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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

6. नौंवाँ बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन ( 4-5 अप्रेल,1942, शेरघाटी, गया)

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सम्पादकीय टिप्पणी

सुभाषचन्द्र बोस का ख्याल था कि पूरे देश में 1940 में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व यदि कोई करे सकता है तो स्वामी सहजानन्द। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने 20 अप्रैल, 1940 को अपनी पत्रिका, 'फॉरवर्ड ब्‍लॉक,' कलकत्ता में अग्रलेख लिखा। इस समय स्वामी जी 6 अप्रैल, 1940 पटना सिटी मंगल तालाब के भाषण, 7 अप्रैल, 1940 बाँकीपुर, पटना के भाषण, 10 अप्रैल, 1940 बिहार शरीफ के भाषण के अपराध में भारत के सुरक्षा अधिानियम के तहत राजबन्दी बना लिए गये थे एवं यह लेख स्वामी जी की गिरफ्तारी पर लिखा गया। सुभाष ने लिखा, ''हमें स्वामी जी के जीवन से संघर्ष का, सेवा का, बलिदान का सबक सीखना चाहिए, समाजवाद की उनकी गम्भीर अन्तश्चेतना से सबक सीखना चाहिए। स्वामी जी मूलत: भिड़न्त एवं कर्म के शलाका पुरुष हैं...वे भारत के किसान आन्दोलन के निसन्देह सर्वोपरि नेता है, वे वामपन्थ के सबसे अग्रणी नेता, मित्र, सिध्दान्तकार एवं पथप्रर्दशक हैं स्वामी जी की गिरफ्तारी अभिनव भारत के लिए एक चुनौती है।

स्वामी जी चाहते थे सुभाष देश में ही रहकरे वामपन्थी ताकतों को नेतृत्व दें एवं क्रान्तिकारी शक्तियों को एकजुट करे अंग्रेज एवं अंग्रेज समर्थक गाँधी से देश को मुक्त करायें। पर समाजवादी मित्रों एवं साम्यवादी पार्टी के कर्णधारों के गाँधी समर्थक रवैए के कारण सुभाष को देश छोड़ना पड़ा और जापान के सहयोग से भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने का उपक्रम करना पड़ा। इसमें स्वामी जी को खतरा नजर आया। जापान भी साम्राज्यवादी मुल्क है। यह चीन पर उसके अत्याचार से साफ हो गया। दूसरे रूस पर जर्मनी की चढ़ाई से युध्द का चरित्र बदल गया एवं रूस की रक्षा का प्रथम कार्यभार विश्व-भर के समाजवादी-जनवादी तत्वों का बन गया। नागपुर अधिावेशन में पलासा में सोशलिस्ट लोग प्रस्ताव के पक्ष में थे और इस तरह युध्द उद्योग में बाधा वाली बात छोड़ दी गयी पर नवम प्रान्तीय किसान सम्मेलन, 1941 में डुमराव में समाजवादी लोग किसान सभा छोड दिये। इसी साल के बिहटा अधिावेशन में फार्वर्ड ब्लाक भी किसान सभा से अलग हो गया।

सुभाष द्वारा जापान के समर्थन की बात स्वामी जी को नागवार लगी। इस भाषण में उसी की गूँज है। स्वामी जी को जयप्रकाश और सुभाष का वर्ग संघर्ष से हटना अच्छा नहीं लगा।

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हमारे साथी-ये और वे

किसान बन्धुओं,

आज दो साल के बाद आपके सामने खड़े होने में जो खुशी हो रही है उसे आपको कैसे बताऊँ, आपके सामने कैसे जाहिर करूँ? मुझे क्या पता था कि एकाएक आपकी इस कान्फ्रेंस का अध्यक्ष, इसका सदर मुझी को होना होगा? मैं तो सोचता था कि जेल की पथरीली चहारदीवारी के भीतर बैठे-बिठाये ही इसकी खबरें अखबारों में पढ़ने को मिलेंगी क्योंकि मेरी तीन साल की मीयाद तो अभी तीन-चार महीनों के बाद ही पूरी हो पाती मगर अचानक रिहाई ने यह हालत पैदा करे दी! रिहाई के बाद भी मैं इस काम से भागता था और चाहता था कि आपके वही सेवक यह बोझ बर्दाश्त करें जो मेरी और बहुत से मेरे साथियों की गैर-हाजिरी में आपकी खिदमत अपनी ताकत-भर करते रहे हैं और जिनने बिहार प्रान्तीय किसान सभा का शानदार झण्डा झुकने नहीं दिया है। पिछले दो साल न सिर्फ मुल्क, और दुनिया के इतिहास में, उसकी तवारीख में, बल्कि किसान सभा के इतिहास में भी, बहुत ही अहम और महत्त्वपूर्ण रहे हैं। हमारी उस प्यारी सभा को इस दरमियान भीतरी और बाहरी-दोनों ही-जोरदार हमलों का सामना करना पड़ा है जबकि मेरे साथ ही यदुनन्दन शर्मा, कार्यानन्द शर्मा और राहुल सांकृत्यायन जैसे आपके तपे-तपाये सेवक आपसे और हमारी सभा से बेरहमी के साथ अलग करे दिये गये थे, ठीक उसी समय हमारे कुछ गिने-चुने पुराने साथियों ने एक ही साथ सभा पर और इसीलिए आप पर भी धाावा बोल दिया। पहले जमाने में यह अनहोनी बात मालूम पड़ती थी कि तपे-तपाये किसान-सेवकों के साथी किसान सभा और किसानों पर धाावा बोल दें। यह बात कुछ उलटी भी मालूम पड़ती है मगर यह जमाना ही ऐसा है कि अनहोनी होकरे रहती है आखिर साथी भी तो सभी तरह के होते हैं न? कौन जानता था कि ये साथी कोरे बगुला भगत हैं जो समय पर धोखा देंगे? मगर वे थे इसी मौके की ताक में कि जब हमारे ऊपर बताये साथी आपसे अलग हो जायें तो वे अपनी असली सूरत जाहिर करे दें उनने यही किया भी मगर खुशी यही है कि कामयाब न हो सके। आपने और आपके बचे-खुचे सच्चे सेवकों ने उनको फौरन पहचान लिया, जिससे उनके चकमे में आ न सके। मुझे इस बात का सचमुच गर्व है कि जिस किसान सभा के बनाने में हमने, हमारे सच्चे साथियों ने और आपने अपने खून को पानी बनाया वह ऐसी नाजुक घड़ी में भीतरी और बाहरी सभी तरह के दुश्मनों के हमलों को मुस्तैदी से बर्दाश्त करके इस मुद्दत में धड़ल्ले के साथ आग बढ़ती ही गयी यह सोचकरे आपके और उन साथियों के भी सामने हमारा सर झुक जाता है जिनने इस दुहरे हमले और तूफाने-बदतमीजी का-बेहूदी हरकतों का-सामना शान के साथ बहादुराने ढंग से किया है। मैं तो इसी यकीन के साथ जेल गया था कि मेरी गैरहाजिरी में भी हमारी किसान सभा आगे बढ़ती ही जायेगी। अखबारों के लिए मैंने यही बयान दिया भी था। मुझे बेहद खुशी है कि मेरा यह यकीन सच्चा साबित हुआ और दुश्मनों और गद्दारों के मंसूबों पर पानी फिर गया।

