आओ साधने ! आओ
साधने ! आओ। मैं तुम्हारे लिए टकटकी लगाये और आँखों की पलकें बिछाये
बेचैन, बेकरार हूँ। तुम आओ, मुझे सान्त्वना दो, मैं जानता हूँ, तुम
साधक के ही पास जाती हो, उसकी साथिनी बनना चाहती हो। और मैं? मैं तो
साधक ही हूँ! मैंने निश्चय कर लिया है, प्रण कर लिया है, संकल्प कर
लिया है कि साध्य को प्राप्त करके ही दम लूँगा। मुझे यह भी पता है कि
साधने, बिना तुम्हारा आश्रय लिये, बिना तुम्हें अपनाये, साध्य की
सिद्धि, उसकी प्राप्ति असम्भव है। इसीलिए मैंने तुम्हारे लिए ही
सर्वप्रथम अलख लगाना शुरू कर दिया है। तो क्या अब भी न आओगी ?
मुझे मालूम है, तुम अनन्य भाव, अनन्य भक्ति, अनन्य भावना चाहती हो।
उसी की भूखी हो। तुम ऐसों की ओर घृणा की दृष्टि से देखती हो,
तिरस्कार पूर्ण पलकें उठाती हो, जो दुभाषिये हैं, जिनका मन कभी
तुम्हारी ओर जाता है तो कभी दूसरी ओर, जो कभी राम-राम कहते हैं तो
कभी खुदा-खुदा। जिनके लिए तुम स्वाती की बूँद हो और जो पपीहे की तरह
दिन-रात तुम्हारे लिए पी-पी की रट लगाते रहते हैं, जो मूसलधार और
दूसरी रिमझिम बूँदों की ओर ताकते तक नहीं, मैं तो वही अनन्य भक्त
हूँ। विश्वास करना। इसका पता परीक्षा के समय लगेगा कि मैं कौन हूँ-
‘‘हकीकत साफ खुल जायगी वक्ते इम्तहाँ मेरी।’’
मुझे पता है, तुम
‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां
जागर्ति संयमी’ की तलाश में
रहती हो, जो मस्ताना है, तुम्हारे पीछे पागल है, जो
‘मैं रात में जग कर रोता हूँ
जब सारा आलम सोता है’ वाला है
और तुम्हारे पीछे बेहाल फिरता है, आँसुओं की धारा बहाता है, जो सब
कुछ भूल जाता है, तुम उसी को याद करती हो, उसी के पास पहुँचती हो।
जिसे थकान का पता ही नहीं, जो पस्ती को पछाड़े बैठा है और दम मारने को
रवादार नहीं, निराशा जिसके पास फटकने की हिम्मत नहीं रखती और जिसे
अपने आप में, अपने साध्य में अधिक विश्वास है, तुम उसी के चरण चूमती
हो। और मैं ! मैं वह हूँ ! और, इसका पता तुमको लगेगा। मेरी और
तुम्हारी होड़ है, कहे देता हूँ। याद रखना, तुम्हें पछाड़ना है और जरूर
पछाड़ना है। मैंने खम ठोंकी है और तुम्हें साथिनी बनाने के अलावा कोई
चारा नहीं है। इसी से कहता हूँ कि आओ साधने ! आओ।
यों
लिखा गया ‘गीता हृदय’
गीता हृदय तो जेल से निकलने के ठीक पूर्व जैसे लिखा जा सका। जानें
मेरे दिल में रिहाई के दो मास पूर्व क्यों यह बात जम गयी कि गीता
हृदय पूरा करो नहीं तो रिहाई होने ही वाली है और फिर वह पड़ा ही रह
जायगा। बस, मैंने उसमें हाथ लगा दिया। सचमुच मेल की गति की बात ही
क्या, मैं स्पेशल ट्रेन की चाल से चलता रहा तब कहीं यह लम्बी पुस्तक
पूरी हो सकी। लिखित कॉपी (हस्तलिपि) पर रोज-रोज की तारीखें नोट हैं
कि किस दिन कितना लिखा। फिर भी इसका आशय यह नहीं है कि ऊलजलूल बातें
लिख मारीं। ऐसा नहीं हुआ। जो कुछ लिखा गया वह खूब समझ-बूझ के, इतने
पर भी दोई भाग पूरे हुए। तीसरा लिखा न जा सका। उसके लिए कुछ खास
छानबीन और अन्वेषण जरूरी था और वैसी पुस्तकें जेल में मिल न सकती
थीं। मेरा अपना विचार है कि गीता हृदय में लिखी बातें अपने ढंग की
निराली हैं। उनमें अधिकांश विचार के परिपाक के परिणाम हैं। कुछ तो
लिखते-लिखते अकस्मात् सूझीं और मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्हें
लिपिबद्ध करने में मुझे अपार आनन्द हुआ।
मेरा भगवान
कहते हैं कि वह (ईश्वर) सब काम पलक मारते कर देता है और जिस बात को
नहीं चाहता उसे कदापि नहीं होने देता। लेकिन दूसरों का काम सँभालने
और भक्तों का हुक्म बजाने से पहले वह अपना काम तो सँभाले। तभी हम
मानेंगे कि वह बड़ा शक्तिमान् या सब कुछ कर सकने वाला है - सब कुछ
करता है। एक दिन किसान के घी से भगवान् के मन्दिर में दीप मत जलाइये
और भगवान् से कह दीजिये कि आपकी सामर्थ्य की परीक्षा आज ही है।
देखें, आपके घर में - मन्दिर में - मस्जिद में - अँधेरा ही रहता है
या उजाला भी होता है। रात भर देखते रहिये। मन्दिर का फाटक बन्द करके
छोटे से सूराख से रह-रहकर देखिये कि कब चिराग जलता है ! आप देखेंगे
कि जलेगा ही नहीं, रात भर अँधेरा ही रहेगा !
