प्रवेशिका
बिहार प्रान्तीय किसान सभा का घोषणा-पत्र और किसानों की माँगें आगे के
पृष्ठों में मिलेंगी। उन्हें पढ़ने और समझने से पहले यह जान लेना जरूरी है
कि किसान सभा गृहस्थों की सभा है। किसान असल में गृहस्थ को ही कहते हैं और
गृहस्थ शब्द का जो प्रचलित अर्थ है उसके भीतर बड़े-बड़े जमींदार, मालदार,
राजे-महाराजे आदि नहीं आते। व्यवहार में गृहस्थ उसे ही कहते हैं जो
खेती-गिरस्ती से गुजर-बसर करता है, चाहे वह छोटा-मोटा जमींदार हो, रैयत हो
या खेतों में हल चलाने आदि का काम मजूरी करता हो। इसलिए किसान सभा सभी
गृहस्थों की रक्षा और
आराम चाहती है और चाहती है कि छोटे-छोटे जमींदारों-रैयतों और हलवाहे-चरवाहे
आदि मजदूरों का पूरा संगठन हो, उनमें आपस में एकता हो तथा वे न तो
आपस में लड़ें, न एक-दूसरे को कष्ट दें और न स्वार्थियों के बहकाव में पड़करे
किसान सभा से अलग हों या उसे अपना शत्रु मानें। यदि इन तीनों में आपस में
कहीं नासमझी से तनातनी, विरोध या मनमुटाव हो तो किसान सभा उन्हें समझा-बुझा
करे ठीक रखना चाहती है( क्योंकि 'घर फूटे, गँवार लूटे'। किसान सभा नहीं
चाहती कि खेती के मजदूरों का अलग संगठन करके बाकी गृहस्थों से लड़ाई की जाय
या बाकी गृहस्थ छोटे जमींदार और रैयत खेती के मजदूरों को सतावें। इन तीनों
को आपस में समझबुझ करे एक-दूसरे की भलाई और सुख-दु:ख का ख्याल स्वयं करना
होगा।
किसान सभा यह भी नहीं चाहती कि गृहस्थों में ही जिसके पास कुछ ज्यादा जमीन
हो उससे छीन करे दूसरे को दी जाय जिसके पास या तो कुछ भी जमीन न हो या थोड़ी
हो। किसान सभा समझती है कि गृहस्थों के पास तो ज्यादा होने पर वे गृहस्थ
कैसे? हाँ, जो राजे-महाराजे, बड़े बाबूआन हैं उनके पास ज्यादा जमीन है। मगर
यह तो सरकार का काम है कि उनसे छीनकरे या जैसे हो दूसरों को जमीन दे और
जिन्हें जमीन न दे सके उन्हें सुन्दर रोजगार-व्यापार आदि दे। किसान सभा
किसी को कैसे जमीन दे सकती है?
इसलिए जमींदारी प्रथा मिटाने की बात सुनकरे जो गृहस्थ चौंकते और किसान सभा
को अपना शत्रु मानना चाहते हैं उन्हें समझना चाहिए कि किसान सभा के विचार
में तो गृहस्थों को जमींदार कहना नहीं चाहिए। जमींदार तो कुछ इने-गिने
राजे-महाराजे और बाबुआन ही हैं। पंजाब में तो किसान को ही जमींदार कहते हैं
क्योंकि वहाँ सबके सब छोटे-छोटे ही जमींदार हैं जो गृहस्थ हैं तो फिर
उन्हें जमींदारी मिटने का भय क्यों होगा? यदि राजे-महाराजे, बाबुआन भय करते
हैं तो करें।
बिहार प्रान्तीय किसान सभा का घोषणा-पत्र
किसानों की भयंकर गरीबी और तबाही का सवाल ही हमारे देश की एकमात्र विकट
राजनीतिक तथा आर्थिक समस्या है। देश की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पर इस
समस्या का इतना व्यापक प्रभाव है कि कोई भी संस्था अपने प्रोग्राम में इसकी
उपेक्षा नहीं करे सकती। भारत की कुल आबादी में सैकड़े 80 से भी ज्यादा किसान
हैं। इनकी गरीबी ने आज इन्हें दिवालिया बना दिया है ऐसी हालत में चाहे
कांग्रेस हो या कोई दूसरी सार्वजनिक संस्था, उसे अपने प्रोग्राम में
किसानों की समस्या को सबसे आगे रखना ही होगा।
बिहार प्रान्तीय किसान सभा मानती है कि राष्ट्रीय कांग्रेस ही ऐसी राजनीतिक
संस्था है जो भारतीय जनता की ओर से बोल सकती है। साथ ही, यह सभा यह भी
