(8)
महाकाल का दर्शन
आखिर चलते-चलाते और रास्ते में अनेक कष्ट भोगते, क्योंकि खाने-पीने में
प्राय: कष्ट होता था, हम हिन्दुओं के द्वादशज्योतिर्लिगों में गिने जाने
वाले बाबा महा कालेश्वर की पुरी उज्जैन में पहुँचे। जाड़ों के ही दिन थे।
रास्ते में कई महीने से हमारे सिर के बाल नहीं बने थे। साथ ही, धूल पड़ने से
सिर की अजीब दशा थी। हमें जरूरत थी कि कोई चतुर हजाम हमारा सिरमुण्डन करे
और हमें शान्ति दे। एक बूढ़ा नाई मिल ही तो गया। सिर पर पतली-सी पगड़ी बाँधो
हुए। उसकी बात हमें भूलती नहीं। वैसा चतुर और कारीगर नाई हमें तो फिर नहीं
मिला। पतले से छुरे से बात की बात में धूल मिट्टी से लदे हमारे सिर को उसने
साफ कर दिया। छुरा भी उतना ही तेज और अच्छा था। सिर पर एक किनारे से दूसरे
तक सर्रसर्र चलता था जैसे कोई बेफिक्र घास गढ़ता हो। हमने हजाम को भर पेट
धन्यवाद दिया।
उज्जैन में क्षिप्रा नदी हैं जिसे सिप्रा भी कहते हैं। वह राजा भोज की पुरी
भी मानी जाती हैं। हमने पुराने गढ़ आदि देखे। बाबा महाकालेश्वर शिव का दर्शन
किया। वे बहुत ही छोटे-से मन्दिर में उस समय थे। सिप्रा में स्नान करते,
दर्शन करते और जूना महाकाल के मन्दिर में रात में ठहरते थे। कहते हैं कि
महाकाल दो हैं। आजकल नये महाकाल की ही प्रतिष्ठा और पूजा हैं। जूने
(पुराने) महाकाल को अब लोगों ने छोड़-सा दिया हैं। उन्हीं के मन्दिर में हम
रहते थे। मन्दिर सादे पत्थरों का था। बहुत पुराना नहीं मालूम होता था।
हालाँकि जूना कहे जाने से तो उसे पुराना ही होना चाहिए था। हमें ठीक-ठीक
स्मरण नहीं कि कितने दिन वहाँ ठहरे। लेकिन शायद पन्द्रह दिन या ज्यादा ठहरे
होंगे। फिर हम ऊब गये और आगे प्रस्थान करने की हमने सोची।
अब मथुरा पहुँचने का हमारा विचार हुआ और इसी दृष्टि से उज्जैन से निकल पड़े।
आगे एक विचित्र घटना हुई। शाम के समय शायद उसी दिन या दूसरे दिन एक शहर में
पहुँचे। खा-पी चुके थे ही और चौबीस घण्टों में एक ही बार खाते थे। इसीलिए
शहर के भीतर न जाकर बाहर ही एक मन्दिर पर ठहरे। वहाँ एक पत्थरों की बनी
गुफा थी। सोचा इसी में कुछ समय ठहरेंगे। शहर में भिक्षा एक बार करेंगे और
यहीं अभ्यास करेंगे एकान्त में। पास में ही कुछ हटकर एक लम्बे तालाब के तट
पर हमने राख की ढेरें देखीं। पूछने से पता चला कि जैनी लोग अपने मुर्दों को
यों ही लकड़ी और उपलों के बीच में रख के जलाते और वहीं छोड़ देते हैं। राख को
कहीं और नदी-नाले में नहीं बहाते।
अस्तु, दूसरे दिन खाने के समय जब हम शहर में गये तो अजीब बात हुई। चारों ओर
जैनी लोग ही नजर आये। ब्राह्मण या हिन्दू कहीं एकाध दीखे, सो भी गरीब। फलत:
हमें किसी ने भी खाने को न पूछा। हमारे सब मनोरथों पर पानी फिर गया। लाचार
हम वहाँ से रवाना हो गये और पक्की सड़क पकड़ कर पूर्व ओर बढ़े। तीसरे पहर एक
और गाँव में हमने कुछ खाने की कोशिश की। मगर असफल रहे। फिर तो हमने उस दिन
और यत्न करना छोड़ ही दिया।
(शीर्ष पर वापस)
(9) वह भोजन
शाम होते-होते एक गाँव में पहुँचे और जैसा कि उधर का कायदा हैं, किसी के
दरवाजे पर न ठहर कर गाँव के बीच में बनी मिट्टी की धर्मशाले में जा ठहरे।
नहीं खाने-पीने से कुछ मनहूसी तो थी ही। इतने में एक ने आके पूछा कि आप लोग
कौन हैं। हमने बताया। उससे पूछने पर उसने अपने आपको ब्राह्मण बताया। फिर
चला गया। हम भी सब आशा छोड़ सोने की कोशिश में मुँह ढँके पड़े थे। रात के
नौ-दस बजे होंगे। अचानक उसने आके हमें जगाया और कहा कि चलिए भोजन कीजिए। उस
समय की हम अपनी मनोवृत्ति का क्या वर्णन करें। हमने समझा कि यह भगवान हैं
या कौन हैं। खैर, हम दोनों उसके घर गये। पहले तो गर्म पानी से उसने हम
दोनों के पाँव धोये। इस प्रकार जाड़े के रास्ते की थकावट हटाई। फिर खाना
परोसा। उसकी पत्नी ज्वार की पतली-पतली रोटियाँ बनाती जाती थी और गर्मागर्म
रोटियाँ हमें वह ब्राह्मण देता जाता था। कुछ गुड़, कोई साग और कुछ ऐसी ही
चीजें थीं जिनका उन रोटियों से मेल मिलता था। हमने खूब खाया-बहुत ज्यादा
खाया। वह रोटियाँ इतनी मीठी लगीं कि अब तक भूलीं नहीं। एक तो भूख थी दूसरे
उसकी अपार श्रद्धा थी। तीसरे उधर ज्वार ही ज्यादा होती हैं और वे लोग उसकी
रोटियाँ बनाना जानते हैं। इन तीनों के करते उसमें मिठास बेहद था। भोजन के
बाद हमने हृदय खोल के उस गरीब ब्राह्मण को आशीर्वाद दिया। जिन्दगी में वह
एक ही घटना थी और आशीर्वाद भी फिर हमने कभी किसी को उस प्रकार दिया ही
नहीं। सिवाय एक और के जो आगे मिलेगा। फिर रात में धर्मशाले में सोये और
सुबह चुपचाप रवाना हो गये।
(शीर्ष पर वापस)
(10)
गुरुडम की माया
हम एक बात कहना भूल गये। असल में समय का नोट हमारे पास नहीं होने से यह बात
हो गयी। उज्जैन आने के पहले हम मध्यभारत की एक छोटी-सी रियासत राजकोट में
पहुँचे। राजकोट कई होने के कारण उसके पास के ब्यावरा नामक स्थान को मिलाकर
उसे राजकोट ब्यावरा कहते हैं। ब्यावरा में हमने एक वैष्णव मठ में देखा कि
एक साधु दिन में कभी भूमि पर बैठता या लेटता न था-बराबर खड़ा ही रहता था।
कहते थे कि बारह वर्ष तक ऐसा ही रखने का उसने संकल्प किया हैं। रात में
सोने के समय एक ऊँचे चबूतरे पर सिर रख के गर्दन झुका देता और उसे हाथ से
पकड़ के कुछ सो लेता। उसके घुटनों के नीचे स्थान-स्थान पर जख्म हो गये थे
जिनसे पानी जैसा निकला करता था। वह स्थान फूले से थे। नश्तर के जरिये वह
स्वयं उन भागों से खून या पानी निकलवाया करता था। उसके द्वारा प्रकृति
पुकारती थी कि बैठो, सोओ। मगर उसका हठ था कि नहीं। सुनते हैं, बारह वर्ष तक
बराबर खड़े रहने वाले वैरागी साधु (ठड़ेसरी) कहे जाते और किसी महन्त के मठ
में अधिकारी होने के हकदार हो जाते हैं। इस तपस्या से मुक्ति तो निकट होई
जाती हैं। कैसी मूर्खता और अन्धभक्ति हैं। धर्म के नाम पर क्या नहीं हो
सकता हैं।
जब हम राजकोट पहुँचे तो दैवात भोजन का समय होने से राजा के दीवान के घर जा
पहुँचे। एक कायस्थ महाशय उनके दीवान थे। हमारे भोजनादि का प्रबन्ध उनने
किया। उसके बाद कुछ धर्मचर्चा चली। उन्होंने हमसे पूछा कि गीता जानते हैं?
