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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

11. अखिल भारतीय समझौता विरोधी सम्मेलन, रामगढ (हजारीबाग, बिहार) 19-20 मार्च 1940

 

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साथियो,

प्रथम और हम उम्मीद करें कि यही अन्तिम भी रहे-अखिल भारतीय समझौता-विरोधी सम्मेलन की स्वागत समिति की ओर से मातृभूमि के आप निर्भीक और जाने-माने पुजारियों तथा स्वाधीनता के तपे-तपाये सिपाहियों को यह तुच्छ, किन्तु हार्दिक स्वागत भेंट करता हुआ मैं बड़ा गर्व और फर्क मानता हूँ। हमारे चारों ओर यहाँ जो छोटी-बड़ी त्रुटियाँ बिछी पड़ी हैं, उन्हें मैं जानता हूँ और इसका मुझे बड़ा कष्ट है, लेकिन, जिन परिस्थितियों में हम घिरे हैं, इससे कुछ दूसरा होना नामुमकिन था। यह आप भी जानते हैं और मुझे आप से क्षमा माँगने का भी यही एकमात्र बहाना है। अत: मैं विश्वास करता हूँ कि यहाँ पग-पग पर मिलने वाली असुविधाओं को भुलाकरे आप, हमारे सामने जो काम है, उसके साथ आगे बढ़ेंगे।

वर्तमान परिस्थिति

हम ऐसी घड़ी में यहाँ इकट्ठे हुए हैं जब स्वाधीनता की लड़ाई का हमारा गौरवपूर्ण राष्ट्रीय इतिहास एक चौराहे पर आकरे खड़ा है। अब जो भीषण रूप वह लेने जा रहा है, मुझे भय है, वह आने वाले समय में हमारी क्रमबध्द गति को बना भी सकता है, बिगाड़ भी सकता है। इस वक्त हमारा यह महान्र् कर्तव्य है कि हम देखें, यह चीज हमारी जय-यात्रा के अनुकूल बने और उसे प्रगति दे। यह कितनी गहरी तकलीफ की चीज है कि जो गुलाम राष्ट्र पिछले बीस वर्षों से बिना कहीं रुके, दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के विरुध्द बहादुरी से भीषण युध्द करता रहा और उसे जहाँ काफी सफलता भी मिली, वह आज इस गाढ़े वक्त पर, जब भविष्य के गर्भ में बड़ी-बड़ी सम्भावनाएँ हैं, और जब हमारा दुश्मन अपने ही घर में अपने बराबर के जोर के एक विराट शत्रु के साथ अपनी सुरक्षा के लिए जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहा है-कि कर्तव्य विमूढ़ हो रहा है, उसकी गति शिथिल पड़ गयी है और एक भीषण डर ने उसे धार दबाया है। क्या यह समय ऐसा है जब हम उसके साथ एक समझौते की बात सोच भी सकें? क्या यह ऐसी उपयुक्त घड़ी नहीं है जब हम उस पर एक जोर का धावा बोल दें और अपनी आजादी हासिल करे लें, जिसके लिए हम इतने भूखे हैं? जो अंग्रेजी साम्राज्यशाही तिरोहित हो जाने, दुनिया के नक्शे से मिट जाने के भीषण खतरे की छाया में अपने जीवन के लिए बेतहाशा संघर्ष करे रही है, वह हमारी पूरी औपनिवेशिक स्वाधीनता की माँग को भी घृणा से ठुकरा देती है( और फिर भी जब उसके साथ एक सम्मानपूर्ण समझौते की-वह भी पूर्ण स्वाधीनता के आधार पर-उम्मीद और बात होती है तो यह समझ में नहीं आती! क्या यह चीज किसी गर्वीले राष्ट्र को शोभा दे सकती है, जो अंग्रेजी साम्राज्यशाही को कई चुनौतियाँ दे चुका है? अनजाने ही सही, पर जो मातृभूमि को कलंकित करने पर लगा है, क्या उस राष्ट्रीय नेतृत्व के इस लज्जाजनक काम से हमें चोट नहीं पहुँचती? लेकिन, समझौते के विचार ने हमें इतना धार दबाया है, वायुमण्डल इससे इतना सना है और उद्देश्य की ओर से इसके विषैले असर में हम इतने पड़ गये हैं, कि हम अपनी राजनीति की आम चर्चाओं में भी इस ख्याल के बिना नहीं रह सकते। हम उसके घातक और प्राण लेने वाले असर को अब भी नहीं समझते। यहाँ तक कि जो हममें पक्के क्रान्तिकारी तथा उद्भट चिन्तक माने जाते हैं वे भी अपने हृदय में यह समझने लगे हैं कि पूर्ण और विशुध्द स्वाधीनता भी हिन्दुस्तान में समझौते के परामर्श के जरिये आ सकती है। हमारा राजनीतिक दिवालियापन और राष्ट्रीय पतन इससे आगे और कहाँ जा सकता है?

