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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा

संयुक्त मोर्चा - B
 

आगे बढ़ने के पहले यहाँ कुछ विचार कर लेना जरूरी हैं। हमने कई उदाहरण दिये हैं जो निहायत ही अहम हैं। सबसे पहले 1926 वाले कामिग्टर्न के वक्तव्य को लीजिये। चियांग कैशेक के 'कूदिताह' के एक वर्ष पूर्व ही उसने चीनवालों को आगाह कर दिया था कि आसार अच्छे नहीं हैं, सजग रहो। मालदारों से साथ भी रहे और किसानों तथा मजदूरों की आपसी मैत्री भी कायम रहे, यह होने का नहीं। दोनों में एक ही बात हो सकती हैं। इसीलिए साफ आदेश दिया गया हैं कि यदि आजादी के युद्ध में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व-मजदूरों की लीडरी-कायम रखनी हैं, तो हमें किसानों के जमीन वगैरह छीनने का मौलिक कार्यक्रम अपनाना ही होगा। दूसरा चारा नहीं। इससे तो फिसवी संयुक्त मोर्चे को धता बताना स्पष्ट हो जाता हैं। यहाँ तो राष्ट्रीय सरकार के कायम रखने और साम्राज्यवाद पर विजय पाने के लिए भी किसान क्रान्ति पर जोर देना तथा उसे ही अपनाना जरूरी माना गया हैं। यदि कांग्रेसी मन्त्री लोग भी ऐसा ही करते तो संयुक्त मोर्चे की बात का कुछ मतलब समझ में आता। हालाँकि फिर भी यह खतरा तो रही जाता कि नेतृत्व मध्यमवर्गीयों का ही होगा और वे मौके पर आगे धोखा दे सकेंगे। मगर यहाँ तो उतना भी नहीं किया गया। फिर भी संयुक्त मोर्चे का दम हमारे कुछ क्रान्तिकारी दोस्त बजाते फिरते हैं।

    इस पर जो स्तालिन का भाषण हैं वह कबूल करता हैं कि चीनी कम्युनिस्टों में कुछ लोग ऐसे हैं और क्यूमिनटांग के वामपक्षियों में भी ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि गाँवों में क्रान्ति की हवा फैलाने से जमींदार मालदार रुष्ट हो जायेगे और संयुक्त मोर्चे की कमर टूट जायेगी ! मगर स्तालिन उन्हें मीठे-मीठे शब्दों में फटकारता हुआ कहता हैं कि किसानों में यह बात जितनी ही तेजी और मुस्तैदी से फैलेगी यह मोर्चा उतना ही मजबूत और ताकतवर होगा ! यह उल्टी बात हैं ! मगर असलियत तो यही हैं, बेशक, इससे मालदारों की पाँचों घी में न रहेंगी और यही कारण हैं उनके तोबातिल्ला मचाने का। उन्हें तो अपना उल्लू सीधा करना हैं। इसीलिए मोर्चा टूटने का शोर-शराबा मचा के क्रान्तिकारियों को भी भ्रम में डाल देते हैं। मगर सिर्फ किसानों की ही बात से यह हाय-तोबा नहीं मची हैं। ये भलेमानस तो मजदूरों की हड़तालों और लड़ाईयों को भी इसी नकली संयुक्त मोर्चे की वेदी पर बलिदान कर देना चाहते हैं। अत: उन पर भी करारी डाँट पड़ी हैं। स्तालिन कहता हैं कि यही तो करारा मौका हैं कि जैसे-तैसे लड़-झगड़ के मजदूरों को आराम दिलाया जाये। सारांश यह हैं कि किसानों और मजदूरों दोनों की ही लड़ाईयाँ जारी रख के और समय-समय पर खड़ी करके ही असली संयुक्त मोर्चा बनाया जा सकता हैं, जो क्रान्ति की ओर देश को ले चलेगा। स्तालिन तो यहाँ तक कहता हैं कि यदि हमने यह नहीं किया तो चीनी क्रान्ति का कुछ मतलब हुई नहीं।

    जो अन्तिम उदाहरण हैं उसमें इसी बात पर जोर दिया गया हैं। मगर उसका महत्त्व और भी ज्यादा इसीलिए हैं कि जब चीनी कम्युनिस्टों तक में घबराहट हो गयी कि मजदूरों की हड़तालों से क्यूमिनटांग पार्टी में दलबन्दी हो जायेगी और संयुक्त मोर्चा टूट जायेगा। इसलिए वे बन्द कर दी जाये तो, उन्हें फटकार मिली कि खबरदार, ऐसा नहीं कर सकते हो। इस उदाहरण से यह भी झलकता हैं कि घबरा के वे लोग यह करना चाहते थे कि गाँवों में हम कोमिन्टर्न की आज्ञानुसार काम करें। मगर शहरों में हड़ताल वगैरह रोक दें। इस पर जवाब मिला कि नहीं, ऐसा नहीं होने का। गाँवों में भी यह काम जारी करो सही और मुस्तैदी से करो। मगर शहरों में भी ढीलापन हर्गिज न हो। आमतौर से हड़ताल, प्रदर्शन वगैरह का रोका जाना तो खतरनाक हैं, बुरा हैं। हाँ, छोटे-मोटे और मध्यम दर्जे के कल-कारखानेदारों के खिलाफ यह काम रोका जा सकता हैं, बशर्ते कि वह हमारी लड़ाई में साथ देने को राजी हों। लेकिन यदि उनसे या उनमें जिनसे यह आशा न हो उनके साथ कोई रिआयत नहीं होनी चाहिए। बड़े-बड़े कारखानेवालों और साम्राज्यवादियों के साथ तो किसी भी हालत में भी कोई रिआयत की जा सकती नहीं। उनसे तो लड़ना ही होगा।

    किसानों और मजदूरों की क्रान्तिकारी लड़ाईयों को साथ चलाने की बात कहने और किसानों को इसमें खींचे बिना तथा किसान क्रान्ति को प्रसार दिये बिना राष्ट्रीय आजादी के आन्दोलन का नेतृत्व मजदूरों के हाथ से छिन जाने की बात कहने का भीतरी आशय यह हैं कि जब तक वामपक्ष की सारी शक्तियाँ सम्मिलित न हों, जब तक पहले उन्हीं का संयुक्त मोर्चा न बन जाये और जब तक किसान, मजदूर आदि पीड़ितों का संयुक्त मोर्चा कायम न हो जाये, जिसे वर्कर्स फ्रण्ट कहिये, या शोषितों का फ्रण्ट कहिये, तब तक बाकियों के साथ-पूँजीपतियों और दूसरे मध्यमवर्गीयों के साथ-संयुक्त मोर्चा हो ही नहीं सकता, और अगर कहने के लिए बन भी जाये तो क्रान्ति की दृष्टि से उसका कोई मतलब हो ही नहीं सकता। क्योंकि उसकी शर्तें चाहे कितनी भी सुन्दर क्यों न हों, उनका उपयोग क्रान्ति के लिए हर्गिज हो नहीं सकता। कारण, मालदार और उनके दोस्त वामपक्षियों में ही किसी न किसी को अपनी ओर मिला के वे शर्तें तोड़ भी देंगे और हमें चूँ तक करने भी न देंगे। हमीं में एक-दूसरे को आपस में ही लड़ा के वे अपना उल्लू सीधा कर लेंगे और उस संयुक्त मोर्चे से सिर्फ अपना ही फायदा उठायेंगे। इसीलिए उसके पहले शोषितों और पीड़ितों का संयुक्त मोर्चा अनिवार्य हैं और अगर यह नहीं होता तो पूँजीवादियों के साथ संयुक्त मोर्चे की चर्चा भी बेकार हैं। मगर अफसोस यही हैं कि हमारे देश में उल्टी गंगा बह रही हैं। वामपक्षियों की एकता तो हैं नहीं और अगर उसकी कोशिश भी होती हैं तो कुछ लोग तरह-तरह के अड़ंगे लगाते हैं। फिर भी पूँजीवादियों और उनके दोस्तों से संयुक्त मोर्चे की दिन-रात पुकार वही सबसे ज्यादा मचाते रहते हैं !

    पहले जो वर्कर्सफ्रण्ट और पीपुल्सफ्रण्ट की बात कही गयी हैं उसका भी मतलब इसी से समझ में आ जाता हैं। बातें तो दोनों ही संयुक्त मोर्चों की सही हैं और वे अपने-अपने स्थान पर दुरुस्त भी हैं। मगर जो लोग ऊपर लिखी बातें समझते ही नहीं, या समझ के भी नासमझी करते हैं वे दोनों में एक को ही पकड़ के सही मानते और दूसरे को गलत बताते हैं। यह तो हाथी वाली बात हुई कि अन्धों में किसी ने उसका सूँड, किसी ने उसकी पूँछ, किसी ने टाँगें और किसी ने धड़ पकड़ के हाथी का जुदा-जुदा स्वरूप बताना शुरू किया। इतना ही नहीं। परस्पर एक-दूसरे के कहने को गलत ठहराने भी लगे। हालाँकि सभी अधूरी बातें ही बोलते थे। सबों की बातें मिला देने पर ही दरअसल हाथी का पूरा स्वरूप बताया जा सकता हैं। इसी तरह न तो सिर्फ मजदूरों का संयुक्त मोर्चा ही काफी हैं और न जनता का ही मोर्चा। किन्तु पहले तो मजदूरों या शोषितों का ही बनाना होगा और उसके बाद ही बाकियों के साथ भी मौके के मुताबिक करना होगा। पहली बात होने पर दूसरे लोग ख़ामखाह जरूरत देख के खिंच आयेंगे। क्योंकि ताकत देखकर सभी झुकते हैं। यही बात आज चीन के कम्युनिस्टों और चियांग कैशेक के बीच देखी जा रही हैं।

    शोषितों तथा वामपक्षियों का संयुक्त मोर्चा ही सबसे पहले होना चाहिए इस बात को चीन के बारे में दिखाया गया हैं। वहाँ जो क्यूमिनटांग में वामपक्षी लोग थे और जिनका नेतृत्व कम्युनिस्ट लोग करते थे, उन सबों का आपस में पूर्ण संयुक्त मोर्चा था। इसीलिए चियांग कैशेक और उसके दल के दक्षिणपक्षी बराबर डरते थे और साथ देते थे। काम भी इसीलिए क्रान्तिकारी ढंग से ही बराबर होता रहा। मगर जैसा कि पहले दिखाया गया हैं, जब 1926 के शुरू से ही वामपक्षियों में कुछ न कुछ गड़बड़ी चली, यहाँ तक कि कम्युनिस्टों में भी एक दल ऐसा हो गया जो किसानों, मजदूरों या दोनों की ही क्रान्तिकारी लड़ाईयों के बारे में आगा-पीछा करने लगा, तो दक्षिणपक्षियों की हिम्मत बढ़ी और एक साल बीतते न बीतते उनने संयुक्त मोर्चे को न सिर्फ दफनाया, प्रत्युत वामपक्षियों को मटियामेट करने में सारी ताकत लगा दी। यही हैं चियांग कैशेक के 'कूदिताह' का असली रहस्य। जब क्रान्तिकारियों और वामपक्षियों में ही तू-तू मैं-मैं होने लगी तो फिर जनता के भीतर गड़बड़ी का होना और इससे चियांग कैशेक का फायदा उठा लेना आवश्यक था। ऐसा होते ही-वामपक्षियों के भीतर मतभेद होते ही-सबसे पहले तो उनसे शहरों के निम्न-मध्यम श्रेणी वाले, पढ़े-लिखे तथा लोकतन्त्रवादी हट गये और इस तरह वामपक्षीय संयुक्त मोर्चे के भंग होते ही दक्षिणपक्षी उन पर टूट ही तो पड़े। मगर जब तक इन सबों के साथ किसानों और मजदूरों का संयुक्त मोर्चा क्यूमिनटांग के वामपक्षीय दल में था तब तक उन पर हमला करने की हिम्मत किसी को भी न थी। यह तो पहले ही बताया जा चुका हैं कि जरा भी गड़बड़ी होते ही निम्न-मध्यम श्रेणीवाले घबराकर पूँजीपतियों से जा मिलते हैं। यही बात 1927 के मार्च-अप्रैल में चीन में भी हुई।

    इस खतरे के बीज का अन्दाज एक साल पहले ही लगाकर 1926 के फरवरी-मार्च में जो लम्बा वक्तव्य कोमिन्टर्न ने चीन के बारे में तैयार किया था उससे यह बात बखूबी साफ हो जाती हैं। इसीलिए उसका कुछ आवश्यक अंश यहाँ लिख देना जरूरी हैं। वह यों हैं-

    ''सन 1925 के जून-सितम्बर में जो चीनी मजदूरों ने राजनीतिक हड़तालें की थीं उनने विदेशी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध चीनी लोगों की आजादी की लड़ाई में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया हैं। मजदूरों की इस राजनीतिक हलचल ने मुल्क के क्रान्तिकारी जनतन्त्र संगठन की अग्रगति और मजबूती में, और सबसे बढ़कर राष्ट्रीय क्रान्तिकारी क्यूमिनटांग पार्टी तथा कैन्टन की क्रान्तिकारी सरकार को अग्रगति एवं मजबूती में बहुत ही आश्चर्यजनक प्रोत्साहन दिया हैं। क्यूमिनटांग, जिसके प्रधान भाग ने चीनी कम्युनिस्टों के साथ मिल के काम किया हैं, किसानों, मजदूरों, पढ़े-लिखों तथा शहर के लोकतन्त्रवादियों का क्रान्तिकारी सम्मिलन (मोर्चा) हैं। विदेशी साम्राज्यवादियों तथा समस्त फौजी एवं सामन्तशाही प्रणाली के विरुद्ध जो लड़ाई चीन की स्वतन्त्रता तथा चीन में एक संयुक्त क्रान्तिकारी जनतन्त्रमूलक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के लिए लड़ी जा रही हैं उसमें इन सभी वर्गों का जो समान स्वार्थ हैं वही इस सम्मिलन या संयुक्त मोर्चे का आधार हैं।''

    ''क्यूमिनटांग पार्टी ने जो क्रान्तिकारी सरकार कैन्टन में स्थापित की हैं उसने अब तक मजदूरों, किसानों तथा लोकतन्त्रवादी नागरिकों के सबसे बड़े समूह के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लिया हैं, उन्हीं की सहायता से, साम्राज्यवादियों के बल पर कूदने वाले प्रतिगामी गिरोहों को, उसने चूर्ण-विचूर्ण कर दिया हैं और वह अब कान्टुंग प्रान्त, जिसमें कैन्टन हैं, के समस्त राजनीतिक जीवन को आमूल लोकतन्त्रवादी बनाने में लगी हैं। चीनी जनता की आजादी की लड़ाई में इस तरह अग्रदूत बनकर कैन्टन की सरकार सारे मुल्क को भविष्य में क्रान्तिकारी लोकतन्त्र के साँचे में ढाले जाने का नमूना बन गयी हैं।''

    ''नये खतरों का ख्याल करके चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और क्यूमिनटांग को अपनी अत्यन्त विस्तृत राजनीतिक हलचलों का प्रसार करना चाहिए। जनता की सेना (सरकारी फौज) की लड़ाई के समर्थन में जनसमूह के आन्दोलनों को संगठित करना चाहिए और साम्राज्यवादी शत्रुओं के भीतर जो मतभेद और कलह हैं उससे फायदा उठा के उनके विरुद्ध देशवासियों के सबसे ज्यादा दलों और लोगों अर्थात किसानों, मजदूरों और सम्पत्तिजीवियों का संयुक्त राष्ट्रीय क्रान्तिकारी मोर्चा, जिसका नेतृत्व क्रान्तिकारी जनतन्त्र संस्थाओं के हाथ में हो, खड़ा कर देना चाहिए।''

