(1)सामाजिक कामों में क्यों पड़ा
बलिया की भूमिहार ब्राह्मण सभा का जो प्रभाव मेरे दिल पर हुआ उसमें दूसरी
बातों ने भी सहायता की। फलत: एकमात्र ब्रह्मज्ञान में मस्त रहने तथा अपनी
ही मुक्ति की परवाह करने की अपेक्षा यह बात दिल में उठने लगी कि कुछ
सामाजिक सेवा करना और इस प्रकार गिरे लोगों को उठाना चाहिए। यह बात यहाँ
जान लेना चाहिए कि बहुत सी सभाओं में अनेक मौकों पर, धार्मिक व्याख्यान
देने का मौका पहले ही पड़ चुका था। एक बार काशी में पढ़ने के समय ही भारत
धर्म महामण्डल के धार्मिक समारोह में मैंने किसी धार्मिक विषय पर अच्छा
उपदेश दिया। उससे लोग आकृष्ट हुए। इसीलिए थोड़े दिनों बाद ही मुलतान में
सनातन धर्म सभा के अधिवेशन में मैं आमन्त्रित हुआ। इस प्रकार पहली बार उधर
जाने का मौका मिला। इसी प्रकार समस्तीपुर, दरभंगा आदि में न जानें कितनी
बार ऐसे उपदेश दे चुका था।
लेकिन सामाजिक बातों की तरफ मेरी प्रवृत्ति न थी। धर्म तो मेरा विषय होना
ही चाहिए। संन्यासी जो ठहरा। मगर सामाजिक (Social) काम तो स्थूल दृष्टि से
धर्म के भीतर आता नहीं। इसलिए उस ओर सहसा प्रवृत्ति न हो सकी थी। असल में
तब तक उसका महत्त्व और उसकी असलियत मैं हृदयंगम कर ही न सका था। पोथियों,
किताबों और व्याख्यानों से यह बात ठीक-ठीक समझी जाती भी नहीं। यह तो घटनाओं
का ही काम हैं जो मानस-पटल पर उसकी महत्ता, उसकी अहमियत, उसकी कर्त्तव्यता
को अंकित कर दें और बलिया में यही बात हुई। बेशक भूमिहार ब्राह्मण समाज में
ब्राह्मणोचित अभिमान के अभाव, तदनुकूल कर्त्तव्यों और आचरणों की अत्यन्त
कमी और अन्यान्य लोगों के द्वारा इसीलिए समस्त समाज के बारे में अत्यन्त
कुत्सित और निराधार कल्पनाओं ने उस समाज के कितने ही सच्चे सेवकों को
विचलित और ममराहत कर दिया था। अत: उनके भीतर एक तड़प थी कि कैसे इसका समुचित
प्रतीकार किया जाये। वे लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार यह काम करते भी
थे। मगर था यह उनके लिए समुद्रमन्थन या हिमालय-आरोहण के समान ही। इसीलिए
पार नहीं पा सकते थे। ऐसी धारणा मुझे हुई। मैंने यह भी अनुभव किया कि स्वयं
उन लोगों में आत्मविश्वास न था। उनका मन दुविधो में आगा-पीछा करता था। यह
सबसे बड़ी कमी उनमें थी। इसीलिए सफलता में बाधा हो रही थी। बलिया में तो यही
चीज थी जिसने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया।
आगे की बातों से भी मेरी यह धारणा और दृढ़ हो गई। हाँ, उनमें एक ही आदमी के
बारे में मुझे पता चला कि अपार आत्मविश्वास और दृढ़संकल्प के साथ वे काम में
लगे थे। लेकिन मेरे क्षेत्र में आने के पूर्व ही वे स्वर्गीय हो चुके थे।
वे थे मुंगेर जिले के बेगूसराय इलाके के दहियाग्राम के पं. भाईलाल जी
परमहंस। वे थे तो मैथिल ब्राह्मण। मगर भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह
सम्बन्ध के कारण ईधर इनसे भी सम्बद्ध थे और उधर मैथिलों से भी। इसीलिए उन
लोगों के बारे में 'दोगामियाँ' शब्द प्रचलित हो गया था। उसका अर्थ हैं
दोनों-भूमिहारों तथा मैथिलों से सम्बन्ध रखने वाले। इसीलिए भूमिहार
ब्राह्मणों का पतन और इनकी संस्कार हीनता उन्हें बुरी तरह अखरती थी। इसे ही
दूर करने में वे पड़े भी थे। मगर पढ़े-लिखे कम थे। इसीलिए पूर्ण सफलता न मिल
सकी। आज जब सोचता हूँ तो हँसी आती हैं। स्वामी पूर्णानन्द जी और दूसरे लोग
मुझसे बार-बार यही कहा करते थे कि भूमिहार-ब्राह्मणों के सम्बन्ध में
हजार-पाँच सौ श्लोकों की रचना करके एक पुस्तक बना दीजिये और परशुराम जी की
कहानी के आधार पर उनका इस प्रकार का एक इतिहास लिख दीजिये। वह समय पाकर
स्वयमेव प्रामाणिक हो जायेगा। उनका ख्याल था कि संस्कृत की पद्य रचना होने
