैं। तब इन दोनों की संस्था स्वरूप इस
कम्युनिस्ट पार्टी के अधीन किसान-सभा क्यों न होगी?
मगर यह दलील लचर है। अन्ततोगत्वा इन दोनों के स्वार्थ जरूर मिल जाते
हैं; समाजवाद या साम्यवाद की दशा में इनका परस्पर विरोध नहीं होता,
यह बात सही है। मगर प्रश्न तो वर्तमान दशा और समय का है और आज इनके
स्वार्थों का विरोध स्पष्ट है। यदि गल्ले, साग-भाजी और फल-फूल आदि
महँगे बिकें तो किसान सुखी हों और खुश रहें, मगर कारखाने के मजदूर
नाखुश और तबाह हों। विपरीत इसके यदि कारखाने के बने माल-कपड़े
आदि-महँगे बिकें और कारखानेदारों को ज्यादा लाभ हो तो मजदूरों के
वेतन बढ़ें, उन्हें बोनस मिले और दूसरी सुविधाएँ मिलें। लेकिन इसमें
किसान की तबाही है। उसकी पैदा की गयी सारी चीजों की कीमत कपड़े आदि
में ही लग जाती है और वह तबाह रहता है। यदि मजदूर अपनी माँग मनवाने
के लिए महीनों हड़ताल करेें तो मिल-मालिक उनके सामने झुकें। मगर ऐसा
होने पर मिल के बने कपड़े आदि महँगे होते और किसानों के ज्यादा पैसे
इनमें लग जाते हैं। फलतः वह ये हड़तालें नहीं चाहते। ऐसी ही सैकड़ों
बातें हो सकती हैं जिनसे दोनों के तात्कालिक स्वार्थों का परस्पर
विरोध स्पष्ट है और ये तात्कालिक स्वार्थ ही उनकी दृष्टि को किसी
रास्ते पर लाते हैं। ये भौतिक स्वार्थ हैं, प्रत्यक्ष हैं, आँखों के
सामने हैं। इनके मुकाबले में समाजवाद और साम्यवाद वैसे ही परोक्ष और
केवल भावनामय हैं, दिमागी हैं, जैसी आजादी और स्वतन्त्राता। जिस
प्रकार तात्कालिक स्वार्थों को भूलकर हम इन्हें स्वराज्य संग्राम में
सामूहिक रूप से आकृष्ट नहीं कर सकते, ठीक वैसे ही इन परस्पर विरोधी
तात्कालिक स्वार्थों को अलग करके, इनकी परवाह न करके हम किसानों या
मजदूरों को सामूहिक रूप से अपनी सभा में आकृष्ट नहीं कर सकते। फिर
समाजवाद के लिए यह तैयार कैसे किये जायँगे? फलतः न्याय, ईमानदारी,
दूरंदेशी और व्यावहारिकता का तकाजा यही है कि इन दोनों की सभाएँ
एक-दूसरे से स्वतन्त्रा हों और किसी भी पार्टी का उन पर नियन्त्राण न
हो। तभी उनमें बल आयेगा। कम से कम किसान-सभा तो तभी सबल और सजीव बन
सकेगी और पीछे मजदूर-सभा के सहयोग से साम्यवाद स्थापित करेगी।
एक बात और। मार्क्सवादियों ने किसानों को मध्यम या बुर्जुवा वर्ग में
माना है और प्रतिक्रियावादी कहा है। यह ठीक है कि परिस्थिति विशेष
में यह बूर्जुवा वर्ग भी क्रान्तिकारी तथा आमूल परिवर्तनवादी
(Revolutonary and Radical) होता है। यही बात किसान पर भी लागू है।
यही बात लेनिन ने अपनी चुनी लेखमाला के अंग्रेजी संस्करण के 12वें
भाग में अन्त में लिखी है कि ‘‘In Russia we have a 'radical
bourgeois’.That radical bourgeois is the Russian Peasant.’’ मगर
मजदूरों को तो सबों ने क्रान्तिकारी माना है। ऐसी दशा में ये दो वर्ग
परस्पर विरोधी स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। फिर इन दोनों की एक पार्टी
कैसी? इन दोनों का एक संगठन कैसा? वर्तमान सामाजिक परिस्थिति में ये
स्पष्ट ही दो परस्पर विरोधी दिशाओं में चलने वाले हैं। फलतः इनके
स्वतन्त्रा संगठन बनाकर ही धीरे-धीरे इन्हें रास्ते पर लाना होगा।
कम्युनिस्ट पार्टी के सम्बन्ध में जो बातें अभी-अभी कही गयी हैं वही
अक्षरशः सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक आदि पार्टियों के बारे में
भी लागू हैं। क्योंकि उनका भी दावा वैसा ही है। जैसा कम्युनिस्ट
पार्टी का। यदि इनमें कोई यह भी दावा करती है कि उनके भीतर फटेहाल
बाबुओं का वर्ग भी आ जाता है, या मध्यमवर्ग भी समाविष्ट हो जाता है,
तो इसमें हालत जरा और भी बदतर हो जाती है। फलतः सच्ची और स्वतन्त्रा
किसान-सभा बनाने का उनका भी दावा वैसे ही गलत है जैसे कम्युनिस्टों
का। कम्युनिस्टों और रायिस्टों में इतनी विशेषता और भी है कि वह भारत
की व्यापक, दहकती और सर्वत्र ओत-प्रोत होकर ‘युद्धं देहि’ करने वाली
राष्ट्रीयता का अपमान करते और उसकी अवहेलना करके भी कायम रहना चाहते
