स्वामी जी का
अध्यक्षीय भाषण
श्री रामनवमी के अवसर पर दिनांक 9 अप्रैल, 1949 ई. के द्वितीय दिवस के
अध्यक्ष जननायक दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती जी का भाषण अयोध्या
के अखिल भारतीय विरक्त महामण्डल के विशाल अधिवेशन में हुआ था। उसमें
अध्यक्ष पद से स्वामी जी ने अपना जो भाषण दिया था वह अविकल रूप में यहाँ
प्रकाशित किया जा रहा है। सम्भवत: यह स्वामी जी का अन्तिम उपलब्ध प्रकाशित
भाषण है।
प्रायेण देव! मनुय: स्वविमुक्तिकामा
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:।
नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष
एकोनान्यंत्वदस्य शरणंभ्रमतोऽनुपश्ये॥
(श्रीमद्भागवत)
अपनी बात
विरक्त
बन्धुओं!
आपने इस
महाधिवेशन की अध्यक्षता मेरे माथे लाद दी,
इस
के लिए मैं आपको धन्यवाद दूँ या कोसूँ?
आप
में से कितने मेरे वर्तमान विचारों से अवगत हैं?
शायद ही कुछ लोग। मैं जानता हूँ कि श्री ब्रह्मचारी वासुदेवाचार्य जी जैसे
राष्ट्रवादी,
जनवादी और सर्वभूतहितवादी भी आपके विरक्त समाज को अलंकृत करते हैं जिनका
जीवन मानव कल्याणार्थ उत्सर्ग किया जा चुका है,
जिन्हें अपने लिए कुछ नहीं चाहिये और जिन ने इस विशाल देश की मुक्ति के लिए,
इसकी स्वतन्त्रता के लिए मुद्दत तक यातनाएँ झेली हैं। मैं उन्हीं के पथ का
पथिक रहा हूँ और आज भी हूँ। सम्भवत: ये मुझे अपनी ही कसौटी पर कस कर जानते
हों और इसी लिए इस आसन पर ला पटका हो। लेकिन एक तो राष्ट्र के लिए यातनाएँ
झेलना हमारे देश में पेशा सा हो गया है। लोगों ने इसे दर्शनी हुंडी करार
देकर चटपट भुना लेने की ठान ली है। शासन की गद्दियाँ यह भुनाना ही तो है!
खूबी यह कि उनके कष्ट सहन का जितना मूल्य नहीं उससे हजार गुने पर वे इसे
भुनाने में संलग्न हैं और है यह निरी धोकेबाजी,
निपट प्रवंचना। दूसरे,
आज
ऐसा न करने पर भी कल वे भुनाने में न लगेंगे,
इसका ठिकाना नहीं। बड़े-बड़े क्रान्तिवादी और जनवादी निरन्तर ऐसा करते देखे
जाते हैं। ढोल की पोल निरन्तर खुलती जा रही है। ऐसी दशा में मैं भी ऐसी ही
ढोलों में नहीं हूँ और ऐसे ही भुनाने वालों में जा मिलने के लिए बगुला भगत
बना बैठा नहीं हूँ,
इसका प्रमाण क्या?
समय पाकर महन्ती का नाम रूप बदल गया है। शासन की महन्ती के लिए बहुतों ने
अपना ईमान खोया है,
अपनी जनसेवा की प्रतिज्ञा पर पानी फेर दिया है। हमारे जैसे भी आगे चलकर उसी
महन्ती पर फिदा न होंगे,
आशिक न होंगे,
रीझेंगे नहीं,
इसकी गारंटी क्या?
और
ऐसा हो गया तो विरक्त महामण्डल को अपनी भूल के लिए पछताना होगा कि कपटी
मुनि की माया में फँस गया। लेकिन वह भी छोड़िये। आप तो अपने को धार्मिक
मानते हैं,
लेकिन क्या आपको पता है कि मैं कौन हूँ?
मुझे भय है,
आप
वाली धर्मान्तर की परिभाषा के भीतर मैं शायद ही आ सकूँ। आपके भीतर तो
सिर्फ आस्तिक-नास्तिक का झमेला है और नास्तिक आप के पास फटकने भी नहीं पाता,
बल्कि हजार सम्प्रदायों के झमेले में भी आप व्यस्त हैं और एक दूसरे की
निन्दा-शिकायत करने में आपको आनन्द आता है। पता नहीं विराग और विरक्ति के
पेट में ये सब बातें कैसे आयी?
पुष्पदंत ने तो महिम्न: स्त्रोत्र में स्पष्ट ही कहा है कि विभिन्न मतवाद
निराली सूचियों के परिचायक मात्र हैं। भगवान् के पास तो सभी शुद्ध हृदय
वाले पहुँचते ही हैं फिर चाहे वह किसी भी मतवाद तथा धर्मान्तर सम्प्रदाय
के मानने वाले हों-जैसे
सारा पानी घूम-घाम
कर समुद्र में ही जाता है-'नृणामेको
गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव'।
गीता में भी कहा है कि परधर्मान्तर की बात भूलकर स्वधर्मान्तर पालन में
ही मर मिटना श्रेयस्कर है-'स्वधार्मे
निधानं श्रेय:
परवर्मो भयावह:'
(अ.
3,
श्लो.
35)।
पता नहीं यह निन्दा स्तुति किस पोथी में लिखी है जो विरक्त समाज के लिए आज
शिरोधार्य है। गीता ने तो सवधर्मान्तर को भी छोड़ केवल स्वकर्म को ही
कल्याण का साधन माना है-'स्वे
स्वे कर्मण्यभिरत:
संसिध्दिं लभते नर:।'
(18/45)
और
स्वकर्म में खाना पाखाना तक भी आ जाते हैं। इसीलिए साफ कह दिया है कि जो
कुछ खान-पान,
होम,
जप-तप-कोई
भी काम किया जाय उसे ही भगवदर्पण बुद्धि से करने से कल्याण होता है-
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ (9/27)
श्रीमदभागवत में भी कहा है कि स्वधर्मान्तर पालन ही भगवान् की अराधना है।
यह स्वधर्मान्तर पालन ही पापपुंज को जला देता है-'स्वधर्मान्तर
आराधानमच्युतस्य यदीहमानो विजहात्यघौघम्'
(5/10/23)।
अपने प्रतिदिन और प्रतिपल के मामूली कामों पर भी कड़ी नजर रखो। ये काम ही
भगवान् की पूजा हैं। इन्हीं से निस्तार होगा। ईमानदारी और सच्चाई से किया
गया हरेक काम अराधना है,
साधाना है,
तपस्या है। इसी से कल्याण होगा। नाक दबाना,
टीका चन्दन लगाना,
कंठी-माला पहनना,
इस
तपस्या के सामने छोटी सी चीज हो जाते हैं फिर धर्मान्तर सम्प्रदाय का झगड़ा
कैसा?
लेकिन मैं
तो इससे भी आगे जाता हूँ। आप नास्तिकों से चिढ़ते हैं,
वे
भगवान् के द्रोही जो हैं,
धर्मान्तर के विरोधी जो हैं तब उन्हें देखकर आपके हृदय में आग क्यों न
धाधाके जो उन्हें जला दे?
आप
विरक्त हैं,
भक्त हैं,
फलत: विरक्तों एवं भक्तों से आपकी पटती है,
प्रीति है। ठीक ही है
'स्वगुणे
परमा प्रीति:'-स्वजनों
से प्रेम होता ही है।
लेकिन
क्या मैं आपसे एक प्रश्न करूँ?
मुक्त कहते हैं किसे?
जो
भगवान् को याद करे,
अपने आराध्य देव को याद करे,
अपने आराध्य देव को स्मरण करे,
वही तो भक्त है न?
और
यह स्मरण,
यह
याद सच्चा प्रेमी ही करता है,
यह
भी बात है। परन्तु क्या यह सही नहीं है कि कट्टर शत्रु भी खूब ही याद करता
है,
राम के
भक्त यदि उन्हें याद करते हैं तो उनका घोर शत्रु रावण भी उन्हें भूलता न था,
बराबर याद करता था। राम रावण की कहानी जानने वाले यह बात बखूबी जानते हैं।
तब तो यह बात निकली कि भगवान् और धर्मान्तर के पक्के भक्त जिस प्रकार
उन्हें याद करते हैं उनके घोर शत्रु भी वैसे ही स्मरण करते हैं। यदि आस्तिक
जन स्मृति जगाते हैं तो नास्तिक जन भी वही करते हैं। फिर तो भक्तों की
श्रेणी में नास्तिक आस्तिक दोनों ही आ गए। सच्चे आस्तिक और कट्टर नास्तिक
एक ही श्रेणी में एक ही स्थान पर आ गए। दोनों को समान रूप से कल्याण
प्राप्ति का हक हो गया।
प्रसिद्ध
नैयायिक उदयनाचार्य ने नास्तिकता के विरोध में ईश्वरसिद्धि के लिए आज से
हजारों वर्ष पूर्व न्यायकुसुमांजलि नामक एक अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ
लिखा जिस में उनके तर्क व दलीलों के बल पर ईश्वरसिद्धि के बारे में कलम तोड़
दी है। लेकिन क्या आपको याद है कि उस ग्रन्थ के उपसंहार वाले अन्तिम श्लोक
में उनने क्या लिखा है?'
वे लिखते
हैं-
इत्येवं श्रुति-नीति-सम्भव-जलैर्भूयोभिराक्षालिते
येषां
नास्पदमादधासि
हृदये ते शैलसाराशया:।
किन्तु
प्रस्तुत-विप्रतीप-विधायोऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तका:
काले
कारुणिक त्वयैव कृपया ते भावनीया नरा:॥
इसका आशय
यही है कि कृपासागर! इस प्रकार वेद,
न्याय,
तर्क आदि के रूप में झरने का जी हमने इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है और इस
से उन नास्तिकों के मलिन हृदयों को अच्छी तरह धो भी दिया है ताकि आपके
निवास के योग्य बन जाएँ लेकिन इतने पर भी यदि आपको उनके हृदयों में स्थान न
मिले,
वे
नास्तिक के नास्तिक ही बने रहें तो हम यही कहेंगे कि वे हृदय वज्र या
इस्पात के हैं। फिर भी याद रहे कि प्रचण्ड शत्रु के रूप में वे भी तो आप को
पूरी तौर से आखिर याद करते ही हैं। इस लिए उचित तो यही है कि समय आने पर आप
उन्हें भी भक्तों की ही तरह सन्तुष्ट करें। कितना ऊँचा खयाल है?
कहाँ तो नास्तिकों को मिटाने चले थे और कहाँ उन्हें भी ठेठ भक्तों की
श्रेणी में ला करके बिठा दिया! इधर हमारी यह हालत है कि धर्मान्तर और
सम्प्रदाय के नाम पर खंडन मंडन और गाली गलौज में ही अपना कर्तव्य पूरा कर
लेते हैं। दरअसल धर्मान्तर और ईश्वर हृदय की चीजें हैं इसीलिए मैं कट्टर
नास्तिकों को पहले दर्जे के भक्तों में रखता हूँ सच्चे दिल वाले के सामने
सगुण-निर्गुण या आस्तिक नास्तिक का प्रश्न रहता ही नहीं।
हमारे
यहाँ ऊँच-नीच और छूत-अछूत का भूत डेरा डाले पड़ा हमें परेशान कर रहा है। फिर
भी हम विरक्त और भक्त होने के गुमान में मरे जा रहे हैं। तो क्या छूत अछूत
जानवर नहीं हैं और नरसी मेहता भक्त न थे?
लेकिन बात क्या हुई?
उनकी पकाई रोटी कुत्ता ले कर भाग चला तो वे उसके पीछे हाँफते हुए दौड़े जा
रहे हैं,
हाथ में घी लिए कह रहे हैं,
महाराज! रुकिए तो सही,
रोटियाँ रूखी हैं गले में अटकेंगी,
जरा घी तो लगा दूँ। नरसी की भक्ति कुत्तो में भगवान् को देख रही है,
उनके सामने कुत्ता हुई नहीं। मगर हमारी भक्ति हमें ऊँच नीच के फन्दे में
फँसा कर मारे जा रही है। एक ओर तो हम विरक्त और विरागी होने का दावा करते
हैं जिस के मानी हैं सभी सांसारिक पदार्थों का त्याग,
उनमें रस हीनता। दूसरी ओर अपने दिलों में राग-द्वेष,
ऊँच-नीच को भावना जैसी गन्दी चीजों को रखते हैं। आइए,
हम
सब भी तो अपने-अपने दिलों को टटोलें और इससे यह कूड़ा करवट धो बहाएँ। नहीं
तो ''आये
थे हरिभजन को,
ओटन लगे कपास''
की
बात चरितार्थ होती ही रहेगी।
एक बात
और! आखिर प्रधाद तो भक्त शिरोमणि माने जाते हैं न?
लेकिन क्या वे हमारे आप जैसे कुटियों में,
मठों में या जंगलों में धुनी रमाते रहते थे?
भगवान् को ढूँढ़ते थे?
या
जर जमीन की हिफाजत में लीन थे?
वे
तो दीन हीन जनों के बीच में रहकर उन्हें मार्गदर्शन कराते और उनका मानसिक
स्तर ऊँचा उठाते थे,
इसीलिए तो अपने पिता हिरण्यकशिपु के कोपभाजन होकर यातनाएँ झेलते रहे।
उन्हें अपनी मुक्ति प्यारी न थी। उन्हें उसकी परवा नहीं थी,
वे
तो जन साधारण के द्वार के बहाने खुद नर्क में जाकर भी दु:खियों को स्वर्ग
भेजने का व्रत ले चुके थे। क्या हमें उनका अनुगामी नहीं होना चाहिये?
जब
नृसिंह ने हिरण्यकशिपु का वध करके प्रधाद से वैकुण्ठ चलने को कहा तो उस ने
साफ इनकार किया और कहा कि मैं तो यहीं भला,
इस
शोषित पीड़ित मानव समाज को यों ही जलता छोड़ मुझ अकेले को वैकुण्ठ मनहूँस और
भयावना लगेगा। मैं स्वार्थी ऋषि मुनि नहीं हूँ कि दुनिया के लोगों की
चिन्ता छोड़ चुपचाप अकेले निर्जन वन एवं स्वर्ग वैकुण्ठ में जा बसूँगा-
प्रायेण देव! मनुय: स्वविमुक्तिकामा
मौनं
चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:।
नैतान्
विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको
नान्यं
त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये॥
भागवत (7
|9 |44)
प्रह्लाद को तो अपनी जुबान पर ताला लगाकर बैठने के बजाय जनता की आवाज
बुलन्द करनी थी। मूक जनता को वाणी देनी थी। इसलिए उसने मुनियों को भी
स्वार्थी कहा तो क्या हमें भी वैसी हिम्मत है?
क्या हम में भी वैसी लगन है जनसेवा की?
जनवाद को पल्लवित-पुष्पित करने की?
मैं स्वयं उसी पथ का पथिक हूँ और आप सबों को उसी मार्ग पर चलते देखने
को लालायित हूँ। यही लोभ मुझे यहाँ घसीटने में सफल हुआ है। आपसे
स्पष्ट कह दूँ-
घर छोड़ा कुटिया मिली। कुल छोड़ा चेले किये। जर-जमीन छोड़ी तो मठों में
आड़ा लिये हैं। यह क्या है?
यह वैराग्य है या उसका उपहास?
हम कहाँ से कहाँ आ भटके?