से ही वह एक प्रामाणिक चीज हो जायेगी और लोग उसे मानने को विवश होंगे।
संस्कृत का कुछ ऐसा ही महत्त्व हिन्दू समाज और विशेषत: सनातनियों में हैं।
'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' के अनुसार उनके लिए यही बहुत था-इसे ही वे
पर्याप्त समझते थे। असल में उन्हें स्वयं विश्वास न था कि सचमुच भूमिहार
लोग कान्यकुब्ज, मैथिल आदि से किसी भी बात में हीन या छोटे नहीं हैं। उनके
संस्कार में ही छोटापन समाया था। इसीलिए बहुत दूर जा नहीं सकते थे। मेरे
जानते यह सबसे बड़ी खामी उनमें थी। सुधारक में इस प्रकार की न्यूनता उसे कभी
सफल होने नहीं देती। लेकिन मेरा तो बचपन से संस्कार ही कुछ ऐसा था कि मैं
दूसरी बात सोच ही न सकता था। मुझमें ब्राह्मणता और उसके लिए उचित अभिमान ये
दोनों ही कूट-कूट कर भरे थे। ये बातें स्वभाव और आचरण में समाई थीं। मेरे
भीतर से कोई आवाज-सी देता था कि मेरे पूर्वज इतने मूर्ख न थे कि
बुन्देलखण्ड के अपने जुझौतिया भाईयों को छोड़ भूमिहारों से मिले। यदि उनने
अपनी जैसी ब्राह्मणता और योग्यता इनमें न पाई होती। मेरा दिल कहता था कि यह
हो नहीं सकता। इसलिए मेरा अटल विश्वास था कि ये भूमिहार वैसे ही ब्राह्मण
हैं, जैसे कि मैथिल, कान्यकुब्ज आदि। इसीलिए काल्पनिक श्लोकों के आधार पर
इनके इतिहास लिखने की बात मेरे दिल में समाती ही न थी, चाहे कोई हजार कहे।
इतना ही नहीं, मुझे यह बात सुनकर अपार क्षोभ और दर्द होता था। मगर कहता
किससे? जिन्हें स्वयमेव इस बात की धारणा न हो उनसे ये बातें कहना तो व्यर्थ
की लड़ाई मोल लेना हैं। यह भी ठीक हैं कि मेरे दिल की यह स्वाभाविक पुकार
मात्र थी। इसकी पुष्टि में प्रमाण तो कोई था नहीं। फिर, कहता क्या? वे लोग
तो बात ही काट देते। इसे ही कहा हैं कि 'भैंस के आगे बीन बजाये, अरसिकेषु
रसस्य निवेदनम्'। इसलिए दिल मसोस कर रह जाता और 'अच्छा' कहके उन लोगों को
खुश करता। लेकिन भीतर ही भीतर संकल्प कर लिया कि एक ओर शास्त्र-पुराणों को
ढूँढ़कर और दूसरी ओर सर्वत्र घूम कर इसके रहस्य का पता लगाना ही होगा। हाँ,
अगर अभाग्यवश इस बात की पुष्टि न हुई और मेरे दिल की पुकार गलत सिद्ध हुई
तो फिर देखा जायेगा। तब कोई पुस्तक उस प्रकार की शायद लिखूँ जैसी वे लोग
कहते हैं। बनावटी बात लिखना मेरे स्वभाव के विपरीत बात भी तो थी। पर, यदि
पूर्वजों की भूल ही सिद्ध हो जाती तो मजबूरी थी। इसलिए पूर्ण विश्वास के
साथ मैं अन्वेषण कार्य में प्रवृत्त हुआ। यह काम यों तो पोथी-पुराणों में
पहले भी होता रहा। लेकिन सन 1915 ई. में और खास कर उसके उत्तरार्धा में,
जोर-शोर से हुआ। अनेक प्रदेशों में घूम कर जाँच-पड़ताल मैंने स्वयं की।
दूसरों से भी करवाई। फल यह हुआ कि मेरी धारणा और अन्तरात्मा की पुकार
सोलहों आने सही साबित हुई। यह बात आगे लिखी हैं जहाँ भूमिहार ब्राह्मण
परिचय और 'ब्रह्मर्षिवंश' विस्तर की बात हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(2)समाज सेवा-आक्षेपों के उत्तर
पहले तो मेरी धारणा दूसरी ही थी। जहाँ तक मुक्ति या ज्ञान का प्रश्न था।
मैं उन्हीं स्वार्थियों में एक था जो एकान्त में बस कर जिन्दगी गुजार देते
और ध्यान धारणा ही जिनके जीवन का काम हैं। शुरू में तो इसी बात को लेकर घर
छोड़ा था और जंगलों की खाक छानता फिरा-कहाँ-कहाँ नहीं भटका। लेकिन सिर्फ यह
विचार ही न था! पुस्तकों और ग्रन्थों के पढ़ने के बाद भी यह धारणा बदलती न
थी। प्रत्युत दृढ़ होती जाती थी। असल में जिस दृढ़ धारणा से लोग पोथियाँ पढ़ते
हैं वही धारणा दृढ़ होती हैं। हाँ, यदि पहले से कोई धारणा न हो, तब बात