हमारा उत्तर था कि वह तो हमारी खास चीज हैं। बस, अब क्या था, उन्होंने हमें
बड़े प्रेम से रोका और कहा कि राज दरबार में गीता के एक श्लोक को लेकर
परेशानी हैं। उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि की कई टीकाएँ हैं। मगर राजा साहब
को उनसे सन्तोष नहीं हो रहा हैं। काम रुका-सा हैं। मैं जाकर खबर देता हूँ।
फिर आप लोग वहाँ बुलाये जायेगे। इतना कह के वे चले गये। पीछे हमारी बुलाहट
दरबार में हुई। हम गये और बहुत आदर के साथ बैठाये गये। गीता
के-''कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स
युक्त: कृत्स्नकर्मकृत'' (4। 18) श्लोक पर ही वहाँ झमेला था। हम लोगों ने
फौरन उसे सुलझा दिया और देर तक व्याख्या करके सभी को सन्तुष्ट किया। फिर तो
हमारी बड़ी प्रतिष्ठा हुई। दीवान जी को राजा साहब ने कहा कि महात्मा लोगों
को आराम से यहाँ रखिये कुछ दिनों तक जरूर।
वहाँ से दीवान साहब के घर आये। वहाँ पर उनकी बूढ़ी माँ ने हठ किया कि मैं
अभी तक गुरुमुख नहीं हुई हूँ। मुझे मन्त्र दे दीजिये। घर के और लोग भी
चाहते थे। धीरे-धीरे वह बाजार बढ़ता जैसे कि लक्षण थे। हम बुरी तरह घबराये
और सोचा कि कहाँ आ फँसे। ख्याल आया कि अब तो राजधनी के बहुत लोगों के साथ
और राजा के साथ भी फँस के यहीं रह जाना पड़ेगा। फलत: 'आये थे हरिभजन को, ओटन
लगे कपास' चरितार्थ होगा। दो-बार दिन तक हमने टालमटूल किया कि अब मन्त्र
देंगे, तब मन्त्र देंगे। फिर एक दिन तड़के वहाँ से चुपचाप भाग निकले। इस
प्रकार उस महाजाल से बचे।
उस दिन वहाँ से चल के कुछ दूर पर जालखेड़ी या कुछ ऐसे ही नाम के गाँव में जा
पहुँचे। वहाँ एक वैश्य सज्जन वेदान्त के सत्संगी थे। वह राजकोट से भी
सम्बन्ध रखते थे। वहीं पर कुछ दिन ठहर गये। वहीं जाड़े की अधिकता के कारण
चाय पीने की परिपाटी मालूम हुई। हमें भी कुछ कह-सुन के एक-दो बार चाय पिलाई
गयी। जीवन में यह चाय पीने का दूसरा अवसर था। आखिर जब हमारी पेशाब में
सुर्खी नजर आने लगी तो सभी घबराये तब कहीं हमें चाय से फुर्सत मिली। फिर तो
सुर्खी जाती रही, और हमने सदा के लिए चाय महारानी से असहयोग कर लिया।
हमने उधर यह भी देखा कि लालमिर्च लोग बहुत ही खाते हैं। एक आदमी के खाने
में उसकी मात्रा एक छटाँक तो होती ही हैं। हम भी अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही
मिर्चा खा जाते थे। फलत: पाखाने के समय गुदामार्ग में एक प्रकार की जलन सी
होती थी। हर चीज में वह पड़ती थी ही और कोशिश करने पर भी उससे बचना असम्भव
हो जाता था।
(शीर्ष पर वापस)
(11)
मथुरा की तरफ
हाँ, तो उस गरीब ब्राह्मण के घर रात में ज्वार की रोटी का सबसे मीठा भोजन
करके हम लोग अगले दिन आगे बढ़े। कुछ दूर चलने के बाद किसी रेल्वे स्टेशन पर
एक सज्जन ने ट्रेन में बिठा दिया जिससे हम लोग मथुरा चले आये। ब्रज में
घूम-घामकर हाथरस के रास्ते गंगा तट पहुँच हरद्वार जाने का निश्चय किया।
वहाँ से हृषीकेश होते बदरीनारायण के दर्शनों का विचार था। हाथरस में हमें
पहली बार ऐसा गहरा कुआँ मिला जिसमें साठ हाथ से कम गहराई में पानी न था।
हमारी लम्बी रस्सी खत्म हो गयी! फिर भी हमारा कमण्डलु (जलपात्रा, जो दरियाई
नारियल का होता हैं) पानी तक पहुँच न सका। हमें पास के कपड़े जोड़ कर किसी
प्रकार पानी निकालना पड़ा। यह भी एक अनुभव था कि इतनी गहराई से पानी निकलता
हैं। बम्बई के पास टापुओं में सिंघाड़े की तरह की एक चीज पानी में होती हैं।
फर्क यही हैं कि उसके फल बहुत ही लम्बे होते और दो-दो एक में जुटे होते
हैं। वही दरियाई नारियल हैं। वह बड़ा ही सख्त होता हैं, ऐसा कि काटना
मुश्किल हैं। वजनी भी होता हैं और पानी रहने पर सड़ता भी नहीं। उसके भीतर की
गूदी (गिरी) दवा के काम आती हैं और ऊपर का ढाँचा कमण्डलु वगैरह के काम।
कहते हैं कि उस गिरी या अन्ततोगत्वा कमण्डलु को ही घिस कर पिला देने से
हैंजे का शमन होता हैं। संन्यासी लोग, और अब तो दूसरे साधु भी, वही
कमण्डलु, उसमें काठ का हैंण्डल वगैरह लगाकर अपने काम में लाते हैं।
संन्यासियों को धातु के पात्रा रखने की आज्ञा शास्त्रों में नहीं हैं, ऐसा
माना जाता हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(12)हमारे साथी की कहानी
अपने साथी श्री हरिनारायण जी के बारे में यहीं पर कुछ कह देना चाहता हूँ,
घर में उनको कोई लड़का न था। सिर्फ लड़कियाँ, स्त्री और फूआ थीं। फूआ बूढ़ी
विधवा थीं और वहीं रहती थीं। वे कभी-कभी एकाध पत्र स्त्री को सांत्वना देने
के लिए लिख दिया करते थे और यह साफ नहीं लिखते थे कि संन्यासी हो गये। मैं
यह चीज पसन्द नहीं करता था, पर करता क्या? वे श्रेष्ठ थे और मुझे बहुत कुछ
उनने सिखाया था। फिर भी मैंने यहाँ तक ख्याल नहीं किया कि उसका परिणाम बहुत
दूर तक जायेगा। लेकिन हुआ वही। जब सन 1908 ई. में हम और वह बदरीनारायण की
यात्रा में अलग हो गये तो वह वहाँ से लौटकर घूमते-घूमते काशी आये, घर जा
पहँचे और गाँव से दूर कुटी बनवाकर रहने लगे। पीछे तो गेरुआ फेंककर गृहस्थ
भी बन गये! बहाना यह निकाला कि जमीन-जायेदाद की कोई लिखा-पढ़ी न होने के
कारण स्त्री को कष्ट होगा और दूसरे सम्बन्धी जायेदाद ले लेंगे। उन्होंने
जायेदाद की लिखा-पढ़ी की। शायद एकाध सन्तति भी पैदा की। फिर दोबारा संन्यासी
बने और मुझसे मिले। इस बार मेरे गुरुजी से ही दण्डी बने। तब तक मैं भी
दण्डी हो चुका था। यह बात यथास्थान आगे आयेगी।
मैंने काशी में दर्शन काफी पढ़े और व्याकरण भी। फिर दोनों साथ ही भ्रमण के
लिए निकले। साथ में बहुत ज्यादा दर्शन ग्रन्थों का गट्ठर भी लाद लिया।
क्योंकि इस बार उन्हें ये ग्रन्थ पढ़ने थे और मुझ पढ़ाने। अन्त में गुजरात
में वर्ष के कई मास पाटन में रह के वे फिर मुझसे अलग हो गये। मैं तो काशी
फिर आ गया और वे भी कुछ दिनों के बाद पुन: घर पहुँचे और वहीं रह के
संन्यासी के वेष में ही गृह प्रबन्ध करने लगे। मुझे खबर लगी तो वहाँ गया और
वे मुझसे मिले। मैंने समझाया कि यह पाखण्ड क्यों करते हैं, गृहस्थ बन कर
रहिये और फिर यहाँ से न हटिये। उन्होंने बात मान ली। लेकिन कुछ दिनों बाद
फिर संन्यासी बने और आखिर में पुन: घर आ गये तब से बराबर वहीं रहने लगे।
ईधर जब कभी भेंट हुई मैंने उन्हें साहस बँधाया। मैं जानता था कि उनमें यह
कमजोरी हैं। इससे वे लज्जित भी बहुत रहते थे। अच्छे विद्वान और धर्म-कर्म
के ज्ञाता होकर भी उनकी यह दशा हुई। इससे हमें शिक्षा मिलती हैं। उनकी पहली
बार जो यह हरकत हुई और घर चले गये उससे मेरे सम्बन्धियों को भी साहस हुआ कि
मुझ पर भी दबाव डालकर घर ला बैठायें। मगर मैं इसमें कब पड़ने वाला था? पीछे