खुद तो धर्म को धक्का देकर नर्क में जा पड़े फिर भी धर्मरक्षा की
ठेकेदारी करने चले हैं। दुनिया पहले भी अन्धी न थी-आँखें रखती थी,
अब तो और भी काइयाँ बन गयी है। इसीलिए दुनिया हम पर और हमारी इन नकली
विरक्ति पर-ढोंग पर हँसती है। वह हमें गर्दनियाँ देने को तैयार है
यदि हम अभी भी न चेतें। आइये,
कुटिया छोड़ें और मठों की सम्पत्तियों का सदुपयोग करने का व्रत ले
लें। मठों से कुकर्मों को हटाकर वहाँ सुकर्मों को आसीन कराने का दृढ़
संकल्प कर लें,
फिर तो हमारी और नजर उठाने की भी हिम्मत कोई नहीं कर सकेगा।
(शीर्ष पर वापस)
देश
की बात
हमने संक्षेप में अपनी बात कर ली,
अपना घर टटोल लिया,
आइये अब जरा देश की बात भी करें, सोचें और
देखें कि वहाँ क्या हो रहा है। सच बात तो यह है कि सारे देश में जैसे
आग लगी है। सभी हाय-हाय कर रहे हैं। कबीर ने कहा था-
जोगी दुखिया,
जंगम
दुखिया,
तपसी का दुख दूना।
आशा तृष्णा सब घट व्यापी,
एको महल न सूना ॥
यह बात अक्षरश: चरितार्थ हो रही है। जब हम विरक्त नामधारी और साधु-
फकीर कहलाने वाले ही पथभ्रष्ट हो अतल गर्त्त में जा गिरे तो दूसरों
का कहना ही क्या है?
पथदर्शकों और नेताओं के पतन ने व्यापक पतन का मार्ग प्रशस्त कर
दियाहै।
खैर,
हम तो पुराने नेता ठहरे। आज तो नये नेता हमसे भी ज्यादा नीचे जा गिरे
हैं। उनके पतन की तो पराकाष्ठा हो गयी है। ऐसा लगता है कि नेतागिरी
की पगड़ी सर पर बाँधने वालों पर बला आ पड़ी है और सभी जहन्नुम चले जा
रहे हैं,
चले जा चुके! साधु-फकीर और पण्डित लोग तो स्वर्ग वैकुण्ठ और
ब्रह्मलोक में लोगों को पहुँचाने का ठेका लेकर खुद नर्क में डूब रहे
हैं। मगर नये नेतागण देश से दरिद्रता,
दु:ख,
दमन आदि को भगाने चले थे और आज उल्टी गंगा बहा रहे हैं। उन्हें
हिम्मत नहीं कि गाँवों में जाकर जनता के सामने निर्भीकतापूर्वक बोल
सकें। गाँधी टोपी पर आफत आयी है। देखने वाले गुस्से से लाल हो जाते
हैं। यह टोपी कुछ दिन पहले तक त्याग-बलिदान की प्रतीक मानी जाती थी
जब तक मुल्क गुलाम था और अंग्रेजी शासन भारत में कायम था। इसीलिए लोग
गाँधी टोपीधारियों की इज्जत काफी करते थे। मगर आज वही टोपी चोरबाजारी,
घूसखोरी,
टुकड़खोरी आदि का साधन बन गयी है। जिसने अंग्रेजी जमाने में इसे छुआ
तक नहीं उसी के सर पर आज यह ज्यादातर दीखती है। मिल और विदेश के
वस्त्र धारण करने वाले भी अफसरों के पास जाने तथा नेताओं के
विश्वासपात्र होने के लिए एक गाँधी टोपी,
खादी की धोती और उसी का कुर्ता रखते ही हैं। यदि साधु नामधारियों ने
कण्ठी,
माला,
तिलक छापे को ठगी एवं प्रवंचना का साधन बना डाला था तो खादी और गाँधी
टोपी के रूप में यह नये ढंग की कण्ठी-माला आ गयी! जो लोग ईमानदारी और
मर्दानगी के साथ कांग्रेस के लिए कटे-मरे,
उसके झण्डे को सदा ऊँचा किये रहे,
मगर चापलूसी और दरबारदारी से घृणा करते थे,
न्याय चाहने वाले हैं उनकी पूछ गद्दीधारी कांग्रेस में अब नहीं रही,
उन्हें ये नये स्वराजी महन्त फूटी आँखों नहीं देख सकते। कांग्रेस और
आजादी के संग्राम के कट्टर शत्रुओं की ही वहाँ रसोई है। उन्हीं के
माथे ऊँची गाँधी टोपी और तन पर मोटी खादी की धोती तथा कुर्ता देखा
जाता है। मन्दिर बनाने और उसमें भगवान् को पधारने के जो सदा विरोधी
रहे वही आज भोग लगाने के समय पुजारी बन बैठे हैं! ऐसी दशा में वह
मन्दिर पतन का अव क्यों न बने और उसके उपासक भक्तजन जहन्नुम का
रास्ता क्यों न साफकरें?
परिणाम स्पष्ट है। अंग्रेजों के जाने से आजादी आयी या बरबादी?
आज चोरी,
डाकेजनी बढ़ी है या घटी?
गाँवों में आतंक है,
शहरों में इसकी विभीषिका है। यह मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। कहा जाता है,
पुलिस अकर्मण्य है और कुछ राजनीतिक दल इन जुर्मों का प्रसार कर रहे
हैं मगर क्या शासक कर्मठ बन गये हैं?
उन्हें तो गाँवों के अगम्य कामों में लोअर-अपर स्कूलों में पारितोषिक
बाँटने से ही फुरसत नहीं,
सड़ी-गली लाइब्रेरी का उद्धाटन करने से ही अवकाश नहीं। फिर शासन कार्य
क्या चलाएँगे खाक?
जब उनकी मक्कारी वाली बातें सुनने को जनता तैयार नहीं है,
तो खुद दौड़कर उसके घर पहुँचते हैं। उनके इर्द-गिर्द चोरबाजारी करने
वाले डाकू मँडराते रहते हैं। गाँवों में जो सबसे गये-गुजरे लोग हैं
जिनका पेशा दलाली रहा है आज इन शासकों के पास उन्हीं की रसोई है। जो
हाकिम और अफसर जितना ही घूसखोर है वह इन शासकों की उतनी ही ज्यादा
हाजिरी बजाता है और निर्भय विचरता है। इस तरह
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घण्टे जनता की लूट चालू है। किरासिन तेल गायब,
लोहा गायब,
कोयला गायब,
सीमेण्ट गायब,
अन्न गायब,
दवादारू गायब! स्वराजी शासकों के पदार्पण ने छछून्दर की तरह इन चीजों
को छूकर चोरबाजार में भगा दिया ऐसा लगता है क्योंकि चोरबाजार में
जितना चाहिए खरीदिये। अधिक अन्न उपजाओ का ढोंग शासकों ने खूब ही खड़ा
किया है। फिर भी होता-जाता है खाक नहीं। हो भी कैसे?
गाँवों की समस्याओं का वास्तविक अधययन करने की छुट्टी इन स्वराजी
शासकों को न पहले थी न आज है। उन्हें यह भी पता नहीं कि गन्ना कब
बोया जाता है और गेहूँ की खेती किन नक्षत्रों में होती है। विभिन्न
फसलों की खेती करने में खर्च क्या होता है इसका भी पता इन्हीं मुतलक
नहीं है। फिर भी कोई कृषिमंत्री बन बैठा है तो कोई मालमंत्री। यहाँ
माल मारना है क्या?
फलत: सेक्रेटरियट में आसन लगाये जो लोग बैठे हैं,
वही इन मन्त्रियों को बन्दरों की तरह नचाते हैं ऑफिस में और गाँवों
में नचाते हैं इनके दलाल।
गाँवों
में बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं। शिक्षकों की दुर्दशा कौन कहे?
यदि पुकारें तो कोई सुनने वाला नहीं। सड़कें नदारद,
औषधालय लापता,
पानी की ठिकाना नहीं,
सिंचाई की व्यवस्था नहीं,
चोर लुटेरों से बचने का उपाय नहीं। हालाँकि गेहूँ,
चना,
चावल,
शाकभाजी,
फल,
फूल,
घी,
दूध,
दही ये
गाँव ही इन शासकों को भी देते हैं और दूसरों को भी। जो गाय भैंसें दूध देती
हैं उनकी पूरी हिफाजत और खान-पान की व्यवस्था इन गाय भैंसों के मालिक ही
करते हैं। मगर सबों के लिए कामधेनु का काम करने वाले ये गाँव और उनके किसान
लावारिश जैसे हैं,
उनकी चिन्ता न शासकों को है और न शोषकों को। सरकार और जमींदार का पाई पाई
पावना मिल जाय इसकी फिक्र जैसे पुराने शासक करते थे वैसे ही नए स्वराजी
शासक भी करते हैं। शोषक भी अवश्य करते हैं। मगर वसूली के लिए पैदावार बढ़ाने
और अतिवृष्टि अनावृष्टि से किसानों को बचाने की जरा भी चिन्ता किसी को
नहीं। जीवन भर गेहूँ,
घी
उपजाते रहे किसान और खाते रहे दूसरे ही। बीमारी की दशा में उन्हीं किसानों
को दवा नहीं मिलती और मर जाते हैं?
यह
हालत बर्दाश्त के बाहर है। फिर भी कायम थी,
कायम है। इसे मिटाने की कौन सोचता है?
जो धोबी
सबेरे कपड़ा धोता वह धापाधाप्प धुले कपड़े पहनता है। जो कुम्हार बर्तन बनाता
उसे घड़े ओर हाँड़ी का अकाल नहीं होता। जो कसेरा थाली लोटे गढ़ता है उसे उन
बर्तनों का टोटा नहीं रहता। मगर साल में हजारों मन गेहूँ,
बासमती,
घी,
दूध पैदा करने वाले किसान के बच्चे पैसे भर दूध के लिए तरसते हैं। समस्त
परिवार को गेहूँ और बासमती खाने को नहीं मिलता है। उसे खेसारी,
मँडुआ और मट्ठे पर गुजर करनी पड़ती है। यह उल्टी गंगा बर्दाश्त के बाहर है।
इसे मिटाना ही सबसे बड़ा धर्मान्तर है,
पूजा है,
तपस्या है,
अराधना है। इस अस्वाभाविक दशा के विरुद्ध विद्रोह पैदा करने का बीड़ा इन
स्वराजी शासकों ने पहले उठाया था मगर अब गद्दी मिलते ही भूल गए। ऐसी दशा
में हम विरक्त नाम धारियों को ही यह कार्य करना होगा। यह अनर्थ मिटाना होगा
हम,
आप
और गुरु पुरोहित किसानों के यहाँ जाते हैं तो उन्हें परलोक और मुक्ति की
बात बहुत बताते हैं। कान में गुरुमन्त्र फूँकते,
टीका चन्दन करना सिखाते,
दण्डवत् प्रणाम कैसे किया जाये यह पाठ पढ़ाते,
माला जपने का काम शुरू हो और खत्म हो यह बताते हैं। यह सब इसीलिए कि
वैकुण्ठ मिले,
स्वर्ग मिले,
भगवान् मिलें। लेकिन जो पुलिस और जमीदारों के जूतों,
के
नीचे दबे हैं,
जो
अपनी जमीन के लिए जम कर लड़ नहीं सकते,
जो
नामर्द और हिजड़े बन गए हैं,
क्या उन्हीं से यमराज डरेगा?
क्या वही भगवान् के पास पहुँचेंगे?
क्या भगवान् नपुंसक का ही साथी है?
तब
तो वह भी नपुंसक ही होगा न?
जिस स्वर्ग वैकुण्ठ में ये हिजड़े और दब्बू किसान पहुँचेंगे वह कैसा होगा यह
आप ही सोचें। जब तक हम गुरु पुजारी और संत विरक्त इस विराट् जनसमूह को मर्द
नहीं बना डालते और इसी भूमि पर अपने हक के लिए,
जमीन और प्रतिष्ठा के लिए छाती खोलकर लड़ मरना नहीं सिखाते,
मुक्ति और स्वर्ग की बात प्रवंचना मात्र है क्योंकि भगवान् निर्बल को नहीं
मिलते ''नायमात्मा
बलहीनेन लभ्य:''
देश की
90
प्रतिशत जनता के तन पर चिथड़े भी नहीं हैं,
पेट में सुन्दर अन्न नहीं है। घर पर फूस की छप्पर नदारद है,
रोगी होने पर दवा नहीं है,
पढ़ने लिखने का कोई सामान नहीं है। पैसे नहीं कि किताब खरीदें,
फीस नहीं कि डॉक्टरों को बुलाकर दवा कराएँ। यह सब इसीलिए होता है कि यह
कमाने वाली किसान मजदूर जनता गूँगी है,
चीख पुकार मचा नहीं सकती,
इसकी समस्त कमाई की जैसे निर्दय लूट विदेशी शासक शोषण करते थे वैसे ही
स्वदेशी शासक शोषक भी करते हैं। मूक जनता के तन में जबरदस्ती नश्तर लगाकर
इसका खून निरन्तर निकाला जा रहा है। इसकी कमाई लूटी जा रही है इसीलिए यह
सर्वात्मना क्षीण है,
अशक्त है,
........
है।
स्वदेशी लूट भी स्वदेशी शासकों की छत्रछाया में अविराम चालू है। यह जनता को
मार डालेगी यदि बन्द न की गयी। विदेशी शासक अपने घर बैठे स्वदेशी शासकों की
भरपेट प्रशंसा कर रहे हैं। कल के शत्रु आज मित्र हो गए। क्या वे देखते हैं
कि लूट तो होई रही है और हमारी बदनामी भी नहीं है अब तो स्वदेशी शासक हैं!
''ठग-ठग
मौसेरे भाई''
वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। हमें और आपको इसका भण्डाफोड़ करना और निर्दय
विस्तार को रोकना होगा। तभी हमारी साधुता,
सभी हमारी विरक्ति के कुछ मानी होंगे। यदि विरक्त समाज हट जाय तो शासकों की
हेकड़ी ही बन्द हो जाय और जनता का उद्धार हो जाय।
ये किसान
संसार को खिलाते पिलाते हैं,
देवता पितरों को भोग और पिण्डा पानी देते हैं,
भगवान् का भोग लगाते और लीडरों को मालपुआ पूड़ी चभाते हैं। मगर इनमें एक भी
इन गरीबों की खबर लेने के लिए रवादार नहीं है। तो क्या देवता पितरों,
भगवान् में शक्ति ही नहीं है या कि वे भी अमीरों का घूस खाते हैं?
क्या दीनबन्धु भगवान् अमीर बन्धुबन गए?
यदि नहीं तो अपनी एक दृष्टि से ही इन किसानों को लूटने वालों का नाश और इन
दोनों का उद्धार क्यों नहीं कर देते?
आखिर बात क्या है,
कौन बताएगा?
यदि भगवान् नहीं करते तो आप लोग उनके भक्त होकर वही काम क्यों नहीं करते?
भगवान् को इसके लिए कष्ट देने की क्या जरूरत
?
यदि वही
करें तो आपकी भक्ति की क्या कीमत रही
?
तब आप
भक्त कैसे ?
तो
क्या आशा करूँ कि अब आप लोग किसान मजदूरों को जगाने में लग जाएँगे
?
आखिर आप
लोग जो अन्न और घी-दूध खाते हैं वह भी तो इन किसान मजदूरों की ही कमाई है न?
आप
तो खुद खेती बारी करते नहीं,
किसानों का अन्न खाकर बदला क्यों नहीं चुका देते,
नहीं तो मरने पर सूद सहित यह ऋण चुकाना पड़ेगा।
(शीर्ष पर वापस)
शासकों की बात
हमारे
नए शासक मदमत्त हैं और चाहते हैं कि जनता के लिए,
दिमाग, जुबान और कलम
?