इसीलिए बाहर आने के बाद भी मेरी दिली ख्वाहिश थी और मंसूबे बाँधता था कि शेरघाटी में उन्हीं बहादुरों में किसी के सर पर सदारत का सेहरा बंधो, गले में अध्यक्षता की माला पहनाई जाय और मैं दिल से इसकी खुशी मनाऊँ। मेरे लिए कितने की बात होती और दुश्मनों को इससे कितने तमाचे पर तमाचे लगते! मगर अफसोस कि मेरा यह दिली अरमान पूरा न हो सका और साथियों ने मेरा मजा किरकिरा करे दिया। एक-एक करके सबों ने, मेरी रिहाई के बाद ही, इससे साफ इनकार करने के साथ ही मुझी पर जोर दिया कि इस बार मैं ही सभापति बनूँ। इसके लिए उन्हें शाबाशी दूँ या क्या करूँ, मेरी समझ में नहीं आता। उनके इस निराले असहयोग ने, 'नान-कोआपरेशन' ने एक अजीब हालत पैदा करे दी। उनकी इस अनोखी गुटबन्दी ने मुझे मजबूर करे दिया और लाचार मैं आपके सामने खड़ा हूँ। यहाँ नहीं कि उनने इस अध्यक्षता और सदारत से साफ इनकार करे दिया बल्कि फौजी हुकुम और मार्शल आर्डर भेजा कि मुझी को यह काम करना ही पड़ेगा। इसीलिए इनकार भी नहीं करे सकता था क्योंकि तब तो 'कोर्ट मार्शल' होता, जिसके लिए मैं तैयार न था। मुझे यह साफ कबूल करने में जरा भी हिचक नहीं कि आपके इस फौजी हुक्म, साथियों के निराले नान-कोऑपरेशन, विचित्र असहयोग और सबों की दिली मुहब्बत के सामने सर झुकाने के अलावा मेरे लिए दूसरा चारा था ही नहीं। ऐसे साथी दुनिया में शायद ही किसी खुशकिस्मत को मिलते हैं जो मेरे जैसों को इस तरह अपना गुलाम बना लें। ऐसी हालत में अगर सभापति बनाने के लिए मैं आपको धन्यवाद नहीं देता और आपका शुक्रिया अदा नहीं करता तो इसके लिए मैं कसूरवार कतई नहीं हो सकता। क्योंकि आप इसके हकदार हुई नहीं। हाँ, एक बात के लिए बेशक मैं सबों को और खासकरे अपने साथियों को तहेदिल से, हृदय से धन्यवाद देता हूँ कि उनने सर्व-सम्मति और मुत्ताफिक आवाज से मुझे जबर्दस्ती इस जगह पर खड़ा करके हमारे नये और पुराने दुश्मनों के उस हौसले पर पाला डाल दिया जो अभी-अभी उनके दिलों में ताजा-ताजा ही होने लगा था यह ख्याल करके कि किसान सभा में फूट और दलबन्दी होने जा रही है। उफ, आज उन बेचारों के दिलों पर कैसी गुजरती होगी?

(शीर्षक पर वापस)

हम क्या करने जा रहे हैं?

गुजस्ता दो-तीन साल के भीतर दुनिया कहाँ से कहाँ चली गयी! कितने मुल्कों के नक्शे बदल गये! कितनों की आजादी छिनी! कितने मिट्टी में जा मिले! और कितने के सर पर गुलामी और पामाली की बला की नंगी तलवार कच्चे धागे में बँधी लटक रही है, उस पर तेज हवा के झकोरे पर झकोरे लग रहे हैं और अब गिरी तब गिरी की हालत हो रही है। ये तो ठोस बातें हैं, ऑंखों देखी और कानों सुनी चीजें हैं। मगर इस दरमियान हमने क्या कुछ कम सबक सीखा है? इतना सीखा है जितना पहले के जमाने में शायद हजारों साल में भी नहीं सीख पाते! फिनांस कैपिटल और उसकी नंगी सूरत फासिज्म, नात्सीज्म और मिलिटरिज्म, या यों कहिये कि कोरी और सोलहों आना जंगी हुकूमत क्या बला है इस बात की करारी जानकारी हमें इसी मुद्दत में हो सकी है। सबसे ताज्जुब की चीज तो है इसका जादू जो हमारे सर पर सवार है। इस फासिज्म का जबाल और सत्यानाश हमारे सामने खड़ा है और हमें निगल के हमारी हस्ती मिटाने पर तुला बैठा है। फिर भी हमारी ऑंखें नहीं खुलती हैं। इसी को कहते हैं कि जादू वही जो सर पर चढ़के बोले। माफ करना मेरी साफ बातों के लिए। हममें बहुतेरे आज ज़ोरों से चिल्ला-चिल्ला के आसमान फाड़ते हुए कहते पाये जाते हैं कि 'साम्राज्यवाद, शाहंशाहियत या इम्पीरियलिज्म और फासिज्म बराबर हैं, अगर दूसरा बुरा है तो पहला भी कम खराब नहीं है।' अगर इसके ये मानी हों कि हम दोनों से ही सजग रहें, क्योंकि दोनों ही हमारे लिए खतरनाक हैं और हमें धोखे में डालने की उनमें लासानी ताकत है, तब तो ठीक ही था। इस बात में तो दो रायें हो सकती हैं नहीं। हमें तो दोनों को ही मिटाना है सवाल सिर्फ है आगे पीछे का मेरा तो ख्याल है कि फासिज्म के मिटाने के लिए जो जंग हम करेंगे वही साम्राज्यवाद को भी मिटाने वाला होगा। मगर बेहद तकलीफ तो हमें तब होती है जब इसके कहने की मंशा यह होती है कि हमारा सारा गुस्सा जो आज से पहले दोनों के ही खिलाफ था अब सिर्फ इम्पीरियलिज्म के खिलाफ हो जाये और फासिज्म को हम इस वक्त एक तरह से भूल जायें! अगर साफ लफजों में कहना हो तो इसके मानी यह है कि हम चर्चिल की हुकूमत की जगह हिटलर, मुसोलिनी या तोजो की हुकूमत पसन्द करें। ज्यादे से ज्यादा इसके यही मानी हैं कि हम सिर्फ यही सोचें कि ऐमरी और चर्चिल की सरकार चाहे जैसे हो यहाँ से नेस्तनाबूद हो जाये, और उसके बाद क्या होगा इसकी जरा भी परवाह न करें। यह बात सोचने की इस समय जरूरत समझें ही न। मगर है यह निहायत की खतरनाक बात। यह तो ठीक जलते चूल्हे से निकल के जलती काँच की भट्ठी में जाने की बात है।

यहाँ गलतफहमी न हो इसलिए साफ करे देना चाहता हूँ। चर्चिल की सरकार यहाँ से चली जाय इसमें भला किस बदबख्त को मुखालिफत हो सकती है? हम बीसियों साल से इसीलिए तो बलिदान और कुर्बानियाँ लगातार करते आये हैं। फिर आज यह बात एकदम भूली या छोड़ी जा सकती है कैसे? मगर इसके बाद क्या हो, यही तो असली सवाल है? आज तक कांग्रेस लीडरों से हम इसीलिए तो लड़ते हैं कि 'इसके बाद क्या हो?' का जवाब वे गोलमटोल देते रहे हैं, जिसका मतलब हमने ठीक ही यही लगाया है कि वे हिन्दुस्तान के जमींदारों और सरमायेदारों-पूँजीपतियों-की ही सरकार यहाँ कायम करना चाहते हैं। हम इस बात को न तो बर्दाश्त करे सके हैं और न करते हैं। हमें यह ख्याल ही बागी बनाये डालता है। यही वजह है कि हमने खुलेआम बराबर इस बात की मुखालिफत की है, जिसके चलते हममें जाने कितने ही कांग्रेस के बागी करार दिये गये हैं। फिर भी हमने परवाह नहीं की है। इसीलिए कहता हूँ कि हमारे सामने दरअसल अहम सवाल यही है कि इसके बाद क्या हो? और अगर अब तक चर्चिल की सरकार की जगह हमने हिन्दुस्तानी मालदारों की हुकूमत का ख्याल तक बर्दाश्त नहीं किया है, तो आज क्या हो गया है कि हिटलर और तोजो की नादिरशाही का स्वागत और इस्तक़बाल करने को, फिर चाहे छिपे-लुके और चोरी-चोरी ही क्यों न हो, तैयार हो जायें? क्या वजह है कि हमसे इसकी उम्मीद भी की जाये? क्या हमने आज तक ईमानदारी से काम नहीं किया था, जिससे हमसे ऐसा सोचने की उम्मीद की नादानी की जाती है और अगर हमसे कोई यह कह दे कि आज चर्चिल के बाद यहाँ हिटलर या तोजो न आयेंगे तो हम यही कहेंगे कि या तो वही पागल है या हमीं जो ऐसा सोचते हैं वह दूर की कौड़ी लाते हैं। जिस चर्चिल को हम बावजूद अपनी पचासों साल की सरतोड़ कोशिश और कशमकश के हरा न सके, यहाँ से हटा न सके, उसी को हटाके, हरा के यहाँ ताजा ताजा ही आने वाले हिटलर या तोजो को हम पचास या सौ साल में भी हरा सकेंगे, यह कोरी अफीमची की पिनक है! कोरिया और फारमोसा वालों से ही क्यों नहीं पूछ के हम अपनी अक्ल दुरुस्त करे लेते कि चीन के मंचू राजाओं को हटा के वहाँ जा धमकने वाले तोजो और उसके मूरिसों से पल्ला छुड़ाने का ख्याल करना