दूसरी हैं। लेकिन मैं तो इसी विचार से पढ़ने लगा था। फिर दूसरी बात होती
कैसे? पीछे इस धारणा को ताक पर रख के जब मैंने ग्रन्थों का मंथन किया तो
बात कुछ और ही निकली। यह बात गीता को लेकर आगे लिखी जायेगी।
हाँ, तो जब मैं ईधर की घटनाओं में पड़ा, फलत: मेरे भीतर महाभारत मचा, तो बात
और ही हो गई। श्रीमद्भागवत के कुछ वचन मिले जिन्होंने मेरी आँख का पर्दा
खोल दिया। नरसिंह और प्रह्लाद के प्रसंग में एक श्लोक भागवत में आता हैं
जिसमें भक्तप्रवर-प्रह्लाद ने नरसिंह भगवान को उत्तर देते हुए स्पष्ट कर
दिया हैं कि जनता की सेवा ही भगवान की सेवा और आराधना हैं। वह कहते हैं-
''प्रायेण देवमुनय: स्वविमुक्तिकामा
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:।
नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको
नान्यत्त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये।''
इसका सारांश यही हैं कि ऋषि-मुनि लोग तो स्वार्थी बन के अपनी ही मुक्ति के
लिए एकान्तवास करते हैं। उन्हें औरों की फिक्र नहीं होती। लेकिन मैं हर्ग़िज
ऐसा नहीं कर सकता। सभी दुखियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए।
मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा, जीऊँगा। इसी प्रकार राजा रहूगण और
जडभरत के संवाद में भी यह बात मिलती हैं कि अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी
से पालन करना ही भगवान की पूजा हैं 'स्वधर्म आराधन-मच्युतस्य'। गीता का तो
पूछना ही नहीं। उसमें तो बार-बार इस बात की घोषणा की गई हैं कि भगवान की
आराधना, ध्यान, समाधि या पूजा-पाठ में नहीं हैं, किन्तु दिल लगा कर अपने
कर्त्तव्यों के पालन करने में ही हैं। गीता ने तो यहाँ तक कह दिया कि
''चाहे जो कुछ भी करो, खाओ, पीओ, दान दो, यज्ञ करो, तप करो, सभी भगवान की
पूजा हो जाती हैं, यदि उसी भावना से आसक्ति छोड़ कर ये काम किये जाये।''
''यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत।
यत्तापस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्'' (9/27)
इसलिए मेरा विचार अब बदला और धार्मिक तथा सामाजिक कामों में समय लगाने का
मैंने निश्चय कर लिया, सन 1915 ई. बीतते-न-बीतते ही। इस प्रकार देखा जाये
तो मैं कहाँ से कहाँ जा निकला। योगी की धुन, प्राणायाम और समाधि की चाट को
छोड़ परिस्थितिवश शास्त्रमन्थन में लगा कि ब्रह्मज्ञान में मस्त रहूँगा।
लेकिन शास्त्रमन्थन समाप्त होते न होते जनसेवा की ओर जा झुका। अभी आगे बहुत
कुछ होना था। यह तो श्रीगणेशमात्र था-ईब्तदाये इश्क मात्र था। मेरा यह भी
स्वभाव हैं कि जिस काम में पड़ता हूँ उसमें सारी शक्ति लगा कर पड़ता हूँ।
''आधा तीतर आधा बटेर'' मुझे पसन्द नहीं।
यह भी जान लेना चाहिए कि यह जो जनसेवा की बात मेरे दिल में उठी वह पहले पहल
जनसाधारण की सेवा न थी। मैंने तो यही सोचा कि चलो एक भूमिहार ब्राह्मण समाज
का उद्धार कर दो। फिर अपने पठन-पाठन और ब्रह्मज्ञान का मजा उठायेंगे। यह तो
एक प्रकार का मनफेर (diversion) मात्र था। लेकिन किसे मालूम था कि यह मनफेर
स्थायी हो जायेगा और शास्त्रभ्यास का मजा फिर न मिल सकेगा? 'यह इब्तदाये
इश्क हैं' यह बात किसे मालूम थी? असल में सिर्फ सेवाभाव और कर्त्तव्य
बुद्धि से ही इस काम में परिस्थितिवश खिंच गया, न कि किसी और मतलब से।
इसीलिए स्वभावत: आगे बढ़ना ही पड़ा। यदि रागद्वेष किसी तुच्छस्वार्थ या नीच
मनोवृत्ति से इसमें पड़ा होता तो शायद ही आगे बढ़ पाता, ऐसी मेरी दृढ़ धारणा
हैं।
बहुतों का यह कहना हैं कि संन्यासी होकर जाति-पाँति के काम में पड़ना ठीक न
था, मेरी समझ में नहीं आया। उनके इस कथन के लिए गुंजाईश रही कहाँ जाती हैं?