इस चीज के लिए आयरलैण्ड की मिसाल रखना हमारी अज्ञानता का चरम है। आयरलैण्ड ने पिछले महासमर से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाया, और अपने पड़ोसी आकाओं को काफी धता बताई। उसने कभी उनके सामने घुटने टेक करे मिन्नतें नहीं कीं और न वायसराय-भवन या लण्डन की कभी तीर्थ-यात्रा ही की। वह सदा सिर ताने खड़ा रहा और जब उसे अवसर मिला, वह धक्के देने से बाज नहीं आया। आज भी वह ऐसा ही करे रहा है। वह सतत संघर्ष और संघर्ष ही करता रहा। अत: आयरलैण्ड की स्वाधीनता सीधे संघर्ष का नतीजा है। किसी सुलह-समझौते की चर्चा का नहीं। फिर भी, वह आजादी उतनी पूरी नहीं है, जितनी आयरलैण्ड की जनता चाहती थी। वहाँ की जनता आज भी सामाजिक और आर्थिक गुलामी में पिस रही है। उसकी आजादी तो सिर्फ राजनीतिक है। हम तो मात्र वही यहाँ नहीं चाहते हैं और हम तो यहाँ शोषण के तीनों बन्धानों से जनता की पूरी स्वाधीनता स्थापित करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि जनता आकाओं के हाथ से उन समस्त ताकतों का सूत्रा ही छीन ले, जिसके जरिये वे किसानों, मजदूरों तथा धान के अन्य उत्पादकों का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण करते हैं। इस तरह हम तो इसी जनता को समस्त ताकतों और फिर शान्ति, प्रगति और मातृत्व का विधाता बना करे सदा के लिए सभी तरह के शोषणों का अन्त चाहते हैं। यह चीज तो अबाध और बिना समझौते वाले संघर्ष के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है।

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पटना का प्रस्ताव

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सभापति चुने जाने के बाद मौलाना अबुलकलाम आजाद ने एक वक्तव्य में एक नई तरह के भद्र अवज्ञा आन्दोलन की ओर धुन्धला-सा इशारा किया और इसी पर हमारे कुछ क्रान्तिकारी दोस्त पागल हो गये और उनके जोश और खुशी का कोई इन्तहा नहीं रहा। लेकिन, गहरे देखने वाली ऑंखों के लिए उसमें ऐसा कुछ नहीं था। वह वक्तव्य रामगढ़-कांग्रेस के अवसर पर एक चाल मात्र था ताकि कांग्रेस सहूलियत से निबह जाय और उसी का वह साधन था। पहले तो, यह नयी तरह का भद्र अवज्ञा आन्दोलन हमें कहीं भी नहीं ले जा पायेगा। यह तो कुछ रहस्य-सा था और राष्ट्र महात्माओं और सन्तों के रहस्यवाद से ऊब गया है। हमें इसका काफी अनुभव हो चुका है। फिर उसी में की गयी संयुक्त मन्त्रिमण्डल Coalition Ministries की चर्चा यद्यपि चालपूर्ण और अस्पष्ट भाषा में थी-को एक युध्द से क्या वास्ता? यह उस दिशा की ओर साफ संकेत करता है-यद्यपि और सफाई की जरूरत थी-जहाँ समझौते के लिए रास्ता साफ किया जाता।

