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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

खंड-6

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

1.हाजीपुर जिला किसान सम्मेलन

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सम्पादकीय टिप्पणी

यह तृतीय बिहार प्रान्तीय किसान सभा हाजीपुर 1935 का भाषण है। नवम्बर माह था? स्वामी सहजानन्द सभापति चुने गये। द्वितीय सम्मेलन गया में हुआ था। इलाहाबाद के पुरुषोत्तामदास टण्डन इसके सभापति थे। यह सम्मेलन 1934-35 में हुआ था। इस भाषण की दो खूबियाँ हैं। एक जमींदारी उन्मूलन की ओर इशारा है जो इस तृतीय अधिावेशन में पारित हुआ। दूसरा स्वामी जी ने अपना मत समाजवाद के बारे में स्पष्ट किया है। भौतिक दर्शन जितने हैं, उनमें यही समाजवाद सबसे सही है मगर, धर्म को उसमें स्थान न होने से मेरे जैसों के लिए उसमें जगह नहीं है। 'मेरा जीवन संघर्ष' आत्मकथा में स्वामी जी लिखते हैं, ''धर्म के मामले में आज भी मेरे विचार बहुत कुछ वैसे ही हैं...प्रत्यक्ष तो यही देखते हैं कि धर्म में तर्क, दलील और विचार को कोई स्थान नहीं है...मगर मैं इस धर्म को कतई नहीं मानता...समाजवादी पार्टी में अब तक शरीक हूँ नहीं और इसके दूसरे ही कारण हैं...1934 के बीतते न बीतते ही वे लोग सोशलिस्ट किसान सभा में आ गये।'' 1934-35 में स्वामी जी एवं किसान सभा का ख्याल था कि छोटे जमींदार भी किसान ही हैं पर यह ख्याल 1937 के एसेम्बली चुनाव के बाद बदल गया। 1938 से स्वामी जी एवं किसान सभा के सूत्रीकरेण में केवल गरीब-जर्जर, टुटपुँजिए किसान एवं खेत-मजदूर ही किसान रह गये। किसान सभा की बदलती परिभाषा ने किसान संघर्ष के सारे मुद्दों, तरीकों, दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य को बदल दिया एवं सामन्त विरोधी संघर्ष ने ही असली राष्ट्रीय संघर्ष का सूत्रापात किया एवं उसे अग्रगति दिया।

किसान बन्धुऒ!

बिहार प्रान्तीय किसान सभा के सभापति को आपने इस सम्मेलन का अध्यक्ष बनाकरे यदि उस सभा को नहीं तो कम से कम उसके सभापति को तो जरूर ही खतरे में डाल दिया है। यदि और नहीं तो यह तो जरूर किया है कि उसकी आजादी आपने छीन ली है। इस सम्मेलन का सभापति केवल इतनी ही जिम्मेदारी रखता है कि इसे सकुशल सम्पन्न करवा दे। उसके बाद उसकी जवाबदेही खतम हो जाती है और इसके निश्चयों को कार्यान्वित करना या अमली जामा पहनाना बिहार प्रान्तीय किसान सभा के सभापति, मन्त्री तथा उसके सदस्यों का काम हो जाता है। ऐसी दशा में सम्मेलन के अध्यक्ष को ऐसी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह खुल के अपने विचारों को प्रकट करे सके। इस दृष्टि से यद्यपि मैं भी उस स्वतन्त्रता का हकदार हूँ, तथापि परिस्थिति मुझे उससे वंचित किये दे रही है। बदकिस्मती से हममें अधिकांश इस बात का विचार नहीं करे सकते कि सम्मेलन का अध्यक्ष होते ही उतनी देर के लिए प्रान्तीय सभा के सभापति या मन्त्री आदि की हैसियत बदल जाती है और वह जो कुछ कहता है वह प्रान्तीय सभा की नीति नहीं है, किन्तु उसके निजी विचार हैं। यही कारण है कि आज इस स्थान से मैं जो कुछ कहूँगा उसे बिहार प्रान्तीय किसान सभा का निश्चित मन्तव्य मानकरे लोग यह कहना शुरू करेंगे कि इस सम्मेलन के निश्चय तो केवल दिखावटी थे, वह तो पहले से ही प्रान्तीय सभा के द्वारा तय हो चुके थे, यहाँ केवल रस्म-अदाई की गयी आदि-आदि। अतएव मेरा कर्तव्य हो जाता है कि इस लांछन से सभा को बचाने के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा की रक्षा करते हुए इस सम्मेलन की स्वतन्त्रता को भी स्पष्टतया कायम रखूँ जिससे निर्बाध रूप से यह किसी भी निश्चय पर स्वतन्त्रतापूर्वक पहुँच सके। यही कारण है कि विवादग्रस्त विषयों के सम्बन्ध में अपना निश्चय एवं उसके स्पष्ट प्रकाशन की प्रबल इच्छा रखते हुए भी मैं ऐसा नहीं करने के लिए लाचार हो रहा हूँ। ऐसी दशा में आप मुझसे धन्यवाद पाने के हकदार तो रही नहीं गये, हाँ, आप स्वयं को इसलिए धन्यवाद जरूर दे लें कि मेरी आजादी अपनी चालाकी से छीनकरे आपने अपनी कायम रखी। मुझे अपनी आजादी से प्रेम तो जरूर है और कौन ऐसा अभागा है जो अपनी आजादी नहीं चाहता। लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा मुहब्बत मुझे बिहार प्रान्तीय किसान सभा की प्रतिष्ठा तथा दूसरों की आजादी से है। यही कारण है कि मैं अपनी आजादी को गँवाकरे भी इन दोनों की रक्षा करना चाहता हूँ। फलत: आप मुझे क्षमा करेंगे यदि मैं विवादग्रस्त विषयों में आपका स्पष्ट पथप्रदर्शन न करे सकूँ।

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किसान सभा की जरूरत

अच्छा, तो अब हम लोग काम की बातों पर आयें। आज यह प्रश्न हमारे प्रान्त में अधिक उठ रहा है कि कांग्रेस के रहते किसान सभा की क्या जरूरत है? यदि किसान सभा हो भी तो वह अधिक से अधिक कांग्रेस का एक विभाग हो सकती है। स्वतन्त्र किसान सभा होने से कांग्रेस की शक्ति क्षीण हो जायेगी( अत: किसान सभावाले कांग्रेस को कमजोर करना चाहते तथा अपनी डफली अलग बजाना चाहते हैं आदि। इसका सबसे स्पष्ट उत्तर तो राष्ट्रपति के उस पत्र से मिल जाता है जो ता. 1-8-35 को उन्होंने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सभापति श्री रुईकरे को लिखा था। उसके सातवें पारी में उन्होंने लिखा है कि ''कांग्रेस के राष्ट्रीय संस्था न कि वर्ग या दल विशेष की संस्था होने से''-"That the Congress being a national organization and not a class organization" इससे स्पष्ट है कि हर दल या वर्ग को अपना अलग संगठन करना चाहिए, जो उस वर्ग के हितों को अच्छी तरह सम्भाल सके। देश में चार ही वर्ग हैं, पूँजीपति, जमींदार, मजदूर, किसान। चाहे जो भी कहा जाय, लेकिन यह तो सभी जानते हैं कि पूँजीपतियों, जमींदारों तथा मजदूरों के कांग्रेस से अलग संगठन हैं, सो भी बहुत पुराने। यह भी नहीं कि उनमें कांग्रेसियों का बहुमत हो या वे संस्थायें कांग्रेसवादियों के हाथ में हों। ऐसी हालत में केवल किसानों का ही पृथक संगठन क्यों न हो यह समझ में नहीं आता। किसान संगठन के बारे में तो यह भी बिना हिचकिचाहट के कहा जा सकता है कि कम से कम युक्त प्रान्त और बिहार में वह पक्के कांग्रेसवादियों के ही हाथ में है। जब तक पूँजीपतियों एवं जमींदारों के संगठन कांग्रेस से पृथक रहेंगे तब तक किसानों तथा मजदूरों के संगठन की जरूरत बनी ही रहेगी, यहाँ तक कि उन संगठनों के कांग्रेस के एक विभाग बन जाने पर भी यह होगी। क्योंकि यह स्वाभाविक ही है कि उनकी ओर ज्यादा ध्यान जाय। बड़े-से बड़े भी दरिद्रनारायण के सेवक के पास यदि एक अमीर और एक गरीब जाय तो अमीर की ज्यादा पूछ होगी, उसे विशेष आसन दिया जायेगा, लेकिन गरीब की शायद ही खबर ली जाय। यही दुनिया का व्यवहार है। इसमें दोष किसी का भी नहीं। अमीर चालाक, पढ़े-लिखे, व्यवहार-कुशल होने के कारण कांग्रेस में आन्दोलन करके अपना स्वार्थ सिध्द करे सकते हैं। लेकिन गरीब तो भोले, असंगठित होने के कारण अपनी आवाज ही नहीं उठा सकता और सूर्य के प्रकाश के सामने जिस प्रकार दीपक का पता नहीं लगता ठीक उसी तरह कांग्रेस में भी अमीरों के दबदबे के सामने वह विलीन हो जायेगा, हो जाता है और उसकी सुनवाई नहीं होती है, नहीं होगी। दुनिया तो अखाड़ा है और कांग्रेस उसका अपवाद नहीं हो सकती। अखाड़ों में बलवालों की गुंजाइश और पूछ होती है। इसीलिए निर्बल, मूक किसानों में अखाड़े से बाहर ही बल तथा आवाज लाने की जरूरत है ताकि अखाड़े में उनकी परवाह हो और वहाँ वे अपना जौहर दिखा सकें। ता. 19-10-35 को मद्रास में मजदूर संघ के अभिनन्दन का उत्तर देते हुए राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र बाबू ने भी प्रकारान्तर से यही कहा था कि ''हम तब तक अपने लिए आजादी हासिल नहीं करे सकते। जब तक हममें प्रत्येक अपने पाँव पर अपनी ही जगह पर खड़ा नहीं हो जाता।'' ''कांग्रेस जैसी संस्था के लिए सदा यह सम्भव नहीं कि जितनी बातें आप चाहते हैं सभी करे दें। आखिर आपको अपना लक्ष्य हासिल करना ही होगा?'' “We shall never be able to win freedom for our selves unless every one of us stands upon his own legs" "It is not always possible for an organization like the congress to do every thing that you want to do. After all you have to work out your own destiny." कराची के मौलिक अधिकारों में छठी बात यह मानी गयी है कि कांग्रेस की सरकार स्वराज्य सरकार के कायम होने पर किसानों और मजदूरों को अपने हकों की रक्षा के लिए अपने संघ सभायें कायम करने का अधिकार होगा। जो कांग्रेस आज वह अधिकार छीनना चाहेगी, कैसे विश्वास किया जाय कि उस समय वही हक देगी?