भी कितनी बड़ी नादानी है? मैं तो यही समझता हूँ कि कांग्रेस के जरिये ब्रिटिश सरकार को हटाके जिन जमींदारों और मालदारों की सरकार यहाँ हो सकती थी। उससे लाख गुनी खतरनाक और खूँखार जमींदार-मालदारों की सरकार ही यहाँ बनेगी, अगर चर्चिल को तोजो न हटा पाया फिर हमारा दिल-दिमाग उसे सोचे भी कैसे? जब तक सिर्फ मिटाने की बात हम सोचते हैं तब तक तो नहीं, मगर ज्यों ही कुछ बनाने की बात सोचते हैं त्यों ही यह पहेला हमारे सामने खड़ा हो जाता। हाँ, पहेली नहीं, पहेला और मैं चाहता हूँ कि हम इस पर अच्छी तरह गौर करें मैं साफ कहे देता हूँ कि यह सिर्फ ब्रिटिश सरकार के मिटाने का सवाल न होके कहीं बड़ा और अहम मसला है, उसकी जगह कुछ बनाने का सवाल है और इसी 'कुछ' में खतरा है, जोखिम है, क्योंकि हम इस नये सिर से बनने या बनाये जाने वाले 'कुछ' से पूरे बेखबर हैं।

कहते हैं कि एक सीधा-सादा माता की मुहब्बत वाला देहाती ननिहाल जाने लगा तो उसकी माँ ने उसे कुछ पैसे देके कहा कि रास्ते में भूख लगने पर कुछ खरीद के खा लेना और उसे रवाना करे दिया। चलते-चलते दोपहर के वक्त उसे तेज भूख लगी। इतने में एक बड़ा बाजार आ गया। खुशी-खुशी वह एक हलवाई के पास गया और पूछने लगा कि तुम्हारे पास कुछ है जिसे मैं खा सकूं। दुकानदार ने उत्तर दिया कि पूड़ी, मिठाई वगैरह सभी चीजें हैं, जो चाहो ले लो। इस पर निराश होके दूसरे के पास गया, यही सवाल किया और जबाब भी उसे यही मिला। लाचार वह तीसरे, चौथे वगैरह सभी के पास एक के बाद दीगरे गया और सभी जगह एक ही सवाल-जवाब होता रहा। वह बेचारा भूख से परेशान था और उसे सूझता ही न था कि क्या करे। इतने में एक काइयाँ दुकानदार को शैतानियत सूझी। वही आखिरी था, जिसके पास वह देहाती गया। उसे उम्मीद तो कतई थी ही नहीं कि खाने को कुछ मिलेगा। मगर उसके अचम्भे का ठिकाना न रहा जब उस काइयाँ ने चटपट कह दिया कि हाँ, जरूर कुछ है फिर क्या था, उस देहाती का चेहरा खिल उठा और उसने पास के पैसे आगे बढ़ाये। दुकानदार ने पैसे लेके जमींकन्द के कई टुकड़े उसे दिये और कहा कि यही 'कुछ' है, ले जाओ और खाओ अब उस बेचारे ने ले जाके कहीं अलग उसे खाने की कोशिश की तो कच्चा जमींकन्द उसके गले को काटने लगा और भारी जलन पैदा करे दी। नतीजा यह हुआ कि उसे फेंक के रवाना हो गया और जैसे-तैसे नातेदारी जाके घर लौटा। लौटने पर माँ से कहने लगा कि माँ, तुम्हारी मुहब्बत के करते तुम्हारी बातें मान के मैंने सिर्फ 'कुछ' ही खरीदा। मगर वह तो बड़ा ही खराब था। पूछताछ करने पर माँ को असलियत मालूम हो गया और उसने अफसोस किया और कहा कि मैं तुम्हें ऐसा नादान नहीं जानती थी( नहीं तो 'कुछ' न कहके पूड़ी, मिठाई वगैरह खास चीजें बता देती। मुझे डर है कि यहाँ हम भी देहाती के 'कुछ' की तरह गला काटने वाली चीज बनाने जा रहे हैं। फर्क यही है कि यहाँ 'हमारी माँ' तो अफसोस करने वाली है नहीं, हमें जिससे मुहब्बत है। इसीलिए हमें खुद ही पछताना पड़ेगा, ऐसा अन्देशा मुझे है।

(शीर्षक पर वापस)

किसान सभा क्या चाहती है?

इधर अखबारों में बड़ा बाबेला मचा है, कुहराम मचा है और कुछ पढ़े-लिखे नादान दोस्तों और दाना-होशियार-दुश्मनों को अच्छा मौका हाथ आ गया है कि हमें और हमारी सभा को बदनाम करें बात यों हुई है कि आल-इण्डिया किसान सभा की कार्यकारिणी ने, जिसे सेण्ट्रल किसान कौंसिल कहते हैं, नागपुर में 13 फरवरी को इस मौजूदा लड़ाई और जंगे आजादी के मुतल्लिक एक लम्बा रेजोल्यूशन, बड़ा-सा प्रस्ताव, पास किया। उन दिनों मैं हजारीबाग जेल की चहारदीवारी के भीतर बन्द था। हमारी और आपकी सबसे बड़ी बदकिस्मती तो यह है कि वह पूरा रेजोल्यूशन किसी भी अखबार में निकला तक नहीं और उसके जो चन्द चुने-चुनाये टुकड़े छपे उनसे सारी बातों की जानकारी हो सकी नहीं, हो सकती न थी। इसी से फायदा उठाके हमारे दुश्मनों ने हमारी सभा के खिलाफ जहर उगलना और हमें बदनाम करना शुरू करे दिया। उनकी इस चाल में किसान सभा के कुछ सच्चे सेवक और सिपाही भी आ गये। हालत यहाँ तक पहुँची कि हम और हमारी किसान सभा को ब्रिटिश सरकार का गुलाम और एजेण्ट तक करार देने की हिम्मत की गयी और की जा रही है। लोगों ने तो यहाँ तक कह डालने की जुर्रत की कि मैं खुद सरकार से माफी माँग के और उसकी मदद करने का वादा करके जेल से बाहर आया। इन भले मानसों को इतनी मोटी बात भी नहीं सूझी कि अगर दो साल लगातार रह के मैंने सरकार के सामने सर नहीं झुकाया तो सिर्फ तीन-चार महीनों के ही लिए ऐसा क्यों करता? उनने यह भी मुनासिब न समझा कि हजारीबाग जेल के ऑफिस या सरकार के दफ्तर में पूछकरे देखें तो सही सिर्फ एक अखबार ने पूछा और उसे यह बात गलत मालूम हुई तो उसने छाप भी दी। मगर यार लोग फिर भी वही पुराना ताल-सुर अलापते ही रहे और हैं। मेरी रिहाई के हुक्म में साफ ही लिखा है, 'फौरन बिना किसी शर्त की रिहाई' ‘Immediate and unconditional release’। आज भी जेल ऑफिस में पूछा जा सकता है। मगर जब असलियत जानने की नीयत हो तब न? इस बेहूदे और झूठे लोगों की शैतानियत पर मुझे हँसी भी आती है और गुस्सा भी होता है। उन्हें खातिरजमा रखना चाहिए कि मुझमें अभी इतनी हिम्मत बाकी है कि अगर ऐसी कोई भी बेहूदा, बदतमीजी वाली और मुल्क के साथ गद्दारी की बात मैं करता तो साफ कबूल करे लेता। उन्हें जान रखना चाहिए कि राजनीति, सियासत और पॉलिटिक्स न तो मेरे पेशा है और न इससे मेरी या मेरे लोगों की रोजी ही चलती है।

हाँ, तो अब जरा नागपुर के उस रेजोल्यूशन को देखें। उसकी चार बातें ज्यादा अहम और महत्त्वपूर्ण हैं। पहली यह कि उसने साफ कह दिया कि फासिज्म, जापान की फौजी हुकूमत को दुनिया से मिटाने के लिए किसानों को बेखटके रूस, चीन और उनके पक्ष की प्रगतिशील शक्तियों-उनकी तरक्की पसन्द दोस्त ताकतों-की कतार में खड़ा हो जाना चाहिए-''The Council, therefore, has no hesitation in exhorting the kisans of India to align themselves on the side of Russia, China and the allied progressive forces in waging a relentless war for the final extermination of Fascism."