पर जंजीरें लकड़ी रहें। जो जंजीरें लगाने में विदेशी
शासक हजारों बार हिचकते थे वही ये बेखटके कस रहे हैं। जिन जंजीरों के लिए
ये शासक अंग्रेजों को गालियाँ देते थे वही जंजीरें आज इन्हें सुन्दर जँचती
हैं। फिर भी कहने में शर्माते नहीं कि देश को आजादी मिली है। जिस जनता ने
अंग्रेजी शासन को जो दो सौ साल से जमा था उखाड़ फेंका वह इन नए शासकों को भी
पलक मारते उखाड़ फेकेंगा यह याद रहे। ये अपने को जितना मजबूत समझते हैं
दरअसल उतना हैं नहीं। ऐसा लगता है कि इनका समस्त शासन
यन्त्र
ही चरमरा गया है। जो लोग पेट्रोल की बिक्री का चोर बाजार रोक नहीं सकते
हालाँकि वह उन्हीं की चीज है वही बेचते बेचवाते हैं,
बाहर से मँगवाते हैं, वह कुछ
भी नहीं कर सकते। जो भूखे शिक्षकों के जले पर नमक छिड़कने में जरा भी नहीं
शर्माते उन्हें याद रखना चाहिये कि जनता के दिलों में गुस्से की आग धाधाक
रही है, जो एक दिन जालिमों को जला देगी,
इसमें शक नहीं। जो लोग झूठी शान के पीछे
कर्तव्य
कर्म को भूल गए उनके दिन खड़े ही समझिये। मुट्ठी भर दुम हिलाने वाले पालतू
लोग उन्हें बचा नहीं सकते। इन से न किसान खुश,
न मजदूर प्रसन्न, न शिक्षक
राजी, न छात्र
संतुष्ट और न जनसाधारण
अशावान् है,
हालाँकि सबों से इनका यही कहना है कि हम आप के ही हैं।
तब तो ये अपने ही होकर बेगाने जैसे बन गए न? एब
ओर तो जनता को कोई आराम नहीं दे सकते, हालाँकि
बड़ी-बड़ी उम्मीदें दी थीं; दूसरी ओर कहते हैं कि
नई आजादी को बचाइए नहीं तो छिन जायेगी। यकीन रखें,
हम इस आजादी को हरगिज छिन जाने न देंगे। यदि इसे
प्राप्त करने में जान की बाजी लगा दी थी तो बचाने में सब कुछ करेंगे। फिर
भी कहे बिना रह नहीं सकते कि यह तो खोखली आजादी है,
अधिकारियों
और शासकों की तो इस समय पाँचों उँगुलियाँ घी में हैं। फलत: इस आजादी की
रक्षा की चिल्लाहट वे क्यों न मचायें?
उनकी गद्दी छिन जाने का खतरा जो है! उनके बीबी बच्चे भी
यदि किसान मजदूरों के बीबी बच्चों की तरह चिथड़े पहने रहते,
दवा बिना कराहते होते, भूख
से तड़पते दीखते और फिर भी ये शासक, ये लीडर
आजादी की रक्षा की पुकार मचाते तो हम इन्हें ईमानदार कहते। जिसके पेट में
भीषण दर्द है वह दवा चाहता है, दुआ माँगता है,
न कि आजादी की परवाह करता है,
वही दशा जनता की है। फिर भी वह आजादी के बारे में सतर्क
है। मगर आजादी की रक्षा का रास्ता वही है जो लीडर चाहते हैं। टाटा,
बिड़ला के हाथों में खेलने से आजादी मर जायेगी। ये पूतना
से भी बुरे हैं। उसे किसान मजदूरों के हाथ सौंपिए।
आर्थिक
बातों में तो इन ने बटाधार किया ही है,
अब
सामाजिक एवं धार्मिक मामलों में भी वही करने जा रहे हैं। संशोधन होना जरूरी
है। संसार परिवर्तनशील है। तब सामाजिक और धार्मिक नियम,
रूढ़ियाँ और रिवाज भी क्यों न सुधारे जाएँ?
एक
समय था जब विवाह की व्यवस्था न थी और महाभारत के पढ़ने वाले जानते हैं कि
श्वेतकेतु ने अपने पिता आरुणि से आग्रह किया कि वैवाहिक नियम बनाइए,
यौन सम्बन्ध में पशुवृत्ति ठीक नहीं। तब आरुणि ने ऋषि-मुनियों की गोष्ठी कर
के विवाह व्यवस्था जारी की। वर्णव्यवस्था की भी यही हालत है। वह भी पीछे
स्थापित हुई। महाभारत के शान्तिपर्व के मोक्ष धर्मान्तर वाले
199
वें
अध्याय के
''न
विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि
कर्मभिर्वर्णतां गतम्। इत्येतै: कर्मभिर्र्व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गता:।''
आदि 10
से
13
तक के
श्लोकों से यही बात स्पष्ट है। लेकिन यह व्यवस्था भी विद्वत्परिषद् में
काफी सोच विचार के बाद हुई। यह नहीं कि जिए ऋषि ने चाहा अपने मन से कानून
बना दिया। जो ऐसा करने की हिम्मत करते थे उनके विरुद्ध विद्रोह हो जाता था।
न सिर्फ वेणु राजा के ऐसे कामों के विरुद्ध विद्रोह हुआ बल्कि ऋषियों के
विरुद्ध भी। देखिए न,
व्यास स्मृत्ति के पहले अध्याय के
10
से
13
तक के
''वर्धाको
नापितो गोप:''
आदि श्लोक ऐसे हैं जिनमें बढ़ई,
नाऊ,
गोप,
कायस्थ आदि को अन्त्यज कह कर इन्हें छूने में भी प्रायश्चित्त लिखा है।
लेकिन क्या यह बात आज मान्य है?
कदापि नहीं। क्यों?
इसीलिए न कि इन जातियों ने इस नियम के विरुद्ध बगावत की और जनता को अपने
साथ ले लिया! ऐसे हजार दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। इसीलिए सुधार की ओर
सँभल कर पाँव देना चाहिये। लोकमत को अनुकूल करके खूब विचार विमर्श के बाद
ही ऐसा करना चाहिये। मगर नए शासक और इनके दोस्त अपने ही मन से जल्दबाजी में
धार्मिक तथा सामाजिक नियमों में आमूल परिवर्तन करना चाहते हैं,
यह
ठीक नहीं।
एक जमाना
था जो मनुस्मृति से स्पष्ट है कि मामू की कन्या से विवाह करना हेय था,
सपिण्ड और सगोत्र में विवाह वर्जित था। लेकिन दाक्षिणात्यों ने इसे न माना
और वहाँ वह चल पड़ा। मामू की कन्या से शादी होने लगी। कुमारिल ने शाबर भाषण
के तन्त्रर्वात्तिक में इसे माना है और मामू की कन्या से शादी कराने के
कारण ही अर्जुन और कृष्ण को दोषी ठहराया है। फिर भी समाज ने उसे बुरा न
माना तो वह भी जायज हो गयी। हो सकता है सगोत्र विवाह भी समाज को मान्य हो
जाय। मगर ये बातें गूढ़ विचार की हैं और विद्वान गोष्ठी ही इन पर फैसला दे
सकती है। जहाँ सगोत्र विवाह है,
जहाँ नहीं है सबों की तुलना करना,
पीछे निर्णय करना होगा। भाई बहन की परस्पर शादी भी क्यों न हो,
यह
भी प्रश्न हो सकता है। सगोत्र के बाद वह आयेगा ही। अत: वह भी पहले से ही
विचारणीय है।
विवाह
विच्छेद और विधवा विवाह का प्रश्न भी ऐसा ही है। मनु ने तो स्पष्ट ही कहा
था कि ''पति-पत्नी
आजीवन एक दूसरे को न छोड़ें-दोनों ही एक पति-पत्नी व्रत को निबाहें''
............... ''अन्योऽन्यस्याव्यभिचारो
भवेदामरणन्तिक: (9/101)।''
मगर पीछे पुरुषों ने इसे न माना और दूसरा विवाह जारी कर दिया। ऐसी दशा में
स्त्री के भी न मानने का प्रश्न महत्वपूर्ण है। तो क्या किया जाये?
क्या पुरुष को भी मनु का नियम मानने को बाध्य किया जाय
?
या
स्त्री को भी आजाद किया जाय
?
यह सवाल
उठता है। इसका उत्तर उतना आसान नहीं है जितना हमारे नए नेता समझते हैं।
समाजशास्त्रज्ञों की परिषद् ही से हल कर सकती है। विवाह विच्छेद कर के भी
यदि पुरुष मस्त विचरता है तो स्त्री भी क्यों न विचरे
?
यह बात भी
वैसी ही है। असवर्ण विवाह भी ऐसे प्रश्नों में है। मगर इसका निर्णय आज की
व्यवस्थापक न करें तो ठीक। इन प्रश्नों पर खूब विवाद हो,
लोकमत बने और अन्त में एक गोष्ठी निर्णय करे। अनधिकार चेष्टा रोकी जानी
चाहिये और तथाकथित व्यवस्थापकों से कह देना चाहिये...खबरदार!
मठ
मन्दिरों के सम्बन्ध की बात भी ऐसी ही है। इनके पीछे धार्मिक भावना काम
करती है जो अन्धी होती है। इससे छेड़खानी करना खतरे से भरा है। मार्क्स और
एंगेल्स निरीश्वर और धर्मान्तर विरोधी होने पर भी ऐसी छेड़खानी पसन्द न
करते थे। उनने कहा कि इन्हें मोर्चा बनाकर फतह करने का विचार गलत है,
खतरनाक है। आर्थिक लड़ाइयों के द्वारा ही धर्मान्तरवाद और ईश्वरवाद की कलई
खोलने की पक्की राय उन ने दी है। तब धर्मान्तर की दुहाई पद पद पर देने
वाले ये नए नेता इसमें क्यों पड़ते हैं,
यदि कोई स्वार्थ नहीं है
?
मैं मानता
हूँ कि जिस प्रकार संघर्ष करके अकालियों ने पंजाब के गुरुद्वारों पर
नियन्त्रण किया और उन्हें सुधारा ठीक उसी प्रकार दूसरे धर्मान्तर
सम्प्रदाय वालों को भी करना होगा और यह काम यह विरक्त महामण्डल बखूबी कर
सकता है। दूसरों को
'दालभात
में मूसलचन्द'
बनने की जरूरत नहीं। पहले कानून नहीं बने किन्तु संघर्ष हो। पीछे सुधार
कानून बने। मठमंदिरों में किसानों की सम्पत्ति लगी है। वही इन्हें चलाते भी
हैं। यदि वे हाथ खींच लें तो ये खत्म हो जाएँ। शायद ही कुछ बच जाएँ। तब
किसानों को या उनकी अपनी सरकार को छोड़ दूसरे को यह हक नहीं कि इधर टाँग
अड़ावे। ऐसे लोग समय रहते चेत जायँ तो ठीक।
एक बात इस
सम्बन्ध में और है। आज की राजनीति इतनी गंदी और पापमय है कि पूछिये मत।
धार्मिक मूर्तिपूजा का स्थान आज भारत में राजनीतिज्ञ मूत्तिपूजा लेने जा
रही है। महात्मा गाँधी कीर् मूत्ति बनाना और गाँधी मेले लगाना आम बात हो
गयी है। इसे प्रोत्साहन देते हैं ये नए शासक। यही और इनके चेले इन गाँधी
मन्दिरों के पुंजारी भी बनते हैं। और तो और
''रघुपति
राघव राजा राम''
जैसी पवित्र चीज को राजनीति में घसीट कर ये लोग बलात नापाक बना रहे हैं।
चुनावों में बाप ने इन की यह माया देखी होगी। इसे ही व्यापक रूप देने जा
रहे हैं। यह बुरा है,
बहुत ही बुरा। नाजायज है। आप स्पष्ट कह दें कि वे इस हरकत से बाज आएँ,
नहीं तो नतीजा बुरा होगा। सभाएँ तो करते हैं राजनीति की,
चुनाव की। फिर उसमें
''रघुपति
राघव''
गाने की बात मानी हैं यदि उस वस्तु को राजनीतिक बनाकर ठगना नहीं है?
''रघुपति
राघव''
का
चुनाव से क्या ताल्लुक?
क्या महात्मा जी कभी ऐसा करते थे?
(शीर्ष पर वापस)
हमारा कर्तव्य
आइये
अन्त में अपने कर्तव्य पर थोड़ा विचार कर लें। सन्त महन्तों में,
साधु
फकीरों में,
जनसाधारण
में जो अनाचार और प्रवंचना फैली है उसके विरुद्ध
धर्मान्तरयुद्ध
और जेहाद की घोषणा हमी आप कर सकते हैं,
हमी आपको करना है। सबों के जीवन को विशुद्ध
बनाना है।
राजनीति
में जो आज अनीति और ठगलीला हो रही है उसे भी मिटाना है। राजनीतिक कलाबाज
लीडरों को साफ सुना देना है कि रास्ते पर आएँ और सच्चे जनसेवक बनें या
मैदान छोड़ भाग जाएँ,
राजनीतिक पंडागिरी चलने न दी जायेगी। इस से श्रमजीवी जनता का गला घुट रहा
है। इसीलिए इस पंडागिरी और तुम्बाफेरी का गला हम आप जल्द घोंट देते तो
अच्छा!
सबसे बड़ी
चीज है कि आपको दुनिया से वैषम्य मिटाना है और यहाँ समता लानी है,
साम्यवाद चलाना है। सभी को सुन्दर अन्न-वस्त्रा,
घर,
दवा-दारू,
पढ़ने लिखने आदि का तथा सर्वांग विकास का पूरा अवसर समान रूप से मिले यही
करना है। इसी बात के लिए गीता में
''विद्या
विनय सम्पन्ने''
5/18,
आदि
द्वारा आध्यात्मिक साम्यवाद पर जोर दिया है और यह वस्तु सन्त विरक्तों की
अपनी रही है। इसे अपने स्थान पर लाना चाहिये क्योंकि यह विलुप्त हो रही है।
साथ ही ''आत्मौपम्ये
सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:
6/32
द्वारा
भौतिक साम्यवाद को भी उसी गीता में परम योगी का लक्ष्य और कर्तव्य बताया
है। आज संसार में करुण कन्द्रन,
चीत्कार,
वेदना और वैमनस्य ने डेरा जमा लिया है। इन्हें जड़ से उखाड़ कर संसार को और
भारत को भी मंगलमय,
आनन्दमय बनाने की प्रतिज्ञा इस अयोध्या धाम में हम आप कर लें तो ठीक हो।
हम तब तक चैन न लें जब तक साम्यवाद नहीं आ जाता,
विविध शोषणों से जर्जर और जीर्ण शीर्ण समाज शोघण शून्य नहीं बन जाता।
''कमाने
वाला खाएगा इसके चलते जो कुछ हो''
का
नारा विरक्त मण्डल ही बुलन्द कर सकता है। किसान मजदूर राज्य की स्थापना की
सारी बाधाएँ यही हटा सकता है। कारण विरक्त को भय किस का?