मद्रास में ही राष्ट्रपति ने यह भी कह दिया है कि ''कभी कांग्रेस का यह कर्तव्य हो जाता है कि परस्पर विरोधी स्वार्थों में सामंजस्य लाने, सुलह कराने और उभय पक्ष सम्मत कराने की कोशिश करे।'' "It becomes its duty at times to try to reconcile conflicting interests to try to bring about compromises and agreed settlements." लेकिन जहाँ जमींदार परस्पर विरोधी स्वार्थों में एक को जोरों के साथ जाहिर करने के लिए हर तरह से संगठित हैं, वहाँ किसान इसके उलटा हैं। ऐसी हालत में उन्हें संगठन का मौका तो देना ही होगा जिससे दूसरे विरोधी स्वार्थ को वे प्रकट करे सकें और इस तरह कांग्रेस को ठीक-ठीक पंचायत करने का मौका मिले। दोनों के स्वार्थ तो दो हुई। दोनों को एक कहना तो ऐसा ही है जैसा लार्ड विलिंगटन का इंग्लैण्ड एवं भारत के स्वार्थ को एक कहना। ऐसी दशा में दोनों दलों वर्गों को संगठित रूप से अपना स्वार्थ जाहिर करने का मौका क्यों न दिया जाय? एक बात और। मौज़ूदा हालत में सब प्रकार की कमजोरियों पर विचार करे के दृष्टान्तार्थ यदि यह कहा जाय कि किसान बकरी और जमींदार बाघ हैं-सम्भव है कभी स्थिति ठीक उलटी हो जाय या दोनों ही या तो बाघ ही हो जाएँ या बकरी हो-तो ऐसी दशा में बाघ तो स्वच्छन्द दहाड़ता और खूनी पंजा फटकारता हो, लेकिन बकरी का मुँह भी बन्द हो( फिर भी दोनों की पंचायत ठीक-ठीक होकरे दोनों के साथ न्याय हो यह क्या सम्भव है? जहाँ जमींदार कतई स्वतन्त्र है वहाँ किसान सभा कांग्रेस का अंग बनकरे क्या ईमानदारी के साथ साफ-साफ किसानों के अभाव अभियोगों को प्रकट करे सकती है? जमींदारों के रंज होने और इस तरह स्वातन्त्रया-संग्राम में बाधा पड़ने का जो भय आज कांग्रेस को लगा है क्या वह उस दशा में किसान सभा को खुल के बोलने कदापि नहीं देगा? और जब कांग्रेस का काम है परस्पर विरोधी स्वार्थों में मेल और सामंजस्य लाना तो क्या कोई भी ईमानदार आदमी बहैसियत कांग्रेस मैन के किसानों का पक्ष खुल के ले सकता है? उसके लिए तो यह परस्पर दो विरोधी बातें हो जायेंगी। लेकिन कांग्रेस वादी होते हुए भी वही आदमी बहैसियत स्वतन्त्र किसान सभावादी के सब कुछ ईमानदारी से करे सकता है। जब कांग्रेस को ठीक-ठीक पंचायत करनी है तो दोनों पक्षों की पैरवी और प्रतिपादन बिना बाधा के स्वतन्त्र रूप से होने ही देना चाहिए, जिसका सीधा अर्थ है कि किसान सभा को भी कम से कम उतनी ही स्वतन्त्रता हो जितनी जमींदार सभा को है। जब किसान सभा स्वतन्त्र होगी तभी कांग्रेस को अच्छी तरह किसानों के हकों से प्रभावित करे सकेगी और यदि कभी संयोगवश कांग्रेस ने किसानों की ओर से लापरवाही दिखाई तो उसे बखूबी याद दिलायेगी। जैसे-जैसे किसान संगठन दृढ़ होता जायेगा वैसे-वैसे ही कांग्रेस के हाथ में किसान हित सुरक्षित होता जायेगा। यही बात मद्रास में वहाँ के किसानों के डेपुटेशन को उत्तर देते हुए राष्ट्रपति ने स्पष्ट स्वीकार किया है-"You are in a position to influence and indeed determine the views and action of congressmen, and as day go on your power will go on increasing. Congress men cannot therefore afford to ignore or neglect you even if they wish to.” “When you are there to remind them when they are forgetful, there is no danger o any kind.” बल्कि बिहार प्रान्तीय किसान सभा को तो यह सौभाग्य प्राप्त है कि जमींदारों की सभा की तरह केवल बाहर से ही कांग्रेस की नीति को प्रभावित नहीं करे के भीतर से भी करे सकती है( कारण, उसके प्रमुख कार्यकर्ता पक्के कांग्रेसी हैं और सदा रहना चाहते हैं। जब युक्तप्रान्त में स्वतन्त्र किसान सभा का गठन करने के बाद उसके सभापति कांग्रेस की वर्किंग कमिटी के मेम्बर बनाये जा सकते हैं और जब सरदार बल्लभभाई वहाँ के स्वतन्त्र किसान

सम्मेलन के अध्यक्ष हो सकते हैं तो बिहारी में क्यों यह प्रश्न उठता है, समझ में नहीं आता।

इस आर्थिक उथल-पुथल और संकट के युग में रोटी तथा कपड़े का प्रश्न गरीबों के सामने विकराल रूप में खड़ा है और स्वराज्य का गोलमोल अर्थ उन्हें सन्तुष्ट नहीं करे सकता है। यही कारण है कि जीवन के आर्थिक पहलू को लेकरे संसार में गरीब-किसान, मजदूर-संगठित हो रहे हैं-इस समय की लहर से भारत या बिहार अछूता नहीं रह सकता और यदि कांग्रेसवादी किसानों का संगठन न करेंगे तो उनकी बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में जायेगी ही जो या तो देश की आजादी के शत्रु होने के साथ ही नीच स्वार्थ के साधक हैं, या जो आजादी तो चाहते हैं लेकिन कांग्रेस को मिटा देने या क्षीण करने पर तुले बैठे हैं। बिहार में यूनाइटेड पार्टी के जन्म के समय का इतिहास इस बात की काफी चेतावनी है। उसी यूनाइटेड पार्टी के द्वारा पैदा किये गये, कुछ किसान हितैषी कल तक कांग्रेस को खुले आम गाली देने से बाज नहीं आये हैं और यदि उनकी चले तो आगे भी बाज न आवेंगे।

असेम्बली में कांग्रेस पार्टी ने क्या-क्या किया, इसके सम्बन्ध की नौ विज्ञप्तियाँ पार्टी के मन्त्री ने प्रकाशित कराई हैं, जिनमें एक विज्ञप्ति केवल इस बात की है कि मजदूरों के लिए कांग्रेस पार्टी ने वहाँ क्या किया है। मैंने बहुत कोशिश की कि किसानों के सम्बन्ध की भी कोई अलग विज्ञप्ति मिले। मगर हो तब न? कारण क्या है? क्या किसानों से मजदूर ज्यादा हैं? नहीं। तो क्या आर्थिक दृष्टि से उनका महत्त्व अधिक है? नहीं। हाँ, राजनीतिक दृष्टि से थोड़े होने पर भी, किसानों की अपेक्षा वे अधिक काम के हैं। क्योंकि संगठित हैं। देश के 80 फी सदी से ज्यादा ही किसान हैं और सबके अन्नदाता हैं। फिर भी उनका राजनीतिक महत्त्व केवल इसीलिए नहीं है कि वे संगठित नहीं, फलत: उन्हें जो ही चाहे आसानी से मूँड़ सकता है। इसीलिए शायद, कांग्रेस पार्टी भी उन्हें भूल सी गयी। अन्यथा उनके सम्बन्ध की कम से कम दस विज्ञप्तियाँ निकालती। इसका यह अर्थ नहीं कि मैं कांग्रेस पार्टी का दोषी बनाता हूँ। दोषी यदि इसके लिए हैं तो किसान ही हैं, जिनका कोई स्वतंत्र संगठन नहीं। पार्टी ने हरेक विषय की अलग-अलग विज्ञप्ति निकाली है। मेरा विश्वास है कि यदि मजदूरों का अलग संगठन न होता और कांग्रेस में ही वे डूबे रहते तो उनकी भी दशा किसानों की सी ही होती। आखिर कांग्रेस की लड़ाई में भाग लेने वाले 99 नहीं तो 95 फी सदी किसान ही तो हैं! फिर भी वे लापता हैं! कहा जाएगा कि असेम्बली के कामों का प्रश्न अखिल भारतीय है और किसानों के सम्बन्ध के बहुत ही कम काम ऐसे हैं (कारण प्रत्येक प्रान्त की भिन्न-भिन्न दशा है लेकिन मजदूर संगठन से पहले मजदूरों के बारे में यही कहा जा सकता था! प्रश्न और समस्यायें तो सोचने से पैदा होती हैं, पैदा की जाती हैं। आज यदि किसानों का वैसा संगठन हो तो कल ही वैसी ही समस्यायों की ढेर लग जायेगी।

इस सम्बन्ध में हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि यदि कांग्रेस या सरकार किसानों के हाथ में आ जाय तो भी किसानों के अलग संगठन की आवश्यकता होगी ही। क्योंकि संगठन के बिना उनके हाथ में आई हुई भी कांग्रेस या सरकार आसानी से चली जा सकती है।

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कांग्रेस को कमजोर करना

अब रही कांग्रेस को कमजोर करने की बात। यह तो मेरी समझ में आती ही नहीं। जिस कांग्रेस के नाम पर किसानों ने इतना त्याग किया और जिससे उन्हें बड़ी-बड़ी आशायें हैं उसे ही कमजोर करने की बात, आशापूर्ति से पहले ही, वे या उनके सच्चे हितैषी सोच भी कैसे सकते हैं? अमीर और जमींदारों की तो आज भी पाँचों घी में हैं और बिना स्वराज्य के भी वे विदेशी सरकार से सट्टा-पट्टा करके अपना मतलब गाँठ रहे तथा गाँठ सकते हैं। स्वराज्य तो केवल इसीलिए वे चाहते हैं कि जहाँ आज कमाने वालों के शोषण में उनका और विदेशियों का बँटवारा होता है तहाँ स्वराज्य के समय सोलहों आने अकेले ही उसे जारी रखते हुए अपना काम निकालने की आशा रखते हैं। लेकिन यदि स्वराज्य न भी हो तो भी उनके लिए अन्न, वस्त्र, घर या दवा के लिए लाले नहीं पड़ने वाले हैं। परन्तु किसानों के साथ तो यह बात है नहीं। वे तो दिन-रात कमाते-कमाते घिस जाने पर भी लंगोटी और टुकड़े के लिए तरस रहे हैं! उन्हें तो आज अन्न, वस्त्र का सवाल परेशान किये हुए है जो स्वराज्य के बिना कदापि हल हो ही नहीं सकता। उनके लिए तो स्वराज्य में एक दिन भी विलम्ब युग के बराबर गुजर रहा है। वह यह भी बखूबी जानते हैं कि कांग्रेस के बिना वह स्वराज्य हासिल होने का नहीं। कांग्रेस तो उनके लिए वह नाव है जिस पर वे स्वयं चढ़े हैं और जिसके डूबने पर वह खत्म हो जायेंगे। अत: कांग्रेस को कमजोर बनाना तो किसानों के लिए आत्मघात होगा। मुझे विश्वास है कि यह बात मं न केवल अपनी ही ओर से कह रहा हूँ, वरन बिहार प्रान्तीय किसान सभा की ओर से तथा उसके उन बहादुर कार्यकर्ताओं की ओर से भी, जिनके साथ काम करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है। हम तो चाहते हैं कि किसानों का स्वतन्त्र संगठन करके न केवल बाहर से ही कांग्रेस पर दबाव डालें, किन्तु कांग्रेस के भीतर भी रह करे उसे प्रभावित करते रहें। इसका परिणाम यह होगा कि जमींदार भी हमारी देखा-देखी भीतर से भी कांग्रेस को प्रभावित करने के लिए उसमें संगठित रूप से सम्मिलित होने को बाध्य होंगे और इस प्रकार कांग्रेस सच्ची शक्तिशालिनी तथा वास्तविक राष्ट्रीय संस्था बनेगी। किसान सभावालों का आज तो विश्वास है, भले ही वह गलत हो जाये, कि जिस प्रकार धीरे-धीरेपरिवर्तन होते-होते कांग्रेस की वर्तमान अवस्था हुई है इसी प्रकार थोड़ा और परिवर्तन होगा और वह उन गरीबों की संस्था हो जायेगी जो राष्ट्र के मेरुदण्ड हैं, किसानों को अब तो कांग्रेस से किसी प्रकार का खतरा है नहीं। फिर उसे कमजोर बनाने वह क्यों चले? हाँ, जिन्हें खतरा हो वह भले ही ऐसा करे सकते हैं। किसान सभा वाले यह खूब समझते हैं कि आज कांग्रेस को कमजोर बनाने या नष्ट करने के बाद कोई भी संस्था इस देश में प्रकट रूप से टिक या पनप नहीं सकती, उसे मिटा देना सरकार के बायें हाथ का खेल हो जायेगा। इस देश में ऐसा कौन अभागा होगा जिसे कुछ भी आजादी की परवाह होगी और वह उस कांग्रेस को शक्तिहीन करने की बात भी सोचेगा जिसने पचासों वर्ष की उथलपुथल देखी है और जिसके नाम पर त्यागों एवं बलिदानों का पहाड़ खड़ा है।

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किसान सभा और चुनाव

हमारे प्रान्त में दुर्भाग्य या सौभाग्य से तीन तरह के ऐसे लोग हैं जो यह ख्याल करते हैं कि निकट भविष्य में ही बिहार-प्रान्तीय किसान सभा स्वतन्त्र रूप से कौंसिलों आदि के चुनाव में भाग लेगी। एक तो वह हैं जो किसी प्रकार कौंसिलों और बोर्डों में घुसना चाहते हैं। साथ ही, उन्हें कांग्रेस से निराशा है। इसीलिए किसान सभा में सम्मिलित होना चाहते हैं। दूसरे वह हैं जो किसी प्रकार कांग्रेस की शक्ति चुनाव के मामले में क्षीण करके अपना मतलब निकालना और इस प्रकार स्वयं कौंसिलों में पहुँचना तथा अपने पिट्ठुओं को पहुँचाना चाहते हैं। वे दिन-रात किसान सभा और कांग्रेस की शक्ति का हिसाब लगाने में बेचैन हैं और चाहते हैं कि किसी प्रकार दोनों लड़ जायें जिससे उनका काम बने। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। तीसरा दल कांग्रेसवादियों एवं उसके सहायकों का है जिसे चाहे किसी भी कारण से इस बात का भय है कि किसान सभा कांग्रेस का प्रतिद्वन्द्वी बन जायेगी। आज तक बिहार में किसान सभा के नाम पर जो काल्पनिक संस्थायें और उनके स्वयंभू संचालक हो गये हैं उनके कारनामों को देख करे ऐसा सन्देह करना अस्वाभाविक नहीं है, हालाँकि यह बात निर्विवाद है कि उन सभाओं के वे संचालक कांग्रेसवादी नहीं थे। लेकिन मौजूदा बिहार प्रान्तीय किसान सभा के कर्णधार और कार्यकर्ता खांटी कांग्रेसी हैं इसे कोई भी इन्कार नहीं करे सकता। फिर भी जिस प्रकार दूध को देख करे बिल्ली का ईमान बिगड़ जाता है ठीक उसी तरह चुनाव ऐसी बेहूदा, साथ ही मोहक, वस्तु है कि बड़े-बड़ों की सच्चाई, ईमानदारी और कांग्रेस भक्ति काफूर हो जाती है, हो सकती है। फलत: दूध का जला जिस प्रकार छाछ को फूँक करे पीता है उसी तरह यदि वे लोग सशंक हैं तो उनकी यह शंका बेबुनियाद नहीं कही जा सकती।

