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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

खंड-6

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

2.गया जिले के किसानों की करुण कहानी

मुख्य सूची खंड-1 खंड-2 खंड-3 खंड-4 खंड-5 खंड-6

    सम्पादक की टिप्पणी
1.कुदरती और कानूनी कारण
2.गैर-कानूनी कारण
3.सत्यानाशी भावली
4.काश्तकारी कानून
5.परिणाम

1. मझियावाँ, 2. धानगाँवाँ, 3.अलगान, 4. परसावाँ, 5. बेनीपुर,

6. लखाउर, 7. सन्दासहबाउन, 8.कल्पा, गोनसा, 9.पुरानी, 10.सरौती, 11 इटवा, 12.राजख़रसा, 13 बाघे 14.लोदीपुर, 15 महाल केयाल, 16.मझियावाँ, 17 इक्किल,

6. खास महाल,
7. हमारा कर्तव्य,
8. परिशिष्ट,

सम्पादक की टिप्पणी

1933 की गर्मियों के बीतते न बीतते प्रान्तीय किसान सभा की कार्यकारिणी की बैठक पटना में हुई। उसमें तय पाया गया कि किसानों के दु:ख-दर्द की पूरी जाँच करके उसकी रिपोर्ट किसान सभा छपवाये। यह रिपोर्ट स्वामी सहजानन्द, पण्डित यदुनन्दन शर्मा मंझियावाँ एवं यमुना कार्यी पूसा द्वारा संयुक्तरूप से गया जिला का विस्तृत दौरा एवं जमीनी अध्ययन करे तैयार की गयी। इसमें डॉ. युगलकिशोर भी सहायता करते रहे। 15 जुलाई 1933 से जाँच शुरू की गयी और करीब 45 अत्याचारों की फिहरिस्त बनायी गयी। इसमें किसानों की जर्जर दशा, गैर-कानूनी वसूलियों का जिक्र तो है ही किसानों के जल्द जग पड़ने की उम्मीद भी है केवल जगाने वाले की प्रतीक्षा हो रही है...। अब समझौते से शायद काम न चलेगा। यह भावी किसान विस्फोट की भी तैयारी की कहानी है। यह पुस्तिका मध्य बिहार की तत्कालीन भौतिक परिस्थिति और भावी किसान विस्फोट को समझने की महत्त्वपूर्ण कुंजी है।

1.कुदरती और कानूनी कारण

1. गया जिले के किसानों की तकलीफों के बारे में कुछ भी लिखने और कहने से पहले वहाँ की हालत जान लेना जरूरी है। यों तो उड़ीसा को छोड़ करे भी खास बिहार के कई विभाग हैं। पटना, तिरहुत और भागलपुर कमिश्नरियों के 11 जिलों में सन्थाल परगना को छोड़ बाकी 10 जिलों की कानूनी व्यवस्था एक सी है। हजारीबाग वगैरह छोटानागपुर के 5 जिलों की हालत कानून के ख्याल से दूसरी ही है। पटना वगैरह में काश्तकारी कानून एक तरह का है और उन जिलों में दूसरी तरह का है। दूसरे कानून भी ऐसे ही हैं, क्योंकि ये जिले पिछड़े हुए माने जाते हैं और सन्थाल परगने का कानून तो सभी से निराला है। इस प्रकार कानूनी तथा जमीन की कटौती की दृष्टि से बिहार के तीन टुकड़े हो जाते हैं क्योंकि छोटानागपुर का हिस्सा जंगली और पहाड़ी है।

2. लेकिन पटना वगैरह दस जिलों के भी दो विभाग आसानी से किये जा सकते हैं जिन्हें उत्तरी और दक्षिणी के नाम से कह सकते हैं। शाहबाद, पटना, गया और मुंगेर तथा भागलपुर के कुछ हिस्से दक्षिणी हिस्से और शेष सारन, चम्पारन आदि उत्तरी में हैं। जहाँ तक किसानों की हालत से सम्बन्ध है दक्षिणी हिस्सा उत्तरी से करीब-करीब एकदम निराला है खास करे पटना, गया और मुंगेर का दक्षिणी हिस्सा कारण, यहाँ के किसानों की दशा और इनके प्रति जमींदारों के बर्ताव के साथ ही जमीन के लगान की प्रणाली भी निराली सी है। जहाँ उत्तर बिहार में ज्यादातर जमीन खूब पैदावार-यह बात भूकम्प से पहले की है। लेकिन अनेक अंशों में ठीक ही है- होने के साथ ही अपेक्षाकृत फी बीघा कम लगान पर किसानों के साथ बन्दोबस्त की गयी है और वह लगान भी प्राय: 95 फी सदी से अधिक नगदी है वहाँ दक्षिण बिहार के गया वगैरह जिलों में एक तो जमीन वैसी उपजाऊ नहीं है, दूसरे इसकी मालगुजारी फी बीघा किसानों को बहुत ज्यादा देनी पड़ती है। लेकिन सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ की 90 फीसदी जमीन भावली है, जिसका सीधा अर्थ यह है कि किसानों को खेत की पैदावार के रूप में ही लगान देना पड़ता है। लेकिन अगर इतना ही होता तो एक बात थी कागज में लिखने और कहने के लिए तो लगान पैदावार के रूप में है। मगर असल में जमींदार लोग किसानों से लेते हैं उस पैदावार के बदले रुपये ही। यह एक और वजह है और इससे बेचारे किसान बुरी तरह पिस जाते हैं।...यहाँ पर इतना ही जान लेना काफी होगा कि यह नगदी-Cash- और भावली-Kind-वाला जबर्दस्त फर्क उत्तर और दक्षिण बिहार में है। इसके साथ ही जब हम लोग इस बात पर भी विचार करते हैं कि जहाँ उत्तर बिहार में हरा-भरा और अपेक्षाकृत अधिक ठण्डा है वहाँ दक्षिण बिहार उजाड़ सा और गर्म खास करे पटना, गया वगैरह की हालात का अन्दाजा तो अच्छी तरह लग जाता है।

3. पैदावार पर भी यदि विचार करें तो गया, पटना वगैरह की गिरी दशा और अबतरी का पता आसानी से लग सकता है। यद्यपि धान वगैरह की फसल उत्तर और दक्षिण बिहार दोनों ही में होती है तथापि ऊख की खेती दक्षिण की अपेक्षा उत्तर में कहीं ज्यादा होती है। इसीलिए चीनी की मिलें भी उधर पहले से ही बहुत ज्यादा खुली हैं और खुलती जा रही हैं। बिहार में अब तक जो 31 मिलें खुल चुकी हैं उनमें केवल पाँच ही दक्षिण में हैं, सो भी केवल एक को छोड़ करे प्राय: सभी गत वर्ष में ही चालू हुई हैं और जो पहले की एक है, सो भी बहुत ही छोटी। साथ ही जहाँ उत्तर बिहार में बिना सिंचाई और आबपाशी के ही ऊख पैदा होती है तहाँ दक्षिण बिहार में किसान सींचते-सींचते मर जाते हैं। फिर भी गया वगैरह में वैसी ऊख नहीं होती, जैसी उत्तर बिहार में। लेकिन सिर्फ ऊख की ही बात नहीं है। लाल मिर्च, तमाखू और हल्दी वगैरह की खेती भी उत्तर में बहुत होती है। और ऊख के सिवाय ये चीजें ऐसी हैं जिनसे किसानों को जमींदार का लगान, महाजन का कर्ज और सूद तथा चौकीदारी टैक्स वगैरह देने के लिए नगद रुपये मिल जाते हैं जिनसे विवाह, शादी, मुकदमे और जीवन मरण के खर्च की भी सम्भाल मौके बमौके होती रहती है। लेकिन दक्षिण बिहार के गया वगैरह जिलों में इन वस्तुओं की खेती होती ही नहीं। नतीजा यह होता है कि गया, पटने के किसानों को खाने की ही, धान गेहूँ आदि चीजों, को भी आज कल मिट्टी के मोल बेचकरे सब काम करना पड़ता है और कहीं-कहीं ऊख की खेती से भी उन्हें थोड़ा बहुत सहारा मिल जाता है। यही कारण है कि गया के किसानों की गरीबी स्थायी है, इनका पेट कभी भरता ही नहीं। इन्हें खेसारी का सत्तू भी शायद ही सालभर खाने को मिलता हो।

4. उत्तर बिहार के चम्पारण, मुजफ्फ़रपुर आदि जिलों में जिस किसान परिवार के पास 4-5 बीघा भी जमीन होती है वह अपने को सुखी मानता है, बशर्ते कि वह परिवार छोटा यानी 4-5 प्राणियों का हो। इसका एक कारण तो यही है कि जमीन खूब पैदावार है जिसमें 25-30 मन धान के सिवाय 10-12 मन खेसारी भी फी बीघा होती है। वह जमीन आमतौर से ऐसी है कि उसमें कभी दो और कभी तीन फसलें भी हो जाती हैं। मिर्चाई, ऊख, तम्बाखू आदि का तो कहना ही क्या? लेकिन गया, पटना में यह बात नहीं है। धान वगैरह भी 20-25 मन तो शायद ही कहीं पैदा होते हैं। आमतौर से यदि 10-12 मन भी बीघे में पैदा हो गये तो गनीमत समझिये। सब खेतों की औसत पैदावार तो 5-6 मन फी बीघा से शायद ही ज्यादा कहीं होती हो। इसके साथ ही गया के बीघे से उत्तर बिहार का बीघा कहीं बड़ा है। साधारणत: सवाया और कहीं-कहीं डयोढ़ा भी है। वहाँ का लगान भी 2-3 रुपये फी बीघे से लेकरे 7-8 रुपये तक फी बीघा पाया जाता है। कहीं-कहीं ज्यादा भी है। यहाँ तक कि 40 से लेकरे 60 रुपये तक फी बीघा है, लेकिन यह बात बहुत ही कम जगहों में सो भी बहुत कम खेतों की है-ऐसे खेतों की है जो या तो आबादी और डीह के हैं या जिनमें मिर्चाई वगैरह चीजें पैदा होती हैं। लेकिन गया, पटना की मालगुजारी आमतौर से 8-10 रुपये फी बीघे से कम नहीं है और 14-15 रुपये तक भी बहुत ज्यादा गाँवों की है। इसके साथ ही जब उत्तर बिहार के बड़े बीघे का मिलान गया के छोटे-बीघे के साथ करते हैं तब पता लग जाता है कि गया की फी बीघा मालगुजारी कितनी कड़ी और बेहिसाब है, जो गरीब किसानों की कमजोर कमरों को तोड़ चुकी और तोड़ रही है।

5. इस सम्बन्ध में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है। पहले ही कह चुके हैं कि गया, पटने में 90 फी सदी जमीन भावली है। इस भावली का कुछ हिस्सा कई कारणों से जिनका वर्णन आगे मिलेगा, आज से कई वर्ष पहले जबकि गल्ला महँगा बिकता था, नगदी करवाया गया था। यह नगदी कुछ तो जमींदारों और किसानों की अपनी-अपनी इच्छा से काश्तकारी कानून की 40 वीं धारा के अनुसार हुई थी और कुछ किसी कारण विशेष से दोनों की रजामन्दी से हुई थी। इन दोनों ही हालतों में जो नगदी हुई थी वह बाकायदा लिखा-पढ़ी और अदालती तरीके पर हुई थी। लेकिन एक तीसरा तरीका भी हुआ जिसमें जबर्दस्त जमींदार ने सीधे-सादे किसान को उलटा-सीधा समझाकरे रवानगी तौर से ही नगदी कबूल करवाई थी। हर हालत में यह नगदी बहुत ही अखरनेवाली है। क्योंकि जब गल्ला महँगा-खूब महँगा था तभी यह की गयी थी और आज इस गल्ले की आधी भी कीमत नहीं रह गयी है। यही कारण है कि इस नगदी के बोझ से आज गया के किसान-अधिकांश किसान-बहुत ही बुरी तरह कराह रहे हैं और अपने तथा जमींदारों के कर्मों को हृदय से उठते-बैठते कोस रहे हैं। उन्हें चारों ओर अन्धेरा ही अन्धेरा दीखता है।

6. इस सम्बन्ध में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है। गया जिले में ज्यादातर धान और कुछ-कुछ रब्बी की फसल होती है। जमीन की हालत यह है कि उसका दक्षिणी हिस्सा पहाड़ी होने के कारण वहाँ से बहुत सी नदियाँ और नाले समूचे जिले में फैले हैं। इसके सिवाय सोन नदी जो बहुत दिनों से अपनी धार बराबर बदलती रही है उससे उसकी ही पुरानी धार की जगह छोटे-छोटे नाले बन गये हैं। ऐसी दशा में वर्षा में यद्यपि आबपाशी की आसानी हो जाती है, खास करे धान उपजाने वाले उस जिले में...तथापि यह प्रबन्ध किसानों से हो नहीं सकता। इसका सारा भार जमींदारों पर ही है। न जाने किस विचार से जमींदारों ने यह काम बहुत पहले से ही अपने हाथ में ले रखा है और इसका प्रबन्ध बराबर वही करते आये हैं, यहाँ तक कि गाँवों में पानी पीने और ऊँची जमीन की आबादी के सिंचाई के लिए कुओं का प्रबन्ध भी वही करते आये हैं। हर गाँव में पानी का खजाना-आहर-बनाने और खेतों के बड़े-बड़े चकलों को चारों ओर से मिट्टी की ऊँची मेंड़ बनाकरे घेर देने का काम भी उन्हीं का रहा है जिससे धान की पैदावार में बड़ी आसानी और सुविधा होती थी। बेशक उससे पैदावार तो होती थी बहुत ही अच्छी, लेकिन इस प्रथा ने किसानों को बिल्कुल ही परमुखापेक्षी और निकम्मा बना दिया है। वे स्वावलम्बन का भाव एकबारगी भूल गये हैं। नतीजा यह है कि वर्षा खूब हुई तो धान हुआ, नहीं तो चौपट क्योंकि जमींदार लोग उन्हें आबपाशी के मामले में बेकार, नामर्द और पराधीन बनाकरे स्वयं भी उस काम से विमुख हो गये हैं। उन्हें इस बात की अब कतई परवाहह भी नहीं है कि खजाने में पानी रहने का प्रबन्ध है या नहीं है और बाँधॊ तथा चकलों पर मिट्टी दी गयी है या नहीं। उनकी यह लापरवाही भी केवल इसीलिए है कि एक तो महँगी के जमाने में भावली जमीन को नगदी करवा के अच्छी पैदावार की चिन्ता से वे लोग अलग हो गये हैं, कारण, अब तो गल्ले की बाँट करानी है नहीं कि आबपाशी की फिक्र करें। दूसरे जहाँ भावली है वहाँ भी जाली दानाबन्दी का कागज-खसरा-तैयार करके 5 मन की जगह 10 और 15 मन वसूल करे ही लेते हैं और यदि किसान नहीं देता तो अदालतों के द्वार बन्द थोड़े ही हैं। नालिश, डिग्री और नीलाम करवा के बकाश्त बनाने को कौन रोकता है, यदि डिग्री होने पर भी रैयत न दे सका। नतीजा यह है कि न तो आहर का पता है और न बाँध, छलका या पुल का और न कहीं मिट्टी डाली जाती है। यहाँ तक कि पुराने कुएँ भी गिर गये, गिर रहे हैं और गाँवों में पीने का पानी भी दुर्लभ हो रहा है। डीह की जमीन में साग तरकारी वगैरह पैदा करे के जो किसान जीविका करता था उसका रास्ता ही बन्द है।

7. आबपाशी के ही सिलसिले में यह बात भी याद रखने की है कि गया जिले का पश्चिमी हिस्सा जो सोन के निकट पड़ता है वह सोन की नहरों से सींचा जाता है। निसन्देह इन नहरों के करते इधर 40-50 वर्षों के भीतर बहुत सी रद्दी जमीन आबाद हो गयी है और इससे किसानों को बहुत कुछ फायदा हुआ है। अच्छी जमीन की आबादी में भी आसानी हुई है। लेकिन जहाँ नहर का रेट शुरू में फी बीघा केवल दस आना था, वहाँ आज पूरे पचास आना यानी पाँच गुना हो गया है। क्या यह उचित है? क्या पैदावार पाँच गुनी हो गयी है? आज से 4-5 वर्ष पहले जब महँगी का जमाना था यह रेट किसी प्रकार बर्दाश्त भी हो सकता था, लेकिन आज जब एक मन धान एक या सवा रुपये में बिकता है, जहाँ पहले ढाई तीन रुपये में बिकता था तो क्या यह 50 आना रेट उचित है? इसका आधा यानी पचीस आना फी बीघा तो कमी हो जाना चाहता था। लेकिन अभी तक बिहार सरकार टस से मस न हुई, हालाँकि आन्दोलन कभी से हो रहा है। इसी के साथ एक बात और है। ऊख की आबपाशी के लिए सभी जगह फी पानी पचीस आना लगता था और किसान जरूरत के अनुसार एक या दो पानी लेकरे काम चलाता था। मगर अब नहर विभाग ने नियम करे दिया है कि चाहे एक पानी लो, या अनेक, एक ही साथ 75 आना देना होगा। उधर गुड़ कोई पूछता ही नहीं। यह अन्धेर खाता नहीं तो और क्या है? जिस पर भी तुर्रा यह कि ऊख सूख जाती है और ऐन मौके पर नहर में पानी ही नहीं रहता। धान की रोपनी के समय भी ऐसा ही होता है और पीछे भी। परिणाम यह होता है कि किसान नहर ऑफिस में दौड़धूप लगाता है और पेट्रोल, ओवरसीयर वगैरह खूब घूस खाते हैं। नहर विभाग का यह घूस प्रसिध्द है और गरीब किसानों की तबाही का बहुत बड़ा कारण है।