हैं। वे अपनी अन्तर्राष्ट्रीयता के साँचे में इस राष्ट्रीयता को
ढालने की भारी भूल करते हैं। यह बात इन पार्टियों में नहीं है। वे न
तो ऐसी भूल करती हैं और न राष्ट्रीयता की अवहेलना ही करती हैं। वे
राष्ट्रीयता को उसका उचित स्थान देती हैं। फिर भी किसान-सभा की
स्वतन्त्राता, बलवत्ता और वास्तविकता की दृष्टि से सबों का स्थान
समान ही है। समान तो पार्टियों की किसान-सभा के बैल बसहा बैल है
पुजवाने के लिए, मगर किसानों को तो हल चलाने वाला बैल चाहिए।
एक महत्त्वपूर्ण बात और भी कहनी है। आखिर क्रान्ति करते हैं किसान और
मजदूर ही। एतदर्थ उनकी वर्ग संस्थाएँ अत्यावश्यक हैं; कारण, वही
उन्हें इसके लिए संगठित और तैयार करती हैं। बिना इन संस्थाओं के
किसान और मजदूर सामूहिक रूप से तैयार किये जा सकते नहीं। यह बात सभी
क्रान्तिकारियों को मान्य है, तो फिर राजनीतिक दलों और पार्टियों की
जरूरत क्या है? इन दोनों सभाओं की कार्यकारिणी समितियाँ आपस में
सहयोग करके क्रान्ति का संचालन एवं उसका नेतृत्व बखूबी कर सकती हैं।
केवल दोनों के सहयोग की व्यवस्था होना जरूरी है और यह बात बिना
पार्टियों के भी वे दोनों खुद ही कर सकती हैं। एक समय था जब राजनीतिक
विचारों का पूर्ण विकास न होने के कारण पार्टियों की आवश्यकता मानी
जाती थी ताकि वर्ग संस्थाएँ पथ-भ्रष्ट न हो जायँ और उन्हें गलत
नेतृत्व न मिले। लेकिन इसी के साथ यह भी जरूरी माना जाता था कि सभी
देशों की इन पार्टियों की भी एक अन्तर्राष्ट्रीय (International)
पार्टी हो, जो सबों को सूत्रबद्ध रखकर उन्हें भी उचित नेतृत्व दे,
ठीक रास्ते पर ले चले। यातायात और समाचार के साधनों के पूर्ण विकास
के अभाव के चलते भी पथ-भ्रष्टता का खतरा था। एक-दूसरे से सीधा
सम्पर्क रखना असम्भवप्राय जो था। मगर आज तो इनमें एक भी बात नहीं है।
राजनीति का विकास पराकाष्ठा को पहुँच चुका है, यातायात के साधन
अत्यन्त तेज और सुलभ हैं, फोन, तार और रेडियो ने समाचार के संसार में
क्रान्ति कर दी है और छपाई की कला ऐसी प्रगति कर गयी है कि कुछ न
पूछिये। इसलिए राजनीति का अन्तर्बहिर्विश्लेषण भी ऐसा हो चुका है कि
अब उसमें भ्रम की गुंजाइश नहीं, किसी पार्टी के नेतृत्व की जरूरत
नहीं। मौजूदा साधनों के सहारे किसानों तथा मजदूरों की संस्थाएँ अपने
कर्तव्य का नियमित निर्धारण अच्छी तरह कर सकती हैं।
इसीलिए अन्तर्राष्ट्रीय के सबसे बड़े पोषक एवं सूत्रधार मो. स्तालीन
ने कई साल पूर्व ऐलान कर दिया कि ऐसी संस्था या पार्टी की अब जरूरत
नहीं है। जिस तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय की देखा-देखी दूसरे
अन्तर्राष्ट्रीय बने, जब वही बेकार है, तो इनकी क्या जरूरत? सोशलिस्ट
पार्टी, फारवर्ड ब्लाक और क्रान्तिकारी सोशलिस्ट पार्टी का तो
अन्तर्राष्ट्रीय से कोई सम्बन्ध है भी नहीं। ऐसी दशा में एक कदम और
नीचे उतरकर इन सभी पार्टियों को भी खत्म क्यों न कर दिया जाय? इनकी
क्या जरूरत रह गयी? और जब कम्युनिस्ट पार्टी का सूत्रधार तृतीय
अन्तर्राष्ट्रीय न रहा, तो फिर यह पार्टी भी नाहक क्यों रहे? अगर
सिर्फ बाल की खाल खींचने, वामपक्षियों को टुकड़े-टुकड़े करने, नेतागिरी
का हौसला पूरा करने और सभी वर्ग संस्थाओं में कलह और जूतापैजार ही
इनका उद्देश्य हो तो बात दूसरी है। अब तो पार्टियों के भीतर भी आपस
में ही लीडरी के झगड़े प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चलने लगे हैं।
क्रान्तिकारी राजनीति और मार्क्सवाद के यथार्थ ज्ञान और तदनुसार अमल
करने की ठेकेदारी इन पार्टियों को ही मिली है, ऐसा दावा दूर की कौड़ी
लाना है और बीसवीं सदी के बीच में भी दुनिया को उल्लू समझने की
अनधिकार चेष्ट करना है। और अगर यही बात हो तो फिर वह ठेका किस एक
पार्टी को मिला है और कैसे, कहाँ से, यह भी सवाल उठता है। क्योंकि
इसी ठेकेदारी की लड़ाई तो आखिर वे आपस में भी करती ही हैं। तब फैसला
कैसे हो कि फलाँ पार्टी ही के पास वह ठेका है?