इस सम्बन्ध में प्रान्तीय किसान सभा की, अपने सहयोगियों की तथा अपनी ओर से स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि मैंने अभी तक तो यह बात ख्याल भी नहीं की है, उस ख्याल के अनुसार काम करना तो दूर रहा। आज तो किसान सभा केवल आर्थिक प्रश्नों रोटी के सवाल को लेकरे ही चल रही है और राजनीति को उसने कांग्रेस के लिए छोड़ दिया है, सो भी आज से नहीं, 1933 के शुरू से भी नहीं, जब इसका पुनर्जन्म हुआ था, किन्तु 1929 के आखिर से ही जब इसका जन्म हुआ था। ता. 19.1.30 के एक प्रस्ताव के द्वारा, जिसकी शब्दावली यों है कि 'राजनीतिक मामलों में बिहार प्रान्तीय किसान सभा राष्ट्रीय कांग्रेस की घोषित नीति के विरुध्द कोई काम नहीं करेगी', यह बात तय करे दी गयी थी। चुनाव तो राजनीति है और उसे ही लक्ष्य करके यह बात तय पायी थी। उस निश्चय से हटने के लिए आज किसान सभा के पास कोई कारण नहीं आ गया है, जिससे वह उसे ठुकरा दे और चुनाव में जा धमके। यद्यपि राष्ट्रीय कांग्रेस के क्रम विकास के इतिहास का ही दृष्टान्त देकरे समालोचक लोग कह सकते हैं कि कोई भी जीती जागती संस्था किसी भी निश्चय या नियम से बाँधी नहीं जा सकती और भविष्य वक्ता होने का दावा दुस्साहस होने के साथ ही खतरे से खाली भी नहीं है, तथापि अनुभव, परिस्थिति एवं अनुमान के आधार पर कुछ तो भविष्य वक्ता बनना ही पड़ता है और उसके बिना काम भी तो नहीं चलता। हालांकि परिस्थिति किसी के वश की नहीं और अनुमान गलत साबित हो जाते हैं, लेकिन यह अपवाद है और उसके आधार पर निश्चय करने में बुध्दिमानी नहीं है। इस प्रकार जहाँ तक प्रान्तीय किसान सभा का सम्बन्ध है, उनके सामने अब तक कोई ऐसा कारण नहीं आया जिससे चुनाव के मामले में वह राष्ट्रीय कांग्रेस का अविश्वास करे, यहाँ तक कि उसे उलाहना भी दे। ऐसी हालत में वह चुनाव की बात स्वतन्त्र रूप से आज क्यों सोचने लगी? हाँ आगे चल करे उसे यदि इस मामले में कुछ कहने की आवश्यकता प्रतीत होगी तो कांग्रेस के सामने पूरे जोर के साथ वह बात पेश करे देगी और उसे विश्वास है कि कांग्रेस उसके न्यायपूर्ण दावे को स्वीकार करेगी। यहाँ यह कहने की तो जरूरत ही नहीं कि जिस कांग्रेस को महात्मा जी ने प्रधानतः और एक प्रकार से किसानों की संस्था कहा है, "The congrees is par excellence and in a sence a peasants organisation", और जिसे राष्ट्रपति ने हाल में ही मद्रास में दुहराया है, उसकी ओर से जब कौंसिल नीति का प्रोग्राम ठीक किया जायेगा और घोषणा निकलेगी तो वह ऐसी होगी जिसे किसान सभा और किसान अपने हित की बात समझ उधर आकृष्ट हो जायेंगे और इस प्रकार महात्मा जी तथा राष्ट्रपति की वाणी व्यवहारत: चरितार्थ होगी। वह समय तो कांग्रेस के कर्णधारों की अग्नि परीक्षा का होगा, न कि हमारी परीक्षा का, और आशा है उसमें वे उत्तीर्ण होंगे।

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जमींदारी मिटाने की बात

कुछ लोग किसान सभा पर यह दोष लगाते हैं कि वह जमींदारी तथा निजी सम्पत्ति मिटा देने वाली संस्था है। इससे भी बढ़करे कुछ कह डालते हैं कि यह जमीन जायदाद से रहित लोगों की सभा है जो अपने ही समान औरों को बनाते हुए 'फूँक दी झोंपड़ी, सलाम मियाँ खण्डहर' को चरितार्थ करना चाहते हैं। यद्यपि ऐसा कहने के लिए उनके पास न तो किसान सभा का कोई मन्तव्य ही है और न कोई घोषणा ही। तथापि सभा के द्वारा स्वीकृत किसानों के मौलिक अधिकारों में ''किसान ही जमीन का मालिक है'' को देखकरे लोग ऐसा कह सकते हैं। फिर भी इससे यह कहाँ सिध्द हो जाता है कि सबों को जमीन जायदाद रहित करना किसान सभा का काम है? उलटे, इससे तो बिना जमीन वाले भी जमीन वाले बनें ऐसा सिध्द होता है। एक बात और। जमीन के स्वत्वाधिाकार की दो प्रणालियाँ हैं, जमींदारी तथा रैयतवारी। पहली प्रथा बंगाल बिहार युक्तप्रान्त, पंजाब और मध्य प्रान्त में है( दूसरी बम्बई, मद्रास, असम और बर्मा में। पंजाब तथा सीमा प्रान्त में किसान को ही जमींदार कहते हैं जैसा कि Land Revenue administration in India भारत में मालगुजारी का प्रबन्ध नामक पुस्तक में जमींदारों के बारे में लिखा भी है कि ''वे किसान जो जमीन के मालिक हैं'' Proprietory cultivating communities रैयतवारी प्रथा को ही उस पुस्तक में ‘Ryotwari or Peasant Proprietory System’ लिखा है जिसका अर्थ है कि रैयतवारी प्रथा में किसान ही जमीन का मालिक होता है। ऐसी हालत में यदि किसान सभा किसान को जमीन का मालिक कहती है तो कौन सी नई बात कहती है जिससे उस पर इतनी खफगी है? जो बात भारत के मद्रास, बम्बई, पंजाब आदि प्रान्तों में प्रचलित है उसे यदि किसान सभा ने कह दिया तो बड़ा गुनाह किया? यदि पंजाब, मद्रास आदि में इस बात का अर्थ है जमींदारी मिटाना तो किसान सभा यह अपराध स्वीकार करने को तैयार है।

लेकिन जो काँग्रेसवादी किसान सभा पर इसीलिए बिगड़ते हैं कि वह जमींदारी और व्यक्तिगत सम्पत्ति खत्म करना चाहती है, उन्हें जरा कराची कांग्रेस में स्वीकृत मौलिक अधिकारों को ध्यानपूर्वक विचारना चाहिए( कारण, उन अधिकारों को तो वे मानते ही हैं। हम उनसे कहेंगे कि जिस प्रकार कांग्रेस के 'औपनिवेशिक शासन' में से 'स्वराज्य', उसमें से 'पूर्ण स्वराज्य' और अन्त में उसमें से ही कराची के मौलिक अधिकार निकल आये, उसी तरह मौलिक अधिकारों में से ही यदि जमींदारी या व्यक्तिगत सम्पत्ति मिटाने की बात निकल आये तो इसमें किसी पर बिगड़ने की क्या बात है? यह तो परम्परा उसी औपनिवेशिक शासन प्रणाली या 'स्वराज्य' की व्याख्या ही होगी और इस भाष्य व्याख्या का बीज उसी में सूक्ष्म रूप से पड़ा होगा। अब जरा मौलिक अधिकारों को देखें। मौलिक अधिकार यद्यपि अंग्रेजी में हैं तथापि बिहार प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी की हाल की नियमावली में जो उनका हिन्दी में भाषान्तर छपा है उसकी 7वीं धारा में लिखा है कि 'छोटे किसान को उनके लगान में काफी कमी करके और अलाभ-करे जमीन un-economic holding का लगान आवश्यक काल के लिए माफ करे, शीघ्र सहायता पहुँचाई जायेगी। लगान की इस कमी या माफी से छोटे जमींदारों को हानि से बचाने के लिए आवश्यक सहायता दी जायेगी।' इसमें दो बातें स्पष्ट हैं। एक तो किसानों के लगान में काफी कमी और उसकी माफी की बात। दूसरी उस कमी या माफी से होने वाली छोटे जमींदारों की हानि से उन्हें बचाने की बात। याद रहे कि इसमें बड़े जमींदारों का जिक्र भी नहीं है। जिन्होंने किसान सभा की विज्ञप्ति, नियमावली आदि छोटे होगी वह जानते हैं कि किसान सभा बड़े जमींदारों को ही जमींदार मानती हैं। छोटे जमींदारों को तो वह किसान ही करार देती है। अस्तु! ऊपर लिखी अधिकार वाली बात से यह स्पष्ट है कि जब किसानों के लगान की माफी या कमी होगी तो जमींदारों को लगान या तो मिलेगा ही नहीं या कम मिलेगा। फिर भी उन्हें तो सरकारी मालगुजारी Revenue देना ही होगी जिसे बड़े जमींदार तो, कांग्रेस की दृष्टि में बर्दाश्त करे लेंगे, लेकिन छोटों के लिए असह्य हो जायेगा। इसीलिए छोटों को उस हानि से बचाने की बात है, जिसका सीधा अर्थ है उनकी मालगुजारी में भी कमी या माफी करे दी जायेगी। इससे दो बातें स्पष्ट हो गयीं। एक यह कि जब छोटे जमींदार के रैयत की जमीन का लगान माफ हो जायेगा तो वह मुफ्त ही उसे जोत बोकरे खायेगा, यानी उसका मालिक बन जायेगा, यहाँ तक कि जमींदार से भी बड़ा मालिक, क्योंकि मालगुजारी भी तो उसे देनी न होगी। पर, जमीन का मालिक यदि छोटा जमींदार हो तो जमीन तो उसके हाथ से गयी ही। हाँ( उसकी मालगुजारी देने से उसे बरी करे दिया जायेगा। इस प्रकार छोटे की जमींदारी छिन तो गयी, साथ ही उसे एक पैसा मुआविजा भी न मिला। हाँ, मालगुजारी उस जमीन की उसके सिर से हट गयी और यह ठीक ही है। दूसरी बात यह है कि बड़े जमींदार साहबान की जमींदारी जो बिना मुआविजे के ही छिन गयी सो तो हुआ ही। लेकिन उनके सिर यह दण्ड भी हुआ कि उस जमीन की मालगुजारी Revenue बराबर सरकार को देते रहें। क्या यह जमींदारी मिटाना नहीं है? किसान सभा तो यदि जमींदारी मिटाने की बात भी सोचे या करे तो बड़े जमींदारों पर इस तरह का दण्ड लगान तो सोच भी शायद नहीं सकती। बेशक, कराची में सभी जमींदारी को छीनने की बात नहीं कही गयी है। लेकिन यह तो उसी सूत्र का भाष्य हो सकता है जैसा कि कह चुके हैं। इसी प्रकार उन अधिकारों की 15 वीं धारा में आधारभूत उद्योग व्यवसाय, नौकरियाँ, खान, रेल, जलमार्ग, जहाज तथा गमनागमन के अन्य साधानों पर सरकार के अधिकार की बात कही गयी है, जिससे सिध्द है कि अस्पष्ट रूप से व्यक्तिगत सम्पत्ति छीनने की बात सूत्र रूप में कही गयी है। दृष्टान्त के लिए बिहार में कोयले और अबरक की खानों पर सरकार तब तक अधिकार नहीं जमा सकती जब तक बेदखली खानों के जमींदारों और मालिकों की न हो। कीमत देने की बात तो कुछ ऐसी ही है। और जब जमींदारी में कीमत का प्रश्न नहीं उठा तो खान आदि के बारे में कांग्रेस का वह अभिप्राय बताना केवल हठधार्मी होगी। अतएव कराची के मौलिक अधिकारों के मानने वाले कांग्रेसवादियों को उनके न्याय-प्राप्त अन्तिम परिणाम Logical conclusion के लिए तैयार होकरे किसान सभा का विरोध छोड़ देना चाहिए। जब हमने अपहरण का सूत्रापात करे दिया तो उसका चरम परिणाम यही होकरे रहेगा कि सर्वापहरण हो जाये। क्योंकि गुड़ खाकरे गुलगुले से परहेज करना कोई बुध्दिमानी नहीं।