इसमें रूस और चीन की मददगार सरकारों या मुल्कों का भी जिक्र न होके सिर्फ तरक्की पसन्द ताकतों-‘Progressive Forces’ का ही जिक्र है, और यह तो मानना ही होगा कि इंग्लैण्ड और अमेरिका में भी प्रगतिशील शक्तियाँ या तरक्की पसन्द ताकतें हुईं जिन्हें किसान, मजदूर वगैरह कहते हैं। गोकि कांग्रेस के बड़े-से- बड़े लीडरों तक ने इंग्लैण्ड और अमेरिका या उनकी सरकार तक को प्रगतिशील और तरक्की पसन्द कह दिया है। बमुकाबले फासिस्ट ताकतों के, फिर भी हमारा रेजोल्यूशन तो यह भी नहीं कहता है। वह तो उन मुल्कों और उनकी सरकारों का नाम भी इस सिलसिले में नहीं लेता। फिर हमारे सर यह इलजाम थोपा जाता है कि हम तो अंग्रेजी सरकार की मदद करने की सलाह किसानों को देते हैं। जो लफ्ज हमारी जबान पर न हों और जो ख्याल हमारे दिमाग में सपने में भी न हो उन्हें हम पर लादना ईमानदारी और भलेमानसी की हद है।

यही तो है हमारे रेजोल्यूशन का वसूली पहलू या सिध्दान्त का पक्ष जो इस लड़ाई के बारे में है तो क्या हमारे दुश्मन यह चाहते हैं कि हम किसानों को रूस, चीन, और उनकी मददगार दुनिया की तरक्की चाहने वाली ताकतों की कतार में खड़ा होकरे फासिज्म और नात्सीज्म के खिलाफ जेहाद बोलने की राय न दें? यदि हाँ, तो हम यह बात न मानने को लाचार हैं, और यहाँ हमारा और उनका मेल ठीक उसी तरह गैरमुमकिन है, जैसे जमीन के उत्तरी-दक्षिणी, पोलों या किनारों का।

अब रहा इस लड़ाई के मुतल्लिक हमारा अमली पहलू, हमारी व्यावहारिक, 'प्रैक्टिकल' बात क्योंकि वसूल और सिध्दान्त की सभी बातों पर हर वक्त अमल होना गैर-मुमकिन होता है। असल में जुदी-जुदी हालतों में जुदे-जुदे काम हो सकते हैं। इसीलिए मौजूदा हालत में हम अमली तौर पर या व्यावहारिक रूप में क्या करे सकते हैं इसके बारे में रेजोल्यूशन के आखिर में दस बातें लिखी गयी हैं, जिनमें पहली बात है कि इस लड़ाई के मुतलिल्क जो किसान सभा का ऊपर लिखा वसूल है उसका प्रचार और प्रोपैगैण्डा किसानों में किया जाय, "Propagation of the new view of war ontlined in this resolution." हम यह कह देना चाहते हैं कि लड़ाई के बारे में ऊपर लिखे वसूल की मजबूती के लिए बहुत सी बातें रेजोल्यूशन में हैं। इसलिए हमें उन सबों का प्रचार करना होगा। इसके अलावे दूसरी बात यह कही गयी है कि रूस और चीन को जो भी मदद हमसे मुमकिन हो, पहुँचायें और सोवियत रूस की दोस्ताना जमातें और मित्र मण्डलियाँ जगह-जगह कायम होने और करने में मदद करें-"Render all Possible aid to Russia and China and help to organise the Friends of the Soviet Union." इससे साफ हो जाता है कि अमली काम में रूस, चीन के अलावे उन बाकी तरक्कीपसन्द ताकतों को भी छोड़ दिया गया है जिनका जिक्र वसूली बातों के सिलसिले में पहले आया है और सिर्फ रूस और चीन की सभी तरह की हो सकने वाली मदद की बात कही गयी है फिर भी कुछ भलेमानस इसमें अंग्रेजी सरकार की मदद देने की बात जाने कहाँ से लाके हमें और किसान सभा को बदनाम करना चाहते हैं। खूबी तो यह है कि इसी में 'मित्र मण्डलियाँ' बनाने की बात सिर्फ रूस के ही लिए कही गयी है और इस बारे में चीन को भी छोड़ दिया गया है। क्योंकि किसान-मजदूर राज्य पूरी तौर से रूस में ही तो है, चीन में तो वह अधूरा ही है न।

इस पर यह दलील दी जाती है कि आखिर रूस और चीन को मदद देने से भी तो अंग्रेजी सरकार को मदद होई जाती है न? अगर इसका जवाब 'हां' दिया जाय तो लोग नाक-भौं सिकोड़ बैठते हैं और ठोस हालत पर गौर करना चाहते ही नहीं। यह हर्गिज नहीं सोचते कि अगर अंग्रेजी सरकार पर होने वाले गुस्से के चलते हम या दुनिया के लोग रूस और चीन की भी मदद न करें तो नतीजा क्या होगा? तब तो अंग्रेजी सरकार के साथ ही न सिर्फ रूस और चीन हारेंगे, बल्कि हिटलर और जापान की जालिमाना हुकूमत, जो अंग्रेजी हुकूमत से हजार गुना खतरनाक है, हमारी छाती पर आ धमकेगी। अंग्रेजी सरकार के ऊपर होने वाली हमारी सख्त नाराजी के चलते उसे खत्म करने के लिए रूस और चीन की भी मदद न करना ठीक वैसा ही है जैसा दुश्मन के बदसगुन के लिए अपनी नाक काट लेना या उसकी एक ऑंख फोड़ने के लिए अपनी दोनों फोड़ लेना। इस गुस्से में हम यह बात जाने क्यों भूल जाते हैं जिसे बराबर दुहराते रहे हैं और आज भी दूसरे मौकों पर बक डालते हैं कि फासिज्म और इम्पीरियलिज्म दोनों ही सगे भाई हैं और बुरे हैं। इसका तो सीधा मतलब यही है कि उन दोनों की दोस्ती तो कभी हो भी सकती है, वे दोनों कभी किसी शर्त पर मिल भी सकते हैं( मगर हमारी दोस्ती अगर इम्पीरियलिज्म के साथ नहीं हो सकती तो फासिज्म के साथ तो वह हजार गुना गैर-मुमकिन है। वह तो हमें कम से कम सैकड़ों साल के लिए खत्म करके ही छोड़ेगा, क्योंकि फिलहाल हम तो उसे खत्म करे सकते नहीं और दोनों एक साथ चल सकते नहीं। आज की हालत में अंग्रेजी सरकार की दुश्मनी के चलते हिटलर और तोजो को आजादी दे देना-कि वे अंग्रेजी सरकार को सर करें-ठीक वैसा ही है जैसा कि अपने साथ एक ही कुएँ से पानी पीने वाले अपने दुश्मन को मार डालने के ख्याल से उस दुश्मन के दुश्मन को उसी कुएँ में जहर डालने का मौका देना और इस तरह अपनी भी मौत बुलाना या यों कहिये कि जब अपने दुश्मन को जीते जी मार न सकें तो गुस्से में अपने आपको सिर्फ इसलिए जहर खाके मार डालने की बन्दिश करना कि पीछे भूत होके उसे सतायेंगे और खत्म करेंगे या कम से कम पुलिस हमें जहर देने का झूठा मुकदमा तो उस पर चलायेगी ही मगर मैं इसे महज नादानी मानता हूँ।