इसी प्रकार एक दिन न घण्टी बजे, न आरती हो और न भोग लगे ! किसान के
गेहूँ, दूध और उसके पैसे से खरीदी घण्टी, आचमनी आदि हटा लीजिये। फिर
देखिये कि दिन-रात ठाकुरजी भूखे रहते और प्यासे मरते हैं या उन्हें
भोजन उनकी लक्ष्मीजी पहुँचाती हैं, दिन-रात मन्दिर सुनसान ही और
मातमी शक्ल बनाये रह जाता है या कभी घण्टी
वगैरा भी बजती है ! पता लगेगा कि सब मामला सूना ही रहा और ठाकुरजी या
महादेव बाबा को
‘सोलहों दण्ड एकादशी’ करनी पड़ी
! एक बूँद जल तक नदारद-आरती, चन्दन, फूल आदि का तो कहना ही क्या !
सभी गायब ! वे बेचारे जाने किस बला में पड़ गये कि यह फाकामस्ती करनी
पड़ी।
और ये मन्दिर बनते भी हैं किसके पैसे और किसके परिश्रम से? जब मन्दिर
का कोना टूट जाय, तो ललकार दीजिये ठेठ भगवान् को ही जरा खुद-ब-खुद
मरम्मत तो करवा लें। नये मन्दिर बनाने की तो बात ही दूर रही ! वह
कोना तब तक टूटा का टूटा ही रहेगा जब तक किसान का पैसा और मजदूर का
हाथ उसमें न लगे ! यदि कोई मन्दिर भूकम्प से या यों ही अकस्मात् गिर
गया हो और भगवान् उसी के नीचे दब गये हों तो उनसे कह दीजिये कि बाहर
निकल आयें अगर शक्तिमान् हैं ! पता लगेगा कि जब तक गरीब लोग हाथ न
लगायें, तब तक भगवान् उसी के नीचे दबे कराहते रहेंगे। चाहे मरम्मत हो
या नये-नये मन्दिर बनें - सभी केवल मेहनत करने वालों के ही पैसे या
परिश्रम से तैयार होते हैं।
आगे बढ़िये ! गंगा को तीर्थ, मन्दिर को मन्दिर, जगन्नाथ धाम को धाम
किसने बनाया है? किसके चरणों की धूल की यह महिमा है कि तीर्थों,
मन्दिरों और धामों का महत्त्व हो गया? किसने गोबर को गणेश और पत्थर
को विष्णु या शिव बना डाला? क्या अमीरों और पूँजीपतियों ने?
सत्ताधारियों ने? यदि नंगे पाँव और धूल लिपटे किसान-मजदूर गंगा में
स्नान न करें, उन्हें गंगा माई न मानें, मन्दिरों में न जायँ,
जगन्नाथ और रामेश्वर धाम न जायँ तो क्या सिर्फ मालदारों के नहाने,
दर्शन करने या तीर्थ-यात्रा से गंगा आदि तीर्थों, मन्दिरों और धामों
का महत्त्व रह सकता है? उनका काम चल सकता है? गरीबों ने यदि बहिष्कार
कर दिया तो यह ध्रुव सत्य है कि राजों-महाराजों और सत्ताधारियों की
लाख कोशिश करने पर भी गंगा और तलैया में कोई अन्तर न रह जायगा,
मन्दिर और दूसरे मकान में फर्क न होगा और धामों या तीर्थों की महत्ता
खत्म हो जायगी। उन लोगों के दान-पुण्य से ही मन्दिरों और धामों का
काम और खर्च भी नहीं चल सकता यदि गरीबों के पैसे-धेले न मिलें। जल्द
ही दिवाला बोल जायगा और पण्डे-पुजारी मन्दिरों, तीर्थों और धामों को
छोड़कर भाग जायँगे !
