झारखण्डी बन्धुओं,
मैं आपको और आपके सेवकों को धन्यवाद देता हूँ कि बिहार प्रान्तीय किसान
सम्मेलन इस झारखण्ड (छोटानागपुर) में करने का निश्चय करके आपने इसे पूरा कर
छोड़ा, हालाँकि हजार बाधाएँ आयीं। बिहार प्रान्तीय किसान सभा की जिन्दगी
सोलह साल से ज्यादा की हो गयी। इस दरम्यान इस सम्मेलन के जलसे बिहार के
प्राय: सभी जिलों में हो चुके। किन्हीं-किन्हीं जिलों में तो ये जलसे कई
बार हुए। मगर आपके झारखण्ड को, जिसमें संथाल परगने को भी मैं शामिल करता
हूँ, ऐसा अवसर कभी न मिला था। यह पहला ही मौका है कि आपने सम्मेलन करने की
हिम्मत की। सो भी ऐसे समय में जब जीवन की सभी जरूरी चीजें दुर्लभ हो रही
हैं और भोजन मिलना भी कठिन है, खासकर आपके इस पहाड़ी इलाके में। इसीलिए आपकी
हिम्मत की प्रशंसा करनी ही पड़ती है। सदा से शोषित, दलित और भयंकर गरीबी के
शिकार इस झारखण्ड के लिए यह बहुत बड़ी बात है-अनहोनी-सी है। इसीलिए हमारा
मस्तक आपके सामने झुक जाता है।
झारखण्ड के निवासी
हमारे दकियानूस समाज ने झारखण्ड के निवासियों के लिए मनुष्य की जिन्दगी
बिताने की कोई चिन्ता नहीं की। प्रत्युत इन्हें विवश किया कि पशुवत् जीवन
गुजारें। ये पढ़ें-लिखें और इन्हें अक्ल आये इसकी फिक्र किसने की? इन्हें
पेट भरने को अन्न और तन ढँकने को वस्त्रा मिले यह किसने सोचा? इनका विकास
हो और सभ्य कहे जाने वाले लोगों के मुकाबले में ये लोग डट सकें, बैठ सकें
यह खयाल किसे हुआ? इनको अपनी भाषा पढ़ाने के स्कूल खुलें जिनमें इनके बच्चे
पढ़ें यह विचार क्या कभी हमारे दिमाग में आया? हिन्दी, बंगला, रोमन और
अंग्रेजी सिखाने की जो धुन लोगों पर सवार थी वही धुन मुंडारी, संथाली आदि
भाषाओं के प्रसार के लिए क्यों न हुई, कौन बतायेगा? लिखना-पढ़ना तो आमतौर से
इनके लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' ठहरा। फिर भी इन पर शासन करने और इन्हें
हुकूमत के शिकंजे में कसकर बाँधने के लिए बनाये गये कानून ठेठ अंग्रेजी में
हैं! यहाँ के निवासी कितने वकील, बैरिस्टर, डॉक्टर और प्रोफेसर बने हैं,
कौन बतायेगा? और अगर उनकी संख्या आज भी नगण्य है तो इसका जिम्मेवार कौन है?
सरकार और समाज यदि दोषी नहीं हैं तो हैं कौन? इन भोले लोगों की भाषा में
कानून की बातें छापकर अगर इन्हें समझाया नहीं जाता तो क्या यह छोटा अपराध
है? यदि इनकी भाषा पढ़ाने की कहीं कोशिश भी होती है तो गैरों के ही अक्षरों
में। इनके अपने अक्षर अब तक बने ही नहीं। इसीलिए कभी रोमन और कभी देवनागरी
या बंगाली अक्षरों का धावा इन पर हुआ करता है। अगर मराठी भाषा की पुस्तकें
देवनागरी में लिखी होने पर भी उसकी अपनी लिपि है, अपने अक्षर हैं जिनमें
पत्र-व्यवहार आदि होते हैं तो झारखण्डियों के भी अपने अक्षर क्यों न होंगे,
क्यों न हो सकेंगे, यह समझ से बाहर की बात है। मगर इसके लिए दूसरों को पड़ी
क्या है?