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प्रोत्साहन और सहयोग

हमारे इस कथन का यह अर्थ कदापि नहीं कि यहाँ किसान संगठन में कांग्रेस के कर्णधारों और कांग्रेसवादियों ने हमारे साथ सहयोग नहीं किया है या हमें प्रोत्साहन नहीं दिया है। विचार वैचित्रय के अनुसार, जैसा कि सभी कार्यों में होता है कुछ लोगों ने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष रूप से अन्यमनस्कता दिखाई है जरूर और ऐसा होना भी वर्तमान परिस्थिति में, जैसा कि कह चुके हैं, जरूरी था। फिर भी यह कुछ ऐसी बात नहीं है जो शिकायत करने योग्य हो। इसके विपरीत प्राय: सभी जिलों के प्रमुख कांग्रेसी तथा कांग्रेस के वे सूत्रधार जो अपना उत्तरदायित्व समझते हैं और समय की गति परखने में सिध्दहस्त हैं, प्रारम्भ से ही, हमारी सहायता तथा हमारे साथ सहयोग करने में सदा अग्रसर रहे हैं और हमें भरपूर प्रोत्साहन उन्होंने दिया है। हमारे राष्ट्रपति ने, जो सौभाग्य से हमारे ही प्रान्त के हैं गतवर्ष जेल से बाहर आने के कुछ महीनों बाद अगस्त में महाराजा दरभंगा के और उनके द्वारा जमींदारों को जो पत्र लिखा था, और जो पीछे सर्चलाइट में भी प्रकाशित हुआ था, उससे हमें बहुत आश्वासन और बल मिला। उसके बाद भी उनका भाव हमने व्यवहार रूप से किसान सभा की तरफ कभी बुरा नहीं पाया है। प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी के प्रेसिडेण्ट श्रीयुत बा. श्रीकृष्ण सिंह ने जेल से बाहर आते ही गत वर्ष हमारे सम्बन्ध में सार्वजनिक रूप से जो कुछ कहा था और उसके बाद बराबर हमारे काम में जो मदद पहुँचाते रहे हैं उसे हम भूल नहीं सकते। यदि उनकी दृष्टि जरा भी वक्र हो जाती तो किसान सभा के सामने जो कठिनाइयाँ आतीं उनका वर्णन करना कठिन है। नतीजा यह होता कि किसान सभा की आज जो हालत है वह कदापि न होती और यह बहुत पीछे रहती। कांग्रेस के इन दो प्रमुख स्तम्भों की प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष सहायता के उल्लेख के बाद शेष महानुभावों और जिलों के सहायकों का उल्लेख करना बेकार और असंभव सा काम हो जायेगा। यहाँ दिग्दर्शन स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालता है।

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कांग्रेस के साथ संघर्ष

इतने पर भी यदि किसान सभा के साथ कांग्रेस के संघर्ष का प्रश्न उठाया जाय या उठाया जाता है तो इसे हम अपने तथा देश के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या कह सकते हैं? आखिरकार हम अपनी तथा किसान सभा की ओर से कहाँ तक सफाई दे सकते हैं? हर बात की सीमा होती है। हमने जो कुछ कहा है स्पष्ट कहा है और मन में आन मुख में आन Mental reservation को चरितार्थ नहीं किया है। हमारे जानते हमारी ओर से संघर्ष की कोई सम्भावना नहीं। अपनी परम प्यारी वस्तु के साथ, उस पेड़ के साथ जिसके पौधो को अपने ही पसीने और खून से सींचा, संघर्ष की बात कैसी? अपने हाथों लगाया विष का वृक्ष भी तो नहीं काटा जाता। लेकिन, जैसा कि पहले कह चुके हैं, कुछ लोगों का स्वार्थ इसी में है कि किसान सभा के प्रति कांग्रेस का दुर्भाव पैदा करे दें( क्योंकि वह जानते हैं कि किसान सभा का दुर्भाव तो कांग्रेस के प्रति होई नहीं सकता। वह दिन बड़ा ही बुरा होगा जब ये लोग सफल होंगे। लेकिन हमें तो कांग्रेस के अपने महारथियों, सूत्रधारों और जन सेवकों की दूरंदेशी एवं बुध्दिमत्ता में पूरा विश्वास है और हमारी पक्की धारणा है कि इन भलेमानसों की दाल उनके यहाँ न गलेगी और उन्हें बुरी तरह निराश होना होगा। लक्षण भी ऐसे ही हैं और हमारा आज तक का इस विषय का अनुभव भी यही बताता है।

भारतवर्षीय किसान संगठन

किसान संगठन के प्रसंग से एक बात हम और कह देना चाहते हैं। आजकल इस बात की चर्चा बहुत है कि किसानों का एक अखिल भारतीय संगठन कायम हो जाये। शुरू में हमारा भी कुछ ऐसा ही विचार था और आज भी वह ज्यों का त्यों है। लेकिन इधर किसानों में काम करने और बाहर भीतर की बहुत सी जानकारी प्राप्त करने के बाद हम इसी नतीजे पर पहुँचे हैं कि अभी उसका समय नहीं आया है। हम चाहते हैं कि किसान सभा का नेतृत्व या तो किसानों के हाथ में हो या ऐसे लोगों के हाथ में जिनकी काफी परीक्षा इस सम्बन्ध में हो चुकी है। यह बात तभी सम्भव है जब प्रान्तों में किसानों का कम से कम कामचलाऊ संगठन हो जाय और उनमें काफी जागृति आ जाय। यदि यह काम होने से पहले किसानों की कोई अखिल भारतीय संस्था कायम हुई तो उसका नेतृत्व गलत हाथों में जाने की अधिक सम्भावना है या करीब-करीब इसका निश्चय ही समझना चाहिए। अभी तक एक प्रान्तवाले कार्यकर्ताओं को भी दूसरे प्रान्त के कार्यकर्ताओं की पूरी जानकारी नहीं है। किसानों की तो बात ही छोड़िये। ऐसी हालत में नेतृत्व का सेहरा ठीक सिर पर नहीं पड़ सकता। प्रत्युत जो सबसे अधिक चलता पुर्जा होगा वही नेता बन बैठेगा, जिसमें भारी खतरा है। प्रारम्भिक दशा में कांग्रेस के नेतृत्व की जो दशा हुई वही इसकी हो सकती है, जो इस युग के लिए बर्दाशत के बाहर होगी। अत: हमें जानबूझकरे इस खतरे में नहीं पड़ना चाहिए। इससे कोई यह न समझ बैठे कि हम उनकी नीयत पर सन्देह करे रहे हैं जो इसकी चर्चा चला रहे हैं। चर्चा चलाने वालों में तो हम भी हैं ऐसा कह ही चुके हैं। फिर भी इसके चलते भावी खतरे की सूचना देना हमारा लक्ष्य है। हम चाहते हैं कि कोई भी ऐसा संगठन होने से पहले हममें कुछ लोग भारत के सभी प्रान्तों के किसानों की दशा और वहाँ की कानूनी व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन करें। उसके बाद ही अखिल भारतीय संगठन का कोई निश्चित एवं सुसम्बध्द कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है। अभी तो हम अन्धेरे में हैं और एकमात्र टटोलने से कोई काम नहीं चलेगा। ख्वामख़ाह टटोलने की तैयारी करना कोई बुध्दिमानी नहीं।

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किसान सभा और साम्यवाद

यद्यपि सिध्दान्त की बातों एवं परिस्थिति के स्पष्टीकरेण में हमने आप का ज्यादा समय ले लिया और आपके काम तथा तात्कालिक लाभ की कोई बात नहीं की, तथापि कार्यकारणवंश यह बात अनिवार्य थी। अब काम की कुछ बातों पर आने से पहले एक अत्यावश्यक बात पर प्रकाश डाल देना मैं जरूरी समझता हूँ। आजकल सरकारी, गैर-सरकारी जवाबदेह लोग तक यह बात प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से कहने लग गये हैं कि किसान सभा साम्यवादियों के हाथ की कठपुतली है। गोया साम्यवाद कोई महान पाप है। यद्यपि किसान सभा के मन्तव्यों एवं प्रस्तावों से यह बात किसी भी तरह सिध्द नहीं है और कोई भी निष्पक्ष विचारशील इसे देख सकता है, तथापि इतनी बात तो जरूर है कि वह जी हुजूरों, जमींदारों और सरकार के इशारे पर नाचने वाली भी नहीं है और न हो सकती है और अगर थोड़ी देर के लिए उसे साम्यवादियों की चीज मान ही लें तो इसमें हर्ज ही क्या है। क्या साम्यवाद के सिध्दान्त का प्रचार कोई गुनाह है? अगर 'निर्दोषं हि समं ब्रह्म', 'समत्वं योग उच्यते' इत्यादि वचनों के द्वारा गीता में आधयात्मिक साम्यवाद का प्रचार पाप नहीं है, या यदि कर्मवाद के मिथ्या ज्ञानमूलक अध्ययन और परलोकवाद के रहस्य के न जानने के कारण समाज की वर्तमान भयंकर विषमता का समर्थन गरीबों को सन्तोष या परलोक प्राप्ति की मिथ्या आशा के आधार पर किया जाना, जो विकृत मानसिक या ख्याली साम्यवाद का ढकोसला ही कहा जा सकता है, अपराध नहीं है तो फिर भौतिक साम्यवाद से ही इतनी चिढ़ क्यों? जहाँ आज पूर्वोक्त दो साम्यवादों के आधार पर अकर्मण्यता का गलत पाठ अबाध रूप से पढ़ाया जाता है वहाँ भौतिक साम्यवाद कर्मण्यता और मर्दानगी तो सिखाता है और आज बेबस, बेकश, बेजार और गुलाम भारत के लिए इसी की सबसे पहले जरूरत है।

यद्यपि आज किसान सभा साम्यवाद से कोसों-बहुत दूर है तथापि यदि वह भविष्य में साम्यवाद की अनुगामिनी हो जाय तो मेरे जानते उसके लिए और किसानों के लिए भी मुक्ति की दृष्टि से भले ही न सही, भुक्ति रोटी की दृष्टि से ही, और पेट भरने के बाद ही धर्म सूझता है वह सौभाग्य का दिन होगा, यद्यपि मेरे लिए उस सभा में तब जगह न होगी तब मैं शायद उसमें रह न सकूँगा और स्वेच्छया उससे अलग ही जाऊँगा क्योंकि मैं मानता हूँ कि सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संसार में आज तक जितने भी भौतिक सिध्दान्त प्रतिपादित हुए हैं उसमें साम्यवाद ही सर्वोत्ताम एवं स्वाभाविक है। माता के पेट से राजा रंक सभी का बच्चा समान रूप से नंग-धड़ंग पैदा होता है और सभी बच्चों के लिए समान रूप से माता के स्तनों में दूध पाया जाता है। जब तक प्रकृति या भगवान का हाथ रहा तब तक तो पूरा साम्यवाद था। पर ज्यों ही मनुष्य का हाथ घुसा कि जहरीली विषमता पैदा हो गयी। साथ ही मैं यह भी मानता हूँ, गो कि मैं उसके गहन सिध्दान्तों के ज्ञाता होने का न तो दावा ही करे सकता और न उसके सम्बन्ध में व्यवस्था देने का साहस ही। फिर भी जहाँ तक उसे समझा है उसी आधार पर कह सकता हूँ कि इस साम्यवाद में ईश्वर, परलोक, धर्म, अधर्म आदि जैसी चीजों के लिए स्थान नहीं है और जो लोग किसी कारण या लोभवश उसमें इन चीजों का सम्मिश्रण करेंगे वह इसका गला घोंटने का श्रीगणेश करेंगे। लेकिन सौभाग्य या दुर्भाग्य से अभी तक मेरा ईश्वर, परलोक, वर्ण और धर्म में विश्वास है। हो भी क्यों नहीं। जिन दर्शनों को बहुत उत्कण्ठा से बुध्दिपूर्वक पढ़ा और जिस गीता का आजन्म मनन किया वह आसानी से भुलाई जाने की चीज नहीं है और जब तक मेरे हृदय में गीता के लिए उच्च स्थान रहेगा-उस गीता के लिए जिसे मैं वेदों से भी बढ़करे मानता हूँ तब तक मैं स्वयं साम्यवादी बन नहीं सकता। क्योंकि साम्यवाद में गीता को, मेरे जानते, स्थान नहीं है। फिर भी इतना तो स्पष्ट ही कह देना चाहता हूँ कि आज धर्म ने हमारे दिलों में जो सार्वजनिक स्थान पा लिया है और जिसके करते आज भाई के खून का प्यासा भाई हो रहा है और हमारे मुख की रोटी बलात् छीनी जाकरे हमारी गुलामी की बेड़ियाँ मजबूत हो रही हैं, यदि उस स्थान से वह चाहे जैसे हो पदच्युत किया जाकरे सोलहों आने व्यक्तिगत Strictly private वस्तु न बना दिया गया, या, यदि ऐसा न हो सके तो आजादी की प्राप्ति के लिए सर्वसम्मति या बहुमत से स्थगित suspend नहीं करे दिया गया तो समय पुकारता है कि वह नेस्तनाबूद हो जाएगा। क्योंकि आजादी और रोटी वस्त्र के लिए अब गरीबों की लड़ाई ज्यादा दिन रुक नहीं सकती और उनके मार्ग में धर्म ईश्वर या जो भी चीज बाधक होगी उसे वे बेरहमी के साथ रौंद देंगे। उन्हें कोई शक्ति रोक नहीं सकती।