तो उन लोगों ने सदा के लिए यह विचार छोड़ ही दिया। वह उनका अन्तिम प्रयत्न
था। तब से मुझे कितनी ही बार उधर जाने का अवसर मिला हैं। मगर गाँव घर के
लोगों के भाव अब दूसरे ही पाये गये हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(13)हरिद्वार और हृषीकेश
हाथरस से पैदल चलकर हम लोग सोरों पहुँचे ठेठ गंगा माई के किनारे। जहाँ तक
याद हैं महाशिवरात्रि का मेला था। लोग गंगा स्नान कर रहे थे? हमने जीवन में
पहली ही बार आश्चर्यचकित नेत्रों से देखा कि लोग यों ही गंगा के आरपार चले
जा रहे हैं। नाव की जरूरत हुई नहीं। क्योंकि जल नदारद! हम समझ न सके कि
इसका क्या रहस्य हैं। पीछे पता चला कि गंगा से दो-दो नहरें निकाले जाने के
कारण जाड़े और गर्मी में पानी उसमें रहता ही नहीं। हाँ, कानपुर के पास इन
नहरों का बचा-बचाया हुआ पानी फिर उसमें जब जा गिरता हैं तो जल नजर आता हैं।
अस्तु, हम गंगा के तट को पकड़ कर उत्तर मुँह चले। रास्ते में वे स्थान देखे
जहाँ से नहरें निकली हैं। जब हम अनूपशहर पहुँचे तो देखा कि कच्ची रोटियों
की दूकानें लगी हैं और हलवाई की दूकानों की तरह लोग वहाँ बैठकर पूड़ियों के
बजाये दाल, रोटी, साग, तरकारी खाते हैं। हमारे ध्यान में भी यह बात अब तक
नहीं आ सकी थी कि हलवाई के अतिरिक्त हिन्दुओं के भी दाल, भात, रोटी, आदि के
होटल और भोजनालय हो सकते हैं। इसीलिए जब पहली बार ऐसा देखा तो हमें महान
आश्चर्य हुआ।
दूसरा आश्चर्य बहुत दिनों बाद तब हुआ जब सनातन धर्म सभा के लिए मुलतान जाते
हुए अम्बाले में स्टेशन पर 'हिन्दू रोटी लो, मुसलमान रोटी' कहते देखा और
कच्ची रोटियाँ बिकती पाईं। असल में हमारी धारणा थी कि होटल तो मुसलमानों और
कृश्तानों के ही हो सकते हैं। हमने काशी, प्रयाग आदि में और देखा भी न था।
पीछे जब होटल सभी के हो गये तो भी ख्याल था कि छुआछूत के लिहाज से स्टेशनों
पर हिन्दू लोग रोटियाँ बेच नहीं सकते। हमें क्या ख्याल था कि सभी लोग
एक-दूसरे की छुई खा लेंगे। मुसलमान भी छू ले तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन
बनानेवाला किसी जात का हिन्दू होना चाहिए! हम क्या समझते थे कि यह हिन्दू
रोटी, हिन्दू पानी, मुसलमान रोटी, मुसलमान पानी की पुकार छुआछूत या धर्म के
लिए न होकर निरी-बेवकूफी की बात हैं, जो सिर्फ हिन्दू-मुसलिम कलह लगाने और
बढ़ाने के ही काम आती हैं। अफ़सोस हैं कि जो लोग आज इस खान-पान के भेदभाव को
मिटा चुके हैं वह भी इस झगड़े में एक न एक पक्ष लेते ही हैं। फिर चाहे खुल
के लें या छिप के। हजारों में विरले ही ऐसे हैं जिनका दिल साफ हैं और जो इन
झगड़ों को नादानी की हद्द समझते हैं। उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ जरूर रही
हैं। यही एक आशा की झलक हैं कि यह नादानी मिट के रहेगी।
गर्मी के दिन आते-न-आते हमने बिजनौर आदि शहरों को देखते-दाखते और गंगा के
दोनों तटों पर घूमते-घामते हिमालय का पहली बार दर्शन किया और हरद्वार
पहुँचे। कनखल होते हरिद्वार गये। कनखल में नहर और उसके ऊपर चलने वाली
पनचक्की देखी, हरद्वार में हर की पैड़ी पर गये, स्नान किया, न जाने किन-किन
मठों में गये और ठहरे। पर हमें वह दुनियाँ न रुची। गंगाजी को वर्तमान
विज्ञान ने उसके हिमालय के क्रोड़ से बाहर होते ही किस प्रकार बाँध लिया हैं
और इस प्रकार उसके प्रचण्ड वेग के मद को चूर कर दिया हैं। यह हमने वहीं
देखा। कुछ परिचित साधु भी मिले। लेकिन फिर भी हमारा मन रम न सका। फलत: वहाँ
से पैदल ही हृषीकेश चल पड़े। वहाँ पहुँचने पर हमने दूसरी दुनियाँ देखी। गंगा
के किनारे एक छोटा-सा गाँव-सा बसा हुआ पाया। वहीं कई एक अन्नसत्रा
(क्षेत्र) थे जिनमें साधुओं को रोटी और गाढ़ी दाल या तरकारी एक बार दोपहर से
पहले मिलती थी। वहाँ पर बाबा कमली वाले के और दूसरों के भी क्षेत्र थे।
पहाड़ से निकलते ही गंगा धनुषकार हो जाती हैं। उसी धनुष के मध्य में पश्चिम
और हृषीकेश उस समय था। उसके उत्तर सुन्दर लम्बी झाड़ियों के सिलसिले में
जहाँ-तहाँ बिना घर-बार वाले गेरुवाधारी बाबा लोग पड़े रहते थे। वह लोग
क्षेत्र से रोटी लाकर खाया करते, परन्तु ईधर हम फिर यह न देख सके कि
क्या-क्या परिवर्तन हो गये हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(14)पुन: पढ़ने में
हम दोनों वहाँ झाड़ी में न ठहर उसी के ऊपर श्री योगानन्द जी के छोटे से मठ
में ठहरे। मगर भिक्षा तो क्षेत्र से ही रोटी लाकर करते थे। हाँ, रात में उस
मठ में थोड़ा-सा जलपान मिल जाता था। उसकी बगल में कुछ और ऊँचाई पर कैलाश नाम
से प्रसिद्ध श्री धनराजपुरी जी का एक बड़ा मठ था। वहीं पर हम एक शान्त और
विद्वान संन्यासी के पास 'वेदान्त सिद्धान्त मुक्तावली' पढ़ा करते थे। यह
वेदान्त का एक क्लिष्ट ग्रन्थ माना जाता हैं। हमने उसे ही शुरू किया।
हालाँकि, उसके पूर्व के और ग्रन्थों को पढ़ा न था। कई लोगों के साथ हमारा
पाठ था। या यों कहिये कि हमीं दूसरों के पाठ में शामिल हो गये थे। उसमें जब
न्याय, मीमांसा आदि की बातें आती थीं तो कभी-कभी हम उनसे दोबारा पूछते थे।
हालाँकि, आम तौर से एक ही बार कहने पर समझ लेते थे। कारण, बुद्धि तो
तीक्ष्ण थी ही। लेकिन कई बार पूछने पर एक दिन उनने हमसे सब बातें पूछीं और
कहा कि अभी आपकी अवस्था कम हैं, काशी जाकर व्याकरण, न्याय मीमांसा आदि
पढ़िये। पश्चात वेदान्त के ये ग्रन्थ पढ़ने में मजा पाइयेगा। उस समय तो हम
शर्मिन्दा से हुए और उनकी बात कुछ रुची भी नहीं। क्योंकि अभी भी योगी पाने
की धुन थी। मगर फिर पीछे उनका ही उपदेश अक्षरश: पालन करना पड़ा।
खैर, वेदान्त मुक्तावली का पाठ चलता रहा। हमें एक मजा प्राय: मिलता था। जब
क्षेत्र से रोटी लाते तो गंगा के किनारे चले जाते। पानी ज्यादा तेज न था।
पर, पाँव दें तो कहाँ बह जाये पता न लगे। ऐसी धारा तेज थी। लेकिन ऊँचे-ऊँचे
और चिकने पत्थर उसमें पड़े थे। उन्हीं पर छलाँग मारते-मारते कुछ भीतर जाते,
एक चिकने पत्थर को धोकर उसी पर रोटी आदि रखते और दूसरे पर बैठ कर भोजन करते
थे। जब चाहते चिल्लू से घूँट-घूँट तर जल पी लेते। जल इतना ठण्ढा था कि
वैशाख- जेठ के दोपहर में भी खुली धूप में बैठने पर गर्मी न मालूम होती और
सारा शरीर तर रहता। यह आनन्द हम बराबर लेते रहे जब तक वहाँ रहे। दूसरे
साधुगण भी ऐसा ही करते थे। स्नान आदि के समय भी खूब आनन्द आता था।
लेकिन हृषीकेश में जो संसार हमने देखा और साधुओं की जो बदनामी सुनी, उससे
ऊब गये। पंजाब से और दूसरे प्रान्तों से श्रीमान् स्त्री-पुरुष वहाँ
झुण्ड-के-झुण्ड आते और धर्म के नाम पर साधुओं को खूब हलवा, पूड़ी, मेवे
चभाते थे वहीं सत्संग भी होता। मगर आखिर इन सबका नतीजा क्या दूसरा होना था?