(शीर्ष पर वापस)
भीषण शोषण
यह सब इसीलिए है कि गैरों को काफी मौके मिलें इनके गहरे शोषण के लिए। यदि
ये जग जायें, इनमें स्वाभिमान पूर्णरूपेण आ जाये और ये अपना हक तथार्
कत्ताव्य अच्छी तरह पहचानने लगें तो दूसरे लोग इनका निर्दय शोषण कैसे कर
पायेंगे? तब मारवाड़ी, साहूकार, वकील, मुख्तार, मिशनरी, धर्मोपदेशक,
जमींदार, सरकारी अफसर इन्हें लूट कैसे सकेंगे? झारखण्ड में लोहे, कोयले और
अबरक के रूप में अपार निधि छिपी पड़ी है। यह भूमि स्वर्ण भण्डार है। जंगलों
की कीमती लकड़ियों और पत्थरों का क्या कहना? घासपात और जड़ी-बूटियों की भी
बात निराली ही है। दरअसल यह भूमि रत्नगर्भा है। फिर भी यहाँ के निवासी
नंग-धड़ंग और दरिद्र हैं। गंगा की मध्यधारा में रहने पर भी ये लोग प्यासे मर
रहे हैं! खूबी तो यह कि बाहरी लोग भारतवर्ष एवं इस झारखण्ड के औद्योगिक
विकास के नाम पर यहाँ से अपार धन ढो रहे हैं। यदि यहाँ के निवासी शिक्षित,
संगठित और हर तरह से तैयार रहते तो यह बात कदापि हो नहीं पाती। यही है अब
तक इन्हें पिछड़े तथा असभ्य बना रखने का रहस्य। और तो और, कोयले काटने और
कारखानों में काम करने-कुलीगिरी करने-वालों को मनुष्य जीवन गुजारने-भर के
लिए भी वेतन ये शोषक लोग नहीं देते। उनके पिट्ठई और दलाल ठेकेदार लोग तो और
भी गजब करते हैं, खासकर इसी बेरमो में। देहातों में जाइये तो पानी पीने के
लिए कुएँ भी नदारद। किसानों को धान के खेतों से या नदी-नालों से ही बरसात
में भी पानी पीना पड़ता है।
(शीर्ष पर वापस)
जंगल के कष्ट
खूँखार जानवरों से घिरे घोर जंगलों के बीच रहने पर भी यहाँ के लोगों को
जंगलात के कानूनों के करते अपार कष्ट भोगने पड़ते हैं। यदि जंगल के छुटभैये
नौकरों की पूजा ये लोग न करें तो नाहक ही इनके मवेशी कानी हौसों में डालकर
इन्हें तबाह किया जाता है। पानी के झरने ज्यादातर रिजर्व जंगलों के भीतर ही
होते हैं जहाँ पानी पिलाने के लिए मवेशियों को ले जाना जरूरी होता है। मगर
जंगल के रक्षक लोग यह बात बर्दाश्त नहीं करते और पशुओं को कानी हौस में
ख़ामखाह डाल देते हैं। यह तो आए दिन की बात है। यह कोई नहीं सोचता कि आखिर
इन्हें और इनके जानवरों को पानी तो पीना ही है और उसे उन झरनों के सिवाय और
कहीं ये पा नहीं सकते। पारसनाथ के पहाड़ की, तली में चालू झरनों पर जब से
अहिंसक जैनी सेठों का अधिकार हुआ तबसे तो गजब हो गया। बिना पैसा दिये न तो
उनके पानी से सिंचाई हो सकती है और न दूसरा काम। कहा जाता है कि सर्वे
खतियान में जो हक किसानों का नहीं है वह कैसे मिले? मगर सर्वे खतियान क्या
इनसे पूछकर बनाया गया था? क्या इन्हें पता भी था कि खतियान क्या बला है, और
उसमें क्या लिखा जा रहा या लिखा गया है? एक ओर तो इन्हें उसकी जानकारी के
योग्य बनाया न गया। दूसरी ओर उन्हीं एकतरफा खतियानों के बलपर इनके सनातन
अधिकार छीने जाते हैं। यह बर्दाश्त के बाहर की चीज है और जितना शीघ्र ऐसे
कागज-पत्र सर्वसम्मति से जला दिये जायें उतना ही है अच्छा।
साल-भर खाने के लिए यहाँ अन्न तो पैदा होता नहीं। सरकार और जमींदार इसकी
कोशिश भी नहीं करते कि आबपाशी वगैरह का प्रबन्धा करके पैदावार काफी बढ़ायी
