कुछ शुरू की बातें
'जमींदारी क्यों उठा दी जाये'-स्वामीजी की इस पुस्तिका के पढ़ने के पहले
संक्षेप में हमें जान लेना है कि हमारे देश में जमींदारी की क्या स्थिति
रही है?
बड़े-बड़े विद्वानों ने हमारे शास्त्रों को खोज-ढूँढ़ कर यह सिध्द कर दिया है
कि हमारे देश में, पुराने ज़माने में, जमींदारी ऐसी कोई चीज़ नहीं थी।
मुसलमानी ज़माने में भी आज तरह की जमींदारी का नामनिशान नहीं था। यह तो
अंग्रेजी राज्य द्वारा हमारे देश को मिला एक अजीबोगरीब तोहफा है!
हमारे शास्त्राकारों में मनु का स्थान बहुत ही ऊँचा है। उनकी स्मृति को
मानव-धार्मशास्त्रा के नाम से पुकारा जाता है। वह कहते हैं-
स्थाणुच्छेदस्य केदारमाहु: शल्यवतोमृगम्
जिस तरह का शिकार उसका है, जो पहले उस पर प्रहार करे( उसी तरह जमीन उसकी
है, जो पहले पहल जंगल को साफ करे।
एक बार यह विवाद खड़ा हुआ कि राजा किसी को दान में जमीन दे सकता है कि नहीं।
जैमिनी ऋषि ने इस पर फैसला दिया है-
न भूमि: स्थात् सर्वान् प्रत्याविशिष्ठत्वात्
जमीन किसी को दी नहीं जा सकती, क्योंकि उसपर सबका समान हक है।
सावर ऋषि ने इसको दुहराते हुए कहा है-
क्षेत्राणामीशितारो मनुष्या दृश्यन्ते न तु कृत्स्नस्थ पृथिवी गोलस्य।
जमीन तो सभी मनुष्यों के साधारण अधिकार की चीज है, उसके किसी हिस्से पर
किसी का कब्जा हो, किन्तु समूची पृथ्वी का मालिक तो कोई हो नहीं सकता।
सायन ने मानो इसकी व्याख्या करते हुए कहा है-
न राज्ञो भूमिर्धानं किन्तु तस्यां भूमौ स्वकर्मफलं भु×जानाम् सर्वेषां
प्राणिनां साधारण धानम्।
भूमि पर राजा का अधिकार नहीं, किन्तु वह तो सबका समान भाव से धान है और
उसके फल को सभी अपने-अपने कार्य के अनुसार भोग सकता है।
ऊपर के दो उध्दरणों से एक बात और भी साफ हो जाती है कि हमारे ऋषि हवा, पानी
की तरह भूमि पर भी सबका समान अधिकार मानते थे। वैशाली के प्राचीन इतिहास
को देखने से भी यही पता चलता है। यही नहीं, प्राचीन यूरोप के रोम आदि देशों
में भी जमीन व्यक्तिगत चीज नहीं समझी जाकर समूचे समाज के उपभोग की वस्तु
मानी जाती थी।
जमीन पर राजा का तो कोई अधिकार ही नहीं। वह तो सिर्फ उसकी मालगुजारी
प्राप्त कर सकता है। ऋग्वेद में लिखा है-
अथो त इन्द्र: केवलीर्विशो वलिहृतस्करत्।
इन्द्र आपको केवल बलि प्राप्त करने का हुक्म दे। और यह बलि क्या चीज है इस
पर नारदस्मृति में ऐसा उल्लेख है-
बलि: स तस्य विहित: प्रजापालन वेतनम्।
राजा को जो बलि प्राप्त होती है, वह उसके प्रजापालन का वेतन-मात्रा है।
यों, राजा को जो कर दिया जाता था, वह इसलिए नहीं कि वह पृथ्वी का मालिक है,
बल्कि इसलिए कि वह प्रजापालक है। हमारे पुराने शास्त्रों को देख जाइये,
कहीं पर भी जमीन पर राजा के स्वत्वाधिकार का उल्लेख नहीं मिलेगा।
जब मुसलमान हमारे देश में आये, अपने साथ अपने कानून भी लाये। कुरान में यह
साफ उल्लेख है कि 'जो कोई परती जमीन पर खेती शुरू करता है, उसपर उसका
अधिकार हो जाता है।' किन्तु कुरान के इस आयत की व्याख्या कई ढंग की हुई
है। अबू हनीफा ने कहा है-परती जमीन को सिर्फ आबाद करने से ही उसपर अधिकार
नहीं हो जाता( सरदार की आज्ञा भी आवश्यक है। किन्तु सुप्रसिध्द न्यायदर्शी
खलीफा हारुं-उल-रशीद के दो विद्वान जजों अबू यूसुफ और महमूद ने स्पष्ट कर
दिया है कि सरदार के हुक्म की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा है-जमीन तो
एक तरह की सामाजिक सम्पत्ति है और उस पर जोतनेवालों का अधिकार उसी तरह हो
जाता है, जिस तरह शिकार पर शिकारी का या लकड़हारे का ईंधन पर। किन्तु,
मालूम होता है, जब मुसलमानों ने संसार-विजय की कामना की, तो इनके इस
सिध्दान्त में परिवर्तन हुआ और वे इस नियम पर चलने लगे-
जब इमाम किसी देश की विजय करता है तो उसे आजादी है कि या तो वह उसे
मुसलमानों में बाँट दे या उनके पुराने स्वत्वाधिाकारी के ही हाथों में छोड़
दे और उनसे 'जजियात' और 'खिराज' वसूल करे।
किन्तु हिन्दुस्तान में मुसलमानों ने विजय के बाद इस नियम के दूसरे ही अंश
पर-'खिराज' वसूल करने पर-जोर दिया और किसानों के जमीन पर के अधिाकार को जरा
भी स्पर्श नहीं किया। अकबर का हिन्दू-संस्कृति-प्रेम तो नामी चीज है,
औरंगजेब ने भी किसानों के इस अधिाकार पर जरा भी हस्तक्षेप करना मुनासिब