बदकिस्मती या खुशकिस्मती से हालत ऐसी हो गयी है कि जब रूस और चीन जीतेंगे तो हिटलर और जापान हारेंगे ही और अंग्रेजों की भी जीत होगी ही इसे हम किसी तरह रोक सकते नहीं। ऐसा रास्ता हुई नहीं कि रूस और चीन जीतें, अंग्रेजी सल्तनत हार के यहाँ से मिट जाये और जापान या हिटलर की हुकूमत यहाँ कायम न होके हमारी सल्तनत कायम हो जाय। हमें और किसान सभा को ऐसा रास्ता सूझता ही नहीं। लेकिन अगर कोई दिमागदार ऐसा रास्ता सुझाये तो हम खुशी-खुशी उसी पर चलेंगे। मगर जब तक वह रास्ता मिलता नहीं, तब तक तो हम इसी रास्ते पर खामखा चलेंगे। हमारे लिए दूसरा चारा है नहीं।

इस पर जो लोग कहते हैं कि 'तो फिर साफ ही क्यों नहीं कहते कि अंग्रेजी सरकार की मदद करेंगे? घुमा-फिराके नाक क्यों पकड़ते हैं?' उनसे हमारा पूछना है कि साफ कहने के क्या मानी हैं? यह सवाल आता ही क्यों है? अंग्रेजी सरकार तो खुद रूस और चीन की मदद करे रही है और इसी का पल्ला पकड़ के पार पाने की उम्मीद करती है। अमेरिका से लौटते ही चर्चिल ने रूस और चीन दोनों की ही बहादुरी की भरपूर तारीफ की और इन्हीं दोनों पर अपनी उम्मीद बताई। ऐसी हालत में क्या हमारा यह फर्ज नहीं होता कि हम भी रूस और चीन की जितनी हो सके मदद करें? हम तो पहले से ही चिल्लाते आ रहे हैं कि रूस की मदद करो, चीन की मदद करो, अवीसीनिया की मदद करो, स्पेन की मदद करो और फासिस्टों से इन्हें बचाओ। हमने ऐसा न करने के लिए अंग्रेजी सरकार को जाने लाखों गालियाँ दी हैं तो क्या अब हमारे लिए यही मुनासिब है कि-चाहे मजबूरी में ही क्यों न हो, और मजबूरी से ही तो सभी ऐसा काम करते हैं-आज जब अंग्रेजी सरकार फासिस्टों के खिलाफ रूस और चीन की मदद करे रही हैं तो हम 'काफिर जो कहे और करे उससे उलटा कहना वा करना' वाले वसूल के मुताबिक इन दोनों को मदद करने से इनकार करे दें और अगर अंग्रेजी सरकार पर होने वाले हमारे गुस्से के चलते इसमें हमें दिक्कत मालूम होती है तो इसके लिए कसूरवार चीन और रूस तो हैं नहीं कि उन्हीं पर हम अपना यह गुस्सा उतारें। इसके लिए जवाबदेह अगर कोई है तो जर्मनी और जापान जिनने सिर्फ अंग्रेजी सरकार से न लड़ करे रूस और चीन पर भी धावा बोल दिया और ऐसी पेचीदी और नाजुक हालत पैदा करे दी अगर वे ऐसा न करते तो किसे फिक्र थी कि कौन कहाँ लड़ रहा है? तब हमें कहाँ कोई परवाह थी? यह परवाह तो इन दोनों की करेतूतों ने ही जबर्दस्ती पैदा करे दी। ऐसी हालत में तो इन खूँखारों पर ही हमारा सभी गुस्सा खामखा उतरना चाहिए और इन्हें मटियामेट करने का कस्द हमें करे लेना चाहिए मगर ऐसा न करके अगर हम रूस और चीन की मदद नहीं करते तो यह निरा अन्धेर खाता ही होगा हाँ, अगर फासिस्टों के खिलाफ मदद देने की हमारी अब तक की बातें केवल ब्रिटिश सरकार को कोसने के बहाने के तौर पर ही रही हों, न कि हम ईमानदारी से यह बात मानते रहे हों तो बात ही दूसरी है मगर इसका जाहिरा सबूत तो कोई है नहीं हाँ, जान या अनजान में, हममें कुछ लोगों की मौजूदा हरकतों से ऐसा अन्दाज करने का मौका हमारे मुखालिफों को जरूर लग सकता है कि हम कहते कुछ और करते कुछ हैं तो क्या ऐसा मौका देना हमारे लिए मुनासिब है?

यहाँ कुछ लोग ऐसा भी कह बैठते हैं कि जब हालत की पेचीदगी के चलते रूस और चीन की मदद पहुँचाने से भी ब्रिटिश सरकार और अंग्रेज कौम को भी मदद मिल ही जाती है,तो हम यही बात साफ-साफ क्यों न बोलें और घुमा-फिरा के बातें क्यों करें? इस चालबाजी से क्या फायदा है? मगर दरअसल यह दलील कोई गुंजाइश रखती नहीं। मदद किसे, कब और कैसे की जाय और कौन किसकी मदद करे यह बात हर हालत में एक-सी नहीं होती। इसमें कुछ मजबूरियाँ होती हैं जिनके सामने हमें झुकना ही पड़ता है। मदद करना तो कन्धो से कन्धा भिड़ाना है और यह मुमकिन नहीं कि हम चाहे जिसी के कन्धो से अपना कन्धा भिड़ा लें। पालकी की सवारी को ढोने वाले कहारों में अगर एक भी गायब हो जाय या न रहे तो वह चल नहीं सकती। इसीलिए उसे चलने में मदद हो इसके लिए एक कहार की खामखा जरूरत होती है यह भी ठीक है कि आमतौर पर उस कहार के लिए कोई खास जगह या खास कन्धा मुकर्रर नहीं होता कि उसी से वह जुटे फिर भी उसकी दो मजबूरियाँ होती हैं जिनके चलते उसे एक खास कन्धो से ही निराले ढंग से जुटना पड़ता है जोकि आगे, पीछे या बीच में कहीं भी जुट जाने पर सवारी के आगे बढ़ने में यह मददगार होता ही है फिर भी अपनी इन दो मजबूरियों से लाचार होके वह किसी खास कन्धो से ही अपना कन्धा भिड़ाने पर ही मदद करे पाता है और ऐसा न करने पर मददगार होने के बजाय उस सवारी के लिए रुकावट ही पैदा करता है। उन दो मजबूरियों में पहली तो यह है कि जिस कन्धो से उसके कन्धो का मेल हो उसी से जुटे बेमेल कन्धो से जुटने में परेशानी और भी बढ़ती है दूसरी यह है कि जिस कन्धो से जुटे वह अगर दायें लगा हो तो अपना बायाँ लगाये बस, इन्हीं दो बातों का ख्याल करके ही किसान सभा ने फैसला किया है कि हमारा कन्धा रूस और चीन के कन्धो से ही जुट सकता है, उसी के साथ इसका मेल खाता है। सोवियत रूस के ही दोस्तों की जमातें और मण्डलियाँ कायम करने की ही बात कहके चीन का नाम जो इस बारे में नहीं लिया गया है वही हमारी दूसरी मजबूरी की ओर इशारा करता है। वहाँ किसान-मजदूर राज्य कायम हो जाने के कारण उसी ओर हमारा खिंचाव आदतन और कुदरतन होता है और हम इसे रोक नहीं सकते।