8. सबसे बड़ी दिक्कत और कठिनाई गया के किसानों के मार्ग में यह है कि संगठित रूप से अपनी इस दर्दनाक दशा को सरकार, जमींदार, या संसार के सामने पेश नहीं करे सकते और चाहते हुए भी अपनी लकलीफों को दूर कराने के लिए अग्रसर नहीं हो सकते। कारण, उन्हें पथदर्शक की आवश्यकता है और प्राय: अपढ़ तथा अनुभव हीन होने के कारण बिना योग्य पथदर्शक के वे अपना आन्दोलन चला नहीं सकते। इधर जमींदारों और उनके पृष्टपोषक सरकारी अधिकारियों की दशा यह है कि वे किसी भी लगन वाले, अनुभवी और पक्के किसान नेता को गया में जाने और किसानों को संगठित करने देना नहीं चाहते। बिना आधार और किसी वजह के ही झूठे बहाने खड़े करके पुलिस कानून की 30 वीं और जाब्ता फौजदारी की 144 वीं धाराओं को बार-बार अमल में लाकरे वे लोग ऐसा करे रहे हैं जो कि इधर 8-10 महीने की घटनाओं से सभी को विदित है।

(शीर्ष पर वापस)

2. गैर-कानूनी कारण

9. लेकिन यदि कुदरती और कानूनी कारण ही होते तो एक बात थी और शायद गया के किसानों के उबरने का कोई रास्ता कुछ दिक्कत के बाद निकल भी आता। परन्तु यहाँ तो गैर-कानूनी हरकतों और कामों के करते ही सबसे ज्यादा पामाली और तबाही किसानों की हो रही है। इन गैर-कानूनी ज्यादतियों ने-जो जमींदारों द्वारा किसानों पर आये दिन की जाती हैं-किसानों को भयभीत, निकम्मा, नामर्द और पंगु बना दिया है। कहीं-कहीं जमींदार स्वयं हुक्म देकरे दिन दहाड़े ये सख्तियाँ करते हैं और कहीं उनके ही इशारे पर उनके बहादुर अमले गजब ढाते हैं। ऐसा भी होता है कि कभी-कभी अपने ही मन से ये अमले आतंक का राज्य फैलाया करते हैं। यदि किसान ने उनके मनमाने हुक्मों को न माना या जरा भी चूँ की कि वह गया चाहे जैसे होगा वह उजाड़ दिया जायेगा। यदि जमींदार की जानकारी के बिना ही कहीं अमले ने जुल्म किया और पीछे से जमींदार या उसके बड़े अफसरों को मालूम भी हो गया कि वह निरपराधों को सता रहा है तो भी उसका बाल बाँका नहीं होता, खासकरे आज कल। पहले शायद ऐसा होता रहा हो, लेकिन आजकल कतई नहीं होता। कारण, किसानों में धीरे-धीरे जागृति हो रही है और किसान-आन्दोलन जोर पकड़ रहा है। ऐसी हालत में जमींदार लोग सोचने लगते हैं कि अगर अपने आदमी को सजा दी तो किसान लोग शोख हो जायेंगे और आगे चैन से रहने न देंगे। फलत: 'अग्रसोची सदा सुखी' के अनुसार तब तक स्थानीय आदमी-Man on the spot पर ही यकीन करके सारी व्यवस्था छोड़ देते हैं जब तक या तो वे मजबूर न किये जायँ या स्वयं उनके काम या माल की हानि न हो।

10. उसी गाँव या आस-पास के ही गाँवों के रहने वाले ही लोग हर गाँव में छोटे-छोटे अमले गुमाश्ता, पटवारी और बराहिल होते हैं, क्योंकि गया वगैरह में जेठरैयती की प्रथा नहीं है और हर गाँव में बदकिस्मती से दलबन्दी रहती ही है। नतीजा यह होता है किसी दलवाले की गुमाश्ता पटवारी आदि से दोस्ती हुई और उसने अपने शत्रु के खिलाफ शिकायतें करके उन्हें उभाड़ दिया जिससे बेचारे को तबाह होना पड़ा। ऐसी ही दलबन्दी के करते एक मौजे का एक गरीब किसान आज तबाह किया गया है और उसके साथ हुए अत्याचार ऑंखों के सामने नाचते हैं। उसने अमलों के जुल्मों को जमींदार के बड़े अफसरों तक पहुँचाने की कोशिश अपने गाँव में किसान संगठन करके की। नतीजा यह हुआ कि उसकी मास्टरी कांग्रेसी होने का झूठा लांछन लगा करे छीन ली गयी और मालिक की कई बीघे की बकाश्त जमीन जो चौरहा फी बीघा कुछ निश्चित मन चावल दाल देने की शर्त पर जोतता था वह भी जबर्दस्ती छीन ली गयी। इस पर जब उसने अदालत की शरण लेकरे अपने पक्ष में हुक्म और जमींदार के लिए 144 वीं धारा का हुक्म निकलवाकरे तैयार खेत में धान और खेसारी कटवानी चाही तो उसे जमींदार के डर से कहीं मजदूर न मिल सके। बड़ी कठिनाई से जब किसान-कार्यकर्ताओं ने उसकी सहायता की तो वे लाठियों और जूतों वगैरह से बार-बार पीटे गये और उस किसान तथा उसके एकमात्र मददगार दूसरे किसान की खेती दिन दहाड़े लूट ली गयी। यह अभी हाल की सच्ची घटना है। यह अत्याचार तब बन्द हुआ जब किसान सभा ने पूरी मुस्तैदी दिखायी। मालूम होता था चारों ओर आतंक का साम्राज्य छाया हुआ था और किसी को भी हिम्मत न थी कि एकान्त में भी खुल करे जमींदार या उसके अमलों के खिलाफ जबान निकाले और सच्ची बातें कहे। किसान-कार्यकर्ता बेरहमी से पीटे और घसीटे जाते थे और देखते हुए भी चूँ न करे सकते थे! ऐसे-ऐसे मौकों पर भयभीत करने में ही जमींदार और उनके अमले भविष्य के लिए अपना रास्ता निष्कण्टक समझते हैं। बात भी ऐसी ही है। कानूनन और दूसरी तरह से भी हक रखने पर अगर किसान बेबस हो जाता है तो फिर मालिक की नादिरशाही के खिलाफ कभी भी कोई सिर कैसे उठावेगा। जहाँ दो-चार मौकों पर सिर उठाने वाले बेरहमी से बुरी तरह कुचल दिये गये कि फिर चूँ करने की भी हिम्मत किसे रह जायेगी? हमारे किसानों में आज जो नामर्दी और पस्त-हिम्मती है उसका कारण यही आतंक राज्य Terrorism है।

11. जमींदारों के छोटे अमले जो गाँवों में रहते हैं बहुत ही नाममात्र की तनखाह पाते हैं। हालाँकि इसी अमलागिरी को हासिल करने में उन्हें सैकड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं और जमानत के रूप में भी कुछ रुपये जमा करने पड़ते हैं। लेकिन उसी मामूली और महज नाम के वेतन से उन्हें अपने बाल बच्चों का भी अकसर पालन करना होता है। इसके लिए यदि किसानों से वे लोग सैकड़ों प्रकार के नाजायज करे रुपया पैसा, घी दूध, साग तरकारी, बर्तन भाड़ा, कम्बल, कपड़ा, रस गुड़, और तहरीर वगैरह के रूप में बराबर वसूल न करते रहें तो उनका काम चलेगा कैसे? जमींदार लोग इन अमलों को भूखे कुत्तॊं की तरह बेचारे गरीब किसानों पर छोड़ देते हैं जहाँ उनकी देख-रेख करने वाला कोई नहीं है। फिर वे किसानों का खून न चूसें तो उनका काम कैसे चले? उनसे दूसरी आशा करना ही मूर्खता है। उनका यह काम तो स्वाभाविक ही है। अमलों और मालिकों की गैर-कानूनी वसूलियों और अत्याचारों की सूची अन्त में मिलेगी। इतना ही नहीं, जमींदारों की ओर से हर अमले को एक दो, चार बीघे खेत मिलते हैं जिन्हें जोत बोकरे वह अपनी गुजर करता है, कारण, वेतन तो कुछ होता नहीं। अब यदि गाँवों में जाकरे कोई पूछे और पता लगावे कि अमलों के कितने बैल और हल खेतों की खेती के लिए हैं तो एक भी पता न मिलेगा। फिर भी उनके खेत सबसे पहले जोते बोये जाते हैं चाहे बेचारे किसान के खेत यों ही पड़े रह जायें। खेतों के लिए बीज वगैरह भी भरसक किसानों से ही ले लिए जाते हैं और हरवाहे-चरवाहे का काम तो वे लोग बिना मजूरी के करते ही हैं। मजूरी माँगने की हिम्मत करना तो अपने को मिटाने का सामान मुहैया करना है। यदि अमलों की ही बात होती तो खैर थी। आज कल तो जमींदारों को बकाश्त बनाने और उसमें खेती करने की निराली धुन है और वे लोग दिन-रात इसी धुन में मस्त हैं। इसका कुछ विवरण आगे मिलेगा। खास करे जहाँ जमीन अच्छी है और आबपाशी की अनुकूलता है वहाँ तो हजारों बीघा जमीन नीलाम के रूप में या जैसे हो किसानों से छीन करे जमींदारों की खेती के काम में आती है। फल यह हो रहा है कि वहाँ के आस-पास के मौजों के सभी हल बैल और हलवाहे मजदूर पहले जमींदार के खेत को जोत बो और काट लेते हैं तो पीछे अपने या दूसरे किसान का जोतते बोते हैं और इस तरह देर होने से उनकी खेती मौके पर हो नहीं सकती और खराब हो जाती है। यह कोई काल्पनिक नहीं, किन्तु आये दिन की करारी घटना है जिसे किसान खून के ऑंसू रो-रोकरे सुनाते हैं। जमींदारों की ओर से बकाश्त में जो खेती होती है वह बिना किसानों के हलबैल और हलवाहे आदि के हो नहीं सकती। एक मौजे की तो घटना ऐसी है कि वहाँ के किसानों के हलवाहे और मजदूर किसानों की रैयती जमीन में पहले बसते थे। अब थोड़े दिनों से जालिम जमींदार ने उन्हें गैरमजरुआ परती जमीन में बसाया है जहाँ गाँव का खलियान होता था। कहा यह जाता है कि समूचे गाँव की जमीन बकाश्त बनाई जायेगी और इन्हीं मजदूरों से जमींदार खेती करवायेगा। किसान अभी से रो रहे हैं, कारण, मजदूर उनके हाथ से निकल गये, खेती कैसे हो!

12. भावली जमीन में जब दाना पैदावार का कनकूत appraisement करने जमींदारों के अमले जाते हैं तो नादिरशाही करते हैं। असली पैदावार का सवाया डयोढ़ा दाना करना तो मामूली बात है। या तो किसान उन्हें भरपूर घूस दे, नहीं तो करीब-करीब समूची पैदावार से हाथ धोवे। यदि आधी पैदावार ईमानदारी के साथ ले लें तो किसान खुशियाँ मनावें। लेकिन एक तो अधिकांश जमींदारियों में नौ सात की प्रणाली है जिसके मानी हैं कि यदि खेत की पैदावार सोलह मन हो तो नौ मन जमींदार का और सात मन रैयत का होता है। इसके सिवाय नोचा, बङ्ढी, पिछुवा, तहरीर वगैरह, गैरकानूनी टैक्स तथा रोड सेस भी लिए जाते हैं। सर्वे के अनुसार फी मन चार सेर जो मजूरी होती है वह भी या तो बाद दी ही नहीं जाती या एक दो सेर ही बाद दी जाती है। फलत: आम तौर से दो तिहाई पैदावार मालिक हड़प लेता है और सिर्फ एक तिहाई किसान पाता है। सो भी यदि दानाबन्दी ठीक हुई तो। लेकिन ठीक होने के लिए भरपूर घूस चाहिए और अमलों की सालभर खुशामद और सेवा बन्दगी भी जरूरी है। इस तरह सब मिलाकरे तीन चौथाई पैदावार से हाथ धोना पड़ता है। इसके साथ एक और विपत्ति है। अकसर जमींदार अपने हिस्से का गल्ला नहीं लेता किन्तु उसका दाम ही किसान से लेता है, चाहे वह हजार सर पटकता रह जाय और अगर दाम देने में देर हुई तो रुपये में दो आना सूद तो फौरन उसके सिर मढ़ दिया जाता है। एक बात और भी होती है कि गल्ले के बदले दाम देने में किसान के सिर सवाया भार पड़ता है जैसा कि आगे विदित होगा। इस तरह किसान का सर्वस्व हरण हो जाता है और उसके बाद भावली जमीन की पैदावार शायद ही बचती है। ऐसी हालत में वह जीता कैसे है और जमीन क्यों नहीं छोड़ देता इत्यादि बातों का उत्तर भावली के प्रकरण में मिलेगा।

13. रूस की क्रान्ति को जन्म देने वाली पूर्ववर्तिनी आर्थिक घटनाओं का उल्लेख करते हुए रूस के उस समय के सम्राट् जार निकोलस, जिसकी खूनी पदवी थी, के अत्याचारी शासन के समय वहाँ के किसानों की दशा का वर्णन एक इतिहासकार ने यों किया है:-"Sometimes the landlord compelled the peasant to give up him half of what was produced on the landlords Soil with the peasants own equipment. In some places the cases made the peasants complete serfs. The peasants who held a strip of land from the Landlord had to furnish in return a considerable amount of labour even providing his own equipment for the cultivation of the landlords estate."

इसका आशय यह है कि ''कभी-कभी ऐसा होता था कि जमींदार की जमीन में किसान अपने हल-बैल और बीजादि लगाकरे जो कुछ पैदा करता था उसका आधा जमींदार को देने के लिए मजबूर किया जाता था। कुछ स्थानों में जमीन की ठेकेदारी के करते किसान पूरे गुलाम बन गये थे। जो किसान जमींदार से थोड़ी सी भी जमीन लेकरे जोतता बाता था, उसे उसके बदले में जमींदार को अपनी बकाश्त या जिरात जमीन में खेती करने के लिए हल, बैल, बीज आदि देने के सिवाय बहुत अंशों में स्वयं मजूरी भी करनी पड़ती थी।''

ये सभी बातें आज गया के किसानों पर घटती हैं। कमी है तो सिर्फ यही कि यदि केवल यही बातें रहतीं तो शायद गया के किसान आज अपने को सुखिया समझते और मानते कि जमींदार का बर्ताव उनके साथ बहुत ही अच्छा है। लेकिन ऊपर लिखी बातें अत्यन्त भयंकर रूप में आज किसानों के सिर गुजर रही हैं और जिन्हें रूस के किसान विपत्तियाँ समझते थे, जुल्म मानते थे, गया के किसानों के सिर होने वाले जुल्मों और विपत्तियों के सामने उनकी कुछ भी हस्ती नहीं है। रूस के किसानों को तो आधी पैदावार कभी-कभी देनी पड़ती थी और यहाँ आधी तो क्या तिहाई-चौथाई भी शायद ही कभी बच पाती है। वहाँ ठेकेदारी के करते गुलामी थी, फलत: जहाँ ठेकेदारी न थी वहाँ न थी। लेकिन यहाँ तो सर्वत्र सदा सर्वात्मगुलामी का साम्राज्य है। वहाँ ज़मीन के बदले में हल बैल देना और मजूरी करना पड़ता था। यहाँ जमीन की मालगुजारी देने के बाद भी बेगारी में सब कुछ करना पड़ता है।