यह भी पता लगा कि खाने-पीने का खूब आराम और सब तरह का मजा देख कर बहुत से
लोग खेती-गृहस्थी से फुर्सत पाते ही गर्मियों में गेरुवावस्त्र धारण कर
साधु वेश में उस झाड़ी को हर साल आबाद करते, वर्ष आने के पहले ही खा-पी के
तगड़े हो जाते और कुछ पैसे भी भक्तों और भक्तिनों से पा जाते थे। फिर घर चले
जाते। पता नहीं अब क्या हालत हैं।
कैलाश की एक बात का उल्लेख करेंगे। उसके अधिष्ठाता श्री धनराज गिरिजी
यद्यपि अधिक अवस्था के थे, तथापि बड़े ही मजबूत थे। उनका शरीर बहुत दृढ़ और
ठोस था। कहते थे कि साल भर नियमित रूप से श्रीफल (बेल) खाया करते थे। वह जब
बिलकुल ही सूख कर गिर जाता और पेड़ों पर नहीं मिलता था तो सुखाया हुआ रखते
और खाते थे। कच्चा तैयार होते ही भून कर खाना शुरू करते। अन्न के सिवाय
नियमित रूप से बेल का सेवन करते और नहीं तो, मुरब्बे के रूप में सही। उसी
का फल था कि शरीर ठोस था और वृद्धावस्था में भी न तो बीमार पड़े और न
ढीला-ढाला बदन हुआ। बेल के इस प्रकार के नियमित सेवन (कल्प) का ऐसा ही फल
बताया जाता हैं। झाड़ी के और आगे भरतजी का मन्दिर हैं और उसके आगे लक्ष्मण
झूला। वहीं गंगा पर मोटे तारों के रस्से पर लटकने वाला लकड़ी का पुल बना
हैं। क्योंकि तेज धारा में पाया बनना और ठहरना असम्भव हैं। लटकने वाला पुल
हिलता तो रहता ही हैं, ज्योंही आप चढ़िये। लेकिन काफी मजबूत हैं। उस पर
आदमी, टट्टू और बकरियाँ सभी सामान लेकर पार होती रहती हैं। असल में जब
तारवार नहीं थे, तो उस पुराने जमाने में पहाड़ी लोग गंगा की धारा को पार कर
ईधर-उधर जाते ही थे। तीर्थयात्री लोग भी जाते थे तो गंगा वगैरह की धाराओं
को उस यात्रा में कई बार पार करना पड़ता था। इसके लिए एक उपाय निकाला गया था
कि धारा के दोनों तरफ जो निकटवर्ती मजबूत पेड़ हों उनमें दो समानान्तर मजबूत
रस्से डेढ़-दो हाथ की दूरी पर बाँध दिये जाये। फिर उनमें छोटा-सा झूला आदमी
के बैठने लायक बना कर लटका दिया जाये। झूले के साथ एक लम्बी रस्सी हो जो
दोनों ओर बँधी रहे। बस, अगर एक आदमी उस झूले में बैठ कर साथ वाली रस्सी को
दोनों हाथों से जोर से खींचता रहे तो, झूला धीरे-धीरे आगे खसकता जाकर दूसरे
किनारे पहुँच जाये। फिर उधर से इसी प्रकार ईधर भी आ जाये। इसी प्रकार किसी
तरह उस समय विकट नदियाँ पार करते थे। उसमें झूले या उसके आधारभूत रस्सों के
टूटने का खतरा था जरूर। लेकिन उपाय दूसरा था नहीं। इसीलिए लक्ष्मणझूला नाम
पड़ा। अब तो लटकनेवाला पुल बन गया हैं। बदरीनारायण की यात्रा में हमने
रास्ते में पुराने झूलों को काम में लाते हुए पहाड़ी मनुष्य देखे। कारण,
चारों ओर लटकने वाले पुल तो बने हैं नहीं। ये तो बदरी, केदार आदि के रास्ते
में ही हैं। ये पुल उन्हीं पुराने झूलों की नकल हैं। हाँ, उनमें तरक्की
जरूर की गयी हैं। हम झाड़ी से दूर तक जंगल में लक्ष्मण झूले के ऊपर तक
योगियों और साधुओं की तलाश में चले जाते और लौट आते थे। जंगली जड़ी-बूटियाँ
ज्ञात हो जाये तो खाने-पीने की रोज की फिक्र से बचें यह भी ख्याल था। मगर न
तो ऐसी बूटियाँ ही मिलीं और न योगी ही। हमने सोचा कि अच्छा तो बदरीनाथ बाबा
का दर्शन ही कर आयें और शायद कहीं उधर ही योगी मिलें। क्योंकि उत्तराखण्ड
में ही तो उनके ज्यादा होने की बात बार-बार सुनी थी। इसलिए वहीं जाने का
निश्चय कर लिया। मगर वैशाख शुक्लपक्ष की तृतीय (अक्षय तृतीया) के पहले तो
बदरीनारायणजी का पट्ट (दरवाजा) खुलता नहीं। उसके पहले वहाँ पुजारी लोग जाते
ही नहीं। बर्फ के कारण प्राय: छ: महीने मन्दिर बन्द रहा करता हैं। बर्फ
हटने पर पहले पहल अक्षय तृतीया को ही वहाँ जाते हैं। कभी-कभी तो बर्फ की
अधिकता के कारण और भी देर से जाना होता हैं। इसलिए यात्री लोग भी उसी के
लगभग यात्रा करते हैं। न कि पहले। क्योंकि पहले जाना न सिर्फ बेकार होता
हैं, वरन असम्भव भी। कारण, रास्ते में दूकानें वगैरह ठीक नहीं रहती हैं,
जिससे खाने-पीने का कष्ट होता हैं। वहाँ पहुँचकर ठहरना भी असम्भव होता हैं।
जहाँ तक स्मरण हैं, हृषीकेश से 189 मील या कुछ इतनी ही दूर बदरीनाथ का
मन्दिर हैं। इसलिए हम लोगों ने इसी हिसाब से चलना तय किया कि ठीक समय पर
वहाँ पहुँच सकें।
(शीर्ष पर वापस)
(15)बदरीनारायण की यात्रा
हम दोनों ही साथ रवाना हो गये। पहले तो रास्ता बहुत ही विकट और खतरनाक था।
लेकिन अब तो सड़कें यथासम्भव पहाड़ काट-कूट कर अच्छी और बराबर कर दी गयी थीं।
ईधर तीस बत्तीस-साल के भीतर तो और भी उन्नति हो गयी होगी। फिर भी धीरे-धीरे
कहीं चढ़ती जाती हैं तो फिर उतरती हैं। यह चढ़ाव-उतार का सिलसिला बराबर जारी
रहता हैं। कहीं-कहीं तो बहुत पतली होती हैं। उनकी एक ओर ऊँचा गिरिशृंग आकाश
से बातें करता और दूसरी ओर अतल गत्ता, जहाँ कल-कल निनाद करती गंगा बहती
हैं। उसका निनाद सुन नहीं सकते। हाँ, उसकी धारा देख सकते हैं। रास्ता कभी
गंगा के दायें चलता हैं और कभी बायें। रास्ते में जहाँ-जहाँ लटकते पुलों से
उसे पार करते हैं। इस समय की बात तो कह नहीं सकते। मगर तीर्थयात्रा में
जूता न पहनने के ख्याल से उस समय लोग घास या कपड़े के जूते, जो वहीं बनते
थे, पहन लिया करते थे। मगर हम तो सदा नंगे पाँव चलने वाले वहाँ भी वैसे ही
चले। हालाँकि, परिणाम बुरा हुआ और लौटते-लौटते हमारे पाँव के तलवे
लोहू-लुहान हो गये। फलत: चलना असम्भव हो गया।
यह भी देखा कि रुपये वालों के लिए आदमी की सवारी वहाँ तैयार हैं। उस महान
तीर्थयात्रा जैसे पवित्रतम अवसर पर भी! धर्म भी क्या गजबनाक चीज हैं! आदमी
की छाती पर चढ़ के चलना! सो भी एक की छाती पर एक चढ़े। ढोनेवाले ज्यादातर
ब्राह्मण या क्षत्रिय, और चढ़ने वाले घोर सनातनी हिन्दू! यह निराली
अन्धेरपुर नगरी हैं! दूसरी सवारी उस समय तो असम्भव थी। बड़े घोड़े तो नहीं,