जिन घटनाओं का मैंने उल्लेख किया हैं उन पर मेरा वश ही क्या था? वह तो
आकस्मिक थी और उन्होंने मुझे धर दबाया। क्या पहले से कोई तैयारी करके मैं
इस काम में पड़ा? यदि कोई ऐसा समझता हो तो वह भूलता हैं। मैंने तो दिखलाया
हैं कि कहाँ से कहाँ खिंच गया। लेकिन कहा जा सकता हैं कि यों ही आकस्मिक
तौर पर किसी बुरे काम में खिंच जाने से मनुष्य निर्दोष नहीं हो सकता हैं।
बात तो सही हैं। लेकिन इसका उत्तर भी दे ही चुका हूँ।
मैं तो किसी और मतलब से उसमें पड़ा न था। एक बहुत बड़े समाज को-एक उच्च और
कुलीन ब्राह्मण समाज को-मैंने औरों से पददलित पाया और देखा कि वह तिलमिला
रहा हैं, अपमानित हो रहा हैं। मगर कुछ कर नहीं पाता। अपमानित होता हैं बुरी
तरह। मगर उसका प्रतिकार नहीं कर पाता। मेरा दिल तड़प उठा और मैंने उसे
उठाया। उठाने की कोशिश की और अपमानित करने वालों को ठीक-ठीक उत्तर दे दिया,
उनके होश ठिकाने कर दिये। इसमें क्या अपराध हुआ? क्या बुराई हुई? आखिर सारे
मुल्क को भी तो ऊँचा उठाना ही हैं। आजादी की लड़ाई का आखिर मतलब ही क्या,
अगर मुल्क को उठाना नहीं हैं? जिसका हक छीना जाये या छीना गया हो उसे तैयार
करके उसका हक उसे वापस दिलाना यही तो मेरे जानते आजादी की लड़ाई और असली
समाज सेवा का रहस्य हैं।
समष्टि रूप में समस्त समाज को ऊँचा उठाने को ही मैं समाज-सेवा और सामाजिक
कार्य मानता हूँ और यही मैंने शुरू में किया। इसीलिए तो पीछे छोटे से समाज
को छोड़ समस्त देश के काम में खिंच गया या कूद पड़ा। हाँ, यदि उस समाज सेवा
में कोई राजनीतिक दाँवपेंच या औरों के दबाने की मनोवृत्ति रहती तो वह अवश्य
ही निन्दित और बुरी होती। मगर वह बात मैंने सपने में भी न सोची।
सबसे बड़ी बात तो यह हैं कि उस समय राजनीति का ककहरा भी मैं न जानता था।
दूसरों के दबाने का प्रश्न तो सामने था नहीं। गिरे को उठाने से ही फुर्सत न
थी। वही एक महान समस्या थी। इतना ही नहीं। सबसे पहली पुस्तक जो इस सिलसिले
में मैंने लिखी उस भूमिहार ब्राह्मण परिचय को आद्योपान्त अच्छी तरह पढ़कर
कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति कह सकता हैं कि क्या (आया) किसी और दल या
व्यक्तियों के दबाने की गन्ध भी उसमें पाई जाती हैं। प्रत्युत इससे विपरीत
बात की ही सूचना उसमें स्थान-स्थान पर दी गई हैं। पीछे चल कर भी दबाने का
प्रश्न कभी न उठा। राजनीति की बात तो शुरू से अन्त तक मेरे दिल में कभी आयी
भी नहीं कि इसके द्वारा उस राजनीति का काम निकालने की सोचता।
(शीर्ष पर वापस)
(3)अनुसंधान और पुस्तकें
हाँ, तो मैंने विशेष रूप से अनुसंधान शुरू किया सन 1915 के उत्तरार्ध्द
में। मेरी धारणा थी और अब भी वह ज्यों के त्यों बनी हैं कि जो दल जिस समाज
का अंग या भाग होगा उसका उस समाज के साथ विवाह सम्बन्ध और खान-पान कहीं न
कहीं अवश्य होता होगा। नहीं तो फिर प्रमाण ही क्या हो सकता हैं कि उसका अंग
वह हैं? या उसी के अन्तर्गत हैं? ब्राह्मण, क्षत्रियादि समाज के अनेक भाग
या टुकड़े हैं और वह आपस में यदि कहीं न कहीं विवाहादि के द्वारा सम्बद्ध
नहीं हों तो फिर उन बृहत समाजों के अन्तर्गत वे भाग या टुकड़े क्योंकर माने
जा सकते हैं? नहीं तो फिर औरों के ही क्यों नहीं? आखिर कोई आधार तो चाहिए
जिसके बल पर निश्चय किया जा सके।
इसलिए मैंने तय किया कि जहाँ-तहाँ भूमिहारों, मैथिलों, सर्यूपारियों,
कान्यकुब्जों आदि से सामूहिक रूप से प्रादेशिक सम्बन्ध हैं अर्थात जिन
प्रदेशों में भूमिहारों के साथ ही ये लोग अधिकांश रूप में पाये जाते हैं,
वहीं जाकर इसकी पूरी जाँच होनी चाहिए। मैं स्वयमेव दरभंगा, भागलपुर, मुंगेर
आदि जिलों में गया। मेरे साथ स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती भी थे। मैं आनन्द
से लोटपोट हो गया जब देख सका कि एक-दो नहीं, हजारों विवाह सम्बन्ध इस
प्रकार के हैं। यह नहीं कि साधारण मैथिलों तथा भूमिहारों के ही ये सम्बन्ध
हैं। कुलीन से कुलीन और धनी से धनी के भी सम्बन्ध साक्षात और परम्परा से
पाये गये।
यह ठीक हैं कि न जानें क्यों इन सम्बन्धों के छिपाने की कोशिश की जाती थी।
इसीलिए जानने में थोड़ी परेशानी भी हुई। मगर मैंने खूब जाँच-पड़ताल करके सबको
ऊपर किया। यहाँ तक कि मैथिल-महासभा का यह प्रस्ताव भी किसी प्रकार मुझे