    ''चीन के बड़े पूँजीपतियों में कुछ ने, जो कि तत्काल क्यूमिनटांग के भीतर ही उसी के साथ रहते थे, गत वर्ष उसका साथ छोड़ दिया हैं और अपना एक स्वतन्त्र दक्षिणपक्षीय दल कायम कर लिया हैं। ये लोग खुल्लमखुल्ला विरोध करते हैं कि क्यूमिनटांग की घनिष्ठ मैत्री श्रमजीवी जनसमूह के साथ नहीं हो, वे क्यूमिनटांग से कम्युनिस्टों को निकाल देना चाहते हैं और कैन्टन की सरकार की क्रान्तिकारी नीति का विरोध भी करते हैं। गत 1926 की जनवरी में क्यूमिनटांग की दूसरी कांग्रेस के मौके पर जो इस पक्ष की लानत-मलामत की गयी और कम्युनिस्टों के साथ क्यूमिनटांग की संघर्षमूलक मैत्री की जरूरत जो वहाँ दुहरायी गयी, उसके करते क्यूमिनटांग तथा कैन्टन की सरकार के कामों का क्रान्तिकारी रुख पक्का हो जाता हैं। साथ ही, उसके करते मजदूरों की क्रान्तिकारी सहायता क्यूमिनटांग के लिए निश्चित हो जाती हैं।''

    इन वाक्यों पर टीका-टिप्पणी बेकार हैं। हमने अब तक जो कुछ कहा हैं उसका समर्थन इससे अक्षरश: हो जाता हैं। यहाँ जो ब्लाक लिखा हैं उसका अर्थ सम्मिलन या संयुक्त मोर्चा हमने किया हैं। क्योंकि उसका विशेषण रेवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) हैं। अगर यह बात नहीं होती और 'टेम्परेरी' लिखा रहता, तब ऐसा नहीं होता। यों तो 'ब्लाक' शब्द संगठित चीज या संगठन को ही कहते हैं, जिसका अर्थ एकता हैं। यहाँ सभी वामपक्षों की एकता का मूल कारण उनके स्वार्थों का ऐक्य बताया हैं और वह कहा गया हैं विदेशी साम्राज्यवाद के विरुद्ध आजादी की क्रान्तिकारी लड़ाई और फौजी शासन तथा सामन्तशाही एवं जमींदारी का क्रान्तिकारी ढंग से खात्मा और सबसे आखिर में क्रान्तिकारी संयुक्त राष्ट्रीय सरकार की स्थापना। यही ठीक भी हैं। जो ऐसा दिल से चाहे वही तो वामपक्षीय हो सकते हैं। जो इनमें एक भी नहीं चाहता हैं वह वामपक्षी तो हैं नहीं। हैं वह दक्षिणपक्षी और वह पीछे से इस संयुक्त मोर्चे में मजबूरन ही खींचा जा सकता हैं जबकि अकेला पड़ जाये। भारत में तो हम अभी ऐसा कर नहीं सके हैं। कब कर सकेंगे, या नहीं कर सकेंगे कौन कहे?

    प्रसंगवश यहाँ एक बात और भी कह देना हैं। यह तो अब तक के वर्णन से साफ हो ही जाता हैं कि चियांग के हमले, उसके देशद्रोह, उसकी गद्दारी (कूदिताह) के पूर्व बरसों चीन के वामपक्षियों में और खासकर कम्युनिस्टों में भी किसानों तथा मजदूरों की क्रान्तिकारी लड़ाईयों को लेकर मतभेद चलता था, जो पहले भीतर ही भीतर था, पीछे बाहर भी हो गया। चियांग ने उसी से फायदा भी उठाया। उसी के चलते निम्न-मध्यम श्रेणी के बहुतेरे लोग, खासकर शहरों के पढ़े-लिखे वगैरह संयुक्त मोर्चे से फूटकर या तो तटस्थ हो गये या चियांग कैशेक से जा मिले। यह भी कही चुके हैं कि इस मतभेद को जानकर 1926 के फरवरी-मार्च में ही रूस से सख्त ताकीद की गयी थी कि गलती न की जाये। मगर लोगों को अनुभव न होने से जो घबराहट थी वह आसानी से मिटती कैसे? चीन में तो यह नई बात थी। लोग सीधे-सादे ढंग से सोचते थे-जैसा कि यहाँ भी सोचते और कहते हैं-कि संयुक्त मोर्चा टूटने न पाये। इसीलिए जब बार-बार कोमिन्टर्न पर दबाव डाला गया और आतंकपूर्ण बातें वहाँ रह-रह के पहुँचायी गयीं तो ता. 26/10/1926 को कोमिन्टर्न का कोई तार शंघाई के कम्युनिस्टों को किसानों की लड़ाई को तत्काल रोक करनें की हिदायत आदि का मिला-या यों कहिये कि उसे तत्काल रोक करनें की माँग की मंजूरी दे दी गयी? यह बात परिस्थिति की गड़बड़ी ये कैसे हो गयी, पता नहीं चला। मगर जब पीछे पता लगा कि ऐसा तार गया हैं, जो तत्काल परिस्थिति को संगीन होने से बचाने के ही लिए गया हैं सही, मगर उसका प्रभाव दूर तक हो सकता हैं और उससे खराबी हो सकती हैं तो मुश्किल से एक महीना गुजरते न गुजरते वह वापस ले लिया गया और भूल सुधार दी गयी। लेकिन इसी बात को लेकर आज तक कोमिन्टर्न को कुछ लोग बदनाम करते हैं और कहते हैं कि उसने वर्ग-संघर्ष को रोक के क्रान्ति-विरोधी काम किया।

    असल में उस तार को वापस लेकर शीघ्र ही भूल सुधारने या उसका आगे के लिए असर रोक करनें की बात तो समालोचक लोग कहते ही नहीं। या यों कहिये कि भूल जाते हैं। बहुतेरे तो यह बात जानते भी नहीं। इसी से यह खण्डन-मण्डन चलता हैं। 1926 के नवम्बर का ही कोमिन्टर्न का वक्तव्य इस बारे में बहुत साफ हैं और वह पहले ही दिया जा चुका हैं। उसके आगे-पीछे के भी वैसे वक्तव्य दिये गये हैं, जिनसे ऐसी शंकाओं की गुंजा हीश हैं ही नहीं। स्तालिन ने भी साफ ही कहा हैं कि उस तार का समर्थन वह हर्गिज नहीं करते। मगर जो लोग समालोचना करते हैं वह तो असल में हैं अतिवादी। वह सोचते हैं कि ऐसी हड़तालें और किसानों की चन्द लड़ाईयों के फलस्वरूप ही क्रान्ति हो सकती हैं और इसमें विजय भी मिल सकती हैं। यही उनकी भूल हैं और अगर इसी दृष्टि से कोमिन्टर्न को वे बदनाम करते हैं तो वे खुद भूलते हैं। ऐसे लोगों से तो क्रान्ति को खुद खतरा हैं। इन्हें ही अतिवादी वामपक्षी कहते हैं। इनसे क्रान्ति को उतना ही खतरा हैं जितना सुधारवादियों से। इस बात को उसी 1926 के फरवरी मार्च वाले कोमिन्टर्न के वक्तव्य में अति दक्षिण वामपक्ष के नाम से यों कहा हैं-

    ''चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का राजनीतिक स्वात्मनिर्णय, समान रूप से हानिकारक दोनों ही तरह की पथभ्रष्टता का मुकाबिला करने के सिलसिले में, बढ़ेगा। वे दोनों ये हैं-एक तो दक्षिण पन्थी दिवालिये हैं जो मजदूरों के वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक कर्त्तव्य मानते ही नहीं, जिसका नतीजा यही होता हैं कि सर्वसाधारण राष्ट्रीय लोकतन्त्र शासन के आन्दोलन के साथ घुल-मिल के क्रान्तिकारी हलचल लापता हो जाती हैं। दूसरी ओर अति वामपक्षी प्रवृत्ति वाले हैं जो चाहते हैं कि सीधे ही आन्दोलन के क्रान्तिकारी लोकतन्त्र शासन स्थापन की सीढ़ी को फाँद के सर्वहारा के एकतन्त्र और सोवियट शासन पर ही जा पहुँचें। वे लोग यह बात भूल जाते हैं कि चीन की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन में किसानों का हिस्सा बुनियादी और निर्णायक होगा।''

    इसका निचोड़ यही हैं कि बिना पूँजीवादी जनतन्त्र या किसान क्रान्ति की सीढ़ी पर पाँव रखे और उसे पूरे किये ही एकाएक छलाँग मार के उसके ऊपर की सोवियट शासन वाली या सर्वहारा क्रान्ति की सीढ़ी पर पहुँचने की कोशिश हानिकर हैं। इससे कुछ होगा जायेगा तो नहीं। हाँ प्रगति का रास्ता बन्द हो जायेगा भले ही, जैसा कि स्पेन आदि देशों में हो गया हैं। लोग यह भी भूल जाते हैं कि चीन या भारत जैसे कृषि-प्रधान देशों में किसानों का एक खास हिस्सा होगा जंगे आजादी में, और इसे वे तभी पूरा कर सकते हैं जब किसान क्रान्ति को अच्छी तरह सफल बनाया जाये। इसलिए एकाएक सर्वहारा या समाजवादी क्रान्ति के लिए उतावला होना नादानी और अतिवामपक्षीय पथभ्रष्टता हैं। जो लोग स्वतन्त्र रूप से मजदूरों का संगठन और किसानों का संगठन या उनकी लड़ाई नहीं चाहते, किन्तु आजादी की गोल-मोल लड़ाई के ही सिलसिले में किसानों और मजदूरों को कुछ सुविधाएँ राष्ट्रीय संस्थाओं की ओर से ही दिलाने के पक्षपाती हैं, न कि किसानों तथा मजदूरों के स्वतन्त्र वर्ग-संघर्ष के फलस्वरूप, वे दक्षिणपन्थी पथभ्रष्टता के शिकार हैं, यदि फिर भी क्रान्ति की बातें सोचते और करते हैं। यही हैं इस कथन का मतलब। क्योंकि उनके इस काम से किसानों और मजदूरों की स्वतन्त्र हलचलें राष्ट्रीय आन्दोलन में लापता हो जाती हैं, उसी में मिल के खत्म हो जाती हैं।

    हमारे यहाँ भी वही हालत हैं। यहाँ के पूँजीवादी दो नावों पर चढ़े हुए हैं। एक ओर तो ब्रिटिश साम्राज्यशाही से शासन-सूत्र छीनना चाहते हैं और दूसरी ओर उसमें सफलता के लिए जिस सीधी लड़ाई की जरूरत हैं उससे डरते हैं। क्योंकि लड़ेगी तो जनता और अगर वह साम्राज्यशाही के साथ ही उन्हें भी उठा के फेंके तो? इसीलिए तो वे लड़ने में आगा-पीछा करते हैं। मगर उसके बिना काम भी तो नहीं चलता। इसीलिए थोड़ी-सी लड़ाई के बाद हिंसा वगैरह के बहाने से उसे रोक के सरकार से सौदा करते हैं। अगर सौदा नहीं पटा तो फिर लड़ते हैं, मगर डरते-डरते। फलत: ज्योंही गलत-सही अन्दाज भी लगा कि सरकार झुक रही हैं कि बीच में ही लड़ाई बन्द कर देते हैं। इसके लिए बहाने तो हजारों हैं। जनता की थकावट, उसे आराम पहुँचाने के सवाल, रचनात्मक कार्य वगैरह के हजारों बहाने ढूँढ़ निकाले जाते हैं। हालाँकि थकावट उन्हीं को हैं, आराम वे खुद चाहते हैं, रचनात्मक काम तो युद्ध की मनोवृत्ति को जनता के भीतर से मिटाने और उसका ध्यान दूसरी ओर करने का एक नया बहाना निकाला गया हैं। हिंसा की तो बात ही मत पूछिये। करबन्दी को भी रोका जाता हैं अहिंसा के ही नाम पर। हालाँकि करबन्दी में हिंसा की गन्ध भी नहीं हैं। फिर भी उन्हीं से संयुक्त मोर्चा? पामेदत्ता ने अपनी उक्त पुस्तक में यह चित्र खूब ही सुन्दर खींचा हैं। वह कहते हैं-

    ''हम देख चुके हैं कि भारतीय पूँजीपति एक ओर तो ब्रिटिश पूँजीपतियों के साथ घोर-संघर्ष में फँसे हैं। दूसरी ओर वे आगा-पीछा का काम ही करते हैं। वे भविष्य भारत को स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में देखते हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन में उनने खासा शक्तिशाली और प्रधान भाग लिया हैं। लेकिन इसी के साथ जन-आन्दोलन की प्रगति के हर कदम पर वे डरते हैं, बार-बार उनने राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए ब्रेक (रोकथाम) का काम किया हैं और तत्काल जब तक साम्राज्यवाद से सौदा भी कर लिया हैं। मगर उन्हें फिर भी संघर्ष में पड़ना ही पड़ा हैं।''

    यह साँप-छछूँदर की-सी दशा यहाँ के पूँजीपतियों की सिर्फ इसीलिए हैं कि साम्राज्यवादी बड़े ही ईकाइयाँ हैं। उनके साथ एक ही बार पूरा सौदा पटनेवाला तो हैं नहीं। इसीलिए उन पर दबाव डालने के लिए रह-रह के यहाँ के पूँजीपतियों को लड़ना या लड़ने का नाटक खड़ा करना पड़ता ही हैं। मगर हर लड़ाई में जब पता चलता हैं कि शोषितों में गर्मी आ रही हैं, आ गयी हैं, तो वे डर जाते हैं कि कहीं सारा गुड़ गोबर न हो जाये और सारा आन्दोलन हमारे हाथ से ही निकल न जाये। अजीब दशा हैं ! लड़े बिना काम चलना नहीं और लड़ने पर खतरा ही हैं ! लड़ने में भी आफत ! न लड़ने में भी बला ! चारों ओर संकट ही संकट हैं। इनकी ऐसी दशा देख के ही पामेदत्ता इनके बारे में सवाल करते हैं कि-

    ''क्या साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई में अन्तिम बार स्वतन्त्रता की विजय होने तक भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की एकता कायम रहेगी? या कि जन-आन्दोलन की बाढ़ से डर कर राष्ट्रवादी पूँजीवादियों के दल के भीतर वाले दकियानूस लोग इस आन्दोलन से अलग होकर साम्राज्यवाद के साथ गाढ़ी दोस्ती कर लेंगे और इस प्रकार साम्राज्यवाद को कुछ समय के लिए अभयदान दे देंगे, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की अन्तिम विजय की लड़ाई और जनसमूह की सामाजिक उद्धार (समाजवाद) की लड़ाई-दोनों-एक हो जायेगी?''