न
फाँसी का डर,
न
जेल की विभीषिका,
न
बाल बच्चों की चिन्ता इन्हें पथच्युत कर सकती है। ये तो अकेले ही जेलों को
भर कर मदमत्त शासकों को दुरुस्त कर सकते हैं। ये विरक्त बिना किसी की
सहायता के ही किसानों एवं मजदूरों के संघर्षों को चला सकते हैं और इस तरह
आज तक जो उनकी कमाई के अन्न वस्त्रा आदि का उपभोग किया है उसका ऋण सूद सहित
चुका सकते हैं। नहीं नहीं,
विरक्तों और विरक्त मण्डल को यह ऋण चुकाना ही होगा। मुझे विश्वास है कि
ब्रह्मचारी श्री वासुदेवाचार्य जी जैसे कर्मठ और योद्धा का नेतृत्व और
श्रीमद् उत्तर अहोविल झलरिया पीठाधीश्वर श्रीमान् स्वामी वीरराघवाचार्य जी
महाराज का आशीर्वाद तथा शत-शत धुनी विरक्तों का सहयोग पाकर आप का विरक्त
महामण्डल यह महान् कार्य करके ही और अपना लक्ष्य प्राप्त करके ही दम लेगा।
सर्वे भवन्तु सुखिन:
सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा
कश्चिद् दु:खभाग् भवेत्॥
(शीर्ष पर वापस)
ईश्वर की सत्ता
मस्त
सृष्टिका संचालन नियमित रूप से करनेवाला कोई एक सर्वशक्ति सम्पन्न विशिष्ट
चेतन है या नहीं,
यह बहुत ही पुराना प्रश्न है और प्रारम्भ से ही इसका
उत्तर
दोनों ही रूप में अब तक दिया जाता है। इस सृष्टि के मूल में कोई ऐसा चेतन
है,
इस विषय में मतैक्य कभी नहीं हुआ। एक दल जहाँ ऐसे चेतन
का पक्षी है जहाँ दूसरा उसका विपक्षी भी पाया जाता है। यह भी नहीं कि जिस
चार्बाक या लोकायतिक को नास्तिक-शब्द से स्पष्टतया सम्बोधित
करते हैं,
केवल वही ईश्वरीय सत्ता
का विपक्षी है। हिन्दुओं के जिन मीमांसा और सांख्य-दर्शनों-को साधारणतया
आस्तिक ही समझा जाता है उन्होंने भी ईश्वर की सत्ता
मानने से इन्कार किया है। हिन्दुओं के छ: दर्शनों में न्याय तथा वैशेषिक को
पृथक् मानने के लिए कोई वैसा विशेष आधार
नहीं है जैसा कि सांख्य,
योगादि के लिए। उन दोनों में कोई मौलिक भेद
(Fundamental difference)
नहीं
है। अतएव नवीन तार्किकों ने
दोनों
को एक ही मानकर या दोनों को मिलाकर ही अपने ग्रन्थ लिखे हैं। इस तरह अब
पाँच ही दर्शन स्पष्ट रूप से रह जाते हैं। इनमें जहाँ दो ईश्वर-सत्ता
के विपक्षी हैं वहाँ दो ही (योग और न्याय) उसके स्पष्ट रूप से समर्थक हैं।
क्योंकि वेदान्त-दर्शन की गति निराली है। उसका झुकाव दोनों ओर है। यों तो
उस दर्शन में ईश्वर ओत-प्रोत पाया जाता है और उपनिषदों,
व्याससूत्रों
तथा गीता से लेकर आधुनिक
ग्रन्थों तक में ईश्वर ओत-प्रोत पाया जाता है और उपनिषदों,
व्याससूत्रों
तथा गीता से लेकर आधुनिक
ग्रन्थों तक में ईश्वर का निरूपण और उस
सम्बन्ध
में विपक्षियों के मत का,
खण्डन पाया जाता है। अतएव उसे अनीश्वरवादी कह नहीं
सकते। फिर भी वेदान्त की चरम गति जो जीवा-भिन्न या अद्वैत ब्रह्म है,
उससे और साधारण
ईश्वर-वाद से क्या
सम्बन्ध
है?
जिस अभेद को वेदान्ती चरम लक्ष्य समझते हैं और जिसके
सिवा शेष की वास्तविक सत्ता
नहीं मानते,
वह सर्वसाधारण
दार्शनिक व्यवहार का न तो जीव ही है और न ईश्वर ही। इसी से वेदान्त को हमने
बीच में माना है। इतना ही क्यों?
नैयायिकों के ईश्वर को तो वेदान्ती भी अन्त में वेसे ही
अस्वीकार करते हैं जैसे अन्य विपक्षी। इस तरह स्पष्ट है कि ईश्वरवाद के
बारे में हिन्दू-दर्शनों की तराजू का पलड़ा दोनों ही ओर है।
एक बात
और। ईश्वर-सत्ता के विपक्षियों को दो दलों में विभक्त किया जा सकता है। एक
तो वे हैं,
जो
एकदम किसी भी रूप में उसे मानने को तैयार नहीं,
उसे अमान्य कहते हैं और इस श्रेणी में मीमांसक,
चार्वाक तथा आजकल के हेकल और निअ्शे आदि को ले सकते हैं। लेकिन उनकी एक
श्रेणी और भी है जिसका कहना है कि यदि ईश्वर हो भी तो उसके जानने का कोई
साधन हमारे पास न होने के कारण हम इससे जान नहीं सकते-वह अज्ञेय है।
सांख्य-सूत्रों के भाष्यकार विज्ञान भिक्षु के मत से सांख्य-दर्शन इसी
कोटिका है जैसा कि उसके
'ईश्वरासिद्ध:'
आदि सूत्रों के भाष्य से सिद्ध है। हालाँकि दूसरे लोग सांख्य को भी प्रथम
श्रेणी में ही मानते हैं। वर्तमान युग के हर्बर्ट स्पेन्सर और ह्यूम आदि का
अज्ञेयवाद का सिद्धान्त भी उसी प्रकार का है। और यदि हम अपने-अतएव संसार भर
के-प्राचीन ग्रन्थ-क्योंकि अब तो सभी मानते हैं कि दुनिया में ऋग्वेद से
प्राचीन कोई ग्रन्थ नहीं है-ऋग्वेद को देखते हैं तो उसमें भी ईश्वर की इस
अज्ञेयता का स्पष्ट आभास पाया जाता है। उसके
'नासदासीत्'
इतयादि नासदीय सूक्त के निम्नलिखित दो मन्त्रों के पढ़ने से यह बात ध्यान
में आ जाती है। वे मन्त्र हैं-
को अद्धा
वेद क इंह प्रेवोचत्
कुत आजाता
कुत इंयं विसृष्टि:।
अर्वाग्वेदा अस्य विसर्जने-
नाथा को
वेद यत आबभूव॥
इयं
विसृष्टिर्यत आबभूव
यदि वा
दधो यदि वा न।
यो
अस्याध्यक्ष:
मरमेव्योमन्
सो अंग
यदि वा न वेद॥
इन दो
मन्त्रों में पहले में कहा गया है कि इस सृष्टि के मूलतत्तव उस
विशिष्ट-चेतन (ईश्वर) के जानने का कोई साधन है ही नहीं। अतएव उसे कौन जान
सकता है?
दूसरे मन्त्र में कहा गया है कि यद्यपि उसके जानने के साधन नहीं हैं तथापि
वह स्वयमेव अपने को जान सकता है। अथवा नहीं भी जान सकता है। विस्तारभय से
इन मन्त्रों के बारे में हम अधिक न लिख केवल इतना ही कह देना चाहते हैं कि
इनमें जो ईश्वरीय सत्ता के मानने-न-मानने का विचार है वह आजकल की दार्शनिक
रीतिका है,
अतएव अत्यन्त युक्तियुक्त है जैसा कि उसके
'अर्वाग्देवा
अस्य विसर्जनेन'
तथा 'सो
अंग यदि वा न वेद'
से
स्पष्ट है। अतएव आजकल अज्ञेयतावादी ह्यूम आदि तथा अमान्यतावादी हेकल आदि और
उनके अनुयायियों की बाढ़ देखकर हमें चौकन्ना या बेचैन न होना चाहिये,
क्योंकि यह कोई नई बात नहीं है।
यदि ईश्वर
इन्द्रियग्राहृ होता तब शायद उसके बारे में ऐसा विवाद नहीं होता। हालाँकि
प्रत्यक्ष पदार्थों के बारे में भी विवाद होता ही है और यह प्रश्न होता है
कि जब ऑंखों के दोष से श्वेत शंख भी पीला प्रतीत होता है तब हल्दी की
पीतिमा भी क्या वस्तु सत्ता रखती है या वैसी ही है?
फिर भी ये बहुत दूर की बातें हैं साधारणत: प्रत्यक्ष में विवाद नहीं होता।
हाँ,
अनुमेय
पदार्थों में तो विवाद होता ही है। यही कारण है कि ईश्वरीय-सत्ता बहुत बढ़े
विवाद का विषय है। उसी विवाद का थोड़ा बहुत दिग्दर्शन हो जाने से इस विषय की
गम्भीरता का पता लग सकता है। साधारणतया अनीश्वरवादियों को दो दलों में
विभक्त किया जा सकता है। एक तो दल ऐसों का है जो एकमात्र प्रत्यक्ष-प्रमाण
के माननेवाले हैं इसीलिए वे ईश्वर को स्वभावत: स्वीकार नहीं कर सकते। दूसरे
दल में ऐसे लोग हैं जो अनुमान को भी यद्यपि मानते और अनुमेय पदार्थों की
सत्ता स्वीकार करते हैं,
फिर भी ईश्वरीय सत्ता को मानने में असमर्थ हैं। पहले दल में अग्रणी चार्वाक
है और दूसरे में सांख्य,
मीमांसक और हेकल आदि। प्रत्यक्ष नहीं होने से उसकी सत्ता न मानने वालों के
मत में सबसे बड़ा और स्थूल दोष यह है कि वे अपने वंश के मूलपुरुष या अपने से
दस-पाँच पीढ़ी पूर्व के किसी पुरुष की सत्ता मान नहीं सकते। क्योंकि उस
पुरुष को प्रत्यक्ष करने का कोई भी साधन नहीं। वह तो केवल अनुमानगम्य है
परन्तु प्रत्यक्ष न होने से ही उस पुरुष की सत्ता का अपलाप नहीं हो सकता।
यदि कोई मूल-पुरुष न था तो वे हजरत जन्मे कहाँ से?
इस
तरह जो अपने ही पूर्वजों की सत्ता नहीं मान सकता वह संसार के पूर्वज
(ईश्वर) की सत्ता न माने तो आश्चर्य ही क्या?
लेकिन जो
अनीश्वरवादी अनुमान-प्रमाण को भी मानते हैं,
न
कि केवल प्रत्यक्ष को ही,
उनकी दलीलें अवश्य ही निस्सार नहीं होती हैं। फलत: ईश्वरवादियों-की
जबर्दस्त भिड़न्त उन्हीं के साथ होती है। सांख्यों ने पुरुष (जीव) और
प्रकृति को अनुमानगम्य ही माना है और मीमांसकों का स्वर्ग,
परलोक या अदृश्य भी अनुमेय ही है। इसी प्रकार वर्तमान विज्ञान के कट्टर
भक्त हेकल प्रभृतिके ईथर (Ether)
और
कललरस (Protoplasm)
का
वस्तुगम्या अनुमेय पदार्थ ही समझना चाहिये। चुम्बक की आकर्षण शक्ति दूरस्थ
लोहे पर जब काम करती है तो चुम्बक से निकलकर लोहे में जाने के लिए बीच में
उसका कोई आधार
चाहिये,
क्योंकि कोई शक्ति निराधार
टिक नहीं सकती! बस,
वही आधार-द्रव्य
वैज्ञानिकों का ईथर है। एक पदार्थ से दूसरे में विद्युत्-शक्ति आदि के
गमनागमन का आधार
भी वही है। यद्यपि वैज्ञानिक उस ईथर को सर्वव्यापी,
गति-शक्ति का अनन्त भण्डार और निष्क्रिय तथा अखण्ड
मानते हैं, फिर भी उसका वास्तविक रूप क्या है यह
बात अभी तक विवादग्रस्त ही है और उसकी सर्वव्यापिता आदि केवल अनुमान सिद्ध
ही हैं। इसी प्रकार कललरस (Protoplasm)
की भी
बात है। वैज्ञानिक इतना ही कह सके हैं कि वह कारबन,
ऑक्सिजन, नाइट्रोजन और
हाईड्रोजन के विलक्षण मेल से बना है जिसमें जल,
गन्धाक आदि का भी अंश है। मगर वह विलक्षण संयोग कैसा है इसका पता उन्हीं
नहीं है, नहीं तो अपनी प्रयोगशाला में उसी
विलक्षण सम्मिश्रण के द्वारा कललरस बनाकर वे लोग भी सजीव सृष्टि कर लेते।
अतएव उनकी यह कल्पना भी केवल अनुमान
मात्र
ही है। इस प्रकार केवल अनुमान के ही बलपर लम्बी उड़ान भरनेवाले वैज्ञानिक भी
ईश्वर की कल्पना से घबराकर भयभीत हो जाते हैं। यदि यह कहा जाये कि उनका
अखण्ड एकरस ईथर (Ether)
ईश्वर
या ब्रह्म का ही नामान्तर है तो कोई अत्युक्ति नहीं। क्योंकि दोनों ही
अनन्त शक्ति के भण्डार माने गए हैं और जिस प्रकार ब्रह्मवादी उसकी शक्ति या
माया (प्रकृति) का ही परिणाम संसार को मानते हैं उसी प्रकार वैज्ञानिक भी
उसी शक्ति का ही रूपान्तर-द्रव्य मानते हैं! ऐसी विलक्षण समता के रहते हुए
भी उन्हें ईश्वर में विवाद है! इसी तरह जब बाल से तेल नहीं पैदा होता तो
फिर निर्जीव से सृष्टि के आरम्भ में या कभी भी हेक लका सजीव पदार्थ कैसे
उत्पन्न होगा?
यदि दो परस्परविरोधी
पदार्थों का उपादान-उपादेय (कार्य-कारण) भाव माना जाय तो नीम के बीज से आम
की या सभी से सबकी उत्पत्ति
क्यों न मानी जाय?
ऐसी बे-सिर-पैर की कल्पना करने वाले वैज्ञानिक यदि
जीवात्मा या ईश्वर के मानने में नाक-भौं वैज्ञानिक यदि जीवात्मा या ईश्वर
के मानने में नाक-भौं सिकोड़ते हैं तो यह उनकी लीला ही ठहरी! अतएव निराधार
(Protoplasm)
आदि की
कल्पना के लिए भी हारकर उन्हें यही मानना होगा कि चेतना इस जगत् के
प्रत्येक अणु में व्याप्त या ओतप्रोत है और उन्हीं चेतनाविशिष्ट अणुओं के
सम्मिश्रण से कललरस की प्रक्रिया द्वारा सजीव सृष्टि का विकास होता है। इस
तरह सर्वत्र
व्याप्त चेतन रूप ईश्वर (ब्रह्म) को तो उन्होंने स्वीकार कर ही लिया,
चाहे इस बात को स्पष्टतया वे न कहें!