मिला, जिसमें लिखा हैं कि ये सम्बन्ध रोके जाये। इससे और भी इस बात की
पुष्टि हुई कि ये सम्बन्ध होते हैं। नहीं तो रोकने की कोशिश क्यों? इस
सम्बन्ध में महाराजा दरभंगा से लेकर श्रोत्रिय योग्य और दूसरी श्रेणियों के
मैथिल भी गुँथे पाये गये। इतना ही नहीं। रघुनाथपुर पतौर (दरभंगा) में ऐसे
बीसियों पत्र पाये गये जिनमें वहाँ के भूमिहार ब्राह्मणों को महाराजा
दरभंगा और उनके गोतिया लोगों ने (नमस्कार) लिखे थे। यह नमस्कार की प्रणाली
ब्राह्मणों में ही आपस में प्रचलित थी और अब भी प्राय: पायी जाती हैं।
बस, फिर क्या था, मैंने स्वामी पूर्णानन्द जी को इलाहाबाद, फतहपुर और
गोरखपुर की तरफ भेजा, ताकि कान्यकुब्जों एवं सर्यूपारीणों के इलाकों में भी
जाकर पता लगायें कि ये सम्बन्ध होते हैं या नहीं। उनने परिश्रम करके भ्रमण
किया और पता लगाकर कई सौ सम्बन्ध नाम-बनाम पूरे पते के साथ लिख लिया, जैसा
कि मिथिला में मैथिलों के सम्बन्ध के बारे में किया गया था। इस प्रकार,
मैथिल, कान्यकुब्ज और सर्यूपारी ब्राह्मणों के साथ भूमिहार ब्राह्मणों के
विवाह सम्बन्ध की लम्बी सूची तैयार हो जाने पर हमारा काम बन गया। हमने इस
बात की भी कोशिश की कि नाम और ग्रामादि के पूरे पते के साथ इस बात की भी
जानकारी हो जाये कि दोनों दलों के लड़कों और लड़कियों के परस्पर विवाह होते
हैं। न कि एक दल की सिर्फ लड़की और दूसरे के सिर्फ लड़के की ही शादी होती
हैं। क्योंकि वरपक्ष की अपेक्षा कन्यापक्ष कुछ हीन माना जाता हैं ऐसी
व्यापक धारणा हैं। ऐसा भी मानते हैं कि लड़कियाँ तो अपने से छोटों की भी
लेते हैं मगर उन्हें देते नहीं हैं। लेकिन जहाँ लेना और देना दोनों ही हो
वहाँ यह बात नहीं हो सकती।
इस अन्वेषण के साथ ही हमने सभी संस्कृत ग्रन्थों की छानबीन की। हिन्दी या
अंग्रेजी के भी काफी ग्रन्थ पढ़ डाले। जहाँ-जहाँ भूमिहारों पर आक्षेप पाये
गये उन सबों को पढ़ा और संग्रह किया।
इसके बाद 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' नामक पुस्तक में न सिर्फ आक्षेपों का
उत्तर ही दिया। वरन सभी शास्त्रीय और दूसरे प्रमाणों को विस्तार के साथ
लिखने के साथ ही विवाह सम्बन्धों की लम्बी सूची प्रकाशित कर दी। नमस्कार
प्रणाम के पूर्वोक्त पत्रों को भी ज्यों का त्यों छाप दिया। इस प्रकार यह
पहली पुस्तक मैंने लिखी। वह प्राय: चार सौ पृष्ठों की बनी। उसकी समालोचना
में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ''सरस्वती में लिखा कि पुस्तक में कोई
बात छूटने न पाई हैं। ठीक ही हैं। अलग-अलग प्रकरणों में सभी बातों का
विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन हैं।''
यह पुस्तक सन 1916 ई. में प्रकाशित हुई। बेशक उसके लिखी जाने और प्रकाशित
होने के पूर्व अनेक सभाओं में मैंने ये बातें लोगों को सुनाईं। इससे कुछ
लोगों को आश्चर्य, कुछ को खुशी और दबाने वालों को तथा अपनी ब्राह्मणता की
डींग मारने के साथ ही भूमिहारों को नीच समझने वालों में बेचैनी फैली। उनमें
एक प्रकार का कुहराम-सा मच गया। यहाँ तक कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि
यदि सचमुच ही ब्राह्मण हैं तो अपनी पुरोहिती स्वयं क्यों नहीं करते और दान
क्यों नहीं लेते? मैंने इस बात को लक्ष्य करके उस पुस्तक में दो-तीन
स्थानों पर पहले ही लिख दिया था कि ''दान लेना और पुरोहिती करना ब्राह्मणों
के लिए कोई जरूरी नहीं हैं। परन्तु, यदि विरोधी लोग बार-बार यह बात कहते
रहेंगे और पुरोहिती के अभाव में ही भूमिहारों को अब्राह्मण सिद्ध करने की
कुचेष्टा से बाज न आयेंगे, तो हारकर भूमिहार ब्राह्मणों को भी सामूहिक रूप
से पुरोहिती को अपनाना ही पड़ेगा।'' मैंने तो यह चेतावनी की थी। ताकि विरोधी
लोग इस वाहियात हरकत से बाज आयें। लेकिन वे कब मानने वाले थे? उनकी यह दलील
तो और भी तेज होती गई।
इसलिए मैंने सोचा कि इसका भी समुचित उत्तर कार्य रूप में ही देना चाहिए।
इसी दृष्टि से मैंने एक तो यह पता लगाना शुरू किया कि आया भूमिहार ब्राह्मण
भी कहीं पुरोहिती करते हैं या नहीं। क्योंकि यह भी मेरी धारणा थी कि कहीं न
कहीं जरूर दान लेते होंगे और पुरोहिती करते होंगे। आखिर ब्राह्मणों का ही
तो यह धर्म हैं और अगर सोलहों आने इसे छोड़ ही दिया तो ब्राह्मणता कैसी?