जाये। ऐसा हालत में जंगली महुवा, गेठी, केना वगैरह खाकर ही यहाँ वालोंको
गुजारा करना पड़ता है। मगर जमींदारों ने उनपर भी रोक लगा रखी है और बिनापैसा
दिये उन फल-फूलों के नजदीक इन लोगों को जाने नहीं देते? यह फौरन खत्म
होनेकी चीज है। जंगल के कानून में नये सुधार होने के कारण काठ-बाँस आदि
लेने में और भी दिक्कतें बढ़ गयी हैं। ऐसी ही हजार कठिनाइयाँ हैं। इसीलिए
बिहार प्रान्तीय किसान सभा ने यहाँ के निवासियों के लिए कुछ चुनी माँगें
पेश की हैं। उनकी पूर्ति अविलम्ब हो जाने से इन्हें कुछ आराम मिल सकता है।
वे माँगें आगे लिखी हैं-
(शीर्ष पर वापस)
झारखण्डी किसानों की खास माँगें
(क) घर-गिरस्ती तथा जीविका चलाने के लिए उन्हें जंगलों और पहाड़ों से फल,
फूल, कंद, मूल, साग, तरकारी, शहद वगैरह रस, पत्थर, बालू, लकड़ी, बाँस, काँट,
कुश, जलावन, पत्तो, घास वगैरह लाने का पूरा अधिकार हो और उसमें कोई रोक-टोक
न कर सके। खेतों या जंगल में लगे महुवा के फूल और फल बेरोक चुनने का उन्हें
हक हो और एतदर्थ उन्हें कुछ भी देना न पड़े।
(ख) किसानों के खेतों या उनकी सीमा पर लगे कुसुम, बेर, पलास, वगैरह पर लाह
लगाने और चुनने का पूरा हक बिना और कुछ दिये किसानों को हो और इसके विपरीत
सर्वे वगैरह में लिखी बातें रद्द कर दी जायें।
(ग) टंग-कर, बन-कर, पत-कर, चुल्ह-कर, खरचरी, भैंसौंधा आदि के नामों से लगे
कर या होनेवाली वसूलियाँ नाजायज करार दे दी जायें।
(घ) किसानों और उनके पशुओं के पीने वगैरह के लिए शुध्द जल का जरूरत के
अनुसार स्थान-स्थान पर कुएँ आदि के जरिये पूरा प्रबन्ध किया जाये। सोते,
झरने आदि जहाँ कहीं भी हों वहाँ उन्हें और उनके पशुओं को बेखटके आने-जाने
की पूरी व्यवस्था कर दी जाये और रास्ता बना दिया जाये।
(ङ) एक-एक करके सभी कानीहौस, अड़गड़े या कैट्ल-पाउण्ड जल्द हटा दिये जायें।
(च) कोड़ कर और उट कर जमीनें तैयार करने का निर्बाध हक किसानों को रहे और इस
बारे में जो भी शर्तें या रोक अब तक हों सभी रद्द कर दी जायें।
(छ) संथाल परगने के दामिन कोह इलाके के पहड़िया किसानों के लिए कुराँव या
झूमचास की पूरी आजादी बराबर कायम रहे और उसमें जो भी रुकावटें हों वे फौरन
उठा ली जायें।
(ज) कोड़ कर और उट कर जमीनों के तैयार हो जाने के कम-से-कम पाँच साल बाद ही
उनका लगान तय हो और वह आसपास की सबसे कमजोर जमीनों के लगान से ज्यादा
हर्गिज न हो। आमतौर से वह आधा ही हो।
(झ) यहाँ का लगान सरकारी मालगुजारी से 30-40 गुना होने के कारण वह बहुत ही
कम कर दिया जाये।
(ञ) यहाँ का काश्तकारी कानून बिहार काश्तकारी कानून जैसा ही हो और उसमें
आदिवासियों के खास लाभ की ही बातें विशेष रूप से जोड़ी जायें। मगर जमींदारों
के लिए कोई भी खास अधिकार न रहे।
(ट) सेवकाई, कमिऔती, कमिया आदि नामों से प्रचलित गुलामी प्रथा का नामोनिशान
सख्ती के साथ मिटा दिया जाये।
(ठ) आदिवासियों और पिछड़े लोगों की अपनी भाषा में उनको शिक्षित करने के लिए
स्कूल वगैरह खोले जायें और हर तरह की ऊँची शिक्षा मुफ्त देने का प्रबन्धा
किया जाये।
(ड) आदिवासियों एवं पिछड़े लोगों की भाषा तथा रस्मोंरिवाजों के जानकार हाकिम