किसान-सभा और मजदूर-सभा आपस में मिलकर यदि आवश्यकता समझें कि दोनों
के सहयोग के लिए एक सम्मिलित समिति चाहिए तो उसका भी चुनाव दोनों की
राय से हो सकता है। जैसे इन सभाओं की समितियाँ नीचे से ऊपर तक चुनाव
से बनती हैं तैसे दोनों की या ऐसी ही और सभा को भी मिलाकर अनेक की एक
समिति चुनाव से बन सकती है। उसी को पार्टी भी कहना चाहें तो भले ही
कहें, मगर यह बाहर से इन पर लदने वाली, लादे जाने वाली पार्टी कौन-सी
बला है? हम इसी से पनाह माँगते हैं।
कहा जाता है कि जब कांग्रेस के 90 प्रतिशत सदस्य और लड़ने वाले किसान
ही हैं तो चुनाव के जरिये उसकी सभी कमिटियों पर वे आसानी से अधिकार
जमा सकते हैं, और अगर वे ऐसा नहीं करते तो उनकी भूल है। हर हालत में
किसान-सभा का स्वतन्त्रा संगठन फिजूल है। मगर अनुभव कुछ और ही है।
इतिहास भी ऐसा ही बताता है। कांग्रेस मध्यमवर्गीयों की संस्था इस
मानी में है कि इस पर उन्हीं का अधिकार है, प्रभुत्व है और यह उन्हीं
की राय से चलती है, इसमें उन्हीं का नेतृत्व है। संसार में आजादी के
लिए लड़ने वाली संस्थाएँ ऐसी ही होती हैं, अभी तक यही पाया गया है।
यहाँ तक कि सबसे ताजा जो रूस का दृष्टान्त है वहाँ भी जारशाही के
विरुद्ध जनतन्त्रा, शासन के लिए लड़ने वाली सोवियत नाम की संस्था
मालदारों और मध्यमवर्गीयों के ही अधिकार में थी; हालाँकि उसके सदस्य
केवल किसान, मजदूर और सिपाही थे और तीनों ही पूरे शोषित थे। यही वजह
है कि 1917 की मार्च वाली क्रान्ति के फलस्वरूप जारशाही का अन्त हो
के रूस में जनतन्त्रा के नाम पर धनियों का ही शासन कायम हुआ, जिसके
विरुद्ध लड़ते रह के लेनिन को अक्टूबर वाली क्रान्ति करनी पड़ी और उसके
फलस्वरूप किसान-मजदूरों का शासन वहाँ स्थापित हुआ। लेनिन जैसे
महापुरुष और क्रान्तिकारी के रहते भी जब सोवियत पर किसान-मजदूरों का
अधिकार और नेतृत्व न हो सका, हालाँकि उसके सदस्य धनी लोग न थे, तो हम
जैसों की क्या बिसात कि कांग्रेस पर अधिकार जमा सकें, जबकि उसमें
धनी और उनके पोषक काफी सदस्य हैं? सोवियत का विधान चवनिया मेम्बरी
वाला या इस तरह का न था, जिसमें जाल-फरेब हो और फर्जी मेम्बर बनाकर
कमिटियों पर अधिकार किया जा सके। उसके सदस्य तो बालिग किसान, मजदूर
और सिपाही मात्र थे। फलतः बनावटी मेम्बर बनने-बनाने की गुंजाइश वहाँ
न थी, मगर कांग्रेस में खूब है और यह रोज की देखी बात है। लेकिन जब
लेनिन विफल रहा तो यहाँ कौन सफलता की आशा करे? इन चुनावों में हजार
प्रलोभनों, जाल-फरेबों और दबावों से काम लेकर धनी लोग ही आमतौर से
विजयी हो सकते हैं, होते हैं। यही कटु और ठोस सत्य है और यह कोई नयी
बात नहीं है। कांग्रेस पर किसानों के नेतृत्व और अधिकार की बात, ऐसी
हालत में, निरा पागलपन है और धोका है। फलतः किसान-सभा का स्वतन्त्रा
संगठन होना ही चाहिए।
जब कराची तथा फैजपुर में कांग्रेस ने स्वतन्त्रा किसान संगठन के
सिद्धान्त को मान लिया है तो उसका विरोध क्यों? यदि किसान-सभा को
कांग्रेस कमिटियों की मातहत या उनके अंग की ही तरह बनाने की बात न
होती तो फिर कांग्रेस के द्वारा उनके स्वीकृत होने की बात क्यों कही
जाती? विभिन्न मातहत कमिटियों के स्वीकृत होने का प्रश्न तो उठता ही
नहीं। लेकिन फैजपुर के किसान प्रोग्राम की आखिरी, 13वीं, चीज यही है
कि कांग्रेस किसान-सभाओं को स्वीकार करे-‘‘Peasant unions should be
recognised.’’
कहा जाता है कि अभी किसान-सभा की क्या जरूरत है? अभी तो अंग्रेजी
सरकार हटी नहीं और स्वराज्य आया नहीं, बीच में ही यह बेसुरा राग
कैसा? विदेशी सरकार के हटने पर ही प्रश्न उठेगा कि किसका राज्य हो?
किसानों का हो? दूसरों का हो? या कि औरों का? उससे पहले ही यह तूफाने
बदतमीजी कैसी? यह तो मुसलिम लीग की जैसी ही बात हो गयी कि पहले ही
बँटवारा कर दो, अंग्रेजी शासन के रहते ही हमारा हिस्सा दे दो। इस
आपसी झगड़े में तो वह स्वराज्य मिलने का नहीं। फिर अभी वह हमारा हो,
हमारा हो, ऐसा हो, वैसा हो, की तैयारी कैसी? यह वर्ग-संघर्ष और
श्रेणी-युद्ध तो उसमें बाधक होगा न? तब तदर्थ किसान-सभा का यह
हो-हल्ला एवं महान् प्रयास क्यों?
