सम्पादकीय टिप्पणी
इसमें अप्रत्यक्ष रूप से कम्युनिस्ट पार्टी के आत्म निर्णय के अधिकार की
स्वतन्त्रता नारे के तहत पाकिस्तान समर्थन की नीति की आलोचना की गयी है।
भारत के बहुराष्ट्रीयता की उनकी अवधारणा पर स्वामी जी लिखते हैं, ''भारतीय
राष्ट्र के पेट में कई राष्ट्रों के होने की बातें जैसे कलेजे में चुभती-सी
भी हैं।'' स्वामीजी भारत में जात, धर्म, मजहब के आधार पर कई अलस्टर बनाने
की गाँधीवादी नीति के भी खिलाफ अपने तर्क देते हैं और भारतीय एकता का असली
आधार आर्थिक सवाल बताते हैं। यदि यह आधार कांग्रेस को मंजूर हुआ होता और
देश के समाजवादी- जनवादी-मार्क्सवादी ईमानदारी से किसान संघर्ष पूरे देश
में चलाये होते तो न भारत 1947 को खण्डित होता न आजादी अधूरी दी जाती और न
आज देश को आतंकवाद का दंश झेलना पड़ता। स्वामीजी की दृष्टि एक मसीहा की
दृष्टि थी, किसानों के पैगम्बर की अग्र सोच थी...
***
किसान बन्धुऒ,
आज हम शेरघाटी के बाद पूरे चौदह महीने पर यहाँ मिल रहे हैं। इस बीच देश की
और दुनिया की भी हालत बहुत ज्यादा बदल चुकी है। हम कहाँ से कहाँ जा पहुँचे
हैं आगे के लिए कोई भी प्रोग्राम ठीक करने के पहले हमें इस बदली हुई
परिस्थिति को ख्याल में रखना ही होगा।
गत यूरोपीय युध्द के बारे में लेनिन ने कहा था कि यह साम्राज्यवादी युध्द
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगा और देर तक चलेगा, किसान-मजदूरों और आम जनता की
तकलीफें त्यों-त्यों बेहद बढ़ेंगी, उनकी ऑंखें खुलेंगी और वे बागी बनेंगे,
वही हुआ भी मगर इस महायुध्द की हालत तो और भी बुरी है। यह साम्राज्यवादी है
या जनवादी इस दिमाग़ी उधेड़बून और पचड़े में इनमें कुछ लोग भले ही पड़े रहें और
बाल की खाल खींचें, मगर इससे कौन इनकार करेगा कि इसके चलते हमारे कष्ट हजार
गुना बढ़ गये, बढ़ रहे हैं? 'हाय अन्न, हाय कपड़ा' आदि की कराह चारों ओर है।
भारत मन्त्री और सरकारी अफसर कहा करते हैं कि धान, गेहूँ, चने आदि की फसलें
बहुत ही अच्छी हुई हैं। फिर भी मोटे से मोटा चावल, गेहँ, चना, रुपये का दो
ढाई सेर से ज्यादा तो कहीं मिलता ही नहीं! एक रुपये सेर सत्तू बिक गया!
खाने की सब चीजें प्राय: एक ही भाव बिक रही हैं। यह तो अन्धेरपुर नगरी की
'टके सेर भाजी और टके सेर खाजा' वाली बात है! सरकार ने चीनी का थोक भाव
चौदह रुपये मन रखा है और गुड़ की भी थोक दर वही है! फिर भी चीनी बिकती है
बीस रुपये मन से ऊपर ही और देहातों में तो 25-26 रुपये मन है! नमक, कपड़े,
किरासन आदि के दाम में तो आग लगी है! ये चीजें मिलती ही नहीं।
बेरोजगारी की हालत यह है कि खोमचेवाले, अखबार वाले, दूकानदार, पोस्ट ऑफिस
वाले और रेलवे टिकट बेचनेवाले-सभी-बिना बेरोजगारी के कोई चीज देते ही नहीं(
रेलवे टिकट और डाक के स्टाम्प बेचते ही नहीं और लोग मजबूरन खरीदते ही हैं।
फिर भी इनके पास भी हर घड़ी बेरोजगारी का दिवाला निकला ही रहता है! आखिर
टिकटघर की बेरोजगारी जाती कहाँ है? इसकी पूछ-ताछ करने वाला कोई है या नहीं?