ही उनके केसों का फैसला करें ऐसी व्यवस्था की जाय और कचहरियों में काम
करनेवाले वकील-मुख्तार आदि पर ऐसा नियन्त्रण रखा जाये कि वे उन्हें किसी
तरह की गड़बड़ी में न डाल सकें।
(ढ) इनके लिए जो कानून या व्यवस्था बने उसका मुस्तैदी के साथ उनमें बखूबी
प्रचार करके उन्हें अच्छी तरह समझाने का प्रबन्धा हो।
(ण) अबरक को चुन तथा खोद-निकालकर जीविका करनेवाले ग्रामवासियों के रास्ते
की सभी रुकावटें फौरन हटा ली जायें और कोयले की खानों के ऊपर की जमीनों की
खेती-बारी में होनेवाली किसानों की सभी दिक्कतें दूर कर दी जायें।
(त) एक से ज्यादा जुडिशियल कमिश्नर मुकर्रर किये जायें ताकि मुकदमों के
फैसले में ज्यादा देर न हो।
(शीर्ष पर वापस)
मजदूरों की बात
आगे बढ़ने से पहले हम यहाँ के कारखानों और खानों में काम करनेवाले मजदूरों
के बारे में भी दो-चार शब्द कह देना चाहते हैं। ये मजदूर बहुत ही शोषित और
पीड़ित हैं। न तो इनके रहने का ठिकाना है और न खाने का। खानों के मालिक और
ठेकेदार इन्हें नर्क की जिन्दगी गुजारने के लिए विवश करते हैं। गिरिडीह,
बेरमो, तातानगर, झरिया सर्वत्र एक ही बात है। एक तो वेतन कम है। फिर हजार
बहानेबाजी करके उसमें कटौती की जाती है। ओवर टाइम काम के लिए मजदूरों को हर
तरह से विवश किया जाता है। महँगाई के भत्तो को जैसे-तैसे करके मैनेजर और
ठेकेदार हड़प लेते हैं। कहते हैं कि ग्रेन शॉप में अब कम तौला जाता है।
दुकान पर भीड़ इतनी होती है कि कोई ले नहीं सकता। मजदूर परेशान हो जाते हैं।
तेल, साबुन और चीनी का तो मिलना ही कठिन है। पानी की भी दिक्कत होती है।
क्योंकि काफी नलों और टंकियों का प्रबन्धा नहीं रहता। हमेशा कोशिश यही रहती
है कि सस्ते मजदूर भर्ती किये जायें। प्रतिदिन चार-छ: आना देकर भी इस महँगी
के जमाने में काम करवाने का यत्न होता ही रहता है। ऐसी ही हजारों मुसीबतें
हैं।
उनके दूर करने का एक ही उपाय है कि मजदूरों की यूनियनें स्थान-स्थान पर
बनें, उनमें हरेक मजदूर अवश्य शरीक हो और मेम्बर बनें और इस तरह यूनियनें
खूब मजबूत बनायी जायें। जो यूनियन पहले से बनी है वह मजदूरों का गढ़ है,
किला है। उनकार् कत्ताव्य है कि उसे अभेद्य, अच्छेद्य बनायें और उसके हुक्म
पर मर-मिटने को तैयार हों। मजदूरों और किसानों का एक ही बल है और वह है
उनकी अपार संख्या। यदि एक सूत्र में बँधकर काम करें तभी वह संख्या उन्हें
सभी कष्टों से मुक्ति दिलायेगी। इसलिए हमेशा ही 'दुनिया के किसान मजदूरो एक
हो जाओ' का नारा उन्हें बुलन्द करना होगा और उसी के अनुसार अमल करना होगा।
(शीर्ष पर वापस)
जमींदारों की होली
मगर यह बात नहीं है कि सिर्फ झारखण्डी किसान ही कष्ट में हैं। किसानों की
सर्वत्र एक ही दशा है और सभी दुखिया हैं। खासकर बिहार के हर जिले के किसान
बेहद पामाल और परेशान हैं। जमींदारों ने इन्हें कसकर बेरहमी से लूटा है और
वह लूट बराबर जारी है। ये जमींदार किसानों की जान, माल और इज्जत के साथ
बराबर होली खेलते रहे हैं। बेशक सन् 1942 ई. के अगस्त के बाद यह होली भीषण
हो गयी है। इसमें सबूत की जरूरत नहीं है। कोई भी निष्पक्ष और सहृदय आदमी