यह तो करोड़ों गरीबों के नंगे पाँवों में लगी धूल-चरण रज-की ही महिमा
है, यह उसी का प्रताप है कि वह जब गंगा में पहुँचकर धुल जाती है तो
वह गंगा माई कहाती है; जब मन्दिरों में वही धूल पहुँच जाती है तो
वहाँ भगवान् का वास हो जाता है, पत्थर को भगवान् व गोबर को गणेश कहने
लगते हैं; जब वही धूल जगन्नाथ और रामेश्वर के मन्दिरों में जा
पहुँचती है तो उनकी सत्ता कायम रहती है और उनकी महिमा अपरम्पार हो
जाती है। गरीबों के तो जूते भी नहीं होते। इसीलिए तो उनके पाँवों की
धूल ही वहाँ पहुँच कर सबों को महान् बनाती है।
कहते हैं कि महादेव बाबा खुद तो दरिद्र
और नंगे-धड़ंगे श्मशान में पड़े रहते हैं, मगर भक्तों को सब सम्पदायें
देते हैं - उन्हें बड़ा बनाते हैं ! पता नहीं, बात क्या है? किसी ने
आँखों से देखा नहीं। मगर ये किसान और कमाने वाले तो साफ ही ऐसे
‘महादेव बाबा’
हैं कि स्वयं दिवालिये होते हुए भी, ईश्वर तक को ईश्वर बनाते और
खिलाते-पिलाते हैं !
ईश्वर सबको खिलाता-पिलाता है, ऐसा माना जाता है - सही। मगर किसने उसे
हल चलाते, गेहूँ, बासमती उपजाते, गाय-भैंस पाल कर दूध-घी पैदा करते,
हलुवा-मलाई बनाते तथा किसी को भी खिलाते देखा है? लेकिन किसान तो
बराबर यही काम करता है। वह तो हमेशा ही दुनिया को खिलाता-पिलाता है !
इतना ही नहीं। कहते हैं कि ईश्वर तो केवल भक्तों को खिलाता और
पापियों को भूखों मारता है। वह अपनों को ही खिलाता है। इसिलए वह एक
प्रकार की तरफदारी करता है। मगर किसान की तो उल्टी बात है ! वह तो
जालिमों और सतानेवाले जमींदारों, साहूकारों और सत्ताधारियों को ही
हलुवा-मलाई खिलाता है और खुद बाल-बच्चों के साथ या तो भूखा रहता है
या आधा पेट सत्तू अथवा सूखी रोटी खाकर गुजर करता है ! ऐसी दशा में
असली भगवान् तो यह किसान ही हैं !
दुनिया माने या न माने। मगर मेरा तो भगवान् वही है और मैं उसका
पुजारी हूँ। खेद है, मैं अपने भगवान् को अभी तक हलुवा और मलाई का भोग
न लगा सका, रेशम और मखमल न पहना सका, सुन्दर सजे-सजाये मन्दिर में
पधरा न सका, मोटर पर चढ़ा न सका, सुन्दर गाने-बजाने के द्वारा रिझा न
सका और पालने पर झुला न सका। मगर उसी कोशिश में दिन-रात लगा हूँ -
इसी विश्वास और अटल धारणा के साथ कि एक-न-एन दिन यह करके ही दम
लूँगा; सो भी जल्द !