मालूम होता है, चारों ओर अराजकता है और कोई किसी का कान ऐंठने वाला रही
नहीं गया है।
कांग्रेस को दबाने, राजनीतिक चर्चा रोकने, मीटिंग और जुलूस वगैरह का नाम
मिटाने की ताकत तो सरकार के पास बहुत ज्यादा है। कुछ दिन पहले अजेय समझे
जाने वाले हिटलर, तोजो और मुसोलिनी को भी दबाने और खत्म करे देने की ताकत
अब ब्रिटिश सरकार और मित्रराष्ट्रों में आ गयी है ऐसा माना जाने लगा है। तो
क्या वजह है कि भारत में गल्ले और उसकी दर पर नियन्त्रण कर के उसका ठीक-ठीक
प्रबन्ध करना असम्भव है-कठिन है, जैसा कि हाल में ही भारतमन्त्री ने
स्वीकार किया है? अगर इंग्लैण्ड और अमेरिका में यह बात ऐसी कठिन नहीं है तो
यहाँ क्यों है? सरकार की वह शक्ति है कहाँ जो समाज के शत्रुओं और बदमाशों
को दुरुस्त करे नहीं सकती? और अगर इंग्लैण्ड आदि देशों में आम जनता के
पूर्ण सहयोग से ही यह बात हो पाती है, न कि और तरह से, तो यहाँ भी उन्हें
कौन रोकता है कि वही सहयोग हासिल न करें? मगर यह तो सही है कि लाठी, गोली
और जेल के बल से यह चीज मिल सकती है नहीं। टुकड़े फेंक के भी नहीं मिल सकती।
यह तो तभी हो सकती है जब उन्हें जनता के लिए असली दर्द हो और वे उसकी उचित
माँगें पूरी सकें, करने को तैयार हों।
एक तरफ तो यह हालत है। दूसरी ओर यह प्रचार होता है कि न सिर्फ आम तौर से
किसान धानी हो गये हैं, बल्कि उनके पास जरूरत से बहुत ज्यादा गल्ला जमा है
और जैसे हो तैसे उनसे छीना जाना चाहिए। उन्हें क्या पता कि देहातों में
कितने लोग भूखों मर रहे हैं और पेट पर पत्थर बाँध के रात में सो जाते हैं?
अभी-अभी पढ़ा था कि छपरा शहर के ही एक महल्ले में, जो किसानों का महल्ला है,
डेढ़-दो सेर भी फी रुपया चावल न मिलने से आधा परिवार भूखे ही सोने को बाध्य
हो जाते हैं! भारत मन्त्री साहब खुद फर्माते हैं कि युध्दारम्भ के पहले की
अपेक्षा गल्ले की कीमत आठ गुनी से भी ज्यादा कलकत्तो में हो गयी है! खुद
वहाँ के लीगी प्रधानमन्त्री सर नाजिमुद्दीन ने कहा है कि 40 रु. मन चावल
बिक रहा है, हालाँकि कई जिलों में तो 50 रु. मन भी नहीं मिलता है!
तो फिर इसका उपाय? यही कि बिहार का अन्न ढो-ढा के बंगाल पहुँचे और वहाँ के
बजाय यहाँ वाले भूखों मरें? यही किया जा रहा है। हम भारत सरकार की इस नीति
का घोर विरोध करते हैं। हम चाहते तो सिर्फ इतना ही थे कि बिहार के जिलों
में भी जो गल्ले के आने-जाने की व्यर्थ की रुकावट है वह हटा दी जाय। बहुत
आगा-पीछा के बाद बिहार सरकार ने यह किया भी जब बहुत-सा गुड़ गोबर हो चुका था
फिर भी 'देर आयद दुरुस्त आयद' के अनुसार लोगों ने इस बात का स्वागत किया।
मगर उसके बाद ही भारत सरकार ने बिहार से बाहर गल्ला जाने की रुकावट भी हटा
दी! नतीजा यह हुआ कि अन्धाधुंध गल्ले का भेजना शुरू हुआ। व्यापारी लोग भी
कैसे भयंकर जीव होते हैं! दसी दिनों के भीतर साढ़ तीन सेर की जगह रुपये का
दो सेर भी चावल मिलना असम्भव हो गया! अब यहाँ हाहाकार मचा है। बंगाल में
गल्ला जाय और जरूर जाय, यह हम कहते हैं, मानते हैं। मगर उसके बदले वहाँ की
भूख और भयंकर महँगी यहाँ चली आये यह तो हम हर्गिज नहीं चाहते और यही हो रहा
है। इसीलिए हम इसे रुकवाना चाहते हैं। ऐसा रास्ता निकले कि यहाँ के लोग
भूखों न मरें और वहाँ गल्ला जाय भी, तो कौन इसका स्वागत न करेगा? मगर सच्ची
बात यह है कि बंगाल के लीगी मन्त्रिमण्डल की गद्दी बरकरार रखने के लिए
बिहार के लोग भूखों मरने को तैयार नहीं!
जहाँ और देशों में और खासकरे इंग्लैण्ड में ही लोगों के भोजनादि जरूरी
पदार्थों का दाम मुश्किल से 50-60 फीसदी बढ़ सका है तहाँ हमारे देश में
आमतौर से चार सौ फीसदी तक बढ़ गया है! यहाँ की सरकार की मुस्तैदी, सर्वजन
प्रियता और सफलता का इससे और अधिक सबूत चाहिए ही क्या? शायद इसीलिए न तो वह
टस से मस होना चाहती और न यहाँ लोकप्रिय राष्ट्रीय सरकार ही बनने देना
चाहती है!