    ये दोनों ही प्रश्न वर्तमान परिस्थिति पर पूरा ध्यान रख के ही किये गये हैं। राष्ट्रीय आजादी के युद्ध का नेतृत्व आज जिनके हाथों में हैं वे जाने में या अनजान पूँजीवादी स्वार्थ के ही समर्थक हैं-यह नेतृत्व आज पूँजीवादियों के ही हाथों में हैं। यह ठीक हैं कि वे पर्दे के भीतर हैं और सामने ऐसे लोगों को उनने रख छोड़ा हैं जो जनता के लिए मसीहा बनने का दावा करते हैं। मगर इससे असलियत में कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। यह तो उनका ईकाइयाँपन हैं कि खुद सामने नहीं आते। क्योंकि तब तो न सिर्फ शोषित जनता, किन्तु निम्न-मध्यवर्गीय बाबू लोग भी जिनका बहुमत आज कांग्रेस में हैं, भड़क उठेंगे और सारा गुड़ गोबर हो जायेगा। इसीलिए वे पर्दे में बैठे कठपुतली नचा रहे हैं और गीता के 'भ्रामयन् सर्व भूतानि यंत्रारूढ़ानि मायया' को अक्षरश: चरितार्थ कर रहे हैं। हमारे लिए खतरा भी इसीलिए बढ़ गया हैं और हमारी लड़ाई कठिन और पेचीदा भी इसीलिए बन गयी हैं।

    अब हालत यही हैं कि किसानों और मजदूरों के बढ़ते आन्दोलन तथा विद्यार्थियों में फैलती हुई उत्तेजना देखकर वे घबराते हैं और डरकर आगा-पीछा करते हैं-हजार बहानेबाजी से व्यापक जन-संघर्ष को रोकते हैं। लेकिन साम्राज्यवाद के हाथ से शासन छिन भी तो नहीं सकता जब तक जन-संघर्ष न हो। इसीलिए दुविधा में वे पड़े हैं और इसीलिए पामेदत्ता का पहला सवाल हैं कि क्या अन्त तक राष्ट्रीय आन्दोलन की एकता कायम रह सकेगी? मगर जब बार-बार पूँजीवादियों की परेशानी पर गौर करते हैं और चीन वगैरह देशों का ताजा दृष्टान्त सामने आता हैं तो बात और हो जाती हैं। तब तो यही ख्याल हो आता हैं कि पूँजीवादियों का जो प्रधान दल हैं। और जो पूँजीवाद के चरम विकास के इस युग में प्रतिगामी और क्रान्ति-विरोधी हो चुका हैं वह तो राष्ट्रीय आन्दोलन से ख़ामखाह खिसकेगा। जन-आन्दोलन की बाढ़ को वह रोक सकता जो नहीं। वह खिसक के साम्राज्यवादी पूँजीवादियों से ही तो मिलेगा। इसका सबूत पहले ही बार-बार मिल चुका हैं और आज भी मिल रहा हैं।

    मगर तब सवाल यह होता हैं कि क्या किसान, मजदूर आदि शोषित जनता ही, जो समाजवाद और साम्यवाद की भूखी हैं और उसी के लिए लड़ रही हैं, उस दशा में राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई भी जलायेगी? यदि हाँ-और दूसरा उत्तर हो भी नहीं सकता-तो फिर आजादी और समाजवाद की लड़ाई-दोनों ही जुटेंगी-मिल जायेगी क्या? बेशक मिलेंगी। मगर इसका यह अर्थ हर्गिज नहीं कि एकाएक समाजवाद ही कायम किया जायेगा। यह तो असम्भव हैं, जैसा कि पहले ही बताया गया हैं। पहले तो किसान क्रान्ति तथा जनतन्त्रक्रान्ति ही होगी और उसके फलस्वरूप एक तो किसानों को जमीन मिलेगी। दूसरे पूँजीवादी ढंग से उत्पादन की प्रगति की जायेगी। पीछे समाजवादी अवसर आयेगा। लेकिन जनता पहली सीढ़ी पर ही न रुककर आगे बढ़ती जायेगी, यही दोनों के जुट जाने-दोनों लड़ाईयों के मिल जाने का मतलब हैं। यह ठीक हैं कि जनतन्त्र क्रान्ति का समय आते-आते यदि किसान-मजदूरों में पूर्ण वर्ग चेतना आ गयी और वे खूब अच्छी तरह संगठित हो गये तो शासन सूत्र उन्हीं के हाथ में एकाएक आ जायेगा और सोवियत शासन शुरू में ही कायम होके उत्पादन का विकास और समाजवाद की ओर कदम बढ़ाना सोवियट की छत्रछाया में ही शुरू हो जायेगा। लेकिन यदि ऐसा न हुआ और जनता की तैयारी में कुछ गड़बड़ी रही तो पहले निम्न-मध्यमवर्गीयों का ही शासन कुछ समय के लिए हो सकता हैं। वह चाहे सोवियट के नाम से ही हो। मगर शुद्ध सोवियट का न होगा-सर्वहारा का एकतन्त्र न होगा।

    लेकिन दुनिया के इतिहास में ऐसा अब तक देखा नहीं गया हैं। अब तो किसी न किसी रूप में पूँजीवादियों के साथ मिल-जुल कर ही जनतन्त्रवादी क्रान्ति को सफलता मिली हैं। सिर्फ शोषितों और पीड़ितों ने यह काम अब तक नहीं किया हैं। साथ ही, संसार में नई-नई बातें भी तो होती ही हैं। पूँजीवाद का जो आखिरी रूप फासिज्म की शक्ल में नजर आ रहा हैं और उसके चलते वर्ग-शक्तियों का जो नया गँठजोड़ा हो रहा हैं उसे देख के तो कहा जा सकता हैं कि कुछ भी होना असम्भव नहीं। जो बात अब तक नहीं हो सकी हैं, यदि अब तक केवल शोषित जनता ही आजादी हासिल नहीं कर सकी हैं तो वह भी अब कर सकती हैं। या यह कि पुनरपि पूँजीवादी जनतन्त्र चाहने वाले फासिस्टियों के डर से शोषित जनता से मिल सकते हैं। इसीलिए दूसरा सवाल किया गया हैं। दोनों का उत्तर भविष्य के गर्भ में हैं। मगर उत्तर तक पहुँचने के पहले हमें कुछ और भी बातें जान लेनी हैं। तब हम इस स्थिति में हो सकते हैं कि इन प्रश्नों के उत्तर दे सकें-या यों कहिये कि इनकी तह में पहुँच के विचार कर सकें और किसी नतीजे पर आ जाये।

    पूँजीवादी कहिये या सुधारवादी कहिये, ऐसे नेतृत्व से हमें, जो मजदूरों तथा किसानों के हाथ में शासन सूत्र सौंपना चाहते हैं और सोशलिज्म की स्थापना चाहते हैं, मिलने के दो ही कारण हो सकते हैं। इसके लिए दो ही परिस्थितियाँ हो सकती हैं। एक तो यह कि हम काफी संगठित और मजबूत हों और उनके छक्के हमने हर तरह से-संगठन में, राजनीति कुशलता में, लड़ने में, काम करने में, मुकाबिले में भिड़ने में-छुड़ा दिये हों, जिससे वे हमारा लोहा मानते हों। साथ ही हमने अपने कामों से, दूरंदेशी से, व्यवहार-कुशलता से आम लोगों पर-यहाँ तक कि उन सुधारवादी पूँजीवादियों के दोस्तों तथा एजेण्टों तक पर भी-साबित कर दिया हो कि हम सबों से मिल के काम करना चाहते हैं। हमने यह भी साफ बता दिया हैं कि हम कौन-सा काम और क्यों किसलिए उनसे-पूँजीवादियों से भी-मिल के करना चाहते हैं। आम लोगों पर यह बात भी साफ हो गयी हो कि सचमुच उस काम के लिए इस समय सबों का मिल जाना-संयुक्त मोर्चा बन जाना-निहायत जरूरी हैं। इस बात की अहमियत आम लोग बखूबी समझते हों। यही बात 1936 के अन्तिम दिनों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और चियांग कैशेक के दल के साथ संयुक्त मोर्चे और समझौते के सम्बन्ध में अक्षरश: हुई हैं। जिन-जिन बातों का हमने जिक्र किया हैं उनमें हर एक की गयी हैं, जिससे मजबूरन चियांग को मिलना पड़ा हैं। इसका विशेष वर्णन आगे करेंगे।

    दूसरी बात या परिस्थिति यों हो सकती हैं कि हम कमजोर हों, उतने संगठित न हों हमारा उतना प्रभाव न हो और चाहते हों कि संगठन पक्का और पूरा हो, कमजोरी हटे और हमारी धाक किसान-मजदूरों पर पूरी हो जाये। फिर भी हमें पूँजीवादी नेतृत्व से मिलने की जरूरत नहीं होगी यदि उस नेतृत्व के प्रभाव में जनता न हो, उसका संगठन हमसे व्यापक न हो और वह बलवान न हो। और अगर यह सारी बातें हों तो भी संयुक्त मोर्चे की बात तो हो ही नहीं सकती। क्योंकि वह दल हमसे शर्तें क्यों करने लगा? उसे हमारी परवाह क्यों होने लगी? उल्टे हमीं को उसकी परवाह हैं। उसके संगठन में, उसकी संस्था में जनता हैं और हम उसमें घुसके उस जनता को अपने कामों से, अपनी सेवाओं से प्रभावित करना चाहते हैं, हमें ऐसे अवसर की फिक्र हैं जो उसमें घुसे बिना, रहे बिना मिल नहीं सकता। ऐसी हालत में हमारा उस दल के साथ मेल हो या न हो हमें उसकी संस्थाओं में जाना ही होगा। इसीलिए यहाँ मोर्चे का ही सवाल नहीं हैं। संयुक्त मोर्चा तो दूर रहा। हमें तो काम निकालना हैं। यदि हमारा असर भी हो और हमने लोगों पर प्रभाव भी बहुत कुछ जमाया हो, तो भी जब तक पूँजीवादी नेतृत्व के सामने हमारा प्रभाव कम हैं, हमारा नेतृत्व दुर्बल हैं, तो हमें उनकी संस्थाओं में चाहे जैसे हो घुसना ही होगा। हम शान में आकर और उन्हें दकियानूस बता के उनसे अलग रह नहीं सकते। क्योंकि उनके साथ जनता जो हैं और हमें उसे अपने साथ करना हैं। इसीलिए 1920 में लिखे गये अपने 'वामपक्षीय साम्यवाद' में लेनिन ने क्रान्तिकारियों को करारी फटकार सुनायी हैं कि वे अलग ट्रेड यूनियन (मजदूर संघ, किसान सभा, विद्यार्थी सभा जैसी संस्थाएँ) न बना के पुरानियों में ही घुसें और काम करके उन्हीं को अपने साँचे में ढालें। वे ट्रेड यूनियन दकियानूसियों के हाथ में हैं यह सोच के उन्हें भड़काना न होगा यह याद रहे। वह कहता हैं-

    ''लेकिन जर्मनी के वामपक्षीय कम्युनिस्ट यही नादानी के रहे हैं जबकि वर्तमान ट्रेड यूनियनों के संचालकों के दकियानूसी और प्रतिगामी होने के कारण वे इस नतीजे पर कूद कर पहुँच जाते हैं कि इन ट्रेड यूनियनों को छोड़ देना ही जरूरी हैं और इनमें काम करना बन्द करके मजदूरों की नई निराली संस्थाएँ बनाना ठीक हैं। यह तो अक्षम्य अपराध हैं और इसके चलते वे पूँजीवादियों की सबसे ज्यादा मदद कर रहे हैं। सभी अवसरवादियों, समाजवादी देशभक्त लड़नेवालों और कौत्स्की के अनुयायी ट्रेड यूनियन लीडरों की ही तरह हमारे मेनशेविक भी मजदूर आन्दोलन में पूँजीवादियों के एजेण्टों से न तो अधिक हैं और न कम। दकियानूसी ट्रेड यूनियनों में काम करने से इन्कार करने का मतलब यही हैं कि जो मजदूर समुदाय काफी प्रगतिशील नहीं हैं, या पिछड़ा हुआ हैं उसे दकियानूसी लीडरों, पूँजीपतियों के दलालों, बाबू मजदूरों या पूँजीवादी मनोवृत्ति वाले श्रमिकों के जिम्मे छोड़ दिया जाये।''

    ''और यह तो अत्यन्त जरूरी हैं कि जहाँ कहीं जनता का समूह पाया जाये वहीं काम किया जाये। सभी तरह का त्याग करना ही होगा और बड़ी-से-बड़ी बाधाँओं को पार करना ही पड़ेगा। ताकि नियमित रूप से, मुस्तैदी के साथ, निरन्तर और धैर्य के साथ प्रचार तथा आन्दोलन, पक्की तौर से उन सभी संस्थाओं, सोसायटियों और संगठनों में किया जा सके जहाँ सर्वहारा या अर्ध्द-सर्वहारा (गरीब किसान वगैरह) जनसमूह पाया जाये, फिर चाहे वे संस्थाएँ कितनी ही दकियानूस क्यों न हों।''

    ''और क्रान्तिकारी, लेकिन नादान, वामपक्षी कम्युनिस्ट चुपचाप बैठे रहकर 'जनता, जनता' की पुकार मचाते रहते हैं। मगर ट्रेड यूनियनों में काम करने से इन्कार करते हैं, इसीलिए कि वे दकियानूस हैं। साथ ही, बिलकुल ही नई और शुद्ध 'मजदूरों की यूनियनें' बनाते हैं जिनमें पूँजीवादी जनतन्त्रवाद के संस्कार नहीं पाये जाये !''

    ''यह आवश्यक हैं कि यह अपमान, अत्याचार, गाली-गलौज वगैरह सब कुछ बर्दाश्त करने की योग्यता हासिल की जाये और सभी प्रकार का बलिदान करने को तैयार हुआ जाये। अगर जरूरत हो तो सब तरह की चालबाजियों, छल-प्रपंचों और गैर-कानूनी तरीकों से भी काम लिया जाये, छिप-लुक के और धोखा-धड़ी से भी काम लिया जाये जिससे उन ट्रेड यूनियनों में घुसा जा सके, रहा जा सके और चाहे जो भी हो, वहीं कम्युनिस्टों का काम जारी रखा जाये।''

    ''मेरी राय में, थर्ड इण्टरनेशनल की कार्यकारिणी को चाहिए कि उन लोगों को साफ-साफ आमतौर से दुतकार दे और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की आगामी कांग्रेस को भी ऐसा करने का आदेश दे, जो आमतौर से दकियानूस ट्रेड यूनियनों में शामिल होने से इन्कार कर देते हैं।''

    लेनिन के इन वचनों से साफ हो जाता हैं कि अपना काम निकालने के लिए क्रान्तिकारियों को सभी तरीकों से काम लेकर मौजूदा किसान सभाओं और मजदूर सभाओं वगैरह में घुस जाना चाहिए और वहीं काम करना चाहिए। न कि नई ट्रेड यूनियन, मजदूर सभा, किसान सभा वगैरह बनाना चाहिए। वह प्रतिद्वन्द्वी ट्रेड यूनियन आदि बनाने का सख्त दुश्मन हैं। उसने तो यहाँ तक कह डाला हैं कि जब 1905 में रूस में ट्रेड यूनियनें बनाने की मनाही थी और खुफिया विभाग के जुबा तोफ ने रूसी फैसिस्टों (Black Hundred) के दल के मजदूरों की मीटिंगें और मजदूरों की सोसायटियाँ केवल इसलिए कायम कीं कि क्रान्तिकारी मजदूरों को उनमें फ्रांस के क्रान्ति से विमुख किया जाये, तो हमने अपने कार्यकर्त्ता उन्हीं मीटिंगों और सोसायटियों में काम करने के लिए भेजे। उसने लेनिनग्राड के एक प्रमुख मजदूर बबुश्किन का नाम भी बताया हैं जो यों ही काम करने गया था और 1906 में मार डाला गया ! मगर यह याद रहे कि यह सब कुछ करने का मतलब संयुक्त मोर्चा नहीं होता। इसे ऐसा कही नहीं सकते। यह तो अपनी गर्ज की बात ठहरी।

    प्राय: इसी प्रकार की एक और हालत हो सकती हैं जिसका उल्लेख लेनिन ने उसी पुस्तक में किया हैं। मगर उसमें कुछ विशेषता हैं। यही कारण हैं कि उसमें उसने खास ढंग की हिदायत दी हैं। वह हैं चुनाव की बात। असल में इंग्लैंड में कम्युनिस्टों ने ऐसा सोचा था कि न तो दकियानूस लेबर पार्टी (मजदूर दल) से कोई समझौता करेंगे और न पार्लिमेण्ट में अपना मेम्बर भेजेंगे। उस चुनाव में पड़ने से भी दूर भागने का उनका विचार था। उसी सिलसिले में ट्रेड यूनियनों की बातें उसने कही हैं और लाल ट्रेड यूनियन बनाने वालों को फटकारा हैं। उन्हीं को समझाने के लिए उसने चुनाव में भी भाग लेने को कहा हैं और लेबर पार्टी से समझौता करने की भी राय दी हैं। अगर समझौता न भी हो सके, क्योंकि कम्युनिस्टों का तो कोई विशेष प्रभाव इंग्लैंड में था नहीं। फिर मजदूर दल वाले उनकी परवाह करते ही क्यों? वे उस समय उनसे समझौते की बात भी क्यों सोचते? कम्युनिस्ट पार्टी भी तो अभी ताजी ही बनी थी; उसका संगठन भी ठीक नहीं हो पाया था। तो भी चुनाव में पूँजीवादी के विरुद्ध मजदूर दल की मदद करने की उसने बात कही।