लेकिन यदि इन प्रश्नों की तह में घुस के देखा जाय तो किसान-सभा की
असलियत, अहमियत और आवश्यकता साफ हो जाती है। दरअसल स्वराज्य के दो
पहलू हैं-विदेशी शासन का अन्त और अपने शासन, अपने राज्य, ‘स्व-राज्य’
की स्थापना। इनमें पहला निषेधात्मक और दूसरा विधानात्मक या निर्माण
स्वरूप है। ‘स्वराज्य’ कहने से उसके निर्माणात्मक पहलू पर ही
सर्वप्रथम दृष्टि जाती है और वही प्रधान है, मुख्य है, असल है।
निर्माण के बिना कुछ हो नहीं सकता। लेकिन निर्माण के पूर्व ध्वंस
आवश्यक है, कूड़े-करकट और रास्ते के रोड़ों को हटाना जरूरी है। नींव
खोदने पर ही मजबूत महल खड़ा होता है। नींव के स्थान पर पड़ी हुई मिट्टी
बाधक होती है उस महल के निर्माण में। इसीलिए खोदकर उसे हटाना पड़ता
है। विदेशी शासन भी अपने शासन के निर्माण में बाधक है। इसीलिए उसको
हटाना जरूरी हो जाता है और स्वराज्य के भीतर वह अर्थात् आ जाता है।
इसीलिए वह गौण है, अप्रधान है।
मगर हमारे कांग्रेसी नेता उसी पर ज्यादा जोर देते हैं, हालाँकि चाहिए
जोर देना निर्माणात्मक पहलू पर। यही उनकी भारी भूल है। आखिर विदेशी
शासन के हटने पर कोई शासन बनेगा, या कि अराजकता ही उसका स्थान लेगी?
‘अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत’ होगी क्या? यह तो कोई नहीं चाहता।
प्रत्युत विदेशी शासन हटाने-मिटाने के सिलसिले में ही कोई-न-कोई शासन
बनाना ही पड़ेगा, कोई सरकार खड़ी होगी ही। तभी आसानी से सफलतापूर्वक
विदेशी हुकूमत को हम मिटा सकते हैं। वही सरकार समानान्तर सरकार कही
जाती है राजनीति की भाषा में। पीछे चलकर उसी सरकार को मजबूत बनाते
हैं, यह बुनियादी बात है।
अब प्रश्न होता है कि वह सरकार किसकी होगी? कैसी होगी, कौन सी होगी?
यह बड़े प्रश्न हैं और महत्त्व रखते हैं। यह कहने से तो काम चलता नहीं
कि वह सरकार हिन्दुस्तानियों की होगी? हिन्दुस्तानी तो चालीस करोड़
हैं न? तब इनमें किनकी होगी? ये चालीस करोड़ भी जमींदार, किसान,
पूँजीपति, मजदूर आदि परस्पर विरोधी वर्गों में बँटे हैं, तो फिर
इनमें किन वर्गों की होगी? जमींदारों की? पूँजीपतियों की? तब किसान
या मजदूर उस स्वराज्य की सरकार की स्थापना के लिए, उस स्वराज्य के
लिए क्यों लड़ें? उस सरकार और विदेशी सरकार में नाममात्र का ही फर्क
होगा। असलियत प्रायः एक सी ही होगी। किसान-मजदूरों की कमाई की लूट तो
उसमें भी जारी ही रहेगी। अन्तर सिर्फ यही होगा कि इस समय जो लूट का
माल लंकाशायर, मैंचेस्टर या इंग्लैण्ड जाता है, वही तब बम्बई,
अहमदाबाद, कानपुर, छतारी, दरभंगा जायगा। कमाने वाले किसान-मजदूरों को
क्या मिलेगा? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं और सारी दुनिया में किये जा
चुके हैं। किसान-मजदूरों को सारी शक्ति के साथ प्राण-पण से स्वराज्य
के युद्ध में आकृष्ट करने के लिए इनका उनके लिए सन्तोषजनक उत्तर
मिलना आज जरूरी है। किसान-सभा इन्हीं प्रश्नों का मूर्त्त उत्तर है।
मुसलिम लीग की बात दूसरी है। उसे लड़ना नहीं है या तो उसे यथाशक्ति
बाधा डालना है, या अन्त में बिना कुछ किये ही आधा हिस्सा लेना है,
इसीलिए वह अभी से बँटवारा चाहती है। मगर किसानों को लड़ना है और जम के
लड़ना है। उसी लड़ाई को प्राण-पण से चलाने के लिए वह अभी से तय कर लेना
चाहते हैं कि लड़ाई का नतीजा उनके लिए क्या होगा। इस प्रकार दोनों में
बड़ा फर्क है, यह स्पष्ट है। दोनों के दो रास्ते हैं। एक को लड़ना है
और दूसरे को बाधा देना।
यदि उत्तर दें कि कांग्रेस का राज्य होगा तो खयाल होगा कि कांग्रेस
में मालदारों का प्रभुत्व होने के कारण उसका राज्य तो नामान्तर से
उन्हीं मालदारों का होगा। यदि कहा जाय कि किसानों और मजदूरों का
राज्य होगा तो प्रश्न होगा कि क्या कहीं भी यह बात अब तक हो पायी है?
फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैण्ड, रूस, इटली आदि सभी देशों में
आजादी की लड़ाई के लीडर यही कहते थे कि किसान-मजदूरों के हाथ में शासन
होगा। अमेरिका में अंग्रेजी शासन को हटाने के समय ऐसा ही कहा जाता था
जैसा यहाँ कहते हैं। मगर वहाँ मालदारों का ही राज्य हुआ और
किसान-मजदूर दुखिया के दुखिया ही रह गये, सर्वत्र यही हुआ। यहाँ तक
कि रूस में भी यही हुआ और पीछे किसान-मजदूरों को पुनरपि लड़कर ही
शासन-सत्ता उनके हाथ से छीननी पड़ी। शेष देशों में वे विफल ही रहे।
क्यों? कारण हमें ढूँढ़ना होगा और रूस के दृष्टान्त में वह मिलेगा।
अन्य देशों में आजादी के युद्ध के समय किसानों ने राष्ट्रीय नेताओं
की प्रतिज्ञाओं पर विश्वास करके अपनी अलग तैयारी न की, अपना
स्वतन्त्रा संगठन न किया। फलतः अन्त में धोके में रहे, मुँह ताकते रह
गये। विपरीत इसके रूस में लेनिन ने मजदूरों का स्वतन्त्रा संगठन किया
और किसानों का भी। अमेरिका आदि से उसने यही सीखा था। वहाँ इस संगठन
का अभाव होने से ही धोका हुआ था, अतः रूस में उसने इसी अभाव को
मिटाया। यहाँ तक कि किसानों के संगठन में तब तक उसे सफलता न मिल सकने
के कारण उसने वामपक्षी सोशल रेवोल्यूशनरी दल को जो किसान-सभावादी था,
अपने साथ मिलाया और अक्टूबर की क्रान्ति के बाद अपनी सरकार बनाकर इस
दल को भी उस सरकार में स्थान दिया। उसकी सफलता की यही कुंजी थी।
सोशल रेवोल्यूशनरी दल को साथ लेने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि
बोल्शेविक और कम्युनिस्ट पार्टी किसानों की पार्टी नहीं थी, न ही हो
सकती है। जब लेनिन सफल किसान-सभा न बना सका तो आज के कम्युनिस्ट किस
खेत की मूली हैं? हाँ, अधिकार मिलने पर भले ही बना सकते हैं, मगर
उससे पहले नहीं, यह ध्रुव सत्य है।
भारत में भी हमें वही करना है, हम वही करते हैं। किसानों का
स्वतन्त्रा संगठन वही तैयारी है जो लेनिन ने की थी। यदि वह सोवियत के
नेताओं की प्रतिज्ञाओं, प्रस्तावों और घोषणाओं पर विश्वास करके मान
बैठता कि जारशाही के अन्त के बाद किसान-मजदूर-राज्य या किसान-मजदूर
प्रजा-राज्य अवश्यमेव स्थापित हो जायगा, जैसा कि हमारे यहाँ भी कुछ
तथाकथित किसान नेता कहते फिरते हैं, तो वह धोका खाता और पछता के
मरता। राजनीति में किसी भी संस्था की और विशेषतः आजादी के लिए लड़ने
वाली राष्ट्रीय संस्था की महज प्रतिज्ञा, उसके प्रस्ताव या उसकी
घोषणा एवं उसके कुछ प्रगतिशील नेताओं के उदात्त विचारों तथा उद्गारों
पर विश्वास करके बैठे रह जाना सबसे बड़ी नादानी है। ऐन मौके पर या तो
ये सारी प्रतिज्ञाएँ, घोषणाएँ और प्रस्ताव-उद्गार उनके करने वाले ही
स्वयं भूल जाते हैं या उनके न भूलने पर भी उन्हें विवश और असमर्थ बना
दिया जाता है कि वे तदनुसार कुछ भी न कर सकें। परिस्थिति और मालदारों
के षड्यन्त्रा उन्हें बेकार और पंगु बना देते हैं। अमेरिका प्रभृति
देशों के स्वातन्त्रय-संग्राम ने हमें यही पाठ पढ़ाया है। हमें आजादी
लेने के बाद पुनरपि अपने ही मालदार भाइयों और उनके संगी-साथियों से
जमकर प्राण-पण से युद्ध करना ही होगा, खून का दरिया तैर कर पार करना
ही होगा। तभी किसानों का राज्य होगा, उनके हाथ में शासन-सत्ता आयेगी;
न कि महात्मा गांधी या पं. नेहरू के कहने या कांग्रेस के प्रस्ताव
मात्र से ठीक समय पर उस कथन या प्रस्ताव पर अमल कराने के लिए हमारी
अपनी शक्ति चाहिए, तैयारी चाहिए, और यह स्वतन्त्रा किसान-सभा वही
तैयारी है, उसी शक्ति का अभी से संचय है। क्योंकि मौके पर एकाएक
शक्ति नहीं आ सकती। जो पहलवान अखाड़े में लड़ने का अभ्यास पहले से नहीं
करता, वह एकाएक दूसरे पहलवान को पछाड़ नहीं सकता। स्वतन्त्रा
किसान-सभा किसानों के मल्ल युद्ध, अभ्यास और तैयारी का अखाड़ा है।
कांग्रेस की मजबूती भी इसी प्रकार होगी। किसान-सभा के द्वारा किसानों
के हकों के लिए सामूहिक रूप से लड़कर हम किसानों का पूर्ण विश्वास
प्राप्त कर सकेंगे और इस प्रकार उन्हें किसान-सभा में सामूहिक रूप से
आकृष्ट करेंगे। जो वर्ग-संघर्ष कांग्रेस कर नहीं सकती, जिसके करने
में उसे दिक्कत है, जैसा कि कहा जा चुका है, उसे ही हम कांग्रेसजन
किसान-सभा के जरिये करके किसानों के दिल-दिमागों को जीत लेंगे।
क्योंकि भौतिक स्वार्थ की सिद्धि उन्हें हमारे साथ खिंच आने को विवश