ईश्वरवादियों ने ईश्वर की कल्पना में बे-सिर-पैर की उड़ान से काम न लेकर
बहुत ही युक्तियुक्त एवं वैज्ञानिक सरणी का अवलम्बन किया है। एक मकान,
घड़ी या पुस्तक को देखते ही बिना आगा-पीछा के एकाएक यह निश्चय हो आता है कि
हो-न-हो इन साी पदार्थों के मूल में कोई बुद्धिपूर्वक कार्य करने वाला चतुर
चेतन शिल्पी है। इसके विपरीत दूसरा भाव कभी भी किसी के भी मन में उदय नहीं
होता। इसी प्रकार घड़ी की चाल (क्रिया) को देखकर भी यही खयाल होता है कि इस
निर्जीव पदार्थ की क्रिया के मूल में भी चेतन शिल्पी का ही हाथ है। एक बहुत
बड़े कारखाने में जहाँ सैकड़ों प्रकार के कल-पुर्जे अलग-अलग काम करते हैं,
जाने पर पता लगता है कि या तो उन सभी को चलनेवाली कोई विद्युच्छक्ति है तो
उस शक्ति के मूल में चेतन शिल्पी वर्तमान है। इसी तरह इस ब्रह्माण्ड रूपी
भव्य भवन,
बड़ी जबर्दस्त घड़ी या बड़े कारखाने को देखकर जिसकी रचना निराली है और ग्रह,
कारखाने को देखकर जिसकी रचना निराली है और ग्रह,
तारे आदि की चाल (क्रिया) बराबर जारी है,
सहसा यह ध्यान प्राचीनों को हो आया कि इसके मूल में कोई असाधारण चातुरी
एवं सामर्थ्यवाला चेतन शिल्पी मौजूद है। बस,
उसी शिल्पी का नाम उन्होंने ईश्वर रख दिया। जिस तरह धूम और अग्नि की
व्याप्ति (नियम-(Law Inseparable
Connexion)
देखकर धूम से अग्निका अनुमान होता है,
ठीक ऐसी ही व्याप्ति यहाँ भी है। अतएव यह अनुमान निर्दोष तथा बिल्कुल ही
वैसा ही स्वाभाविक है जैसा कि धूएँ से आग का अनुमान।
इस
व्याप्ति में बहुत-से अनीश्वरवादियों ने व्यभिचार या दोष
(Fallacy)
दिखाने
का
यन्त्र
किया है। उनका कहना है कि जब अग्नि-सम्पर्क से बारूद में भड़ाका होता है और
वह एक तरह की क्रिया ही है और जब चुम्बक के संसर्ग से लोहे में क्रिया होती
है-वह चलने लगता है,
हालाँकि आग और बारूद तथा चुम्बक एवं लोहा सभी अचेतन ही
हैं। तब यह कैसे माना जाये कि अचेतन की क्रिया का मूलकारण साक्षात् या
परम्परा या चेतन ही होता है? लेकिन ऐसा कहनेवाले
यह भूल जाते हैं कि बारूद या लोहे की क्रियाएँ अनियमित एवं आकस्मिक हैं।
इसके विपरीत ईश्वरवादियों ने जिन क्रियाओं को व्याप्ति का आधार
माना है वे नियमित और सदा होनेवाली हैं। यदि हम चाहें कि लोहे की क्रिया भी
उसी तरह सदा होती रहे जिस प्रकार हमारे हाथ-पाँव या चन्द्र-तारे आदि तथा
अणुओं की,
तो यहाँ भी मध्यस्थ
चेतन की आवश्यकता पड़ेगी,
जो या तो बराबर लोहे को चुम्बक में सटने के बाद हटा
दिया करे या दूसरी ओर एक दूसरा बड़ा चुम्बक लगा दिया करे या ऐसा ही कोई
प्रबन्ध
करे। बारूद के भड़ाके के बारे में भी बार-बार आग और बारूद के संयोग के लिए
चेतन-प्राणी अपेक्षित होगा।
इतना ही
नहीं,
दो जड़
पदार्थों के संसर्ग जो क्रिया होती है वह एक ही प्रकार की होती है। जब
चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींचता है तो यह सम्भव नहीं कि ठीक उसी समय उसको
अपनी ओर से अलग करे। यही नहीं,
दूसरे समय भी वह अपने से उसे अलग नहीं कर सकता। मगर सृष्टि के पदार्थो की
क्रिया में यह बात नहीं है। जो अणु आपस में अपनी ही क्रिया से मिलकर किसी
द्रष्ट की रचना करते हैं वही कालान्तर में जुदा होकर उसका नाश भी करते हैं।
इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश का क्रम जारी है। यदि उनमें मिलने
की शक्ति मानी जाये तो जुदाई की शक्ति न रहेगी और पृथक् होने की शक्ति
मानने पर मेल की शक्ति असम्भव है। दो विरुद्ध शक्तियों का एक ही जड़-पदार्थ
में बराबर रहना असम्भव है। समय-भेद से दोनों विरुद्ध शक्तियों का एक में
समावेश हो नहीं सकता। क्योंकि जब एक शक्ति के अस्तित्व के समय दूसरी उसमें
न थी तो पीछे आयी कहाँ से
?
क्योंकि
जहाँ जो चीज सूक्ष्म या शक्ति रूप से भी नहीं रहती वहाँ वह कभी भी व्यक्त
नहीं हो सकती जैसे बालू से तेल कभी नहीं निकलता। जड़-पदार्थों का काम तो
अन्धे का-सा हैं। वह किसी नियम के सहारे चला करते हैं। उनमें दो विरोधी
नियम स्वयं-सिद्ध रूप से रह नहीं सकते। मगर चेतन के लिए यह बात लागू नहीं
है। वह तो इच्छा या उद्देश्य-शक्ति के बल से सब कुछ कर सकता है और जड़ों को
भी चाहे जैसे नचा सकता है। अतएव जड़-सृष्टि की क्रिया के मूल में
चेतना-विशिष्ट संचालक अपेक्षित है। नहीं तो समय-समय पर विरोधी क्रियाएँ
उसमें हो नहीं सकतीं।
रचना के
बारे में हेकलने अपनी
'विश्वपहेली'
(Riddle of the universe)
नामक
पुस्तक में लिखा है कि यदि यह सृष्टि किसी चेतन की रची होती तो वह बहुत-सी
व्यर्थकी चीजें क्यों बनाता दृष्टान्त के लिए पुरुषों के स्तन-चिद्द आदि को
उसने लिखा है। उसके मत से जड़ प्रकृति के बारे में तो यह प्रश्न हो नहीं
सकता। कारण,
वह तो रचना के प्रयोजन का विचार नहीं कर सकता। परन्तु
ऐसा लिखते समय शायद उसे याद नहीं रहा कि जड़ के तो सभी काम किसी व्यवस्थित
नियम के ही अनुसार चलते हैं। उसमें जरा भी फेरफार होने से सारी क्रिया ही
चौपट हो जाती है। रेलकी पटरी छोड़ते ही इंजिन नीचे जा गिरता है। मगर चेतन का
काम तो किसी नियम में
बँध
नहीं है। अतएव इच्छा होने पर उसमें उलट-फेर भी हो सकता है। ऐसी दशा में तो
जड़वादियों के लिए उन स्तनों आदि की उत्पत्ति
का प्रयोजन बताना अपरिहार्य हो जाता है,
न कि ईश्वरवादियों के लिए। यह तो एक बात
हुई।
वस्तुगत्या तो विज्ञान अभी शैशवावस्था में ही है और उसे अभी सृष्टि की
बहुत-सी पहेलियाँ सुलझानी हैं। ऐसी दशा में जब वह प्रौढ़ होगा तो शायद
पुरुषों के स्तनचिद्दों आदि का भी उपयोग मालूम हो जाये। अभी अधीर
होने की कोई बात नहीं। उन स्तनों को व्यर्थ कहना वैसा ही है जैसा
आत्म-तत्तव-विवेक में उदयनाचार्य के भूताविष्ट मनुष्य का दूर से हाथी देखकर
पहले उसके बारे में ऊल-जलूल तर्क करना और अन्त में यह कह देना कि यह कुछ
नहीं है! सृष्टि के रहस्यों की अनभिज्ञता तो हेकलने अपनी उक्त पुस्तक के
अन्त में उपसंहार करते हुए स्वयं स्वीकार की है और एक प्रकार से ईश्वरवाद
का समर्थन ही किया है। जैसा कि
'प्रकृति-परिज्ञान
की उन्नति होने से
इधर
जगत्-सम्बन्धी
बहुत-से गुप्त भेद खुल गए हैं अब केवल परमतत्तव का भारी भेद रह गया है। वह
सत्ता
कैसी है जिसे वैज्ञानिक विश्व या प्रकृति करते हैं,
दार्शनिक परमतत्तव कहते हैं और भक्तजन ईश्वर या
कर्तव्य
कहते हैं ?
क्या हम कह सकते हैं कि आधुनिक
विज्ञान की अपूर्व उन्नति से इस
'परमतत्तव'
का भेद खुल गया है, यहा कुछ
खुलने वाला है? इस अन्तिम प्रश्न के विषय में
यही कहना पड़ता है कि यह आज भी उसी प्रकार बना हुआ है जिस प्रकार ढाई हजार
वर्षपहले के तत्तवज्ञों के सामने था। बल्कि यों कहना चाहिये कि इस परमतत्तव
के अनेकानेक व्यक्त रूपों का जितना ही अधिक
ज्ञान हमें होता जाता है उसका रहस्य हमारे लिए उतना ही अभेद्य और अपार होता
जाता है। इस नाम-रूपात्मक दृश्य-जगत् की ओट में वस्तुत: क्या है यह हम न
जानते हैं और न जान सकते हैं। पर,
इस 'वस्तुत:'
के फेर में हम क्यों पड़ने जायँ जब कि हमारे पास उसके
जानने का कोई
साधन
नहीं,
जब कि यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसका अस्तित्वतक है या
नहीं।'
ऊपर के
उद्धरण से सिद्ध है कि अन्त में हेगल भी,
जिसे अनीश्वरवादियों का आचार्य कहा जाता है,
ईश्वर की अमान्यता को छोड़कर अज्ञेयताका ही पक्षपाती हो जाता है,
उसे अपनी पहुँच के बाहर की वस्तु समझता है और इस सृष्टि के रहस्यों के
सम्बन्ध में आधुनिक विज्ञान को अबोध बालक की ही तरह समझता है जिसका ज्ञान
बहुत ही परिमित है। हमारे विचार से तो कोई भी वस्तुगत्या अनीश्वरवादी हो ही
नहीं सकता जैसा कि हेकल-जैसे कट्टर जड़वादी कहे जानेवाले के उक्त कथन से पता
लगता है। किसी भी पदार्थ को हम तीन ही दृष्टियों से देखते हैं-मित्रदृष्टि,
शत्रुदृष्टि और उदासीनदृष्टि से। इनमें भी यद्यपि उदासीन पुरुष उस पदार्थ
के अत्यन्त निकट नहीं पहुँचता तथापि यह नहीं कहा जाता कि एकदम पहुँचता ही
नहीं। फिर भी मित्र और शत्रु तो उस पदार्थ के अत्यन्त निकट पहुँच ही जाते
हैं। बल्कि यों कहना चाहिये कि पक्का प्रेमी या मित्र भी शायद उतना निकट
नहीं पहुँचता जितना निकट पक्का या कट्टर शत्रु पहुँचता है। मित्र या प्रेमी
तो शायद कभी भूल भी जाता है,
मगर सच्चा शत्रु तो निद्रा काल में भी नहीं भूलता। इसीलिए मानना पड़ता है कि
यदि आस्तिकजन भक्त के रूप में उसे याद करते हैं जपते हैं,
नहीं भूलते हैं,
तो
नास्तिकजन शत्रु के रूप में इसे भक्तों की ही तरह,
बल्कि उनसे भी ज्यादा याद करते,
जपते और नहीं भूलते हैं और यह मानी हुई बात है कि ईश्वर तो उसी का
निकटवर्ती है,
उसे ही सद्गति देता है जो उसे निरन्तर याद करे,
कभी न भूले। उसके दरबार में तो आस्तिक-नास्तिक का विभाग
(Label)
नहीं
है। यह विभाग तो मनुष्यों का बनाया हुआ है। वह तो मन की प्रवणता,
मनोवृत्ति,
मन:प्रवाह या लगन को देखता है और वह लगन मन्दिर,
मस्जिद आदि में जाने,
कण्ठी-माला, मेरुआ पहनने,
ऑंख-नाक मूँदने या आस्तिक कहाने में नहीं है। वह तो मन
का
धर्मान्तर
है,
हृदय का व्यापार है, न कि
शरीर का
धर्मान्तर।
इसीलिए इतिहास-पुराणों के आख्यानों से पता लगता है कि यदि
ध्रुवव,
प्रधादादि भक्तों को भगवान् ने सद्गति दी तो रावण,
कंस, हिरण्यकशिपु आदि को
दुर्गति न देकर परमलोक ही प्रदान किया। यदि भक्ति या भक्त के वही लक्षण
होते जिन्हें हमने मान रखा है औरयदि एकमात्र
भक्तों को ही भगवान् सद्गति देते,
तो फिर भगवद्विरोधियों
(नास्तिकों के भी दादाओं) दानवों और राक्षसों का कल्याण कैसे हुआ रहता
जिसका उल्लेख
धर्मान्तर-ग्र्रन्थों
में पाया जाता है?
हमारे जानते उस उल्लेख का यही रहस्य है। अतएव हमारे
विचार से ईश्वरवादियों को-सच्चे आस्तिकों को-सच्चे निरीश्वरवादियों से
भयभीत होने का कोई कारण नहीं है, दोनों के मार्ग
दो होने पर भी लक्ष्य और पहुँच एक ही है, जैसा
कि 'यं शैवा: समुपासते शिव इति'
इत्यादि वचनों से भी सिद्ध
है और पुष्पदन्ताचार्य के
'नृणामेको
गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव' का भी तात्पर्य है।
हाँ, यदि भय का कोई कारण है तो केवल यही कि
ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी दोनों सच्चे और पक्के न होकर बनावटी और दिखावटी
हों। नामधारी
आस्तिक और नामधारी
नास्तिक दोनों ही समानरूप से भगवत्-द्रोही और
धार्मिकों
के लिए भय के कारण हैं?