मानती है कि अगर कांग्रेस किसानों की समस्या को अपने प्रोग्राम का आधार न
बनावे तो उसके सार्वजनिक संस्था होने का कोई मतलब नहीं रह जाता अगर
कांग्रेस दूसरे वर्गवालों के स्वार्थों की भी रक्षा करना चाहती है तो भले
ही करे।
लेकिन वह भूखों मरने वाले किसानों के हितों का बलिदान करके ऐसा हर्गिज नहीं
कर सकती।
बिहार के किसान अन्य प्रान्तों के किसानों से अधिक नहीं तो, कम तबाह नहीं
हैं। बिहार अन्य प्रान्तों की अपेक्षा शायद अधिक कृषि प्रधान है। अत: यह
कहना गलत नहीं कि बिहार के किसानों की भलाई में ही सारे प्रांत की भलाई है।
इस तरह जिससे किसानों की भलाई होती हो उस प्रोग्राम के बारे में यह ख्याल
भी नहीं किया जा सकता कि वह प्रान्त के लिए अहित कर रहे है।
दु:ख की बात है कि इस प्रान्त के राजनीतिक और आर्थिक जीवन में किसानों की
दुर व्यवस्था की प्रधानता होने पर भी यहाँ के किसान बहुत अधिक पिछड़े हुए
हैं। इसके दो नतीजे हुये। एक तो वे उन सभी छोटी-मोटी कानूनी सुविधाओं से
वंचित रह गये जो प्राय: सभी प्रान्तों के किसानों को इधर मिली हैं। दूसरे,
इस प्रान्त का राजनीतिक आन्दोलन किसानों की मौलिक तथा तात्कालिक समस्याओं
से प्राय: अलग-सा रहा है।
इन दोनों त्रुटियों की पूर्ति शीघ्र हो जाना चाहिए। एक ओर तो मौजूदा आर्थिक
और राजनीतिक व्यवस्था के अन्दर जितनी भी सुविधायें किसानों के लिए सम्भव
होवें उन्हें अवश्य मिल जाय दूसरी ओर उन्हें अपने रास्ते की बुनियादी
रुकावटों को दूर करने और अपने पूरे हकों को हासिल करने के लिए तैयार हो
जाना पड़ेगा। किसानों को विश्वास है कि इन दोनों प्रयत्नों में, जो एक-दूसरे
पर निर्भर हैं और एक-दूसरे को जोरदार बनाते हैं, उन्हें कांग्रेस की पूरी
मदद मिलेगी। उनका यह भी विश्वास है कि यही एक तरीका है जिससे कांग्रेस
किसानों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध कायम करे सकती है तथा वह सम्मान और बल हासिल
करे सकती है जो किसी भी संस्था को किसानों की ही बहुत बड़ी संख्या से मिल
सकती है।
सौभाग्य की बात है कि बिहार के किसान अपनी समस्याओं को समझ गये हैं और अपने
को संगठित करने लग गये हैं। उनके उध्दार का एकमात्र साधन है किसान सभा
उन्हें चाहिए कि वे इसमें शामिल होकरे इसकी खूब मज़बूत बनावें। संघशक्ति के
बिना वे उन शक्तियों को नहीं हरा सकते जो उन्हें सताती और लूटती हैं। किसान
सभा का अर्थ है किसानों की एकता किसान वह है जिसकी प्रधान जीविका खेती है।
इस तरह किसान सभा सिर्फ रैयतों की ही नहीं, बल्कि उन रैयतों, छोटे
जमींदारों और मजदूरों की सभा है जो खेती से जीते हैं। इन तीनों के लिए यह
लाजिम है कि संगठित होकरे उन शक्तियों से लड़ें जो दिनोंदिन उन्हें बेरहमी
से मुसीबत के गढ़े में ढकेल रही हैं। संगठन के द्वारा अपने पैरों पर खड़ा करे
के किसान सभा किसानों को इस योग्य बनाती है कि वे जमींदारों, उनके अमलों
तथा छोटे-छोटे सरकारी अफसरों के सभी जुल्मों और अत्याचारों को कतई रोक देने
के साथ ही राजनीतिक स्वतन्त्रता के पथ पर दृढ़ता के साथ अग्रसर हों। इस
प्रकार यह सभा पूर्ण स्वतन्त्रता के आन्दोलन में वह मजबूती लाती है जो किसी
भी दूसरी तरह नहीं आ सकती।
आखिर इस प्रान्त के किसानों की गरीबी का कारण क्या है? उनकी दशा दिनोंदिन
इतनी भयंकर क्यों होती चली जा रही है, जिसे देख करे कलेजा काँप उठता है?