करेगी। यही मानव स्वभाव है। फिर विदेशी सरकार से प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष संघर्ष के समय देश के राजनीतिक मामले में हम आसानी से इसी
किसान-सभा के जरिये किसानों को सामूहिक रूप से कांग्रेस के साथी,
भक्त और अनुयायी बना डालेंगे। फलतः संगठित एवं शक्तिशाली किसान-सभा
शक्तिशाली कांग्रेस का मूलाधार है, उसके लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक
है।
जो लोग किसान-सभा के विरुद्ध कमर बाँधे खड़े रहकर भी
कांग्रेस-कांग्रेस चिल्लाते हैं, उन्हें एक बुनियादी बात याद रखनी
होगी। इस ओर हमने पहले इशारा किया भी है। यहाँ जरा उसका विस्तार करना
जरूरी है। किसान-सभाओं को हम असहयोग युग के बाद ही पाते हैं।
किसान-आन्दोलन का संगठित रूप उसके बाद ही मिलता है। क्यों? यह प्रश्न
विचारणीय है। उसके पहले न तो मुल्क में और न किसानों में ही यह
आत्मविश्वास था कि अपने शत्रुओं के विरुद्ध कोई संघर्ष सफलतापूर्वक
चला सकते हैं, और न संगठित जनान्दोलन का महत्त्व ही उन्हें विदित था।
1857 के विफल विद्रोह के बाद लोगों में जो भयंकर पस्ती और निराशा आयी
थी वह दिनोंदिन गहरी होती जाती थी। देश की सबसे बड़ी संस्था थी
कांग्रेस, परन्तु वह भी केवल ‘भिक्षां देहि’ का मन्त्रा जपती थी।
उसकी माँगों के पीछे कोई शक्ति न थी। विदेशी शासन जेठ के मध्याद्द
सूर्य की तरह तपता था। लाल पगड़ी और गोरे चमड़े को देख लोगों के देवता
कूच कर जाते थे। चारों ओर अन्धकार ही था। रौलट कानून और पंजाब के
मार्शल लॉ के बाद शासकों की अकड़ और भी तेज हो चुकी थी। तुर्कों के
अंग-भंग को मुसलमान संसार रोकने में असमर्थ था। हमारी न्यायतम माँगों
पर भी हमारे आका घृणा एवं अपमान की हँसी हँस देते थे और बस। तब तक
हमने यही सीखा था कि अखबारों और सभाओं के द्वारा पढ़े-लिखे शहरी लोग
ही कुछ भी कर सकते हैं। मगर उनसे भी कुछ होता-जाता दीखता न था।
जलियाँवाला बाग के बाद हण्टर कमिटी की लीपा-पोती ने जले पर नमक छिड़क
दिया था। सारा देश किंकर्त्तव्यविमूढ़ था।
ठीक उसी समय महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने नागपुर में
1920 के दिसम्बर में गाँवों की ओर मुँह मोड़ा और शान्तिपूर्ण सीधी
लड़ाई का रास्ता पकड़ा। नेताओं ने कहा कि हम निहत्थे भारतीय चाहें तो
एक साल के भीतर अंग्रेजी सल्तनत को भगाकर अपनी सरकार कायम कर लें। यह
अजीब दावा था, अफीमची की पिनक जैसी बात थी। मगर बार-बार कहने पर देश
ने इसे सुना और सचमुच ही सरकार का आसन डिगा दिया। ब्रिटिश सरकार जैसे
काँप उठी। सम्राट के प्रतिनिधि लार्ड रीडिंग ने 1921 के दिसम्बर में
कलकत्ते में कहा कि ‘‘मेरी अक्ल हैरान है कि यह क्या हो गया”-‘‘I am
puzzled and purplexed''जो देश पस्त था, सदियों से अंटाचित्त पड़ा था
वह एकाएक अँगड़ाई ले के अपने पाँवों पर खड़ा हो गया। उसे अपनी
अन्तर्निहित अपार शक्ति का एक बार प्रत्यक्ष भान हो उठा। यह कांग्रेस
की बड़ी जीत थी कि निहत्थी जनता ने जेलों, जुर्मानों और फाँसी का भय
छोड़ दिया। मुल्क की सुप्त आत्मा जग उठी। जो पहलवान साधारण मर्दों से
भी भयभीत हो उठता था वही सबसे बड़े मल्ल को पछाड़ कर अपने अपार बल का
अनुभव करने लगा।
इसका अनिवार्य परिणाम ऐसा हुआ जिसका किसी को सपने में भी खयाल था
नहीं। जब भारतीय किसानों ने ब्रिटिश सिंह को एक बार धर दबोचा, तो
उन्होंने स्वभावतः सोचा कि ये राजे-महाराजे, जमींदार और साहूकार उसी
के बनाये तथा उसी की छत्रछाया में पलने-पनपने वाले हैं; ये उसके
सामने बिल्ली और चुहिया से भी गये-गुजरे हैं। फिर भी इनकी हिम्मत कि
हमें लूटते रहे? ‘अबलौं नसानी तो अब ना नसैहौं’ के अनुसार उनने सोचा
कि अब तक हम सोये थे और अपनी प्रसुप्त शक्ति को समझते थे नहीं, जिससे
इनने हमें लूटा, सताया। मगर अब ऐसा हर्गिज होने न देंगे। जब इनके आका
को हम निहत्थों ने पछाड़ा तो इनकी क्या हस्ती? बस, उस असहयोग आन्दोलन
की महान् विजय की यही प्रतिक्रिया किसान जनता में हुई जो क्रमशः दृढ़
होती गयी। उसी का फल और व्यावहारिक रूप यह किसान-सभा है। और अगर
हमारे लीडर आज इससे घबराते हैं तो वह बेकार है। यह बात उन्हें पहले
ही सोचनी थी जब किसानों को अंग्रेजी सल्तनत के साथ जूझने को उभाड़ा
था। व्यभिचारिणी स्त्राी पेट में गर्भ होने पर पछताती है सही; लेकिन
यह उसकी मूर्खता है। उसे तो व्यभिचार के ही समय यह परिणाम सोचना था।