नग्न चित्र
साथियो,
आज मैं भारत के उन करोड़ों नर-नारियों-किसानों के प्रति श्रद्धा-भक्ति
प्रकट करने के लिए यहाँ खड़ा हूँ जिन्होंने अपने निःस्वार्थ त्याग से
- उन्हीं के लिए त्याग जिन्होंने उनका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
तरीके पर शोषण किया है और कर रहे हैं, और उनका सारा खून चूस चुके हैं
- मुझे और मेरे जैसे हजारों को अपना पुजारी बना लिया है। किसान न
सिर्फ मानव व्यवहार की उन्हीं आवश्यक वस्तुओं के उपजाने वाले हैं
जिनके अभाव में जीवन नष्ट हो जाता है, दिमाग काम नहीं करता और कोई भी
अंग हिल नहीं सकता, बल्कि आधारभूत कच्चे माल के भी जो तैयार माल के
रूप में बदल कर जीवनयापन को आसान और सुखद बना देते हैं,
जिनके चलते
हमारे विचार विस्तृत और परिष्कृत होते हैं, प्रगतिशील बनते हैं, और
जिनने दुनिया को भूत और वर्तमान रूप दिया है। अपने पुत्र-पुत्रियों
के द्वारा वे फैक्टरियों और खानों को चालू रखते, ऑफिस चलाते, और
वर्तमान शासन-व्यवस्था की रक्षा के लिए-इसके दुश्मनों को डराकर और
जरूरत पड़ने पर हराकर भी-उन्हीं पुत्र-पुत्रियों को फौजी गोली का
शिकार बनाते हैं। ये वही हैं जो अपने खून को पसीना बना कर
शासन-व्यवस्था के कामों और उन्हीं के आराम के लिए जो उन्हें अत्यन्त
निर्दयतापूर्वक पैरों तले रौंदते हैं। राजमहल, किले और गृह-निर्माण
करते हैं। अपार धनराशि और साधनों के होते हुए भी यदि आज किसान उन
बाबुओं से असहयोग कर लें, उन्हें चावल, गेहूँ, चना, तरकारी, दूध और
उससे बने सामान देना बन्द कर दें, तो वे एक भी प्रथम क्यों द्वितीय
श्रेणी के भी, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री अथवा शासक, जिनका उन्हें
गर्व है, पैदा कर नहीं सकते।
उपर्युक्त बातों से मोटी अक्लवालों के लिए भी यह साफ है कि सिर्फ एक
ही श्रेणी के लोग-किसान ही हैं जिनके अनन्त स्वार्थ-त्याग से ही यह
दुनियाँ टिकी हुई है। सचमुच यह बड़े दुःख की बात है कि जबकि वे किसान
अपने वार्षिक घरेलू बजट में दूसरे सबों के लिए पूरी ताकीद और गुंजाइश
रखते हैं - देवी और देवता, साधु और फकीर, भिखमंगे और नेता, पुलिस और
मजिस्ट्रेट, शासक और शोषक, उपदेशक और गुरू और यहाँ तक कि मृतात्माओं
के लिए भी, कोई किंचित् मात्र भी उनके लिए परवाह नहीं करता और न उनके
सम्बन्ध में कुछ क्षण सोचने-विचारने का कष्ट ही उठाता है। नहीं तो,
यह पूरा-का-पूरा किसान वर्ग क्यों अधपेटा खाकर अधनंगा रहता है? वे
दूसरों को खाना, पहनना देते हैं तो क्या यह दूसरों के लिए न्याय और
उचित है कि उनके लिए कुछ न करें? क्या किसानों का जो {ण उन पर लदा
है, उसे वे नहीं चुका सकते अथवा उन्हें नहीं चुकाना चाहिए? इस विषय
में क्या वे सचमुच ही असमर्थ हैं? जबकि जमींदार और पैसेवालों के
कुत्ते, बिल्ली, चूहे, शेर आदि किसानों की गाढ़ी कमाई पर गुलछर्रे
उड़ाते हैं, क्या किसान इन जानवरों के व्यवहार में आने वाले अच्छे
खान-पान और वस्त्र का एक भाग भी पाने के हकदार नहीं? क्या वे
जमींदारों, राजाओं, महाराजाओं और अफसरों द्वारा प्यारभरी बातें सुनने
के भी अधिकारी नहीं? क्या किसान जानवरों से भी कम उपयोगी और
गये-गुजरे हैं? धनिकों के कुत्ते पहले दर्जे में सफर करते हैं और
सोने के प्याले में दूध पीते हैं किन्तु किसानों, उनके
बच्चे-बच्चियों को तीसरे दर्जे में भी सफर करने का साधन नहीं !
उन्हें रोटी के टुकड़े के भी लाले पड़े हैं जबकि जमींदारों के कुत्ते
अच्छी-से-अच्छी मोटरगाड़ी में उनकी गोद में बैठते हैं, किसान उन तक
फटक भी नहीं पाते, उन्हें बैलगाड़ी तक नसीब नहीं यह बात किसी की
बुद्धि में नहीं अँटती और इससे दिल के टुकड़े हो जाते हैं। इसे लोग
दुर्भाग्य कहते हैं किन्तु यह एकमात्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
अन्धेरखाता है।
चाहे जैसे हो, इसे तो बन्द करना ही होगा और यह जितना शीघ्र बन्द हो
जाय, उतना ही अच्छा। और जब तक हम लोग, जो जन-सेवा के ठेकेदार होने का
दम भरते हैं, बिना किसी हिचकिचाहट के इसकी पूरी कीमत चुकाने को तैयार
न होंगे, इस अव्यवस्था, अन्धेरखाता तथा समूचे गोलमाल का अन्त होने की
कोई आशा नहीं। इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए हमें ऐसे स्वार्थहीन
किसान सेवकों की जरूरत है जो अपने जीवन को किसानों की सेवा में
उत्सर्ग किये हों, गाँवों में धूनी रमाने के लिए व्याकुल हों और बिना
किसी पारितोषिक के, लोभ के अपनी सारी शक्ति, चातुरी और अक्ल इस महान्
कार्य में लगा देने वाले हों। सारांश हम हजारों किसान पुजारी चाहते
हैं।
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