गाँवों में जाकर तथा ये शर्मनाक और दर्दनाक बातें जानकर अपना कलेजा मसोस
देगा। अगर ये जमींदार किसानों को भी इनसान समझते तो यह बात न होती। मगर
उनकी नजरों में-नहीं, नहीं उनके मामूली-से-मामूली अमलों की नजरों में भी-ये
किसान कीड़े-मकौड़ों से भी गये-गुजरे हैं। इनमें भी तथाकथित छोटी कौम के
किसानों का तो कुछ कहिये मत। उनकी तो सारी कमाई लूट ही ली जाती है हजार
बहाने करके। हरी, बेगारी, दूध, दही, तरकारी, पाठी, पाठा के रूप में उनका
खून बराबर ही नश्तर के जरिये निकाला जाता है। फिर वे सर उठायें तो कैसे?
मगर पाप का घड़ा भर चुका है और ये किसान एक दिन ख़ामखाह जमकर सर उठायेंगे, सो
भी जल्दी ही। फिर तो जालिमों की ऍंतड़ी ही सूख जायेगी याद रहे। दुनिया का
इतिहास यही बताता है। फ्रांस और रूस में ऐसा ही हुआ है। सोलहवें लुई और जार
निकोलस को देवता तथा खुदा की तरह माननेवाले किसान-मजदूर ही उनके खून के
प्यासे बन गये! क्यों? इसी निर्दय शोषण से ऊबकर ही तो? और वही शोषण यहाँ भी
चालू है।
(शीर्ष पर वापस)
जमींदारी का ख़ात्मा
निराशा की काली घटा के बीच आशा की किरण झलक रही है और वह यह है कि अब सबों
ने मान लिया है कि जमींदारी प्रथा हमारे देश के लिए भारी अभिशाप है, बला
है, प्लेग है, महामारी है, टी.बी. है और न जाने और क्या-क्या है। यह बात
घुमा-फिरा कर, तथा सीधो भी, अंग्रेज बोलते हैं। गाँधीजी बोलते हैं,
कारखानेदार बोलते हैं और कांग्रेस भी बोलती है। एक समय था, जब हम किसान सभा
वाले ही 'जमींदारी प्रथा नष्ट हो' का नारा लगाते थे, जिससे हमारे नेतागण
चिढ़ते थे और जमींदार मुँह बना देते थे। इस बात का मखौल उड़ाया जाता था कि ये
लोग जमींदारी मिटाने चले हैं! मगर आज तो हवा ही बदल गई है। सभी लोग इस पाप
से मुल्क का पिण्ड जल्द छुड़ाना चाहते हैं। यह हमारी और किसानों की बहुत बड़ी
जीत है। ऐसा कहने सोचनेवाले मानने लगे हैं कि यदि यह जमींदारी कलम की नोक
से न मिटायी गयी तो तलवार की नोक से मिटायी जायेगी जरूर।
(शीर्ष पर वापस)
सर्वसोखन सिंह
जमींदारों को मैं सर्वसोखन सिंह और कुम्भकर्ण कहा करता हूँ (क्योंकि उनका
पेट कभी भरता ही नहीं, चाहे जितना भी मिले। मगर जमींदार इससे चिढ़ते हैं।
मैं उनसे अदब से कहूँगा कि वे और खासकर इस झारखण्ड के जमींदार बिहार सरकार
की सन् 1930-31 वाली रिपोर्ट पढ़ें जिसके 80वें पृष्ठ में लिखा है कि
'छोटानागपुर के जमींदार प्रतिवर्ग मील सिर्फ सात ही रुपये सरकार को
मालगुजारी देते हैं।' ‘but in Chota Nagpur, where the permanently-settled
estates cover 24000 square miles, the revenue is only Rs. 7 to the
square mile?’ क्या गजब है! इन जमींदारों ने इस स्वर्णमयी भूमि के पूरे
चौबीस हजार वर्गमील पर दखल जमा रखा है और अबरक, कोयला, लोहा, पहाड़, जंगल से
करोड़ों रुपये नोचते हैं। मगर सरकार को देते हैं मुश्किल से केवल डेढ़ लाख के
करीब! फिर भी ये यदि सर्वसोखन सिंह और कुम्भकर्ण नहीं हैं, तो आखिर हैं
क्या? खुशी की बात यही है कि इनकी यह लूट जल्द मिटने को है, जमींदारी जल्द
ही मिट जाने को है।
(शीर्ष पर वापस)
मुआवजा देकर?