इसको कैसे सुधारा जा सकता है?
सिर्फ राजनीतिक आन्दोलनकारी के नाम से बदनाम लोग ही नहीं, किन्तु अर्थ
शास्त्र के सर्वमान्य विद्वान भी मानते हैं कि भारत के किसानों की दर्दनाक
तबाही मौसिमी, स्थानीय और छोटे-मोटे कारणों के चलते नहीं है। बल्कि इसका
मूल कारण है जमीन की बन्दोबस्ती तथा लगान और माल की वसूली की वर्तमान
प्रणाली, कर्ज के लेन-देन का मौजूदा तरीका और साम्राज्यशाही की क्रूर शोषण
नीति। लखनऊ कांग्रेस ने भी ऐसा ही कहा है। इसलिए किसानों की मुसीबतों का तब
तक अन्त नहीं हो सकता जब तक जमीन बन्दोबस्त और लगान वसूली की दकियानूसी
प्रणाली को आमूल बदल न दिया जाय, जब तक कर्ज के जिस बोझ के नीचे किसान पिसे
जा रहे हैं उसे हटा न दिया जाय और जब तक साम्राज्यशाही सरकार की जगह पर ऐसी
सरकार कायम न हो जो जनता की हो, जनता के लिए हो, जो हर किसान परिवार को
इतनी जमीन दे जिसकी उपज से वह अच्छी तरह से अपना भरण-पोषण करे सकने के साथ
ही अपनी रहन-सहन में उत्तारोतर तरक्की करे सके और जो बाकी लोगों को अच्छी
रोजी दे सके।
किसानों की मौलिक माँगें
इस ख्याल के मुताबिक बिहार के किसानों को गरीबी और गुलामी के गढ़े से बाहर
निकालने के लिए यह जरूरी है कि-1. जमींदारी प्रथा का अन्त करे दिया जाय 2.
किसानों को कर्ज से मुक्त करे दिया जाय 3. जमीन के बन्दोबस्त की ऐसी प्रथा
कायम की जाय जिसके अनुसार किसान ही जमीन के मालिक हों और अपने परिवार की
अच्छी तरह परवरिश के लिए जितनी आमदनी जरूरी हो उतनी या उससे कम आमदनी वालों
को कोई लगान, माल या टैक्स देना न पड़े 4. जिनके पास जमीन न हो उनके लिए
अच्छी रोजी का प्रबन्ध किया जाय
यही बिहार के किसानों की मौलिक माँगें हैं। किसानों के साथ न्याय तभी हो
सकता है, उनके शोषण का और उन पर होने वाले अत्याचारों का अन्त तभी हो सकता
है, जब उनकी ये माँगें पूरी हो जायें। इसलिए किसानों के हर शुभचिन्तक का और
कांग्रेस का तो खासकरे, यह फर्ज है कि इस मामले में किसानों की सहायता करें
हो सकता है कि वर्तमान शासन प्रणाली के रहते किसानों की ये माँगें पूरी न
हो सकें। फिर भी किसानों को अपनी हस्ती कायम रखने के लिए-अपने आप को विनाश
से बचाने के लिए-इन हकों के लिए लड़ना होगा, उन्हें हासिल करना होगा अगर
वर्तमान शासन प्रणाली इसमें बाधक हो, जैसा कि वह निसन्देह है भी, तो उसे
हटना ही होगा। इस तरह किसानों के हकों की लड़ाई स्वराज्य की लड़ाई का रूप ले
लेती है। यही कारण कि बि. प्रा. किसान सभा ने पूर्ण-स्वराज्य की लड़ाई में
क्रियात्मक भाग लेने के अपने दृढ़निश्चय की घोषणा की है। इस प्रकार किसान
आन्दोलन और स्वराज्य आन्दोलन का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हो जाता है और एक की