अतएव उन्हीं से बचना तथा सजग रहना चाहिये। इसीलिए
ईश्वरवाद का अद्वितीय ग्रन्थ 'न्यायकुसुमाजंलि'
लिखकर उसके अन्त में उपसंहार करते हुए उदयनाचार्य लिखते
हैं कि-
इत्येवं श्रुतिनीतिसम्प्लवजलैर्भूयोमिराक्षालिते
येषां
नास्पदमादघासि हृदये ते शैलसाराशया:।
किन्तु
प्रस्तुत विप्रती पविधायोऽप्युच्चैर्मवच्चिन्तका:
काले
कारुणिक त्वयैव कृपया ते मावनीया नरा:॥
इसका
भावार्थ यह है कि हे भगवन्! हमने आपके विरोधियों (नास्तिकों) के अत्यन्त
मलिन हृदयों को धोने के लिए इस तरह के तर्क,
युक्ति और आगम-प्रमाण-स्वरूप निर्मल सोतेका जल यद्यपि तैयार किया है,
तथापि इतने पर भी यदि उनके अत्यन्त मलिन हृदयों में पवित्रता तथा कोमलता न
आकर आपके लिए स्थान नहीं मिलता,
तो
हम यही कहेंगे कि वे वज्रहृदय हैं। फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि वे
नास्तिक लोग भी आपके प्रचण्ड शत्रु बनकर आपका चिन्तन (आपकी याद) बहुत अच्छी
तरह करते ही हैं। साथ ही,
आप
ठहरे कृपालु। अतएव समय पाकर उन लोगों का भी उद्धार आपको कृपा करके करना ही
होगा।
सम्पादक-यह
लेख अगस्त
1932 ई. में कल्याण के ईश्वर अंक में छपी थी। इस समय तक
स्वामी जी पर
मार्क्सवाद
का प्रभाव नहीं पड़ा था। और वे एक सच्चे
धार्मिक
की तरह प्रवंचना के ढोंग के,
रूढ़ि के खिलाफ थे।
(शीर्ष पर वापस)
मानव सेवा ही असली वेदान्त
लोगों
का ख्याल है कि
'हम
क्या हैं, संसार क्या है और हमारा इस संसार के
साथ
सम्बन्ध
क्या है',
इन्हीं तीन जिज्ञासाओं या प्रश्नों ने मूल दर्शनों
(Philosophies)
को
जन्म दिया है और
धर्मान्तर,
मजहब या रिलिजन
(Religion)
विभिन्न दर्शनों के बाहरी या व्यावहारिक रूप हैं। आचार (आचरण,
कर्म, क्रिया,
अमल, प्रैक्टिम) विभाग को
धर्मान्तर
और विचार (सोचना,
थिंकिंग) विभाग को अब दर्शन कहते हैं,
हालाँकि आचार और विचार दोनों ही दर्शन के ही दो विभाग
या अंग हैं। असल में जनसाधारण
सोचने,
विचारने, मेडिटेशन
(Meditation)
आदि से
स्वभावत: दूर रहते हैं;
कारण, उन्हें दैनिक जीवन के
कामो और विचारों से अवकाश ही नहीं रहता कि लोक,
परलोक और
अध्यात्म
के गहरे पानी में उतरें। फलत: दर्शन उनके लिए एक निराली और अपरिचित-सी चीज
हो गयी है। वह उसे समझ नहीं सकते। अतएव
धर्मान्तर
के रूप में उन्हें जो ठोस और व्यावहारिक चीज दी जाती है उस पर थोड़ा या अधिक
अमल करके सन्तोष कर लेते हैं। क्योंकि
धर्मान्तर
आत्मा की भूख की खुराक है और बिना खुराक के काम चलता नहीं। यही कारण है कि
किसी-न-किसी
धर्मान्तर
की ओर सदा से जनता की प्रवृत्ति
होती चली आयी है और
धर्मान्तर
के न मानने वालों को लोगों ने कभी भी आदर की दृष्टि से नहीं देखा है। असल
में तो आत्मा की बुभुक्षा की शान्ति दार्शनिक विचारों से ही होती है और यही
ठीक भी है;
फलत: दर्शन ही उस खुराक के देने वाले हैं। लेकिन आम
लोगों के लिए वे दुर्गम हैं। इसलिए दर्शनों के बाहरी रूप में प्रचलित
धर्मों
से ही काम चलाया जाता है। यही कारण है कि
धर्मों
की प्रवृत्ति
का स्रोत मूल में चाहे दर्शन भले ही रहे हों,
आगे चलकर वे विकृत, दिखावट
और प्रवंचनामात्र
रह जाते हैं। क्योंकि जनता उनके दार्शनिक आधारों
से अनभिज्ञ होने के कारण
धर्मान्तर-प्रचारक
पुरोहितों,
गुरुओं और साधु-फकीरों
से न तो प्रश्नोत्तर ही कर सकती है और न उनका निरादर करने की ही हिम्मत
रखती है। विभिन्न
धर्मान्तरसम्प्रदायों
का पारस्परिक कलह भी इसी से उत्पन्न होता है और असली बातों को छोड़ रूढ़ियों
की उपासना भी इसीलिए चल पड़ती है,
जो सभी अनर्थों की जननी है। विपरीत इसके यदि हम
दार्शनिक विचारों को ही
धर्मों
के मूलाधार
मन लें तो यह बला यों ही खत्म हो जाये। क्योंकि तब तो
धर्मान्तर
के बारे में हम यही देखेंगे कि वह पूर्वोक्त तीन जिज्ञासाओं कीर् पूत्ति
के लिए सामग्री या मार्ग प्रभूत करता है या नहीं और ऐसा जो न होगा उसे
स्वयं त्याग देंगे। यदि इस दृष्टि से देखा जाये तो पता चलेगा कि सभी
धर्मान्तर
सत्य,
दया, मैत्री,
अव्यभिचार, अस्तेय आदि दैवी
सम्पत्तियों
पर पूरा जोर देते हैं,
जिससे पता चलता है कि वे किसी एक ही
ध्येय
की खोज में एक ही मार्ग से आ रहे हैं और सत्य,
दया आदि उनका वह निर्विवाद मार्ग है। फिर
धार्मिक
झगड़ों के लिए स्थान है ही कहाँ?
सत्य, दया आदि ऐसी चीज भी
नहीं कि आत्मा-परमात्मा की तरह अदृश्य होने के कारण विवादास्पद हों। वह तो
सर्व-जनानुभूत पदार्थ हैं। इसीलिए उनकी प्राप्ति में जो सहायक न हो वह
आसानी से हेय हो सकता है। इसमें अधिक
खोद-विनोद की गुंजाइश नहीं। यही वेदान्त है,
सब ज्ञानों का अन्त या पर्यवसान है,
निष्ठा है। वेद नाम है ज्ञान का। 'विद
ज्ञाने'
धातु
से यह शब्द बना है। आज जो वेद के नाम से ऋक्,
साम आदि प्रसिद्ध
हैं वे भी इसीलिए कि उनमें ऋषियों (Thinkers)
का
ज्ञान भरा है,
जिसे वे जनसाधारण
तक पहुँचाते हैं। ये वेद दर्शन के स्थूल रूप-ककहरा-कर्मकाण्ड से शुरू करके
अध्यात्म
विचार में समाप्त होते हैं और जहाँ यह
अध्यात्म
विचार मिलता है उसे उपनिषद् कहते हैं। अच्छा,
तो अब देखना है कि वेदान्त के अन्त शब्द से क्या अर्थ
निकलता है। अन्त नाम हैसमाप्ति, पर्यवसान,
निष्ठा या निष्कर्ष
(Result)
का। इस
प्रकार वेद (ज्ञान,
विवेक, विचार) का जो
पर्यवसान या निष्कर्ष हो, या विचार और विवेक के
बाद जिस परिणाम पर पहुँचते हैं उसे ही वेदान्त कहना ठीक है। सारांश,
वेदान्त अक्ल और बुद्धि
की बात को ही कहना उचित है। जो बात ऐसी हो उसमें कलह के लिए जगह भी नहीं
है। वेदान्त की सब दर्शनों से ज्यादा प्रतिष्ठा का कारण भी यही है।
असल में
एकता और मेल के बिना संसार का काम चल नहीं सकता। हम पद-पद पर इस ऐक्य की
तलाश में है और इसके बिना अनेक कष्टों का अनुभव करते हैं,
फिर वह संसार चाहे राजनीति का हो या धर्मान्तरनीति,
समाजनीति,
अर्थनीति का। यदि ऐक्य का लोप हो जाय तो प्रलय हो जाय। संसार के बनाने वाले
परमाणुओं,
गुणों,
तत्वों (Atoms and elements)
का एक
दूसरे से अलग हो जाना ही तो प्रलय कहा जाता है;
कारण, उस दशा में कोई चीज
ठहर सकती ही नहीं। यही कारण है कि विवेकी लोग शुरू से ही ऐक्य की तलाश में
पड़े हैं और वह अन्वेषण बराबर जारी है। अनेक ने स्थूल,
पृथ्वी आदि को परमाणुओं से या तो किसी ने समस्त स्थूल
जगत् को सत्तव, रजस्,
तमस् इन तीन गुणों से जोड़ दिया और कह दिया कि इनसे सम्यक् कोई चीज नहीं।
सूक्ष्म जगत् में मन, बुद्धि
को इन्हीं तीन गुणों
में मिला दिया। ईश्वर और जीव के बारे में किसी ने समीप्य और सान्निध्य
का भाव कायम किया तो किसी ने ईश्वर को जीव में ही मिला दिया और उसकी सत्ता
ही मिटा डाली। इस प्रकार परमाणुओं से आरम्भ कर प्रकृति (त्रिगुण)
और पुरुष (जीव) इन दो को ही माना और शेष संसार का पर्यवसान इन्हीं में कर
दिया। अन्त में अद्वैतवाद का दर्शन आया जिसे वेदान्त दर्शन भी कहते हैं।
उसने प्रकृति और जीव का भी भेद मिटा दिया और दोनों को ही एक करके ब्रह्म के
साथ मिलाया। जब एकता का सूत्रपात
हुआ तो उसका चरम पर्यवसान भी होना ही चाहिये। जब तक दो पदार्थ रह जाएँगे,
दिक्कत बनी ही रहेगी। उपनिषदों ने जो कहा है कि-'द्वितीयाद्वै
भयं भवति' दो के रहने से ही सारी खुराफात होती
है, या-
'यस्मिन्
सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:।
तत्र
को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥'
'जब
सभी एक हो गए तो डर किसका?'
उसका मतलब यही है। प्रतिद्वन्द्वी को कायम करके चैन?
यदि आप संसार में प्रेम का पूरा प्रसार अबाधारूप से चाहते हैं तो मिलना ही
होगा। क्योंकि अपने-आपसे जितना ही अंतर किसी वस्तु का होगा प्रेम में उतनी
ही कमी होगी। परमात्मा में यदि परमप्रेमरूपा भक्ति चाहते हैं तो उसे भी
अपने से अभिन्न करना ही होगा। नहीं तो स्वभावत: जितना प्रेम अपने-आप
(आत्मा) में है उतना उसमें कदापि न होगा। इसीलिए तो कहा है-
आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।
यदि निकट
जाना है तो दूरी कम करो और वास्तविक सान्निध्य तभी होगा जब दूरी विलुप्त
हो जाय। यही अद्वैतवाद का रहस्य है और यही वेदान्त है। आप
'वसुधौव
कुटुम्बकम्'
चाहते हैं और चाहते हैं मानवमात्र का कल्याण,
जो
वास्तविक अन्तर्राष्ट्रीयत है। इसके लिए आवश्यक है कि-
'आत्मवत्सर्वभूतेषु
य: पश्यति स पण्डित:'
-को
चरितार्थ करें। जब तक गैरों के सुख दु:ख को आप स्वयं अनुभव नहीं करेंगे,
उनके लिए मर मिटने को तैयार कैसे होंगे?
लेकिन जब तक वे आप से भिन्न हैं तब तक हजार कोशिश करने पर भी उनकी व्यथा का
अनुभव आप नहीं कर सकते,
उसे जान लें भले ही। जानना और अनुभव (इहसास,
Feeling)
में अन्तर है और अनुभव के लिए उसके साथ-अन्य के साथ-आपको अपने तादात्म्य का
ज्वलन्त और जीवन्त ज्ञान होना चाहिये। बिना इसके काम चल नहीं सकता।
अर्न्राष्ट्रीयता और मानव समाज के प्रति,
नहीं-नहीं,
समस्त संसार (Universe)
के
प्रति भ्रात भाव और सद्भाव लाने का वास्तविक उपाय यही वेदान्तदर्शन है,
वेदान्त है। वेदान्ती को जीवन्मुक्त कहने का यही
अभिप्राय है। उसका तो आपा रह ही नहीं जाता। उसने तो अपने को समष्टि में
विलीन कर दिया। अब समष्टि और व्यष्टि का भेद रह ही नहीं गया।
ऊँच-नीच,
छोटे-बड़े,
छूत-अछूत,
हिन्दू-मुस्लिम का भेद तब तक मिट नहीं सकता,
जब
तक इस अद्वैतवाद का,
सच्चे वेदान्त का रहस्य प्रतीत न हो जाये। खूबी तो यह है कि यह वेदान्त
बाहरी विभिन्नता और पार्थक्य (Diversity)
को
मिटाने की राय नहीं देता। प्रत्युत उससे तो इसे विभिन्नता
(Diversity)
में ही
ऐक्य (Unity)
देखने
में मजा आता है। आखिर छाया का आनन्द तो
धूप
के रहने से ही होता है अतएव वेदान्ती तो अपने विचारों की कीमिया या पारस के
बल से विभिन्नता रूप लोहे को सोना बनाता है। उसकी दृष्टि में बाहरी भेद
विलीन हो जाते हैं। कितना सुन्दर हो यदि यह वेदान्त आज प्रचलित हो जाय।
हमारा देश ही नहीं,
मानव समाज पारस्परिक कलहों से जर्जर हो रहा है और हम
अहंमन्यता के मारे किसी को नीच, किसी को दलित,
किसी को पतित बनाकर अपना नाश स्वयं कर रहे हैं,
द्रुत गति से उस नाश की ओर जा रहे हैं,
हालाँकि हमें अपने वेदान्तदर्शन का अभिमान है। कितनी
मूर्खता और कैसा प्रचण्ड अज्ञान है! तत्तव से हम कितनी दूर जा पड़े हैं।
हमें कौन बतावे? कौन सिखावे?
एक समय था जब हमने गिरिशिखरों से वेदान्त की पुकार
मचायी थी।
'पण्डिता:
समदर्शिन:'।
'निर्दोषं
हि समं गता'
आत्मौपस्येन सर्वत्र
समं पश्यति योऽर्जुन॥
-इत्यादि।
आज फिर उसी वेदान्त की आवश्यकता है। उसे कौन लावेगा?
हमारा कृष्ण कौन होगा?
नकली वेदान्त कौन हटावेगा,
जिसे जानकर भी हम नामर्द बने पड़े हैं करोड़ों की संख्या में
?
(कल्याण,
वेदान्तांक, अगस्त
1936 से उद्धृत।
सम्पादक-कुछ अंक में शीषर्क
''असली
वेदान्त और नकली वेदान्त'' है।)
(शीर्ष
पर वापस)
श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण-चरित्र
प्राचीन ग्रन्थों में श्रीकृष्ण-चरित्र
का वर्णन प्रधानतया
श्रीमदभागवत
में ही माना जाता है,
यद्यपि अन्यान्य ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत यह वर्णन मिलता
है। उसमें भी दशम
स्कन्ध
मुख्य है और उसमें दूसरी बात है भी नहीं दशम में भी जन्म से लेकर मथुरा
अथवा द्वारका प्रस्थान तक जितनी बातें लिखी गयी हैं,
उन सभी पर विचार करना हमारा लक्ष्य नहीं है। उन बातों
के
सम्बन्धों
में अधिकतर
विवाद भी नहीं है। किन्तु
श्रीमदभागवत
की रासपंचाध्यायी
में जो श्रीकृष्ण की रास-लीला का वर्णन पाया जाता है,
वही इस लेखका विचारणीय विषय है। यद्यपि रामलीला का
वर्णन गर्गसंहितादि अन्य ग्रन्थों में भी पाया जाता है,
तथापि वह भागवत से ही लिया हुआ जान पड़ता है। अतएव
रास-लीला-वर्णन
का मूलस्थान
श्रीमदभागवत
ही है। लोग ऐसा ही मानते भी हैं। फलत: इस लेख में रास-लीला के रहस्य पर ही
विचार किया जायेगा,
हालाँकि शीर्षक व्यापक है। ऐसी दशा में यद्यपि वही
शीर्षक देना उचित था, तथापि जैसा कि आगे विदित
होगा, पर जिस प्रकार हम इस विषय का विवेचन करना
चाहते हैं, उसको
ध्यान
में रखकर हमारा दिया शीर्षक ही हमें उचित प्रतीत हुआ। प्रतिपाद्य विषय को
ध्यान
में रख 'रास-लीला
का रहस्य' शीर्षक हमें भ्रामक-सा भी प्रतीत हुआ।
क्योंकि आजकल उसके समर्थन के लिए सैकड़ों प्रकार की दलीलें दी जाती हैं और
लोग उसके लौकिक-अलौकिक बहुत-से अभिप्राय बताया करते हैं और वही अभिप्राय
सम्प्रत्ति
भावुक जनता की दृष्टि में
'रास-लीला
के रहस्य' माने जाते हैं।
कहा जाता
है कि श्रीराम आदि जितने भी अवतार भगवान् के हुए हैं,
वे
सभी पूर्ण नहीं,
किन्तु भगवदंशमात्र ही हैं। परन्तु श्रीकृष्ण तो साक्षात् भगवान् के स्वरूप
ही हैं-'अन्ये
चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्।'
यदि और बातों का विचार न भी करके केवल गीता की ओर ही दृष्टि की जाय तो उस
अद्वितीय रत्न के प्रकाशकर्ता की हैसियत से ही उनकी पूर्णता सिद्ध हो जाती
है। क्योंकि यह निर्विवाद है कि गीता इस संसार में अपना सानी नहीं रखती।
यदि अध्यात्मरामायण की रामगीता की ओर दृष्टि करते हैं तो
'कृष्णस्तु
भगवान्स्वयम्'
का
रहस्य सहज ही विदित हो जाता है। बिना पूर्ण पुरुष की पूर्ण ज्ञानशक्ति के
योग के यह पूर्ण गीता कभी प्रकट नहीं हो सकती थी। परन्तु जब उसी पूर्ण
भगवान् का चरित्र रासपंचाध्यायी के रूप में श्रीमदभागवत में देखते हैं तो
व्यामोह हो जाता है और सहसा मुख से यह निकल पड़ता है कि क्या इस रासलीला के
कृष्ण वही हैं जो भगवद्रीता के
?