कहा जाता है कि कीमत या मुआवजा देकर ही इस जमींदारी को मिटाया जायेगा।
अच्छी बात है। मिटाया जाये। मगर हमारी तो बुध्दि में यह बात आती ही नहीं कि
यह कैसे सम्भव है। अब तक इस मसले पर जिनने विचार किया है उनकी बातें हमने
जानने की भरपूर कोशिश की है। उससे हम इसी नतीजे पर पहुँचे हैं कि ऐसा करने
में पचासों साल-हाँ, पचासों साल-लगेंगे। 'जमींदारी का खात्मा कैसे हो'
पुस्तिका में, जो हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में छपी है, हमने यह
बात दिखायी है। खूबी तो यह कि उसके लिए पच्चीसों अरब रुपये चाहिए। तभी
समस्त भारत से यह जमींदारी की बला भागेगी। और इतने रुपये ऋण लेकर यह काम
करने में शिक्षा, स्वास्थ्य सुधार आदि की सारी योजनाएँ योंही पड़ी रह
जायेंगी। जिन लोगों ने इसकी तह में घुसकर विचारा है हम उन्हीं की राय बता
रहे हैं, न कि अपनी। हमारा अनुरोध है कि जमींदारी मिटाने के प्रेमी सज्जन
हमारी वह पुस्तिका प्रान्तीय किसान सभा के ऑफिस, कदमकुऑं, पटना से छह आने
में खरीद कर जरूर पढ़ें। हम मानते हैं कि बिना मुआवजा दिये कानून के जरिये
जमींदारी मिटायी नहीं जा सकती है। यह विकट समस्या है जरूर। मगर इसका सीधा
और आसान रास्ता हमने उसी पुस्तिका में सुझाया है। हालाँकि हम तो जमींदारी
के लिए एक पैसा भी मुआवजा देना पाप मानते हैं। किसान ही जमीन के असली मालिक
हैं। उन्हीं के हाथ में जमीन थी। लार्ड कार्नवालिस ने ब्रिटिश सत्ता और
कारोबार को मजबूत करने के लिए जमींदारों का वर्ग पैदा किया और किसानों की
जमीन बेरहमी से छीनकर उन्हें दे दी। न्याय का तकाजा है कि हम भी मौका पाते
ही फिर उसे छीन लें। यदि उन्हें मुआवजा दें तो अंग्रेजों को भी अपनी सल्तनत
यहाँ से हटाने के लिए मुआवजा क्यों न दें? अगर जमींदारों ने लगातार डेढ़ सौ
साल तक किसानों की जमीनों पर बलात् कब्जा रखा है तो अंग्रेजों ने हमारे देश
पर दो सौ साल तक जबर्दस्ती अधिकार रखा है। इसलिए कीमत और मुआवजे की बात
वाहियात है।
(शीर्ष पर वापस)
बकाश्त संघर्ष
चाहे जमींदारी मिटे या न मिटे और चाहे इसमें कितनी ही देर क्यों न हो। मगर
एक बात बड़ी तेजी से हो रही है और होकर रहेगी। जिन जमीनों पर किसानों के दखल
कब्जे का कागजी सबूत नहीं है उन्हें बड़ी तेजी से ये जमींदार छीनने लगे हैं।
शिकमी और बकाश्त जमीनों के सम्बन्धा में यह बात हो रही है और इसकी खबरें
चारों ओर से आ रही हैं। अभी-अभी गया जिले के हसुवा थाने के सिनुवारी मौजे
में जो एकाएक किसान-जमींदार संघर्ष छिड़ गया है और जिसकी खबर हमें पीछे से
लगी, उसका भी यही रहस्य है। बंगाल के फ्राउड कमीशन ने जमींदारी मिटाने का
प्रश्न तेजी से छिड़ने पर इस बात का होना लाजिमी बताया है कि बटाईदारी की
जमीनें छीन ली जायेंगी। इसलिए यह कोई नयी बात नहीं है। जमींदारी मिटाने का
अर्थ यही है कि जो जमीन जमींदार खुद नहीं जोतता वह उससे छिन जायेगी। इसीलिए