नहीं समझा। उसके फतवा-आलमगिरी में साफ उल्लेख है-वजीफा खिराज लगाने के बाद
बादशाह का जमीन पर आंशिक अधिाकार भी नहीं रह जाता।
किन्तु, अंग्रेज बनिये जब भारत आये और कल-बल-छल से हिन्दुस्तान के राजा बन
बैठे, तो उन्होंने न हिन्दुओं के पुराने शास्त्रों पर खयाल किया, न
मुसलमानी राज्य के प्रचलन को ही देखा। उनके देश में ज़मीन पर राजा का
अधिकार माना जाता था। अपनी उसी लाठी से उन्होंने हिन्दुस्तानी किसानों का
सिर तोड़ना शुरू किया।
वे थे बनिया, उन्हें चाहिए रुपया। बंगाल-बिहार की दीवानी उन्हें पहले पहल
मिली थी, अत: उन्होंने पहले उसपर ही हाथ साफ करना शुरू किया।
एक अंग्रेज लेखक लिखता है-
'फाटकेबाजी का नजारा ऐसा कहीं शायद ही मिले। सदियों से मिल्कियत रखनेवाले
किसानों को कलम की एक ही नोक में ऐसे ज़ालिमों के हाथ में सौंप दिया गया,
जिनमें आत्मा नाम की कोई चीज़ थी नहीं।'
अंग्रेज हर साल पैसेवालों को कलकत्तो में जुटाते थे और गाँव या परगनों की
नीलामी बोलते थे। किसी के हक की क्या परवाह ( जो ज्यादा रुपये दे, उसके हाथ
उसे सुपुर्द किया जाता। ये लोग रुपये देकर जब लौटते तो किसानों को मनमानी
ढंग से लूटते। उनकी लूट का वर्णन स्वामीजी की ही पुस्तिका में देखिये।
जमींदार शब्द फारसी का है, अत: बहुत लोगों का खयाल है मुसलमानी काल से ही
यह जमींदारी प्रथा चली आती है। लेकिन, यह बात बिलकुल ग़लत है। मुसलमानी
राज्य में जमींदार एक सरकारी मुलाजिम थे, जिनका काम सरकार की तरफ से टैक्स
वसूल करना था, जैसाकि आजकल कलक्टर करता है। और, कलक्टर की ही तरह उसे
स्थानीय झगड़ों का फैसला करने का हक भी था। किन्तु आज सरकार और किसान के बीच
एक स्वतन्त्र वर्ग की तरह जो जमींदार हैं, वैसा कोई वर्ग मुसलमानी बादशाहत
में नहीं था। वैसा वर्ग जो-खुद जमीन का मालिक होने का दम भरे, किसानों को
अपनी जमीन पर घर बनाने, बाग लगाने, कुऑं खोदने आदि से रोके, तरह-तरह की
गैर-कानूनी वसूलियाँ करे और जो वाजिब मालगुजारी ले उसमें से रुपये में साढ़े
चौदह आने खुद डकार जाये।
अंग्रेज विदेशों से-सात समुद्र, तेरह नदी के पार से-आये थे। उन्होंने
आर्थिक और राजनीतिक दोनों दृष्टि से जमींदारी प्रथा की सृष्टि की। आर्थिक
दृष्टि से उन्हें एक बँधी-बँधायी मालगुजारी निश्चित समय पर मिल जाती थी
और राजनीतिक दृष्टि से ये जमींदार उसके राज के पाये-से बन गये। आज भी जब
कभी सरकार पर संकट आता है, ये जमींदार उसकी मदद करते हैं। हमारा राष्ट्रीय
आन्दोलन का इतिहास इनके काले करतूतों से भरा पड़ा है।
-प्रकाशक
यद्यपि जब तक किसान-मजदूर राज्य या
कमानेवालों का राज्य हमारे देश में कायम नहीं हो जाता और शासन की बागडोर
कमानेवालों के हाथ में नहीं आ जाती तब तक हमारे कष्टों का अन्त नहीं हो
सकता, अतएव वही राज्य हमारा परम लक्ष्य है और वही असली स्वराज्य है। तथापि
उसकी प्राप्ति में साम्राज्यशाही की ही तरह या उससे भी शायद बढ़कर जमींदारी
और साहूकारी बाधाक है। अतएव, इन दोनों का अन्त जल्द-से-जल्द करना किसान सभा
का तात्कालिक लक्ष्य है। साम्राज्यशाही तो भले-बुरे कानूनों के बल पर टिकी
है, लेकिन यह जमींदारी तो केवल जोर-जुल्मों के सहारे, कानूनों का गला
घोंट-घोंट कर या उनकी ऑंखों में धाूल झोंक कर ही खड़ी है। एक तो
साम्राज्यशाही या अंग्रेजी शासन के कानून यों ही मालदारों के ही अधिाक लाभ
के लिए बने हैं, दूसरे उन्हें भी यह जमींदारी पाँव तले दिन-दहाड़े रौंदती
है। तिसपर तुर्रा यह कि रुपये के बल से जमींदारों का बाल-बाँका हो नहीं
सकता, वे निर्भय विचरते हैं। सन् 1793 ई. के 22 मार्च को लार्ड कार्नवालिस
के एक फतवे (Regulation) के अनुसार इस जमींदारी रूपी पूतना का जन्म हुआ और
इतिहास के जानकारों ने लिखा है कि उसके बाद जो पाँचवें, सातवें, ग्यारहवें
आदि फतवे निकाले गये और जिन्हें जस्टिस फील्ड जैसे अंग्रेज सज्जन तक ने
'काला 7वें आदि फतवे' (Notorious Haftum etc.) कहा है, उन्हीं के आधाार पर
किसानों की जान-माल और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत पर आक्रमण करके इस
जमींदारी की रक्षा की गयी है, इसे पाला-पोसा गया है। वे सभी फतवे इसीलिए
निकाले गये थे कि बिना अदालत की शरण लिए ही
जमींदार का मामूली नौकर किसानों के ज़नानख़ाने तक में बेधाड़क घुसकर तलाशी ले