फिर उसके बाद कांग्रेस कार्य समिति का पटना वाला प्रस्ताव आया, जो कांग्रेस के रामगढ़ अधिावेशन के लिए बना है। वही चालबाजी, व्यापक अस्पष्टता तथा चालपूर्ण प्रस्ताव रखने वाला रुख, यही चीजें, उस प्रस्ताव में सर्वत्र विराजमान हैं। इस प्रस्ताव में कहीं कोई चीज अन्तिम चीज के रूप में साफ-साफ नहीं रखी गयी है। उसमें लड़ाई की भी धुन्धली-सी सम्भावना जरूर है। लेकिन, फिर जानबूझ करे उस प्रस्ताव में समझौते का द्वार खुला रखा गया है। उस प्रस्ताव के पास होने के बाद कांग्रेस के महाप्रभुओं के जो वक्तव्य निकले या भाषण हुए हैं उनसे भी यह चीज स्पष्ट झलकती है। अभी-अभी अपना कार्यकाल समाप्त करने वाले राष्ट्रपति ने भी कहा है कि अंग्रेजी सरकार के लिए अभी भी वक्त है कि वह अपनी भूल समझे और कांग्रेस की माँग स्वीकार करे ले। सरदार साहब ने तो स्पष्ट कह दिया है कि यदि हमारे आका विधान-परिषद् की हमारी माँगें स्वीकार करे लेते हैं तो लड़ाई की जरूरत ही नहीं रहती। और अब हम जान गये हैं किस तरह की विधान-परिषद् उनके दिमाग में बसी है। यह 1935 के विधान एक्ट के अन्दर चुनी गयी सभी असेम्बलियों के एक सम्मिलित अधिवेशन के सिवा कुछ नहीं है और मद्रास के बडे प्रधानमन्त्री ने तो यहाँ तक कह दिया है कि प्रस्ताव में शीघ्र लड़ाई छेड़ने की तो कोई बात ही नहीं है।

इतना भी आगे जाकरे अन्धकार में क्यों टटोला जाय? प्रस्ताव के स्रष्टा खुद से गाँव के सन्त ने उस प्रस्ताव का अधिकार पूर्ण भाष्य किया है, 'लण्डन से प्रश्न उठा है कि क्या कांग्रेस ने परामर्श और समझौते का द्वार बन्द कर दिया है? उस प्रस्ताव का मैंने यह अर्थ समझा है कि कांग्रेस ने दरवाजा नहीं बन्द किया है इसे लार्ड जेटलैण्ड ने बन्द किया है।' उपर्युक्त से यह स्पष्ट है कि यद्यपि लार्ड जेटलैण्ड ने महीना पहले समझौते का दरवाजा भद्दे तरीके से और घृणापूर्वक बन्द करे दिया है, फिर आज भी पटना में पास हुए प्रस्ताव ने यह उचित नहीं समझा कि यह द्वार कांग्रेस की ओर से बन्द करे दिया जाये और राष्ट्र को इस बात के लिए मजबूर किया जा रहा है कि वह इच्छुक और प्यासी ऑंखों से विराट ब्रिटिश साम्राज्यशाही की ओर देखता रहे और महात्माओं, उप-महात्माओं, सहायक-महात्माओं तथा उनके चेलों के नेतृत्व में चलने वाली जनता जो विपुल प्रेम और पूर्ण अहिंसा का प्रदर्शन करेगी उसके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार हृदय-परिवर्तन के जरिये-यद्यपि उसे हृदय नहीं है-उसको औपनिवेशिक स्वराज्य का वरदान दे देगी। वस्तुत: हमारे साथी तथा दूसरे हमें यह गम्भीर सलाह देने लगे हैं कि इस प्रस्ताव द्वारा समझौता को तो विदाई दे दी गयी, वह गहरे समुद्र गर्भ में डुबो दिया गया और अब लड़ाई के लिए रंगमंच बनकरे खड़ा है। लेकिन जो इन पंक्तियों को सावधानी से पढ़ेगा वह इस नतीजे पर पहुँचे बिना नहीं रह सकता कि प्रस्ताव अभी भी औपनिवेशक स्वराज्य या उसी तरह की चीज से मुँह नहीं मोड़ता है, सिर्फ यदि वह 'साम्राज्यवादी ढाँचे के भीतर' नहीं हो, मानों इस तरह का भी कोई स्वराज्य बना है। यद्यपि इतिहास इसके विरुध्द है।