    असल में कम्युनिस्टों की बात वहाँ सुनने को कोई रवादार तो था नहीं। यह नाम सुनते ही आमतौर से लोग नाक-भौं सिकोड़ लेते और हट जाते थे। लेनिन ने सोचा कि चुनाव का मौका अच्छा हैं। उसमें यदि किसी भी तरह हमारे आदमियों को मीटिंगों में बोलने का मौका लग जाये तो काम निकले। क्योंकि उस ढंग से आसानी से काफी श्रोता मिलेंगे, जिन्हें चुनाव की बातों के सिलसिले में साम्यवाद के सिद्धान्त भी सुनाये जा सकते हैं। यह बात और तरह से सम्भव न थी। साम्यवादी मन्तव्यों के प्रचार का यही सुनहला अवसर था। अतएव इससे जैसे भी हो सके लाभ उठाना जरूरी था।

    एक बात और भी थी। चुनाव के बारे में लोगों के दिमाग साफ न थे। मजदूरों का विश्वास था मजदूर दल पर ही। वे मानते थे कि वह दल हमें समाजवाद तक पहुँचायेगा और सभी आराम तब तक देता रहेगा जब तक समाजवाद स्थापित नहीं होता। मजदूर दल के नेताओं के लम्बे-लम्बे व्याख्यानों और वक्तव्यों का भोली-भाली मजदूर जनता पर यही असर होना स्वाभाविक था भी। उसे दाँव-पेंच क्या मालूम? सभी देशों की जनता की यही बात हैं। जो लोग जेल गये, जिनने कष्ट भोगे उन्हें अपना मसीहा समझ जनता उनकी बातों पर आँख मूँद के विश्वास करती हैं। जरूरत इस बात की होती हैं कि जनता की आँखें खोली जाये और नेताओं को कड़ी कसौटी पर परखने के लिए उसे तैयार किया जाये। चुनाव में पार्टियाँ और नेता लम्बी-लम्बी प्रतिज्ञाएँ करते हैं। बस उन्हें पकड़ के मूक जनता को आगाह कर दिया जाये कि इसमें क्या-क्या धोखा हैं, कौन-सी चालें हैं। लोगों से यह भी साफ कह दिया कि जब ये नेता पद पायेंगे, मन्त्री बनेंगे तो हर्गिज इसे पूरा न करेंगे तब वे लोग इन वादों और प्रतिज्ञाओं को भूल जायेगे। ख़ामख़ा। यदि विश्वास न हो तो एक बार उन्हें चुनाव में जिता के और सरकारी गद्दी पर बिठा के जाँच लो।

    लेनिन ने सोचा कि मजदूर जनता के ऊपर जो मजदूर नेताओं का जादू हैं वह इसी तरह उतारा जा सकता हैं और उसे साम्यवाद के रास्ते पर लाया जा सकता हैं। क्योंकि चुनाव की ये बातें वह खूब समझती हैं, खूब समझेगी और मौके पर जब नेता लोग गड़बड़ी करेंगे तो चटपट उन्हें पकड़ेगी, अगर पहले से वह सजग कर दी गयी हो। वह यह भी मानता था कि जब तक जनता अपने अनुभव से कोई बात न सीखे तब तक केवल लेक्चर से वह क्रान्ति की पथगामिनी बनायी नहीं जा सकती। इसलिए उसे अनुभव प्राप्त करने के मौके पैदा करना ही क्रान्तिकारियों का काम हैं और चुनाव का मौका ठीक ऐसा ही हैं। इसीलिए उसने अपने अनुयायियों को कहा कि चाहे मजदूर दल से समझौता हो, या न हो, हर हालत में पूँजीवादियों के खिलाफ उसी दल को मदद करो।

    वह यह भी जानता था कि ये मजदूर नेता हैं तो भीतर से पूँजीवादियों के ही साथी, एजेण्ट या दलाल। मगर ऊपर ऐसा नहीं कहते। जनता तो पूँजीवादियों की अपेक्षा इन्हें पसन्द करती ही हैं। इसलिए हमें इनके समर्थन में कोई खतरा भी हैं नहीं। फायदा यह होगा कि मजदूरों और किसानों के प्रत्यक्ष शत्रु हार जायेगे। उन्हें जिताना तो हम भी पसन्द नहीं करते। रह गयी मजदूर दल की बात। ये हैं तो धोखेबाज। इन्हें जिताना भी पूँजीवादियों को ही जिताना हैं। मगर किया क्या जाये? जनता का इन पर विश्वास जो ठहरा। ये बातें भी तो बढ़कर बोलते हैं। इसलिए यहीं इन्हें पकड़ा जाये और कहा जाये कि हम भी मजदूर सेवक हैं और यह भी। मगर ये हमसे सुलह तो करते नहीं। हाँ, मजदूरों के शत्रुओं से भले ही सुलह कर लेंगे। इसका सबूत भी दिया जा सकता हैं यदि हमसे वे सुलह न करें। वह यों होगा कि जहाँ से कम्युनिस्टों के चुने जाने की पूरी सम्भावना होगी और मजदूर दल के मेम्बर के हारने की, वहाँ ये मजदूर दल नेता ख़ामखाह कम्युनिस्टों के विरुद्ध पूँजीवादी उम्मीदवार को ही खुलेआम या छिप के मदद करेंगे। इसी बात का भण्डाफोड़ जनता के सामने किया जाये। तब उसकी आँखें कुछ-कुछ खुलेंगी। ये नेता कैसे पूँजीवादियों से मिलते, उनसे रुपये लेते ये बातें भी पकड़ी पकड़ायी जाये और लोगों पर जाहिर की जाये।

    एक बात और भी थी। कम्युनिस्टों को तो मन्त्रिमण्डल बनाना न था। जब तक अपने मन का शासन चलाने का पूरा-पूरा अधिकार न मिले तब तक मन्त्रि-पद स्वीकार करना जनता को धोखा देना हैं और पार्लिमेण्टरी ढंग से वह पूरा अधिकार मिल सकता नहीं। पुरानी फौज, पुलिस, नौकरशाही तो पूँजीवादी ढंग की ही होती हैं और वह कायम रहती ही हैं, चाहे मन्त्रिमण्डल भले ही बदल जाये। फलत: वह तो अपने मन का ही काम करती हैं और अगर नये मन्त्रिमण्डल ने कुछ गड़बड़ी की तो उसकी बातें न मानकर बगावत कर देती हैं। स्पेन में यही हुआ हैं। दूसरे देशों में यही होता हैं। यही कारण हैं कि इंग्लैंड में दो-दो बार मजदूर मन्त्रिमण्डल बनने पर भी वह कुछ न कर सका। इसीलिए कम्युनिस्ट लोग मन्त्रिमण्डल बनाने की भारी भूल कर नहीं सकते। जब तक सर्वहारा क्रान्ति सफल न हो जाये। वे तो चाहते हैं कि उनके सिर्फ एक, दो, चार सदस्य ही पार्लिमेण्ट या असेम्बली में जाये और अपना मन्तव्य वहाँ साफ-साफ सुना दें। वहाँ से उनकी बातें सारी दुनिया के कोने-कोने में आसानी से पहुँच सकती हैं, यही फायदा हैं। ऐसा फायदा दूसरा कौन पहुँचायेगा? जब अवसरवादी मजदूर दली नेता वहाँ अपनी सरकार कायम करने के बाद गड़बड़ करेंगे तो उसका भण्डाफोड़ भी कम्युनिस्ट सदस्य आसानी से बखूबी कर सकेंगे।

    मगर इसी डर से तो मजदूर दलीय लोग इन्हें-दो-चार को भी-पार्लिमेण्ट में चुन-चुना के पहुँचने देना चाहते नहीं, यह बात कहने से मजदूरों की और अन्य पीड़ितों की आँखें ख़ामखाह खुलेंगी कि दाल में कुछ काला हैं तो जरूर। इसके अलावे कम्युनिस्ट लोग यह भी साफ-साफ कह देंगे कि हम तो कहीं न कहीं से अपने दो-एक आदमी पार्लिमेण्ट में भेज ही देंगे, यदि आप लोगों ने चाहा। मगर शेष जगहों से इम तो मजदूर दली लोगों का ही समर्थन करेंगे, चाहे वे हमारा हजार विरोध करें। क्योंकि आप लोग उन्हें चाहते तो हैं, उनपर विश्वास करते तो हैं। यद्यपि हम तो उन्हें खूब जानते हैं और इसीलिए उनपर विश्वास नहीं करते। तथापि आप लोगों की खातिर ही उनकी सहायता ठीक वैसे ही करते हैं जैसे फाँसी की रस्सी फाँसी पड़ने वाले की सहायता 'सपोर्ट' करती हैं। अंग्रेजी में मदद या सहायता को 'सपोर्ट' कहते हैं, खास कर चुनाव में तो जरूर ही। फाँसी की रस्सी फाँसी पड़नेवाले को यों सपोर्ट करती हैं कि अगर वह टूट जाये तो आदमी मरे ही न। वह जब नहीं टूटती तभी वह मरता हैं। इस तरह आदमी के फाँसी पड़ने में ही रस्सी की मदद-सपोर्ट-हैं। हम ठीक उसी तरह इन मजदूर दलीयों को सपोर्ट करते हैं। क्योंकि इस प्रकार जब ये बहुमत में चुने जाकर पार्लिमेण्ट में पहुँचेंगे और अपना मन्त्रिमण्डल बनायेंगे तभी आप देखेंगे कि ये आपको कैसे धोखा देते हैं और अपने वादे पूरा नहीं करते। तभी आपकी आँखें खुलेंगी और आप इनका असली रूप पहचानेंगे। फिर तो इन्हें अपने दिल से उतार देंगे और ये इस प्रकार राजनीतिक दृष्टि से फाँसी चढ़ जायेगे, मर जायेगे। तब आपको विश्वास होगा कि हमारा ही कहना ठीक हैं, हमारा बताया रास्ता ही आपके लाभ का हैं। तभी आप लोग हमारा साथ देंगे।

    लेनिन ने यह भी कहा हैं कि अगर मजदूर दल के साथ इस बारे में समझौता न हो तो कोई बात ही नहीं हैं। तब तो हमें पार्लिमेण्ट में या बाहर अपने सिद्धान्तों के प्रचार और काम की पूरी आजादी होगी ही। तब हम अपने उम्मीदवार भी बहुत ही कम भेजेंगे और वह ऐसी जगहों से ही जहाँ हमारी जीत जरूर हो। मगर हम ऐसा ख्याल जरूर रखेंगे कि जहाँ हमारे उम्मीदवार के चलते मजदूर दल का आदमी हार जाये और पूँजीवादी दल का-फिर चाहे वह उदार दल का हो या दकियानूस दल का-उम्मीदवार जीत जाये वहाँ अपना आदमी खड़ा किसी भी दशा में नहीं करें। यह भूल हम नहीं करेंगे कि हम भी हारें और मजदूर दल भी। क्योंकि तब तो मजदूर दल ही ख़ामखाह झूठा प्रचार करेंगे कि मालदारों से मिल के हमें इन लोगों ने हराया हैं और इसमें हमारे पक्ष की हानि हैं। क्योंकि लोग आसानी से मान जायेगे कि जब खुद जीत नहीं सकते थे तो आखिर खड़े क्यों हुए-खड़े क्यों किये गये? इसलिए हो न हो दाल में काला जरूर हैं ! चुनाव में तो ख़ामखाह ऐसे ख्याल हो जाया करते हैं। इसीलिए हमें इस खतरे से बचना होगा।

    मगर अगर कहीं मजदूर दल से समझौता हो जाये तो? उस दशा में भी हमें पार्लिमेण्ट में या बाहर भी अपनी आजादी पूर्ण रूप से कायम रखनी होगी। हम ऐसी शर्त पर कोई भी सुलह या समझौता कर नहीं सकते जिसमें हमारे मेम्बर को पार्लिमेण्ट में हमारे सिद्धान्त के अनुसार बोलने और काम करने की पूरी आजादी में जरा भी बाधाँ हो। उसी तरह बाहर भी हमें अपने प्रचार और काम की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी ताकि अपने सिद्धान्तों को लोगों को समझायें या उनकी सिद्धि के लिए सब तरह की लड़ाई लड़ें और काम करें, इन बातों में जरा भी बाधाँ होने पर हम समझौते को ताक पर रख देंगे, चाहे नतीजा कुछ भी क्यों न हो और चाहे हमारा एक भी आदमी पार्लिमेण्ट में न जाये। अपनी पूरी आजादी रख के ही हमें पार्लिमेण्ट में जाना हैं। नहीं तो हम खत्म ही हो जायेगे। इस जाल से हमें सजग रहना हैं। पार्लिमेण्ट में हर हालत में जाना जरूरी नहीं हैं।

    अब तक इस बारे में हमने विस्तार से जो कुछ कहा हैं उस सम्बन्ध में लेनिन के कुछ वचन उध्दृत करना जरूरी हैं। बस, इतने से ही हमारा यह काम पूरा हो जायेगा और हम आगे बढ़ेंगे। लेनिन कहता हैं-

    इन उदाहरणों का अर्थ लिखना बेकार समझते हैं। इस बारे में जो बातें हमने बहुत ही सफाई और विस्तार के साथ कही हैं उनमें हरेक यहाँ कुछ संक्षिप्त रूप में कही गयी हैं। नई बात कोई भी नहीं कही गयी हैं। अंग्रेजी इतनी साफ हैं कि थोड़ी भी जानकारी होने पर समझ में आ सकती हैं। हाँ, मजदूर दल का नाम लेने के बजाये लेनिन ने उनके तत्काल के लीडर हेन्डरसन और स्नाउडन का ही नाम बार-बार लिया हैं। मगर उसका मतलब लेबर पार्टी या मजदूर दल से ही हैं। हाँ, जो लोग बलशाली और प्रभावशाली दकियानूसियों से कोई भी समझौता किसी भी दशा में करना क्रान्ति-विरोधी काम समझते हैं उन्हें इसी सिलसिले में लेनिन ने ऐसा कस के तमाचा लगाया हैं कि वह जानने लायक ही हैं। वह कहता हैं कि समझौता तो इसीलिए करते हैं कि अपनी ताकत बढ़े और साँस लेने का मौका मिले, ताकि संगी-साथी बना लें। यदि अकड़कर जबर्दस्त शत्रु से ख़ामखाह लड़ेंगे तो चौपट ही हो जायेगे। फलत: ऐसे मौकों पर समझौता करके ही काम निकालना चाहिए। इस कथन की आगे भी उपयोगिता हैं। लेनिन कहता हैं-

    ''बिना किसी समझौते के या बगैर दायें-बायें घूमे सीधे अकड़कर चलना ठीक ऐसा ही हैं जैसा कि दस हजार सैनिकों का पचास हजार दुश्मन सिपाहियों से भिड़ जाना, जबकि बुद्धिमानी यह होगी कि रुक जाये, थोड़ा चक्कर काट लें या शत्रु से सुलह भी कर लें। ताकि कुछ फुर्सत मिल जाये और इतने में एक लाख सैनिक भी आ जाये, जो आनेवाले ही हैं; मगर जो फौरन ही लड़ने को हाजिर नहीं हैं। यह तो निरा दिमागी लड़कपन हैं। न कि एक क्रान्तिकारी वर्ग के द्वारा खूब सोच-विचार के चली गयी चाल।''