सकता और बकाया लगान में चीज-वस्तु जब्त कर सकता था। यहाँ तक कि पड़ोसी के
द्वार पर पड़े हुए गल्ले, जानवर आदि को भी इस शक में जब्त कर सकता था कि यह
चीजें उसी किसान की हैं जिनके जिम्मे लगान बाक़ी है। ऐसी नादिरशाही के बीच
यह जमींदारी प्रथा सयानी और तगड़ी होकर अब बूढ़ी हो चली है, मरणासन्न है।
क्योंकि उसकी उम्र का 145वाँ वर्ष गुजर रहा है। कसकर एक धाक्का लगा कि खत्म
हुई। आज जो जमींदारों के जुल्मों की कहानियाँ छपा करती हैं, उनकी जड़ तो इस
जमींदारी की ही जड़ में है। ये जुल्म शुरू से ही चले आ रहे हैं और आज कानून
के बदल जाने पर भी ये बन्द नहीं हुए। क्योंकि पुरानी आदत आसानी से छूटती
नहीं, छूट सकती नहीं।
एक बात और है। यदि जुल्म और अत्याचार बन्द हो जायें, तो जमींदारी एक मिनट
भी टिक नहीं सकती। तब तो किसान निर्भय और हिम्मतवर बनकर जमींदार का मुकाबला
जब न तब कर बैठेंगे और वह उनसे पार न पा सकेगा। अदालतों में दावे करके यदि
सबों से लगान वसूल करना हो, तो कुछ ही साल में जमींदारी खत्म हो जाये।
इसीलिए हजार जोर-जुल्म और गैरकानूनी तरीके से किसानों को पस्त और तीन-तेरह
कर दिया गया है। यदि जमींदार अपने अमलों को काफी वेतन देता है और आबपाशी
आदि का पूरा प्रबन्धा करता है, तो मोटर दौड़ाने और महल सजाने के लिए उसे
बचेगा ही क्या? इसीलिए भूखे शिकारी कुत्तों की तरह दो-दो चार-चार रुपये के
नौकर रखता है, जिनका काम होता है कदम-कदम पर सैकड़ों प्रकार से किसानों को
नोचते रहना। जमींदार के खर्च भी समयानुसार बढ़ते जाते हैं और शहरों में
रहने, सैर-सपाटे करने, बड़ी पार्टियाँ देने, चुनावों में पड़ने और फैशन के
करने से खर्च तो बढ़ते ही जाते हैं, मगर जमींदारी की आमदनी तो बढ़ती नहीं,
इसलिए बीसियों प्रकार की गैरकानूनी वसूलियाँ जारी की गयी हैं। गंगा के
किनारे तो गंग-शिकस्त और गंग-बरार के चलते महाराजा डुमराँव तथा दूसरे
जमींदारों की पाँचों घी में हैं। जो जमीन गंगा की धाार में जाने के बाद फिर
बाहर आयी, उसका नये सिरे से बन्दोबस्त किया जाता है और इसमें खूब चढ़ा-ऊपरी
करायी जाती है। कभी-कभी तो एक से ज्यादा लोगों के साथ बन्दोबस्त करके
किसानों को ही आपस में गुत्थम-गुत्था करने का मौका दिया जाता है। यदि
जमींदार को यह सब करने न दिया जाये तो उसकी आमदनी ही जाती रहे, उसका मजा
किरकिरा हो जाये और अन्त में किसानों की संगठित शक्ति और मुकाबले के सामने
जमींदारी की अन्त्येष्टि ही हो जायेगी। जमींदारी प्रथा का यह भीतरी विरोधा
(Internal contradiction) है। इसीलिए शीघ्र-से-शीघ्र उसका अन्त होने में ही
कल्याण है।
जमींदारी पैदा करने में अंग्रेजी सरकार का स्वार्थ कई प्रकार से सिध्द हुआ।
एक तो हमारे देश की सम्पत्ति वाणिज्य-व्यापार में न लगकर जमीन के खरीदने
में लगी और इस प्रकार विदेशी व्यापार के लिए यहाँ काफी गुंजाइश रही। दूसरे
सरकार और जनता के बीच में एक ऊँची दीवार खड़ी हो गयी, जिसके पीछे रहकर सरकार
अपना सारा काम चलाती रही और जनता जल्दी उसे देख न सकी, इसीलिए उसपर आक्रमण
भी न कर सकी। जोर-जुल्म और दमन-कार्य तो जमींदारों के द्वारा हो ही जाता
था। सरकार के लिए कानून के खिलाफ खुलकर काम करना आसान नहीं था। मगर उसके
दोस्त और एजेण्ट ये जमींदार सबकुछ कर सकते थे, कर सकते हैं। इस प्रकार देश
के भीतर दो परस्पर विरोधी स्वार्थ पैदा हो गये। साथ ही, जमींदारी मशीनरी
के जरिये आसानी से 80 से लेकर 90 फीसदी किसान नामर्द और पस्तहिम्मत बना
दिये गये। फिर सल्तनत का मुकाबला कौन करे? जमींदार और उनके अमले किसानों की
छाती पर बचपन से लेकर मरने तक किस प्रकार सवार रहते और रह-रह कर कोदो दलते
रहते हैं इसका कटु अनुभव धारा-सभाओं के बहस-मुबाहसों, अखबारों की
लीपा-पोती और किताबों के पढ़ने से नहीं हो सकता। इसे तो किसानों के जले दिल,
उनकी भीगी ऑंखें, उनकी पस्ती और बेबसी ही बता सकती है, सो भी उन्हें, जो
सहृदय हैं, जो आहों और मूक वेदनाओं को जान सकते हैं, जानने की योग्यता रखते
हैं।
इस प्रथा में एक बड़ा दोष यह है कि इसने निठल्ले लोगों का एक खासा दल पैदा
कर दिया है जो रईस और भलेमानस कहलाते हैं। जो लोग रोजगार-व्यापार में पैसे
लगाते हैं उन्हें फिक्र बनी रहती है कि किस वस्तु का बाजार कहाँ है और वहाँ