हाँ, टट्टू और बकरियाँ जा सकती थीं। मगर सिर्फ सामान लेकर। टट्टू पर आदमी
चढ़े तो गिरने का खतरा बराबर रहता था। क्योंकि रास्ता बेढब था।
आदमी की सवारी भी दो प्रकार की थी, एक काण्डी और दूसरी झम्पान। काण्डी तो
मछली फँसाने वाले टाप की सी थी। सिर्फ एक ओर थोड़ी कटी थी जिससे चढ़ने वाला
उसमें बैठ के नीचे पाँव लटका सके। या यों कहिये कि जैसे बाँस या बेंत के
मोढ़े कुर्सियों का काम देने के लिए बनाये जाते हैं प्राय: उसी तरह की। उस
पर आदमी को बैठाकर ढोनेवाला अपनी पीठ पर उसे बाँध लेता हैं। चढ़ने वाले की
रक्षा के लिए उसके पाँव वगैरह पर भी कुछ बन्धन रहता हैं। अगर चढ़ने वाले को
पूर्व चलना हैं तो उसका मुँह पश्चिम और ढोनेवाले का पूर्व रहेगा। झम्पान की
शकल तो बिहार में काम आनेवाली खटोली जैसी होती हैं। काण्डी को एक आदमी ले
चलता हैं। इसलिए वह सस्ती पड़ती हैं। मगर झम्पान में चार आदमी लगने से वह
महँगा पड़ता हैं। हालाँकि उसमें आराम रहता हैं। अब तो हवाई जहाज जाने लगा
हैं।
रास्ते का प्रबन्ध ऐसा हैं कि थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहाड़ के ऊपर से आनेवाले
झरने के पास चट्टियाँ (पड़ाव) होती हैं जहाँ आटे आदि की दूकानें और ठहरने की
मामूली जगह होती हैं। यात्रा के दिनों में ही ये चट्टियाँ आबाद रहती हैं।
पीछे उन्हें कौन पूछे? पनचक्की का पिसा सुन्दर आटा वहाँ मिलता हैं। चावल
भी। सिर्फ गुड़, चना और नमक महँगा होता हैं। क्योंकि पहाड़ में पैदा न होने
से नीचे से ले जाया जाता हैं। बाकी चीजें तो प्राय: नीचे (मैदान) के भाव
में ही मिलती हैं। घी, दूध खूब मिलता हैं।
पहले तो चोरी होती न थी। अगर किसी की कोई चीज छूट गयी तो लौटने पर बहुत
दिनों के बाद भी जहाँ की तहाँ पड़ी मिलती थी। पहाड़ी लोग तो उसे छूते न थे।
हाँ, यदि यात्रियों में से ही किसी ने चुपके से उठा ली तो बात दूसरी थी। यह
था हमारे देश का पुराना सदाचार। न जाने सभ्यता पिशाची के करते अब क्या हालत
हैं? हमने देखा कि वहाँ के ब्राह्मण, क्षत्रियादि गरीबी के करते काण्डी,
झम्पान ढोकर या यात्रियों के सामान वगैरह साथ में ले जाकर मजदूरी के पैसे
से गुजर करने में आत्मसम्मान मानते थे। लेकिन रास्ते में या चट्टियों पर
पड़ी दूसरों की चीजें छूते तक न थे! यह भी देखा कि प्राय: सबके-सब सिर्फ
लँगोटीधारी ही हैं। उनके चूतड़ नंगे हैं, हालाँकि, ऊँची कही जाने वाली
जातियों के हैं। फिर भी उनकी ऐसी हालत हैं कि छोटे से छोटा भी शारीरिक
परिश्रम करने से इन्कार नहीं! प्रत्युत उसे करने को लालायित दीखते थे, उसे
ढूँढ़ते फिरते थे।
हमारी प्राचीन सभ्यता और सदाचार की यें बातें हम सभी को सीखने की हैं। न
जानें हमने कहाँ से अनोखा धर्म और सदाचार सीखा हैं कि कामों को ही छोटा और
बड़ा बना दिया! यहाँ तक कि कुछ कामों के करने में ब्राह्मण, क्षत्रियादि की
जाति, धर्म और शान सभी मिट्टी में मिलते नजर आते हैं! हाँ, चोरी करने में
वैसी हिचक नहीं! दूसरे का धन मिल जाये तो महाप्रसाद की तरह फौरन हजम! हमारा
धर्म, हमारा सदाचार और हमारी प्रतिष्ठा वस्तुत:, इसी में हैं कि कमा के
खायें और किसी काम को छोटा या नीच न मानें। इस बात में हमारे गुरु
उत्तराखण्ड के वे गरीब लोग हैं।
उस यात्रा में भूख बहुत लगती हैं। एक तो पहाड़ की चढ़ाई-उतराई का श्रम। दूसरे
स्वच्छ जलवायु। तीसरे बर्फ के पिघलने से मिलने वाला जल। ये तीनों ही इस भूख
के कारण हैं। अत: जो लोग खाने में कसर करते या खूब घी-दूध नहीं खाते उन पर
उस बर्फानी पानी का धीरे-धीरे असर हो जाता हैं। जिससे वहाँ से वापस आने पर
वे लोग प्राय: दस्त की बीमारी में फँसते हैं।
लेकिन हमने तो अनुभव किया कि खाने-पीने में कष्ट होने पर भी हम पर उस पानी
का कोई असर न हुआ। हमारे पास तो पैसे थे नहीं और हमने यात्रा कर दी बहुत
पहले जब ज्यादा यात्री चले न थे। जो चले भी थे वे अधिकांश अपनी ही फिक्र
वाले थे। इसलिए चौबीस घण्टे में एक बार भी भोजन मिलना कभी-कभी असम्भव हो
गया। दो-बार की चाह तो हम करते ही न थे। रास्ते में धनी और धर्मबुद्धि के
लोग हमारे जैसों को खिलाया करते हैं जरूर। पर, वे देर से यात्रा करते हैं।
जगह-जगह अन्नक्षेत्र हैं सही। मगर वे उस समय बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस मीलों
की दूरी पर थे। इसीलिए लाचार होकर हमें प्रतिदिन उतना ही और कभी-कभी
अट्ठाईस-तीस मील तक चलना पड़ा। लौटने के समय एक सो नवासी मील की यात्रा हमने
छ:-सात दिनों में इसी से पूरी की। शायद यही कारण हैं कि पानी-वानी का कोई
असर हम पर न हो सका।
रास्ते की एक बात और भी हैं। हमने देखा कि बहुत से गर्वीले जवान या तो पिछड़
जाते या पस्त हिम्मत हो जाते थे! लेकिन बच्चे, बूढ़ी औरतें या वृद्ध पुरुष
लगातार चले जाते थे! असल में धीरे-धीरे चलने में पहाड़ की चढ़ाई ज्यादा पस्त
नहीं करती और न वैसी थकावट ही होती हैं। इसीलिए स्वभावत: धीरे चलनेवाले
बच्चे या वृद्धजन हिम्मत हारते न थे। मगर तेज चलने की गर्मीवाले पस्त हो
जाते थे। हम यदि तेज चले तो वह अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए। हमारा यह
भी नियम था कि साथवाले कमण्डलु में जल लेकर चला करते थे। उस जल से रास्ते
में न जानें कितनी वृद्ध-वृद्धाओं की प्यास हमने उस यात्रा में बुझाई।
हाँ, तो हमारी यात्रा शुरू हुई। हम कई दिन चलने के बाद रास्ते में पड़ने
वाले देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि तीर्थों में ठहरते और उन्हें
पार करते आगे बढ़ते गये। हमें गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी, केदार और बदरीनाथ इन
चार प्रधान तीर्थों में जाना था। पहले दो की ओर जाने में ही उत्तरकाशी पड़
जाती हैं। मंसूरी होकर भी इन दोनों का रास्ता हैं। मगर हम उधर न जाकर ईधर
बढ़े थे। सोचा था कि आगे जाकर दूसरे रास्ते से वहाँ जायेगे। मगर रास्ते में