    दो-एक बातें यहाँ कह देना जरूरी हैं। समझौते वाले इस वाक्य में तो नहीं, लेकिन इससे पूर्व जगह-जगह कम्युनिस्ट पार्टी और कोमिन्टर्न या थर्ड इण्टरनेशनल का जिक्र बार-बार आया हैं। लेनिन और स्तालिन के वाक्यों में यह बात आती रही हैं। आगे भी आ सकती हैं। इससे कोई यह समझने की भूल न कर बैठे कि यहाँ जो कुछ लिखा जा रहा हैं वह या यह लम्बी-चौड़ी कोशिश केवल कम्युनिस्ट पार्टी के ही लिए हैं। इसी तरह समाजवाद या साम्यवाद के लिखने से सोशलिस्ट पार्टी या कम्युनिस्ट पार्टी और उनके मन्तव्यों से हमारा मतलब नहीं हैं। हमें तो असल में पता भी नहीं कि इन या दूसरी पार्टियों के क्या-क्या मन्तव्य हैं। बहुत यत्न के बाद भी हम उनकी कुछ ही बातें जान सके हैं, जान सकते हैं। कोई भी जब तक उन पार्टियों के भीतर न जाये उनकी सारी बातें कैसे जान सकता हैं? हमें इसकी जरूरत हैं भी नहीं। हमें तो सिर्फ किसान सभा, मजदूर सभा आदि वर्ग-संस्थाओं और उनके आन्दोलनों को ही मद्देनजर रख के बातें लिखना और सोचना हैं। हम तो उन्हीं के लिए रास्ता साफ करना चाहते हैं। खासकर हमें यह फिक्र हैं कि हमारी किसान सभा के नेता और कार्यकर्त्ता राजनीति में गलत रास्ता न पकड़ लें। उन्हीं का ठीक पथप्रदर्शन हमारा लक्ष्य हैं। उस दृष्टि से मार्क्स और एंगेल्स के सिद्धान्तों पर हमने विचार किया हैं। क्योंकि उन सिद्धान्तों पर हमें विश्वास हैं। उनको व्यावहारिक रूप देने में लेनिन का ही बड़ा जबर्दस्त हाथ पहले पहल हुआ और स्तालिन ने उसमें ही अमली सहायता की। यही कारण हैं कि लेनिन के ज्यादा उदाहरण हमने दिये हैं और कुछ स्तालिन के भी। लेनिन की तो अपनी पार्टी कम्युनिस्टों की ही थी। इसीलिए उसने उन्हीं को लक्ष्य करके बार-बार लिखा हैं। स्तालिन ने भी यही किया हैं। मगर यदि किसान सभा या मजदूर सभावाले ऐसा समझ लें कि ये बातें कम्युनिस्टों या सोशलिस्टों की ही हैं तो ठीक न होगा। ये तो मार्क्सवादी बातें हैं हमने यही समझ के लिखा हैं। उस विषय के ग्रन्थों का स्वतन्त्र मन्थन करने और जन-आन्दोलन के अनुभवों के आधार पर हम निरपेक्ष रूप से जिस नतीजे पर पहुँचे हैं उसे ही यहाँ लिखा हैं। कौन-सी पार्टी इन बातों से सहमत हैं, कौन नहीं, और जो सहमत हैं वह भी कहाँ तक, इसकी परवाह हमें न थी और न हैं।

    लेनिन ने पार्लिमेण्ट के चुनाव को लेकर जो बातें लिखी हैं उनके बारे में भी हमें अपनी ही दृष्टि से सोचना हैं। उसने जो कुछ लिखा हैं वह बातें तो माके की हैं और उनका उपयोग सदा हो सकता हैं। उनका प्रयोग करने में स्थान-स्थान की परिस्थिति के अनुसार, सम्भव हैं, थोड़ा-बहुत फर्क पड़े। यह ठीक ही हैं। सर्वत्र सर्वदा परिस्थिति एक ही होती नहीं। इसीलिए हर देश में वहाँ के लोगों को वहीं की परिस्थिति देख के काम करना चाहिए। लेनिन ने खुद भी कहा हैं कि मार्क्स के सिद्धान्तों के प्रयोग में सर्वत्र समानता नहीं हो सकती हैं। उसने तो यह भी कहा हैं कि प्रयोग के समय बहुत-सी बातों को बढ़ाना और घटाना होगा। यह सही हैं कि मार्क्स की बुनियादी बातें बदल नहीं सकती हैं। मगर उनकी सिद्धि के लिए जो कुछ किया जाता हैं उसमें परिवर्तन होना जरूरी हैं। वह हर देश-काल में बाइबिल, कुरान या वेद की मन्त्र की तरह ज्यों का त्यों व्यवहार में लाया जा सकता हैं नहीं। वह 'हमारा कार्यक्रम' में लिखता हैं-

    ''हम तो यह बात कभी नहीं मानते कि मार्क्स के मन्तव्य पूर्ण हैं और उनमें रद्दोबदल या कमी-बेशी की जा सकती नहीं। विपरीत इसके हमारा यकीन हैं कि इस सिद्धान्त ने उस सिद्धान्त की केवल नींव डाल दी हैं और सोशलिस्टों का काम हैं कि उसी नींव पर चारों ओर महल खड़ा करें यदि वे इस जीवन में पीछे पड़ना नहीं चाहते। हम विश्वास करते हैं कि खासतौर से रूसी सोशलिस्टों के लिए यह जरूरी हैं कि मार्क्स के सिद्धान्तों पर स्वतन्त्र रूप से अमल करें। क्योंकि इस सिद्धान्त में सर्वसाध्य रूप में कुछ मूलभूत बातें कही गयी हैं। उन्हें विस्तार रूप से अमल में लाने में फ्रांस की अपेक्षा इंग्लैंड में, जर्मनी के मुकाबिले में फ्रांस में और रूस की अपेक्षा जर्मनी में कुछ दूसरी ही शक्ल देनी होगी।''

    हाँ, हमारे यहाँ जो उस समय के इंग्लैंड की अपेक्षा विशेषता हैं वह यही हैं कि कांग्रेस का सभी लोगों पर काफी प्रभाव होते हुए भी किसानों और मजदूरों वगैरह पर से वह धीरे-धीरे घट रहा हैं। विद्यार्थियों को तो कांग्रेस से बहुत कुछ निराशा हो रही हैं। दूसरे तबकों की भी बहुत कुछ यही बात हैं। दूसरी ओर किसानों, मजदूरों आदि की स्वतन्त्र सभाओं और उनके अलग आन्दोलनों का असर बढ़ रहा हैं। वह हैं भी काफी। हमारी बातें सुनने को लोग यहाँ तैयार न हों यह तो कहा जा ही नहीं सकता हैं। लोग तो इसके लिए खूब ही तैयार हैं, उत्सुक हैं।

    एक बात और हैं। गत चुनाव में हमने कुछ भूलें की हैं जिनका मौका तब तक इंग्लैंड के कम्युनिस्टों को नहीं हुआ था। एक तो हमने कांग्रेस की चुनाव घोषणा पर एक तरह से अपनी मुहर लगा दी, जब हमने कांग्रेसी उम्मीदवारों का प्राय: आँख मूँद के समर्थन किया। हमने लेनिन के आदेश के अनुसार सारी बातें जनता को समझायीं ही नहीं। पीछे चलकर लोग वादा खिलाफ़ी जरूर करेंगे यह बात हमने कहाँ कही? हम तो ऐसा काम उस समय आमतौर से कर रहे थे जिससे पता चलता था कि कांग्रेस की चुनाव घोषणा और वादों पर हमारा पूरा यकीन हैं। कम-से-कम किसानों ने तो यही समझा और इसका नतीजा हमें पीछे भुगतना भी पड़ा। खुद हमारे पास आ-आ के किसानों ने आँसू भरी आँखों से उलाहने दिये कि आप ही के कहने से हमने वोट दिया और आज कांग्रेसी मन्त्रियों के यहाँ हमारी सुनवायी नहीं हैं। चुने गये मेम्बर अब हमारी बातें भूल से गये हैं। यह तो ऐसी भूल थी कि वैसी शायद ही हो। इससे हमें कुछ धक्के लगे। हालाँकि किसान सभा ने अपना रास्ता साफ रखने की भरपूर कोशिश की।

    दूसरी भूल हमने यह की कि अपने स्वतन्त्र उम्मीदवार हमने एक भी नहीं भेजे। कहीं-कहीं कम्युनिस्टों ने जरूर ऐसा किया। मगर जहाँ तक किसान सभा का ताल्लुक हैं कहीं भी ऐसा नहीं हुआ। हमारे जो भी आदमी गये कांग्रेस के ही नाम पर गये। हमने उनकी स्वतन्त्रता की शर्त भी कांग्रेस से नहीं करायी। नतीजा यह हुआ कि वे कांग्रेसी अनुशासन में बँधो होने के कारण अपने स्वतन्त्र विचार वहाँ अच्छी तरह रख न सके अगर कभी-कभी उनने ऐसा किया भी तो एक तो अनुशासन से डरते रहे। दूसरे पूरी सफाई के साथ उनने अपनी स्वतन्त्रता नहीं दिखलायी। बोलने में, राय देने में जितनी आजादी से उन्हें काम करना चाहता था वे उतनी आजादी से कर न सके। कांग्रेसी अनुशासन की बात जो थी। अगर कुछ किया भी तो अनुशासन की परवाह न करके ही और नेताओं को ललकार के ही। मगर इसमें काफी दिक्कतें और अड़चनें आयीं। यह तो एक अजीब बात थी हम अपने को यों बाँध दें !

    इन दो बातों पर ध्यान रख के ही हमें आगे काम करना हैं। सबसे बड़ी बात यह हैं कि कांग्रेसी मन्त्रियों ने इतना गुड़ गोबर किया और किसानों तथा मजदूरों को इतना निराश किया कि कुछ कहिये मत वे ऐसा करेंगे ऐसी आशा तो पहले कभी थी नहीं। उनने यहाँ तक किया कि किसानों के वर्ग-शत्रु जमींदारों से बार-बार समझौते खुलेआम किये। पूँजीवादियों से भी कुछ ऐसा ही किया। बिहार के किसानों पर और किसान नेताओं एवं कार्यकर्त्ताओं पर आफत के जो पहाड़ टूटे उनका तो कहना ही बेकार हैं ! यहाँ आतंक राज्य कायम हो गया ! जेलों में हजारों की तादाद में हम सड़ाये गये। ऐसी तबाही का सामना हमें, किसानों को करना पड़ा कि कुछ पूछिये मत। डेढ़-डेढ़, दो-दो मास तक और इससे भी ज्यादा हम में कितने को-नेताओं तक को-अनशन करने पड़े सिर्फ इसीलिए कि मामूली जरायमपेशा की तरह हमें जेलों में न रखा जाये क्योंकि बकाश्त संघर्ष के लिए ही तो जेल गये थे-भेजे गये थे। मगर सुनने वाला कोई न था ! बम्बई, कानपुर आदि के मजदूरों तथा मजदूर नेताओं पर भी कुछ ऐसी ही गुजरी। फलत: कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल का इतिहास शोषितों और पीड़ितों की दृष्टि से बड़ा ही हृदय द्रावक और आँखें खोलने वाला हैं। उसने इनकी आँखें खोल दी हैं।

    यद्यपि जमींदारों और मालदारों की ताकत किसी भी प्रकार बढ़ाना हमारा काम नहीं हैं, तो भी हमें यह भी गौर से देखना हैं कि कहीं कांग्रेसी के ही द्वारा उनकी ताकत न बढ़ जाये। क्योंकि तब तो और भी बुरा होगा-तब तो शोषित जनता अपने ही हाथों अपनी कब्र खोद लेगी। अत: सिर्फ इसी खतरे से बचने के लिए ही जो कुछ उचित समझा जायेगा किया जायेगा। अगर कांग्रेस के नेता इस बात की पक्की गारण्टी कर सकें जिसमें यह खतरा न हो, तो उनके साथ जहाँ तक हो सके सहयोग करने में कोई दिक्कत हो ही नहीं सकती। मगर वह गारण्टी केवल जबानी जमा-खर्च से या लिखने-पढ़ने से हो नहीं सकती। फैजपुर प्रोग्राम और चुनाव घोषणा से बढ़कर लिखी-पढ़ी की बात और क्या हो सकती हैं? मगर जब उस पर अमल न हुआ तो दूसरे पर कैसे होगा? ऐसी दशा में वह गारण्टी क्या होगी यह बताना आसान नहीं हैं। मगर यदि मुल्क को आगे बढ़ना हैं तो उसे ढूँढ़ना ही होगा।

    हाँ, तो अब हमें संयुक्त मोर्चे की सम्भावना की दूसरी हालत पर विचार करना चाहिए जो आज चीन में पैदा हो गयी हैं और जिसकी ओर पहले ही इशारा किया जा चुका हैं। हम यह तो पहले ही कह चुके हैं कि वहाँ कम्युनिस्टों ने चियांग कैशेक के दाँत खट्टे कर दिये थे। जब ता. 16/1/34 को समुद्र के किनारे वाले क्यांग्सी प्रान्त से वे लोग उस लम्बे प्रस्थान के लिए रवाना हुए तो कुल नब्बे हजार सैनिक थे। खूबी तो यह कि स्त्री, बच्चे-बूढ़े, जवान सभी सैनिक ही थे। बीच-बीच में उनके और भी साथी ईधर-से-उधर आ मिले। रास्ते में बहुतेरों को साथी बनाया भी। फिर भी अठारह सौ से लेकर पचास सौ ला (चीनी तीन ला का एक मील होता हैं) की विकट यात्रा पूरी करके उत्तर-पश्चिमी चीन के शेन्सी प्रान्त के उत्तरी भाग में पहुँच के 'पाव आन' में 20/10/35 को जब जमें तो कुल बीस हजार साथी शेष रह गये थे। बाकी लोग मर गये सो बात नहीं हैं। बहुतेरे मरे भी। लेकिन जगह-जगह साथियों को छोड़ते आने की जरूरत हुई। क्योंकि रास्ते में जिन प्रान्तों और स्थानों को उनने प्रभावित किया वहाँ अपने लोगों और सैनिकों को रखना जरूरी था। नहीं तो सब किया-कराया चौपट जो हो जाता। क्यांग्सी से सभी कीमती और जरूरी चीजें यहाँ तक कि प्रेस वगैरह भी माथे पर लाद कर ही वे लोग चलते रहे। उत्तर-पश्चिमी भाग में उनके साथी पहले से ही जमे थे और काम करते थे। इसीलिए वहीं जाना ठीक समझा गया वह सोवियट की सीमा से निकट और चियांग की पहुँच से दूर भी हैं। चियांग का वहाँ पहुँचना आसान भी न था।

    वे लोग बीच-बीच में लड़ते भी रहे और इतने पर भी औसतन चौबीस मील प्रतिदिन चलते रहे। रास्ते में उन्हें अठारह पहाड़ टपने पड़े, जिनमें पाँच तो ऐसे हैं जिन पर बारहों मास बर्फ जमी हुई रहती हैं ! कुल बारह प्रान्तों में होकर चौबीस नदियाँ उन्हें पार करनी पड़ीं। बासठ शहरों पर उनने दखल जमाया, चियांग ने रास्ते में जानें कितनी ही जगह खुद अपनी फौजों से उनका रास्ता घेरा, खासकर भयंकर नदियों के पार करने के लिए जहाँ पुल थे और दूसरा रस्ता था ही नहीं। मगर उनका सभी जगह मुकाबिला करके वे सफल रहे। चियांग के साथी दस प्रान्तीय डाकू सरदारों की भी फौजों को उनने रास्ते में ही हराया। मार्ग में छ: ऐसे-ऐसे आदिवासियों के बड़े-बड़े इलाकों से उन्हें गुजरना पड़ा जहाँ बहुत दिनों तक कोई भी चीनी फौज तक जा न सकी थी। कुछ तो ऐसे भयंकर आदिवासी हैं जो चीनी नाम से ही खार खाते और खून के प्यासे हो जाते हैं। मगर उनसे भी उनने दोस्ती कर ली। ऐसे रास्ते से भी मजबूरन चलना पड़ा जहाँ कीचड़ ही कीचड़ हैं और लोग धँस जाते हैं। ऐसी जगहें भी मिलीं जहाँ खाने-पीने को कुछ मिलता ही न था। फिर भी वाह रे हिम्मत! वाह रे मर्दानगी ! आखिर सभी समान के साथ निर्द्दिष्ट स्थान पर पहुँच के ही रहे उनके बड़े-से-बड़े नेता मावसेतुंग वगैरह भी पैदल ही चलते रहे और साथ ही पहुँचे भी। ऐसा ऐतिहासिक प्रस्थान शायद ही कोई कर पाये !