औरों के साथ मुकाबला कैसा है। इसलिए बड़ी मुस्तैदी और तत्परता से चीजें
तैयार कराते और बाजार में पहुँचाते हैं। कच्चे माल की भी चिन्ता उन्हें
रहती है। उधार अपनी साख भी बनाये रखना पड़ता है। इतने पर भी घाटे का डर
बराबर बना रहता है। कभी-कभी घाटा होता है और पूँजी भी डूब जाती है। विपरीत
इसके जमींदारों को न तो कोई फिक्र है, न चिन्ता, न कुछ सोचना है न
विचारना-अगर चिन्ता है तो केवल मौज करने की। घाटा तो कभी होता नहीं। यदि
लगान न मिला तो सरकारी न्यायालय वसूल करवा देने के लिए तैयार रहते ही हैं।
और इसके लिए उन्हें मेहनताना भी जमींदारों को देना नहीं पड़ता, वह तो किसान
से ही वसूल कर लिया जाता है। कितना सुन्दर सौदा है! फिर जमींदारी में रुपया
न लगाकर व्यापार में कौन लगाये? अपने चैन में खलल कौन डाले? परिणाम यह हुआ
कि देश के धान और दिमाग में एक प्रकार का जंग लग गया, वह कुन्द पड़ गया। इस
प्रकार हमारे देश को व्यापारिक और मानसिक समुन्नति के लिए यह जमींदारी
अभिशाप हो गयी।
जो लोग अंग्रेजी सरकार से लड़ते और लड़ना चाहते हैं उन्हें जमींदारों के
खिलाफ लड़ने में जो आनाकानी होती है, वह हमारी समझ में नहीं आती। आमतौर से
देहातों में अंग्रेजी सरकार का तो कहीं पता नहीं रहता। मगर जमींदारी सरकार
तो हर गाँव में विराजती है और किसानों तथा गरीबों का शोषण और उत्पीड़न
सैकड़ों प्रकार से करती रहती है। फलत: इस शत्रु का अनुभव किसान बराबर करता
रहता है। जब हम निरन्तर छाती पर सवार रहनेवाले शत्राु से लड़ाई की बात नहीं
करके मेल की बात करते हैं और उस शत्रु से लड़ना चाहते हैं जिसका अनुभव
दैनिक जीवन में सर्वसाधारण किसान-मजदूरों को बराबर नहीं होता, तो वह लोग
हमारी बात समझ नहीं सकते और आश्चर्य में पड़ जाते हैं। मौत सदा सिर पर सवार
है और उसका दु:ख सबसे ज्यादा होता भी है (मगर उससे बचने की कोशिश कौन करता
है? हाँ, जब बीमारी होती है तभी यत्न किया जाता है। लेकिन जूते की काँटी
बराबर चुभती है तो जी-जान से उसे दूर करने की कोशिश की जाती है। जमींदारी
जूते की काँटी और विदेशी शासन मौत का दु:ख है-यह हमें भूलना न चाहिए।
एक बात और। बिहार में अंग्रेजी सरकार को हम करीब पाँच करोड़ देते हैं जिनका
एक बड़ा हिस्सा या अधिाकांश किसानों से ही लिया जाता है। इस रकम में एक
अच्छा हिस्सा बड़ी-बड़ी तनख्वाहों में खर्च होता है( बेशक और उसे हम रोक भी
नहीं सकते। फिर भी बहुत बड़ा हिस्सा स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, दवाखाना,
औषधालय, सफाई, सड़क, कुएँ, नहर आदि में खर्च होता है (जिससे जनता की भलाई
है। पुलिस, कचहरियों का खर्च भी बहुत अंश में जनता के हित में है। मगर
जमींदार लोग तो 20 करोड़ से कम वसूल नहीं करते और उसमें से भरसक एक पैसा भी
जनता के काम में खर्च करना नहीं चाहते, खर्च नहीं करते। हाँ, टाइटिल और
उपाधि के लिए या अधिाकारियों को खुश करने के खयाल से भले ही कुछ दे दिया
करते हैं या स्कूल और अस्पताल बनवा दिया करते हैं। कितने जमींदार हैं
जिन्होंने देहातों के बीच केवल किसानों के ही लाभ के लिए औषधालय और स्कूल
खोले हैं? अपने और अपने नौकर-चाकरों के लिए स्कूल और अस्पताल बनवा दिये और
उससे यदि कुछ गरीबों का भी लाभ हो गया तो इससे क्या? यह तो मजबूरी की बात
हो गयी। यहाँ तक देखा जाता है कि यदि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की ओर से दवाखाने
या अस्पताल खुलते हैं तो वे भी जमींदारों के घरों और महलों के ही पास
खुलें, ऐसी कोशिश होती है। स्कूलों और सड़कों के बारे में भी यही होता है।
यह भी देखा जाता है कि स्कूल और अस्पताल खुलवाते हैं जमींदार अपने नाम से
और उनका खर्च वसूल होता है किसानों से। यदि गाँव में चोरी-डकैती हो, तो
अंग्रेजी सरकार की पुलिस खबर पाते ही दौड़ पड़ती है। मगर हजार खबर देने पर भी
जमींदार अपना यह फर्ज ही नहीं समझता कि उस जगह पर जायें। ऐसी दशा में यदि
हम सरकार से युध्द करते हैं तो उससे कई गुना भीषण युध्द इस 'मुफ्तखोरी की
संस्था'-जमींदारी के खिलाफ छेड़ना चाहिए। सरकार तो 5 करोड़ का हिसाब पेश करती
और उसकी मंजूरी लेती है। मगर ये 20 करोड़ हजम करनेवाले जमींदार! इन्हें
हिसाब-किताब से क्या काम?