बात दरअसल यह होती है कि स्थिर स्वार्थ वाले सम्पत्तिजीवी तब तक
जनान्दोलन से नहीं घबराते जब तक उनके स्वार्थों पर आघात की आशंका न
हो, प्रत्युत स्वार्थ-सिद्धि के लिए जनान्दोलन और क्रान्तिकारी
संघर्षों तक को प्रोत्साहित करके अपना काम निकालते हैं। फ्रांस, रूस
आदि क्रान्तियाँ इसका ज्वलन्त प्रमाण हैं। बिना जनता की सीधी लड़ाई के
मालदारों को पूरे हक नहीं मिलते, ताकि उद्योग-धन्धों का बेतहाशा
प्रसार कर माल बटोरें। इसी से उसको प्रोत्साहन देते हैं। उस समय तो
उन्हें लाभ ही नजर आता है। यही बात 1921 वाले और बाद के कांग्रेसी
संघर्षों में भी हुई। नेताओं ने खुश हो के जनता को ललकारा-उभाड़ा।
उन्हें कोई खतरा तब तो दिखा, नहीं मगर अब जब जनता अपनी शक्ति का
अनुभव करके उनसे भी दो-दो हाथ करने को आमादा हो गयी तो लगे बगले
झाँकने और बहानेबाजियाँ करने। अब उन्हें अपने लिए खतरा नजर आ रहा है।
इसीलिए किसान-सभा को कोसते हैं। उन्हें अपने ही बनाये जनान्दोलन से
भय होने लगा है। मगर अब तो उनकी भी लाचारी है। अब तो तीर छूट चुका।
फिर पछताने से क्या? चीख-पुकार मचाने से क्या? प्रत्युत वे जितना ही
इसका विरोध करेंगे किसान-सभा उतनी ही तेज होगी, यह अटल बात है। हमें
दर्द के साथ यह भी कहना पड़ता है कि लोगों को कांग्रेस से चिपकाये
रखने के लिए वस्तुस्थिति और व्यावहारिकता का आश्रय न लेकर अनुशासन की
तलवार का सहारा लिया जाना ही अच्छा समझा जाने लगा है। यदि कांग्रेस
की भीतरी खूबियाँ, उसके अन्तर्निहित गुण तथा उसकी ऐतिहासिक आवश्यकता
हमें उसकी ओर आकृष्ट नहीं कर सकती हैं, एतन्मूलक उसमें होने वाली यदि
हमारी भक्ति पूरे पचीस साल की उसकी लगातार की कशमकश के बाद भी नाकाफी
है तो अनुशासन की नंगी तलवार उसकी पूर्ति कभी कर नहीं सकती। तब तो
कहना ही होगा कि कांग्रेस के नेता अपना हृदय-मन्थन करें और पता
लगायें कि उनकी तपस्या एवं कांग्रेस के कार्यक्रम में कौन सी बड़ी
खामी है, जिससे यह खतरा बना है कि लोग उससे भड़क जायँ, बिचल जायँ।
असली शक्ति किसी संस्था की भीतरी खूबी और ऐतिहासिक आवश्यकता ही है।
उसी के करते वह शक्तिशाली होती है और यह बात कांग्रेस में मौजूद है।
फिर बात-बात में अन्देशा क्यों? कांग्रेस कोई छुईमुई नहीं है। वह तो
इस्पात की बनी है। किसान-सभा की भी ऐतिहासिक आवश्यकता है, जैसा कह
चुके हैं।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस के सफल असहयोग आन्दोलन तथा संघर्ष का
परिणाम ही यदि किसान-सभा है तो 1922-23 के बाद ही उसकी स्थापना न
होकर 1927-28 या 29 में क्यों हुई? इतनी देर क्यों? बात यह है कि
विचारों के परिपक्व एवं स्थायी बनने में विलम्ब होने के नियमानुसार
ही यहाँ भी देर हुई। प्रतिक्रिया तो हुई, मगर उसे कार्यरूप में परिणत
करने के पूर्व उसमें स्थिरता और परस्पर विचार-विमर्श आवश्यक था, उसे
परिपक्व होना जरूरी था। यह भी बात है कि इन बातों के लिए समय आवश्यक
है। ये एकाएक नहीं होते। इसके अलावा किसान-सभाओं के चलाने को लिए जो
किसानों के हजारों युवक और पढ़े-लिखे लोग जरूरी थे वे भी असहयोग के
करते बाहर आये सही, ऊपर आ गये जरूर। मगर उनका भी पारस्परिक विचार
विनिमय जरूरी था इस काम को चालू करने के लिए। राजनीतिक परिस्थिति का
डाँवाडोल होना, परिवर्तन-अपरिवर्तनवाद वाली उस समय की कलह और
सत्याग्रह जाँच समिति की कार्यवाही आदि बातों के चलते भी काफी गड़बड़
रही और इस काम में देर हुई। फलतः यदि दो-चार साल इसी उधेड़बुन में लग
गये तो यह कोई बड़ी बात न थी। इससे प्रत्युत इस काम में दृढ़ता आयी।
कम-से-कम बिहार में कांग्रेस के सभी नेता प्रारम्भ में इसमें खिंच
आये और उनसे पर्याप्त प्रेरणा भी मिली, यह भी इसका सबूत है कि
किसान-सभा का अविच्छिन्न सम्बन्ध कार्य-कारण के रूप में कांग्रेस के
साथ है, यह कांग्रेस-संघर्ष का स्वाभाविक परिणाम है। अतएव अब उसका
विरोध करना केवल चट्टान से सर टकराना है। अब इसमें बहुत देर हो चुकी
है। और जब गत वर्ष श्री पुरुषोत्तमदास जी टण्डन की अध्यक्षता में
हिन्द-किसान-सभा ने यह स्पष्ट घोषित कर दिया कि स्वातन्त्रय संग्राम
से सम्बन्ध रखने वाली राजनीतिक बातों में साधारणतः किसान-सभा का
प्रत्येक सदस्य कांग्रेस से ही प्रेरणा और नेतृत्व प्राप्त करेगा, तो
फिर हाय-तोबा मचाने की वजह क्या रही?