    इससे इस बात का कुछ अन्दाज लगता हैं कि चियांग कैशेक को किन फौलादी लोगों से काम पड़ा था। इतना ही नहीं। जब ता. 12/12/36 को उत्तर पश्चिम के उसी शेन्सी प्रान्त के सियान्फू में सुबह 6 बजे के पहले ही चियांग को उन्हीं के आदमियों ने गिरफ्तार कर लिया और संयुक्त मोर्चे की बात शुरू की, तो उस समय चियांग की वहाँ भेजी हुई कई लाख फौजें जो सालों से पड़ी थीं, कम्युनिस्टों से मिल के चियांग से बागी हो चुकी थीं। उनके सेनापतियों की भी वही हालत थी। जिस चांग स्यूहलियांग को उनने अपना प्रतिनिधि सेनापति बनाकर भेजा था वह भी उधर ही जा मिला था। वह हैं मंचूरिया के चांगसोलिन का पुत्र। उसे मंचूरिया के चले जाने का दर्द बना हैं। इसीलिए जापान से लड़ने को बराबर तैयार था। उसने हर तरह से पता लगा लिया था कि कम्युनिस्ट ईमानदारी से जापान के विरुद्ध लड़ना चाहते हैं। चियांग की जिन फौजों को कम्युनिस्ट लोग लड़ाई में पकड़ते थे उन्हें आराम से रख के लड़ने की यही बात सिखाते और वापस भेजते थे। यह बात बरसों से चलती आयी। उनने 1935 के अगस्त में ही इस बात की घोषणा भी निकाली थी कि सब कुछ बन्द करके जापान के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने को हर तरह से तैयार हैं। काम भी वैसा ही करते थे। फलत: चीन की जनता, खासकर शहरों के लोग, जो चियांग के साथी थे, मानने लगे थे कि कम्युनिस्टों का कहना सही हैं और वे ईमानदारी से जापान के विरुद्ध मिल के लड़ना चाहते हैं। चियांग की जो फौजों के सिवाय नानकिंग की सरकार के बहुतेरे प्रमुख लोग और क्यूमिनटांग के चलते-पुर्जे लोग भी इस बात का विश्वास करने लगे थे। व्यापारियों का तो कुछ कहना ही नहीं।

    ऐसी दशा में चियांग के पाँव के तले की मिट्टी ही खिसक चुकी थी। उसे पकड़ने के दिन चियांग की बागी फौजों के सेनापतियों ने ही ऐसी गुप्त-मन्त्रणा की कि किसी को पता न चला जब तक कि वह पकड़ न लिया गया। उसके पकड़े जाने के पूर्व उसकी संरक्षक सेना, पुलिस अफसर वगैरह सभी एक ही साथ एकाएक पकड़ लिये गये थे ! जो पचास हवाई जहाज कम्युनिस्टों पर बम तथा जहरीली गैस बरसा के उन्हें अन्तिम बार खत्म करने के लिए वहाँ आ गये थे और जिनका काम चालू करने के लिए खुद चियांग आया था वह भी गिरफ्तार हो चुके थे। यह गजब की करामात कम्युनिस्टों ने की थी। हालाँकि वे खुद अलग थे मगर इससे उनकी शक्ति का दूसरा पता चलता हैं। चियांग ने और पचास हवाई जहाज मँगाने का प्रबन्ध किया था ! मगर सब बेकार !

    इसी के साथ कम्युनिस्टों के नेता मावसेतुंग ने एडगर स्नो नामक 'रेड स्टार ओवर चायना' के अमेरिकन लेखक से साफ ही कहा था कि-

    ''यद्यपि कम्युनिस्ट पार्टी को कुछ ज्यादा पक्की आशा नहीं हैं कि नानकिंग सरकार को जापान से भिड़ने के लिए वह रूजू कर सकेगी। तथापि इसकी सम्भावना हैं। जब तक यह बात हैं तब तक हमारी पार्टी हर जरूरी बातों में सहयोग करने के लिए तैयार रहेगी। लेकिन अगर चियांग कैशेक को ख़ामखाह यही मंजूर होगा कि घरेलू युद्ध जारी ही रहे, तो हमारी लाल सेना उनसे मुकाबिला भी करेगी।''

    इसी के साथ एक बात और थी। मावसेतुंग और उनकी पार्टी का पूरा असर किसानों पर था इसमें तो कोई शक नहीं और अगर कोई पार्लिमेण्टरी सरकार उस समय कायम होती तो उसमें उनका ही बहुमत होता। लेकिन उनके हजारों साथी, जवान विद्यार्थी वगैरह जो जेलों में सड़ रहे थे उन्हें संयुक्त मोर्चे के फलस्वरूप रिहाई मिल जाती तो फौज, किसान, मजदूर वगैरह में उनके सिद्धान्त के प्रचार की आसानी हो जाती। हुआ भी ऐसा ही। संयुक्त मोर्चे के फलस्वरूप लाखों लोगों की एक-एक मीटिंगें होने लगीं, ऐसा 'रेडस्टार ओवर चाइना' (चीन में लाल तारा) में लिखा गया हैं। सबसे बड़ी बात यह थी कि चीन के चालीस लाख में से तीन चौथाई मजदूरों पर जो उनका जरा भी असर न था वह हो पाता। यों तो शेन्सी में वे लोग इस तरह कैद थे कि एक भी जगह जा-आ सकते न थे। फिर मजदूरों से सम्बन्ध कैसे होता। मगर शंघाई वगैरह में तो खासतौर से वे कुछ नहीं कर सकते थे। एडगर स्नो अपनी उस किताब में इस बारे में यों लिखता हैं-

    ''चीन के करीब एक तिहाई मजदूर तो केवल शंघाई में संसार की आधो दर्जन बड़ी ताकतों के फौजी जहाजों की मातहती में रहते हैं। टीनसीन, सिंगताउ, शंघाई, हैंकाऊ, हांगकांग, काऊलून और साम्राज्यवादियों के असर वाले दूसरे शहरों में ही चीन के कुल मजदूरों के करीब तीन चौथाई रहते हैं। उन सबों का सबसे चोखा नमूना शंघाई हैं। वहीं पर ब्रिटिश, अमेरिकन, फ्रांसीसी, जापानी, इटालियन तथा चीनी सिपाहियों, जहाजी बेड़े के सैनिकों और पुलिसवालों को साफ देख सकते हैं कि संसार व्यापी साम्राज्यवाद की सारी ताकतें चीन की गुण्डाशाही और विदेशियों के चीनी दलालों से, जो इस देश के समाज में सबसे पतित हैं, एक साथ मिल के चीन के लाखों मजदूरों के माथे पर डण्डा चलाने में कैसे सहयोग कर रही हैं !

    ''मजदूरों को भाषण देने, सभा करने या अपना संगठन करने के सभी अधिकार तो छीने जा ही चुके हैं। जब तक देशी और विदेशी पुलिस और फौजों का द्वैधा शासन जारी हैं तब तक चीन के कारखानों के मजदूरों को राजनीतिक आन्दोलन के लिए तैयार करने का ख्याल भी नहीं किया जा सकता ! यह तो इतिहास में एक ही बार सो भी कुछ ही दिनों के लिए सिर्फ 1927 में हो सका था, जबकि चियांग कैशेक ने उत्तर के डाकू सरदारों पर विजय प्राप्त करने के लिए इन मजदूरों से काम लिया था। मगर उस जीत के बाद ही फौरन उनका दमन खूँखारी से बुरी तरह किया गया कि वह ऐतिहासिक चीज हो गयी हैं। इस बात में विदेशी पूँजीपतियों की आर्थिक सहायता और विदेश सरकारों की मंजूरी थी। इसीलिए चीन के शहरों के मजदूरों को क्रान्ति के लिए उकसाने की सभी कोशिशें बेकार हैं।''

    संयुक्त मोर्चे से मावसेतुंग को यही बहुत बड़ा लाभ होने को था। आखिर क्रान्ति का नेतृत्व किसान तो कर सकते नहीं और मजदूरों तक कम्युनिस्टों की पहुँच असम्भव थी। इसीलिए वे उसका रास्ता साफ करना चाहते थे। मावसेतुंग यह भी चाहते थे कि सन 1924 के बाद 1927 के पहले जिन शर्त्तों पर क्यूमिनटांग के साथ संयुक्त मोर्चा था वह फिर भी माना जाये। वही शर्तें डाँ. सनयात सेन और एडोल्फ जाफे के बीच तय पायी थीं। जनतन्त्र तथा किसान क्रान्ति की सफलता के लिए वह जरूरी थीं, बुनियादी थीं और चीन उसी क्रान्ति के जमाने से गुजर रहा हैं भी। इसीलिए एडगर स्नो से-

    ''उनने कहा कि ऐसी सरकार स्थापित होने पर डाँ. सनयात सेन की आखिरी वसीयत और उनके जो तीन बुनियादी सिद्धान्त बड़ी-बड़ी क्रान्तियों के लिए जरूरी हैं वे-दोनों ही-फिर से अपनी जगह आ जायेगे और पूरे भी हो जायेगे। वे तीन सिद्धान्त ये हैं-

(1) सोवियट रूस तथा चीन को अपने समान मानने वाले दूसरे देशों से दोस्ती।

(2) चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से मेल तथा,

(3) चीनी मजदूर वर्ग के स्वार्थों की बुनियादी तौर पर रक्षा।

    ''उनने कहा कि यदि क्यूमिनटांग ऐसा करे तो हम लोग उसके साथ सहयोग करें और उसकी मदद करने को तैयार हैं और जैसा 1925-27 में था वैसा ही संयुक्त मोर्चा साम्राज्यवाद के विरुद्ध बनाने को मुस्तैद हैं। हमारा यकीन हैं कि हमारे राष्ट्र को बचाने का यही एक उपाय हैं।''

    इस प्रकार वह चाहते थे कि चियांग कैशेक उसी जगह आ जाये जहाँ वह 1927 के शुरू में था ! इसमें उनकी जीत थी। जैसा कि लेनिन ने बार-बार कहा हैं, वह अपनी बुनियादी बातों को छोड़ने को हर्गिज तैयार न थे। हाँ, ब्यौरे की सभी बातें बदलने में उन्हें उज्र न था। उनने कहा कि-

    ''कम्युनिस्ट लोग नामों में ऐसा परिवर्तन करने को तैयार होंगे जिसमें सहयोग में आसानी हो जाये। लेकिन लाल सेना की जो स्वतन्त्र हस्ती और उसका जो खास काम हैं उसमें बुनियादी तौर पर रद्दोबदल नहीं कर सकते। इस तरह अगर जरूरत हो तो लालसेना का नाम 'क्रान्तिकारी राष्ट्रीय सेना' रखा जा सकता हैं, 'सोवियट' नाम छोड़ दिया जा सकता हैं और जब तक जापान से लड़ने की तैयारी हैं तब तक के लिए किसान सम्बन्धी नीति में परिवर्तन हो सकता हैं।''

    कम्युनिस्टों ने यह प्रस्ताव बाकायदा नानकिंग में भेजा था कि यदि राजनीतिक बन्दियों की रिहाई के साथ ही साथ पूर्वोक्त शर्तों को वह मान ले तो हम लोग सेना का नाम बदल के उसे 'फौजी मामला कमीशन' के मातहत कर देंगे जिसमें हमारे भी प्रतिनिधि होंगे। 'सोवियट' की जगह चीनी प्रजातन्त्र के खास 'इलाके की सरकार' नाम रख देंगे, लोकतन्त्र सरकार की स्थापना कर देंगे और जमींदारियों का छीनना रोक देंगे। मगर छीनी जमीनें वापस नहीं करेंगे और जहाँ वे किसानों को दे दी गयी हैं वहाँ उनसे फिर छीनी न जायेगी। हाँ, जो उन्हें दी नहीं गयी हैं वह ज्यों-की-त्यों रखी जायेगी। नवीन इलाकों में उनमें सोवियट प्रणाली का प्रचार बन्द कर दिया जब तक संयुक्त मोर्चा रहे तब तक के लिए ही। मगर भविष्य में हमेशा के लिए नहीं। नानकिंग ने जो शर्तें कबूल की थीं उनके फलस्वरूप कम्युनिस्टों की ला इस पर हम एडगर स्नो के ही शब्द लिख देना चाहते हैं। वह कहता हैं-

    ''ख्याल कीजिये कि नानकिंग की शर्तें फिर कम्युनिस्टों के हाथ में ही उनका छोटा-सा राज्य छोड़ देती हैं, उनकी अपनी सेना, अपना संगठन और अपनी पार्टी ज्यों की त्यों रहने देती हैं और भविष्य के लिए उनका बड़ा-से-बड़ा प्रोग्राम कायम रखती हैं।''

    कहा जाता हैं कि उनने तत्काल वर्ग-संघर्ष छोड़ दिया-अर्थात उसे बढ़ाना बन्द करके जहाँ तक पहुँचा था वहीं रहने दिया। मगर जरा ख्याल तो कीजिये कि भविष्य के लिए उनने तैयारी कितनी कर ली। जहाँ तक वर्ग-संघर्ष पहुँच चुका था उसे कायम रखना भी तो जरूरी था। मगर वे तो कैद थे और उसी समय (12-12-36) को सो हवाई जहाज, बम और जहरीली गैस लेके उन्हें खत्म करने की तैयारी चियांग पूरी कर चुका था। उन पर घेरा ऐसा डाल दिया था कि वे न तो कोई मशीन बाहर से ला सकते थे, न छापने का कागज, न पुस्तकें, न अखबार और न ऐसी ही और चीजें, जो आज के समाज को बढ़ाने के लिए निहायत जरूरी हैं। उनने इन सब बातों की आजादी पा ली और वर्ग-संघर्ष को जहाँ तक पहुँचाया था उसे कायम रखा। नहीं तो सब जाता रहता।

    इतना ही नहीं। वे जानते थे कि बिना समस्त जनता को अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित किये और लोगों को राजनीतिक ढंग से फौजी शिक्षा दिये जापान से पार पाना कठिन हैं। एक बार इसमें पड़ने पर तो चियांग को मजबूरन यही करना होगा। भाड़े की फौजों से काम चलने का नहीं। जब तक देश के लिए, उसकी आजादी के लिए फौजों में और सारे किसानों, मजदूरों में मर-मिटने की आन न हो, जापान को हराया नहीं जा सकता। फलत: मावसेतुंग के दल के लिए यह भारी-से-भारी वर्ग-संघर्ष था। सारे किसान-मजदूर आजादी की लड़ाई में सामूहिक रूप से सीधे खिंच आयें और सशस्त्र हो जाये यह क्या क्रान्तिकारी वर्ग-संघर्ष से कम हैं? आखिर इन्हीं लोगों के बल पर ही तो भविष्य में पूँजीवादी क्रान्ति और  सर्वहारा क्रान्ति करनी थी। किसान तो पहले से भी उनके साथ ही थे। बाकी भी हो ही जायेगे। मजदूर भी होंगे। बाकी जो कमी थी शस्त्रास्त्रा की वह भी पूरी हो जायेगी। फिर क्रान्ति के लिए और क्या चाहिए? इसलिए उनने बड़ी दूरंदेशी से काम लिया। यही बात एडगर स्नो पुस्तक के अन्त में यों लिखता हैं-