कुछ लोग मुंशीजी वाला हिसाब लगाकर बताते हैं कि 'जमींदारों की कुल आमदनी 11
ही करोड़ है और उसमें माल (रेवेन्यू) और वसूली का खर्च मिलाकर 3 करोड़ से कम
नहीं है। ऐसी हालत में 7 करोड़ से कुछ ही ज्यादा उन्हें बचता है और यदि
जमींदारी मिट जाये तो बिहार की साढ़े तीन करोड़ जनता में उस आमदनी को बाँटने
से औसतन फी आदमी साल में दो रुपये की आय होगी। लेकिन इससे गरीबी दूर हो
नहीं सकती। अत: जमींदारी मिटाने का प्रश्न छोड़कर देश की समृध्दि बढ़ाने का
दूसरा उपाय सोचना चाहिए। इस प्रश्न से घरेलू झगड़ा भी पैदा होता है और इस
प्रकार स्वराज्य की लड़ाई में बाधा होती है।' ऐसे लोग पूर्व में बतायी गयी
मौलिक बातों का कतई खयाल नहीं करते। हमारा तो खयाल है कि जमींदारी सड़ा हुआ
मुर्दा है और जब तक इसे जला या दफना न देंगे इससे बराबर दुर्गन्धा आती और
बीमारी फैलती रहेगी। और अगर फी आदमी साल में दो रुपया भी बच जाता है, तो
गरीबों के लिए यही क्या कम है? मुफ्तखोर यह दो रुपया भी हमारा क्यों ले
जायें? क्या हम मुफ्त में एक कौड़ी भी बर्दाश्त करते हैं? और फिर ऐसे लोग
हमारे ही रुपये से मौज करें, हमें ही पस्त और पामाल बनायें! क्या पैसे देकर
ऐसे लोगों की जमात तैयार होने देना ठीक है जो सदा से देशद्रोही तथा
कांग्रेस-द्रोही रहे हैं और आगे भी रहेंगे? अगर आज वे कांग्रेस में आये हैं
या आ रहे हैं तो सिर्फ इसीलिए कि भीतर से ही हमला करें और कमजोर बनायें।
पं. जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में 'कांग्रेस में आकर न तो ये स्वराज्य लेने
को ही उत्सुक हैं और न स्वतन्त्राता संग्राम में भाग ही लेने को। इन्हें तो
अपना मतलब साधाना है।'-Who were not eager to achieve Swaraj or join the
fight, but were seeking personal gains.’
और इनके साथ घरेलू झगड़े का क्या सवाल है? ये तो सदा किसानों, गरीबों और
कांग्रेस पर हमला करते ही रहे हैं। ये तो हमारे पुराने दुश्मन हैं। बिहार
में तो इन्होंने गत चुनाव में केवल संगठित रूप से विरोधा ही नहीं किया(
किन्तु जहाँ तक जमींदारों के वोट से चुने जाने की बात थी एक भी कांग्रेसी
उम्मीदवार को असेम्बली या कौंसिल में चुने जाने नहीं दिया। फिर इनके साथ
रिआयत कैसी? इनका हमला तो आज भी किसानों पर पूर्ववत् जारी है। तो क्या हम
लोग हमले का जवाब न दें? उससे अपनी रक्षा न करें? यह तो गैरमुमकिन है। ऐसा
उपदेश देनेवालों पर आज यदि कोई आक्रमण करे तो क्या वे चुपचाप बर्दाश्त कर
लेंगे? उनका घर या धान कोई लूटे तो क्या लुटेरे का मुकाबला न करेंगे? यदि
किसान का भाई या पड़ोसी लूटने आये तो किसान रोके नहीं? क्या स्वराज्य और
उसकी लड़ाई का यही अर्थ है कि हमारे ही घर और देश के आदमी हमें लूटते और
अपमानित करते रहें और हम चूँ न करें? ऐसे स्वराज्य से तो हम बहुत डरते हैं
और उसे दूर से प्रणाम करते हैं। जो लोग ऐसा उपदेश देते हैं असल में वे
जमींदारी जुल्म के शिकार हैं नहीं, या यदि हैं तो मुर्दे और आत्म-सम्मानहीन
हैं। हम जानते हैं-'जाके पाँव न फटे बेवाई, सो क्या जाने पीर पराई।' वे
किसानों की तकलीफों को समझने की कोशिश भी नहीं करते, यह और भी दर्दनाक बात
है।
जो लोग 'एकै साधौ सब सधौ' का गीत गाकर कहा करते हैं कि स्वराज्य मिलने पर
ये सभी झगड़े अपने आप मिट जायेंगे वे हमारी ऑंखों में धाूल झोंकना चाहते
हैं। दुनिया के सभी देशों में स्वराज्य हो गया, सो भी सैकड़ों वर्षों से।
मगर रूस को छोड़ ये सभी झगड़े सभी देशों में मिटने के बजाय दिनोंदिन भयंकर
होते चले जाते हैं। यदि जमींदार, पूँजीवाले और साहूकार स्वराज्य आने पर भी
रहे, तो वह स्वराज्य गरीबों के लिए एक कौड़ी का भी न होगा। किसान, मजदूर और
पीड़ित लोग साधु-फकीरों के कहने से स्वर्ग या बैकुण्ठ को इसीलिए अच्छा और
अपने रहने लायक समझते हैं कि वहाँ जमींदार, सूदखोर और पूँजीपति नहीं रहते,
ऐसी उनकी धारणा है। यदि उन्हें पता लग जाये कि ये जमींदार वगैरह मरकर वहाँ
भी जायेंगे और अपना काम करेंगे तो गरीब लोग स्वर्ग-बैकुण्ठ का नाम भी न
लें। बल्कि नर्क को ही अच्छा समझें, यदि वहाँ जमींदारों की गुंजाइश न हो।
जो लोग भूखे किसानों से, जिनकी जमीनें धाड़ाधाड़ जमींदारों, साहूकारों और