खाने-पीने के कष्ट ने हमें सुझाया कि उधर जाना ठीक नहीं। कारण, इतना पहले
उधर के यात्री तो होंगे नहीं और रास्ते में अन्न बिना ही मरना पड़ेगा। इसलिए
उन दो यात्राओं का विचार त्याग सिर्फ केदार और बदरी की ही फिक्र हमें रही।
उनमें भी पहले केदार जाकर पीछे बदरी जाते हैं। ठीक याद नहीं, शायद
देवप्रयाग से केदार का रास्ता बदलता हैं। वहीं पर जो गंगा की दो धाराएँ
मिलती हैं, जाने के समय उनमें बायीं धारा से केदार जाते हैं। फिर लौटने के
समय इतनी दूर वापस न आकर ऊखी मठ से ही एक तिरछी राह आकर बदरी वाली में आगे
बढ़ के मिल जाती हैं।
हमने केदार बाबा का रास्ता अपनाया और जैसे-तैसे कभी खाते कभी भूखे रहते
बढ़ने लगे। जहाँ आमतौर से चार बार खाने में भी भूख लगती हैं वहाँ एक बार भी
न खाया और चढ़ाई तय करना मामूली बात न थी। लेकिन एक तो हिम्मत थी, दूसरी
बेबसी।
(शीर्ष पर वापस)
(16)अग्नि परीक्षा और सफलता
उस रास्ते में त्रियुगी नारायण की एक विकट चढ़ाई पहले पड़ती हैं। हालाँकि
उससे भी विकटतर और विकटतम आगे पड़ती हैं। खूबी यह थी कि त्रियुगी नारायण की
चढ़ाई में दिनभर खाने को न मिला। हम ऐसे ही चलते रहे। तुर्रा यह कि हमारे
साथी भी रास्ते में पेशाब के बहाने पीछे रुक गये और बहुत देर करने पर भी न
आये। पीछे पता लगा कि वे जानबूझकर साथ छोड़ना चाहते थे। उनकी बातें पहले से
ही कुछ ऐसी हो रही थीं। करना क्या? अकेले ही चले। हालाँकि, कष्ट के समय
एकान्त और भी अखरता हैं। लोग तो रात में त्रियुगी नारायण में ठहरते हैं।
मगर हमने जब खाने की कोई सूरत न देखी तो आगे चलना ही निश्चय किया। कहीं बीच
में ही, देर होने से अशक्त होकर, रह न जाये यह भय जो लगा था। उस दिन बहुत
चले और गौरी कुण्ड आकर ठहर गये शाम होते न होते। वहाँ से चढ़ाई भीमगोड़ा तक
छ:-सात मील बहुत ही बेढ़ब हैं। भीमगोड़ा के बाद की चढ़ाई की तो पूछिये मत।
सीढ़ियाँ बनी हैं। उन्हीं पर चढ़ना होता हैं। लेकिन शायद दो-तीन मील के बाद
ही समतल भूमि मीलों मिलती हैं जो बर्फ से ढँकी रहती हैं। उसी बर्फ पर ही
चलना पड़ता हैं। उसी के बाद केदार जी का मन्दिर आ जाता हैं। इसी आशा में हम
हिम्मत करके पानी पी-पीकर किसी प्रकार गौरीकुण्ड पहुँच के सो रहे।
दूसरे दिन सवेरे ही रवाना हो गये और बड़ी कठिनाई से भीमगोड़ा पहुँच पाये। रात
में यात्री लोग यहीं ठहरते हैं। यहाँ से केदार नजदीक हैं। केदार में तो
बर्फ से लदे होने के कारण रात में न तो ठहरने का स्थान ही हैं और न हिम्मत
ही होती हैं। बर्फ में कौन मरे? लोग भीमगोड़े से आगे बढ़ चुके थे और बढ़ रहे
थे। यह देख हमने भी हिम्मत की। लेकिन हालत बुरी थी। दो-चार सीढ़ियाँ चढ़ते
किसी प्रकार, और चक्कर खा के गिर पड़ते। फिर चढ़ते, फिर इसी तरह गिरते। इस
प्रकार चढ़ते, गिरते राम-राम करके हमने वह चढ़ाई खत्म की और लम्बे बर्फानी
मैदान में पहुँचे। अब तो हिम्मत हो गई। ज्यादा संकटों का सामना करने के बाद
कम कष्टों में काफी हिम्मत होई जाती हैं। यह भी सोचा कि अब तो केदार जी
निकट हैं। बर्फ पर पाँव देते ही वह सन्न हो जाता और भारी तकलीफ होती थी।
साथ ही, सर्दी से देह में बल भी हो आया। सर्दी का कुछ ऐसा प्रभाव होता ही
हैं। लेकिन थोड़ी देर बाद पाँव सून से हो गये और सन्न-सन्न लगना बन्द हो
गया।
अन्त में मन्दिर के पास आ गये। देखा कि बगल में बर्फ पिघल-पिघल के एक नदी
बह रही हैं और लोग उसमें स्नान कर रहे हैं। यह वही गंगा की धारा थी जिसके
किनारे-किनारे आये थे। यहीं से शुरू होती थी। चारों ओर सफेद बर्फ से लदे
पहाड़ थे। न कहीं पेड़ और न कोई गाँव-गिराँव।
इतने में ही एक गृहस्थ ने आकर हमसे कहा कि ''महाराज भोजन कीजिये'' यह शब्द
था या अमृत? हम तो दिल से उसके आभारी हुए और कहा कि स्नान और दर्शन के बाद
खाऊँगा। वह इन्तजार करने लगा और हम फौरन नहाने गये। जो पानी में हाथ डाला
तो सुन्न! कमण्डलु उठाना असम्भव! तो भी जैसे-तैसे स्नान किया और जल लेकर
मन्दिर में गये। भीतर बर्फ की ऊँची शिलाएँ पड़ी-पड़ी गल रही थीं। बाबा
केदारनाथ का दर्शन किया, जल चढ़ाया और वापस आये। देखा कि हमारा अन्नदाता एक
पूड़ी बनाने वाले के पास खड़ा हैं, जहाँ लोग ताजी-ताजी पूड़ियाँ लेकर खाते
जाते हैं। भोज पत्र के पेड़ की हरी-हरी लकड़ियाँ जल रही थीं और कड़ाही के घी
में पूड़ियाँ पकती थीं। यदि ये लकड़ियाँ न जलें तो लोग भूखों मर ही जाये।
वहाँ सूखी लकड़ी मिले कहाँ? वह भी तो नीचे से लायी जाती हैं। हम भी वहीं
पहुँच गये और खूब अघा के पूड़ियाँ खाईं। हमारा ख्याल हैं कि एक सेर पक्की से
कम न खाई होंगी। केवल पूड़ी मिल सकती थी। साग-तरकारी कहाँ मिले? वह भी तो
गनीमत थी।
(शीर्ष पर वापस)
(17)केदार से वापस-बदरी को
फिर हम चट-पट रवाना हो गये। हाँ, यह कहना तो भूल ही गये कि हमने या तो मध्य
भारत के उस गरीब ब्राह्मण को ही जी भर के आशीर्वाद दिया था या केदारनाथ के
अन्नदाता को। ये दोनों घटनाएँ सदा ताजी रहती हैं। खैर, शाम होते-होते
गौरीकुण्ड आकर ठहरे। फिर दूसरे दिन आगे बढ़े। जब लौटे तो त्रियुगीनारायण का
रास्ता छोड़ नीचे-नीचे ही लौटे। लौटने में कोई उधर जाता ही नहीं व्यर्थ
हैंरान होने। ऊखी मठ से आगे तिरछी राह पकड़ी और बदरी बाबा की तरफ चले।
रास्ते में तुंगनाथ की भीषण चढ़ाई मिली। उसके बाद हम बढ़ते गये। केदार से
लौटने के समय तो हमारे साथी मिले नहीं। हाँ, जब हम बदरीनाथ के दर्शन के बाद
लौट रहे थे तो जाते हुए मिले। इस प्रकार चलते-चलाते बदरीनाथ के पास
ज्योतिर्मठ या जोषीमठ मिला।
कहते हैं, धर्म-प्रचार की दृष्टि से आदि शंकराचार्य ने भारत के चार कोने
में चार मठ स्थापित किये थे। वहीं से उनके अनुयायी भारत को चार भागों में
विभक्त कर धर्म-प्रचार करते थे। इनके नाम हैं-शृंगेरीमठ (दक्षिण), शारदामठ