    ''उन (कम्युनिस्टों) ने पहले से ही समझ लिया था कि इस युद्ध में करोड़ों लोगों को हथियार देने, पूरी तरह सज्जित करने और लड़ने में शिक्षित बनाना जरूरी हैं जिसके दो फल होंगे। पहला यह कि बाहरी मांस की वृद्धि के रूप में स्थिति रखनेवाले साम्राज्यवाद को सर्जन की तरह काट दिया जाये। दूसरा यह कि चीन के भीतर धनी वर्ग के द्वारा जो बाकी लोग सताये जाते हैं यह एक कैंसर के फोड़े की तरह हैं। इसे भी चीर दिया जायेगा, उनने सोच लिया कि इस प्रकार का युद्ध तभी चलाया जा सकता हैं जब सबसे ज्यादा जनता अर्ताथ तैयार की जाये और बहुत ऊँचे दर्जे की राजनीति की शिक्षा फौज को दी जाये-ऊँचे दर्जे की राजनीतिक सेना तैयार की जाये। और इस लड़ाई में विजय केवल अत्यन्त समुन्नत क्रान्तिकारी नेतृत्व में ही हो सकती हैं। इस युद्ध का श्रीगणेश पूँजीवादी कर सकते हैं। मगर यह पूर्ण की जा सकती हैं केवल क्रान्तिकारी मजदूरों और किसानों के ही जरिये। जहाँ एक बार लोगों को अत्यन्त विस्तृत रूप में शस्त्रस्त्रा से सज्जित एवं संगठित किया गया कि कम्युनिस्ट लोग जापान को निश्चित रूप से हराने के लिए जो कुछ भी हो सकेगा करेंगे। जब तक पूँजीवादी जापान से लड़ेंगे कम्युनिस्ट उनका साथ ईमानदारी से देंगे। मगर जब भी पूँजीवादी आगा-पीछा करेंगे, हिम्मत हारेंगे और जापान के सामने झुकरनें का इरादा प्रकट करेंगे, तभी कम्युनिस्ट युद्ध का नेतृत्व खुद अपने हाथ में लेने को तैयार हो जायेगे। कम्युनिस्टों का ख्याल हैं कि पहली बार युद्ध में भारी हानि होते ही पूँजीवादियों में ऐसी मनोवृत्ति आ सकती हैं।''

    इस विश्लेषण से तो आईने की तरह साफ हैं कि चीन-जापान का वर्तमान युद्ध क्रान्तिकारी वर्ग-संघर्ष का एक दूसरा ही और विलक्षण रूप हैं ! ऐसा माना भी जाता हैं कि वर्ग-संघर्ष की प्रगति होते-होते ऐसी स्थिति में वह पहुँच जाता हैं कि साम्राज्यवाद विरोधी युद्ध ही वर्ग-संघर्ष बन जाता हैं। चीन की वही हालत हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता हैं कि वहाँ के साम्यवादियों ने वर्ग-संघर्ष त्याग दिया हैं, चाहे कुछ ही समय के लिए सही। उनने अपना सही मार्ग ठीक कर लिया हैं। उनकी दृष्टि साफ हैं। वे अपना लक्ष्य बड़ी सफाई के साथ देखते हैं। मावसेतुंग के शब्दों में-

    ''संसारव्यापी साम्यवाद के विजय का ही एक भाग होगी चीनी आजादी की लड़ाई की विजय। क्योंकि चीन में साम्राज्यवाद को हराने का अर्थ हैं उसके जबर्दस्त अवें में एक को मिटा देना। यदि चीन ने अपनी आजादी हासिल की, तो संसारव्यापी क्रान्ति बड़ी तेजी से आगे बढ़ेगी। लेकिन अगर हमारे देश को शत्रु ने अधीन कर रखा तो हमारा सब-कुछ खत्म ही समझिये। जिस देश की आजादी छिन गयी हैं उसके लिए क्रान्तिकारी काम फौरन साम्यवादी की स्थापना न होकर आजादी की लड़ाई ही हैं। जिस देश में साम्यवाद स्थापित करना हैं अगर वही हमसे छिन गया तो हम साम्यवाद की चर्चा भी नहीं कर सकते।''

    यह भी याद रखना होगा कि चीन में संयुक्त मोर्चे की सम्भावना इस बात से भी बढ़ गयी थी कि जापानी साम्राज्यवाद ने आक्रमणात्मक उग्र रूप धारण कर लिया था। इससे नानकिंग सरकार के कुछ लोगों में भी उत्तेजना आ गयी थी। एडगर स्नो से मावसेतुंग ने संयुक्त मोर्चे का तात्कालिक कारण यही बताया भी था, जैसा कि “The immediate causes are the severe demands of Japan...These conditions have in turn produced a change in attitude among certain elements in Nanking.” असल में आक्रमण से बचाव के लिए लड़ने में परस्पर विरोधी लोगों का मिल जाना आसान होता हैं। क्योंकि सबों को अपनी रक्षा की (defensive) चिन्ता सबसे बड़ी चीज उस समय रहती हैं जो दूसरे विरोधी विचारों को तत्काल दबा देती हैं। भारत में भी खिलाफत के खतरे और राउलट कानून तथा पंजाब के मार्शल ला के समय कुछ ऐसी ही परिस्थिति थी। फलत: क्रान्तिकारी लड़ाई के लिए पूँजीवादी भी शेष जनता के साथ मिल गये थे। मगर जब यह बात नहीं होती, जब साम्राज्यवाद आक्रमणात्मक उग्र रूप में न हो तब उस पर हमला करने में (offensive) के लिए परस्पर विरोधी लोगों और ताकतों का मिल जाना कठिन होता हैं और भारत में इस समय यही बात हैं। अत: हमें तब तक संयुक्त मोर्चे की प्रतीक्षा करनी होगी, यदि इसकी जरूरत बनी रही, जब तक यहाँ भी साम्राज्यवाद आक्रमणकारी नहीं बन जाता। साम्राज्यवादी युग में ऐसा होना असम्भव नहीं हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि फ्रांस और स्पेन में भी जो संयुक्त मोर्चा बना था वह फैसिस्टों के आक्रमण के ही समय।

    मगर इस पर और कुछ लिखने के पहले हमें उन लोगों की नादानी पर तरस आता हैं जो चीन के वर्तमान संयुक्त मोर्चे की भी निन्दा करते हैं। क्योंकि वह मानते हैं कि संयुक्त मोर्चा तो केवल श्रमिकों या शोषितों का ही परस्पर हो सकता हैं। आश्चर्य तो यह हैं कि हमारे देश के ही कुछ क्रान्तिकारी कहे जानेवाले लोग एक ओर तो कांग्रेस को संयुक्त मोर्चा कह डालते हैं और दूसरी ओर विदेश के लोगों की वही बातें दुहराते हैं कि चीन में पूँजीवादियों से संयुक्त मोर्चा गलत चीज हुई। कम-से-कम विदेशियों के ऐसे नादानीवाले लेखों का प्रचार करते फिरते तो जरूर हैं। वे लेखक यहाँ तक कह डालते हैं कि क्रान्तिकारियों को पूँजीवादियों से कोई समझौता नहीं करना चाहिए। इसीलिए स्पेन और फ्रांस के संयुक्त मोर्चां की भी निन्दा वे करते हैं। मगर हम तो इस बारे में लेनिन की बात पहले ही कह चुके हैं। लेनिन का मन्तव्य हैं कि यदि क्रान्तिकारी लड़ाई का फल समझौता हो तो वह बुरा हैं, त्याज्य हैं। मगर अगर समझौते के फलस्वरूप क्रान्ति की लड़ाई को प्रगति मिलनेवाली हो तो वह ठीक हैं, ग्राह्य हैं। वह वामपक्षीय साम्यवाद में ही कहता हैं कि-

    ''अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवादियों के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी जाती हैं वह तो दो सरकारों के बीच की अत्यन्त खूनी लड़ाई से भी सौ गुनी कठिन, लम्बी और पेचीदा होती हैं। ऐसी लड़ाई को जारी रखना और उसी के साथ पहले से ही चालबाजी तथा दाँव-पेंच से इन्कार कर देना, एक शत्रु के स्वार्थ को दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने से फिर चाहे वह कुछ ही समय के लिए हो हट जाना और तत्काल समझौता और सुलह करने से, जो स्थायी न भी हो, मुँह मोड़ना-क्या ये बातें नादानी की पराकाष्ठा नहीं हैं? तब तो हम ऐसा भी कर सकते हैं कि अब तक न जाने-सुने और खतरनाक पहाड़ पर चढ़ने के समय भी चक्कर काटकर चढ़ने, कुछ पीछे लौट आने या एक बार पकड़े हुए रास्ते को छोड़ने से भी पहले से ही इन्कार कर दें। हालाँकि ऐसा करने से ऐसे रास्ते का पता लगाया जा सकता हो जिसके द्वारा आसानी से ऊपर चढ़ सकते हों।''

    ''जहाँ श्रमिक लोग विजयी हुए हों वहाँ सुधार एक उचित चीज हो सकती हैं जिससे उस समय थोड़ी साँस लेने का मौका मिल जाता हैं, जबकि अत्यन्त परिश्रम करने पर भी क्रान्तिकारी शक्तियाँ इतनी मजबूत नहीं रहती हैं कि प्रगति की एक सीढ़ी से दूसरी ऊँची सीढ़ी पर जा सकें। पहली सीढ़ी की जीत से ही उन्हें फिर भी इतनी सुरक्षित शक्ति मिल गयी रहती हैं कि यदि कुछ पीछे भी हटना अनिवार्य हो जाये तो भी क्रान्तिकारी ताकतें नैतिक एवं भौतिक दोनों ही प्रकार से अपनी जगह पर कायम रह सकती हैं।''

    लेनिन ने जो परिस्थिति यहाँ बतायी हैं ठीक वही चीन में साम्यवादियों की हो रही थी जब प्राय: एक साल की बातचीत और कोशिश के बाद 1937 के अन्त में चियांग के साथ उनका संयुक्त मोर्चा बना। अत: उनने ठीक ही किया और आज तक की परिस्थिति ने सिद्ध कर दिया हैं कि वे अपनी जगह पर डटे हैं और डिगनेवाले नहीं हैं। और अगर आगे चलकर शायद चियांग कैशेक ने गड़बड़ भी की, जिसकी अभी तो आशा हैं नहीं, तो भी साम्यवादी लोग जापान को पछाड़े बिना रहेंगे नहीं।

    अब आइये जरा भारत के बारे में इसी स्थिति की सम्भावना का विचार करें। हम तो कही चुके हैं कि जब तक साम्राज्यवाद आक्रमणकारी हो के उग्ररूप धारण नहीं करता तब तक संयुक्त मोर्चा कठिन और प्राय: असम्भव हैं। मगर यहाँ तो यह बात तत्काल हैं नहीं। वर्तमान संग्राम का भी कुछ ऐसा हाल हैं कि उसमें जो भी जन-धन यहाँ से जायेगा उसे आमतौर से लोग आक्रमण नहीं मानेंगे। युद्ध का कुछ रूप ही ऐसा हो गया हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद अनुकूल परिस्थिति में सौभाग्य से पड़ गया हैं। युद्ध के शुरू में यह बात नहीं थी। तब तो सब कुछ हो सकता था मगर यहाँ के पूँजीवादी नेतृत्व को आशा थी कि बिना जनता की सामूहिक लड़ाई के ही साम्राज्यवाद से सौदा पट जायेगा। सामूहिक लड़ाई में उस नेतृत्व को खतरा तो दीखता ही हैं। इसीलिए उसने दूसरा ही रुख लिया, जिसमें पीछे बहुत कुछ निराशा होने पर भी नेतृत्व को आज लड़ने की हिम्मत नहीं। उसे आशा तो अभी हुई। रहेगी भी।

    हाँ, ऐसा हो सकता हैं कि यूरोपीय युद्ध में जीतने के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद अपनी अपार क्षति की पूर्ति और भयंकर धन-संहार तथा तबाही को मिटाने के लिए भारत पर कस के पंजा जमाये। क्योंकि साम्राज्य के शेष देश तो स्वतन्त्र हो चुके हैं। उनसे उसे आशा हैं नहीं। परास्त जर्मनी से भी क्या मिलेगा? गत बार का कटु अनुभव भी तो ताजा ही हैं। इसलिए अगत्या भारत पर ही कस के सवारी हो सकती हैं। लक्षण भी कुछ ऐसे ही हैं। प्रभु लोग लगाम जरा भी ढीली करने को रवादार नहीं दीखते। उनने राष्ट्रीय नेतृत्व के दिवालियेपन और दब्बूपन को भी खूब ही देख लिया हैं। इसीलिए उन्हें हिम्मत हुई हैं और आगे भी हो सकती हैं। उस दशा में इस देश को नीबू की तरह कस के चूसना वे जरूर चाहेंगे। उनकी तब तो ताकत भी अपार होगी। वे तो यह समझते रहेंगे कि अब तो सदा के लिए वे अजेय हैं। यही तो अन्तिम भिड़न्त थी। रूस से भी उनकी मैत्री अब जरूर हो जायेगी। दोनों को गर्ज हैं भी। हमारे प्रभुओं ने हर तरह से रूस का लोहा माना हैं और आगे मानेंगे। इसलिए यूरोप-एशिया महाद्वीप में उसे ही मित्र बनायेंगे, हाँ, यदि युद्ध के बाद भारी क्रान्तिकारी संसार का भी उथल-पुथल जिसकी पूर्ण सम्भावना हैं, न हो सकी तभी यह बात होगी।

    तब शायद यहाँ के पूँजीवादी नेतृत्व को होश आये और अधीर हो के एक बार साम्राज्यवाद से लड़ना चाहे। उस लड़ाई में जनता ही तो लड़नेवाली होगी। इसीलिए जनता की ताकतों का प्रतिनिधित्व करनेवाली किसान सभा, मजदूर सभा आदि से वह नेतृत्व संयुक्त मोर्चा चाह सकता हैं। क्योंकि बिना समस्त देश की जनता के, चीन की ही तरह लड़े, विजय हो सकती नहीं। फलत: आज वाली चीन की स्थिति उसके लिए आ सकती हैं। मगर हमारे लिए? हम तो चीनी साम्यवादियों की तरह शक्तिशाली हैं नहीं। हममें हजारों दल हैं। हमारी उतनी पहुँच किसान-मजदूरों तक कहाँ हैं? हमने पूँजीवादी नेतृत्व के दाँत कब कहाँ खट्टे किये हैं? हमारी गर्ज उसे कहाँ हैं? आगे भी क्यों होगी? हाँ, इस बीच यदि हमने आपस में संयुक्त मोर्चा कर लिया और किसान-मजदूरों पर काफी धाक जमा ली तो बात दूसरी हैं।