शिकमी और बकाश्त जमीनों के बारे में जमींदारों की कोशिश है और होगी कि वह
किसानों से निकल जाये फलत: बकाश्त संघर्ष बड़ी तेजी से छिड़ेंगे, चाहे हम
उनके कितने विरोधी हों। आखिर किसान जमीनें छोड़ दें तो जायें कहाँ और खायें
क्या? कांग्रेस नेताओं और मन्त्रिायों को यह ठोस सत्य मद्देनजर रखकर ही कुछ
कहना-करना होगा। केवल किसान सभा को बदनाम कर देने से काम न चलेगा। बदनाम
करने से तो अच्छा है कि वह जमीनों की छीना-झपटी के रोकने का उपाय समय से
पहले कर दें। सभा ऐसा कर रही है या किसान नाजायज कर रहे हैं, ऐसा
कहने-मानने से पहले जरा ये नेता और मंत्रीगण सोच तो लें कि ऐसी परिस्थिति
में यदि वे खुद किसान होते और उनकी जमीन छीनी जाने लगती, जिससे पूरे खानदान
को फाके की नौबत आती, तो क्या करते? बकाश्त जमीनों पर सपरिवार जा डटते और
संघर्ष छेड़ते या नहीं? यदि यही प्रश्न हम सबों की ऑंखों के सामने नाचता रहे
तो इस मामले में किसानों या किसान सभा को कोसने से लोग बाज तो जरूर ही
आयें। किसान सभा के बारे में हम साफ कह देते हैं कि वह लुका-चोरी खेलना
नहीं जानती। वह तो जब इसमें पड़ती है, तो ताल ठोंक कर। आज जो कुछ जमींदार कर
रहे हैं यदि वह रोका न गया तो हमें और सभा को इसमें मजबूरन पड़ना ही होगा।
क्योंकि हम किसानों को रही-सही जमीनों की बेदखली और जमींदारों की ज्यादती
देखकर ऑंखें मूँद नहीं सकते और न किसानों को दर-दर के भिखारी और डाकू चोर
बनने दे सकते हैं। जमीनें छिन जाने पर आखिर वे और करेंगे ही क्या?
(शीर्ष पर वापस)
काश्तकारी कानून की काया पलट
आज काश्तकारी कानून की हालत यह है कि किसान विवश हैं और जमींदार मनमानी
घरजानी करते हैं। किसान कुछ कर नहीं सकते। खासकर भावली के किसान तो लुट
जाते हैं। जो जमीनें रेहन में किसी महाजन को देते हैं वे उनसे आखिरकार
प्राय: छिन ही जाती हैं। दफा 69 से भावली वालों को जरा भी रक्षा नहीं होती।
यह रोज का अनुभव है। दफा 171 के अनुसार महाजन खेत की पैदावार भी खाता है और
उसका पावना किसान के मत्थे सूद के साथ बढ़ता जाता है। यदि खड़ी फसल को
जमींदार खेत या खलिहान में ही सड़ा डाले तो किसान कुछ कर नहीं सकता। इसी तरह
की हजार दिक्कतें हैं। इसलिए कांग्रेस मंत्री और सरकार उसकी कायापलट कर
डालें, सो भी जल्द से जल्द। तभी खैरियत है। एतदर्थ कानून का नया मसौदा ऐसे
वकीलों की एक कमिटी के पास भेजा जाना जरूरी है जिनने किसानों की दृष्टि से
इस कानून की बुराइयों को अच्छी तरह देखा है। वह कमिटी जो राय दे उसी के
अनुसार कानून बनना चाहिए। मगर हर हालत में भावली को कानूनन नाजायज करार
देना ही होगा। हमारा यह भी पक्का विचार है कि समस्त बिहार के लिए अब एक ही
काश्तकारी कानून चाहिए। उसी में झारखण्डी किसानों के लिए कुछ आवश्यक बातें
दी जायें जिससे उनकी विशेष रक्षा हो सके।
(शीर्ष पर वापस)