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अकर्मण्यता, नामर्दी और जुल्म

अच्छा, तो आइये अब थोड़ा काम और तात्कालिक उपयोग की बातों पर भी विचार करे लें। किसानों की वास्तविक दशा को लक्ष्य में रख करे ही हम और आप कोई मन्तव्य निश्चय करे सकते हैं और जब उनकी ओर हम दृष्टिपात करते हैं तो जो चीज हमें सहसा आकृष्ट करे लेती है वह है उनकी नामर्दी, अकर्मण्यता या किर कर्तव्य विमूढ़ता और जमींदारों का गैरकानूनी अत्याचार। कानूनी तकलीफों के लिए तो लड़ाई भी लड़ी जा सकती है। लेकिन गैर-कानूनी के लिए क्या किया जाये? यदि हमारे घर में कोई डाकू घुस करे बहू-बेटी को बेइज्जत करने के साथ ही घर को लूट ले जाय और हम चूँ न करें, मर मिटने को तैयार न हों और गैरों की सहायता चाहें तो यह असम्भव-सी बात है। यह तो किसी भी सरकार के लिए गैरमुमकिन है कि नामर्द राष्ट्र की रक्षा करे सके। इसीलिए तो आत्मरक्षा का कानूनी हक़ सभी को दिया गया है। यदि कोई जमींदार या उसका अमला किसान के घर में घुस करे डाकू जैसा उक्त काम करता है, जैसी कि आज आम शिकायत है, तो उसे जान पर खेल करे अपनी प्रतिष्ठा एवं सम्पत्ति की रक्षा करनी चाहिए और आत्मरक्षा के सिध्दान्तों के भीतर उसकी हिंसा का उत्तर हिंसा से भी देने को हरदम तैयार रहना चाहिए। क्योंकि अहिंसा सिध्दांत के आधुनिकता भाष्यकार या आचार्य महात्मा गाँधी का भी कहना है कि अहिंसा से हिंसा तो बुरी हुई, लेकिन नामर्दी तो हिंसा से कहीं बुरी है। यदि किसानों में यह जवाँमर्दी आ जाय और वह हर बात में किसान सभा या कांग्रेस के पास न दौड़ करे स्वावलम्बन का पाठ पढ़ें तो गैरकानूनी जुल्मों के करते उनकी होने वाली सभी तकलीफें शीघ्र ही भाग जायँ। जबकि बिना वारण्ट के पुलिस भी घर में घुस नहीं सकती, किसी को पकड़ नहीं सकती और बिना कानूनी कार्यवाही के मजिस्ट्रेट भी किसी को सजा नहीं करे सकता, गाली तो कोई किसी को दे ही नहीं सकता, तो फिर जमींदार या उसका अमला कहाँ का नादिरशाह है कि ये काम करें, बिना रसीद दिये रुपये ले या जबर्दस्ती हैण्डनोट का निशान बनवावें? इन सभी बातों में किसानों को अड़ जाने का अभ्यास डालना होगा। बस, बेड़ा पार है और इतने से ही उनकी आधी दिक्कतें दूर हो जायेंगी। ऐसे मामलों में आन्दोलन करने में कार्यकर्ताओं को भी आसानी होगी और यहीं से किसान आन्दोलन का श्री गणेश होना चाहिए।

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ऋण की चक्की और किसान

इसके बाद कानूनी कठिनाइयों का नम्बर आता है और उनमें सबसे पहला स्थान किसानों के ऋण का है। यह ऋण तो वह अमर लता है जो पेड़ के ऊपर ही पैदा होके उसी के रस से बढ़ती है और अन्त में उसे सुखा करे स्वयं भी सूख जाती है। किसान की कमाई का अधिकांश या कम से कम आधा तो इसी ऋण के सूद के रूप में प्रति वर्ष चला जाता है। यद्यपि बैंकिंग जाँच कमिटी ने बताया है कि बिहार वालों को 1 अरब 55 करोड़ के लिए 28॥ करोड़ ही सूद सालाना देना पड़ता है तथापि हमारा अनुभव बताता है गल्ले वगैरह के कर्ज का जो सूद देना पड़ता है और नगद सूद की जो दर थोड़े-थोड़े रुपयों के लिए देहातों में है उसके अनुसार इसका दूना यानी 53 करोड़ तो देना ही पड़ता है। यदि विवश होकरे उसने कमाई को और काम में खर्च किया तो सूद का सूद चढ़ बैठता है। दुर्भाग्यवश हमारे प्रान्त का कर्ज भार सभी प्रान्तों की अपेक्षा कहीं ज्यादा है, यदि जनसंख्या के अनुपात का मिलान किया जाय। बैंकिंग कमिटी के अनुसार हिन्दुस्तान के देहातों का कुल ऋण 9 अरब है जिसके छठे हिस्से भी ज्यादा केवल बिहार पर ही है हालाँकि जनसंख्या नवां हिस्सा है। सन् 1921 की गणना के अनुसार बैंकिंग कमिटी ने यहाँ शुध्द किसानों की संख्या खेती के मजदूरों को भी छोड़ करे 2 करोड़ 15 लाख मानी है और कुल जनसंख्या करीब 3 करोड़ 40 लाख। 1931 की कुल संख्या 3 करोड़ 76 लाख होने से किसानों की संख्या बढ़ करे 2 करोड़ 40 लाख हो जायेगी और इनके ऊपर कर्ज उसने 1 अरब 29 करोड़ माना है। क्योंकि 155 करोड़ में 24 करोड़ जमींदारों पर और 2 करोड़ अन्य लोगों पर रखा है। साथ ही खेती की पैदावार की कुल कीमत 1 अरब 20 करोड़ ही कूती गयी है। यानी किसानों की सालाना पैदावार की कीमत से 9 करोड़ ज्यादा उनके ऊपर ऋण है। इस पैदावार में 45 करोड़ खर्च केवल खेती का, 21 करोड़ सूद और लगान, तावान, सलामी, असवाव, सेस आदि मिला करे करीब 24 करोड़ और भी देना पड़ता है। यह तीनों मद मिलाकरे 90 करोड़ हो गये। सभी प्रान्तीय सरकारें करीब 92 करोड़ खर्च करती हैं जिसमें करीब 30-32 करोड़ जमींदारों से मालगुजारी पाती हैं। उसे छोड़ करे 60 करोड़ वह और 183 करोड़ भारत सरकार का खर्च तथा 50 करोड़ 'होम चार्जेज' प्रति वर्ष विलायत जाने वाला पेन्शन आदि का कुल 293 करोड़ हो गया जो प्रति भारतीय औसतन 9 हुआ और इसे घुमा फिरा के देते हैं केवल मिहनत मजूरी करने वाले ही। अमीर लोग भी जो आय करे आदि देते हैं किसान मजदूरों से ही सीधे टेढ़े लेते हैं। इस प्रकार 9 की जगह फी किसान 10 सालाना से कम न हुआ जिसका अर्थ हुआ कि बिहार के 2 करोड़ 40 लाख किसान 24 करोड़ और भी देते हैं। यानी कुल 114 करोड़। उनके पास बचा कुला 6 करोड़ यानी फी किसान 2 और इसी में साल भर का खाना, कपड़ा, मकान, दवा, श्राध्द विवाह आदि चलाना है। यही कारण है कि उसका ऋण आग की तरह बढ़ता जाता है। कमिटी ने यह भी माना है कि जो ऋण किसान लेता है उसका 20 सैकड़ा ही श्राध्द आदि में तथा 30 सैकड़ा ऋण या सूद चुकाने में खर्च करता है, शेष खेती-बारी में ही। बिहार के बराबर ही करीब-करीब पंजाब का ऋण है, आबादी 235 लाख और ऋण 135 करोड़। युक्त प्रान्त में आबादी 484 लाख, ऋण 124 करोड़, बंगाल में 500 लाख और 100 करोड़, मद्रास में 465 लाख तथा 150 करोड़। यही ऋण का हिसाब है। बम्बई सबसे कम ऋणी है, क्योंकि 210 लाख पर 81 करोड़ ही ऋण है, मध्य प्रान्त की भी यही हालत है जिसके 155 लाख लोगों पर केवल 36 करोड़ है। लेकिन सभी प्रान्तों की सरकारें ऋण जाँच कमिटी, ऋण निवारक कानून तथा ऋण समझौता समितियाँ आदि बनाकरे इस दिशा में बहुत कुछ करे रही हैं( केवल बिहार सरकार चुप्पी साधे है। नतीजा यह है कि हमारे किसानों के शरीर में खून नहीं। यदि पड़ोस की युक्त प्रान्तीय सरकार ऋण सम्बन्धी 5 कानून बनाकरे गरीबों की रक्षा करे सकती है तो हमारी सरकार क्यों नहीं? ऋण शोध के लिए सबसे जरूरी काम यह है कि-

1 कृषि तथा बैंकिंग कमिटी के आदेशानुसार ग्रामों की आर्थिक जाँच के लिए कमिटी Board of Economic Enquiry सरकार कायम करे जो ऋण की असली हालत और आर्थिक दशा का पता चलाये। हाल में बंगीय सरकार ने यही किया था। और भावनगर राज्य ने पहले यही करके ऋण का पता लगाया और पीछे किसानों के बदले अपनी ओर से 86 लाख ऋण के लिए केवल साढ़े 21 लाख देकरे किसानों का पिण्ड छुड़ाया जिसे वह मामूली यानी 4 सैकड़ा सालाना सूद के साथ अत्यन्त आसान किस्तों में लम्बी मुद्दत में वसूल करेगा।

2 जाँच से पता लगने पर कि असल से दूना महाजन पा चुका है शेष ऋण माफ हो जाना चाहिए और इस तथा ऐसे ही काम के लिए कृषिकमीशन के कथनानुसार बहुत ही आसान 'कृषक दिवालिया कानून' बनाना चाहिए।

3 जाँच के बाद जो ऋण ज्यों का त्यों पड़ा हो या जिसकी चुकती में दूने से कमी रह गयी है उस ऋण और उस कमी का पता लगा करे उसे चुकाने का प्रबन्ध सरकार करे-जैसा भावनगर ने किया है। यदि दूने वाला सिध्दान्त न मान्य हो तो भावनगर की ही तरह केवल चौथाई अदा करे। एतदर्थ सरकार स्वयं ऋण ले जिसका सूद 4 सैकड़े से ज्यादा न हो या जितना इम्पीरियल बैंक देता है उतना ही हो। सूद का डयोढ़ा यानी कुल प्राय: 6 सैकड़ा सालाना ऋणी किसानों से शेष के साथ धीरे-धीरे वसूल करके 50 वर्ष में खत्म करे। यदि इनकी मुद्दत का एक ऋण न मिले तो 25 वर्ष बाद दूसरा ऋण लेकरे पहले को चुकता करे। इस प्रकार 6 सैकड़ा सालाना सूद यदि लगातार पचास वर्ष तक किसानों से लिया जाय तो उसके असल मय सूद से भी ज्यादा सरकार को मिल जायेगा और किसान भी बच जायेंगे। भावनगर की रिपोर्ट से पता चलता है कि इस प्रकार ऋण मुक्ति के बाद फसल मारा पड़ने पर भी सरकार की मालगुजारी और बकाया का भी कुछ अंश हर साल खुशी से वसूल हो जाता है।

4 सूद दर सूद गैर-कानूनी करार देने के साथ 6 सैकड़ा सालाना से ज्यादा सूद भी जुर्म बनाया जाय और जब तक ऐसा नहीं हो जाता ऋण की वसूली युक्त प्रान्त की तरह स्थगित करे दी जाय।

5 भविष्य में किसान फिर ऋण के जाल में न फँसे एतदर्थ भावनगर की ही तरह 'कृषक रक्षा कानून' बना दिया जाय तथा कुछ ऐसी कानूनी दिक्कतें पैदा करे दी जायें जिससे ऋण देने और लेने वाले खास-खास जरूरी बातों के ही लिए ऋण दे ले सकें।