जहाँ तक लड़ाई का सम्बन्ध है, निसन्देह, प्रस्ताव के पाँचवें पारे में इस ओर इशारा अवश्य है, लेकिन साथ ही वह ऐसी असम्भव शर्तों द्वारा जकड़ भी दिया गया है जो कभी पूरी नहीं हो सकती। पहली शर्त है कि अगर और जब 'कांग्रेस संस्था इस काम के योग्य समझी जाये।' और इस योग्यता और उसके काफीपन को कौन जाँचेगा और किस तरह? यह दूसरे वाक्य में साफ करे दिया गया है-'कांग्रेसजनों का ध्यान गाँधीजी को घोषणाओं की ओर खींचना चाहती है कि वह भद्र अवज्ञा आन्दोलन की घोषणा करने की जवाबदेही तभी ले सकते हैं, जब उन्हें यह इत्मीनान हो जाय कि वे कड़े-से-कड़े अनुशासन का पालन करे रहे हैं और स्वधीनता की प्रतिज्ञा में निहित रचनात्मक कार्यक्रम को काम में ला रहे हैं।' यह दूसरी शर्त है, जिसका भी पूरा होना असम्भव है। समूचे राष्ट्र ने स्वाधीनता दिवस पर उस प्रतिज्ञा को लेने से इनकार करे इस बात का काफी सुबूत दे दिया है। उन्होंने गाँधीजी और राष्ट्रपति के इन आदेशों को भी घृणापूर्वक ठुकरा दिया कि विद्यार्थी और मजदूर उस दिन न अपने क्लास छोड़ें और न काम से हड़ताल करें। हमारे साथियों ने भी स्वयं-जो आज एक निकटवर्ती लड़ाई की सम्भावना पर उछल रहे हैं-स्पष्ट शब्दों में ऐलान करे दिया कि वे इस नयी प्रतिज्ञा के साथ नहीं हैं। जो तीसरी शर्त है, वह इनकी जगह पर रखी जाने के लिए है। यह शर्त भी किसी को धोखे में नहीं रख सकती। वह है-'यदि परिस्थितियाँ ऐसी हुईं, तो संकट बुलाना अवश्यम्भावी हो जायेगा।' लेकिन वस्तुस्थिति तो यह है कि स्वाधीनता की लड़ाई कभी भी संकट पैदा करने वाली परिस्थितियों द्वारा उपस्थित नहीं होती। बल्कि, जिन्हें यह युध्द छेड़ना रहता है, वे निरन्तर इसके साधानों की खोज में रहते हैं, वे कभी यह भारी भूल नहीं करते कि वे संकट, यहाँ हमारा नेतृत्व साफ-साफ इस जवाबदेही से किनारेकश हो रहा है और मुझे साफ कहने दिया जाये, वह संकट से डरता भी है। अन्यथा आज के सुन्दर अवसर को प्राप्त करे वह साधानों की खोज करता। और ऐसे साधन भी इन नेताओं के निकट और उनके जरिये राष्ट्र के पास स्वयं उपस्थित हुए हैं। सबसे बढ़करे, तो हमारे आका इतने धूर्त हैं कि वे बढ़करे इन परिस्थितियों को पैदा ही नहीं होने देंगे। अत: निकट भविष्य में अपने नेताओं की ओर से किसी लड़ाई की प्रतीक्षा करना भारी भूल है और जो यह कहते हैं कि पटना का प्रस्ताव मौजूदा हालतों से बहुत आगे बढ़ा है, उनसे मैं बहुत अदब के साथ साफ-साफ कह देना चाहता हूँ कि पटना का प्रस्ताव यद्यपि आगे बढ़ा है, लेकिन वह मौजूदा परिस्थितियों के ऊपर पाँव रखकरे आगे नहीं बढ़ पाया है। प्रस्ताव रचना की बड़ी चतुर और चालपूर्ण कला की दृष्टि से यह आगे जरूर है और मैं स्वीकार करता हूँ कि हमारे नेता इसमें बेजोड़ हैं। लेकिन, हाँ, यदि मैं गलत साबित हुआ और एक वास्तविक लड़ाई छिड़ गयी तो मुझे वस्तुत: बड़ी खुशी होगी।