ऊख की कीमत
बिहार में धीरे-धीरे चीनी की मिलें बन्द होने लगी हैं। एक-दो बन्द हो चुकी
हैं। एकाध मरण शय्या पर पड़ी ऊधर्व साँस ले रही हैं। चीनी की पैदावार क्रमश:
घट रही है। इसीलिए कि काफी ऊख मिलों को नहीं मिलती। क्योंकि आज
जब गल्ले की घोर महँगी है ऊख की कीमत फी मन दो रुपये से कम नहीं
चाहती थी। मगर सरकार ने एक रुपया भी नहीं रखा और उसमें भी दो आने मन की
कटौती करने की नादानी की थी। नतीजा सामने आया। किसान सभा यही बात बराबर
रटती थी। पर सुने कौन? खैर कांग्रेसी सरकार इस भारी भूल को सुधारे, ऊख का
दाम दो रुपये नयी फसल बोने के पहले ही घोषित करे और एक कमिटी बनाकर उसके
सामने यह प्रश्न रखे कि वह हमेशा ऊख की कीमत वैज्ञानिक ढंग से तय की जाने
का आधार बताये। मनमाने ढंग से दाम रखना खतरनाक है। वह कमिटी ऐसी हो जिसमें
किसान सभा का विश्वास हो और जिसमें उसके प्रतिनिधिहों।
मंत्रीमिशन की घोषणा
इंग्लैण्ड से भारत में पधारे मंत्रीमिशन पर हमारा कभी विश्वास नहीं रहा है
और न है। हम मानते हैं कि आजादी छीनी जाती है, लड़कर वापस ली जाती है। न कि
किसी की दया, नेकनीयती और दूरअंदेशी से मिलती है। राजनीति में नेकनीयती और
ईमानदारी को स्थान नहीं है, यह कटुसत्य हम जितना शीघ्र मान लें उतना ही
अच्छा। इसलिए हम मानते हैं कि ब्रिटिश मन्त्रियों की घोषणा के जाल से बचने
में ही भारत का कल्याण है। घोषणा का जो अन्तिम रूप गत 16वीं जून को हमारे
सामने आया है वह तो कांग्रेस की फाँसी और मिस्टर जिन्ना की गद्दी है। यह
हमारी पक्की धारणा है। हमने निहायत ही गौर से सारी बातें शुरू से आजतक पढ़ीं
और विचारी हैं। हम इसी नतीजे पर पहुँचे हैं कि बिना लड़े कुछ होने-जाने का
नहीं, हमारे प्रभु हमें कुछ दे नहीं सकते-'सूच्यग्र नैव दातव्यं विना
युध्देन केशव'। अत: हमें उसी की तैयारी अभी से करनी है। आशा है हमारे
राष्ट्रीय नेता इस भारी धोखे से बचेंगे और हमें ठीक राह दिखायेंगे।
कांग्रेस बड़ी है, महान है और वह हमेशा ही ऐसी ही रहेगी, ऐसी हमारी धारणा
है।
किसान सभा
किसान सभा एक है, अखण्ड है। यह किसानों का किला है। इसे हर तरह से तन, मन,
धन से दृढ़ बनाना हर किसान का पहला और पवित्र कर्तव्य है। हर बालिग स्त्री
पुरुष एक आना पैसा देकर इसका सदस्य बने, गाँवों से लेकर जिले और प्रान्त तक
इसकी शृंखला कायम करके खुद उसी शृंखला में बँध जाये और इस तरह इसे अजेय और
अभेद्य बना छोड़े। युवक, स्त्री, पुरुष, किसान, सेवक दल में लाखों की तादाद
में भर्ती हों और किसान-कोष में अन्न-धन के रूप में अपार निधि जमा करें।
फिर वे देखेंगे कि किसान-मजदूर राज्य शीघ्र ही कायम हो जायेगा, पंचायती
राज्य स्थापित हो जायेगा, शोषण मिट जायेगा और इनकिलाब हो जायेगा, क्रान्ति
हो जायेगी।
इनकिलाब जिन्दाबाद! किसान सभा जिन्दाबाद! जय हिन्द!
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