14. कानून जबर्दस्त या बलवान का ही सहायक होता है, कमजोर को वह कुछ भी मदद नहीं करे सकता। यही कारण है कि आमतौर से पटना, गया के जिलों में भावली जमीन की फसल तैयार होने पर किसान काट नहीं सकता। जमींदार और उसके अमले जब तक दानाबन्दी या बटाई के लिए तैयार न हों तब तक किसान सिर पटक करे रह जाता है और उसके खेत में अगहन महीने का ही पका धान चैत-वैशाख तक लगा रह जाता है। यहाँ तक कि धान के साथ ही खेसारी भी पक करे तैयार हो जाती है, खेत में झरने लग जाती है, फिर भी कटनी नहीं होती। यह कोई एकाध जगह की घटना नहीं है, किन्तु आम बात है। मालिक या अमले किसान के ऊपर रंज हो गये, बस, वह गया। रंज होना तो आम बात है। एक बार पूस के महीने में दानाबन्दी के लिए किसान का खेत अमले नपवा रहे थे। नापने में चार कट्ठा खेत बढ़ गया। किसान ने कहा कि ऐसा क्यों होता है। गलत नापा गया है। चार कट्ठे का अधिक दाना मुझे देना पड़ेगा इत्यादि। बस, अमले चले गये, दाना न हुआ और मालिक ने हुक्म जारी किया कि सौ रुपये जुर्माना दो, क्योंकि अमलों के साथ गुस्ताखी की थी। बड़ी कठिनाई से घटा करे 25 जुर्माना किया गया और गुड़ बेच करे चुकता करने पर कहीं चैत बीतने पर दाना किया गया, जब खेत में न तो धान की बालें थीं और न खेसारी की छीमियाँ, सब गिर चुकी थीं। दाना भी क्या हुआ। अगहन-पूस के महीने में उस खेत के चारों ओर के खेतों में फी बीघा जितना दाना हुआ था उतना ही उस खेत का भी खसरा में लिख दिया गया और किसान ने अहो भाग्य समझा कि खेत में उसे जाने और खेती करने की आज्ञा तो मिल गयी। ये जुल्म और अत्याचार तो बराबर होते ही रहते हैं। यदि भाग्यवश फसल कटकरे खलियहान में चली भी गयी तो वहीं पड़ी-सड़ी और नष्ट हुआ करती है और जमींदार दौनी करने नहीं देता। कभी-कभी तो आग लगकरे सारा खलिहान ही खतम हो गया है और कभी वर्षा आ जाने पर गल्ला वहीं सड़ करे जम गया है। ये ऑंखों देखी और सच्ची घटनाएँ हैं। खलियान रोकने को छापा देना कहते हैं। हालाँकि काश्तकारी कानून B. T. Act की 71 वीं धारा के अनुसार किसान के साथ कोई भी जमींदार या उसका अमला कटनी, दौनी में रोक-टोक नहीं करे सकता। खास करे उसकी तीसरी उपधारा में साफ लिखा है कि फसल तैयार होने पर ठीक समय पर कटनी, दौनी का किसान को पूरा हक होगा। यही नहीं, काश्तकारी कानून की 186 वीं धारा में लिखा हुआ है कि जो लोग रोक-टोक करेंगे उन्हें जाब्ता फौजदारी की 447 वीं आदि धाराओं के अनुसार दण्ड मिलेगा। फिर भी यह धाँधली और अन्धेर खाता बराबर जारी है। तैयार फसल की कटनी और दौनी करने में तथा अन्न को घर में ले जाने में उसे कोई रोक नहीं सकता, जमींदार ठीक समय पर अपना हक-हिस्सा ले सकता है। किसान का इतना ही करना ठीक होगा कि फसल तैयार होने पर जमींदार को रजिस्टरी चिट्ठी के द्वारा खबर दे दे कि फसल तैयार है आकरे दौनी कीजिए या बँटाई। यदि वह न आवे तो काट करे दौनी करे ले और गल्ला तैयार होने पर फिर वैसी ही नोटिस दे। यदि फिर भी न आवे तो दो चार माननीय गवाहों के सामने तौल करे गल्ला घर में रख दे और गवाहों से हस्ताक्षर करवा ले। लेकिन जैसा कि कह चुके हैं कानून भी कमजोर की मदद नहीं करता। फलत: किसान पिस रहे हैं, सो भी गैर-कानूनी हरकतों के करते।

15. जहाँ एक ओर भावली जमीन के करते किसान जमींदार से थर-थर काँपते हैं और उनके खिलाफ चूँ नहीं करे सकते, अपने संगठन की एक मामूली सभा करने से भी डरते हैं, वहाँ दूसरी ओर मालगुजारी अदा करे देने पर भी उसकी रसीद न मिलने के कारण वे बेतरह भयभीत रहते हैं( क्योंकि यद्यपि उन्होंने पूरा लगान चुकता करे दिया है और उनके जिम्मे एक पैसा भी बाकी नहीं है, फिर भी मालिक के रंज होते ही पूरे चार साल के बकाये की नालिश उन पर ठोक करे वे तबाह करे दिये जाते हैं। ऐसी हालत में डरें नहीं तो और क्या करें? उनमें यह हिम्मत नहीं कि बिना रसीद लिए रुपये दे ही नहीं। एक तो कानून के अनुसार जैसी रसीद होनी चाहिए वैसी बहुतेरे और खास करे छोटे-मोटे जमींदार देते ही नहीं। बहुत हुआ तो बाजारू रसीद या पुर्जा दे दी जो अदालत में बेकार साबित होती है। किसान तो उस पुर्जे पर ही विश्वास करता है। वह इतना पिछड़ा है कि कानून की बातों को वह समझ नहीं सकता, कम से कम तब तक जब तक उसके सिर नहीं आ-बीते दूसरे जो लोग देते भी हैं, वह रसीदों पर मनमाना कुछ लिख देते हैं। जिसे किसान समझ नहीं सकता कि खाक बला क्या लिखा है। अक्सर ऐसा होता है कि जब तक साल भर का पूरा लगान चुकता न हो जाय रसीद दी जाती ही नहीं और अगर किसान पूरे रुपये देता भी है तो पटवारी गुमाश्ते आदि अपनी तहरीर और दस्तूरी आदि पहले ही काट करे बाकी रुपये ही उसके नाम से जमा करते हैं। बेचारा करे क्या? वह तो बेबस है। नतीजा यह होता है कि हर साल बकाये का सिलसिला लगा ही रहता है। बेशक कश्तकारी कानून की 58 वीं धारा के अनुसार जमींदार और उसके अमले ऐसी हालत में सजावार हो सकते हैं लेकिन जबर्दस्त जमींदार के खिलाफ गरीब और कमजोर रैयत यह साबित कैसे करे सकता है कि रुपये लेकरे भी रसीद नहीं दी गयी है। वह तो लंका में विभीषण ठहरा। उसका साथी कोई नहीं। चारों ओर केवल खल-मण्डली ही ठहरी। यदि किसी ने सिध्द करने की हिम्मत भी की तो मालिक की सारी ताकत उसके खिलाफ लगती है और उलटे वही अदालत में अपराधी सिध्द हो जाता है। इस प्रकार उसके लिए दोनों ओर खाई है। इसलिए सिवाय अपनी प्रारब्ध को कोसने के वह गरीब और कुछ करे नहीं सकता।

16. हमारे सामने ऐसे भी दृष्टान्त पेश हैं, जिनसे पता चलता है कि ऊँचे कुल के किसानों को जमींदारों के अमले अपनी कचहरियों में बुलवाकरे गालियाँ देते, मारने दौड़ाते, धूप में खड़ा करवाते, सिर पर काली हाँड़ी रखवाते, दुध का पानी मुँह में डलवाते, बिना खिलाये-पिलाये रात-रात भर मकान में बन्द रखते, जहाँ मच्छर खाये डालते हैं, और अन्त में मजबूर करके हैण्डनोट के लिए जबर्दस्ती अंगूठे का निशान ले लेते हैं। ऐसे ही एक हैण्डनोट के निशान का नमूना हमारे सामने पेश किया गया। गया की सबसे बड़ी जमींदारी के एक बड़े अफसर ने ऐसा करवाया था। खैरियत यही हुई कि उनके ऊपर के अफसर साहब को यह बात किसी प्रकार जब मालूम हुई तो वह हैण्डनोट का कागज लौटाया गया। वह अफसर साहब किसानों के वोट से ही एक ऊँचे पद पर विराजमान हैं। शायद उस पद की लाज ने ही उनसे ऐसा करवाया। ऐसे भी मामले हमारे सामने लाये गये हैं, जिनसे पता चलता है कि कुछ किसानों के दोनों हाथ पीठ की ओर एक रस्सी में बाँध करे मजबूरन अंगूठे में काजल लगवाया गया और इस तरह अंगूठे का निशान लिया गया जिसके लिए मुकदमे तक चले हैं। किसान के छप्पर पर और खेत में जो भी शाक तरकारी हो उसे जमींदारों के अमले मनमाना चाहे जितना ले जायें वह चूँ नहीं करे सकता। एक बार किसी चुनाव में बीसों मन तरकारी यों ही लूट ली गयी और एक पैसा भी न मिला। अमले या उसके मित्र चुनाव में उम्मीदवार थे।

17. हमने बहुत से मौजों के सर्वे के खतियानों और फर्द-रिवाजों को देखा है जिनमें साफ-साफ लिखा है कि सिंचाई और आबपाशी का समूचा भार जमींदार के ऊपर होगा। प्राय: सभी मौजों में और खास करे गया में यही बात पायी जाती है। किसी-किसी में तो यहाँ तक लिख दिया है कि अगर आबपाशी का पूरा प्रबन्ध मालिक न करे तो वह लगान पाने का हकदार न होगा। फिर भी हम देखते हैं कि लगातार बहुत दिनों से न तो कुओं की मरम्मत ही हुई है और न आहर और पइन ही ठीक की गयी है। पइन, आहर और खेत समतल हो गये हैं। न तो आहर से एक टोकरी मिट्टी कभी निकाली गयी है और न बाँध पर डाली गयी है। गेंड़ या गिलन्दाजी का तो कहना ही क्या? हाँ, कभी-कभी ऐसा हुआ है कि अमलों ने इस मद में दो चार रुपये खर्च में दिखला दिये हैं और फिर उन रुपयों को स्वयं ही खा लिया है। यदि बहुत हुआ तो कुछ मजदूरों को बेगार पकड़करे सौ पचास टोकरी मिट्टी जहाँ-तहाँ डलवा दी। जहाँ अब तक भावली है, वहाँ भी यही दशा है और जहाँ महँगी के जमाने में भावली से नगदी कह सुनके या जबर्दस्ती करायी गयी थी, वहाँ भी दूसरी बात नहीं है। हालाँकि नगदी के समय बड़े जमींदारों और उनके मैनेजरों के द्वारा, फिर भी यह प्रतिज्ञा की गयी थी कि आबपाशी का पूरा प्रबन्ध किया जायेगा। यदि यह प्रतिज्ञा न भी होती तो भी खतियान और फर्द-रिवाज के रहते ही कानूनन आबपाशी का प्रबन्ध करना ही होता। मगर कौन पूछता है? जबर्दस्त की लाठी सिर पर। उसी खतियान के मुताबिक लगान और सेस वगैरह रत्ती-रत्ती वसूल किया जा रहा है और न मिलने पर कानून की दोहाई दी जाती है। लेकिन उसी खतियान के दूसरे पहलू को कोई नहीं देखता-पूछता। पहला ठीक है। क्योंकि वह जबर्दस्त और जालिम जमींदार के पक्ष में है! दूसरा बेकार है क्योंकि वह दुखिया और कमजोर किसान के हक में है। यह है आज बीसवीं सदी की अंग्रेजी सल्तनत की ऑंखों के सामने अन्धेर खाता। किसान बेचारा चिल्लाता है सही। मगर वह असंगठित है, उसकी कौन सुने? उसके पास रुपयों की गठरी कहाँ कि अदालतों के दुष्प्रवेश दरवाजों को अच्छी तरह खटखटा सके। क्योंकि हाईकोर्ट तक तो जाना ही होगा, तब कहीं शायद उसका पक्ष ठहरे। लेकिन इतने में तो उसका दिवाला ही बोल जायेगा। यही है बेचारे की बेबसी।

18. हम ऐसे महानुभाव जमींदारों को जानते हैं जो कांग्रेस के मंच पर राष्ट्रीयता का दम भरते हैं लेकिन अपने रैयतों के पास उन्होंने एक बार खबर भिजवायी कि जरूरत है इसलिए गोइठे भेज दें। जहाँ तक याद है जाड़े के महीने की बात है और शायद बदली थी। रैयतों ने कहलाया कि गोइठे नहीं हैं, ऊख की खोइया भेज दे सकते हैं। इतने ही पर मालिक के मर्जी का पारा बहुत ऊँचा चढ़ गया और हुक्म दिया कि सभी के पशुओं को हाँक करे मवेशीखाने काँजी हौस-Pound-में डाल दो। यही हुआ और उन गरीबों की हाल की ब्याई हुई भैंसों के बच्चे दाना घास के बिना मर गये और वे बिसुख गयीं। अन्त में बड़ी कोशिश के बाद इधर-उधर से जुटाकरे उन्होंने 51॥।= देकर मवेशीखाने से अपने पशुओं को छुड़ाया। ऐसी हजारों घटनायें हैं। जमींदारों के बराहिल और प्यादे मालगुजारी का तकाजा करने जाते हैं और अगर किसान के उनकी पूजा न की, झुक करे बन्दगी न बजायी या तुरन्त रुपये चुकता न किये तो पहली बात तो यही की जाती है कि उसके सभी मवेशी सीना-जोरी के बल पर घसीट करे काँजी हौस के हवाले किये जाते हैं उसके बाद यदि खेती का दिन हुआ तो हल से बैलों को खोल करे भगा देना, उसका फाल खींच लेना, हलवाहे और मजदूर को जमींदार की बेगारी में पकड़ लेना आदि बातें मामूली हैं। पनघट बन्द करे देना, जनानी घर के द्वार पर पहरा बैठा देना जिससे बाल बच्चे बाहर पाखाने पेशाब को न जा सकें, सवार और सिपाही का पहरा बैठा करे उनके लिए रोजाना आठ आना एक रुपया खुराक वसूल करना आदि बातें आमतौर से की जाती हैं। एक जमींदार ने रैयत से बाँस माँगा तो उसने जमींदार की जमीन में से काटने दिये। लेकिन दूसरी जमीन का बाँस काटने से रोक दिया। इस पर रंज होकरे बकाया लगान की नालिश ठोंक दी, हालाँकि बकाया एक कौड़ी भी न था मगर वह हजरत रसीद देते न थे इसलिए किसान के पास सबूत न था। जब दूसरे लोग समझाने गये तो उन्होंने कहा कि नालिश तो झूठी है सही मगर इसमें हमारा 36 खर्च है, यह दिलवा दिया जाय। कारण पूछने पर उन्होंने फर्माया कि हमें मनमाना बाँस काटने से किसान ने रोका क्यों? यह है जमींदारों की नवाबी की बानगी। इस अन्धेर खाते से बचने का उपाय गरीब किसानों के पास क्या है?

(शीर्ष पर वापस)

3. सत्यानाशी भावली

19. पिछले प्रकरण में भावली का बार-बार जिक्र आया है और इसकी भयंकरता की झलक मिली है। लेकिन यह एक ऐसा रिवाज है जिसने गया, पटना के किसानों का कचूमर निकाल दिया है। हम बिना हिचकिचाहट के कह सकते हैं कि यदि यहाँ यह प्रथा न होती तो किसानों की जो दुर्दशा आज है कभी न हुई होती। आज भी यदि यह प्रथा अच्छी तरह दूर करे दी जाय तो बहुत अंशों में किसानों की तकलीफें दूर हो जायें और उनमें हिम्मत आ जाये, वे स्वाभिमानी तथा स्वावलम्बी बन जायें, संगठित हो जायें और इस प्रकार अपने को बलशाली बना डालें जिससे आगे चलकरे सभी संकटों का मुकाबला वे बहादुरी के साथ करे सकें। उनसे मुर्दानगी हटकरे उनमें मर्दानगी आ जाय, हमें इस बात का पूरा अनुभव है और किसान आन्दोलन के सम्बन्ध में हमने किसानों को यह कहते पाया है कि जो लोग नगद मालगुजारी देते हैं, वे तो इसमें पड़ सकते हैं, लेकिन हम भावलीवाले इसमें पड़करे तबाह हो जायेंगे, जमींदार और उसके अमले बुरीदा बाँधकरे हम से पाँच मन के बजाय पचीस मन वसूल करे लेंगे और इस प्रकार हमें उजाड़ देंगे। भावली जमीन की मालगुजारी का कोई ठिकाना नहीं रहता! फसल कट चुकने के बाद इसका क्या सबूत कि खेत में इतना ही पैदा हुआ? इसलिए पाँच मन की जगह 25 मन पैदावार का जाली हिसाब खसरा मालिकों के अमले तैयार करे लेते हैं। इसे ही बुरीदा बाँधना कहते हैं। उसी खसरे के अनुसार दावा करते और डिग्री कराते हैं। एक तो रैयत उज्र करने की हिम्मत नहीं रखता दूसरे यदि रखे भी तो उसे मददगार नहीं मिलते। उसके पड़ोसी और भाई बन्धु ही जमींदार के दबाव, धमकी में आकरे या नौकरी चाकरी और रुपये पैसे के लोभ में पड़करे जमींदार के ही पक्ष में गवाही देते हैं। जब तक किसानों में जागृति और संगठन नहीं है, तब तक दूसरी आशा की जाय भी कैसे? हमें हाल का ही अनुभव है कि एक किसान की फसल जमींदार ने लुटवा ली और जब हम जाँच करने गये तो वहाँ के सभी किसान हम किसान सभावालों को ही उलटा धिक्कार ने और जमींदार की तारीफ करने लगे। उन्होंने हमें और लुटे किसान को ही झूठा बनाया! झूठा बनाने वालों में ऐसे लोग भी थे जिनके खेतों को थोड़े ही दिन पहले जमींदार ने जबर्दस्ती छीन या नीलाम करवा लिया था! फिर भी वे बेहयाई के साथ उसकी ओर से केवल इसी से पूँछ हिलाते थे कि फिर खेत देने की आशा उन्हें दिलायी गयी थी! यह है किसानों की दशा का कच्चा चिट्ठा जिसका अधिकांश श्रेय इस मनहूस भावली प्रथा को है। अच्छा तो अब जरा भावली को देखें।

20. जिस जमीन की मालगुजारी नगद रुपये पैसे में दी जाय वह नगदी कहाती है और जिसकी मालगुजारी उसकी पैदावार में से ही एक निश्चित अंश में दी जाती है वह भावली है। इस प्रकार साधारण तौर से जमींदार दो प्रकार से रैयत के साथ जमीन का बन्दोवस्त करता है। इन दोनों के सिवाय कहीं-कहीं मनी या मनहुण्डा की प्रथा भी है जो नगदी और भावली दोनों के बीच की या दोनों की खिचड़ी है। इसे ही गया में चौरहा प्रथा कहते हैं। इसका मतलब यह है कि यद्यपि मनी या चौरहावाली जमीन का लगान नगद रुपये के रूप में देना नहीं पड़ता, किन्तु भावली की ही तरह गल्ला ही देना पड़ता है, फिर चाहे वह असली पैदावार धान आदि हो या उसी का रूपान्तर चावल दाल वगैरह। तथापि जहाँ भावली की पैदावार का ठिकाना नहीं रहने से एक ही जमीन से मालिक को कभी ज्यादा गल्ला मिलता है और कभी कम, वहाँ मनी मनहुण्डा या चौरहा में यह बात नहीं रहती। ऐसी प्रथा में नगदी ही की तरह हर साल के लिए एक निश्चित वजन में गल्ला या चावल वगैरह जमींदार की ओर से तय करे दिया जाता है और चाहे पैदावार कमबेश हो या कतई न हो फिर भी उतना गल्ला किसान को देना ही पड़ता है। इसीलिए इसे दोनों के बीच की या दोनों की खिचड़ी कहना ही ठीक है। क्योंकि नगदी की तरह यहाँ भी निश्चित वजन है। मगर रुपया न होकरे भावली की तरह गल्ला ही देना पड़ता है। इसलिए असली भावली को शुध्द भावली कह सकते हैं।