बैंकों के द्वारा नीलाम हो रही हों और जिनके बाल-बच्चे अन्न, वस्त्रा, दवा
के बिना तड़पते हों, आजादी की लड़ाई लड़वाने की आशा करते हैं उनकी समझ की
बलिहारी है। जिस सिपाही की ऐसी दशा हो वह मैदान छोड़कर भाग आता है और जब तक
यह हालत रहे जाता नहीं। सत्याग्रह करने जा रहे हों, मगर बीच में ही पेट में
दर्द हो जाये या बुखार आ जाये तो हम सत्याग्रह की बात भूलकर पेट की दवा
करते और ज्वर का उपचार करते हैं और हमारे दूसरे साथी भी इसी काम में फँस
जाते हैं। सख्त भूख लगने पर भगवान और सत्याग्रह भूल जाता है, सिर्फ भात याद
आता है। यह अप्रिय सत्य है। किसान-आन्दोलन इसी भूख और बीमारी की दवा का
उपाय है। हम इसके ज़रिये जमींदारी और साहूकारी जुल्म हटाकर किसान को थोड़ा
आराम पहुँचाना चाहते और इस प्रकार अपने नेतृत्व में अमली तौर से उसका
विश्वास पैदा करके उसे आजादी की लड़ाई के लिए कमर बाँधाकर तैयार करना चाहते
हैं।
रह गयी हिसाब की बात। सो तो गलत है। अगर हम भूलते नहीं तो सरकारी रेवेन्यू
(माल) 135 लाख है। 1931-32 वाली बिहार-उड़ीसा की शासन रिपोर्ट में लिखा है
कि 'सरकार जमीन के मुनाफे का प्राय: 90 फीसदी जमींदारों के लिए छोड़ देती
है।' ‘To day the state relinquishes nearly ninety percent of the profits
to the landowners’। ऐसी दशा में सरकारी बयान के ही अनुसार साढ़े तेरह करोड़
की आमदनी जमींदारों को होती है। मगर भावली में जो लूट किसानों की होती है
उसका हिसाब सरकार के पास क्या है? दक्षिण बिहार में तो भावली बहुत ज्यादा
है और अकेले गया में 60 फीसदी से ज्यादा जमीन भावली है सो भी अधिाकांश
दानाबन्दी, जिसमें जमींदार का हिस्सा 16 सेर में 9 सेर है। तिसपर भी बङ्ढी
बगैरह कई अबवाव हैं। सलामी, तवान, सूद, जुर्माने के रूप में अपार धान
जमींदारों के पास चला जाता है। अन्नी, तौजी, घाट, चरसामहाल आदि पचासों
वसूलियाँ अलग हैं। जल-कर फल-कर वगैरह भी हैं। जंगल के कर जुदा हैं। लकड़ियों
और बाँसों की बिक्री से खासी आमदनी जंगलों के ज़रिये होती है। अबरक और कोयला
तो बिहार की खास चीज है। पत्थर की बिक्री भी होती है। लोहा भी यहीं निकलता
है। यदि यह सब आमदनी मिला दी जाये तो क्या लगान की आधाी भी न होगी? हमने कई
जगह हिसाब लगाकर देखा है तो सिर्फ गैरकानूनी वसूलियाँ लगान के पाँचवें
हिस्से के बराबर हो जाती हैं, बेगारी या कम मजदूरी देकर काम करवाना यह तो
आम बात है। इसके सिवाय जमींदारों के दर्जनों नौकर हर गाँव में रहते और
साग-तरकारी, घी, दूधा, दही, रस, ऊख, चना, मटर, बकरा-बकरी, मुर्गी-अण्डा,
जूता, कम्बल, तेल, बर्तन, वगैरह चीजें बराबर लेते रहते हैं। यदि साल-भर की
इनकी लूट भी उसमें जोड़ दी जाये तो यह रकम 20 करोड़ से कहीं ज्यादा हो
जायेगी। जमींदारी प्रथा का खात्मा होने पर 135 लाख के सिवाय बाकी तो
किसानों के पास ही रहेगा। जो प्राय: ढाई करोड़ किसानों में बाँटने पर फी
आदमी करीब आठ रुपये और पाँच जनों के परिवार के लिए चालीस रुपया सालाना
होगा। यह गरीबों के लिए बैठे-बैठाये बहुत ज्यादा है। चरखे की आमदनी किसी भी
परिवार को, जिसमें पाँच मनुष्य हों, इतनी शायद ही देती हो और देती होगी भी
तो उसके लिए अलग परिश्रम होगा। उसमें यदि यह 40 रु. मिल जाये तो कितना
सुन्दर हो! जोर-जुल्म, आतंक का जो अन्त हो जायेगा, जमींदारी के साथ ही सो
तो अलग ही है।
इतने पर भी जो लोग दलीलें दिया करते हैं कि जमींदारी मिट जाने पर भी खास
महाल में किसानों की तकलीफें ज्यों-की-त्यों हैं और बम्बई या मद्रास के
इलाके में जमींदारी प्रथा के न रहने पर भी किसानों के दु:ख दूर न हुए उनसे
हमारा निवेदन है कि वे जमींदारी मिटाने का अर्थ समझने की कोशिश करें। वे
भारी भूल करते हैं यदि खास महाल को जमींदारी नहीं समझते। वह भी जमींदारी ही
है और आमतौर से खास महाल का जमींदार कलक्टर समझा जाता है। फर्क इतना ही है
कि अन्य जमींदार जहाँ और जमीनों के मालिक हैं वहाँ खास महाल का मालिक सरकार
ही है। इसीलिए उसे 'खास' कहते हैं। तो भी खास महाल दूसरी जमींदारियों से
अच्छा इसलिए है कि वहाँ बेगारी या अबवाव नहीं चलते और गैरकानूनी जुल्म नहीं
होते। रह गयी बम्बई आदि में प्रचलित रैयतवारी की बात। यह ठीक है, वहाँ