कहा जाता है कि लोगों ने गल्ला वगैरह छिपा रखा है जिससे दिक्कतें पेश आती
हैं। बात तो कुछ हद तक सही है। मगर छिपानेवाले खूँखार बनियों पर पुलिस और
मजिस्ट्रेट धावा क्यों नहीं बोलते? जो धानी जमींदार और मालदार किसान
कहीं-कहीं ज्यादा गल्ला रखे हुए हैं उन्हें भी मजबूर करके गल्ला बेचवाया
जाय तो हमें उज्र नहीं है! मगर कहीं ऐसा न हो कि बनिया मालदार लोग युध्द
में चन्दा काफी दें या 'वारबांड' खरीदें और उन्हें अधिकारी लोग अछूते
छोड़करे या नाममात्र की ही धार-पकड़ करके गरीबों और साधारण किसानों पर ही पड़
जायें। जो खबरें आ रही हैं। उनसे तो यही मालूम होता है कि साधारण और गरीब
किसानों ही पर आफत है और मालदार लोग यों ही बच जाते हैं। मजिस्ट्रेट साहब
यदि फर्माते भी हैं कि धानियों को पकड़ो तो उनके मातहत लोग गाँवों के चलते
पुर्जे लोगों से मिलकरे गरीबों को ही पीसते हैं। यह क्या चीज है? यह तो
बन्द होना चाहिए फौरन। इसका नतीजा किसी के लिए हरगिज अच्छा न होगा। गाँवों
में आतंक और हाहाकार मचा है। कितने ही जिलों से खबरें और चिट्ठियाँ पर
चिट्ठियाँ आ रही हैं।
यह ठीक है कि हमें उन लोगों का भी ख्याल रखना होगा जो शहरों में रहते या
खेती नहीं करते। यदि किसान गल्ला न बेचें तो वे खायेंगे क्या? इसलिए तो
किसानों का फर्ज है कि साल-भर की जरूरत का गल्ला पास में रखकरे बाकी जरूर
बेच दें। किसान कार्यकर्ता और सभायें उन्हें यह बात बखूबी समझा दें। नहीं
तो नतीजा बुरा होगा। भूखे लोग तूफान मचायेंगे। मगर इसका यह मतलब हर्गिज
नहीं है कि किसान या देहात के लोग भूखों मरें और शहरों या नौकरी पेशावालों
के लिए उन्हीं का गल्ला छीना जाय। आखिर देहात में भी कहीं आधा और कहीं
तिहाई, चौथाई ऐसे लोग होते हैं जो खेती नहीं करते। वे भी किसानों पर भी
निर्भर रहते हैं यह भूलना न होगा, जबकि अधिकारी लोग शहरों की फिक्र करने
चलते हैं। हाँ, इस बात का पूरा ख्याल रखकरे और यह सोचकरे कि साधारण किसान
अगली फसल देखे या उसकी पूरी आशा किये बिना गल्ला नहीं बेचते, यदि कोई भी
प्रबन्ध गल्ले की वसूली का किया जाय तो हम उसका विरोध कभी नहीं करेंगे।
प्रत्युत उसका अनुमोदन करेंगे। मगर नीचे के छोटे-मोटे अफसरों और जी हुजूरों
के ज़रिये या उनकी बातों के अनुसार काम करने में सारा काम चौपट होता है यह
बात ऊँचे अधिकारियों को याद रखनी होगी।
इसी महँगी के सिलसिले में कपड़े का सवाल आता है। खुशी है कि अब सरकार ने इस
मामले को अपने हाथ में लेने का निश्चय किया है जब कि मामला बेहद बेढंगा हो
चुका है। खैर, देर से ही सही। मगर देखें सचमुच कुछ होता है या केवल
डपोरशंखी बात होती है। अभी-अभी भारत के प्रमुख कपड़े के व्यापारियों ने जो
वक्तव्य दिया है उससे तो साफ है कि यदि 1941 में भारत सरकार एक अरब गज कपड़ा
यहाँ से विदेशों को जाने न देती और जो सालों की अपेक्षा दस गुना था,
व्यापारियों की बताई स्कीम पर काम करती और सस्ता कपड़ा तैयार करवाने की उनकी
बात पहले ही मान लेती तो यह हालत हर्गिज न होती। यूनाइटेड किंगडम कॉरपोरेशन
नाम की विदेशी कम्पनी के जरिये जैसे विदेशों को काफी गेहूँ भेजा गया जब कि
यहीं पर उसकी सख्त जरूरत थी और नतीजा हमें भुगतना पड़ रहा है। कपड़े के बारे