21. शुध्द भावली भी दो तरह की है, 1 खेत और 2 सायरात। जिस जमीन में खेती करते हैं और धान गेहूँ आदि पैदा करते हैं वह खेतवाली भावली है। लेकिन आम वगैरह पेड़ और बागवाली जमीन सायरात की भावली है! यहाँ पर भी याद रखना चाहिए कि खेत की अपेक्षा यह सायरातवाली भावली कहीं ज्यादा खतरनाक है और बहुत आसानी से किसान को तबाह करे देती है। यह जानने की बात है कि गया आदि दक्षिणी बिहार में एक तो बाग कम हैं, दूसरे जहाँ हैं भी वहाँ इनसे कोई आमदनी नहीं होती। यदि कहीं कुछ फल हुआ तो तोड़ ताड़ करे लोग खापका जाते हैं और तोड़ने के समय जमींदारों के अमले उनका हिस्सा ले जाते हैं। यह भी जानना चाहिए कि इधर के आम वगैरह कभी-कभी तो लगातार कई वर्षों तक फलते ही नहीं। तब कहीं एकाध साल फल जाते हैं। फिर वही नागा, लेकिन इससे क्या? ज्यों ही किसान के ऊपर जमींदार या उनके अमले रंज हुए कि चार वर्ष की सायरात की भावली वाली मालगुजारी की नालिश ठोंक दी। फलों का फर्जी खसरा खूब लम्बा तैयार करके उनका महँगे भाव से दाम लगा दिया और उसे ही सबूत में पेश करे दिया। अब रैयत क्या करे? कहाँ से सबूत दे कि पेड़ फले ही नहीं या अगर कुछ फले भी तो मालिक का हिस्सा दे दिया गया था। इसका प्रमाण वह क्या दे? जमींदार को तो फर्जी गवाह सैकड़ों मिल जाते हैं। हम एक किसान की बात जानते हैं कि ऐसे ही पचास या कुछ इतने ही पेड़ों के करते एक बार उसे अपनी जायदाद बेच करे जमींदार की डिग्री चुकानी पड़ी। उसके बाद तीन ही चार वर्षों में सोलह या सत्राह सौ का दावा हो गया। इस बार जरा हाकिम न्याय प्रिय था और रैयत के चिल्लाने पर उसने दयालुतावश बाग की स्वयं तहकीकात गर्मी में 30-35 मील जाकरे की और जब एक फल भी न पाया जो जाली कह करे जमींदार की नालिश खारिज करे दी। लेकिन इससे क्या? जमींदार ने अपील करे दी और इतने में जब वह किसान मर गया तो उसके लड़के को फुसलाकरे उससे कबूल करवा लिया कि मालिक का दावा ठीक है इत्यादि। एक दूसरे किसान की भी ऐसी ही दशा हुई क्योंकि जब पहले ने स्वीकार करे लिया तब दूसरे के न कबूल करने पर भी डिग्री हो गयी और दोनों ही तबाह हो गये, उजड़ गये। इस सायराती भावली ने न जाने कितने किसानों को उजाड़ दिया। यह बाघ की तरह किसानों को खा जाती है, मौत की तरह मुँह बाये खड़ी रहती है और कच्चे धागे में बँधी नंगी तलवार की तरह सिर पर लटकती रहती है। इससे किसानों को कभी भी एक पैसा नहीं मिलता। लेकिन चार वर्ष की एक ही बार नालिश और डिग्री के बाद वह मिट जाता है। यह एक बहुत बड़ा कारण है जिससे किसान चाहता है कि भावली जमीन का लगान एक ही वर्ष बाद तमादी होने का कानून होना चाहिए। यदि कहीं सायराती या दूसरी भावली के अलावे किसान के पास कोई निजी जमीन हुई तब तो बकाया लगान की डिग्री में जमींदार उसे ही नीलाम पर चढ़ा देता है जिससे मजबूरन किसान को पूरा रुपया दे देना पड़ता है चाहे जैसे उसे मिल जाय। ऐसे दृष्टान्त हमें मिले हैं।

22. खेतवाली भावली भी बहुत भयंकर है गो कि सायरातवाली जैसी नहीं( क्योंकि सायरात से कुछ मिलता नहीं, लेकिन खेतों से तो कुछ न कुछ गल्ला मिलता ही रहता है। फिर भी यह भी किसान के लिए गले की चक्की से कम नहीं है जो नदी में डुबा दे। इस भावली में जो सबसे बड़ा दोष है वह यह है कि खेत में फसल तैयार हो जाने पर भी किसान के बाल बच्चे तरसते रह जाते हैं और काटकरे चिउड़ा वगैरह खा नहीं सकते और न मटर, चना वगैरह की एक छीमी भी छू सकते हैं। देहात में रहकरे भी उनकी हालत शहरियों की सी रहती है। यदि कहीं उन्होंने खेत में से कुछ भी छू लिया तो फिर जमींदारों और उनके अमलों के कोपभाजन हुए। इसी तरह एक मुट्टी भी धान, मटर या मकई वगैरह काट करे अपने मवेशियों यानी दुधार गाय भैंसों और बैल, घोड़े आदि को खिला नहीं सकते, हालाँकि खिलाने की बड़ी जरूरत रहती है। इस प्रकार पगपग पर गुलाम और कैदी की तरह अपनी पूर्ण पराधीनता का उन्हें अनुभव होता रहता है। यदि खेत में कहीं चोरी हो गयी, गैर के पशु ने कुछ चर लिया तो इसके लिए बेचारा किसान अपराधी बनाया जाता है और उसे घुड़कियाँ सहनी पड़ती हैं। बीज उगने से लेकरे कट जाने तक बराबर यह हालत बनी रहती है। जब फसल तैयार हो जाती है और होली, रामनवमी या दूसरे पर्व आते हैं तो किसान कलेजा मसोस करे रह जाता है( क्योंकि घर में उसके गेहूँ रहता नहीं और खेत से काट सकता नहीं। मकरे की संक्रान्ति में उसे और उसके बच्चों को तथा हलवाहों चरवाहों को चिउड़ा कहाँ से मिले। वह तो घर में बेगाना जैसा रहता है उसके पास सब कुछ रहते भी नहीं रहता और उसे गैरों का मुँह ताकना पड़ता है। जब कटनी का समय आया तो जमींदार और उसके अमलों को या तो फुर्सत ही नहीं रहती या उसे दिक करने के लिए काटने देना चाहते नहीं और बिना उनकी मौजूदगी और दानाबन्दी के वह बेचारा काटे तो कैसे काटे। यदि काफी रंजिश हुई और वह सभाओं में आने जाने वाला हो तब तो तीन-तीन, चार-चार मास तक खेत में ही खड़ी फसल बर्बाद होती रहेगी, उसे पशु-पक्षी, चोर, हवापानी, ये सभी बर्बाद करते रहेंगे। अन्त में मनमाना दानाबन्दी करके बड़ी कठिनाई से उसे काटने दिया जायेगा। दानाबन्दी की हालत यह कि यदि अमलों को खूब घूस दिया तो कुछ कामचलाऊ दानाबन्दी हुई, नहीं तो 5 की जगह 8-10 मन करे दिया गया। अगर कहीं रैयत ने उजू किया कि दानाबन्दी ठीक नहीं हुई तो। एक धुर की फसल काटकरे तौल ली जायेगी और भरसक अच्छी ही काटी जायेगी। यद्यपि रैयत खराब और मालिक अच्छी फसल देखकरे ही काटेंगे यह आजादी कहने को है, तथापि काटने के समय वही अमले रहेंगे जिनकी शिकायत की गयी थी। फिर न्याय की क्या आशा? जो ही मुद्दालेह वही न्यायाधीश! यदि काटने में ठीक भी हो तो भी ताजी और बिना सुखाई फसल को तौल करे उसी हिसाब से समूचे खेत की पैदावार का अन्दाजा कैसे लगेगा? जरूर अन्तर पड़ेगा! खड़ी फसल दौनी के बाद सुखाने पर जरूर कम होगी।

एक बात और। एक गज कपड़े को एक-एक गिरह फाड़ने लगें तो जरूर घटेगा। फलत: एक-एक गिरह के 16 टुकड़ों के लिए एक गज से ज्यादा कपड़े की जरूरत होगी तभी पूरा उतरेगा। इससे स्पष्ट है कि टुकड़े और पूरे का हिसाब बराबर नहीं मिलता। टुकड़े के हिसाब से पूरे में कमी जरूर आती है। ऐसी हालत में यदि एक धुर में 1 सेर हो तो 1 बीघे यानी 400 धुर में कभी भी 400 सेर या 10 मन न होगा। इसलिए धुर नापकरे काटने पर भी किसान के साथ न्याय नहीं हो सकता। बहुत जगह तो ऐसा होता है कि जमींदार लोग रैयतों पर जुर्माना रखते हैं और कहते हैं कि यदि अमले का दाना ही ठीक उतरा और तुम्हारा उज्र गलत हुआ तो तुम्हें जुर्माना देना होगा। मैं यह भी जानता हूँ कि कई जमींदार वह जुर्माना पहले से ही किसान से रखवा लेते हैं और कहते हैं कि उज्र ठीक होने पर वापस होगा, नहीं तो जब्त हो जाएगा। ऐसी दशा में कोई भी समझ सकता है कि किसान कहाँ तक अमले का विरोध करेगा और करने पर भी कहाँ तक सफल होगा। फलत: दो ही रास्ते हैं या तो खूब घूस दे या मनमानी दानाबन्दी की चक्की में पिस जाये। इस तरह उसके लिए तबाही ही है। और यदि दानाबन्दी हो गयी तो भी क्या? काटने से पहले मालिक का गोड़ाइत, चौकीदार खेत की लम्बाई चौड़ाई के हिसाब से जहाँ सबसे अच्छी सफल होगी वहाँ मनमाना नोच करे ले जायेगा। इसे ही नोचा कहते हैं। कटनी दौनी के बाद यदि नौ सात का कायदा हुआ जैसा कि गया में अकसर पाया जाता है तो 16 मन में 9 मन मालिक का हिस्सा हुआ। इसके सिवाय फी मन सवा सेर सेस, और मन में एक पसेरी या कुछ इसी तरह के हिसाब से बढ्ढी लेते हैं, यदि गल्ला लेना हुआ। क्योंकि कचहरी में रखे गल्ले में नुकसान हुआ तो उसकीर् पूत्ति कैसे होगी? गुमाश्ता, पटवारी वगैरह की तहरीर और नजराना वगैरह अलग ही होता है।

लेकिन ज्यादातर ऐसा होता है कि जमींदार गल्ला नहीं लेकरे उसका दाम ही लेता है और इसमें किसान बुरी तरह पिस जाते हैं। हर बड़ी जमींदारियों के हेड ऑफिस से सभी अमलों के पास हर महीने या हर पन्द्रहवें दिन या दो महीने पर गल्लों के भाव का परवाना भेजा जाता है ताकि उसी भाव से किसानों से दाम काटें। ऐसी कई जमींदारियों के परवानों को हमने देखा है, जिससे पता चलता है कि सभी जमींदार एक भाव का परवाना नहीं भेजते। एक ही तारीख को एक ही गल्ले का भाव कोई दो, तीन सेर कम भेजता है तो कोई ज्यादा। जहाँ तक जाँच करने से पता चला है, वे लोग बाजार-दर से एकाध सेर तेज ही दर भेजते हैं, बल्कि कभी-कभी ज्यादा तेज। यह भी जानना चाहिए कि ज्यादातर गया शहर का ही भाव भेजा जाता है। लेकिन गया शहर के भाव से कुछ मन्दा जहानाबाद, औरंगाबाद आदि का होगा और देहाती बाजारों का भाव तो उससे भी मन्दा होगा। अब हालत यह होती है कि देहात का बनिया देहाती बाजार की अपेक्षा गाँवों में कुछ सस्ता जरूर खरीदेगा। तभी तो बाजार तक ले जाने का खर्च और कुछ नफा हासिल करेगा। उन बाजारों में भी बड़े शहरों से सस्ते दर में जरूर गल्ला बिकेगा। तभी बड़े शहरों में ले जाने वाले कुछ नफा करे सकेंगे। इस प्रकार यदि एकाध सेर का भी अन्तर गाँव से बाजार और फिर शहर में क्रमश: मानें तो गाँव और बड़े शहर के असली भाव में कई सेर का अन्तर होगा। लेकिन जमींदार लोग तो बड़े शहर के भाव से भी तेज भाव भेजते हैं। नतीजा यह होता है कि किसान को सवाया अधिक देना पड़ जाता है।

दृष्टान्त के लिरए अगर 20 सेर का भाव भेजा गया तो गया में 21 सेर होगा, जहानाबाद में 22, देहाती बाजार में 23 और गाँव में 24 या 25 सेर। यानी असल में बेचा किसान ने 25 सेर के भाव से मगर जमींदार ने काटा 20 सेर के भाव। यह कोरी कल्पना नहीं किन्तु कठोर सत्य है। हम इसे प्रमाणित करने को तैयार हैं। इस प्रकार दानाबन्दी की कड़ाई, सेस, नोचा, तहरीर, नजराना और भाव की कड़ाई के करते किसान मिट जाता है। इसके सिवाय मालिक के हाथी घोड़ों के लिए भी खड़े खेत में से ही कुछ कट जाया करता है। यही कारण है कि भावली में किसान सोलहों आने तबाह हो जाता है, अगर हर साल चुकाने की कोशिश करे।

24. यह तो हुई भावली लगान की वसूली की बात। लेकिन उसके बकाया की दशा में तो और भी बुरी हालत होती है। देहातों में कहावत है कि 'जीते गैया, मरे भैंसियाँ'। जो भावली लगान वसूली के समय 10 था, वही नालिश के समय आमतौर से 25-30 रुपया हो जाता है और ऐसा करने का तरीका वही मनमाना खसरा बनाना है। इससे बचने का एक ही उपाय है और वह यह है कि जब दानाबन्दी हो, उसी समय किस खेत में कितना दाना कब हुआ इत्यादि बातों की पक्की रसीद किसान को दे दी जाये। ऐसी हालत में पीछे गड़बड़ी नहीं हो सकती। कारण, नालिश के समय जाली खसरा बनाकरे पेश करने पर किसान वही रसीद पेश करे देगा। हम कोई नई बात नहीं कह रहे हैं। टेकारी राज में ऐसी प्राणली पहले प्रचलित थी और ऐसी रसीद को उटेरा कहते थे। इसके करते किसान निश्चिन्त रहते थे। लेकिन हमसे कहा गया है कि जब बा. नन्दकिशोर सिंह उस राज के कानूनी सलाहकार हुए तभी बा. गुप्तेश्वर सिंह की सलाह से वह उटेरा बन्द हो गया। यह सन् 1326-27 फसली की बात बतायी जाती है। हमने भी उससे पहले का उटेरा देखा है, बाद का नहीं। किसने कैसे कब बन्द किया इससे हमें मतलब नहीं। हमें तो इतना ही कहना है कि जब कभी जिस किसी ने उसे बन्द किया वह अवश्यमेव किसानों का गला घोंटने वाला शत्रु था। इसका नतीजा आज गरीब किसानों को बुरी तरह भुगतना पड़ रहा है।

हमें तो मालूम होता है कि जिस प्रकार भावली से नगदी करवाने के समय आबपाशी की प्रतिज्ञा भंग की गयी और इस प्रकार किसानों को दबा रखने का सामान तैयार किया गया, ठीक उसी प्रकार उससे पहले ही यह उटेरा प्रणाली हटा करे उन्हें हमेशा के लिए गुलाम और भयभीत बनाने की तैयारी की गयी। कहाँ तो पट्टा और कबूलियत की आशा दवामी बन्दोबस्त के समय की गयी थी और कहाँ यह दानाबन्दी का मामूली सबूत भी जो किसानों को मिला करता था अन्यायपूर्वक छीन लिया गया। लेकिन यह तो केवल टेकारी की बात थी। और जमींदारियों में तो यह उटेरा था ही नहीं। वहाँ तो पटवारी का तैयार किया रद्दी खेसरा उतना ही विश्वसनीय था जितने वह पटवारी जिनका घूस ही जीवन हो। यह रद्दी कागज पर लिखा रद्दी खेसरा दिन भर में सौ बार बदला जा सकता है। यहाँ तक कि रैयत के सामने कुछ बनता है और मालिक के पास दूसरा बना करे भेजा जाता है। आखिर उसे रोक ही कौन सकता है।