यद्यपि
इसके समाधान के लिए शतश: युक्तियाँ दी जाती हैं और उन युक्तियों से हम
अधिकांश से परिचित भी हैं,
फिर भी अपरिपक्व बुद्धि वाले भावुकजन भले ही इन युक्तियों से सन्तुष्ट हो
जाएँ,
लेकिन
विचारशीलों के हृदय में तो इस शंका से उथल-पुथल मची ही रह जाती है। सबसे
बड़ी बात तो यह है कि भावुकता भरे समाधानों से हम भक्तजनों एवं अन्धजनता को
भले ही सन्तुष्ट कर लें,
लेकिन जो अन्धविश्वासी नहीं हैं और जो धर्मान्तर के अनुयायी हैं,
उन्हें क्या उत्तर दिया जाये?
'जिस
धर्मान्तर के आवतारिक पुरुषों तक की यह दशा,
उसका ठिकाना ही क्या?'
विधार्मियों की इस युक्ति का समुचित उत्तर क्या होगा?
जिस श्रीकृष्ण की गीता पर वे मुग्ध हैं,
उन्हीं के जीवन-चरित्र का ऐसा वर्णन उनकी भी बुद्धि को डाँवाडोल किए बिना
कैसे छोड़ेगा?
हम
तो भगवान् के अवतारों को मर्यादा-पुरुषोत्तम कहते हैं और मानते हैं कि
धर्मान्तर की मर्यादा की रक्षा और दुष्टों का दमन एवं साधुओं की रक्षा ही
अवतारों का एकमात्र प्रयोजन है। गीता में भी उन्होंने स्वयं स्वीकार किया
है कि 'परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मान्तरसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे
युगे॥'
तो
उस धर्मान्तरकी मर्यादा क्या है और दुष्टों एवं साधुओं की परीक्षा की
कसौटी क्या है?
क्या दूसरों की बहू-बेटियों के साथ रात में अत्यन्त निर्जन स्थान में
हास-विलास और तदनुकूल वार्तालाप ही धर्मान्तरकी मर्यादा है,
सो
भी अपने पड़ोसियों एवं भाई-बन्धुओं की ही पुत्रियों एवं माता-बहिनों के साथ?
यदि यही धर्मान्तर-मर्यादा मानी जाय तो फिर साधुओं एवं असाधुओं के लक्षण
नए सिरे से करने होंगे तथा रावण-कंसादि को पापी कहते न बन पड़ेगा। स्थूल एवं
सर्वमान्य धर्मान्तर का नाश करके सर्वसाधारण के लिए अज्ञात किसी सूक्ष्म
धर्मान्तर की रक्षा यदि कोई हठ करके माने भी तो उससे क्या?
अवतारों का प्रयोजन तो सर्वसाधारण का ही हित है,
न
कि पंडितों और महात्माओं का। इसलिए तो गीता में भगवान् ने कह दिया है कि जो
लोग कर्म और उसके फल में आसक्ति रखकर ही कर्म करनेवाले तथा अज्ञानी हैं,
उनकी बुद्धि को चक्कर में डालनेवाली बातें या काम करने;
किन्तु स्वयं जानकार होता हुआ भी उन्हीं-जैसा कर्म उनके दिखाने के लिए करता
हुआ उनकी धारणा और भी पक्की कर दे ताकि वे सभी कर्म करने लगें-'न
बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानं कर्मसंगिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त:
समाचरन्॥'
तो
क्या रासलीलावाला श्रीकृष्ण का काम उन्हीं की कसौटी पर खरा उतरता है?
उस
समय के लोगों को उनका यह चरित्र या तो पथ भ्रष्ट करनेवाला या उनमें घृणा
एवं अनास्था करनेवाला कयों नहीं माना जायेगा?
उस
चरित्र की आधुनिक या पीछेवाली व्याख्याएँ तो उस समय थी नहीं। तब लोग क्यों
न पथभ्रष्ट होते?
या
नहीं तो उनमें अनास्था ही क्यों न करते?
वे स्वयं
तो अर्जुन को उपदेश देते हैं कि जनता को सन्मार्ग दिखाने के लिए भी तो कर्म
करना ही चाहिये-'लोकसंग्रहमेवापि
संपश्यन्कर्तुमर्हसि।'
तो
क्या यही सन्मार्ग दिखाने का कर्म काम करना?
इतना ही नहीं,
वे
अपना ही दृष्टान्त देकर गीता में कहते हैं कि
'हे
अर्जुन! मुझे ही देख न,
मुझे तो कर्म करके कुछ भी हासिल नहीं करना है,
फिर भी मैं कर्म करता ही हूँ। क्योंकि यदि मैं आलस्यरहित होकर कर्म न करूँ
तो सभी लोग मेरे ही अनुयायी बन जाएँ। कारण,
बड़े लोग जो कुछ करते हैं,
जनसाधारण भी वही करते हैं और वे जिस बात को ठीक मानते हैं जनता भी उसी को
मानती है।'
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि
हृहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम
वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश॥
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स
यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
यदि
अर्नुज श्रीकृष्ण के इस उपदेश की परीक्षा उन्हीं पर करता तो रासलीलावादियों
के मत से उसकी क्या दशा होती?
क्या उन्हें मिथ्यावादी मानकर चट यह नहीं कह बैठता कि
'परोपदेशे
पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम्?'
और
जो श्रीकृष्ण ने यह कह डाला है कि
'यदि
मैं ही धर्मान्तरचरण न करूँ तो यह संसार की चौपट हो जाय और इस प्रकार
वर्णसंकर करने एवं जनता के सत्यानाश का भागी मैं ही हो जाऊँ-'उत्सीदेयुरिमे
लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥'
उसकी क्या हालत होगी?
रासलीला के मानने से तो वर्णसंकर का मार्ग ही प्रशस्त हो जाता है,
क्योंकि इस प्रकार कुलस्त्रियों के दूषित और पथभ्रष्ट होने का रास्ता वही
दिखा देते हैं और यही वर्णसंकर का मार्ग है,
जैसा कि गीता के प्रथमाध्याय में ही कहा गया है कि
'प्रदुष्यन्ति
कुलस्त्रिय:। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:॥'
अतएव गीता के साथ रास-लीला को मिलाने पर प्रचण्ड व्यामोह होना अनिवार्य है
और सहसा यही कहने को जी चाहता है कि आधुनिक उपदेशकों की तरह श्रीकृष्ण कभी
भी अपने कथन के विपरीत आचरण नहीं कर सकते थे। फिर यह रास-लीला कैसी?
एक बात और
श्रीमद्भागवत के ही दशम-स्कन्ध के
74
वें अध्याय में युधिष्टिर के राजसूय-यज्ञ के प्रसंग से श्रीकृष्ण की
सर्वप्रथम पूजा और उसी से शिशुपाल के रुष्ट होकर बेहिसाब झूठ-सत्य,
अंट-संट बकने का वर्णन है। अन्यान्य ग्रन्थों में भी यह वर्णन मिलता है।
शिशुपाल के प्रलाप से यह स्पष्ट है कि उसने श्रीकृष्ण को खूब ही बदनाम करना
चाहा और एतदर्थ मिथ्योरोप तक कर डाला है। उसने कहा है-'जो
कहा जाता है कि काल बड़ा ही बली है,
जो
ठीक ही है। नहीं तो सहदेव-जैसे बच्चों की बात को वृद्धलोग क्यों कर मान
लेते! हे सभासदो! आप लोग पात्रापात्र के जानकारों में सर्वोपरि हैं,
फिर कृष्ण की पूजा क्यों?
आप
लोग लड़के की बात न मानें! भला,
तप,
विद्या,
व्रतादि के पालकों और ज्ञान के बल से सभी पापों को दग्ध कर डालनेवाले
ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मर्षियों को जिन्हें इन्द्रादि लोकपाल भी पूजते हैं,
छोड़कर कुलांगार यह ग्वाला कैसे पूजा जा सकता है?
क्या कौआ सभी देव-हविका अधिकारी हो सकता है?
यह
तो वर्ण,
आश्रम,
कुल से रहित,
सर्वधर्मान्तर-बहिष्कृत और गुणरहित स्वेच्छाचारी है। फिर इसकी पूजा कैसी?
ययाति ने तो इसके कुल को ही शाप दिया है,
भले लोगों ने इन लोगों का बहिष्कार किया है और ये यदुवंशी पियक्कड़ भी हैं।
फिर भी पूजा?
इसीलिए तो ब्रह्मर्षियों के देश को छोड़कर ये सब ब्रह्म-तेज-रहित देश में
जाकर और समुद्र के भीतर किला बनाकर वहीं से प्रजा को लुटेरों की तरह सताया
करते हैं।'
इससे
स्पष्ट है कि शिशुपालने श्रीकृष्ण में मिथ्या दोषों के आरोप करने में कोई
भी कसर नहीं की है। और जगह भी जो शिशुपाल के दोषारोपण का वर्णन है,
वहाँ भी यही बात है। ऐसी दशा में यदि रास-लीलावाली बात सत्य होती तो उसे वह
क्यों छोड़ देता
?
तब तो
दुराचारी,
व्यभिचारी आदि विशेषणों से उन्हें अलंकृत अवश्य करता
?
यह भी
नहीं कि उस समय श्रीमदभागवत,
गर्गसंहिता आदि ग्रन्थ बन चुके थे,
जिससे रासलीला की दूसरी व्याख्या हो चुकने के कारण वह यह बात कहने से हिचक
जाता। ये ग्रन्थ तो उसके बाद ही बने हैं यह तो सभी को मानना ही होगा। और
ग्रन्थ बनने ही से क्या?
जब
वह मिथ्यादोषारोप करता था तो यह बात क्यों नहीं कह डालता?
इससे सिद्ध है कि श्रीकृष्ण को किसी भी प्रकार व्यभिचारी कहने की उसकी
हिम्मत नहीं थी,
जिससे विदित होता है कि उस समय शत्रु से भी शत्रु के लिए श्रीकृष्ण का
चरित्र इस दृष्टि से अत्यन्त स्वच्छ और बहुत उच्च था और रासलीलावाली बात उन
दिनों सोलहों आने प्रचलित थी ही नहीं। उस समय कहीं इसकी चर्चातक नहीं थी।
इससे भी
बढ़कर एक बात है। मीमांसादर्शन के प्रथमा धाय के तृती पाद के
'अपि
वा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन
71
सूत्र के ऊपर विचार करते हुए श्रीकृमारि भट्ट ने
'तन्त्रवार्तिक'
नामक अपने ग्रन्थ में सदाचारों का विचार किया है। क्योंकि स्मृतिकारों ने
धर्मान्तर के सम्बन्ध में श्रुति,
स्मृति की ही तरह सदाचारों को भी प्रमाण माना है। वे शंकारूप से लिखते हैं
कि सत्पुरुषों के आचरण को ही सदाचार कहते हैं। लेकिन किसे सत्पुरुष कहें और
उसके किस आचार को सदाचार कहें,
क्योंकि बड़ी गड़बड़ी है। देखते हैं कि ब्रह्मा से लेकर व्यास,
वशिष्ठ,
विश्वामित्र,
युधिष्ठिर,
अर्जुन,
श्रीकृष्ण तक ने तो गड़बड़ी ही की है और आजकल भी तो भारत के सभी प्रान्तों
में ऐसा ही गड़बड़झाला है। अतएव शिष्टाचारों को धर्मान्तर के सम्बन्ध में
प्रमाण नहीं मानना चाहिये। नहीं तो बड़ी उथल-पुथल हो जायेगी और लोग अनर्थ
करने लग जाएँगे।
इसके बाद
जब समाधान करने लगे हैं तो ब्रह्मा और इन्द्रादिका कहीं अर्थ ही बल दिया है
और कहीं कुछ और ही कर दिया है जिससे हमें यहाँ मतलिब नहीं है। हमें तो
श्रीकृष्ण और अर्जुन-सम्बन्धी उनके आक्षेप और समाधान से मतलब है। क्योंकि
एक तो दोनों को साक्षात् परमात्मा का नर-नारायण का अवतार मानते हैं। दूसरे
दोनों की ही बातें हमारे विषय से सम्बन्ध रखती हैं। यहाँ कई बातें विचारणीय
हैं। पहले तो यह देखना चाहिये कि यदि भट्टपाद (कुमारिल भट्ट) के समय में
रासलीला की बात प्रचलित होती तो स्पष्टतया शायद ही किसी को विदित है कि
रुक्मिणी श्रीकृष्ण के मामा की लडक़ी थी,
यद्यपि सुभद्रा की बात सभी जानते हैं। इसीलिए इस विवाह में विरोध भी हुआ था,
मगर रुक्मिणी के विवाह के विरोध का कारण तो दूसरा ही था। फलत: बड़ी कठिनाई
से ढूँढ़-ढाँढ़कर कहीं से साक्षात्परम्परा नाता जोड़ेंगे। तब कहीं रुक्मिणी
मामा की लड़की सिद्ध होगी। परन्तु रासलीलावती बात तो बहुत ही स्पष्ट थी। यदि
यह बात सच हो तो यह तो अपने ही घर में दुष्कर्म माना जायेगा! मामा का-सो भी
परम्परा-सम्बन्ध तो दूर का है और वह प्रचलित भी है। और जब सर्वविदित मामा
की कन्या के विवाह की बात अर्जुन के बारे में कह दी तब तो श्रीकृष्ण के
बारे में दूसरी बात कहना ही ठीक था और वह दूसरी बात यही रास-लीला ही हो
सकती है। स्वभावत: सबसे पहले प्रसिद्ध बात की ओर ही दृष्टि जाती है और यह
लीला तो जगत्प्रसिद्ध हो रही है। फलत: इसे न कहकर अप्रसिद्ध बात
रुक्मिणी-परिणय का उल्लेख यह सिद्ध कर देता है कि भट्टपाद कुमारिकल के समय
तक रास-लीला की बात प्रचलित न थी।
इतना ही
नहीं,
वे जब
समाधान करने लगे हैं तो पहले अर्जुन-सुभद्रा-सम्बन्ध को ही लिया है और उसी
का समाधान करके अन्त में कह दिया है कि
'इसी
तरह रुक्मिणी विवाह का भी तात्पर्य बताया जा सकता है'
'एतेन
रुक्मिणीपरिणयनं व्याख्याततम्।'
सुभद्रा-विवाह का जो व्याख्यान किया है उसमें बहुत यत्र और कल्पना करके यह
सिद्ध किया है कि सुभद्रा श्रीकृष्ण की सगी बहन वसुदेव की पुत्री न थी,
किन्तु या तो रोहिणी की बहन की कन्या न थी,
किन्तु या तो रोहिणी की बहन की कन्या थी या रोहिणी के पिता की बहन की कन्या
की पुत्री,
क्योंकि उसे भी लाट-देश में भगिनी ही कहते है।
'मातृस्वस्त्री
या वा सुभद्रा तस्य मातृपितृस्वस्त्रीयाया दुहिता वा।'
क्योंकि यदि यह बात न होती तो सब बातों और
धर्मान्तरमर्यादा
के जानकार श्रीकृष्णादि कभी उस विवाह की सम्मति नहीं देते
'इति
परिणयनाभ्यनुज्ञानाद्विज्ञायते।' इस पर कोई ऐसा
न कह बैठे कि केवल अर्जुन की
मित्रता
के ही लिहाज से श्रीकृष्ण ने
धर्मान्तरविरुद्ध
भी विवाह करवा दिया जैसा कि
तन्त्रवार्तिककी
टीका न्यायसुधा
(राणक)-में श्रीसोमेश्वर भट्ट ने यही शंका की है-'ननु
विरुध्दोऽप्ययमाचारो वासुदेवेनार्जुनप्रीत्या प्रवर्तित इत्यपि
परिहारोपपत्तोरनुक्त-व्यवधनकल्पना
न युक्ता।'
ठीक ही है। यह तो कहीं भी नहीं लिखा है कि सुभद्रा
रोहिणी की बहन की पुत्री
या फूआ की कन्या थी। ऐसी दशा में इस टेढ़ी-मेढ़ी निराधार
कल्पना की अपेक्षा अर्जुन के प्रेम के कारण ही अनुचित विवाह की कल्याण ठीक
प्रतीत होती है। इसीलिए भट्टपादने आगे अपनी कल्पना का आधार
बताते हुए लिखा है कि
'जिस
श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि हे अर्जुन! यदि मैं ही अनुचित कर्म करूँ
तो सब लोग मेरा ही अनुकरण करने लगेंगे। कारण,
बड़े लोग जो करते हैं, साधारणजन
भी वही करने लगते हैं और बड़े जिस बात को ठीक मानते हैं दुनिया भी उसी को
मानती हैं-'येन
ह्यन्यत्रौवमुक्तम्' 'ममवर्त्मानुवर्तन्ते
मनुष्या: पार्थ सर्वश:।' 'यद्यदाचरति
श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥'
वही ठीक उसके विपरीत कैसे कर सकते थे?