जमींदारी नहीं है। लेकिन इसी की बहनें खेती प्रथा, इनामदारी, जागीरदारी,
जन्मी प्रथा और साहूकार जमींदार प्रणाली प्रचलित है। सारांश यह है कि सरकार
और किसानों के बीच कोई-न-कोई शोषक दल सर्वत्रा है, नहीं हुआ तो, कहीं-कहीं
किसान ही हजारों एकड़ जमीन रखते हैं और दूसरों के साथ शिकमी बन्दोबस्त करते
हैं। और जमींदारी प्रथा के खत्म करने का अर्थ तो यह है कि खेती करनेवाले
(किसान) और सरकार के बीच में कोई न रहे, जो किसान से लगान लेकर कुछ स्वयं
हजम करे और कुछ सरकार को दे। हर किसान के पास उसके परिवार के गुज़ारे के
लायक काफी जमीन हो और उसे सरकार को नाममात्रा का माल या कर देना पड़े। असल
में किसान ही अपनी जोत जमीन का मालिक हो और इनकम टैक्स की तरह उसे अपनी एक
निश्चित आमदनी से अधिाक आमद पर सिर्फ टैक्स लगे। लेकिन इतने से ही उसकी
तकलीफें दूर न हो जायेंगी। इसके लिए तो उसे किसान-मजदूर राज्य स्थापित करना
होगा जैसाकि पहले कह चुके हैं। जैसे अनेक बीमारियाँ होती हैं और एक के दूर
हो जाने पर भी दूसरी रह सकती है और उससे कष्ट भी हो सकता है, लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं कि दूसरी से कष्ट है इसलिए पहली का हटाना बेकार है। किसानों के
कष्टों के कई कारणों में एक प्रधान कारण जमींदारी प्रथा है और इसे दूर
करना है, बस यही अर्थ है। इसके बाद कष्ट के और कारणों का पता लगाकर उन्हें
भी दूर किया जायेगा।
जो लोग जमींदारी के सुधारने की बात कहते हैं और उसके मिटाने का विरोधा
करते हैं या यों कहते हैं कि उसके सुधाार की कोशिश की जाये और यदि न
सुधारेगी तो स्वयं मिट जायेगी उनसे हम पूछते हैं कि साम्राज्यशाही के
मिटाने की बात भी वे क्यों नहीं जोड़ देते? उसे भी सिर्फ सुधारने में ही लग
जायें। यदि वह न सुधारेगी तो समय पाकर स्वयं मिट जायेगी। जिस प्रकार
जमींदारी एक विनिन्दित प्रथा है और उसी प्रकार साम्राज्यशाही भी पूँजीवाद
रूपी प्रथा का अत्यन्त विकसित और भयंकर रूप है। यदि साम्राज्यशाही सुधार
नहीं सकती तो जमींदारी कैसे सुधारेगी जिसका जन्म ही पापमय है? जमींदारी के
सुधारने की आशा करना कोयले को साबुन से धाोकर सफेद करने या बालू से तेल
निकालने की आशा के समान ही है। यह कहना कि खेती करने वाले की ही तरह उसमें
रुपया और सामग्री (Money and Material) जुटानेवाले को भी साझीदार समझना
चाहिए और जमींदार रुपया तथा सामग्री लगाते हैं बिलकुल गलत बात है। यदि हल,
बैल, बीज या पूँजी देकर और आबपाशी आदि का प्रबन्धा करके जमींदार साझीदार
बनना चाहता तो यह बात समझ में आती भी। मगर वह तो ऐसा कुछ करता नहीं। वह तो
मुफ्त ही किसान की कमाई को हड़प लेना चाहता है, हड़प लेता है। चाहे फसल मारी
जाये, मगर वह तो पाई-पाई लगान सूद के साथ वसूलता ही है। यह साझीदारी है? यह
साझीदारी का सिध्दान्त गलत भी है। किसान के पास तो इतनी पूँजी चाहिए ही कि
वह खेती में लगे। यदि दूसरा कोई पूँजी लगाना चाहता है तो वह स्वयं खेत लेकर
उसमें लगाये और खेती करे। पैसे के बल से दूसरे की कमाई खाने का सिध्दान्त
ठीक नहीं है। यह तो सिर्फ सरकार का ही काम है कि किसान के लिए जमीन और
पूँजी की व्यवस्था कर दे और उससे थोड़ा-सा टैक्स सिर्फ इसलिए ले कि फिर उसी
की भलाई में उसे खर्च करे।
यदि जमींदारी, साहूकारी और पूँजी के द्वारा होनेवाला शोषण बन्द न होगा और
स्वराज्य के समय भी ये चीजें रहेंगी, तो किसानों की गरीबी भी रहेगी ही,
क्योंकि स्वराज्य होने पर जमीन में घी, दूधा या गेहूँ, चावल की न तो वर्षा
ही होगी और न पनाले ही फूटेंगे। ऐसी हालत में जो पैदावार होगी वह तो
जमींदारों और साहूकारों आदि के हाथ में आज की ही तरह जायेगी। फिर किसान
क्या खायेगा? कल-कारखाने खोलकर गरीबी दूर करने की बात मनमोदक-मात्रा है।
चीनी के पचासों कारखाने बिहार में खुल गये। मगर क्या किसानों की गरीबी और
तकलीफ घटी? या कि उलटे बढ़ी? ये कारखाने तो बेकारी को बढ़ाते और किसानों को
सताते हैं। हाँ, पूँजीवाद न हो और सभी कारखाने किसान, मजदूरों और उनमें काम
करनेवालों के हो जायें तो बात ही दूसरी है। मगर पूँजीवाद का अन्त करने से
पूर्व जमींदारी का अन्त करना ही जरूरी होगा।
(शीर्ष पर वापस)
मुआवजा और कीमत देकर?