25. इस प्रकार सभी तबाहियों का साधन यह भावली है। इन सब बातों के अलावे इसमें सबसे बड़ा एक यह दोष भी है कि इसके करते जमींदार का रैयत के साथ बहुत ज्यादा संपर्क रहता है जिससे बार-बार जमींदार दखल देता रहता है। जमींदार अपने आपको जमीन का मालिक, अतएव, नवाब समझता है और यही मानता है कि रैयत या किसान तो जमीन का किरायेदार है। अतएव जब चाहे नोटिस देकरे या यों ही धाकिया करे उसे हटा दिया जा सकता है। किसान जो कुछ भी जमींदार को देता है उसे इसीलिए भूकरे या Land Tax न कह करे रेण्ट Rent-कहा जाता है, जिसका अर्थ है किराया। यानी जमीन के इस्तेमाल करने का किराया जमींदार को किसान देता है। जमींदार तो इतना भी नहीं समझता। वह कभी यह बात बर्दाश्त नहीं करे सकता कि उसके सामने उसका रैयत बराबर के या किसी अच्छे आसन पर बैठे। उसे बहुत ही तुच्छ और नाचीज समझ करे यही चाहता और व्यवहार में लाता भी है कि किसान उससे बहुत दूर जमीन पर या उससे भी नीची जगह गढ़े आदि में बैठे जब कि वह स्वयं ऊँचे तख्त पर शान के साथ बैठा रहे। मकान के किरायेदार के साथ क्या कभी कोई ऐसा बर्त्ताव करे सकता है? असल में किसान उसकी नजरों में गुलाम-Serf-से कभी भी अच्छा नहीं है और न अच्छा, समझने की कोशिश उसे करनी चाहिए। किसान अपने को बराबर यही समझे कि वह जमींदार की मर्जी से ही जी और मर सकता है। इसीलिए जमींदार के लिए मालिक शब्द का प्रचार यहाँ हो गया है( कारण, गुलाम के तो मालिक होते ही हैं। ऐसी दशा में ऐसे जमींदार से जितनी ही दूर किसान रहे और जमींदार को उसके मामले में जितना ही कम दस्तन्दाजी करने का मौका मिले उतना ही किसान के लिए अच्छा है। ऐसी हालत में उस दूषित और विषाक्त वायुमण्डल से अलग रहकरे शायद वह ऊपर उठने की कोशिश करे सकता है और ऊपर उठ भी सकता है। लेकिन यह भावली उसे ऐसा मौका देती ही नहीं। किन्तु पद-पद पर उसे अपनी पराधीनता और गुलामी की कैद की याद दिलाती रहती है, चाहे जमींदार की दस्तन्दाजी देखने के लिए हो या न हो। यह बात इस प्रकरण के शुरू में ही दिखलाई गयी है इसलिए यह प्रथा एक क्षण भी टिकने देने लायक नहीं। जितनी जल्दी इसकी इतिश्री हो उतना ही अच्छा।

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4.काश्तकारी कानून

26. पहले के तीन अधयायों में गया के किसानों की जिस दर्दनाक हालत का वर्णन आया है, उसका सम्बन्ध और कारणों के साथ ही यहाँ के काश्तकारी कानून-B. T. Act-से भी बहुत कुछ है, जिसने उन्हें गुलाम से भी बदतर बना दिया है। यह दकियानूसी कानून बना तो सन् 1885 में, जब बंगाल में ही बिहार भी सम्मिलित था, लेकिन इसकी जरूरत और लक्ष्य के बारे में भारत के गवर्नर जनरल लार्ड लौरेन्स ने सन् 1868 में ही ब्रिटिश सरकार को लिखा था। सो भी जस्टिस रामपीनी-Rampini-के शब्दों में बिहार के ही किसानों की दुर्दशा को लक्ष्य करे के कि "It would be necessary for the Government sooner or later to interfere and pass a law Which should thoroughly protect the raiyat and make him what he is now in name a free man, a cultivator with the right to cultivate the land he holds, provided he pays a fair rent."

''एक न एक दिन सरकार को इस मामले में दखल देकरे ऐसा कानून बनाना ही होगा जो सब प्रकार से रैयत किसान की रक्षा करने के साथ ही उसकी स्थिति ऐसी बना दे जो आज केवल कहने मात्र के ही लिए है। यानी उसे स्वतन्त्र मनुष्य बना देगा। जिसे अधिकार होगा कि जो जमीन उसके पास हो उसकी उचित मालगुजारी देने पर वह उसमें खेती करने वाला खेतिहर बन जाय''। कितने सुन्दर भाव हैं। साथ ही इस भाव की पूर्ति के लिए जो कानून बना है वह ठीक इसके उलटा भी उतना ही है। इस काननू के रहते हुए भी बेचारा किसान 'मालिक' का गुलाम बना हुआ है और उचित तो क्या गलाघोंट मालगुजारी देने पर भी गया का किसान अपने खेत में खेती नहीं करे सकता। उसे पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

27. मौज़ूदा काश्तकारी कानून का आधार लार्ड कार्नवालिस का दवामी बन्दोबस्त-Permanent Settlement-माना जाता है जिसे उसने 1793 में जारी किया था। इस कानून को बिल के रूप में 1885 में बंगाल कौंसिल में उपस्थित करते हुए लार्ड डफरिन ने स्वीकार किया है कि “It is a translation and reproduction in the language of the present day of the spirit and essence of lord Corn Wallis' Settlement." ''लार्ड कार्नवलिस के दवामी बन्दोबस्त के मूल तत्तव और रहस्य को आज की भाषा में प्रकट करे देना ही इस कानून का काम है।'' अच्छा तो अब उसी लार्ड डफरिन के उसी समय के शब्दों में हमें यह देखना है कि दवामी बन्दोबस्त का मूल तत्तव और असली अभिप्राय क्या था। ऊपर उध्दृत भाषण के ही सिलसिले में वे कहते हैं कि "Lord Cornwallis desired to relieve the Zamindars from the worry and ruin occasioned by the capricious and frequent enhancements exacted from them by former governments and it is evident from his language that he expected they should show the same consideration to thier raiyats"

''लार्ड कार्नवालिस की इच्छा थी कि जमीदारों को उस बेचैनी और बर्बादी से बचावें जो पहले की सरकारों के द्वारा रह रह के बढ़ाई हुई मालगुजारी की वसूली से उन पर आ धमकती थी और उसकी भाषा से साफ तौर पर यह मालूम होता है कि उसकी यह आशा थी कि वे जमींदार अपने रैयतों के साथ भी वैसा ही ख्याल करेंगे।'' लेकिन क्या कोई भी आदमी जो इस कानून के करते होने वाली किसानों की तबाहियों को देख चुका है यह कहने में संकोच करेगा कि लार्ड कार्नवालिस की वह इच्छा थी कि जमींदार लोग भी रैयतों पर इजाफा लगान न करेंगे, केवल स्वप्न की सम्पत्ति थी? निसन्देह बार-बार के इजाफे से जैसी बर्बादी पहले जमींदारों की होती थी, उससे कहीं ज्यादा आज किसानों की हो रही है और हो चुकी। इस अर्थ-संकट और सस्ती के जमाने में भी गत वर्ष तक रुपये में दो आने से लेकरे छह आने तक कानूनन या गैर-कानूनन इजाफा करके किसानों से बेदर्द जमींदारों ने जबर्दस्ती वसूला है, जब कि इजाफा के बजाय खफीफा या कमी होना उचित था।

जिस प्रकार भूकम्प पीड़ित इलाके में जमींदारों की मालगुजारी एक किस्त के लिए लेना रोक करके सरकार ने इच्छा प्रकट की थी कि जमींदार भी रैयतों के साथ ऐसा ही करेंगे, फिर भी जमींदारों ने और भी बेरहमी से वसूली की है, ठीक उसी प्रकार की इच्छा और आशा लार्ड कार्नवालिस ने की थी कि जमींदार लोग भी रैयतों पर इजाफा न करेंगे और ठुकराई भी गयी है वह आशा ठीक उसी तरह। जस्टिस रामपीनी लिखते हैं कि 1885 वाला काश्तकारी कानून बनने के समय कौंसिल में जो बहस-मुबाहसा हुआ उससे यह सिध्द है कि इस कानून की हर बातों की अन्तिम कसौटी उस दवामी बन्दोबस्त के नियम ही माने गये-"It is in fact one of the most remarkable feature of the discussions on the Bill which subsequently became the B. T. Act, that the permanent settlement regulations were treated as the final test by which all proposals were to be tried." लेकिन क्या वस्तुत: यह बात व्यवहार में कभी भी लायी गयी है? इसका सीधा उत्तर तो इस कानून के करते होने वाली किसानों की बर्बादी ही दे रही है।

28. उस दवामी बन्दोबस्त के प्रथम नियम की 7 और 8 धाराओं में यह लिखा है कि "Zamindars were required to conduct themselves with good faith and moderation towards the dependent talukdars and raiyats". It being the duty of the ruling power to protect all classes of people, and more particularly those who from their situation are most helpless( the Governor General in council will, whenever he mey deem it proper, enact such regulations as he may think necessary for the protection and welfare of the dependent takwars and raiyats and other cultivators of the soil."

''जमींदारों का फर्ज है कि अपने मातहत किसानों और रैयतों के साथ विश्वास और नर्मी के साथ पेश आवें।'' शासकों का यह कर्तव्य है कि सभी वर्गों की, और खास करे उन लोगों की-जो परिस्थिति के करते सबसे कमजोर हैं,-रक्षा करें। अत: गवर्नर जनरल इन कौंसिल जब कभी इस बात की जरूरत समझें, ऐसे कायदे जारी करें जो मातहत किसानों, रैयतों और दूसरे खेतिहरों की रक्षा करे सकें। 1885 वाले इस काश्तकारी कानून के उद्देश्य में भी यह बात लिखी है कि रैयत को अपनी जमीन पर कब्जा बनाये रखने में माकूल मदद देना-"To give reasonable security to the tenant in the occupation of his land." लेकिन क्या ईमानदारी के साथ यह बात कही जा सकती है कि शासकों ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए बेबश किसानों की रक्षा की है और उनकी जमीन पर उनका कब्जा बना रहने का रास्ता साफ किया है? जहाँ इस कानून के दूसरे लक्ष्य, यानी जमींदारों की हर तरह से रक्षा, को अच्छी तरह पूरा किया गया है। वहाँ किसानों की रक्षा का लक्ष्य भयंकर लापरवाही के साथ ठुकराया गया है। जमींदार जबर्दस्त और धानी हैं, बलवान हैं, संगठित हैं। फलत: सरकार की भी पूरी मदद उन्हें मिली है। विपरीत इसके किसान कमजोर, गरीब और असंगठित हैं, अनपढ़ हैं। इसीलिए 'सबै सहायक सबल के, कोउ न अबल सहाय' के अनुसार सरकार की सहायता से भी यह महरूम रहे हैं और अब भी हैं। वे अपने बल पर सरकारी सहायता ले नहीं सकते, कारण, परिस्थितिवश सबसे कमजोर हैं। अब स्वयं सरकार को उनकी सहायता करना फर्ज था जैसा कि लिखा है। मगर उसने ऐसा नहीं किया है।

29. यह तो हुई काश्तकारी कानून के इतिहास की बात जिससे सिध्द है कि उस दृष्टि से अपने लक्ष्य को यह कुछ भी पूरा नहीं करे सका है और दूर जा गिरा है। लेकिन केवल इतिहास की ही बात नहीं है। तय पहले ही बता चुके हैं कि 71 वीं और 58 वीं धाराओं के रहते हुए भी किसानों की रक्षा कुछ न हो सकी है और आज भी वे बराबर सताये जा रहे हैं। इन धाराओं के अनुसार एक तो कोई मुकदमा किसान करते ही नहीं और यदि शायद कभी एकाध हुआ भी तो उन्हें सफलता नहीं मिलती। ऐसी हालत में इनसे क्या लाभ?

हमें मजिस्ट्रेटों के निजी अनुभव की बातों की पूरी जानकारी है और हाल में ही एक मजिस्टे्रट के फैसले की नकल भी मिली है जिसमें स्पष्ट रूप से यह कबूल किया गया है कि जमींदार दाँव-पेंच और तोड़-मरोड़ करके रैयतों को बराबर सताते हैं, ऐसा विश्वास मजिस्ट्रेट को है। फिर भी इसका प्रमाण जब रैयत से माँगा जाता है तो वह नहीं दे सकता। ऐसी बेबसी की हालत में रैयत के लिए यह पेचीदा कानून क्या करे सकता है?

इसी सिलसिले में हम काश्तकारी कानून की दो-चार धाराओं का और भी उल्लेख करे देना चाहते हैं जो किसानों के लाभ के लिए होती हुई भी वस्तुत: उनकी रक्षा नहीं करे सकती हैं। ये धाराएँ 23, 40, 69, 75, 76, आदि हैं 23 वीं धारा दखिलकार occupancy रैयत को अपनी जमीन को मसरफ में लाने का हक देती है जिससे वह बाग वगैरह लगा सके। मगर उसमें जो तीन शर्तें लगा दी गयी हैं वह उसे बेकार करे देती हैं। एक तो वह काम उस जमीन की कीमत खराब न करे दे। दूसरे वह खेती-बारी के अयोग्य न हो जाए और तीसरे रिवाज के खिलाफ पेड़ों को किसान काट नहीं सकता। ये तीनों शर्तें ऐसी व्यापक और बेहूदा हैं कि यह धारा ही बेकार हो जाती है। जबर्दस्त जमींदार कदम-कदम पर अड़चनें खड़ा करता है और किसान उसके सामने लड़ नहीं सकता। उसके लिए यह साबित करना असम्भव हो जाता है कि जमीन की कीमत बाग या मकान से नहीं बिगड़ी या जमीन खेतीबारी के अयोग्य नहीं हो गयी। वह तो सदा से ही कमजोर है। एतएव उसके पक्ष में पेड़ काटने का रिवाज सिध्द करना गैरमुमकिन है।

30. जब भावली जमीन में दानाबन्दी के जुल्म से किसान तंग आ जाता है तो 40वीं धारा के अनुसार वह नगदी कराना चाहता है। लेकिन आज तक हजारों नगदी कराने वाले किसानों से बातें करके हम यही मालूम करे सके हैं कि सभी रोते हैं। उनके लिए यह असम्भव हो जाता है कि अदालत को कम रुपये बीघा लगान ठीक करने के लिए सबूत देकरे तैयार करे सकें। यह सब तो जबर्दस्त वकील बैरिस्टरों का काम है जिन्हें मालदार ही रख सकते हैं। जो अदालतें सस्ती के जमाने में भी दो-चार आना फी रुपया इजाफे की डिग्री दे सकती हैं उनसे गरीब किसान क्या आशा करे सकता है? आज तो खास करे समूचे गया, पटना में इसी 40 वीं धारा की नगदी के करते किसानों की कमर टूट चुकी है और नगदी कराने वाले पछताते हैं कि ऐसी भूल क्यों की। भावलीवालों को ही अपने से अच्छा समझते हैं, वही भावली जिसकी करामात हम दिखला चुके हैं और जिससे लोग ऊब चुके हैं।

31. 69, 75 और 76 धाराओं की भी यही हालत है। भावली जमीन में दानाबन्दी की गड़बड़ी और अन्धाधुन्धी से तंग आकरे इस 69 वीं धारा की शरण ली जाती है ताकि कलेक्टर ठीक दाना करवा दे। लेकिन जब तक कलेक्टर यह प्रबन्ध करे तब तक महीना-दो महीना गुजर जाता है और फसल खड़ी-खड़ी चौपट होती रहती है। इसके सिवाय यह सब काम करने के लिए जो अफसर मुकर्रर होते हैं उनका तथा और खर्च देने पर वह खेत तो क्या किसान ही बिक जाते हैं और वही 'दमड़ी की मुर्गी की टका जिबह कराई' वाली कहानी चरितार्थ होती है। इसके सिवाय कलेक्टर जिन अफसरों को मुकर्रर करता है उन्हें जबर्दस्त जमींदार अपने अनुकूल बना ही लेता है चाहे बातें इधर-उधर की सच्ची-झूठी बनाकरे या और तरह से। मेरी ऑंखों के सामने तो गया जिले के जहानाबाद सब-डिवीजन के एक गाँव के गरीब किसानों का इसी 69वीं धारा का मामला हाल का ही खड़ा है जिसमें किसान कहते ही रह गये कि हम 7 मन फी बीघे के हिसाब से ही अपना हिस्सा लेने को तैयार हैं, जमींदार ही खेत को कटवा ले, अथवा सबकुछ लेकरे भी हमारी जान छोड़ दे। लेकिन उनकी एक न सुनी गयी और पूरे 14 मन बीघा पीछे दाना अदालत से हो गया। यह है 69वीं धारा की करामात। अत: इसमें आश्चर्य ही क्या यदि किसान इसके नाम से थर्राते हैं?