(पश्चिम-काठियावाड़), गोबर्धन मठ (पूर्व जगन्नाथ) और ज्योतिर्मठ (उत्तर)।
रामेश्वर, द्वारिका, जगन्नाथ और बदरीनारायण यह चार तीर्थ उनके पास पाये
जाते हैं। लेकिन अब तो ज्योतिर्मठ पर रावल जी का दखल हैं जो गृहस्थ हैं,
गोबर्धनमठ भी गड़बड़ हो रहा था। मगर सँभला हैं। ज्योतिर्मठ के सिवाय शेष
तीनों ही दण्डी संन्यासियों के हाथ में हैं। हालाँकि अब धर्म-प्रचार की बात
कुछ ऐसी ही तैसी हैं।
हम सवेरे ही बदरीनाथ पहुँच गये। जहाँ तक हमें याद हैं उसी दिन मन्दिर खुला
था पहले पहल। वहाँ भी चारों ओर मैदान हैं उसमें एक घास होती हैं जो बर्फ से
सूखी थी। उसे उखाड़ कर जलाते थे। चारों ओर बर्फ से लदे पहाड़ थे और गाछ वृक्ष
का पता भी नहीं! वहाँ धर्मशालाएँ अनेक हैं। उन्हीं में एक के ऊपरी तल्ले
में हम रहते थे। हमने स्नान और दर्शन किया। गंगा की धारा तो वहाँ भी हैं।
मन्दिर के सामने नीचे एक गर्म पानी का झरना भी हैं जो एक कुण्ड में गिरता
रहता हैं। उसका पानी ज्यादा होने पर बहकर गंगा में चला जाता हैं। कुण्ड
पत्थरों से बनाया गया हैं और डूब न सकें इतना ही गहरा हैं। पहले तो कुण्ड
का पानी काफी गर्म लगता हैं। फलत: भीतर जाने की हिम्मत नहीं होती। मगर एक
बार पड़ जाने पर पीछे आराम मालूम होता हैं। हम तो कई-कई घण्टे उसमें पड़े
रहते थे। हमारे पास सिर्फ एक ऊनी चादर थी। जाड़ा वहाँ ज्यादा था। अत: बहुत
देर तक उस कुण्ड में रह के गुजारते और रात में पूर्वोक्त सूखी घास जला के
काम निकालते थे। हमें याद हैं कि वहाँ तीन-चार दिन ठहरे। फिर रवाना हो गये।
भक्तजनों का विश्वास हैं कि भगवान के चरणों के नीचे से होकर झरने का जल आता
हैं। इसलिए उनकी ही कृपा से वह गर्म रहता हैं, ताकि गरीबों को सर्दी से
बचाये। मगर गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी में तो बहुत ज्यादा गर्म-उबलता हुआ
सोता बताया जाता हैं। वहाँ किस भगवान के चरण से आता हैं? असल में प्रकृति
की कुछ ऐसी रचना हैं कि वहाँ नीचे गन्धक की खान होगी। उसी से छन कर आने से
पानी गर्म हो जाता हैं। उसमें कुछ गन्ध भी ऐसी ही रहती हैं। मगर धर्म के
मामले में अक्ल और दलील को गुंजाईश कहाँ?
(शीर्ष पर वापस)
(18)वापस हृषीकेश
जब हम लौटे तो बहुत तेज चले जैसा कि पहले कहा हैं। खाने-पीने के लिए इस बार
हमने किसी भक्तजन की कतई परवाह नहीं की। सिर्फ सदरावत्ता या अन्न क्षेत्र
में ही खा लेते। वह क्षेत्र दूर-दूर थे। इसलिए उसी हिसाब से हमें तेज चलना
पड़ता था। जूता न पहनने और ज्यादा चलने का नतीजा हुआ कि हमारे दोनों पाँवों
के तलवे छिल गये और लोहू-लुहान हो गये। मगर करना क्या था? किसी प्रकार
यात्रा तो पूरी करनी ही थी। जैसा कि बताया हैं, छ:-सात दिनों में ही प्राय:
दो सौ मील की यात्रा करनी पड़ी! जो लोग लौटते हैं वह अलमोड़ा, काशीपुर के
रास्ते से लौटते हैं। मगर हमें तो पुन: हृषीकेश आना था। अत: उस रास्ते हम
नहीं गये। आखिर कार हृषीकेश आ ही गये। लेकिन बर्फानी हिस्से से आने के कारण
हृषीकेश में लू मालूम पड़ती थी। जहाँ तक हमें याद हैं, ज्येष्ठ का महीना
शुरू ही हुआ था। क्योंकि अक्षय तृतीया के कई रोज़ बाद तो हम चले ही थे और
रास्ते में हफ्ते भर लगा। इस प्रकार सन 1908 ई. के जून में हम आ गये।
प्राय: इसी समय गत वर्ष (आषाढ़) में काशी से रवाना हुए थे। एक वर्ष के भीतर
ही हमने पैदल ही न जाने कितना फासला तय कर लिया और कितना अमूल्य अनुभव
प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं। योगी के मिलने और योगाभ्यास करने की हमारी
आशा पर पानी भी फिर गया। हम उससे एक प्रकार से निराश हो गये। यों कह सकते
हैं कि हमारे संन्यासी जीवन के प्राय: एक वर्ष के बीतते-न-बीतते उसका पूर्व
खण्ड खत्म होने को आया और थोड़े ही दिन के बाद मध्य खण्ड शुरू हुआ।
(शीर्ष पर वापस)
(19)फिर काशी लौटे
न जाने क्यों बदरीनारायण से लौट कर हृषीकेश में ज्यादा दिन टिकने का दिल न
हुआ। जल्दी ही हमने काशी चलने का निश्चय कर लिया। पर पाँवों ने जवाब दे
दिया। बदरीनाथ की यात्रा में तो किसी प्रकार पाँवों में चिथड़े लपेट कर चलते
आये। मगर अब क्या किया जाये यह ख्याल हुआ। अन्त में तय किया कि जैसे-तैसे
हरद्वार पहुँच कर वहाँ से रेल से ही काशी चलें, चाहे जो हो। यह दूसरी बार
मजबूरन बिना टिकट के ही रेल पर चढ़ने का इरादा था। असल में मेरे स्वभाव के
विपरीत यह बात हैं कि कोई भी काम छिपके या चोरी से किया जाये। इसमें मेरी
आत्मा काँपती हैं और ऐसा करने में मैं अपने को निहायत ही कमजोर पाता हूँ।
जो कुछ करना वह साफ-साफ ललकार के बहादुरों की तरह करना यही मुझे पसन्द हैं।
जाल फरेब से दूर भागता हूँ। मैं जानता हूँ, दुनिया में कभी-कभी इन चीजों की
भी जरूरत पड़ जाती हैं और अच्छे-से-अच्छे काम भी खराब हो जाते अगर कुछ ऐसी
बातें न की जाये। लेकिन करूँ क्या? बेबसी जो ठहरी। इसलिए तय किया कि जहाँ
मौका मिला गाड़ी पर बैठूँगा। उसमें न तो छिपूँगा। न चुपके से निकल के
भागूँगा। अधिकारी लोग अगर पकड़ के कोई दण्ड करेंगे तो बर्दाश्त करूँगा। उनसे
साफ-साफ कह दूँगा कि पाँवों की मजबूरी से ही मैंने ऐसा किया, या करने का
निश्चय कर लिया हैं। इसी विचार से हरद्वार चला।
मगर वहाँ तो प्लेटफार्म पर पहुँचना भी बिना टिकट के असम्भव था। इसलिए आगे
बढ़ के ज्वालापुर में ट्रेन में बैठा। मगर लक्सर में ही उतरना पड़ा। वहाँ
गाड़ी बदली तो रेल के अधिकारियों ने मना किया कि आगे ट्रेन पर मत चढ़िये। मगर
मैं कब मानने वाला था। फलत: काशी वाली ट्रेन पर जा बैठा और मुरादाबाद तक
बेखटके आ गया। हाँ, मुरादाबाद में टिकट जाँचने वाले ने उतारकर मुझे स्टेशन
वालों के हवाले किया। दिन के नौ-दस बजे होंगे। मैंने स्टेशन वालों से कहा
कि रोक लिया हैं तो भोजन तो दीजिये। उन बेचारों ने कहा कि जाइये महाराज!