बहुत लोगों का कहना है कि जमींदारी प्रथा का अन्त तो जरूर हो, मगर
जमींदारों को उसकी कीमत (मुआवजा) दी जाये। लेकिन हमारी समझ में यह बात नहीं
आती। उन्हें कीमत किस बात की मिलेगी? क्या 1793 में उन्होंने किसानों से
जमींदारी कीमत देकर खरीदी थी? इतिहास का कोई भी पन्ना क्या इसका साक्षी है?
कलम की एक नोक से किसानों की सारी जमीन छीनकर जमींदारों को सौंप दी गयी।
उन्हीं लोगों को जो पहले मुगल सरकार के जमाने में सरकारी मालगुजारी की
वसूली में कमीशन-एजेण्ट थे और जिन्हें आज भी नेपाल राज्य में जिम्मेदार
कहते हैं-जिम्मेदार का अर्थ है कि सरकार ने अपने वसूली के लिए उनको कुछ
मौजों का जिम्मेदार बना दिया था और वसूली के मुताबिक फी सैकड़ा पाँच से दस
रुपये तक कमीशन उन्हें देती थी। यही बात हाल में युक्त प्रान्तीय असेम्बली
में वहाँ के माल मन्त्री ने भी कही थी। इस प्रकार यह जमींदारी तो एक
प्रकार से चोरी व लूट का माल ठहरा और यदि आज हमें उसका पता लग गया तो
पुराने मालिकों (किसानों) को वह वापस तो मिल जाना ही चाहिए, कीमत की बात
कैसी? जिन लोगों ने दाम देकर पीछे औरों से जमींदारी खरीदी है उन्हें भी
कीमत का दावा करने का हक नहीं। आखिर चोरी या लूट का माल जो खरीदता है वह भी
गुनहगार ही है और पता लगने पर उसे कीमत के बदले 'दूसरी चीज' मिलती है। हाँ,
यदि जमींदारी की पैदाइश जोर-जुल्म या छीना-झपटी से न हुई रहती और
खरीद-बिक्री के द्वारा ही इसकी उत्पत्ति हुई रहती तो बात दूसरी थी। मगर यह
तो जबर्दस्ती छीनी गयी है और इसका साक्षी इतिहास है। इतने पर भी यदि
जमींदार कीमत माँगते हैं तो किसान गुजश्ता 145 वर्षों का वासिलात क्यों न
माँगें? और अगर ऐसा हो तो उन्हें तो लेने के देने पड़ जायेंगे। हाँ, अपनी
परवरिश के लिए जमीन, रोजगार या रुपया-पैसा अगर जमींदार चाहें तो यह चीज समझ
में अच्छी तरह आ जाती है और उनकी यह माँग पूरी की जा सकती है बशर्ते कि
शान्ति के साथ वे लोग इस जमींदारी का नामोनिशान मटियामेट करने दें।
लेकिन कीमत की तह में कई गम्भीर और पेचीदा बातें भी हैं जिनका विचार निहायत
जरूरी है। आखिर जमींदारों को यह कीमत देगा कौन और कहाँ से? बिहार की समूची
जमींदारी की कीमत कम-से-कम एक अरब रुपये बतायी जाती है। यह एक अरब कौन
देगा? बड़े-बड़े पूँजीवाले और बैंक ही तो देंगे। परिणाम यह होगा कि हम जो
जनता के हाथ में शासन-सूत्रा लाना चाहते हैं वह न होगा और स्वराज्य के पहले
ही यहाँ की सरकार पूँजीवालों के हाथ में बंधाक हो जायेगी, उनके शिकंजे में
कर्जदार की तरह जकड़ जायेगी। दूसरी ओर उसी रुपये से आज के जमींदार
कल-कारखाने खोलकर मालोमाल बनेंगे और जमींदारी के स्थान पर देश का सारा
कारोबार उन्हीं के हाथ में चला जायेगा। फलत: मालदारों को दोनों तरफ से लाभ
ही होगा। और बैंकों और धानियों का दबाव, दूसरी ओर कल-कारखानेदारों का
जोर-इन दोनों के बीच स्वराज्य सरकार की कचूमर निकल जायेगी। साथ ही, जो
जमींदारी के ज़रिये किसानों पर जुल्म करते थे वही अब एक ओर कच्चा माल खरीदने
में और दूसरी ओर मिलों में काम करनेवालों के साथ व्यवहार करने में वही
अत्याचार करेंगे, बल्कि वह और भी भीषण हो जायेगा, सुसंगठित बन जायेगा। इस
प्रकार 'रोजा को गये, नमाज गले पड़ी' वाली कहावत चरितार्थ हो जायेगी।
जो लोग राय देते हैं कि जमींदारों को केवल साढ़े तीन या चार रुपया सैकड़ा
सालाना सूद ही उनकी कीमत पर दिया जाये, वह भी सोचते नहीं कि सालाना यह चार
करोड़ कहाँ से आयेगा। बिहार सरकार तो स्वयमेव अर्थ-संकट से तबाह रहती है।
ऐसी हालत में बराबर कर्ज लेकर देते रहने का भी वही अर्थ हुआ। बल्कि
अन्ततोगत्वा इसका असर एक बार देने की अपेक्षा और भी बुरा होगा। यदि सरकार
ही जमींदारियों को लेकर इन्तजाम करे तो यह जमींदारी का मिटना कैसे हुआ?
आखिर, खास महाल का मजा भी तो किसान चख ही चुके हैं। अतएव बिना कीमत या
मुआवजे के ही जमींदारी का अन्त करना होगा।
(शीर्ष पर वापस) |