लेकिन, 'हरिजन' में निकले गाँधीजी के हाल के लेखों ने लड़ाई की इस जबर्दस्ती पैदा की गयी उम्मीद को चूर-चूर करे दिया है। वस्तुत: वैयक्तिक नेतृत्व, वह भी किसी एक व्यक्ति के हाथ में, अन्त में अवश्य ही साधुऒं का धारोहर साबित होगा और किसी राष्ट्र के लिए अपनी स्वाधीनता की लड़ाई के नाम पर ऐसे नेतृत्व पर निर्भर करना एक दुर्घटना है।

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क्या तैयारी नहीं है?

देश लड़ने के लिए तैयार नही है-यह कहना निराधार और वाहियात है। क्या देश पहले तैयार था जिसके आधार पर गाँधी जी ने अंग्रेजी साम्राज्यशाही के खिलाफ बार-बार जेहाद किया? और क्या हम पूछें कि जहाँ तक लड़ाई का सम्बन्ध है, 1934 के बाद तैयारी में कमी किसी प्रकार आयी और उसका पता किस तरह लगाया जाय? जनता में विशाल और बहुमुखी जागृति फैली है और देश-भर में अनेक मोर्चों पर उसने कितनी ही सफल लड़ाइयाँ ली हैं। 1934 के पहले यह परिस्थिति थी ही नहीं और इसके उदाहरण तो बहुत विरले मिलते हैं( जहाँ आज हजारों मिलेंगे। देशी नरेशों का हिन्दुस्तान भी आज एक तूफान के बीच से गुजर रहा है। वहाँ एक विराट जन-जागृति की लहर दौड़ रही है, जिसका पहले कहीं पता भी नहीं था किसान, मजदूर, नौजवान और विद्यार्थी इतिहास गढ़ रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं। उन्होंने अपने ठोस संगठन कायम करे लिए हैं। जनता में भूख, गरीबी, बेकसी और नंगापन जोरों से फैल रहे हैं। जनता उसकी भारी कीमत चुका रही है, लेकिन वह इन नारकीय यातनाओं से मुक्त होने के लिए भी बेताब और अधीर हो रही है। उसकी माली हालतों में जो गिरती हुई है, वह अपना आखिरी लकीर छू रही है। इसीलिए जनता अब समझने लगी है कि जेल, गोलियाँ और फाँसी के तख्ते भी उसके लिए किसी दिन इस तिल-तिल के मरण से कहीं बेहतर होंगे। फिर उसे 'तैयार नहीं' करने के क्या औचित्य हो सकते हैं? उसका यह अपमान करना बहुत ही गैर-मुनासिब है। वास्तव में तो नेता ही लड़ने के लिए तैयार नहीं हैं और वे अपनी ही इस कमी को झूठी दलील देकरे छिपाना चाहते हैं।