में भी कुछ ऐसी ही बात की गयी और आज हम अर्ध्द-नग्न हो रहे हैं! फिर भी
सरकार को अपनी पालिसी पर नाज़ है और मानती है कि वह गलती नहीं करती है।
सरकार की जो नीति जरूरी चीजों के नियन्त्रण के बारे में प्राय: बेकार साबित
हुई है। उसके लिए और-और कारणों के अलावे सबसे बड़ा कारण है वह घूसखोरी और
मुँहदेखी नीति जो ज्यादातर छोटे-मोटे अफसरों में पायी जाती है, और
नियन्त्रण की नीति को व्यावहारिक रूप देना उन्हीं का काम ठहरा। मगर जब तक
स्थानीय लोगों की समितियों की सहायता और मदद से यह काम नहीं होता, स्थिति
में सुधार की आशा हो नहीं सकती, यह तो धा्रुव सत्य है। मगर यह समितियाँ
मजिस्ट्रेट लोग खुद न बना के सार्वजनिक सभाओं के द्वारा चुनाव से बनवायें,
यही शर्त है।
अन्न की महँगी और दूसरी जरूरी चीजों की दुर्लभता के ही प्रसंग से ही यह याद
रखना होगा कि किसान लोग अपने हलवाहे आदि को जो मजदूरी नगद देते हैं उसके
बदले खामखा अन्न ही दें। क्योंकि पहले उसी नगद से जितना अन्न मिल सकता था
आज उसका चौथाई भी नहीं मिलता है और पैसा तो खाया-पिया जाएगा नहीं, किन्तु
अन्न ही। इस बात पर पूरा जोर देना किसान सभाओं का आज पहला काम है। हाँ, यदि
लोग खामखा नगद ही देना चाहें और वह पहले की अपेक्षा तीन- चार गुना देने को
राजी हों तो बात दूसरी है। मगर उससे कम पर तो काम चल सकता नहीं।
खेती के मजदूरों खेत मजदूरों के ही सिलसिले में एक बात सोचने की यह है कि
यदि हम अभी से इस ओर विशेष रूप से ध्यान न देंगे और इस प्रश्न को केवल
हलवाहे-चरवाहों के ही सम्बन्ध का प्रश्न मानते रहेंगे जैसा कि अब तक करते
रहे हैं तो नतीजा बुरा होगा। क्योंकि जिस धड़ल्ले से किसानों की अपनी जमीनें
उनके हाथों से निकल के केवल लगान के रूप में गल्ला या नगद वसूलने वालों के
हाथों में चली जा रही हैं उस हिसाब से सौ साल बीतते न बीतते सभी किसान लोग
मजदूर ही बन जायेंगे या ज्यादे से ज्यादा शिकमीदार, यदि फार्मों वाली खेती
इसी बीच चालू न हो गयी। क्योंकि बड़े-बड़े फार्म बनने पर तो यही हालत और भी
जल्द हो जायेगी।
मनुष्य गणना की रिपोर्ट से पता चलता है कि केवल लगान वसूल करके ही मौज
उड़ाने वाले जमींदार जहाँ समूचे देश में 1911 में 28 लाख थे तहाँ वहीं 1921
में 37 लाख और 1931 में 41 लाख हो गये! यानी बीस ही साल में प्राय: डयोढ़े!
साथ ही 1921 में अपनी जमीन में खेती करनेवाले किसान परिवार जहाँ 7 करोड़ 46
लाख थे तहाँ 1931 में सिर्फ 6 करोड़ 55 लाख ही रह गये! यानी दस साल में पूरे
91 लाख परिवार बिना जमीन के हो गये-मजदूर बन गये, शिकमीदार हो गये या
भिखमंगे बने! इस तरह साल में नौ लाख से ज्यादा परिवारों की जमीनें छिन जाती
या बिक जाती हैं! यह बीमारी गजब की है। इसीलिए खेत मजदूरों का सवाल किसानों
के भविष्य का सबसे बड़ा सवाल है। इस पर हमें ठंडे दिल दिमाग से सोचना-
विचारना होगा। यदि हम उनके साथ आज समानता का व्यवहार और अच्छा सलूक करते
हैं, उनमें आत्मसम्मान लाते और उनका जीवन सुधारते हैं तो यह अपने ही भविष्य
के लिए करते हैं क्योंकि आज नहीं तो कल सभी किसानों को उन्हीं के पथ का
पथिक होना है।