अनुसंधान करने पर पता लगा कि प्रयाग की त्रिवेणी के सभी पण्डे भूमिहार ही
तो हैं। उनका सम्बन्ध भूमिहारों से ही तो हैं। साथ ही, हजारीबाग जिले के
चतरा सबडिवीजन के इटखोरी और चौपारन थानों में ऐसे भूमिहार ब्राह्मण मिले जो
माहुरी वैश्यों तथा औरों की पुरोहिती बार-बार करते आये हैं। यही इनका पेशा
हैं। गया के देव के सूर्यमन्दिर के पुजारी भूमिहार ब्राह्मण ही मिले। इसी
प्रकार और जगह भी कुछ न कुछ यह बात किसी न किसी रूप में पाई गई।
बस, मैंने दूसरी पुस्तिका 'ब्राह्मण समाज की स्थिति' लिखकर यह बात सिद्ध की
और साफ-साफ भूमिहारों को कहा कि आत्मसम्मान की पुकार हैं कि पुरोहिती कर्म
को अपनायें। इससे चिढ़कर अनेक स्थानों पर, पुरोहितों ने उनके विवाह, श्राद्ध
आदि कराने बन्द कर दिये और कहा कि यदि ब्राह्मण हो तो करवा लो या कर लो।
इससे मजबूरी भी हुई। फलत: भूमिहारों ने भी धीरे-धीरे पौरोहित्य को अपनाना
शुरू किया। मैंने सह्त्रो सभाएँ करके इस पर खूब जोर दिया।
एक तो इनमें संस्कृत पढ़ने वाले प्राय: थे ही नहीं। दूसरे इन्हें कोई यह
कर्मकाण्ड बताने के लिए रवादार भी न था। यहाँ तक कि संस्कृत पढ़ाना भी बन्द
कर दिया गया। तीसरे स्वयं भूमिहार-ब्राह्मणों में जो बाबू या सीधे अनपढ़ थे
वह भी इसका विरोध करते थे। इसलिए विरोधियों का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए
मैंने 'झूठा भय और मिथ्या अभिमान' नामक पुस्तिका लिखी। साथ ही, कर्मकाण्ड
और ज्योतिष की बारह सौ पृष्ठों की पुस्तक 'कर्मकलाप' हिन्दी में लिख दी।
सिर्फ मन्त्र संस्कृत में हैं। सारी बातें बहुत सफाई के साथ लिखी गई हैं।
इसे ध्यान से पढ़कर कोई भी कर्मकाण्डी और ज्योतिषी बन सकता हैं। मैंने
संस्कृत की अनेक पाठशालाएँ खुलवाईं और छात्रों को वृत्ति देकर संस्कृत
पढ़ाने का भी प्रबन्ध किया। यह काम आठ-दस वर्षों तक कमबेश चलता रहा। इससे
विरोधियों को पता चल गया कि किससे पाला पड़ा हैं।
इसी मध्य एक बात और हुई। भूमिहार ब्राह्मण परिचय की प्रथमावृत्ति की डेढ़
हजार प्रतियाँ खप गईं और द्वितीयावृत्ति की जरूरत हुई, तो मैंने सोचा कि
भूमिहारों की ही तरह त्यागी, (तगे) और महियाल आदि भी हैं जो पश्चिमीय
युक्तप्रान्त और पंजाब में पाये जाते हैं। अत: उनके सम्बन्ध गौड़ों और
सारस्वतों के साथ खोज कर इस बार इस पुस्तक में छाप दिये जाये। ऐसा ही किया
भी गया। सैकड़ों अच्छे-अच्छे विवाह सम्बन्ध ढूँढ़ निकाले गये। तब सोचा कि
पुराना नाम अब ठीक नहीं। इसलिए उस पुस्तक का नाम बदल कर 'बह्मर्षिवंश
विस्तर' रख दिया। एक बात और थी। असल में उस पुस्तक में सभी ब्राह्मणों का
ऐतिहासिक विवेचन होने के कारण यही नाम पहले भी चाहता था। मगर कार्य कारणवश
न हो सका था। इसलिए इस बार नाम बदलना अनिवार्य था।
(शीर्ष पर वापस)
(4)राजनीति में प्रवेश
'परिचय' लिखने के बाद, जहाँ तक मुझे याद हैं, 1916 के अन्त या 1917 के शुरू
में गाजीपुर जिले के करीमुद्दीनपुर थाने के विश्वम्भरपुर ग्राम में चला
गया। दो-ढाई वर्ष तक वहीं रह के प्रचार करता था। काम पड़ने पर बाहर जाता।
फिर लौट आता। वहाँ के जमींदार लोगों के आग्रह से ही वहाँ ठहरा था। उसी
ब्राह्मणत्व वाले आन्दोलन के सिलसिले में उन लोगों के गुरु महाराज लोग, जो
प्राय: निरक्षर ही थे, उन लोगों से बिगड़ गये थे और असहयोग कर लिया था। धनी
लोग तो डरपोक होते ही हैं। कहीं गुरु लोगों के कोप से हमारा नाश न हो जाये