बस, फिर क्या था, मैं शहर में गया, खा-पीकर नदी की रेत पैदल पार की और अगले
स्टेशन पर ट्रेन पकड़ी। वहाँ से तो कुछ ऐसा हुआ कि निरबाधा दूसरे दिन बनारस
आ धमका, प्लेटफार्म पर उतरकर मैं सीधे पूर्व-ओर बढ़ा। किसी ने रोक-टोक न की।
फलत: मैं बढ़ता ही गया बेधड़क और स्टेशन के बाहर चला आया। याद नहीं कि
अपारनाथ मठ में गया या कहाँ। भरसक वहीं गया और ठहरा।
यह तो ठीक हैं कि योगियों की आशा न थी। लेकिन शास्त्रों में माथापच्ची करने
को भी जी नहीं चाहता था। इसलिए शीघ्र ही गंगा तट पकड़कर आगे की ओर बढ़ा।
बरसात सिर पर थी। फिर भी मजा आया। गाजीपुर होता बक्सर के निकट कोटवा
नारायणपुर आ गया फिर वहाँ से आगे बढ़ के उजियार होता भरौली पहुँचा। वहाँ एक
संन्यासी बाबा का मठ हैं। वहीं ठहरा।
गाँव से बहुत दूर पूर्व गंगा के उत्तर एकान्त में एक वटवृक्ष था। सुबह वहीं
जाकर ठहरता, स्नानादि करके भिक्षा के समय गाँव में वापस आता और मठ पर भोजन
करता। जब आगे बढ़ने लगा तो महन्त श्री शिवप्रसाद गिरि ने रोक लिया। बोले,
चातुर्मास्य (वर्ष) में कहाँ जाइयेगा? यहीं ठहरिये। मेरे दिल में भी बात
बैठ गयी और रुक गया। महन्त जी मुझे 'परमहंस जी', कह के पुकारते और मुझसे
प्रेम बहुत करते थे। गाँववाले किसानों से भी मेरी कुछ ऐसी ही मुहब्बत हो
गयी कि एक प्रकार फँस जाना पड़ा। बस, दिन का अधिकांश समय उस दूरवर्ती एकान्त
वटवृक्ष के तले बिताता और रात में मठ में रहता। इस प्रकार चातुर्मास्य
बिताया। भरौली के लोग रामायण का गाना बहुत ही सुन्दर करते थे। वहाँ एक-दो
भजन गाने वाले भी अच्छे थे। इसलिए रामायण का गाना और भी जमता था। शंकरगढ़ के
बाद वहीं पर यह मनोरम गान का संसर्ग मिला।
महन्त श्री शिवप्रसाद गिरि के एक चेले थे जो काशी से वेदान्त पढ़ आये थे।
सयाने थे। उनका एक चेला था श्री रामचन्द्र गिरि। वह लड़का ही था। थोड़ा-बहुत
पढ़ता था। महन्त जी काफी धनवाले थे। वे बार-बार कहते थे कि मैंने लोगों को
बहुत ही ऋण दिया हैं और छत्तीस हजार रुपये केवल सूद के नाम पर वसूल किये
हैं। गाँव के सभी गृहस्थ उनके शिष्य (चेले) थे और कर्जदार भी थे। सभी के
खेत उनके पास रेहन थे। मगर जोतते वही लोग थे। महन्त जी रुपयों के ब्याज
लेते थे। इतने रुपये ऋण पर दिये! मगर वसूल तहसील की कोई चुस्त व्यवस्था न
थी कि ताकीद की जाये। फलत: गृहस्थ लोग लापरवाही से उनके रुपये शीघ्र चुका न
सकते और सूद-दर सूद में बचे-खुचे खेतों को धीरे-धीरे उनके हवाले करते जाते।
महन्त जी फायदे में थे। गृहस्थ लोग पामाल थे। मुझे देख कर बड़ा क्षोभ हुआ।
खाता-पीता था तो मैं मठ में ही। फिर भी मौका पाकर गृहस्थों को चेतावनी देता
था कि सँभल जाये और उनसे संसर्ग छोड़ें या कम करें नहीं तो नमक के बर्तन की
तरह गल जायेगे। मेरी पक्की धारणा थी कि संन्यासी का बाना धारण कर धन जमा
करना पाप हैं और वह पाप का धन जहाँ जायेगा उसे गला देगा। इसलिए उन्हें
समझाता था। चेला बनने से भी रोकता था। मगर सुनता कौन?
ठीक समय तो याद नहीं। मगर वर्ष बीतने के बाद मेरे विचार बदले और आगे जाने
के बजाये काशी जाकर दर्शन, व्याकरण, वेदादि के अध्ययन की धारणा हो आयी।
सोचा कि जंगल, पहाड़ों की खाक खूब ही छानी योगी तपस्वी का भी पता लगाया।
भटके भी काफी। मगर हाथ कुछ न आया। भगवान तो अभी दूर-के-दूर ही रहे। इसलिए
चलो शास्त्रों का मन्थन करें और देखें उनमें क्या हैं। हृषीकेश (कैलाश)
वाले वृद्ध महात्मा की बात भी याद हो आयी। महन्त जी और उनके चेले ने भी कहा
कि पढ़िये। फिर तो विचार दृढ़ हो गया। उधर महन्त जी के चेले का जो चेला था
श्री रामचन्द्र गिरि, उसे भी लोग काशी भेज कर पढ़ाना चाहते थे। इसलिए हम
दोनों साथ ही जाये यह तय पाया। वह तो धनी महन्त का चेला था। इसलिए उसे
मासिक व्यय के लिए पैसे मिलने का तय पाया। मगर मुझे तो पैसे की परवाह थी
नहीं और पैसे बराबर देता भी कोई क्यों? काशी में तो विरागी साधुओं के
खान-पान का प्रबन्ध था ही। फिर और चाहिए ही क्या? फलत: हम दोनों ही काशी आ
गये। जहाँ तक याद हैं, सन 1909 ई. के आरम्भ की ही बात हैं। रामचन्द्र गिरि
तो कर्णघण्टा मठ में ठहरा और मैं उसी अपारनाथ मठ में। इस प्रकार
संन्यासावस्था का प्रथम खण्ड समाप्त कर हमने दूसरे खण्ड में पदार्पण किया।
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