अखबारों में अभी-अभी पढ़ा है कि यू. पी. की सरकार लड़ाई के चलते किसानों को
मालदार समझने लगी है और उन पर कोई खास ढंग का टैक्स लगाने जा रही है जो
लड़ाई के बाद भी उन्हें लौटाया न जाकरे उनकी भलाई के कामों में खर्च होगा।
हमें इसका जोरदार प्रतिवाद करना होगा। धीरे-धीरे यह मर्ज सर्वत्र फैलेगा।
हमने अब तक काफी देख लिया है कि सरकार किसानों की भलाई किस तरह करती है।
इसलिए हमें उस भलाई की जरूरत नहीं है! क्या सरकार को मालूम नहीं कि यदि एक
ओर गल्ले वगैरह की कीमत ज्यादा मिलती है तो दूसरी ओर कपड़े आदि सभी चीजों की
कीमत कई गुनी हो गयी है? फलत: सब खर्च देने के बाद शायद ही किसी को कुछ बच
पाता है। एक किसान ने आपनी भाषा में बताया कि अगर पहले एक मन धान बेचकरे एक
जोड़ी धोती खरीदते थे, तो आज भी वही, बल्कि उससे बुरी, हालत है। क्योंकि एक
मन में एक जोड़ी अब शायद ही मिलती है।
इधर तम्बाकू पर सरकार ने जो चुंगी या करे 5 मन के करीब बैठा दिया है। उसके
करते किसनों को भारी दिक्कतें आयेंगी और उन्हें यह खेती बन्द करे देने को
मजबूर होना पड़ेगा। माना कि छोटे-मोटे किसानों को कुछ कम दिक्कतें होंगी।
मगर होंगी जरूर और दस एकड़ या उससे ज्यादा खेती करने वालों या सौ मन या
ज्यादा तम्बाकू सुखाने-बनाने वालों पर तो आफ़त ही समझिये तम्बाकू पर तो
तम्बाकू पर, उसके सूखे डण्ठल पर भी उतनी ही चुंगी लगाई गयी है! हमें डर है
कि इसके चलते किसान तो यह खेती छोड़ ही देंगे। मगर तम्बाकू का व्यापार भी
कुछ खास लोगों या कम्पनियों के ही हाथ में चला जायेगा, खास करे विदेशी
कम्पनियों के ही हाथ में। बिहार में तम्बाकू की खेती बहुत जिलों के लिए
किराने की खेती Money crop है। इसलिए हमें इस टैक्स का जोरदार विरोध करना
होगा।
आजकल जमींदारी जुल्म का राक्षस अपना सिर फिर उठाने लगा है। फिर वही धान्धली
और वही जुल्म का राज्य जमींदार और उनके लाडले लाना चाहते हैं। बकाश्त
जमीनें छीनने, बँटाई की जगह फिर दानाबन्दी चालू करने और किसान के ऐसा न
करने पर उसे तरह-तरह से दिक करने की बात शुरू हो गयी है। मिट्टी गिलन्दाजी
और आबपाशी की लापरवाही फिर पहले ही जैसी हो रही है। रसीद न देने की शरारत
फिर शुरू होने लगी है। यहाँ तक कि मार-पीट, खून-खराबी और आतंकवाद पर भी वे
लोग उतारू होने लगे हैं। गया जिले के नवादा इलाके में यह बात कई जगह हो गयी
है। मामला बेढंगा है और हमें इस पर ठण्डे दिल से गौर करके कोई कारगर उपाय
निकालना होगा, जिससे यह चीज बढ़ने न पाये।
सरकार चिल्लाती है कि अधिक अन्न उपजाओ। प्रचार में काफी पैसे भी खर्च होते
हैं। मगर जमींदारों को मजबूर क्यों नहीं करती कि या तो अपनी लाखों बीघे
परती जमीनें वे खुद आबाद करें या नहीं तो किसानों को दे दें? किसानों को
देने पर उनका रैयती हक होने का यदि डर है तो खुद जोते-बोयें। एक रेवड़ा गाँव
में ही जमींदार की पचासों बीघा अच्छी से अच्छी जमीन कई साल से यों ही पड़ी
है! यदि सरकार ईमानदारी से चाहती है कि ज्यादा अन्न उपजे तो क्या वह
जमींदारों के इसके लिए मजबूर नहीं करे सकती? यदि नहीं, तो तोजो और हिटलर को
कैसे मजबूर करेगी? या कि जमींदार उसके लाडले हैं? याकि 'अधिक अन्न' की बात
केवल हाथी के दाँत हैं?