यही वजह है कि इस हकीकत को कबूल करने के साथ-साथ हमारी सभा ने साफ-साफ कह दिया है कि ऐसा होते हुए भी यह हर्गिज नहीं हो सकता कि हम इस लड़ाई को टुकड़ों में बाँट सकें यह तो एक ही है इसके टुकड़े हो नहीं सकते और अगर इसे कई हिस्सों या एक-दूसरे से उलटे टुकड़ों में बाँटने की कोशिश की गयी तो वह महज बनावटी बात होगी, न कि ठोस और असल चीज-“War like peace is indivisible and no artificial distinction could now possibly be drawn between the wars of Russia, China and the allies who fight together on a world-wide front” रूस पर हमला होने के बाद ही स्तालिन ने कह दिया था कि हम एक-दूसरे की मदद करने की दोस्ती करें। इसीलिए ब्रिटेन और रूस की जो आपसी दोस्ती कायम हुई है, वह इसी ख्याल से और अमेरिका के साथ मिलके आखिरकार तय पाया कि सबों की ताकतें मिलाके जहाँ जिस चीज की जरूरत हो वहीं वह पहुँचाई जाय। ऐसी हालत में किस मुल्क की कौन सी गोला-गोली, कौन सी टैंक, कौन से हवाई जहाज वगैरह कहाँ जायेंगे और लड़ाई में काम आयेंगे यह कहा नहीं जा सकता है। सबों की ये चीजें पंचायती करार दे दी गयी हैं। रूस की कितनी ही चीजें इंग्लैण्ड और अमेरिका जा रही हैं और वहाँ की रूस आ रही हैं फिर इस लड़ाई को ऐसे टुकड़ों में क्योंकरे बाँटा जा सकता है जो एक-दूसरे से कोई मेल नहीं रखते हों? ऐसा करना तो ठोस असलियत से ऑंख मूँदना और अपने आपको धोखा देना होगा।

इसी के साथ एक बात और भी है जानें किसकी बदबख्ती की वजह से हममें बहुतेरे ऐसे हैं जो रूस और चीन की मदद की बातें करते हुए भी अंग्रेजी सरकार से बेहद रंज होने के कारण हिटलर या जापान की जीत भीतर-ही-भीतर या तो चाहते हैं, या कम-से-कम अनजान में ही ऐसा सोचते, बोलते और काम करते हैं जिससे इन दोनों की जीत रुक नहीं सकती। इस तरह जान या अनजान में इस लड़ाई को कई बनावटी या नकली हिस्सों में बाँट के धोखा खाते हैं। यह तरीका बड़ा ही खतरनाक है और हमारे सामने इसी से बचने के लिए इस मामले में हमारा और किसानों का दिमाग साफ करने पर जोर देते हुए कहा है कि इस लड़ाई को हर्गिज टुकड़े-टुकड़े करे नहीं सकते, यह तो एक ही है।

इस रेजोल्यूशन में चौथी बड़ी और काम की बात यह है कि इसने साफ कह दिया है कि जहाँ रूस और चीन में यह लड़ाई सोलहों आने जनता की-अवाम की- लड़ाई हो चुकी है, तहाँ इंग्लैण्ड, अमेरिका और दूसरे दोस्ताना मुल्कों में तेजी के साथ वैसी बनती जा रही है लेकिन हिन्दुस्तान में तो दरअसल में इसे अवाम और जनता की लड़ाई की सच्ची और असली व्यावहारिक शक्ल तभी मिल सकती है जबकि उसे यहाँ की कौमी और राष्ट्रीय सरकार चलाये और सभी लोग दिल से उसमें मदद करें और पड़ जायें। "It is such a people's war that is being so successfully waged by Russia and China. In England, America and other Allied countries the present war is rapidly assuming the form of a People’s war for freedom. Similarly this war can effectivly be converted into an Indian people's war only when it is fought under the leadership of a National Government and with the willing and hearty co-operation of the people of India.” यही वजह है कि आगे चल के कह दिया कि अगर अंग्रेज कौम और अंग्रेजी सरकार ईमानदारी और नेकनीयती से जर्मनी और जापान की हार चाहती है तो वह फौरन ही यह साफ-साफ ऐलान करे दे कि हिन्दुस्तान को पूरी आजादी का हक है और लड़ाई के बाद ही फौरन ही वह अपनी हुकूमत का ढाँचा खुद तैयार करेगा वह हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय और कौमी सरकार कायम करे, किसानों और मजदूरों की माँगें पूरी करे, सभी पोलिटिकल और किसान-मजदूर कैदियों को छोड़ दे वगैरह-वगैरह क्योंकि बिना ऐसा हुए लोगों का फटा हुआ दिल इस ओर खिंच सकता नहीं। हम नहीं समझ पाते कि किसान सभा इससे ज्यादा और क्या करे सकती है। यह ठीक है कि यह बात उसने सौदे के रूप में नहीं कही है और यही मुनासिब है। हम तो सौदे की बात में यकीन रखते ही नहीं, यह हमारी मजबूरी है इसी के साथ हम ऐलान करे देते हैं कि हम तो हर तरह से इसे अपनी लड़ाई बनाने को तैयार हैं और जितना हो सकता है इसके लिए काम करते भी हैं, करते रहेंगे भी। मगर हमारी तैयारी और कोशिश बेकार होगी, अगर अंग्रेज कौम और सरकार ने यहाँ के लोगों के दिलोदिमाग को इसमें न खींचा और इस तरह अपनी नेकनीयती का सबूत न दिया। इस तरह तो उस पर और भी दबाव पड़ता है कि हमारी माँगें जल्द से जल्द पूरा करे। सौदा करने में यह बात नहीं हो सकती, यह हम मानते हैं।

इसी सिलसिले में दो-एक बातें और भी कह देना जरूरी है। लड़ाई में शर्त या बिना शर्त के मदद देने की बात बार-बार उठाई जाती है। यह ठीक है कि किसान सभा के प्रस्ताव में शर्त के रूप में कोई भी बात नहीं रखी गयी है। हालाँकि जिस ढंग से बातें रखी गयी हैं वह शर्त के मुकाबले में हजार गुना ज्यादा काम करती है। मगर इसके खामखा यह मानी लगान कि किसान सभा बिना किसी शर्त के मदद की बात कहती है, किसान सभा को जी-हजूरों की चीज बनाने की बदतमीजी करना है। दरअसल बात यह है कि सभा शर्त या बिना शर्त के झमेले से हजार कोस दूर है। ये झमेले उसके पास फटकने पाते नहीं। लेकिन इस पर यह कहना कि जब शर्त नहीं तो खामखा बिना शर्त की बात आ जाती है, दूर की कौड़ी लाना है। यहाँ हमें एक बात याद आ जाती है। मिस्टर मेकडानल्ड के कम्यूनल अवार्ड के बारे में कांग्रेस ने 'न तो उसकी मुखालफत करने और न उसे मानने' ‘Neither support nor oppose’ का रास्ता अख्तियार किया था। मगर इसके यह मानी किसी ने भी नहीं लगाया कि जब वह मुखालिफ नहीं है तो उसे खामखा मानती है, या अगर नहीं मानती तो मुखालिफ है। यही बात किसान सभा के मुतल्लिक शर्त या बिना शर्त के बारे में भी लागू हो सकती है और जब हम रूस या चीन के कन्धो से ही कन्धा भिड़ाते हैं, भिड़ाना चाहते हैं, भिड़ा सकते हैं न कि दूसरों से, तो फिर शर्त या बिना शर्त का सवाल उठता ही कहाँ है? सरकार भी इन्हीं दोनों को मदद दे रही है ताकि सबकी जान बचे और हम भी उन्हीं दोनों को देते हैं, देना चाहते हैं। बस इतना ही हमारे और सरकार के एक साथ मिल जाने का मतलब है, न कि ज्यादा या कम। मुझे यह बात भूलती ही नहीं जब गाँधी जी ने खुद बिहार सेण्ट्रल रिलीफ कमेटी में 1934 में रेजोल्यूशन दिया था कि हम सरकार से मिलने के लिए उसके मुतल्लिक इज्जत रखते हुए मिलने को हाथ बढ़ाते हैं, "We extend our hand of respectful co-operation towards the Government." मैंने इस इज्जत वाली respectful बात पर उज्र किया था और उन्हें लिखा भी था मगर वे इस पर डटे रहे। क्यों? शायद इसीलिए कि वह दरअसल इस तरह सरकार को यकीन दिलाके लोगों की खिदमत करना, करवाना चाहते थे। हालाँकि मेरे जानते फिर भी respectful कहने की जरूरत न थी मगर किसान सभा तो ऐसा कुछ भी कहती ही नहीं अगर वह आज ऐसा बोलती तो शायद वही लोग हमारी जबानें अहिंसा के नाम पर खींच लेते! फिर भी यह नाहक का बाबेला मचाया जाता है। यह भी नहीं कि 1934 में सरकार दूसरी थी और आज दूसरी और उस समय हमारा गुस्सा उस पर कम था।