32. 75वीं धारा इसीलिए बनी है कि अगर जबर्दस्ती जमींदार या उसके अमले किसान से असली रकम से ज्यादा वसूल करे लें तो अदालत से उसकी रक्षा हो सके। मगर आज सैकड़ों ढंग के गैर-कानूनी नजराना, तहरीर, नोचा आदि के रूप में दिन दहाड़े वसूल हो रहे हैं, सो भी सर्वत्रा, और यह कानून अन्धा बहरा, मौनी बना पड़ा है। इसी प्रकार 76वीं धारा इसलिए बनी है कि रैयत जमीन की तरक्की के लिए तालाब, कुऑं, नहर, मकान वगैरह बना सके। लेकिन यह सभी जानते हैं कि इनमें से कोई काम बिना जमींदार की मर्जी के किसान करे नहीं सकता। एक टोकरी मिट्टी लेना, एक खपड़ा या ईंटा बनाना भी गैरमुमकिन है, हालाँकि यह मोटी बात है कि इन सब बातों के बिना कुऑं, तालाब, मकान वगैरह बन सकते नहीं, जिनके बिना एक मिनट भी वह जी या रह नहीं सकता। आज के कानून की नजर में तो वह इनसान या जानवर भी नहीं समझा जाता। नहीं तो मकान, कुऑं, तालाब बनाने की रोक क्यों होती? उसे खेती करना है। इसलिए हल चलाना, गाड़ी रखना जरूरी है। मगर बिना जमींदार की आज्ञा के पेड़ की एक डाल नहीं काट सकता। भूकम्प में मकान धवस्त हो गये तो बला से। अपने ही लगाये पेड़ वह कैसे काट लेगा और मकान बना लेगा। कारण, यह सब बातें इस धारा में लिखी जरूर हैं, फिर भी अन्त में जो सबसे बड़ा 'मगर' लगा है वही सबको खा जाता है। उसमें लिखा है कि ऐसा कोई काम जमीन की तरक्की का साधन नहीं माना जा सकता, यदि उससे उस जमींदार की सम्पत्ति की कीमत में ज्यादा कमी पड़ जाए। बस, अब क्या? हर बात में जमींदार यही दावा ठोंकता है कि मेरी जायदाद की कीमत बिगड़ गयी। ऐसी हालत में किसान के लिए यह साबित करना गैरमुमकिन हो जाता है कि कीमत नहीं घटी। बाघ के सामने बकरी का बच्चा अपनी निर्दोषित कैसे साबित करे सकेगा? इस ढंग की धाराओं में प्राय: सबसे बड़ा ऐब यही है कि सारी बातें साबित करने का भार जमींदार के मुकाबले में किसान के सिर आ पड़ता है और यह काम उसके लिए असम्भव-सा हो जाता है।

33. इन सब बातों का निचोड़ यही है कि जब तक किसानों की गरीबी, असमर्थता, निरक्षरता और असंगठन पर पूरा ध्यान रख करे काश्तकारी कानून का आमूल संशोधान या परिवर्तन नहीं हो जाता तब तक इससे किसानों की रक्षा की आशा करना कोरी बेवकूफी है। जब तक अदालतों में उनका काम बहुत आसान और नाम मात्र के खर्च या बिना खर्च का नहीं करे दिया जाता तब तक पेचीदा और खर्चीली अदालती कार्रवाइयों के रहते उनका त्राण हो नहीं सकता और वे धीरे-धीरे बर्बाद होते ही जायेंगे।

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5. परिणाम

34. पहले के चार अध्यायों में जिन बातों का जिक्र है, किसानों की माली हालत पर उनका क्या असर हुआ है और जमींदारों ने क्या हासिल किया है, उन्हें क्या लाभ हुआ है, अब इसी का विचार करे लेना जरूरी है। चाहे प्राकृतिक, कानूनी या गैर-कानूनी कारणों और अत्याचारों को लीजिए और चाहे भावली की प्रणाली, कड़ी नगदी और इजाफा वगैरह को लीजिए, हर हालत में यही पाया जाएगा कि किसानों की माली हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है और इसके विपरीत जमींदार लोग उनकी जमीनें नीलाम करके धडाधड बकाश्त बनाते जा रहे हैं। बकाश्त बनाने के बाद फिर मनी या चौरहा पर या तो किसानों के साथ बन्दोबस्त करके वे लोग भरपेट आमदनी करते हैं, या स्वयं खेती करने लगे हैं और बड़े-बड़े फार्मों की तैयारी करे रहे हैं। सबसे पहले हमें यही देखना है कि किसानों की आर्थिक दशा कहाँ तक बिगड़ी है। एक बात यहाँ जान लेने की है कि भावली जमीन के करते जो बर्बादी थी वह तो थी ही, मगर सन् 1330 फसली के बाद 1331-32 में टेकारी राज्य में बड़ी सख्ती से दानाबन्दी होने लगी। इससे ऊब करे किसानों ने नगदी करवा ली। वह नगदी बहुत कड़ी हुई, कारण महँगी का जमाना था। साथ ही, राज्य ने आबपाशी का प्रबन्ध छोड़ दिया और पैदावार मारी जाने लगी। फिर भी जैसे-तैसे किसान लोग काम चलाते रहे। कर्ज लेकरे, खेत रेहन रखकरे, गाय-भैंस पालकरे और उनके घी-दूध बेचकरे और कहीं नौकरी-चाकरी करके काम चलाते रहे। लेकिन 1336-37 के बाद सस्ती का जमाना आ गया और उनकी एक न चल सकी। वे सब उपाय करके हार गये। फिर भी जमींदारों का बकाया और महाजन का कर्ज बढ़ता ही गया। एक बात यह भी है कि नगदी कराने के समय हर गाँव से कम से कम उसकी एक साल की मालगुजारी के बराबर ही नजराना भी लिया गया। इसका सीधा अर्थ यही है कि सीधे-सादे किसानों ने जानबूझ करे राजी-खुशी अपने लिए फाँसी तैयार करे ली। क्योंकि प्राय: सभी गाँवों पर ऋण का असली भार उसी नजराने के रुपये से ही शुरू हुआ। टेकारी राज्य की देखा-देखी और जमींदारियों में भी नगदी हुई और वे किसान भी पिस गये।

अब किसानों की हालत यह है कि जमीन रख नहीं सकते, कारण उसका लगान देने में वे किसी तरह समर्थ नहीं हैं। साथ ही, छोड़ भी नहीं सकते, किन्तु बन्दरी जिस प्रकार मरे बच्चे को लिपटाये रहती है उसी तरह वे भी जमीन से लिपटे रहना चाहते हैं। इसके कारण हैं। एक तो उसी जमीन में उनके कितने पुश्त गल गये, जिन्होंने मर जी-करे उसे खेती के योग्य बनाया। फलत: उसके साथ उनका स्वाभाविक प्रेम हो गया है। वह उनकी असली मातृ-पितृ भूमि जो ठहरी। साथ ही, जीविका का कोई दूसरा साधन भी तो उन्हें नजर नहीं आता। फिर उसे छोड़ करे जाएँ

कहाँ? और अगर जबर्दस्ती खदेड़े भी जाते हैं तो दूसरी जगह और भी महँगी

जमीन को लेकरे उसी से लिपटते हैं। उनकी हालत मध्य समुद्र में स्थित जहाज के मस्तूल के कौवे की-सी है। पहले तो वह उड़ाया नहीं गया, जिससे विश्वस्त होकरे पड़ा रहा। लेकिन अब मध्य समुद्र में बार-बार उड़ाये जाने पर भी आखिर जाए कहाँ? खैर, यह तो प्रासंगिक बात हुई। अब हमें नमूने के तौर पर कुछ गाँवों की हालत देखनी है।

1 मझियावाँ

35. सबसे पहले मझियावाँ को लेते हैं। टेकारी राज्य का यह गाँव जहानाबाद सब-डिविजन के अन्तर्गत कुर्था थाने में है। इस मौजे की नगदी जमीन करीब 1500 बीघा और भावली करीब 200 बीघा है। डीह और परती भी कुछ है। सब मिला करे प्राय: 1800 बीघा है। इसमें 250 के करीब इजारा रेहन और कबाला हो गयी है। इस मौजे पर इस समय राज्य का बकाया 1340 फसली तक का ही करीब 50,000 है और महाजनों का ऋण भी करीब 80,000 है। यह बकाया चार वर्षों से ही है। जब से सस्ती हुई और यह ऋण 1333 फसली में ही शुरू हुआ, जब कि भावली से नगदी कराने में करीब 15,000 नजराना और उतना ही लगान में देना पड़ा। गाँववालों ने शपथपूर्वक हमें बताया है कि उससे पहले जब कि प्राय: समूचा मौजा भावली था, उन पर कर्ज न था। यह कर्ज नजराना और लगान देने के ही लिए धीरे-धीरे लिया गया है। हमने स्वयं इस मौजे में जाकरे और घर-घर घूमकरे देखा है। ऐसे किसानों के घरों को हमने देखा है जो हजारों रुपया राज्य को लगान देते हैं। लेकिन उनके घर में चूहे दण्ड पेलते हैं और पाखाने के मकान भी उनसे कहीं अच्छे होते हैं। हमने चमारों और दुसादों के मकान भी उनसे अच्छे पाये हैं। हमें बताया गया है कि सन् 1281 फसली से पहले यह मौजा केवल 900 में ठीका था। जो 1281 में स्वर्गीय महारानी इन्द्रजीत के समय 2200 हो गया। वही आज करीब 15,000 हो गया है। गत सर्वे से पहले जो थोड़ी-बहुत जमीन नगदी थी उसका लगान फी बीघा आमतौर से 3-4 रुपये से ज्यादा नहीं है। शायद ही कोई बहुत अच्छी जमीन 5 हो, लेकिन अब तो 13 तक फी बीघा हो गयी है, जो सर्वे के बाद हुई है। जहाँ पहले औसत फी बीघा 3 या 4 था वहाँ आज 10 है। हालाँकि औसत पैदावार 5-6 मन फी बीघा से ज्यादा नहीं है। सो भी जब पानी ठीक बरसे और पाला वगैरह न पड़े। राज्य ने आबपाशी को तो छोड़ ही दिया है। अब धीरे-धीरेनीलाम करवा के बकाश्त बनाने की तैयारी हो रही है। गाँव वालों का कहना है कि हमारी सारी सम्पत्ति ले ली जाय, सिर्फ हमें खेत दिये जायें और इतना ही किया जाय कि हम सत्तू से भी अपना पेट भर सकें। मगर राज्य सुनने को तैयार नहीं।

2 धानगाँवाँ

36- यह मौजा भी टिकारी का ही है? यहाँ जोत की जमीन 860 बीघा है। जिसमें 524 फी बीघा सर्वे में पहले की नगदी 4 बीघे की दर से है। शेष 336 बीघा भावली थी और 1334 में नगदी हुई। औसतन फी बीघा 10। की दर से यह नगदी हुई और कुल मिलाकरे सिर्फ 336 बीघे के लिए अब 3,886 देना पड़ता है। इस मौजे पर 1340 फसली तक राज्य का बकाया 12,635 और ऋण 23,355 था। इस कर्ज का श्री गणेश 1334 के नजराने वाले 3,886 से शुरू होता है, जो नगदी के समय नजराना देने के लिए लिया गया था। नगदी के बाद आबपाशी का प्रबन्ध राज्य ने छोड़ दिया और रैयतों को विवश होकरे नदी में एक चहका पक्की बाँध 10,000 कर्ज लेकरे बनवाना पड़ा। दुर्भाग्य से पीछे वह भी टूट गया और अब न उन्हें 3,000 मिलते हैं और न वह दुरुस्त होता है। सन् 1306 से 1309 फसली तक की भावली जमीन की साल तमामी रसीदों के देखने से पता चला कि गल्ले से राज्य को फी बीघा 2। से लेकरे ज्यादा से ज्यादा 4 मिलता था। उसी से अब 10। लिया जाता है, हालाँकि गल्ले की उपज इस समय 4 मन फी बीघा से ज्यादा नहीं। आबपाशी का प्रबन्ध है नहीं, उपज हो कैसे?

यहाँ हमने गाँव के उत्तर दो तरह के खेत देखे जिनकी हैसियत एक-सी है, जिनमें उपज बराबर ही होती है। लेकिन एक की पुरानी बराबर नगदी 3 बीघा है और दूसरे की हाल की नगदी 13। है। यहाँ डीह में चार कुएँ थे जिनसे आबपाशी होती थी और कोइरी लोग साग-तरकारी बोकरे पैसा कमाते थे। अब तीन कुएँ खत्म हैं। और चौथा भी खत्म होना ही चाहता है। यह गाँव जहानाबाद का पड़ोसी है, जहाँ राज्य की कचहरी है। फलत: बेगार और साग-तरकारी की लूट-खसोट से तंग आकरे कोइरियों ने तरकारी बोना ही छोड़ दिया। गाँव पर नालिश है और नीलाम करवाके बकाश्त बनाने की तैयारी है। इसीलिए गाँव से हटा करे परती में कहार- हलवाहे आदि बसाये जा रहे हैं। ताकि बकाश्त होने पर उन्हीं से जमींदार का हल जुतवाया जायेगा।

3 अलगान

37- यह जहानाबाद के निकट टेकारी का मौजा है। इसका रकबा 388 और पास वाले ऐनमा मौजे का 225 एकड़ है। दोनों मिल करे करीब 700 बीघे हैं। ऐनमा में अब भी भावली है। अत: राज्य को वहाँ सिर्फ 800 के करीब मिलते हैं। उस हिसाब से अलगान में 12-13 सौ से ज्यादा नहीं मिलना चाहिए। लेकिन महँगी के समय कड़ी दर से पट्टा करे देने के कारण 3000 वसूला जाता है।

हमने ऑंखों देखा कि आहर, पइन और खेत सब समतल हैं और आबपाशी का कोई प्रबन्ध नहीं है। ऐनमा और अलगान की जमीन एक-सी है। हमें बताया गया कि सन् 1312 फसली से पूर्व अलगान से सिर्फ 900 और उसके बाद 1,800 के करीब राज्य को मिलते थे। मौजे पर राज्य का बकाया करीब 10,000 और महाजनों का 1,800 है और औसत पैदावार फी बीघा 3-4 मन से ज्यादा नहीं है। यदि मौजा बेचा जाय तो कोई महाजन 50 बीघे से ज्यादा दाम देने को शायद ही तैयार हो। इसका अर्थ यही है कि कुल करीब 550 बीघे के मौजे की कीमत 28,000 यानी इतनी ही होगी कि राज्य का बकाया और महाजन का ऋण दिया जा सके। यह 18,000 कर्ज भी प्राय: नगदी के जमाने से ही 7-8 वर्षों में हुआ है।

राज्य के साथ दफा 40 का मुकदमा 1331 फसली से पहले कई वर्ष चलता रहा, जिसमें शुरू में 11 फी बीघा लगान का फैसला जिसमें से 1331 में रेवन्यू बोर्ड ने 26 फी सदी घटा करे 9 करे दिया था, बराबर 11॥। की दर से वसूल किया गया है। और उसी दर से योधीसिंह, सूबासिंह, रामचरित्र सिंह, रामधानी महतो और विपत दुसाधा पर बकाया लगान की डिग्री कराके उनकी जमीन भी शायद नीलाम करवा ली गयी। इस मौजे में भावली का बँटवारा फी मन 18 और 22 सेर है। नोचा, बङ्ढी 1-1 सेर और तहरीर फी रुपया आम तौर से - है। फिर भी हमने देखा कि 25 में 4 और 102 में 10 भी तहरीर ली गयी है।

4 परसावाँ

38- यह मौजा सदर सब-डिविजन में टेकारी के निकट है। मालिक टेकारी राज्य है। 800 बीघे का है। जिसमें 400 बीघा पुरानी नगदी कुल 600 में यानी करीब 1बीघे की दर से है। बाकी 400 बीघा भावली थी, जिसे कड़ाई के साथ महँगी के जमाने में मजबूरन नगदी करवा के 1336 फसली से 4050 वसूला जाता है। जिसका अर्थ है कि फी बीघा औसत 10 हुआ। मौजे पर कर्ज 25,000 और राज्य का बकाया 10,000 है। बहुत से किसानों पर डिग्री कराके नीलाम की तैयारी है। समूचा कर्ज भावली को नगदी बनाने के करते ही हुआ है। इसी मौजे में मोरहर नदी के किनारे 14-15 बीघा जमीन हमें दिखाई गयी, जिसकी लगान 14 बीघा कही गयी। मगर वहाँ तो काँटे वगैरह की झाड़ियाँ हैं और बालू ही बालू है। उसी के बगल में खास महाल सरकारी जमींदारी का मौजा रजोई है, जिसमें वैसी ही जमीन की मालगुजारी कुछ नहीं है। परसावाँ से मिला पूर्व ओर राजपुर मौजा है जिसमें लगान 1 या 1। बीघा है। पर वहीं परसावाँ में 6 बीघा वैसी ही जमीन का है। परसावाँ में कुछ और भी जमीन 14 बीघा नगदी है। पर उसी से सटी भावली अब तक है, जिससे 2-3 रुपया बीघा भी शायद ही मिलता है।

5 बेनीपुर

39- कुर्था के ही निकट बेनीपुर मौजा टेकारी और सलौने इस्टेट अरवल के पास का है। करीब 700 बीघे का मौजा है जिसमें दस परिवार करीब 300 बीघा जोतते हैं जिन्हें करीब चौबीस सौ रुपये लगान देना होता है। करीब 100 प्राणियों का खर्च है। करीब 18,000 रुपया कर्ज है जो मालिक के देन के ही करते हुआ हैं। आबपाशी के न होने से पैदावार कुछ नहीं है। बड़ी कठिनाई से दो हजार मन गल्ला होता है जो उतने ही रुपये का हुआ, क्योंकि कच्ची तौल है। या 24-25 सौ रुपये का लगान भी इतना ही है। बहुतों के खेत नीलाम हो गये और बाकी पर नालिश करके नीलाम की तैयारी है। जो कर्ज है उसके सूद की दर 2 सैकड़ा महीना है।

6 लखाउर

40. घोसी थाने में यह मौजा रौना के बाबुओं और गोरखपुर के राजा तमकुही का है। खास लखाउर करीब 1100 बीघे का है, जिसमें से इधर 5-7 वर्षों में ही करीब 800 बीघे नीलाम करवा लिए हैं। मौजे पर कोआपरेटिव बैंक का तीन हजार और गैर महाजनों का भी उतना ही कर्ज है। आबपाशी का इन्तजाम पहले न था। मगर जब से 800 बीघा बकाश्त बना ली गयी है तब से होने लगा है क्योंकि जमींदार ही खेती करते हैं।

7 सन्दासहबाउन

41- टेकारी के पास भोरी के समीप में टेकारी राज्य का यह मौजा करीब 1200 बीघे का है। जिसमें करीब 600 बीघे नीलाम करवा करे बकाश्त बना लिए गये हैं। कड़ी दानाबन्दी और आबपाशी के अभाव से ही यह हालत है।