ऊपर जिन बातों पर जोर दिया गया है वह आर्थिक हैं और उनके ताल्लुक किसानों
की रोजाना जिन्दगी से हैं। इसलिए हमें उन पर विशेष ध्यान देना है। मगर इसका
यह अर्थ हर्गिज नहीं है कि राजनीति से हम मुँह मोड़ लें। किसान सभा ने यह
काम कभी नहीं किया है। हमारा तो यही काम है कि राजनीति को अर्थनीति या
आर्थिक साँचे में ढाल दें, उस पर आर्थिक रंग चढ़ा दें और उसे अर्थनीति के ही
आईने में देखें। हमारे लिए राजनीति साधन और अर्थनीति साध्य या लक्ष्य है-हम
आर्थिक राजनीति को ही मानते हैं, यह याद रहे।
इसमें हमारा खास मतलब है। यदि आयरलैण्ड के एक अल्स्टर की जगह हम यहाँ
मुसलमानों, हरिजनों, सिक्खों और देशी रजवाड़ों के करते अनेक अलस्टर बनाना और
इस तरह आजादी के प्रश्न को और भी दूर ले जाना नहीं चाहते तो हमें यहाँ
व्यापक राष्ट्रीय एकता लानी ही होगी, जिसका आधार होगी हिन्दू-मुसलमान आदि
जन समूह की दिली एकता। और यह एकता पूर्वोक्त आर्थिक सवालों के आधार पर ही
आसानी से हो सकती है। ये बातें सबों को समान रूप से चुभती जो हैं और बिना
सबों की एकता के इन्हें सुलझा भी नहीं सकते। इस प्रकार इन आर्थिक प्रश्नों
को लेकरे जो व्यापक एकता होगी उसे ही राष्ट्रीय एकता का रूप देने में सिर्फ
एक ही कदम आगे जाने की जरूरत होगी। यही एकता गाँधी, जिन्ना, सावरकरे,
अम्बेदकर आदि को भी मजबूर करे देगी कि वे आपस में मिलके कोई रास्ता
निकालें। क्योंकि तब तो उन्हें डर होगा कि यह जाग्रत जन समूह उनकी लीडरी को
ही खत्म करे देगा यदि उनने मेल-मिलाप न किया। इसी तरह हम राजनीति पर
पहुँचते हैं और वह ठोस चीज होती है। यह भारी उलझन और तरह शायद ही सुलझे।
कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को मान करे
मुसलिम राष्ट्रों की पाकिस्तानवाली उलझन को सुलझाया जा सकता है। बात तो बड़ी
अच्छी है और अगर इससे काम चल जाय तो हम इसका तहेदिल से समर्थन करेंगे
क्योंकि हम अखण्ड हिन्दुस्तान का सुखद स्वप्न न देख ठोस सत्य के पुजारी हैं
अगर स्तालिन ने आत्मनिर्णय के अधिकार के आधार पर ही उसे बड़े से बड़े देश की,
जो भू-भाग का छठा है, असली अखण्डता स्थापित की है तो भारत में भी वैसा ही
क्यों न किया जाए? मगर सवाल इतना आसान नहीं है। राष्ट्र की भौतिक परिभाषा
करनी होगी फलत: पठानों का राष्ट्र होगा या पंजाबी मुसलमानों का या सभी
पंजाबी भाषा-भाषियों का यह देखना होगा। इसी प्रकार बंगालियों का राष्ट्र
होगा या बंगाली मुसलिमों का यह भी सोचना पड़ेगा। भारतीय राष्ट्र के पेट में
कई राष्ट्रों के होने की बातें जैसे कलेजे में चुभती सी भी हैं। कल्चर या
संस्कृति का भी गहरा विश्लेषण करना होगा। यह भी देखना होगा कि मुसलमानों को
यह हक देने पर कहीं हरिजनों आदि के लिए रास्ता तो नहीं खुल जायेगा और इस
प्रकार दूसरे झमेले खड़े हो जायेंगे, क्योंकि हमें तो 'बुढ़िया के मरने का डर
उतना नहीं है जितना यम का रास्ता खुलने का।' आखिर हरिजनों, आदिवासियों आदि
का भी तो झमेला हमें साफ करना ही होगा एक ही साथ। नहीं तो याद रहे, हमारे
आका ये सवाल एके बाद दीगरे खड़ा करते ही रहेंगे और इस तरह हमें साँस न लेने
देंगे इसलिए यह प्रश्न पेचीदा है। रूस से मिलान करने में हमें कई और बातें
भी देखनी होंगी।
एक बात और हमने मिस्टर जिन्ना के बारे में अब तक जो भूलें की हैं कहीं वही
भूलें हिन्दू सभा तथा श्री सावरकरे आदि के बारे में भी फिरकरे न बैठें, यह
भी याद रखना होगा। पहले तो लीग की परवाह न की, पीछे मजबूर हो के उसे माना,
बाद में उसे भूल-से गये और फिर विवश हो के माना। यही बात होती रही लगातार