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नहर के रेट में कमी

उसके बाद नम्बर आता है लगान और नहर के रेट के महसूल का। उत्तर बिहार में चम्पारन और दक्षिण बिहार में शाहाबाद, गया, पटना इन्हीं जिलों के कुछ ही अंशों में नहरों से सिंचाई होती है। फलत: वर्षा की कमी होने पर, जो प्राय: हुआ करती है, हर साल ही कम बेश फसल मारी जाती है। इस साल तो प्रान्त भर में रुपये में एक दो आने से ज्यादा शायद ही हो( कारण, वृष्टि की ऐसी बुरी दशा कदाचित ही किसी साल हुई हो। फलत: धान सूख गया, सूख रहा है। धान का खेत पानी बिना रबी के योग्य भी न रहा। चीनी के बारे में जो हैरिफ बोर्ड की रिपोर्ट छपी है उसमें लिखा है कि जहाँ मद्रास और बम्बई में क्रमश: 70 तथा 80 प्रतिशत भूमि नहर से सींची जाती है वहाँ बिहार में केवल 26 प्रतिशत। यही कारण है कि दैव के आश्रित होने से प्राय: तीन चौथाई या आधी फसल पानी के बिना या उसकी बहुलता से हर साल मारी जाती है। यहाँ के किसानों की गरीबी का यह प्रधान कारण है। एक ओर यह और दूसरी ओर नहर की यह दशा है कि जहाँ 50 वर्ष पूर्व फी बीघा दस आना या फी एकड़ एक रुपया महसूल लगना था तहाँ आज 14-15 वर्षों से बीघे पर 3 और एकड़ पर 4॥ हो गया है। यानी गल्ले की महँगी के साथ ही केवल 35 वर्ष में प्राय: पाँच गुना बढ़ गया! नहर का रेट 1886 में 1 एकड़ से 1890, 1896, 1902 और 1922 में क्रमश: 1॥, 2, 2॥ और 4॥ हो गयी। यह सात साल सट्टे की दर है एक साल की 4॥ से 5, रबी जाड़े की फसल का 2॥ से 3॥ और ऊख का 5 से 7॥ हो गया! गल्ले की दशा यह है कि भारतीय बैंकिंग कमिटी के शब्दों में 1921 या 22 से ही गिर करे उसका दाम आधा हो गया "The fall in the prices of crops since 1921 has been roughly 50 per cent." यह 1931 की बात है। तब से दशा और भी बिगड़ी ही है। फिर भी यदि कहा जाता है कि सरकार नहर का महसूल आधा करे दे तो हँसी उड़ाई जाती है और कहा जाता है कि किसान पानी लेते क्यों हैं यदि महँगा पड़ता है! दूसरी ओर अभी हाल में ही शाहाबाद के एक गाँव के किसानों ने फरियाद की है कि उनके पानी का खजाना आहर नहर विभाग ने दूसरे बहाने से कटवा दिया। पर एक अफसर के मुख से निकल गया कि जब आहर रहेगा तो नहर का पानी कौन लेगा! 1896 में गल्ले की जो दर थी वही आज है और उस समय फी एकड़ 2 महसूल था। आज भी वही चाहिए। केवल महसूल ही नहीं( घूसखोरी तो नीचे के अफसरों और नौकरों में इतनी है कि गजब है और इसकी तथा पानी की शिकायतें ऊपर वाले सुनते ही नहीं। पहले ऊख के लिए फी पानी 1॥- बीघे पर लगता था तो जरूरत के अनुसार किसान एक या दो पानी लेते थे। अब 4॥ बीघे पर करे दिया गया है, चाहे एक पानी ले या दो। नहर के छोर पर पानी पहुँचाया ही नहीं जाता है और पानी की चोरी भी की जाती है जो किसानों और ओवरसीयर आदि की राय से होती है। इससे आम जनता और सरकार की भी हानि है। इसलिए-

1. नहर का महसूल आधा जरूर हो और ऊख का महसूल फी पानी के हिसाब से लिया जाय। उड़ीसा में तो सरकार घटा भी चुकी है।

2. पानी की चोरी और घूसखोरी रोकी जाय और नहर के छोर पर पानी पहुँचने का प्रबन्ध हो।

3. ठीक समय पर पानी मिलने का पक्का प्रबन्ध हो और बरसात में नहर रोकी न जाय, रह रह के बाढ़ की वजह दिखाकरे, जामबोट से पहले की तरह बालू बाढ़ के समय नहर के मुहाने से निकाला जाय।

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लगान में कमी

नहर के महसूल के सम्बन्ध की बहुत सी बातें यहाँ भी लागू हैं। इस बार कौंसिल में प. यमुनाकार्यी ने, जो कांग्रेस की ओर से वहाँ गये हैं और हाल तक प्रान्तीय किसान सभा के मन्त्री थे, अब भी प्रान्तीय किसान कौंसिल के सदस्य हैं, जब लगान घटाने का प्रस्ताव किया तो जमींदार तो बिगड़े ही, मगर उनके स्वर में स्वर मिलाकरे सरकार की ओर से मिस्टर हबक ने, जो किसानों के पक्षपाती Pro-tenant कहे जाते हैं, खासा उपदेश अप्रत्यक्ष रूप से किसान सभा को दे डाला। जब उन Pro-tenant की यह दशा है तो इसी से बिहार की मौजूदा कौंसिल का पता लग सकता है कि वह कहाँ तक किसानों की परवाह करती है! 'किं तत्रा परमाणुर्वै यत्रा मज्जति मन्दर:'। कौंसिल के चुने हुए 70 सदस्यों में 5 जमींदारों और एक युनिवर्सिटी की जगह छोड़ शेष 64 किसानों के प्रतिनिधि होने पर भी केवल 12 वोट उस प्रस्ताव के पक्ष में आये जिनमें तीन तो कांग्रेसवादियों के ही थे। विरोध में पूरे 52 आये और प्रस्ताव गिर गया। सरकार तो सरकार, जो जमींदार दक्षिण बिहार के पटने आदि जिलों में 18-20 रुपये बीघे तक लगान बलात् वसूलते हैं, जिनके यहाँ भावली में लूट होती है, धान की फसल चैत तक खेत में ही खड़ी रह जाती है और आज नये काश्तकारी कानून के लागू होने पर भी 12॥ सैकड़े से कम सलामी जमीन की बिक्री पर नहीं ले सकते तथा कुऑं, पानी पीने के लिए, बनवाने पर सलामी आज भी जबर्दस्ती लेने पर तुले बैठे हैं, उन्होंने भी फरमा डाला कि लगान की कमी से रैयत जमींदार के सम्बन्ध में खटाई पड़ जायेगी और हबक साहब ने हिसाब लगाकरे बता दिया कि फी एकड़ किसान को औसत लगान 3। ही देना पड़ता है और यदि एकड़ पीछे औसत पैदावार 25-30 रुपये भी मान लें तो किसान को काफी बचत है। लेकिन हम हबक साहब से नम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहते हैं कि वह अपनी ही सरकार के द्वारा प्रकाशित 1931-32 तथा और वर्षों की रिपोर्ट पढ़ें जिससे पता चलता है कि जहाँ पहले दमामी बन्दोबस्त के शुरू में जमींदारों की कुल वसूली में 10 में 9 सरकार लेती थी और 1 जमींदार तहाँ आज ठीक उलटी ही नदियाँ बह रही हैं जिससे 1 सरकार की और 9 जमींदार की जेब में जाता है। और बिहार सरकार के 1933-34 बजट में मालगुजारी 180 लाख लिखी है, जिसका अर्थ हुआ कि सरकार के ही हिसाब से 18 करोड़ रुपये किसानों से जमींदार लेते हैं। नज़राना, जो अब फी रुपये दो आने से ज्यादा हो गया है, शेष, तावान, भावली की कफन-खसोटी, जलकरे आदि, एवं गैरकानूनी वसूलियों की तो बात ही छोड़िये जो कुल मिलाकरे 4-5 करोड़ से कम न होंगी। दूसरी ओर खेती की जमीन का हिसाब देखिये। यद्यपि 1933-34 के सरकारी ऑंकड़े के ही अनुसार बिहार की कुल जमीन 531 लाख एकड़ है तथापि उसमें आधी से ज्यादा जंगल, पहाड़, नदी, चौर, बालू पड़ती हैं, सिर्फ 241 लाख एकड़ खेती वाली जमीन है। फलत: इसी 241 लाख एकड़ की पैदावार से किसान को सरकार के हिसाब से प्राय: 18 करोड़ और हमारे हिसाब से 23-24 करोड़ देना पड़ता है। इसलिए हबक साहब के ही हिसाब से फी एकड़ 7 से ज्यादा ही पड़ गया। यानी उनके हिसाब के पूरे दूने से भी ज्यादा।

एक बात और पहले बता चुके हैं कि सरकारी खर्च चलाने के लिए प्रति किसान को औसतन 10 साल में देना पड़ता है। 215 लाख किसानों पर जो कर्ज 129 करोड़ 1929 में बताया गया था वह फी आदमी 60 से ज्यादा पड़ा। सरकारी हिसाब से ही इसका सूद 21 करोड़ यानी छठे भाग से ज्यादा है, फलत: प्रति किसान साल में 10 से ज्यादा ही पड़ा। यदि पीछे किसानों की संख्या 1931 में बढ़ी है और 240 लाख हो गयी है तो ऋण भी बहुत बढ़ा होगा, क्योंकि भारतीय बैंकिंग कमिटी के अनुसार 1921 में पंजाब का जो ऋण 90 करोड़ था वह 1929 में बढ़ करे डयोढ़ा यानी 135 करोड़ हो गया। इसी प्रकार जहाँ किसानों की पैदावार कमिटी ने 120 करोड़ कूता है तहाँ उसका खर्च 45 करोड़ अर्थात खेती का खर्च तिहाई से ज्यादा है। अब यदि 240 लाख किसान हैं और 241 लाख एकड़ खेती की जमीन है तो फिर किसान औसतन एक एकड़ पड़ा जिसकी पैदावार हबक साहब 30 मानते हैं। इसके तिहाई से ज्यादा-10 से अधिक खेती का खर्च हुआ। सूद भी सालाना 10 से ज्यादा कही चुके हैं और सरकारी खर्च भी 10 है। फलत: इन्हीं तीन खर्चों के लिए भी उसकी पैदावार उन्हीं के हिसाब से न अंटी, खाना, कपड़ा वगैरह तो दूर रहा। इसीलिए हम इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि आज किसान की खेती घाटे में हो रही है। हबक साहब की औसत में एक दोष यह भी है कि यदि दो आदमियों पर 5-5 मन बोझ हो और 18 खाली हों तो 20 की औसत लगा करे यह कहना ठीक नहीं कि सबों पर आधा-आधा मन भार है, फलत: दो का चिल्लाना फिजूल है। इस औसत की चक्की में तो वे बेचारे पिस ही जायेंगे। बिहार सरकार की रिपोर्ट में भी पटने में औसत लगान 7 एकड़ और दक्षिण बिहार में कुछ इसी ढंग का माना गया है। हबक साहब ने जमींदारों का जो हक भावली जमीन में आधा का है उसका उल्लेख करे के हमारे ऊपर ताना मारा कि औसत लगान वे कहीं कम लेते हैं लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि वह भावली आज की नगदी से कहीं अच्छी है कारण महंगी के जमाने में 10-11 से 18-20 रु. बीघे तक नगदी करा के जमींदारों ने आबपाशी से हाथ खींच लिया और किसानों की फसल पानी के बिना मर जाती है। भावली में तो उपज के लोभ से पानी का प्रबन्ध वे लोग करते ही थे। अब तो रुपया न पाने पर जमीन धडाधड नीलाम करवा रहे हैं। उनकी औसत से वहाँ किसानों की कोई रक्षा नहीं हो रही है। 1931-32 की रिपोर्ट में सरकार ने स्वीकार किया है कि जहाँ एक ओर गल्ले की कीमत आधी हो गयी है वहाँ खाने वाले दूसरी ओर 40 लाख बढ़ गये हैं। आज से 30 वर्ष पहले की ही कीमत गल्ले की है "Grain Price have been halved and are now at a level which obtained 30 years ago, but there are 4 million extra mouths to feed." क्या इतने पर भी अब लगान घटा करे आधी करने की नजरे इनायत सरकार दिखावेगी? यू. पी. के जमींदार 21 करोड़ में 7 करोड़ तथा बंगाल वाले 16 में 4 करोड़ सरकार को देते हैं यानी क्रमश: तिहाई और चौथाई, लेकिन बिहार वाले केवल 10 में 9 हिस्सा स्वयं हजम करे जाते हैं क्यों नहीं जितना सरकार को देते हैं उससे दूना या तीन गुना पड़ोसियों की ही तरह या उनसे ज्यादा चौगुना तक लेकरे बाकी किसानों के लिए छोड़ दें और बाकी माफ करे दें? आखिर इनमें अपने पड़ोसियों से क्या विशेषता है?