वस्तुस्थिति तो यह है कि आर्थिक संकट ने जनता के एक विस्तृत स्तर को बुरी तरह से स्पर्श किया है और राजनीतिक जागरण की लहर जो उस पर बही तो उसमें एक नयी जिन्दगी और जोश आ गये हैं। नतीजा हुआ है कि समाज का निम्नतम और सबसे अधिक पीड़ित हिस्सा महान जागरण और आप ही उठने वाले आन्दोलन के लिए सर्वथा योग्य बन उठा है। फिर सदियों से इस सबसे अधिक पीड़ित और शोषित वर्ग के शोषण पर जीने वाली समाज की मध्यम और ऊँची श्रेणियाँ हैं और उन सबके ऊपर अंग्रेजी साम्राज्यशाही है। अब कोई भी राष्ट्रव्यापी आन्दोलन समाज के इस निम्नतम स्तर को जोरों से हिलाये बिना नहीं रह सकता और उससे जो जनशक्ति पैदा होगी उसका तथा उसकी बेरोक गति का यही नतीजा हो सकता है कि मध्यम और उच्च श्रेणियाँ अंग्रेजी साम्राज्यशाही के साथ ही साथ जोरों से टूटकरे टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगी। हमारा नेतृत्व जो मध्यवर्गीय है- इस बात को जानता है-और उसे इसका मर्मान्तक भय है कि यदि उसने एक बार लड़ाई शुरू की, उसका विनाश अवश्यम्भावी है। इसीलिए तैयारी नहीं की यह बहाना, अहिंसा पर बेहद जोर तथा गाँधीवादी नेतृत्व में अन्धाविश्वास रखने के निरन्तर नारे लग रहे हैं। अन्यथा यदि लड़ाई एक बार शुरू हो गयी तो जब कभी गाँधी जी या वर्तमान नेतृत्व अपने अस्तित्व को खतरे में देख बीच में ही लड़ाई को बन्द करना चाहेगा तो वह नहीं बन्द होगी और उनकी चीख-पुकार अरण्यरोदन ही साबित होगी।

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मतभेद किस जगह है?

हम भी खादी, चरखा और ग्रामोद्योग के खिलाफ नहीं हैं। देश की मौजूदा अर्थनीति में हम उनकी जगह भी कबूल करते हैं। लेकिन गाँधीवादी विचारधारा की तरह हम इन्हें भावी समाज का आधार नहीं मान सकते। बल्कि हम तो विश्वास करते हैं कि ये उस समाज से सदा के लिए मिट जायेंगे और अजायबघरों की शोभा बढ़ायेंगे। अत: हमारा उस विचारधारा से जो मतभेद है वह बुनियादी और सैध्दान्तिक है। इसीलिए गाँधी जी के जो चार रचनात्मक कार्यक्रम हैं, हम उनके खिलाफ हैं।

और अहिंसा! उसे तो हम एक नीति के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं। जिन परिस्थितियों में हम घिरे हैं, हम शान्त उपायों के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग से आगे नहीं बढ़ सकते? उस हद तक हम व्यावहारिक व्यक्ति की तरह इसका संकल्प लेने को तैयार हैं। किसानों की दिन-दिन की माँगों की लड़ाई में मेरे अनुभवों ने मुझे यह नीति सिखाई है। पूर्ण स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए अपने राष्ट्रीय नेतृत्व को 'शान्त उपायों' के प्रयोग के लिए हम पूरी और अनियन्त्रित आजादी देने को तैयार हैं। हाँ, यदि और जब वे जनता को इसके द्वारा तीनों प्रकार के बन्धनों से मुक्त नहीं करे सके तो हमें अन्य साधानों को अख्तियार करने की स्वतन्त्रता रहेगी। यहाँ गाँधी जी यह जिद करते हैं कि हमें अहिंसा को अपने उद्देश्य की प्राप्ति के एकमात्र साधन के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इसी शर्त पर वह लड़ाई का नेतृत्व करने को तैयार हैं। इसका एक रूपक इस प्रकार बनेगा। एक डाक्टर रोगी का इलाज करने के पहले उससे यह शर्त करने को कहता है कि अच्छे हो या नहीं, तुम कभी किसी दूसरे डाक्टर के पास नहीं जाओगे। दूसरी ओर बीमार व्यक्ति अपने लिए यह अधिकार रखना चाहता है कि यदि इस डाक्टर से वह नीरोग नहीं हो सका तो वह दूसरे डाक्टर भी बुला सकता है। यहाँ हम साधारण तर्क और इतिहास का अनुसरण करते हैं और इसीलिए हमारे मतभेद बुनियादी हैं।