नतीजा सामने हैं। आज अपनी जल्दबाजी या नासमझी के करते हम कहीं हिन्दू सभा
और सावरकरे के साथ भी वही बर्ताव न करे बैठें फिर तो पहेली और भी पेचीदा हो
जायेगी। हमें स्वीकार करना होगा कि लीग और महासभा वगैरह राजनीति में
अपरिहार्य बुराइयाँ necessary evils हैं और इनका प्रतीकार हमें समझ-बूझकरे
एक ही साथ करना होगा। हमें तो भय है कि आज हिन्दू सभा की परवाह न करके हम
कल उसे अपने रास्ते का खतरनाक काँटा बना लेंगे। यही बात हरिजन सभा आदि की
भी हो सकती है।
एक बात और मिस्टर जिन्ना को समझना आसान नहीं है। वह एक पहेला नहीं तो पहेली
जरूर हैं और इधर दिल्ली के बाद से आजतक जो रुख उनका रहा है वही इस बात का
सबूत है, यदि इसकी जरूरत हो इसीलिए जल्दबाजी में न तो हम उन्हें अपने सर
चढ़ायें और न उनकी ओर से लापरवाह हों या उनकी अपनी जगह से उन्हें हटाने की
कोशिश करें,तभी काम बन सकता है नहीं तो सब घोलमाठा हो जायेगा, यही भय है।
इसलिए यह कहने के लिए माफी चाहिए कि घोर देहात में जहाँ कोई लीग को जानता
तक नहीं, उसकी पुकार मचा के हम शायद उन्हें सर चढ़ा रहे हैं। कम से कम हमें
ठण्डे दिल से सोचना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं करे रहे हैं। नहीं तो धोखा
हो सकता है, जिसके लिए पीछे पछताना पड़ सकता है। इसलिए 'सम्भल-सम्भल पग
धारिये' किसान सभा का यही रास्ता मेरे जानते है भी।
इसी राजनीति के सिलसिले में गत अगस्त से लेकरे आज तक जो कुछ हुआ है किसान
सभा ने उसका सदा विरोध किया है। शुरू-शुरू में जो नेताओं की धार-पकड़ हुई
उसकी हमने घोर भर्त्सना और निन्दा की और उसके बाद होने वाली लूटपाट वगैरह
को भी हमने बुरा ठहराया और देश हित के लिए घातक कहा। उस आतंकवाद के उत्तर
में जो अधिकारियों का आतंकवाद चला उसे हमने क्या-क्या भला बुरा नहीं कहा और
कोसा? हम न तो अहिंसा के पुजारी हैं और न आतंकवाद के साथी। आतंकवाद तो देश
को एकमात्र रसातल ले जाने वाली चीज है। इसलिए उसे हम फूटी ऑंखों देख भी
नहीं सकते। हम यह भी मानते हैं कि वर्तमान परिस्थिति में शान्तिपूर्ण तरीके
के सिवाय दूसरा रास्ता हुई नहीं। मगर जिस क्रान्ति के हम भूखे हैं वह तभी
होगी जब देश की संगठित सेना का एक जबर्दस्त भाग हमारे साथ हो और हम उसका
नेतृत्व करे सकें। अर्जेन्टाइन के हाल के विप्लव ने इसे साफ करे दिया है।
लेकिन यह बात इस समय असम्भव है और निरे सपने की चीज है। इसलिए इस समय
क्रांति की बात करना उसके साथ मखौल करना है। अगस्त से लेकरे अब तक यही मखौल
होती रही है। नतीजा ऑंखों के सामने है। बीस-बाईस साल का किया कराया चौपट-सा
है और ऐसा लगता है कि मुल्क अंटाचित्ता पड़ा है।
मगर इसकी जिम्मेदारी जो लोग सीधे गाँधी जी या कांग्रेस के माथे मढ़ना चाहते
हैं उनकी बात किसान सभा ने कभी नहीं मानी है। कांग्रेस के नेताओं से भूल
हुई है यह हम मानते हैं इसीलिए इसका फल भी उन्हें और देश को भुगतना पड़ रहा
है मगर इसके यह मानी हर्गिज नहीं हैं कि 9 अगस्त के बाद वाले आतंकवाद के
लिए वही जवाबदेह हैं। इसका कोई प्रमाण तो है नहीं और अगर है तो कांग्रेस
नेताओं को अदालत में ला के केस चलाने के लिए सरकार तैयार क्यों नहीं होती
जब कि बार-बार ललकारें पड़ रही हैं, सो भी कल तक उसी के साथी और भक्त माने
जाने वालों की ही ओर से और जिन भारत रक्षा के नियमों के बल पर ही यह दमन
चक्र चालू हुआ था जब सरकार के ही न्यायालय उन्हीं को एके बाद दीगरे
गैर-कानूनी बता रहे हैं तब तो सरकार का आरोप और भी लचर साबित होता है।
इसीलिए किसान सभा ने शुरू से ही पुकार मचाई है कि 'कांग्रेस नेता छोड़े
जायें, कांग्रेस कानूनी करार दी जाय' आदि-आदि। कांग्रेस के नेतृत्व से