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ऊख की कीमत

गल्ले की सस्ती के जमाने में तम्बाकू, मिर्चाई, ऊख की ही फसलें किसानों के लिए एकमात्र आधार थीं, जिनमें पहले दो की भी वही हालत है और कोई कुछ करे नहीं सकता। ऊख के बारे में सरकार से आशा थी। लेकिन उस पर पानी फिर गया और किसान चीनी की मिलों के मालिकों के हवाले एक प्रकार से करे दिये गये हैं। 1931 में टेरिफ बोर्ड की जो रिपोर्ट विदेशी चीनी पर टैक्स लगा करे देशी चीनी के व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए प्रकाशित हुई थी उसमें साफ लिखा है कि खास करे आज कल जब कि गल्ले वगैरह की कीमत इतनी गिर गयी है कि किसान को उसमें कोई लाभ नहीं है, ऊख की खेती की रक्षा जरूरी है जिससे किसानों की रक्षा हो सके। इसीलिए विदेशी चीनी पर टैक्स लगाने का मुख्य उद्देश्य उन्होंने यह नहीं माना है कि देशी चीनी का व्यवसाय चले, किन्तु उसके द्वारा किसानों के हितों की रक्षा ही प्रधान लक्ष्य माना है। इसीलिए यह भी लिखा है कि हमारे सामने प्रश्न यह नहीं है कि कितने दाम में ऊख मिल सकती है, किन्तु असल प्रश्न यह है कि ऊख का मुनासिब दाम क्या होना चाहिए, जैसा कि इन वाक्यों से स्पष्ट है|“And since, as we have seen, the problem before us is mainly agricultural and the interests to be served are primarily those of cultivating classes, it is not sufficient to ascertain the price at which cane can be obtained. It is necessary to go further and attempt to determine a fair selling price for cane which will give the cultivator a reasonable return for his labour and outlay.” और इसी आधार पर सब हिसाब लगा करे मिल तक पहुँचाने में कीमत। किसान का कुल खर्च मान करे कम से कम फी मन दाम निर्धारित किया है, जिसमें बीघा पीछे किसान को करीब 20 लाभ हो सके। इतना दाम देने पर और 7 सैकड़ा सूद तथा 10 सैकड़ा नफा लेने पर भी फी मन चीनी का दाम 8 होगा यही हिसाब बोर्ड ने लिखा है। चीनी तो प्राय: वही भाव बिकती रही है लेकिन ऊख के खरीदने में मिल वालों ने कमाल करे दिया है। उत्तर बिहार में तो दो वर्ष पहले दो पैसे मन तक नहीं खरीदी गयी। यहाँ तक कि मुजफ्फ़रपुर के जिले में ढोली स्टेशन पर कई सौ गाड़ी ऊख खरीदार न होने से किसानों ने लुटा दी और वहाँ तथा चम्पारन में हजारों बीघा ऊख खेतों में ही सूख गयी और कोई पूछने वाला न था! आखिर ऊख की फसल तो गेहूँ, धान की तरह काट पीट करे घर में रखी जा सकती नहीं। इधर मिल वालों ने किसानों से ठीके लिखवाकरे चम्पारण का निलहा काण्ड शुरू करे दिया था। यह कहें कि उन्हें नफा नहीं सो बात नहीं। जहाँ 1931 में भारत में केवल 29 ही चीनी की मिलें थीं तहाँ 1934 में बढ़ करे 138 हो गयीं और अब तो और भी ज्यादा हैं। 6 गुने से भी ज्यादा संख्या का तीन वर्षों में हो जाना उन्हें होने वाले बहुत बड़े लाभ का सूचक है।

सरकार ने ऊख का कानून Suger cane Act 1934 में बनाया सही और उसे यहाँ पछताते मन से लगाया भी, पछताते मन से इसलिए कि पहले तो उत्तर बिहार में ही लागू किया और बहुत आन्दोलन के बाद अब दक्षिण बिहार में लगाया है। फिर भी ऊख का फी मन कम से कम दाम 5 आना ही तय किया। यह दूसरी बात है कि किसान सभा के यत्न से दक्षिण बिहार और खास कर बिहटा के इलाके में किसानो से लेकरे मन तक ऊख का दाम संगठन के बल से लिया है। सरकार ने तो उनकी वैसी रक्षा, जिसकी आशा टेरिफ बोर्ड की रिपोर्ट से किसानों को हुई थी, नहीं ही की। उस कानून के अनुसार जो तौल आदि की गड़बड़ी के लिए नियम बने हैं उनसे कुछ लाभ हुआ है, सही, फिर भी तौल की चोरी और दूसरी गड़बड़ी जारी रही, खास करे दक्षिण बिहार में, जहाँ वह कानून लागू नहीं हो पाया था, और भी ज्यादा। जिन लोगों ने शाहाबाद के डुमराँव आदि स्टेशनों से ऊख मिलों में पहुँचाने के ठीके पारसाल लिए थे उनकी हाल के बयान मेरे पास पड़े हैं जिनसे सिध्द है कि फी बैल गाड़ी 3 मन तक चोरी की जाती है और कभी 6 मन तक 1-1 मन तो आमतौर से। तौल के काँटों में किस तरह गड़बड़ी की जाती है, मिलों के आदमी, कारीगर और दलाल किस प्रकार इसकी शिक्षा देते हैं और मिल वाले ठीकेदारों के घाटे को 'मेक अप' करने की कैसी बातें करते हैं यह भी मालूम हुई है। ऊख से लदी रेल की गाड़ियों की तौल में जब 3-4 सौ मन ऊख पर 40-50 मन तक कमी ‘Shortage’ होने लगती है तो उसी घाटे की पूर्ति के लिए ठीकेदार 'मेकअप' का रास्ता निकालता और चोरी करता है। इसके लिए तथा नहर के सम्बन्ध में घोर आन्दोलन होना चाहिए और मेरी पक्की राय है कि ऊख बोने वालों का एक जबर्दस्त सम्मेलन पटने में होना चाहिए। दूसरा सम्मेलन वहाँ या शाहाबाद में नहर के बारे में होना निहायत जरूरी है। ऊख सम्मेलन में और इस सम्मेलन में भी इस बात पर पूरा जोर दिया जाना चाहिए कि सरकार ऊख का फीमन कम से कम दाम आठ आना जरूर ठीक करे दे। खास करे इस समय जब चीनी का दाम करीब 11 मन हो रहा है ऊख का दाम और भी ज्यादा होना चाहिए। बेशक जब तक किसान सभा अपने दो विभाग ऊख और नहर के बारे में खास तौर से खोल करे उन्हें अलग-अलग दो ऐसे कार्यकर्ताओं के जिम्मे सिपुर्द न करेगी जो दिन-रात इसी काम में लगे रहें और दिलचस्पी रखते हों तब तक यह काम न होगा। उन्हीं का काम होगा कि ऊख बोने वालों को ऊख संघ के रूप में संगठित करें और नहर से सम्बन्ध रखने वाली सारी बातों की जाँच तथा आन्दोलन करें। ऊख तथा नहर के आन्दोलन से किसानों को तुरन्त लाभ होता है और इस प्रकार उन्हें हमारी सभा में विश्वास होता है। दक्षिण बिहार की चीनी की मिलें हर तरह से ज्यादा लाभ में थीं और हैं और वहाँ किसानों को ऊख की खेती में पटवन आदि के करते ज्यादा खर्च पड़ता है।

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तबाह, बर्बाद और पीड़ित बिहार

भूकम्प और गत वर्ष की भीषण बाढ़ से उत्तर बिहार में जो कुछ जान बची थी उसे इस साल की विचित्र बाढ़ ने ले लिया और यहाँ के किसान सब तरह निराश्रय और निराधार हो गये हैं। पहले तो पता चला कि भूकम्प ने कुछ भी विशेष क्षति भूमि की सतह पर नहीं की। लेकिन इस साल सबकी ऑंखें खुली हैं। जब तक समूचे उत्तर बिहार की जाँच Survey नहीं हो जाती तब तक असलियत का पता नहीं लगेगा। इसीलिए विशेषज्ञों द्वारा यह सर्वे कराके बाढ़, रेललाइन, सड़कें तथा नदियों के द्वारा होने वाली बर्बादी से किसानों को शीघ्र बचाना सरकार कार् कर्तव्य है। यह भीषण समस्या है और दूर के लोग इसे समझ ही नहीं सकते। यहाँ के किसानों को तत्काल सहायता देने के लिए हाल में प्रान्तीय किसान कौंसिल ने गत ता. 24-10-35 को निश्चय किया है वह कम से कम है और उसको कार्य में परिणत करना सरकार तथा जमींदारों का कर्तव्य है। साथ ही दक्षिण बिहार में और खास करे गया में जो हर तरह से तबाही है उसके बारे में किसान सभा को गंभीरतापूर्वक सोचना होगा। गया में तो किसान सभा वाले बोलने न पाये, शायद यही अधिाकारियों ने सोच लिया है। इसीलिए धडाधड 144 धारा का प्रयोग लगातार कई वर्षों से हो रहा है। फलत: कोई भी प्रभावशाली कार्यकर्ता वहाँ कुछ करने नहीं पाता।

किसानों की आर्थिक जाँच

किसान सभा का कोई काम तब तक ठीक-ठीक नहीं हो सकता जब तक हमारी सभा में किसानों की आर्थिक दशा का कच्चा चिट्ठा न हो। जिस क्षेत्र में हमें काम करना, बीज बोना और फल उपजाना है उसकी पूरी जानकारी हुए बिना हम करे ही क्या सकते हैं? हम और हमारे कार्यकर्ता अपनी कठिनाई का निश्चय करके जब उस काम में पड़ेंगे तभी सफलता की आशा करे सकते हैं। इसीलिए प्रान्तीय किसान कौंसिल ने, उस दशा की जाँच का निश्चय करके, जिन जरूरी बातों का पता इस दृष्टि से लगान जरूरी है उन्हीं के बारे में, एक फार्म बहुत सोच विचार करे तैयार किया है। उसके अनुसार यदि हमने काम किया तो वह स्वयमेव किसानों की एक बहुत बड़ी सेवा होगी। किसानों की दशा के सम्बन्ध में अन्दाजी और खिचड़ी आधार पर बहुत ढंग की बातें कही जाती हैं। यहाँ तक कि बहुत लोगों ने यह भी कह डाला है कि उनकी दशा वैसी नहीं है जैसी कांग्रेस या किसान सभा वाले चित्रित करते हैं। एक सज्जन ने जो आजकल एक उच्च ओहदे पर हैं, यह भी फर्मा दिया कि उनकी आर्थिक उन्नति हो रही है और यह बात कुछ दिन पहले उन्होंने मुझसे ही कही थी। इसलिए हमारी सभा का यह पहला कर्तव्य हो जाता तो है कि हम मुस्तैदी के साथ इस समस्या को हल करें। काम तो है बहुत बड़ा और स्वयं किसान भी इसमें सहयोग करने से हिचकेंगे। फिर भी लग जाने पर अवश्य सहज हो जाएगा और इस दिशा में थोड़ा भी काम बहुत ही मार्के का होगा। आशा है कि किसान सभा को इस काम में सभी का सहयोग मिलेगा।

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नया काश्तकारी कानून

यदि नये काश्तकारी कानून B. T. Amendment Act के बारे में कुछ न कहा जाय तो यह भाषण अधूरा ही रह जायेगा। क्योंकि इधर उसकी नये सिरे से फिर वकालत की जाने लगी है। निसन्देह उसमें एकाध बातें तो किसानों के लाभ की रखी ही गयी हैं और उनका रखा जाना अनिवार्य था आखिर, मछली फँसाने के लिए कुछ चारा तो चाहिए ही। भावली जमीन की लगान की तमादी, जो अब बजाय तीन के एक ही वर्ष के बाद, हो जायेगी यह भावली वालों और विशेषत: दक्षिण बिहार के किसानों के लाभ की चीज है और इससे उनकी बर्बादी बहुत कुछ रुक जायेगी। एक यही साफ फायदा है बाकी तो यों ही हैं। खरीद बिक्री का अधिकार देने के साथ ही 8 सैकड़ा कीमत पर सलामी को कानूनी रूप देकरे जहाँ एक ओर जमींदारों को साल में कई करोड़ रुपये की आमदनी बढ़ा दी गयी है, तहाँ दूसरी ओर जिन जमींदारियों में एक पैसा ही सलामी नहीं लगती थी या नरहन जैसी जमींदारियों में पूरे तख्ते की बिक्री पर भी एक ही रुपया लगती थी, अथवा बनैली वगैरह में बीघे पर 4 से 8 तक और सुरसण्ड में जमीन की लगान के बराबर ही लगती थी वहाँ भी मजबूरन कीमत पर 8 सैकड़ा देना होगा। जिस पर भी कम कीमत की धमकी अलग ही होगी। मुझे एक ऐसे सज्जन से जो पहले डुमराँव राज्य के बहुत बड़े अधिकारी रह चुके हैं, पता लगा है कि वहाँ बिक्री पर तो कभी भी सलामी लगती ही न थी, केवल तख्ते का टुकड़ा splitting up करने के ही लिए इसतमरारी तथा कायमी सभी की बिक्री में किसान को कुछ देना पड़ता था। पेड़ों के सम्बन्ध में मौजूदा पेड़ों को छोड़करे आगे लगने वालों पर जो जो हक और लगाने का अधिकार दिया गया है तथा ईंट, खपड़े के बारे में भी जो 'घरेलू और खेती के लिए' पुछल्ला लगा है वह झगड़े की जड़ और उपयोगिता को मारने वाला है। बिना नालिश के ही लगान के बारे में जब्ती कुर्की Certificate से वसूली का अधिकार जो सुलभ करे दिया है, वही किसान के सिर पर लटकी हुई नंगी तलवार है। कोई भी विचारशील निष्पक्ष व्यक्ति देख सकता है कि मनीआर्डर से लगान भेजने, भावली की एक वर्ष के बाद तमादी तथा मकान, ईंट, खपड़े, कुएँ, तालाब और पेड़ लगाने के अधिकार के लिए किसानों को इस सर्टिफिकेट के अधिकार तथा 8 सैकड़े सलामी आदि के रूप में बहुत गहरी कीमत चुकानी पड़ी है-'जहर का प्याला' पिलाने के लिए बच्चों को मिठाई देकरे फुसलाया गया है। इसीलिए किसान सभा ने इस नये काश्तकारी कानून को जहर मिला दूध करार दिया है।