एक ही बात जो निहायत जरूरी है, रह जाती है। बड़े-बड़े नेता तक कह डालते
हैं कि जभी कांग्रेसी-मन्त्रिमण्डल बनते हैं तभी बकाश्त के संघर्ष
छेड़ कर ये किसान-सभावादी सिर्फ उन्हें परेशान करते हैं। ये संघर्ष इन
मन्त्रिमण्डलों के अभाव में नहीं होते। इससे इस सभा की बदनीयती
सिद्ध होती है। इसीलिए इसे रहने देना कांग्रेस के रास्ते के रोड़े को
कायम रखना है।
मगर यह बात गलत है। बिहार में ही ये बकाश्त संघर्ष ज्यादातर होते हैं
और हुए हैं और वहाँ इनका श्रीगणेश मुंगेर जिले के बड़हिया टाल में
1936 में ही हुआ था जब इन मन्त्रियों का पता भी न था, जब असेम्बली
के चुनाव हुए भी न थे। चुनाव के बाद कांग्रेसी मन्त्री न होकर जब
दूसरे ही लोग मन्त्री के रूप में कुछ महीने गद्दी पर थे, उस समय यह
संघर्ष काफी तेज था। किसान-स्त्री-पुरुषों और सेवकों पर घुड़सवारों ने
घोड़े दौड़ाये थे उसी समय। यह एक ठोस ऐतिहासिक बात है, जिससे इनकार
किया जा नहीं सकता। इसी प्रकार 1941 में और 1942 के शुरू में डुमराव
में जो बियाईं का संघर्ष किसान-सभा के नेतृत्व में चला और जंगल
सत्याग्रह चलता रहा, वह भी कांग्रेसी मन्त्रियों के अभाव में ही था।
फिर सरासर झूठी बात क्यों कही जाती है?
यह ठीक है कि कांग्रेसी मन्त्रियों के समय में ये संघर्ष अधिक होते
हैं और यह उचित भी है। जब इन मन्त्रियों को चुनकर किसान ही गद्दी पर
बिठाते हैं तो इन्हें अपना समझ किसानों का हौसला बढ़ना स्वाभाविक है
और इसी के फलस्वरूप ये संघर्ष होते हैं। किसान समझते हैं कि हमारे
बनाये मन्त्री इन मामलों में हमारी सहायता करेंगे। नौकरशाही सरकार से
उन्हें यह आशा तो होती नहीं, इसी से उस समय ये संघर्ष कठिन हो जाते
हैं और कम होते हैं। और जब जनप्रिय सरकार बनी तो जनता को स्वभावतः
आजादी ज्यादा होती ही है। वह अपने हाथ-पाँव जरा फैला पाती है, फैलाने
की कोशिश करती है। उसकी छाती की चट्टान जरा हटी सी मालूम पड़ती है,
उसकी हथकड़ी-बेड़ियाँ जरा ढीली और टूटी सी लगती हैं। फिर हाथ-पाँव
फैलाये क्यों न? और ये संघर्ष उसी फैलाने के मूर्त्त-रूप हैं, फिर
इन्हें देख गुस्सा क्यों? इनके लिए उलाहना और इलजाम क्यों? ये
कांग्रेसी मन्त्रियों को परेशान करने के सुबूत न होकर उलटे कांग्रेस
में और उसके मन्त्रियों में जनता के अपार विश्वास के ही सुबूत हैं।
अन्त में हमें कहना है कि कांग्रेस की असली ताकत न तो उसके अनुशासन
की तलवार है, न उसकी कमिटियाँ और न उसके चवनियाँ मेम्बर, प्रतिनिधि
आदि। उसकी असली शक्ति अपार जनसमूह की उसमें अटूट भक्ति है-उस भारतीय
जनसमूह की भक्ति, जो चवनियाँ मेम्बर तक नहीं है, मगर जो उसे चुनाव
में जिताता और संघर्ष में विजयी बनाता है। अच्छा हो कि कांग्रेस के
कर्णधार यह न हो, वह न हो, किसान-सभा न बने, मजदूर यूनियन न बने और
अगर बने तो कांग्रेस की मातहती में, आदि फिजूल बातें छोड़ उस अपार
जनता के कष्टों को समझें और उन्हें दूर करने में कोर-कसर न रखें। फिर
देखेंगे कि कांग्रेस अजेय है और ऐसा न होने पर वह दुर्ग ढह जायगा, यह
कटु सत्य है।
-स्वामी सहजानन्द सरस्वती
विहटा, पटना
वसन्त पंचमी 27-1-47
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