उसके बाद हृदय-परिवर्तन तथा प्रेम और अहिंसा के द्वारा समाज-निर्माण की समस्या आती है। मैं साफ कहूँ, तो मैं कभी इनमें विश्वास नहीं रखता। मैं तो विश्वास करता हूँ कि सिर्फ माक्र्सवादी प्रणाली पर ही समाज का पुनर्निर्माण किया जा सकता है, ताकि सभी तरह की हिंसा और शोषण से मुक्ति मिले। यहाँ हम गाँधीवाद से आसमान-जमीन की दूरी पर हैं।

संक्षेप में, हम जहाँ सर्वतोमुखी क्रान्ति चाहते हैं, वहाँ दूसरा पक्ष जीवन के सभी क्षेत्रों में सिर्फ सुधारवाद की हिमायत करता है। यही कारण है कि वह समझौते के लिए इतना परेशान है। समझौता सुधारवाद का मूल तत्तव है और वह उसी के आधार पर जीवित रह सकता है।

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हमारा कर्तव्य

इन हालातों में हमारा मार्ग साफ है। यदि हम समय पर नहीं जग जाते, हर मौके से लाभ नहीं उठाते, सम्मिलित प्रयत्न नहीं करते और हर प्रतिगामी कार्रवाई का जोरों से प्रतिरोध नहीं करते तो मुझे भय है, शीघ्र ही यह समझौता एक स्थापित वस्तु हो जायेगा और देश का भाग्य राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम पर इसके साथ जोड़ दिया जायेगा। राजनीतिक शैथिल्य और अकर्मण्यता ने उन लोगों को फायदा पहुँचाया है जो प्रतिक्रिया से लाभ उठाने की ताक में रहते हैं? यही कारण है कि वे सदा निर्णयात्मक और गतिशील कार्रवाइयों का प्रतिरोध करते हैं। मन्त्रिात्व-ग्रहण से हमें यह सबक लेना होगा। निर्णयहीनता और देर करने की उनकी नीति के चलते हम विफल रहे और मन्त्रित्ववालों की चाँदी रही। इसलिए हमें अब समय खोना नहीं है। हमें एक ओर तो उनकी हर प्रतिगामी कार्रवाई को समझना और रोकना होगा। साथ ही, दूसरी ओर हमें सीधी चोट की लड़ाई अपनी ओर से छेड़ने की जोखिम भी अपने ऊपर लेने को तैयार रहना पड़ेगा। एक मात्र उसी हालत में हम राष्ट्र को आत्म-समर्पण तथा घुटने टेकने से बचा सकेंगे।

अस्तु, मुझे खेद है कि मैं अपनी हद पार करे सम्मेलन के अध्यक्ष के काम पर भी छापा मारने लगा। यह उनका काम है कि समस्याओं की गुत्थी को सुलझावें और हमें उनके हल की राह की ओर चलें। मेरा तो काम आपका स्वागत मात्र करना है और अपनी और स्वागत समिति की ओर से आप से क्षमा की यह भीख भी माँगनी है कि जो त्रुटियाँ आपके आराम में हुईं उन्हें आप भूल जायँ। मैं आपकी सहृदयता के लिए जिसके साथ आपने बड़े धीरज से हमारे इस लम्बे भाषण को सुना और स्वागत समिति की त्रुटियों की उपेक्षा करे दी एक बार फिर धन्यवाद देता हूँ। अब मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप अपना सभापति चुन लें और अपने महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम को आगे ले चलें।

नोट-19-20 मार्च 1940 को गांधी और कांग्रेस के अंग्रेजों से समझौतामूलक विमर्श और संघर्ष को दरकिनार करने की उनकी नीति के खिलाफ स्वामीजी और सुभाष के नेतृत्व में समझौता विरोधी सम्मेलन रामगढ़ में सम्पन्न हुआ। अंग्रेजों भारत छोड़ों संघर्ष की शुरुआत स्वामीजी के आह्वान पर यहीं से की गयी और स्वामीजी शीघ्र ही राजबन्दी और सुभाष नजरबन्द करे दिये गये-सम्पादक

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