यह खतरा उन्हें था। इसलिए निजरक्षार्थ मुझे बहुत आग्रह से रखा। मैंने भी
गुरुजी लोगों को अच्छा पाठ पढ़ा दिया। वे लोग भी ठण्डे हो गये। मैंने पीछे
अनुभव किया कि जितना समय मैंने वहाँ लगाया उतने में तो कई गुना काम हो सकता
था। जनसाधारण में कोई भी काम कीजिये तो उसका परिणाम पर्याप्त मात्रा में
होता हैं। काम जल्दी ही होता भी हैं। स्थायी भी होता हैं। मगर धनियों के
यहाँ तो विपरीत बात हैं। हुआ भी यही। तीन वर्षों के बाद आखिर वहाँ से हटा।
कब तक रहता? पीछे पता चला कि वहाँ का सब किया-कराया मिट्टी में मिल गया और
जो कुछ सिखाया था खत्म हो गया।
यह ठीक हैं कि धनियों के यहाँ रहने से कुछ आरामतलबी आ गई।
माने गाँव में उस विरक्त साधु ने जो कहा था वह मैंने अनुभव किया। पहले तो
दिन-रात में एक ही बार भोजन करता था। पर, वहाँ पर दो बार करने लगा। फलत:
रोगी भी कुछ हो गया। मुझे डर हो गया कि कहीं पराधीनता न हो जाये। यह भी
ख्याल हुआ कि ये लोग पीछे निरादर भी करने लगेंगे, जब मुझे अपने अधीनस्थ देख
लेंगे। मैं हवा का रुख देख रहा था। सबसे बड़ी चीज यह थी कि उनके लम्बे
परिवार में पठन-पाठन का प्राय: अभाव था। हाँ, वंश वृद्धि की ज्यादा चिन्ता
थी जरूर। मैं जीवन-भर पढ़ने-लिखने में मस्त रहने वाला यह बात बर्दाश्त कैसे
करता? पढ़ने की प्रवृत्ति पैदा करने की कोशिश मैंने की। मगर विफल रहा। अन्त
में इन सब बातों का फल हुआ कि मैं वहाँ से हट आया। मैंने विश्वम्भरपुर के
पास ही भरौली में बाबू गोकुल राय को बात का बड़ा पक्का और जबां मर्द पाया।
बक्सर के पास गंगा के उत्तर कोटवा नारायणपुर में मैं पहले भी प्राय: जाया
करता था। नारायणपुर सदा से संन्यासियों का सेवक रहा हैं। वहाँ गाँव से बाहर
एक कुटिया बनी हैं। उसमें आकर कभी-कभी साधुगण ठहरा करते हैं। श्री आदित्य
राय बड़े ही संन्यासी-सेवक थे। उनके भाई गंगा राय और उनके परिवार के लोग भी
ऐसे ही हैं। गाँव की ही प्राय: यह बात हैं। इसलिए सन 1918 ई. में वहाँ जो
ठहरा और वर्षों पड़ा रहा। वहाँ कुछ पठन-पाठन का भी अच्छा प्रचार हैं।
वेदान्त आदि का विचार भी होता रहता हैं। वहीं रह कर मैंने राजनीतिक बातों
की कुछ जानकारी की। समाचार-पत्र पढ़ा करता था। हाँ, पटना के कुछ मित्रों और
भक्तों ने आग्रह किया कि आप का अंग्रेजी यों भुला देना ठीक नहीं। यदि कुछ
सामाजिक या दूसरे काम करने हैं तो अंग्रेजी जरूरी हैं। उनने मुझसे
प्रतिज्ञा करायी कि अंग्रेजी के समाचार-पत्र भेजने पर मैं जरूर पढ़ायेगा।
इसीलिए वे लोग भेजते थे और मैं पढ़ता था। रौलट कानून सम्बन्धी आन्दोलन की
बातें मैंने वहीं पढ़ीं और पंजाब-मार्शल लाँ काण्ड का भी रोमांचकारी वर्णन
पढ़ा। उसके बाद कांग्रेस का जो अधिवेशन अमृतसर में हुआ उसकी सारी बातें
पढ़ीं। इस प्रकार कि मुझे राजनीतिक मामलों की जानकारी न थी। फिर भी घटनाचक्र
के चलते उसका संसर्ग होने लगा।
मुझे खूब याद हैं कि नारायणपुर में ही हिन्दी समाचार-पत्र 'प्रताप' पढ़ता
था। उसी में स्वर्गीय लोकमान्य तिलक की मृत्यु का समाचार पढ़ा। पत्र में
उनका एक चित्र देकर एक कोने पर उनकी जन्मतिथि और दूसरे पर मरणतिथि लिखी थी।
उनकी संक्षिप्त जीवनी भी लिखी थी। अन्त में यह कविता थी।
'मुद्दतें काट दीं असीरी में, था जवानी का रंग पीरी में।
अब कहाँ मुल्क का फिदाई हाय! मौत उस मौत को न आयी हाय।'
उनकी मौत तो 1919 के 31 जुलाई को आधी रात के बाद हुई। 1 अगस्त को ख़िलाफत
काँन्फ्रेंस की तरफ से असहयोग दिवस मनाया जाने को था। गांधीजी उसके पक्ष