यदि कोई हठधर्मी
हठवश कह बैठे कि श्रीकृष्ण ने शील-संकोच से ही ऐसा कर लिया,
अथवा उनको बड़ा मानता ही कौन है तो इसके समाधान
के लिए कुमारिल स्वयं लिखते हैं कि
'समस्त
लोगों के आदर्श और पथदर्शक होकर वही श्रीकृष्ण भला ऐसे विपरीत आचरण को
क्यों कर प्रश्रय दे सकते थे?'-
'स
कथं सर्वलोकादर्शभूत: सन् विरुद्धाचारं प्रवर्तयिष्यति?'
इससे तो निस्सन्देह यह बात सिद्ध हो जाती है कि उस समय तक रासलीला की बात
बिल्कुल ही प्रचलित न थी। भट्टपाद के कथनानुसार तो ऐसे धर्मान्तरविरुद्ध
आचरण की कल्पना भी श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में नहीं की जा सकती। वे इतने बड़े
और महान् थे कि धर्मान्तरविचार के समय शील-संकोच या दबाव आदि उनपर कुछ भी
प्रभाव नहीं डाल सकते थे। गोपियों के बारे में जो समाधान गर्गसंहिता आदि
ग्रन्थों में किए जाते हैं यदि वे भी उस समय प्रचलित होते तो रुक्मिणी और
सुभद्रा के बारे में भी वही समाधान भट्टपाद क्यों नहीं लिखे देते?
और
क्यों यह सिद्ध करने का कष्ट उठाते कि सुभद्रा वसुदेव की कन्या न थी।
क्योंकि अर्जुन भी तो भगवान् के अंशावतार ही माने जाते हैं और श्रीकृष्ण का
तो कहना ही क्या?
रुक्मिणी को लक्ष्मी का अंश भागवत में ही कहा है
'श्रियो
मात्रां स्वयंवरे'
(10/52/16)।
सुभद्रा को भी ऐसा ही कहकर चट समाधान कर देते,
जैसा कि द्रौपदी के सम्बन्ध में कहा है। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसी
से पता लगता है कि एक तो ऐसे समाधानों को वे लचर मानते थे जैसा कि द्रौपदी
के ही विषय के ऐसे समाधान को पहले कहकर पीछे दूसरे समाधान किए हैं। दूसरे
ये कल्पनाएँ उस समय तक प्रचलित न थीं। द्रौपदी के प्रसंग में भी उन्होंने
श्रीकृष्ण के बारे में कह दिया है कि
'इतरथा
हि कथं प्रमाण भूत: सन्नेवंवदेत्''
भला प्रामाणिक पुरुष होकर वे मिथ्या कैसे बोल सकते थे?'
तो
फिर वही श्रीकृष्ण रासलीला कैसे कर सकते थे?
एक बात और
भी द्रष्टव्य है। श्रीमदभागवत के आरम्भ की जो कथा है उससे स्पष्ट है कि ऋषि
के शाप से सात दिन में ही मृत्यु होने के समाचार से समस्त सांसारिक बन्धनों
को छोड़ और अन्न-पानादिको भी न ग्रहणकर एकमात्र मोक्षकामना से ही गंगा के तट
पर मंच बनवाकर महाराज परीक्षित जा बैठे थे। उन्हें पुत्र-कलत्रादि की
वार्ता से भी कुछ मतलब न था। वही भागवत के प्रधान श्रोता थे। उधर
श्रीशुकदेवजी उसके वक्ता थे,
जिनके बारे में महाभारत में यहाँ तक लिखा है कि स्त्री-पुरुष भेदतक नहीं
जानते थे और जन्म से ही विरक्त थे। इसीलिए जब जन्म के ही समय भागे जा रहे
थे तो मार्ग में देववधुओं ने उनसे कोई लज्जा न कीं,
हालाँकि नग्न स्नान कर रही थीं। मगर व्यासजी से लज्जित हो गयीं। इन दोनों
के अतिरिक्त महान् विरक्त तथा ज्ञानी महर्षियों का समाज वहाँ जुटा था जो
आत्माराम थे और जिनके यहाँ रस-चर्चा की सम्भावना नहीं थी। भला,
ऐसे समुदाय में कैसे रासलीला का वर्णन आ गया जो आधुनिक कवियों के
ऋंगाररस-वर्णन को भी मात करनेवाला है?
व्यास जी ने ऐसे समाज में उस प्रकार के श्रोता से कैसे यह चर्चा करवायी और
शुकदेव के मुख से वह बातें क्यों कर कहलायीं,
यह
समझ में नहीं आता। इस बात की सम्भावना तो ठीक ऐसी ही है जैसी सूई के छिद्र
से हाथी कि निकल जाने की। यदि अन्यान्य श्रोता-वक्ता के द्वारा ग्रन्थान्तर
में यह बात कहलायी जाती जो एक बात भी थी। मगर भागवत में शुकदेव के मुख से
इस ऋंगार-रसवर्णन की हिम्मत व्यासजी को कैसे हो सकती थी?
अन्त में
एक बात और कहकर इस लेखको पूरा करेंगे। दशम-स्कन्ध के
29
से 33
अध्यायों तक को रासपंचाध्यायी कहते हैं। उससे पूर्व के
25-28
आदि अध्यायों में श्रीकृष्ण के गोवर्धान-धारण,
वरुणलोकसे नन्द के मोचन आदि अलौकिक कामों का वर्णन है। फिर
34
आदि अध्यायों में भी सुदर्शन नामक विद्या घर के उद्धार,
शखंचड़के वध आदि ऐसे ही कर्मों का वर्णन है और उसी प्रसंग से बलराम और
श्रीकृष्ण के साथ गोपी-बालिकाओं की लीलाओं का वर्णन भी है। इसके बीच में जो
रासपंचाध्यायी आयी है वह असम्बद्ध-सी मालूम पड़ती है। न तो यहाँ उसका कोई
प्रसंग है और न उसमें वर्णित रासलीला में कोई असाधारण अद्भुतता है। जितनी
गोपियाँ उतने कृष्ण का वर्णन भी कृत्रिम-सा मालूम होता है और विदित होता है
कि रासलीला को भी अलौकिक कर्म बलात् बनाने के लिए यह कवि की कल्पना है।
उसमें श्रीकृष्ण के अन्यान्य कामों-जैसी स्वभावसिद्ध विचित्रता नहीं है।
प्रत्युत श्रीकृष्ण-बलराम दोनों का एक साथ जो गोपियों के साथ खेलना है वह
बाललीला प्रतीत होता है और उसमें जो शंखचूड़का वध है वह स्वाभाविक अद्भुत
कर्म प्रतीत होता है,
इससे अनुमान होता है कि उसी लीला के आधार पर रासपंचाधायी को अपनी ओर से
बनाकर किसी आधुनिक कवि ने पीछे से इधर आकर भागवत में डाल दिया है। कोई भी
निष्पक्ष होकर यदि पूर्वापरका अनुशीलन करे तो हठात् इसी निश्चय पर
पहुँचेगा। इसका इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि रासपंचाध्यायी के
बनने के बाद भी किसी कवि को जब उसके ऋंगार-वर्णन में न्यूनता मालूम हुई है
तो 30
वें
अध्याय के
31
वें श्लोक
के बाद डेढ़ श्लोक उसने गढ़कर बहुत हाल में डाल दिया है। अतएव श्रीधारादि
टीकाकारों की टीका में यह डेढ़ श्लोक नहीं मिलता और आजकल की छपी पुस्तकों
में प्रक्षिप्त का चिद्द देकर छपा हुआ मिलता है। वह है
'इमान्यधिकमग्नानि
पदानि वहतो वधूम्। गोप्य: पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिन:॥
अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना।'
भागवत में ऐसे एकदम नूतन प्रक्षेप बहुत स्थानों में हैं जो इस अनुमान को
पुष्ट करते हैं कि रासपंचाध्यायी भी आधुनिक और प्रक्षिप्त है। इसीलिए केवल
रासपंचाध्यायी पर ही जो पुष्टि मार्गीय विद्वानों की बहुत-सी टीकाएँ मिलती
हैं न कि समस्त भागवत पर,
वह
इस अनुमान को और भी पुष्ट बना देती हैं। क्योंकि इस अनुमान को और भी पुष्ट
कना देती हैं। क्योंकि उस सम्प्रदाय में रासलीला में विशेष आस्था देखी जाती
है। इस सम्बन्ध में प्रसंगवश एक बात हम कह देना चाहते हैं। काशी में
सरस्वती भवन नामकी जो लाइब्रेरी है उसके भूतपूर्व लाइब्रेरियन पं.
विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी से एक बार लेखक की बातें इसी सम्बन्ध में हुई
थीं। उस समय उन्होंने कहा था कि कलकत्तो की एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय
में रखी एक बहुत ही प्राचीन हस्तलिखित श्रीमदभागवत की प्रति मिली है जिसमें
रासपंचाध्यायी नहीं है और जो बोपदेव से बहुत पहले की है। हम कह नहीं सकते
कि उनकी यह बात कहाँ तक ठीक है। कारण,
इसके अनुसन्धान का मौका हमें नहीं मिला है। लिख इसलिए दिया है कि
अनुसधानप्रेमी श्रीकृष्णभक्त इसका अनुसंधान करें।
इस प्रकार
श्रीकृष्ण-चरित्र-चन्द्र में हमें जो कलकं प्रतीत हुआ उसका यथाबुद्धि हमने
मार्जन कर दिया है। उसके सारासार का विवेचन विज्ञ पाठक ही कर सकते हैं।
क्योंकि श्रीकृष्णलीला अनन्त सागर है। उसका पार पाना या उसकी इयत्ता तथा
एवं भूतताका निश्चय साधारण बुद्धि का कार्य नहीं है।
1***
___________________________________________
[***1.
बात
ठीक है, 'श्रीकृष्णलीलारूपी
अनन्त सागर का पार पाना साधारण
बुद्धि
का कार्य नहीं है।'
मेरी तुच्छ समझ से तो दीर्घ
साधन
से द्वारा जब अन्त:करण की शुद्धि
हो जाती है तभी श्रीकृष्ण कृपा से श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म-कर्मों का कुछ
रहस्य समझा जा सकता है। रासलीला का क्या रहस्य है,
इस बात को वास्तव में श्रीभगवान् या महामुनि व्यास ही
जानते हैं, अथवा वे महान् पुरुष जानते होंगे
जो श्रीकृष्णकृपा के पात्र
और उनके
पवित्र
चरण-रजके यथार्थ प्रेमी हैं। मुझ सरीखा मनुष्य तो इस विषय पर कुछ भी कहने
का अधिकारी
नहीं?
हाँ, महात्मा पुरुषों
द्वारा सुने हुए सदुपदेशों के आधार
पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनके मत के अनुसार
श्रीमदभागवत
में रासलीला का प्रसंग प्रक्षिप्त नहीं है। यह वृन्दावन में होनेवाली
श्रीमद्भगवान की एक महान् उच्च और सत्य आध्यात्मिक
लीला है। इसमें व्यभिचार या इन्द्रियचारितार्थता का लेश भी नहीं है।
शिशुपाल को इस महान् अन्तरंग लीला का पता ही कैसे लगता जब कि रास में
सम्मिलित होने वाली प्रात: स्मरणीया,
भक्ति और वैराग्य की मूर्ति कृष्णप्रेम मयी साध्वी
गोपियों के पति-पुत्रों
को ही यह ज्ञान रहा कि वे सब घर में सोई हुई हैं।
श्रीमद्भागवत
में इसका स्पष्ट उल्लेख हैं।
द्रौपदी-प्रभृति पवित्र अन्तरंग भक्तों को इस लीला का पता था,
इसी से तो द्रौपदी ने कौरव-सभा में लाज जाते समय लाज बचाने के लिए भगवान्
श्रीकृष्ण को
'गोपीजनप्रिय'
कहकर पुकारा है।
रही
भट्टपाद कुमारिली के वर्णन की,
बात,
सो उन
लोगों के मन के इस लीला के आध्यात्मिक रूप होने के सिवा दूसरी बात जँची ही
नहीं थी तब वे इनका उल्लेख कैसे करते?
कुमारिलजी के कुछ ही बाद होनेवाले भगवान् शंकराचार्य ने भगवान् श्रीकृष्ण
की महिमा गान करते हुए स्वयं कहा है-
एको
भगवान् रेमे युगपद् गोपीप्वनेकासु।
तब यह
कैसे कहा जा सकता है कि उस समय यह कथा प्रचलित नहीं थी। काशी के
सरस्वती-भवन में जो भागवत की पुरानी प्रति है,
उसका चित्र इसमें अलग छापा जा रहा है,
उसके सम्बन्ध में उसके वर्तमान लाइब्रेरियन डॉ. श्रीमंगलदेवजी शास्त्री
एम.ए.,
पी-एच.डी. लिखते है कि (गवर्नमेण्ट संस्कृत-कालेज के प्रिंसिपल)
श्रीगोपीनाथ जी कविराज ने पहले पता लगवाया था कि उसमें रासपंचाध्यायी तथा
चीरहरणसम्बन्धी कथाएँ हैं या नहीं। उनका निश्चय पूर्वक कहना है कि ये दोनों
कथाएँ उसमें वर्तमान हैं। रासपंचाध्यायी के विषय में प्रचलित प्रति से
केवल इतना ही भेद है कि हमारी प्रति में प्रचलित दो अध्यायों को एक ही
अध्याय माना है पर श्लोक-संख्या में भेद नहीं है। -कल्याण सम्पादक की
टिप्पणी
नोट:
सम्पादक ग्रन्थावली-इस टिप्पणी के बाद से ही स्वामी जी ने कल्याण को आगे
लेख भेजने में संकोच करना शुरू कर दिया।
(श्रावण
1988 संवत्,
पृष्ठ 432
कृष्णअंक कल्याण,
मालवीय भवन, वाराणसी से उद्धृत)
(शीर्ष पर वापस) |