जो किसानों के स्वयंभू शिखण्डी ने तो जमींदारों की उदारता और अपनी बहादुरी का ढोल सरकार की छत्रछाया में मीटिंग करके तथा नोटिसें बाँट करे, पीटने के साथ ही किसान सभा और कांग्रेस को एक ही साँस में गाली देने की बहादुरी लूटने की कोशिश करते हैं उनसे हमें यही कहना है कि सबसे पहले वह इस बात का पता लगावें कि उत्तर बिहार के किसान इस सलामी को कहाँ तक पसन्द करते हैं। मैं ने मुजफ्फ़रपुर और भागलपुर कमिश्नरियों के सभी जिलों में घूम-घूम करे पता लगाया है। वहाँ के किसान इस 'सैकड़े' वाली बात से घबड़ा उठे हैं। वहाँ के प्राय: सभी या अधिकांश जमींदारियों में केवल बीघे पर ही या तो सलामी है या केवल नाम मात्र को ही डुमरांव की बात तो बता ही चुका हूँ। यह कानून तो 10 जिलों में लगा है। न कि प्रान्त की केवल कुछ ही जमींदारियों में जहाँ ज्यादा सलामी वसूलने की बराबर कोशिश रही है। जब तक ऊँट पहाड़ पर नहीं चढ़ता तभी तक बलबलाता है। उन्होंने किसानों के प्रतिनिधिात्व का जो दावा किया और जमींदार तथा सरकार ने जो उन्हें ठोंक पीट करे वैद्यराज बना दिया है वह बड़ा ही खतरनाक Fatal सिध्द हुआ। वह जो यह दावा करते हैं कि उन्होंने ही किसानों को पूर्वोक्त हक दिलाकरे उनके सुख का सबेरा ला दिया है वह भी सरासर गलत है। उनके ऊपर जबर्दस्ती लादे गये प्रतिनिधित्व के फलस्वरूप जो बिल 1933 के 23 मार्च को कौंसिल में पेश हुआ था उससे पहले उसी दिन जमींदारों की ओर से रा. ब. श्यामनन्दन सहाय के द्वारा पेश किया गया उसी विषय का एक बिल वापस लिया गया। उसमें तो इन स्वयंभू प्रतिनिधिायों का कोई हाथ न था। उससे स्पष्ट है कि भावली, मनीआर्डर, खरीद बिक्री, पेड़ वगैरह की जितनी बातें इस बिल में भी थीं सो भी प्राय: ज्यों की त्यों। हां, जहाँ नये में 8 सैकड़ा सलामी सभी जमीन की बिक्री के लिए है। तहाँ उस बिल में पूरे तख्ते की बिक्री में 7 और टुकड़े की 10 है और यदि दोनों की औसत निकाली जाय तो 8 होता है। क्या केवल की कमी पर ही इतना नाज है? लेकिन जहाँ आप लोगों के बिल में केवल नगदी में ही ईंट, मकान वगैरह का हक दिया गया, तहाँ उस बिल में मकान वगैरह का हक नगदी तथा भावली दोनों में ही माना गया था और इस आठ आने के लाभ से कहीं ज्यादा था, बड़े काम का था, निहायत जरूरी था। आप लोगों के इस नये बिल में से वह बात निकाल करे यदि नगदी भावली दोनों में ही मकान, ईंट, खपड़े, कुऑं तालाब का जो हक अब कानून में दिया गया है वह तो केवल किसान सभा और 'सर्चलाइट' के उस 'सर्चलाइट' के जिसने शुरू से इस तथा अन्य कामों में किसान सभा की पूरी सहायता की है और जिसे किसान सभा या किसान कभी भूल नहीं सकते, घोर आन्दोलन का फल है, न कि आपकी करनी का। यदि आपकी करनी का होता तब तो बिल में ही रहता क्योंकि बिल तो आप लोगों की राय से ही बनाया गया था, इसे सभी जानते हैं और आप इससे इन्कार करे नहीं सकते। किसान सभा तो सलामी या किसी शर्त को भी नहीं कबूल करे बिना रोक-टोक के यह सीधी बात चाहती है कि जमींदारों को अपनी जमींदारी में जो हक प्राप्त हैं वह ज्यों के त्यों किसानों को अपनी जमीन में हासिल हों।

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आजादी की लड़ाई में विघ्न या घोर युध्द?

मुझे जो कहना था कह चुका लेकिन उपसंहार में एक और जरूरी बात कह देना चाहता हूँ। अलग किसान सभा को कायम करने में जो आखिरी दलील दी जाती है वह यह है कि इससे जमींदारों और किसानों में घरेलू युध्द Civil war छिड़ जायेगा और आजादी की लड़ाई कमजोर हो जायेगी। लेकिन यह तो विचित्र दलील है। तो क्या इससे यह समझा जाय कि स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान यदि एक पड़ोसी दूसरे को या भाई-भाई को लूट ले, उसका हक बलात हड़प ले तो सताया गया मजलूम चुपचाप उसे सह ले क्योंकि मुकाबिला करने से घरेलू युध्द छिड़ जाने का जो डर है। यह तो कही नहीं सकते कि इस दौरान में सभी लोग युधिाष्ठिर बन जायेंगे और कचहरियों या पुलिस का रोजगार ही बन्द हो जायेगा। यदि लोगों को मालूम हो जाय कि मजलूम पीड़ित मुकाबिला न करेंगे तब तो देश में दूसरा ही लंका-काण्ड शुरू हो जायेगा और स्वातन्त्रय संग्राम जहन्नुम जा पहुँचेगा! दुनिया में ईमानदार और न्याय परायण इने गिने ही हैं। जो लोग यह दलील करते हैं वह भूल जाते हैं कि इसी दौरान महात्मा गाँधी और कांग्रेस ने जो अछूतोध्दार का आन्दोलन उठाया है उससे न केवल हिन्दुओं में ही भयंकर क्षोभ और दलबन्दी हो गयी है जिसके फलस्वरूप भयंकर काण्ड हो गये, हो रहे हैं और होंगे, वरन दूसरे धर्मवालों ने भी यह कहना शुरू करे दिया है कि कांग्रेस तो हिन्दुओं की सभा है, उनका पक्षपात करती है, दूसरे धर्म में जाने से हरिजनों को अप्रत्यक्ष रूप से रोकती है आदि-आदि। किसान आन्दोलन के करते तो कहीं झगड़े नहीं हुए हैं और न कोई काण्ड ही हुआ है। लेकिन हरिजन आन्दोलन ने तो आज क्या-क्या नहीं किया है? उसने हिन्दुओं को केवल टुकड़ों में ही नहीं बाँट दिया है, किन्तु एक जबर्दस्त दल को कांग्रेस का जानी दुश्मन बना दिया है। इसी प्रकार नशीली चीजों के रोकने के कांग्रेस के आन्दोलन ने उसके रोजगारियों, दूकानदारों तथा पीने वालों को कांग्रेस का खासा मुखालिफ बना लिया। तो क्या इसी तर्क के अनुसार कांग्रेस वह काम बन्द करे दे? यदि नहीं तो फिर किसान-आन्दोलन पर ही ऐसी शनि दृष्टि क्यों? यदि हरिजनों का आन्दोलन न्याय एवं इन्सानियत के तकाजे से प्रेरित होकर ही किया जाता है और मद्य-निषेध का काम जनता के वास्तविक हित की दृष्टि से ही हुआ है तो यही बात किसान आन्दोलन के बारे में कहीं ज्यादा जोर के साथ कही जा सकती है।

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हमारा लक्ष्य और उपसंहार

अन्त में मैं आपको यह बता देना चाहता हूँ कि हमारा आन्दोलन किसानों खेतिहरों, गृहस्थों का आन्दोलन है न कि रैयतों या किसी और का। श्रमजीवियों की ही तरह कृषिजीवियों की सभा हमारी किसान सभा है और कृषिजीवी या किसान का अर्थ ही यही है कि खेती के बिना जिसकी जीविका न चल सके, फिर चाहे आज वह अपनी जमींदारी में खेती करके जीविका करता हो या किसी दूसरे से लेकरे रैयती जमीन में। इसलिए वे छोटे जमींदार, जिनको गृहस्थ कहते हैं या जिनका काम खेती के बिना चल नहीं सकता, वैसे ही किसान हैं जैसे खेती करने वाले रैयत। बल्कि जो रैयत जमीन रखकरे खेती नहीं करते, किन्तु मातहत रैयतों under tenants को देकरे केवल उसका लगान वसूलते हैं वे किसान हो नहीं सकते। अतएव लोगों को किसी के बहकावे में न पड़ इस बात को बखूबी समझते हुए किसान सभा को अपनी बनाना तथा उसे मजबूत करना चाहिए।

तो क्या इतने ही से किसान सभा का काम हो गया? उसने लगान की कमी, ऋण हटाने आदि के प्रस्ताव पास करे और मीटिंगों के द्वारा हो हल्ला मचाकरे क्या अपने कर्तव्य का पालन करे दिया? कदापि नहीं। यह तो श्री गणेश या 'इब्तदाये इश्क' है और यह श्री गणेश भी तब तक ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता जब तक इन प्रस्तावों के अनुसार काम नहीं हो जाता। काम हो जाने पर सभा की पहली मंजिल पूरी होगी और असल काम शुरू होगा। लेकिन इसकी रास्ता आसान नहीं है। जमींदार तो बदकिस्मती या खुश किस्मती से हमारी बात सुनने को तैयार नहीं और सरकार का भी कुछ ऐसा ही रवैया नजर आता है। शायद ज्यादा आन्दोलन होने पर कुछ सुन भी लें पर, उससे क्या? असल में आज सरकार हमारी नहीं, किन्तु हमीं सरकार के हो रहे हैं। यही वजह है कि वह हमारा मनमाना उपयोग करे लेती है और हम चूँ नहीं करे सकते। नदिया उलटी बह रही है। उसे सीधी करना और इस परिस्थिति को बदलना यही हमारा असली काम है जबकि सरकार हमारी हो और हम जैसा चाहें उसका उपयोग करे सकें। उस हालत में यदि सरकार रहेगी तो किसानों-कमाने वाले गरीबों के लिए और यदि जायेगी तो उनके ही लिए, न कि अमीरों के लिए, निठल्ले बैठकरे मजे मारने वाले जमींदारों और पूँजीपतियों के लिए। उसे चाहे आप स्वराज्य, पूर्ण स्वतन्त्रता, रामराज्य, किसानराज्य, कमाने वालों का राज्य वा आज के गरीबों का राज्य जिस किसी भी नाम से कह सकते हैं। किसान शब्द आज परिश्रम या गरीबी का प्रतीक, Symbol है। इसलिए किसान राज्य का ही अर्थ कमाने वालों या गरीबों का राज्य है। तब का संसार दूसरा ही होगा और आज की दुनिया स्वप्न सी मालूम होगी। तब न तो किसान को मरना होगा और न कमाते- कमाते घिस जाने पर भी रोटी कपड़े उन्हें दुर्लभ होगा। तब तो उन्हें थोड़े परिश्रम से सभी आराम की सामग्री एवं जीवन समुन्नत बनाने के आवश्यक सामान हरदम तैयार रहेंगे। तब किसानों के लिए बैकुण्ठ, स्वर्ग, बिहिश्त, सब कुछ यहीं होगा। लेकिन वह स्वर्ग मिलकरे फिर छिन भी जा सकता है। एतदर्थ उसकी गारण्टी Sanction पैदा करनी होगी कि कभी छीनी न जा सके और वह गारण्टी किसानों के ज्ञान पूर्वक जीते जागते संगठन से ही रह सकती है। अतएव सदा वह संगठन बनाये रखना होगा। यही कर्तव्य है, यही जवाबदेही है और इसे लक्ष्य में रख करे ही आपको कोई भी निश्चय, उस पर अमल करने के दृढ़ निश्चय के साथ, मर मिटने के संकल्प के साथ, करना होगा।

वन्दे मातरम्। वन्दे मातरम् ।

नोट-यह तृतीय बिहार-प्रांतीय किसान-सभा के अधिवेशन में स्वामी जी का अध्यक्षीय भाषण है। यह सम्मेलन नवम्बर 1935 ई. में हुआ था। जमींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव इसमें प्रथम बार पारित किया गया। इस सम्मेलन में छोटे जमींदार भी सामन्त विरोधी संघर्ष में संयुक्त मोर्चा में शरीक थे पर 1937 के बाद केवल गरीब किसान और खेत मजदूर ही किसान के रूप में परिभाषित किये गये-सम्पादक

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