इसी तरह इस लड़ाई के साम्राज्यवादी होने का भी सवाल उठाके इनकिलाब के नाम पर गलतफहमी फैलायी जाती है। मार्च के रूसी इनकिलाब के बाद अगस्त, सितम्बर 1917 में करेंस्की की सरकार रूस में थी। वह करीब-करीब तानाशाह हो चुकने के साथ ही सरमायदारों का गुलाम था, लेकिन दब्बू था। इसी से उसे मिटाके अपनी तानाशाही कायम करने के ख्याल के कार्निलोफ नाम के प्रधान सेनापति और सिपह- सालार ने उस पर धावा बोल दिया था। उसे खड़ा करने वाले भी पूँजीपति ही थे। इस तरह दोनों तरफ एक ही तरह के लड़ने वाले थे। मगर लेनिन और उसकी पार्टी ने क्या किया? यह समझके कि दोनों ही सरमायादारों के कठमुल्ले लड़ रहे हैं जिससे यह लड़ाई साम्राज्यवादी है, क्या उसने किनाराकशी और तटस्थता की? नहीं, हर्गिज नहीं। करेंस्की के सामने किसानों को जमीन देने, दकियानूस डयूमा पार्लियामेण्ट को तोड़ देने और जनता की सरकार कायम करने की माँगें पेश जरूर की गईं ताकि मिल-मिला के कार्निलोफ से लड़ा जाय, मगर उसने टका-सा जवाब दे दिया और एक बात भी न मानी। फिर भी लेनिन और उसके साथी सबसे पहले आगे बढ़े और जरा भी हिचक न रख के कार्निलोफ के पछाड़ने में जा लगे। करेंस्की तो लगा था ही अन्त में लेनिन की पार्टी की ही मदद से कार्निलोफ पछाड़ा जा सका तो क्या ऐसा करने में लेनिन सनक गया था? क्या वह इतना भी सोच नहीं सकता था कि उन दोनों की लड़ाई साम्राज्यवादी है या नहीं? क्या वह यह भी सोच न सका कि इस तरह करेंस्की जो उसका और उसकी पार्टी का जानी दुश्मन था, इस तरह काफी मजबूत हो जायेगा, जिससे पीछे पछाड़ने में बड़ी दिक्कत होगी? दरअसल यह कुछ भी न था। वह सारी बातें समझता था और उस लड़ाई को हर तरह से अपनी-लोगों की-लड़ाई समझता था। उसने सवाल करने वालों से कहा कि हम दरअसल करेंस्की को मजबूत करने के बजाय उसकी कमजोरियाँ इस तरह लोगों को दिखा रहे हैं कि हमारे बिना अब वह कुछ करे नहीं सकता। इस पर जब उसके कुछ साथियों ने कहा कि ''तो आइये, करेंस्की की पुरानी बातें भूल जायें,'' तो उसने कहा कि ऐसा करना भारी भूल होगी। हम उन्हें भूल तो सकते नहीं, मगर इस समय ज्यों की त्यों छोड़ उनसे ज्यादा जरूरी काम करने जा रहे हैं। उसने यह भी कहा कि करेंस्की देर से मारने वाली खाँसी वगैरह जैसी बीमारी Chronic disease है और कार्निलोफ चटपट मारने वाले हैजा जैसी Acute disease है। इसलिए इस समय अगर हम पुरानी बीमारी की ही दवा में लगे और भूले रहें तो चटपट वाली बीमारी हमें खत्म ही करे देगी। इसलिए पहले इसे ही खत्म करने में ही अक्लमन्दी है। क्या यही बात ब्रिटिश साम्राज्यवाद और फासिज्म के मुतल्लिक हू-ब-हू लागू नहीं है? जो यह बात नहीं मानते उनके इनकलाब से हम डरते हैं, उसमें खतरा है क्योंकि हम लेनिन से बढ़करे इनकिलाबी अपने आपको मानने की नादानी करे नहीं सकते।

बात असल यह थी कि अगर कार्निलोफ जीतता तो करेंस्की को तो खत्म करता ही उसी के साथ ही लेनिन और उसकी पार्टी को भी खत्म करता और इस तरह किसान-मजदूर की आजादी का सवाल बहुत दिनों के लिए खत्म हो जाता। इसीलिए लेनिन ने दूरअंदेशी से काम लेके पहले उसे खत्म किया, हराया। ठीक यही बात यहाँ है। रूस और चीन पर हिटलर और जापान की जीत से वे दोनों और उन्हीं के साथ अंग्रेजी सरकार भी तो हारेगी ही मगर दुनिया और हिन्दुस्तान में भी उसी के नतीजे के रूप में जो फासिज्म की फौजी हुकूमत कायम होगी वह कार्निलोफ की हुकूमत से हजार गुनी खतरनाक होगी और किसान-मजदूरों के हकों और हमारी आजादी की बात हवा में मिल जायेगी। अगर यह बात न होती और हिटलर खुद रूस पर हमला करके चीन को हमेशा के लिए हड़प जाने के लिए जापान को न उभाड़े होता तो यह खतरा इस समय सामने नहीं होता यही वजह है कि इससे पहले हमें कोई फिक्र न थी और हमें अपने काम में लगे थे। मगर रूस पर हमला होते ही सारी हालत ही एकाएक बदल गयी और हमें इस लड़ाई के बारे में अपने रुख को नये सिरे से सोचने और तय करने को मजबूर होना पड़ा। किसान सभा के प्रस्ताव में भी यही बात साफ लिखी है। मैं मानता हूँ कि इससे पहले ऐसा करने के लिए हमारे पास कोई भी मुनासिब वजह न थी, कोई सामान न था। नागपुर के पहले पारसाल अक्तूबर में पकाला अन्धेरे में जो आल इण्डिया किसान कमेटी की बैठक हुई थी उसने भी यह बात साफ कबूल की थी और लोगों पर जोर दिया कि सोवियत रूस की सभी तरह की मदद करने के साथ ही नात्सी जर्मनी के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई के सभी मोर्चों को जबर्दस्त बनाने का काम करें-"To render all possible help to the U.S.S.R. and work for the intensification of the war aginst the Nazi Germany on all fronts." और नागपुर में किसान कौंसिल ने इससे ज्यादा कुछ भी नहीं कहा है। यह ठीक है कि सारी बातें उसने बड़ी खूबी और सफाई से पेश की हैं जो आईने की तरह झलक रही हैं। मगर इसके लिए किसान सभावालों को उस पर रंज होने या बिगड़ने की तो कोई वजह मैं नहीं देखता। हमारी सभा के रूल और कायदे के मुताबिक जिस समय उसका खुला जलसा न होता हो उस समय ऑल इण्डिया किसान कमेटी को ही उसके सभी अख्तियार और हक हासिल होते हैं जैसा कि VIII F—"The A. I. K. C. shall be the highest authority when the Sabha is not in session and shall exercise all its powers." से साफ है इसीलिए अगर पलासा वाले जलसे के फैसले के खिलाफ पकाला में उसने नयी हालत को देख के नया फैसला किया तो ठीक ही किया।

इतना ही नहीं, पलासा में तो खुद सालाना जलसे में ही एक रेजोल्यूशन के जरिये सेण्ट्रल किसान कौंसिल को ही सभी अख्तियार दिये गये थे कि नई हालत आ जाने पर वह सब कुछ करे सकती है। चाहे कायदे-कानून में ऐसा करने का उसे हक न भी क्यों न हो। यही बात पकाला में किसान कमेटी ने भी की और वही रेजोल्यूशन फिर से उसने दुहरा दिया। वह यों है-"In view of extra-ordinary conditions, political and otherwise, resulting from the war, the A. I. K. C. resolve to authorise the C. K. C. to take all necessary steps to carry on the work of the Sabha and to meet any kind of emergency that might arise, any contrary provision in the constitution not with standing." ऐसी हालत में तो किसी भी तरह यह सवाल उठ सकता ही नहीं कि सेण्ट्रल किसान कौंसिल को कोई हक था नहीं कि वह पलासा के फैसले के खिलाफ़ कुछ भी तय करे।