    ईधर तो यह कमी हैं। उधर उस नेतृत्व को मालूम हैं कि आजादी की भावना और जागृति जनता के सबसे निचले तह में जा घुसी हैं और घुस रही हैं। 1857 वाला विद्रोह तो वैसा ही था जैसा कि रूस के फौजी अफसरों का 1825 वाला। 1857 में केवल ज्यादातर राजे-महाराजे और लुटे-लुटाये व्यापारी लोग ही विद्रोही थे। उनने धर्म वगैरह के नाम पर ही जहाँ-तहाँ पीड़ित किसानों को उभाड़ा था। अत: वह गर्मी सिर्फ ऊपर रही। मगर भारत में निचले वर्ग के किसान और मजदूर तथा ऊपर के इन सामन्तों के बीच में जो मध्यम वर्ग हैं जिसे पूँजीवादी कहते, वह कुछ खास ढंग से जगा और थोड़ा गर्माया जबकि 1885 में कांग्रेस बनी। इस तरह आग कुछ और भीतर घुसी। फिर 1905 में कुछ और भी भीतर पहुँची जब पूँजीवादियों के नीचे (निम्न-मध्य श्रेणी) वाले पढ़े-लिखे बाबुओं में उत्तेजना आयी और देश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गयी। यह थी रूस की 1905 वाली स्थिति से कुछ मिलती-जुलती। उसके बाद 1919 से लेकर 1922 तक का समय बताता हैं कि निम्न-मध्यम श्रेणी के निचले भाग में और निचली श्रेणी के ऊपरी भाग में काफी हलचल मची जिससे वे सभी जग गये। निचली श्रेणी के निचले भाग वाले भी बहुत कुछ सुगबुगाये। वह था रूस के 1917 की फरवरी क्रान्ति से बहुत कुछ मिलता-जुलता युग। मगर वैसा पूरा न होने के कारण सफलता नहीं मिल सकी। बेशक 1930 और 1932 का समय ऐसा था जिसमें सबसे नीचे के लोग काफी जगे और 1919 से लेकर 1932 तक का नतीजा यही हुआ कि देश का नेतृत्व मध्यमश्रेणी के हाथ में रहने के कारण जनतन्त्र क्रान्ति तो सफल हो न सकी, किसान क्रान्ति का रूप उसे मिलना तो रही दूर की बात। फिर भी पूँजीवादियों को 1937 में मिनिस्ट्री मिल गयी। उनके लिए यही चीज पूँजीवादी क्रान्ति के स्थान पर हो गयी। उनने इसी से सन्तोष कर लिया। इसी से गाँधीजी ने उस समय कहा था कि या तो खूनी क्रान्ति या अभूतपूर्व हड़ताल  (Mass strike) इन दो में एक ही अब सम्भव हैं। मगर मैं दोनों में एक के लिए भी तैयार नहीं हूँ। इसीलिए मन्त्रि पद स्वीकार करने की राय दी हैं ! अहिंसा का पुजारी लाठी, गोली, चलवाने और फाँसी लटकवाने वाले पदों की स्वीकृति की राय दे इसका, दूसरा अर्थ हैं ही नहीं। इसीलिए मन्त्री लोगों के व्यवहारों से ऐसा पता चलता था-मुझे तो कुछ लोगों से खुद बातें करके और उनके कामों से भी ऐसा जान पड़ा-कि उन्हें अब लड़ना नहीं हैं। उनका स्वराज्य हो गया हैं और अगर कोई कमी हैं तो इसे धीरे-धीरे वैधनिक ढंग से ही पूरा कर लेंगे ! उनकी पूँजीवादी क्रान्ति हो गयी। ऐसा ही वे मानते मालूम पड़े।

    मगर ईधर पीड़ित जनता में तो आग फैलती जा रही हैं। धीरे-धीरे वह संगठित होती जा रही हैं। असली क्रान्ति की भूखी जनता अब तैयार हो रही हैं। वह तो अपनी किसान क्रान्ति और सर्वहारा क्रान्ति चाहती हैं। दूसरी बात सम्भव भी नहीं हैं। यही होगी। ज्यों ही कोई सामूहिक मुठभेड़ होगी, खासकर यूरोपीय समर के बाद उसका एक ही नतीजा होगा किसान क्रान्ति के रूप में। यही कारण हैं कि पूँजीवादी कांग्रेसी नेतृत्व संयुक्त मोर्चे से भयभीत हैं। आगे भी उसे यही डर हैं। एक बार सबसे नीचे का स्तर करवटें बदलेगा और सारा महल भूमिसात हो जायेगा-रुद्र का प्रलयान्तकारी ताण्डव नृत्य हो जायेगा। उन्हें यही खतरा हैं।

    फलत: गाँधीजी का नेतृत्व रहते न तो संयुक्त मोर्चा होगा और न जन-संग्राम। वे मरने के समय जीवन भर की कमाई-अहिंसा-कदापि न खोयेंगे। वे तो स्वराज्य चाहते भी नहीं, अहिंसा चाहते हैं। उनका मुख्य ध्येय अहिंसा हैं। फिर वे इस झमेले में भला कैसे पड़ेंगे? जो उनसे ऐसी आशा करते हैं, या तो उनने उन्हें पहचाना नहीं, या वे भूलते हैं। उधर पूँजीवादी भी गाँधीजी का नेतृत्व खोना इसलिए नहीं चाहते कि उसमें धर्म और महात्मापन लगा हैं और आम जनता-खासकर भारत की-उसके करते आसानी से मूँड़ी जा सकती हैं, धोखे में रखी जा सकती हैं। अहिंसा भी इस बात में भारी मददगार हैं, खासकर हिन्दू जनता को गुमराह करने के लिए। इसीलिए ईकाइयाँ पूँजीवादी अहिंसा की रट लगाते हैं। हालाँकि उनकी सारी कमाई निर्दोषों के खून से ही सनी हैं। मगर साम्राज्यवाद का उग्र रूप होते ही, हो सकता हैं, पूँजीवादी मजबूरन गाँधीजी को छोड़ दें। वे तो 1940 में पूना में एक बार उन्हें छोड़ चुके ही थे। मगर सौदा ही न पट सका तो क्या करें?

    गाँधीजी की अहिंसा और उनका धर्म हमें सिर्फ इसीलिए खतरनाक हैं कि वह राजनीति में टाँग अड़ाता हैं। मार्क्सवाद के अनुसार अराजकता और आतंकवाद कभी भी इष्ट नहीं हैं। यह तो मध्यमवर्गीयों की नट-लीला और उनके करिश्मे हैं, जिनसे जनता का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट होता हैं और जनता उनको मसीहा एवं त्यागी मान बैठती हैं। बस, उनका काम बन जाता हैं। मगर बड़ी भारी हानि तो इससे यह होती हैं कि आजादी के असली साधन जनान्दोलन (Mass work) से लोग विमुख हो के गलत रास्ते पर चले जाते हैं-पथभ्रष्ट हो जाते हैं। इसीलिए लेनिन ने सदा आतंकवाद और अराजकता का विरोध किया हैं। वह विदेशवाले पत्रों में लिखता हैं-

    ''हम सन्धि-काल के लिए क्रान्तिकारी ताकत चाहते हैं, सरकार चाहते हैं। इसी बात में हमारा अराजकतावादियों से भेद हैं। क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों और अराजकतावादियों में केवल यही अन्तर नहीं हैं कि मार्क्सवादी जहाँ विस्तृत, केन्द्रीभूत साम्यवादी उत्पादन के पक्षपाती हैं, तहाँ अराजकतावादी बिखरे हुए छोटे-छोटे उत्पादन चाहते हैं। यह तो हुई। मगर सरकार और शासन यन्त्र के बारे में भी हमारा उनके साथ यह मतभेद हैं कि हम समाजवाद के लिए क्रान्तिकारी सरकारी ढाँचे का क्रान्तिकारी प्रयोग करना चाहते हैं। मगर वे इसके विरोधी हैं।''

    इसलिए आतंकवाद का सवाल हमारे साथ हैं नहीं। मगर गाँधीजी की अहिंसा तो ऐसी हैं कि हमारा हाथ-पाँव ही बाँधा जाता हैं। उनके मत से तो कांग्रेसियों को आत्मरक्षार्थ भी हिंसा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। हालाँकि-यह कानूनी हक आज भी हमें प्राप्त हैं। इसी तरह उनकी अहिंसा पूँजीवाद और जमींदारी का पोषक हैं। वे तो लगानबन्दी में भी हिंसा देखते हैं और शान्तिपूर्ण पिकेटिंग में भी। ज्यादा बातें तो मार्क्सवाद के अनुसार हिंसा के बारे में पहले ही कही जा चुकी हैं। इसीलिए हम गाँधीजी की अहिंसा से बहुत घबराते हैं।

    इसी प्रकार उनके धर्म से भी हमें घबराहट होती हैं। क्योंकि वह उसे राजनीति में घुसेड़ के राजनीति को पहेली और जादू-मन्तर की चीज बना देते हैं। जहाँ राजनीति में धर्म घुसेड़ा कि सारे तूफान खड़े हुए। फिर तो पण्डितों और मौलवियों की आ बनी, चाहे गाँधीजी उन्हें लाखन चाहें। क्योंकि धर्म तो उनकी ही चीज ठहरी न। लोग तो यही जानते हैं। यदि धर्म निरी व्यक्तिगत चीज हो और कोई आदमी उसे अपने और अपने भगवान या खुदा के बीच की चीज या सम्बन्ध जोड़नेवाला पदार्थ माने और राजनीति में उसे लाने की जरा भी कोशिश न करे तो हमें उससे कोई लड़ाई नहीं। राजनीति में उसे न ला के भी उसे सामूहिक रूप देना यदि वह चाहेगा तो भी झमेला खड़ा होगा ही। इसलिए यदि वह मानता हैं तो उसे बिलकुल ही व्यक्तिगत अपनी चीज माने, जैसे अपने पैसे-रुपये को मानता हैं ! हरेक का व्यक्तिगत धन तो दूसरे का नहीं होता और ज्यादातर लोग ऐसा धन रखते हैं। धर्म भी ऐसा ही हो जाये तो झंझट ही खड़ा न हो। इसीलिए 1907 में लेनिन ने धर्म के बारे में जो वक्तव्य तैयार किया था उसमें वह लिखता हैं कि-

    ''यदि कोई पादरी राजनीतिक काम में हमारा साथ देना चाहता हैं, समझ-बूझ कर पार्टी का काम करता हैं और पार्टी के कार्यक्रम के विरुद्ध कुछ नहीं करता, तो वह हमारी पार्टी का मेम्बर हो सकता हैं। क्योंकि हमारे प्रोग्राम, उद्देश्य तथा भावों और उस पादरी के धार्मिक विश्वासों में जो विरोध हैं वह ऐसी दशा में केवल उस पादरी के ही सोचने की बात हैं। (और अगर उसे विरोध नहीं मालूम होता तो) किसी राजनीतिक संस्था का यह काम नहीं कि वह यह देखे कि उसके हरेक सदस्यों के विचारों और पार्टी के प्रोग्राम में कोई विरोध तो नहीं हैं।'' ''धर्म तो व्यक्तिगत चीज हैं।''

    इसीलिए धर्म के बारे में हम यही मानते हैं कि वर्ग-संघर्ष में वह 'दाल-भात का मूसरचन्द' मत बने। वैसी दशा में हम उसे छेड़ना उचित नहीं समझते और एंगेल्स के इस सम्बन्ध के विचारों का जो निष्कर्ष जौन स्ट्रेची ने अपनी पुस्तक (The Theory and Practice of Socialism) में लिखा हैं हम उससे सोलह आना सहमत हैं। वह लिखता हैं कि ''एंगेल्स का विश्वास था कि जब तक वर्ग विहीन समाज कायम करके समाज को शान्त और सुरक्षित नहीं बना दिया जाता तब तक धार्मिक विश्वास को हटाना असम्भव हैं और वैसा समाज हो जाने पर उस विश्वास के मिटाने की कोशिश बेकार और हानिकर हैं।''

    एक बात और कहनी हैं। कांग्रेसी नेता डरते हैं कि हम कांग्रेस विरोधी कोई वैसी ही संस्था कायम करना चाहते हैं, जिसमें मध्यम श्रेणी का नेतृत्व हो। मगर यह डर निराधार हैं। एक ऐसी संस्था के होते हुए तो हमें उसके साथ इस कदर तूफान मचाने पड़ते हैं। यदि ऐसी ही कोई और हुई तब तो खुदा ही खैर करे। और उससे हमारा लाभ ही क्या होगा? इससे नहीं तो उसी से हमें तो लड़ना ही पड़ेगा। क्योंकि यह तो कांग्रेस का दोष नहीं हैं, किन्तु उसके मध्यमवर्गीय नेतृत्व का ही कि हमें उससे लड़ना पड़ता हैं। ऐसी हालत में ऐसा नेतृत्व जहाँ होगा हमें वहीं लड़ना पड़ेगा। और अगर वह हमारी ही बनायी संस्था हुई तब तो और भी बुरा होगा। अत: हम ऐसी भारी भूल कभी नहीं कर सकते कि वर्ग संस्थाओं के सिवाय कोई दूसरी ऐसी संस्था बनायें जिसका नेतृत्व मध्यम-श्रेणी के ही हाथों में हो या जो कांग्रेस जैसी ही हो। अत: इस बात में वे निश्चिन्त रहें। यदि दूसरे भी ऐसी संस्था बनायें तो हम उसका विरोध भी करेंगे।

    बस, हमें जो कुछ कहना था कह दिया। अब हम कह नहीं सकते कि आया भविष्य में कोई संयुक्त मोर्चा कांग्रेसी नेताओं के साथ हो सकेगा या नहीं। क्योंकि सभी पक्षों को हमने साफ-साफ कह दिया हैं-सभी अनुकूल और प्रतिकूल बातें बता दी हैं। भविष्य के बारे में कुछ भी निश्चित रूप से कहना खतरे से खाली नहीं हैं, खासकर राजनीति में तो कोई बात आखिरी मानी नहीं जाती-Nothing is final in politics. मगर हमारे विवेचन से बात इतनी साफ हो जाती हैं कि हमें कोई चिन्ता नहीं रह जाती हैं। हमारा रास्ता इतना साफ हो गया हैं कि हम बेखटके आगे बढ़ते ही जायेगे। हमें आश्चर्य जरा भी नहीं होगा। अगर बिना किसी की सहायता के-किसी के संयुक्त मोर्चा के-ही हमने किसान क्रान्ति और समाजवादी क्रान्तियों में-दोनों में ही-केवल शोषितों और पीड़ितों के ही बल पर, उनकी सुसंगठित ताकत से ही सफलता पा ली। बल्कि हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। तभी शायद संयुक्त मोर्चे की बात भी हो। हाँ, उसका दरवाजा बन्द तो हर्गिज नहीं होना चाहिए। हमें ऐसा काम हर्गिज नहीं करना होगा जिससे संयुक्त मोर्चे का-क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चे का-दरवाजा बन्द हो जाये। जब चीन के वर्तमान संयुक्त मोर्चे के ऐन पहले तक चीनी साम्यवादियों के महान नेता मावसेतुंग तक यह बात विश्वास के साथ कहने को तैयार न थे कि यह होगा तो हम कैसे कह सकते हैं? उनके सामने तो उसकी जो सम्भावना थी जो समान उसके लिए उस समय मौजूद थे, हमारे सामने तो ये भी नहीं हैं। हमें तो भविष्य के बारे में सभी बातों का अन्दाजा लगाना हैं-संयुक्त मोर्चे के सभी सामानों का और मोर्चे का भी। यही तो हमारी बड़ी भारी दिक्कत हैं। कांग्रेसी नेतृत्व की दिक्कतें हम बता ही चुके हैं।

    ईधर वर्तमान यूरोपीय युद्ध के फलस्वरूप ऐसे विश्वव्यापी परिवर्तनों की हमें पूरी आशा हैं। जिनके चलते सारी दुनिया ही बात की बात में पलट जा सकती हैं। एक मार्क्सवादी के नाते हम तो यही समझते हैं, हमें यही समझने का-हक हैं कि कोई बड़ा भारी भूकम्प-सामाजिक उथल-पुथल-आने ही को हैं जिसमें पुरानी सभी चीजें मिट के नया समाज, नई दुनिया, नया स्वर्ग, वर्ग-विहीन मानव समाज जरूर बनेगा। इसका श्रीगणेश-भूकम्प और बिभ्राट की सूचना-हो चुकी हैं। वह किस रूप में आखिर में आयेगा यह अभी से कैसे कहा जाये? मगर उसके आगमन के समय सब कुछ हो सकता हैं-संयुक्त मोर्चा भी अपने आप बन सकता हैं, या दूसरा ही और नया रास्ता ही निकल सकता हैं। असल में श्रेणीविहीन उस समाज के बनानेवाले महा भूकम्प की अगवानी जिस प्रकार ठीक-ठीक हो सके वही चीज होगी। फिर चाहे वह संयुक्त मोर्चा हो या उसके बिना ही शोषित एवं पीड़ित जनता स्वयं अपना काम बना ले। हमें हर बात के लिए तैयार रहना चाहिए। ताकि ऐन मौके पर कहीं पीछे न पड़ जाये। इससे ज्यादा इस समय कहा नहीं जा सकता कहना ठीक नहीं।

समाप्त


रचनावली 5 : अनुक्रम

 

 

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