शक्ति से दूसरे का बल बढ़ता है अगर इन दोनों आन्दोलनों में से किसी एक ने
दूसरे को कमजोर बनाने की कोशिश की तो वह खुद भी कमजोर हो जायेगा।
इन मौलिक परिवर्तनों के लिए लड़ने के साथ ही किसानों को चाहिए कि वे वर्तमान
आर्थिक-ढाँचे के अन्दर मिल सकने वाली सभी सुविधाओं के लिए अवश्य लड़ते रहें
सिर्फ इसी तरह वे अपने को उस बड़ी लड़ाई के लिए तैयार करे सकते हैं जिसका
लक्ष्य उन्हें बराबर अपनी ऑंखों के सामने अवश्य रखना होगा।
ऊपर की चार मौलिक माँगों के अलावे प्रान्तीय किसान सभा ने निम्नलिखित
तात्कालिक माँगें तैयार की हैं। यह सभा चाहती है कि किसान तथा
किसान-कार्यकर्ता इन माँगों का खूब प्रचार करें और किसानों में जागृति लाने
के लिए इन्हें एक जबर्दस्त साधन बनावें। साथ ही, किसान सभा और किसानों का
विश्वास है कि कांग्रेस भी कौंसिलों के बाहर और भीतर-दोनों जगह-इन माँगों
का समर्थन करेगी और अपने किसान सम्बन्धी प्रोग्राम में इन्हें शामिल करेगी।
यह सभा यह भी उम्मीद करती है कि प्रान्तीय असेम्बली के अगले चुनाव में
कांग्रेस अपनी ओर से ऐसे ही उम्मीदवार खड़ा करेगी जो किसानों का साथ देते
रहे हैं, जिन्होंने हृदय से किसानों का पक्ष लिया है और जो उनकी माँगों का
पूर्ण रूप से समर्थन करे।
किसानों की तात्कालिक माँगें
1. जमीन पर किसानों का स्थायी अधिकार हो, वह बिना किसी रोक-टोक या सलामी के
बेची, बदली या हस्तान्तरित की जा सके, किसान उसको और उसकी पैदावार को चाहे
जिस तरह काम में ला सके(
2. कानून के जरिये हर गाँव में काफी गोचर भूमि का प्रबन्ध हो और खेती तथा
घरेलू कामों के लिए जंगल से लकड़ी, घास, बाँस, जलावन वगैरह मुफ्त और बिना
रोक-टोक के लेने का किसानों को हक हो(
3. हर तरह की भावली की प्रथा का अन्त हो(
4. ऐसी सभी जमीनों के लिए किसानों को कोई लगान, माल या टैक्स न लगे जिसमें
मेहनत और खर्च के मुआफिक उनकी गुजर के लायक पैदावार न होती हो(
5. किसी तरह की अदालती डिग्री या बकाया लगान में न तो किसान गिरफ्तार या
कैद किया जा सके और न उसके परिवार की जीविका के लिए जितनी जमीन जरूरी है
वह, उसका मकान या सहन, दूध देने वाले और दूसरे पशु, घरेलू सामान और
पशुशालायें कुर्क या नीलाम हो सकें(
6. जमींदारों को सर्टिफिकेट जब्ती-कुर्की के जरिये लगान वसूल करने का
अधिकार न हो(
7. रसीद देने आबपाशी गिलन्दाजी आदि का प्रबन्ध करने, तथा नाजायज वसूलियों
और बेगार आदि के सम्बन्ध के कानून ऐसे सख्त बना दिये जायें जिस में जमींदार
उनकी अवहेलना न करे सकें(
8. बाकी लगान और इजाफे बिलकुल मंसूख करे दिये जायें( लगान और नहर रेट
साधारणत: आधा करे दिया जाय( भविष्य में कभी लगान या नहर रेट में इजाफा न