8 कल्पा, गोनसा

42. जहानाबाद के नजदीक कल्पा में केवल दो गृहस्थों के पास कुल 37 बीघे जमीन में 17 बीघा बिक चुकी है और शेष पर 500 कर्ज और 2,000 राज्य का लगान बाकी है। इसी प्रकार उसी के पास गोनसा मौजा 500 बीघे का है। दस हजार रुपये बकाया और पन्द्रह हजार कर्ज है। 5-6 गृहस्थों की जमीन नीलाम हो चुकी।

9 पुरानी

43- अरवल के पास यह मौजा सलौने इस्टेट का है। यहाँ के एक किसान अम्बिका सिंह का 56 बीघा खेत सिर्फ 250 बाकी मालगुजारी में नीलाम करवा लिया गया। इस शख्स के घर 14 व्यक्ति हैं, जिनके खाने का ठिकाना नहीं है। श्री जालिम सिंह राम केश्वर सिंह वगैरह के खेत भी नीलाम हो गये हैं।

10 सरौती

44. अरवल के निकट यह मौजा है जिसके 1600 बीघे में 1300 बीघे बकाश्त हो गये हैं। यहाँ के जमींदार कई हैं। धारहरा पटना के बा. रजनधारी सिंह का 7,000 बीघा है, जिसमें 600 बीघा बकाश्त हो चुका है। तेर्रा के बाबू ने भी 500 बीघा और सुरसण्ड के बा. महेश्वर प्रसाद नारायण सिंह वगैरह के भी 100 बीघे बकाश्त में खेती होती है और कुछ खेत 12-13 मन फी बीघा मनी पर किसानों को दिये गये हैं।

11 इटवा

45- यह भी अरवल के ही इलाके में नरंगा के बाबू और कई अन्य जमींदारों का है। कुल रकबा 784 बीघे में 83 बीघा बकाश्त बन चुका है और किसानों के सभी खेत पैंसठ हजार रुपये में रेहन इजारा हैं, जिसके मानी है कि वह बिक चुका है।

12 राजख़रसा

46- 600 बीघे का मौजा है जिसमें 100 बीघे नीलाम हो चुके हैं। बाकी होने को है। टेकारी का मौजा है। 13 से 16 तक फी बीघा किसानों को लगान देनी पड़ती है।

13 बाघे 14 लोदीपुर

47- 1200 बीघे में कई जमींदार हैं। आधा के मालिक मौजा निरंजनपुर के बा. नरेन्द्रदेव नारायण सिंह हैं, जिन्होंने 200 बीघा बकाश्त बना लिया है। लोदीपुर मौजा 600 बीघे का है। इस्माईलपुर कोइल के कोई ओझा वगैरह मालिक हैं। 415 बीघा बकाश्त बन चुका है और जमींदार लोग खेती करने लगे हैं। हमारे पास यहाँ के मालिक इस्माईलपुर कोईल, निरंजनपुर और नौरंगा के जमींदारों की शिकायतें आयी हैं, जिनसे किसान त्राहि-त्राहि करते हैं। सरौती के मालिकों का भी यही हाल कहा गया है।

15 महाल केयाल

48- 8,000 बीघे का है जिसमें एक हजार बीघा बकाश्त बनाया जा चुका है। यहाँ सन् 1932 ई. में जबकि कमरतोड़ सस्ती ताण्डवनृत्य करे रही थी फी रुपया दो आना इजाफा किया गया।

16 मझियावाँ

49- शुरू में जिस मझियावाँ का जिक्र है उसी मझियावाँ के बा. नेमनारायण सिंह करीब 6 बीघे के काश्तकार हैं। उनकी यह जमीन एक बार बकाया लगान में नीलाम हो गयी थी, उन्होंने तो 1926 ई. में 385 देकरे राज्य से फिर बन्दोबस्त ली थी। फिर उसमें से करीब 3 बीघे उन्होंने तीन आदमियों के जिम्मे इजारा करे दिया था बाकी 3 बीघा जमीन उनके पास थी, जिसकी मालगुजारी वे राज्य को बराबर देते थे। लेकिन इजारेदारों ने न दी। इसलिए 21-11-32 को 112 की बकाया डिग्री में उनकी सभी जमीन नीलाम करवा ली गयी और वे निराश्रय हो गये हैं। राज्य के छोटे-बड़े अफसरों के पास रो-गा करे भी कुछ न करे सके।

17 इक्किल

50- जहानाबाद के इलाके में टेकारी राज्य का यह बड़ा मौजा है, जहाँ एक बहुत ही सुन्दर फ्री स्कूल कुछ नौजवानों के उद्योग से चल रहा है। जिसमें करीब सवा सौ लड़के हैं। नाम मात्र को बोर्ड का भी एक स्कूल है। इसके सामने वह चल नहीं सकता। यह मौजा पहले कुछ अमावाँ का था और कुछ टेकारी का। अब तो दोनों ही हिस्सा अमावाँ के राजा का है। क्योंकि इधर कई वर्षों से टेकारी के भी वही मालिक हैं। यहाँ बहुत सी विचित्र बातें मिलीं। सर्वे के खतियान में जहाँ टेकारी के हिस्से में पेड़ों के बारे में लिखा है कि लकड़ी बिलकुल रैयत की, वहाँ अमावाँ वाले हिस्से में लिखा है कि आधी लकड़ी मालिक की आधी रैयत की। यह नगदी जमीन के पेड़ों की बात है। भावली पेड़ों में रंज होने पर 50 की जगह 500 फल की दानाबन्दी पहले यहीं सुनी। यहाँ हमें गल्ले की बाजार दर के बारे में दो जमींदारों के हुक्मनामे मिले जिनसे पता चला कि जब और जमींदार गल्ले की दर फी रुपया 27 सेर काटते हैं तो टेकारी राज्य 23-24 सेर। बा. श्यामबहादुर सिंह और बा. जंगबहादुर सिंह चचेरे भाई हैं। दोनों ही पहले राज्य के गुमाश्ता थे। लेकिन बा. श्यामबहादुर सिंह ने नौकरी छोड़ दी और किसान सभा में काम करते हैं। जरा निडर आदमी हैं। इसलिए बहुत सताये गये हैं। दोनों हिस्सेदारों की जमीन चचा के ही नाम से है। बा. श्यामबहादुर सिंह का राज्य से कहना है कि हमारा हिस्सा अलग करे दीजिए( कारण, साथ रहने से हम लगान देंगे तो भी राज्य के लोग भाई जंगबहादुर सिंह को बहकाकरे लगान बन्द करवा देंगे और बकाया की डिग्री में सब जमीन नीलाम करवा लेंगे। जब राज्य उनसे रंज है तो ऐसा होना स्वाभाविक हैं। हाँ अगर वे फिर नौकरी करे लें तो सारा फसाद मिट जाय। मगर अब वे वैसा करने को राजी नहीं और बिना बँटवारे के लगान देना भी नहीं चाहते। फलत: राज्य ने करीब 100 बकाया की डिग्री करा ली है और उसी में उनकी 100 बीघा जमीन नीलाम करवाने की धमकी दी जा रही है।

51. यह है नमूने के तौर कुछ खास-खास गाँवों की दर्दनाक दशा की बानगी। हमने चुन-चुन के कई जमींदारों की जमींदारियों के नमूने पेश किये हैं। हमारे पास पण्डुई, नेवारी, आदि के जमींदारों के मौजों की भी शिकायत और दुर्दशा की बातें मौजूद हैं और हमें बहुत कुछ जानकारी भी है। वहाँ के किसान किस प्रकार कराहते हैं, यह हम कुछ न कुछ जानते हैं। भावली के प्रसंग में 14 मन फी बीघा दानाबन्दी का उल्लेख आया है जो दफा 69 के जरिये हुआ है। यह पण्डुई के ही मौजे जोगाबीघा की बात है। और भी बहुत सी बातें हैं, जिन्हें लिख करे हम इस संक्षिप्त रिपोर्ट का कलेवर बहुत बढ़ाना नहीं चाहते। क्योंकि हम तो बाहरी संसार की इतनी जानकारी के लिए कि गया के किसानों पर क्या बीत रही है, थोड़े से नमूने पेश करे रहे हैं। बड़े बर्तन के पकने वाले भात के दो ही एक चावलों को देखकरे समूचे के पकने का अन्दाजा लगाया जा सकता है। यही हालत यहाँ भी है। हर जमींदार घुड़दौड़ कर रहा है कि हम बाजी मार ले जायें। यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी है। फिर उसी के जल को पीकरे किसका होश ठिकाने रह सकता है।

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6. खास महाल

52. जब विभिन्न जमींदारियों में होने वाले किसानों के कष्टों का वर्णन किया गया है, तो इसी सम्बन्ध में एक बात और भी जान लेने की है। यह तो सभी जानते हैं कि अन्य जमींदारों की ही तरह सरकार के पास भी कहीं-कहीं, जमींदारी है, जिसे खास महाल कहते हैं और जिसका प्रबन्ध सीधे कलेक्टर के द्वारा होता है और जमींदारों की ही तरह खास महाल की जमींदारी कचहरियाँ भी मौजों में रहा करती हैं और सारा कारबार चलता रहता है। इसलिए साधारण किसान कलेक्टर साहब को ही खास महाल का जमींदार समझते हैं।

गया जिले में खास महाल की जमींदारी बहुत गाँवों में है, खास करे सदर सब-डिवीजन में ज्यादा है। हो सकता है, ज्यादा मौजे खास महाल के समूचे हो( क्योंकि इसका विशेष पता लगाने का हमें अवकाश न मिला और न हमने इसकी जरूरत ही समझी। फिर भी जाँच के सिलसिले में बहुतेरे ऐसे मौजों में हमें जाना पड़ा, जहाँ खास महाल और टेकारी राज्य की सम्मिलित जमींदारी है और गाँव का बँटवारा भी नहीं हुआ है। जिससे दोनों के हिस्से मिलेजुले मुश्तरका हैं। हाँ, एक परानपुर मौजा बेला स्टेशन के पास मिला, जिसके बारे में हमें कहा गया कि यह सोलहों आने खास महाल का है। इसमें भी शक नहीं कि इस परानपुर मौजे के किसानों ने हमें अपने बहुत से दुखड़े सुनाये और आज कई वर्षों से कलेक्टर और कमिश्नर साहब तथा सरकार से अपनी तकलीफें दूर करने के लिए जो कुछ कशमकश और लिखा-पढ़ी वे लोग करते आ रहे हैं उसका पूरा ब्योरा और कागज-पत्र हमें दिये हैं, जिससे पता चलता है कि सबसे बड़ी शिकायत उन लोगों की आबपाशी के बारे में है। वही असल चीज है। यदि वह ठीक हो जाये तो पैदावार होने पर सस्ती के समय भी किसी प्रकार काम चला ही लेंगे। उनका कहना है कि पहले कमलधारा पइन से परानपुर तथा उसके आस-पास के टेकारी राज्य के मौजों की आबादी होती थी। पइन का प्रबन्ध राज्य करता था। मगर अब राज्य ने छोड़ दिया और कलेक्टर साहब करते नहीं! 500 बीघे के मौजे में 400 बीघे धान के खेत हैं जिसमें और फसल हो नहीं सकती और आबपाशी बिना जब धान भी न हो तो फिर किसान मरे नहीं तो करे क्या?

सस्ती के करते कलेक्टर साहब ने माफी भी कुछ नहीं दी है। उलटे वारण्ट और नीलामी तथा धार-पकड़ होती है। कहते हैं दिलबोधा सिंह नामक किसान गिरफ्तार भी किया गया था! जब दूसरे जमींदार पड़ोस में ही रुपये में दो-चार आना माफी देते हैं, तो सरकार भी जमींदार की हैसियत से ऐसा क्यों नहीं करती यह भी पता लगा कि जब मिस्टर हैलेट गया के कलेक्टर थे तो एक बार उन्हीं ने फसल मारा पड़ने के कारण लगान में माफी दी थी। पइन की हालत यह है कि राज्य के साझे में है और जब परानपुर वाले उसे ठीक करना चाहते हैं तो राज्य के अमले विघ्न खड़ा करे देते हैं।

53. लेकिन न तो परानपुर में ही और न अन्यान्य गाँवों में ही जो खास महाल और टेकारी के साझे में हैं, खास महल के बारे में यह शिकायत सुनने में आयी कि मकान वगैरह बनाने में रोक हो। जहाँ दूसरे जमींदार नगदी जमीन में भी मकान बनाने पर 50-60 रुपये फी कट्टा तक नजराना वसूल करते हैं, वहाँ खास महाल में कलेक्टर को सिर्फ खबर देकरे बिना सलामी के ही मकान वगैरह बना सकते हैं। पेड़ों की लकड़ी वगैरह के बारे में कोई रोक-टोक नहीं होती। किसान समूची लकड़ी अपने काम में लाते हैं। बेशक खास महाल में भी महँगी के समय कहीं-कहीं इजाफा हुआ था। लेकिन इधर सस्ती में नहीं हुआ, जबकि और जमींदारों ने किया है।

एक सबसे विचित्र बात हमें यह मालूम हुई कि खास महाल में भावली जमीन नहीं है सबकी सब नगदी है। इसके करते किसानों की बर्बादी किस कदर बची है। यह साफ ही मालूम है। इससे दूसरे जमींदारों की मनोवृत्ति पर पूरा प्रकाश पड़ता है। लेकिन एक बात जो और भी मजेदार है, यह है कि हमने देखा है कि जिस जमीन की मालगुजारी खास महाल को दो रुपये देनी पड़ती है उसी की टेकारी राज्य को 4-5 या इससे भी ज्यादा। दृष्टान्त के लिए परैया के निकट कुशडेहरा-परानपुर को ले सकते हैं। यह मौजा टेकारी और खास महाल का मुश्तरका है। एक ही खेत का लगान खास महाल के लिए नगद देना पड़ता है। लेकिन राज्य की भावली होने से दाना होता है। फलत: जहाँ कलेक्टर से लेकरे 2 बीघे तक पाता है, वहाँ राज्य 5 से लेकरे 20 तक। खतियान में दानाबन्दी की शरह आधा आधा लिखी है। लेकिन राज्य नौ-सत लेता है कहा जाता है कि दो किसानों के बकाया लगान में राज्य ने उनकी जमीन नीलाम करवा ली है। फिर भी खास महाल की मालगुजारी उन्हें ही देनी पड़ती है। एक बात यह भी है कि खास महाल से पानी के खजाने की मरम्मत होती है, लेकिन टेकारी राज्य यह भी नहीं करता। राज्य की ओर से गुप-चुप नालिश, डिग्री, नीलाम और दखल दिहानी तक हो जाने की शिकायत हमें मिली। किसान को पता भी न लगा और उसकी जमीन छिन गयी। खास महाल की ओर से ऐसा कभी नहीं होता। इसलिए जहाँ तक हमें पता लगा और किसानों से हमने खास तौर से पूछा भी, तो यही कहा गया कि और जमींदारों की अपेक्षा खास महाल में किसानों को कहीं आराम है। जहाँ और जगह वे खुलकरे साँस भी नहीं ले सकते और सैकड़ों प्रकार की तहरीर, नजराना, हुजताना आदि गैर-कानूनी टैक्स देने को बाध्य होते हैं। बेगारी करते हैं, वहाँ खास महाल में ये बातें देखने को भी नहीं हैं।

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7.हमारा कर्तव्य

54- पूर्व लिखी सभी बातों पर विचार करे लेने के बाद स्वभावत: ही यह प्रश्न उठता है कि तो ऐसी हालत में हमारा, जनता का या किसान सभा का गया के इन गरीब किसानों के प्रति क्या कर्तव्य है? कारण, यह कोई तमाशा या खेल तो है नहीं कि थोड़ी देर दिल बहलाव हो गया और बात खतम हो गयी! हमें तो ठण्डे दिल से और अपने उत्तरदायित्व पर नजर रख करे खूब गौर करना होगा कि हमारा भी कुछ कर्तव्य इनके प्रति है या नहीं। हम इस अध्याय में इसी पवित्र कर्तव्य का कुछ निर्देश करना चाहते हैं, जिसके पालन से गया की दिन-रात जलने वाली भट्ठी की ऑंच कुछ कम हो और हमारे ये भाई जरा साँस तो ले सकें।

55. इस दृष्टि से विचार करने पर हमारार् कर्तव्य फल के विचार से दो श्रेणियों में बँट जाता है। एक निषेधात्मक और दूसरा विधानात्मक। इनमें पहला सबसे अधिक जरूरी और आसान है और दूसरा पहले की अपेक्षा कठिन एवं कष्टसाध्य है। लेकिन यदि हम पहले को पूरा करे लें तो दूसरा भी आसान हो जाये। पहले अर्थात् निषेधात्मक कर्तव्य के सम्बन्ध में हमें नीचे लिखी बातें करनी होंगी-

क हमें किसानों को सिखाना और इस बारे में घोर आन्दोलन करना होगा कि आत्मसम्मान और मनुष्यता के विपरीत जो मार-पीट, गाली-गलौज, बेगारी के काम वगैरह किसानों से जमींदारों के अमले या जमींदार कराना चाहें उनके सामने झुकने से किसान साफ इनकार करे दें और उनसे साफ कह दें कि इन हरकत और कोशिशों का नतीजा करने वालों के लिए बुरा होगा। एतदर्थ हमें वायुमण्डल तैयार करना होगा जिससे अत्याचारी भी स्वयं रुक जायें और किसानों में हिम्मत आ जाय। समय की गति को देखते हुए वह काम विशेष कठिन नहीं है और इसमें वैसी बाधायें भी नहीं हैं। सिर्फ तत्परता और लगन से पड़ जाने की जरूरत है। यदि कहीं ऐसे मौके पर किसानों के न झुकने से रंज होकरे जमींदार उन्हें प्रकारान्तर से दिक करना चाहें तो उधर हमारी पूरी नजर रहनी चाहिए।