में थे। मालवीय जी आदि उसका विरोध करते थे। वे कहते थे कि बिना कांग्रेस के
निर्णय के हमें कुछ नहीं करना चाहिए, मुल्क की वही सबसे बड़ी संस्था हैं।
लेकिन गांधीजी का कहना था कि कांग्रेस को तो हमीं लोग बनाने-बिगाड़ने वाले
हैं। हमीं तो उसकी राय जैसी चाहेंगे बनायेंगे। फिर आज उसके लिए रुकें
क्यों? हालाँकि, यही गांधीजी अब ठीक उलटी बात कहते फिरते हैं। अब तो
मालवीयजी से भी आगे चले गये हैं।
लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन सन 1920 के
सितम्बर में कलकत्ते में हुआ था। उसका पूरा विवरण भी मैंने पढ़ा था। गांधीजी
के विरोध में श्री विपिनचन्द्रपाल, देशबन्धु और लालाजी भी थे। यह बात उसी
से जानी थी। फिर भी गांधीजी ने असहयोग का प्रस्ताव वहाँ पास ही करा लिया।
हाँ, एक बात और हुई जो छूटती हैं। सन 1916 ई. की बात हैं। समस्तीपुर में एक
सज्जन ने कहा कि कांग्रेस में तिलक और सर फिरोज मेहता के दल में समझौता हो
गया। फलत: अब लखनऊ में जो कांग्रेस होगी वह संयुक्त (united) होगी। संयुक्त
प्रान्त में संयुक्त कांग्रेस ठीक ही हैं। लखनऊ में होने को थी। इसीलिए
किसी ने लखनऊ (Luck now) इस अंग्रेजी शब्द के दो टुकड़े करके सौभाग्य की
सूचना बताई। मुझे खूब याद हैं कि उस कांग्रेस के प्रेसिडेंट श्री मजुमदार
ने जो भाषण दिया था उसे मैंने अच्छी तरह पढ़ा था। अंग्रेजी सरकार की भूलों
का प्रकरण (chapter of mistakes) शीर्षक के नीचे उन्होंने बताया था कि
समय-समय पर परिस्थिति से विवश हो जो विश्वविद्यालय कलकत्ता, बम्बई आदि में
सरकार ने खोले वह उसकी एकेबाद दीगरे, भूलें थीं। क्योंकि उन्हीं के करते
लोगों की आँखें खुलीं और अब आजादी की माँग पेश करने लगे हैं।
इस प्रकार सन 1919 और 1920 में मैं राजनीतिक बातों एवं देश में होने वाली
तन्मूलक घटनाओं का संकलन मानस पटल पर करने लगा था। यों तो 1914 और 1918 के
बीच जो यूरोपीय महासमर हुआ था उसके भी समाचार पढ़ता ही था। पटना से हिन्दी
के पाटलिपुत्र और अंग्रेजी के दैनिक 'एक्सप्रेस' (Express) समाचार-पत्र मैं
ध्यान देकर उन्हीं दिनों पढ़ने लगा था। यह ठीक हैं कि प्रवेश तो राजनीति में
न था। फिर भी ये घटनाएँ मेरे दिल पर असर डालती ही रहीं। मालूम होता था कि
अनजान में ही मैं धीरे-धीरे उस ओर खिंचा जा रहा हूँ।
इस प्रकार सन 1920 के अन्त होने के साथ ही मेरे जीवन-संघर्ष का मध्य-भाग भी
पूरा हो चला। हालाँकि मुझे इसका पता न था। उसी साल के दिसम्बर में उसका
उत्तर भाग शुरू होने वाला था। कोई अपरिचित शक्ति मुझे उस ओर खींच रही थी
इसका पता मुझे क्या था? मेरे जैसा धार्मिक और कट्टर सनातनी आदमी, जिसकी
रगों में खान-पान में छुआछूत कूट-कूट भरा था और जो आज भी एक प्रकार से
मौजूद ही हैं। दिन-रात की हाय-हाय में पड़ेगा, यह कौन सोच सकता था? किसने
सोचा था कि भूलती हुई अंग्रेजी को सँभालने के बहाने भेजे गये अखबार मुझे
राजनीति में ला पटकेंगे? लेकिन भीतर से जो उसमें चाव पैदा हो गया था और
अनायास ही ऐसा लगता था कि गांधीजी की असहयोग की बात ही ठीक हैं, उसका
परिणाम दूसरा होना था भी नहीं। मुल्क के एक छोर से दूसरे तक असन्तोष की लहर
दौड़ पड़े और लोगों को-हिन्दू, मुसलिम आदि सभी धर्म वालों को और सभी
जाति-पाँति वालों को भी बेताब कर दे! फिर भी मैं अछूता रह जाऊँ यह सचमुच
असम्भव-सी बात थी। फलतरु मैं खिंच ही तो गया।
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