हो(
9. जिस कर्ज को किसान बिना दिक्कत के अदा न करे सके वह कानून के जरिये
बिलकुल मंसूख करे दिया जाय, सूद की दर सैकड़े माहवारी से ज्यादा न रहे,
दरसूद गैर-कानूनी समझा जाय किसी भी हालत में मूलधान के दूने से अधिक की
वसूली गैर-कानूनी करार दी जाये, आसान किस्तों में बिना और अधिक सूद के कर्ज
चुकाने की इज़ाज़त देने का अदालतों को अधिकार हो, गाँवों में सूद पर रुपये
लगाने वालों को सरकारी लाइसेंस लेना जरूरी हो( किसानों को सस्ते दर पर कर्ज
देने का सरकार की ओर से इन्तजाम हो(
10. खेती के मजदूरों को परवरिश लायक मजदूरी मिले(
11. ऊख की कम से कम कीमत इस तरह मुकर्रर की जाय जिसमें वह 1 आने मन से शुरू
हो और बढ़ते-बढ़ते 11 आने मन तक जाय(
12. चौकीदारी टैक्स उठा दिया जाय(
13. नमक, किरासन तेल और दियासलाई इत्यादि जैसी चीजों पर से टैक्स चुंगी उठा
दिया जाय जिसका बोझ अप्रत्यक्ष रूप से गरीबों पर ही पड़ता है(
14. रेल के तीसरे दर्जे थर्ड क्लास का किराया सस्ता करे दिया जाय और उसमें
काफी आराम का प्रबन्ध रहे( पोस्ट कार्ड एक पैसे में तथा लिफाफा दो पैसे में
मिले(
15. लड़के और लड़कियों के लिए मुफ्त और अनिवार्य प्राइमरी शिक्षा का प्रबन्ध
हो, मध्य और उच्च शिक्षा सस्ती और सुलभ हो, दवा-बीरो, सफाई और पीने लायक
पानी का उचित प्रबन्ध किया जाय(
16. हर बालिग़ आदमी को वोट देने का अधिकार मिले(
17. अंग्रेजी तथा देशी भारत में किसानों, मजदूरों एवं राष्ट्रीयता के
विरोधी जितने कानून, आर्डिनेंस या रेगूलेशन हैं सब रद्द करे दिये जायें,
सभी किसान, मजदूर और राजनीतिक कैदी छोड़ दिये जायें चाहे वे सजायाफ्ता हों
या बिना मामला चलाये ही नजरबन्द हों(
18. आर्थिक या राजनैतिक आन्दोलनों में शामिल होने या सस्ती के चलते
मालगुजारी नहीं दे सकने के कारण जिन किसानों की जमीनें छिन गयी हों। वे
उन्हें फिर से वापस मिल जायें(
19. खेती में सुधार और तरक्की लाने के लिए सरकार की ओर से नीचे लिखे तथा
दूसरे जरूरी इन्तजाम हों :-
क. सिंचाई के लिए नहर, आहर, पैन आदि का तथा बाढ़ से रक्षा तथा चौंर आदि के
पानी के निकास का पूरा और व्यापक प्रबन्ध हो(
ख. सस्ती खाद, उत्ताम बीज और अच्छी नस्ल के पशुओं का इन्तजाम हो, फल पैदा
करने, रेशम के कीड़े, दुधाारू पशु और चिड़ियों के पालने इत्यादि के रोजगारों
की उन्नति का प्रबन्ध हो(
ग. सरकारी कृषि विभाग को नये सिरे से ऐसा बनाया जाये जिससे किसानों की सेवा
हो(
घ. गल्ले के बाजार दर पर ऐसा नियन्त्रण हो जिसमें नफा कमाने वाले व्यापारी
किसानों को लूटने न पावें(
ङ.जंगल, परती तथा दूसरी बेकार जमीनों को खेती के लिए आबाद कराया जाय।
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