हमारी हमेशा लड़ाई रही है और रहेगी और इसे हमने कभी छिपाया नहीं है मगर यह
रही है सिध्दांत की लड़ाई। इसलिए इसका यह मतलब कभी न था और न है कि इस लड़ाई
से लाभ उठा के हमारे आजादी के शत्रु उन नेताओं का दमन करें और कांग्रेस का
भी और हम चुपचाप पड़े रहें। उनका यह दमन हम बर्दाश्त करे नहीं सकते। इसीलिए
हमारा उपरोक्त नारा है।
बिहार में और अन्यत्र भी मन्त्रिमण्डलों के पुनर्निर्माण का प्रश्न जोरों
से उठा है और आवाज आने लगी है कि शायद किसान सभा इसका समर्थन करेगी। मगर
ऐसा कहने-सोचने वाले भूल जाते हैं कि हमने तो कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों के
भी बनने का विरोध दिल्ली में या उससे पूर्व किया था। फिर दूसरे
मन्त्रिमण्डलों का क्या कहना? फैजपुरवाली घोषणा के आधार पर हमने जो चुनाव
में कांग्रेस का साथ दिया उसके लिए किसानों के ताने हमें बार-बार सुनने पड़े
और उनका गुस्सा भी हम पर हुआ जब वे निराश हुए तो फिर दूसरे मन्त्रियों के
निर्माण में हम साथ कैसे दे सकते हैं? बिजली का जला कुत्ता मसाल देख के
डरता है। हमारा तो यह भी विश्वास है कि नये मन्त्रिगण गवर्नर और नौकरेशाही
के कठपुतले होंगे फिर उनका समर्थन हम करेंगे? हाँ, यदि अनहोनी हो जाय जिसकी
आशा कतई नहीं है और नये मन्त्रिगण सच्चे जन-सेवक हो जायें, तो किसी के हजार
न चाहने पर भी बलात उन्हें सबों का सहयोग मिली जायेगा। मगर जब तक वे ऐसा
करे नहीं लेते उससे पहले ही किसके सिर शामत सवार है कि उनका समर्थन करे या
उन्हें गद्दीनशीन होने में मदद करे?
एक निहायत जरूरी बात छूटी है। आज खेती के पशुओं की हत्या धडाधड हो रही है।
बैल मिल नहीं रहे हैं और जो मिलते हैं भी उनकी कीमत भयंकर है। यह बड़ी
खतरनाक बात है। एक ओर 'अधिक अन्न उपजाओ' का नारा और दूसरी ओर उपजाने के
साधन-पशुओं का घोर संहार! जब जानते ही हैं कि नन्हे-नन्हे खेतों में टैक्टर
से खेती हो नहीं सकती, तब ऐसा क्यों हो रहा है? सरकार यह बात फौरन रोके,
इसके लिए हमें भरपूर जोर लगान होगा-व्यापक प्रतिवाद और आन्दोलन करना होगा।
हमें खुशी है कि साम्राज्यवादियों से भी हजार गुने खतरनाक और किसान-मजदूरों
का हक फूटी ऑंखों भी न देख सकने वाले फासिस्ट लुटेरे अब दब रहे हैं और उनका
खात्मा होगा ही हमारा तो अटल विश्वास है कि जो ताकतें उन्हें खत्म करेंगी
वही देर-सबेर से साम्राज्यवाद को भी भस्म करके ही छोड़ेंगी, चाहे शुरू में
वह भले ही मजबूत दीखे।
मुझे जो कहना था कह दिया, अन्त में यही कहना है कि जब तक हम किसान सभा के
संगठन को मजबूत नहीं बना डालते, किसानों की कुछ भी ठोस सेवा असंभव है।
किसान सभा का जन्म संघर्ष के बीच ही हुआ है और इसने कठिन से कठिन झकोरे
बर्दाश्त किये हैं। इसकी जड़ भी जम चुकी है। शत्रुओं के दिलों में भी इसने
असर पैदा करे लिया है मगर इसका संगठन निहायत ही ढीला है। इसलिए जरूरत इस
बात की है कि हम कम-से-कम एक लाख प्रारम्भिक-मेम्बर इस साल बना डालें और इस
तरह दृढ़ संगठन की बुनियाद तैयार करे लें। इस बीच हमें हर थाना और जिला
किसान सभाओं को सक्रिय बनाना होगा और जहाँ ये न हों वहाँ बना लेना होगा।
बिना ऑफिस के न तो मेम्बरी का काम हो सकता है और न दूसरा ही हमारी सबसे बड़ी
कमी यही है कि ऑफिसों को ठीक-ठीक चलाना जानते ही नहीं। दूसरी ओर हमारे
शत्रुओं को तो देखिये वह चाहे और कुछ करें या न करें मगर उनका ऑफिस ठीक-ठीक
चालू रहता है और इसी से वे अपना काम बना लेते हैं। इसलिए हमें भी वही करके
किसान सभा को जीवित संस्था के रूप में रखना होगा।
इनकिलाब जिन्दाबाद। किसान सभा जिन्दाबाद।
(शीर्ष
पर वापस)