ख किसानों से साफ कहलवा देना चाहिए कि जितने तरह के गैर-कानूनी टैक्स वसूल होते थे, वे अब नहीं मिल सकते और अगर उनके न देने से कानूनी टैक्स लेने से भी वे इनकार करें तो इसके लिए किसान तैयार रहें या अदालत में जमा करे दें।

ग हर मौजे के खतियान और फर्द-रिवाज को देखकरे तथा यदि कोई इकरारनामा हुआ हो तो उसे भी देखकरे पहले यह निश्चय करना चाहिए कि आबपाशी वगैरह के बारे में जमींदार के लिए कोई शर्त है या नहीं और ऐसी शर्त मिलने पर कुछ चुनी जगहों में वकीलों से राय लेकरे जाँच के तौर पर मामला करना चाहिए कि बिना आबपाशी का प्रबन्ध किये लगान पाने का हक जमींदार को नहीं है। यदि एकाध जगह भी जबर्दस्त मामला बनाकरे जीत हो जाय तो सब जगह के लिए रास्ता ही साफ हो जाय और आबपाशी का हाहाकार ही मिट जाय।

घ भावली जमीन पर फसल तैयार होते ही जमींदार को रजिस्टरी के द्वारा अथवा लेने से इनकार करने का भय होने पर दो-चार प्रतिष्ठित आदमियों के सामने उनकी गवाही के साथ जबानी या लिखकरे नोटिस दिलवाकरे मियाद के बाद खेत कटवाने और दौनी करवाने का आन्दोलन होना तथा जमींदारों के भय से रुके न रहने का आन्दोलन और काम होना चाहिए। दौनी होने पर ऐसा ही करके गल्ला ले जाने से न रुकने का प्रचार होना चाहिए।

ङ रसीद लिए बिना हर्गिज लगान न देने के लिए किसानों को तैयार करना चाहिए और अगर जीरात हो तो कहीं-कहीं मालगुजारी ले करे रसीद न देने की गवाही जमा करना और दफा 58 के लिए काफी सबूत प्राप्त करके पक्का मामला करवाना और इस प्रकार जमींदारों या उनके अमलों को ऐसे मामले में हिम्मत करने की कोशिश होनी चाहिए।

56. विधानात्मक कार्य की दृष्टि से भी नीचे लिखी बातें करनी होंगी-

क किसानों को संगठित करना होगा और उन्हें इन कामों को समझाने के साथ ही बताना होगा कि उनके कानूनी अधिकार क्या हैं और चाहें तो वे क्या करे सकते हैं। क्योंकि बिना वास्तविक जागृति के कुछ हो नहीं सकता।

ख ऐसा तीव्र आन्दोलन खड़ा करना होगा जिससे बकाया लगान माफ किया जाय-जमींदार लोग माफ करने को बाध्य हो जायें। साथ ही महँगी के जमाने की कड़ी नकदी भी हलकी हो जाये और सभी भावली तोड़करे औसत पैदावार के ही लिहाज से इस तरह नकदी करे दी जाय कि वह किसानों को किसी भी हालत में अखर न सके।

ग एतदर्थ वहाँ निरन्तर काम करने वाले 20-25 जबर्दस्त और पक्के कार्यकर्ताओं का दल शीघ्र तैयार किया जाये और उनका काम चलाने के लिए कुछ द्रव्य और गल्ला कम से कम एक वर्ष या 6 महीने के लिए एकत्र करे लिया जाय या उसका पक्का प्रबन्ध करे लिया जाय। बिना इसके काम चल नहीं सकता।

घ फौरन गया में स्थायी जिला किसान-सभा का एक कार्यालय खोल दिया जाय और उसमें काम करने के लिए स्थायी रूप से पक्के और अनुभवी कार्यकर्ता रख दिये जायें जो जवाबदेही को समझकरे लिखा-पढ़ी आदि का सब काम करते रहें।

ङ ऊपर लिखे तथा विशेष रूप से गाँव से लेकरे जिले तक नियमित रूप से संगठन का काम शुरू करने का बिगुल बजाने के लिए एक ही दिन और एक ही समय जिले-भर में 10 या बीस किसान कान्फ्रेंस की जायँ, जिनमें ऊपर लिखी बातें किसानों को साफ-साफ समझा दी जायँ और ऐसा करने में उन्हें किन-किन खतरों तथा कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए यह भी समझा दिया जाय।

57. सबसे जरूरी बात यह है कि यदि गया में या अन्यत्र किसान-आन्दोलन को नियमित रूप से चला करे किसानों का कुछ भी भला करना है, तो दो बातें करनी होंगी सो भी बहुत जल्दी। एक तो सब शक्ति लगाकरे नीचे से ऊपर तक नियमानुसार पक्का और पूरा संगठन। दूसरे कैसी नोटिसें प्रचार या सभाओं के लिए छापकरे बाँटी जाय और उनकी भाषा क्या हो इसके निश्चय करे देना होगा और सख्त ताकीद करे देनी होगी कि दूसरी नोटिसें कदापि छापी और बाँटी न जायँ। साथ ही, सभाओं में कौन-कौन बोलेंगे और क्या बोलेंगे या न बोलेंगे इसका भी पक्का नियम और नियन्त्रण करना होगा। जहाँ तक हो सके भाषण की भाषा और शैली पहले से ही निर्धारित करे दी जाय। अगर इसके विपरीत कोई कुछ करे तो किसान सभा की ओर से उसका प्रतिवाद फौरन करे दिया जाया करे। जवाबदेही और परिणाम को न समझने वाले लोगों की जल्दीबाजी और फजूल की सरगर्मी से आन्दोलन को लाभ के बजाय गहरा धक्का लगेगा और यह चल न सकेगा।

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8.परिशिष्ट

58- पिछले प्रकरण में जितनी बातें कही गयी हैं, उन्हीं पर विशेष रूप से प्रकाश डालने के लिए कुछ खास-खास बातों का उल्लेख करे देना जरूरी है। ये बातें पूर्व की बातों के ऊपर भाष्य या टीका का काम करेंगी। इसीलिए इनका लिखा जाना जरूरी है। यह प्रकरण पूर्व के प्रकरण का शेष या परिशिष्ट है। आज की और खासकरे भावली की खेती से वस्तुगत्या किसान को लाभ है या हानि, इसका खुलासा

बिना किसी पक्के दृष्टान्त के नहीं हो सकता इसी प्रकार गैर-कानूनी कार्यवाहियों की पूरी सूची जब तक न दे दी जाय तब तक जमींदारी की मशीनरी की करामात का पता लोगों की समझ में नहीं आ सकता। जब तक देहाती बनियों के बयानों से यह सिध्द न करे दिया जाय कि वे बाजार दर से सस्ते भाव में गल्ला किसानों से लेते हैं, तब तक इस बात पर लोग विश्वास नहीं करे सकते कि जमींदार लोग कम दर में किसानों से गल्ले का दाम काटते हैं। अतएव यहाँ यही बातें संक्षेप में दिखाई जायेंगी।

59. सबसे पहले खेती की पैदावार और खर्च के सम्बन्ध में दो ढंग के उदाहरण पेश किये जाते हैं, जो अग्रलिखित हैं -

(अ) (1) खेती के खर्च का उदाहरण

यदि हम आमतौर से औसत पैदावार 10 मन फी बीघा मान लें, हालाँकि 6-7 मन से अधिक शायद ही होती है, 10 बीघा खेत-किसान के पास हो तो कुल 100 मन पैदावार हुई। अब उसके खर्च का ब्योरा देखिये-

1 कटनी-दौनी आदि की मजूरी फी मन 3 सेर के हिसाब से 100 मन में॥

2 बाकी गल्ला 100-7॥ 92॥ऽ में मालिक का आधा। 46॥

3 लेकिन ज्यादातर हिस्सा नौ सत होने से उसका भी हिस्सा। 5॥॥

4 रोड सेस फी मन सवा सेर की दर से 1॥7॥।

5 दानाबन्दी की कड़ाई फी मन 4 सेर 10

6 साल में हल आदि जोतने का खर्च 5 सेर फी मन की दर से 12॥

7 बड़ी तौल बङ्ढी फी मन 2 सेर 2॥7

8 नोचा, भिखमंगा वगैरह फी मन पाव-भर ॥5

9 नाऊ बारी आदि पौनिया फी मन आधा-सेर 1।

10 दौनी में बैल खाता है फी मन 1 सेर 2॥

11 खैहन बीहन बीज और मजदूर को खाना बतौर बेसूदी ऋण के 20

12 अठाऊँ और विष्णु प्रीत फी मन आधा सेर 1

13 खैहन बीहन महाजन से लेने पर उसका डयोढ़ा सूद 10

14 तहरीर 2 + बराहिल 1 + पर्व-त्योहार 1 4

कुल जोड़ 126

15 एक जोड़ा बैल, हल, कुदाल, गाड़ी वगैरह रखने में13।।।ऽ8।।।=

कुल जोड़ 120

नोट-1 ऊपर जो 15 मद हैं उनमें जमींदार और उनके अमलों से सम्बन्ध रखने वाले मदों, 3, 4, 5, 7, 8, 15 का जोड़ 711- होता है। अर्थात् प्राय: तीन चौथाई पैदावार तो जमींदार ही लेता है।

नोट-2 यह ऊपर लिखा ब्योरा बढ़ा-चढ़ा करे नहीं दिया गया है। बल्कि कुछ घटा करे ही दिया है। हुजताना, तहरीर, साल-भर का दही-दूध, साग-तरकारी, आटा चावल, घी, गुड़, रस, जुर्माना, सूद, तावान इत्यादि मदों को जोड़ देने से यह खर्च कहीं ज्यादा हो जाएगा और अगर धान के खेत में कुछ खेसारी या चना भी मान लें तो इन्हीं मदों के लिए वह काफी न होगा, क्योंकि खेसारी-चना औसतन 2, 3 या 4 मन से ज्यादा फी बीघा कभी न होगा। फलत: खेती करने का नतीजा यह है कि एक सौ मन की पैदावार में 140 मन खर्च हुआ। यानी 40 मन बाहर से और लगा। अभी तो उसके बाल-बच्चों का खाना, कपड़ा, मकान, शादी, गमी, मामला वगैरह अलग हैं। इसीलिए विवश होकरे जमींदार का हिस्सा किसान खा जाता है और उसके सिर बकाया आ धमकता है जिससे हर दूसरे-तीसरे वर्ष एक-दो बीघा खेत बिक जाता है। यदि कहीं मजूरी मिली और कभी ऊख या मिर्चाई वगैरह से कुछ रुपये में मिल गये चुकता किया नहीं तो बकाया रह ही गया क्योंकि हर वर्ष तो ऊख वगैरह होती नहीं।

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2. खर्च का दूसरा उदाहरण

60. लेकिन ज्यादा सही बात यही है कि औसत पैदावार फी बीघा 6-7 मन से ज्यादा होती ही नहीं। कहीं कुछ नहीं होता और कहीं बीघे में 10-15 मन भी होता है। यदि कहीं 20-25 मन हुआ तो किसी साल सूखा या बाढ़ से सब साफ हो गया और कभी दो ही तीन मन फी बीघा हुआ। अत: सब मिलाकरे 6-7 मन फी बीघा से ज्यादा औसत न होगी। अब खर्च का ब्योरा देखिए-

1 बीज फी बीघा 1 के हिसाब से 1

2 3 बार जोतने में 3 हलवाहे की मजूरी 9

3 बीज उखाड़ने और रोपने में 6 मजदूर का 8

4 निकाई करने में 5

5 बैल के खिलाने में दाना आदि का खर्च

6 कटनी, दौनी आदि का खर्च 8

कुल जोड़ 2

इसके सिवाय 80 रु. के बैल के जोड़े से 7-8 वर्ष तक 10 बीघे की खेती हो सकती है, जिसके फलस्वरूप एक बीघे पर बैल का खर्च भी 1 रु. पड़ा, यानी 1 मन गल्ला हुआ। इस तरह कुल 3 मन गल्ला खर्च हुआ लेकिन जमींदार का हिस्सा 6-7 मन में 3 या 4 मन हुआ फलत: किसान को कुछ घर से ही देना पड़ा। यह हिसाब बहुत ही कम खर्च मान करे लगाया है, जैसा कि पहले दृष्टान्त से स्पष्ट है।

बनियों का बयान

61. 1 दः शुकरन साव निशान अंगूठे का बनाया बा: देवधारी साव-बाजार दर से 2 सेर बेशी गल्ला गिरहस्थ से लेते हैं, सो सही है। सा: नियामतपुर।

2 द: नथुन साब-बाजार दर से निरख से दो सेर फाजिल लेते हैं इससे निशान बना दिया। सा: नियामतपुर।

गल्ले की दर के हुक्मनामे की नकल

(नोट-ऐसे बहुत से हुक्मनामे हैं जिनमें एक की नकल यहाँ दी है।)

62. 1 बहुजूर जनाब मैनेजर साहब बहादुर राज मकसूदपुर मो: गेआ।

ता. 4-3-33

चूँ निरीख हसब जेल गल्ले का सन रवाँ के लिए मंजूर किया गया है-चाहिए कि मोताविक निरीख गल्ला फरोख्त करके रुपेआ दाखिल राज खजाने करो वो निरीख ता. 2-3-33 से 31-3-33 तक मनजुर किया गया फकत।

धान स्याह मन 8, धान सफेद 7, धान लालदेह 4, धान बासमती, धान बगला 2, धान करेहनी 6

63.2 सन् 1340 साल कैफीअत रसीद जीनसी नीसबत निरीख बन्दी मौजे इकल मालीक टेकारी राज श्रीमती रानी भुनेसवरी कुँअर साहेब, उरफ बच्चा साहेबा जी- जगलाल सींघ असामी इकील खास 29-3-33 ई. धान सफेद दर 4 कुल गल्ला 12 ,4 रुपैया 21।

ऐसी बहुत सी रसीदें हैं, जिनमें एक की नकल दी गयी है। इस प्रकार मकसूदपुर और टेकारी दोनों ही 1923 के मार्च के निर्ख से स्पष्ट है कि जहाँ मकसूदपुर का निर्ख सफेद धान का 27 सेर है वहाँ टेकारी का 24 सेर। यह 27 सेर भी बाजार दर से कम ही होगा, फलत: बनिये ने 30 सेर लिया होगा जो सवाया हो गया।

64 3 जबर्दस्ती बनवाये हैंडनोट की नकल जिस पर स्याही से अंगूठे का निशान बनाकरे वहीं लिखा है कि सही जगजीवन सिंह हींगनोट लीखा से सही अंगूठे का नीशान बना दिया बा. चमरू सींघ

सख्तियों की सूची

65- 1 जेठ की दुपहरी में बाँध करे धूप में लुढ़का देते हैं।

2 जूते की माला गले में पहना देते और हाथ-पैर बाँध करे उलटे डाल देते हैं।

3 घोड़े के अस्तबल में उसके पिछले खूँटे में बाँध देते हैं।

4 कालीं छुत हरी हाँड़ी पर बैठाते और सिर पर भी हाँड़ी रख देते हैं।

5 अन्धेरी कोठरी में बन्द करे देते हैं और खाने को नहीं देते।

6 पहले जनानी मकान से जानवर न खोलवाते थे। मगर अब वहाँ से भी खोलवाकरे या तो कचहरी में भूखे बाँध देते या फाटक में दे देते हैं।

7 घर पर दुसाद या बराहिल बैठा देते हैं और घर में पाखाना न होने से बड़ा कष्ट होता है।

8 पनघट रोक देते हैं और पानी भरने, पीने नहीं देते।

9 हाथी-घोड़े के लिए हरी फसल काट लेते हैं।

10 मकई की बाल और खीरा झिंगनी आदि जब चाहे मनमाने तोड़वा लेते हैं।

11 पोरा, भूसा, जलावन मुफ्त लेते हैं।

12 छप्पर या घर के पास होने वाली ओल, करैला, कोंहड़ा आदि तरकारियाँ मुफ्त ली जाती हैं।

13 चार या आठ आने पैसे देकरे किसान के खस्सी, बकरे के गले में तागा बाँध देते हैं। बस, वह जमींदार का हो गया। गायब होने पर जुर्माना है।

¼14½ ग्वाले से रोजाना खर्च के लिए बाजार दर से डयोढ़ा और दशहरे में दूना घी, दूध, दही, गोंइठा जलावन मुफ्त बेगार भी मुफ्त।

15 चमार से जूता और कोइरी से तरकारी मुफ्त ही लेते हैं।

16 तेली से बाजार दर से दूना तेल लेते हैं और कचहरी के खर्च के लिए रोजाना आधा या एक छटाँक मुफ्त लेते हैं। जिसे कनवही कहते हैं। बैल, लदनी आदि बेगार में।

17 कुम्हार से खपड़ा एक रुपये में चार हजार लेते हैं। लेकिन कचहरी के रोजाना खर्च और शादी वगैरह में मुफ्त लेते हैं।

नोट-कुल सूची में 44 सख्तियों का वर्णन था, पर अंतिम पृष्ठ उपलब्ध नहीं है। यह सूची डॉ. राकेश गुप्त की पुस्तक जो पीपुल पब्लिशिंग हाउस से छपी है, उसमें अंग्रेजी में अनुवाद करे दिया हुआ है।-सम्पादक

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