अब एक ही सवाल और रह जाता है, कुछ दोस्तों ने यह कह डाला है कि जेल में रहते हुए मुझे कोई हक न था कि अपने ख्याल अपने साथियों पर जाहिर करूँ। मगर यह चीज मेरी समझ में आ न सकी। अगर जेल में रहते ही मुझे उन्हीं साथियों ने पकाला में ही ऑल इण्डिया किसान सभा का प्रेसिडेंट चुना तो क्या इसका मानी यह था कि मैं महज नुमाइशी प्रेसिडेंट बनाया गया और अगर यह बात नहीं थी तो मानना ही होगा कि सभा की पालिसी के बारे में अपनी राय सबों पर जाहिर करूँ, ताकि वे खूब सोच-समझ करे फैसला करें। वैसी हालत में अगर वह फैसला मुझे पसन्द हो तो ठीक और अगर पसन्द न हो तो इस्तीफा दे दूँ। आखिर मैं बुध्द प्रेसिडेंट तो बनने की तैयार हो सकता नहीं।

लेकिन मैंने आखिर किया क्या? मेरा हक तो था कि किसान कमेटी और कौंसिल के सभी मेम्बरों और सेक्रेटरी को अलग-अलग साफ लिख दूँ कि मैं क्या सोचता और चाहता हूँ और किस हालत में सभा का सभापति और सदर रह सकता हूँ। उसका नतीजा यही होता, न कि अगर वे लोग मेरी बातें मानते तो मैं सभापति बना रहता और अगर न मानते तो इस्तीफा दे देता या इनकार करता? तो क्या यह बात नामुनासिब होती? यही तो सभी जमातों और संस्थाओं का तरीका है। मगर मैंने ऐसे नाजुक वक्त में ऐसा कुछ भी न करके चुप्पी मार ली। हाँ, जब किसान सभा के मेरे शुरू के साथी और सिपाही इन्दुलाल याज्ञिक ने दिसम्बर के आखिर में जेल से रिहा होने पर, चिट्ठी लिखके खुद अपनी राय साफ-साफ जाहिर की और मेरी भी साफ राय लड़ाई के बारे में पूछी तो मैंने जवाब दिया और अपने ख्याल जाहिर किये। बस, तो क्या मेरा यह काम गलत था? क्या लोग चाहते थे और चाहते हैं कि मैं जबाब भी नहीं देता?

एक बात और! आखिर हमने याज्ञिक की चिट्ठी में लिखा भी क्या था? अफसोस कि यह चीज लोगों को बतायी ही न गयी और बेबुनियाद तूफान खड़ा करे दिया गया । हमने चिट्ठी में चाहे हजार दलीलें दीं, मगर लड़ाई के मुतल्लिक अपनी आखिरी राय यही लिखी कि ''ऐसी हालत में हमारी सभा ने पकाला में जो फैसला इस लड़ाई के बारे में किया वही मुनासिब है, हमें उसी पर अमल करना चाहिए और सरकार क्या करती है क्या नहीं इसकी परवाह जरा भी नहीं करना चाहिए।''-"In the circumstances our Pakala formulations to render all possible help to the U. S. S. R. and work for the intensification of the war against Nazi Germany on all fronts, are the only logical and proper ones and we must act upto them regardless of what the Government do or do not do." और पकाला वाला फैसला तो हमारे उन्हीं दोस्तों और साथियों ने किया था जो आज नागपुर के फैसले के लिए मुझको कसूरमन्द ठहराते हैं। तो क्या उनकी मंशा यह है कि मैं पकाला के फैसले को भी पसन्द नहीं करता और ठीक बताता यह तो अजीब बात है।

खैर, इन बातों की ज्यादा उधोड़-बुन करना फिजूल है। हमें असली बात पर आना चाहिए और वह है इस लड़ाई के बारे में हमारा, किसान सभा और किसानों का रुख। अब तक हमने जो कुछ कहा है उससे यह सवाल काफी साफ हो गया है। एक ही बात और कह देना है। रूस पर हिटलर का हमला होने के बाद ही जेल में हमने जो नजारा देखा और बाहर से जो खबरें मिलीं इनसे न सिर्फ हमें तमाचे लगे, बल्कि हमारा क्या फर्ज, कर्तव्य और अमल होना चाहिए यह तय करने में आसानी हो गयी। उस समय कई सौ चुने-चुनाये जमींदार, मालदार, उनके दोस्त वगैरह हजारीबाग जेल में थे। हमें यह जान के ताज्जुब हुआ और धक्का भी लगा कि हिटलर के हमले से उनमें बड़ी खुशी है, सिर्फ इसीलिए कि रूस खत्म होगा सो तो होगा ही, ये किसान सभावाले हिन्दुस्तान में देखें, अब किसान-मजदूर-राज्य कैसे कायम करते हैं! यह एक नयी बात थी। यह नहीं कि दोई-चार लोग ऐसे थे। हमने बहुतों को ऐसा ही पाया। किसान-मजदूर-राज्य कायम न हो इसके लिए हिटलर और मुसोलिनी का स्वागत और इस्तकबाल हिन्दुस्तान में वे लोग करने को नजर आयें या ऐसी बातें करें जो अपने को आजादी के दीवाने मानते हों। सचमुच ही यह नयी बात थी जिसके लिए मैं तैयार न था। चाहे उनका ऐसा ख्याल नासमझी से ही क्यों न हो और रूस पर हिटलर की जीत का नतीजा क्या होगा यह बात वह बखूबी समझते भले ही न हों( मगर मैंने तो उसी वक्त तय करे लिया कि हिटलर और उसके साथियों को मिटाने के लिए हमें और किसानों की सारी ताकत लगान ही होगा। हमें उन दोस्तों वाली आजादी खतरनाक जँची।

मैं मानता हूँ कि जब तक सारे मुल्क के लोग दिलोजान से इस काम में न पड़ जायेंगे तब तक तोजो और हिटलर को हराना गैरमुमकिन है। चीन में च्यांग-कै-शेक की सरमायेदार और पूँजीवादी पार्टी अकेली कुछ न करे सकी और जापान ने एक के बाद दीगरे चीन के जाने कितने ही सूबे हड़प लिए वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी भी च्यांग-कै-शेक का मुकाबला करने और उसके दाँत खट्टे करने में कामयाब होने पर भी फासिस्टों को हरा न सकती थी। इसीलिए वहाँ हारकरे दोनों का समझौता होके संयुक्त मोर्चा बनाना पड़ा जिससे आज जापान को लोहे के चने चबाने पड़ रहे हैं। उसे पता लग रहा है कि किसी भी मुल्क की सम्मिलित और मजमूंई ताकत किसे कहते हैं! मैं तो मानता हूँ कि हमारे सामने चीन की ही मिसाल इस मामले में रहनी चाहिए और वही हालत पैदा करने में हमें लग जाना चाहिए। इसीलिए नागपुर में किसान कौंसिल ने इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है कि हमारे मुल्क की छोटी-बड़ी सभी जमातें मिल जायें। सबसे बड़ी सियासी और राजनीतिक जमात होने की ही वजह से इस मामले में कांग्रेस ही आगे बढ़े और मुस्लिम लीग वगैरह से मिल-मिला के कोई रास्ता जल्द निकाले ताकि हम एक ख्याल और एक आवाज से यहाँ राष्ट्रीय और कौमी सरकारें सूबों में और हिन्दुस्तान में भी कायम करने में कामयाब हों। अंग्रेजी सरकार को भी गर्ज है, वही भी मजबूर है। उसकी मजबूरी च्यांग-कै-शेक से कम नहीं है ऐसा मैं मानता हूँ। उसके ऊपर न सिर्फ ब्रिटेन के लोगों का ही दबाव पड़ रहा है, बल्कि रूस और चीन का भी। असल में हिन्दुस्तान को अपने साथ किये बिना ब्रिटेन, रूस, चीन वगैरह सभी को भारी खतरा है, सभी के सामने सत्यानाश खड़ा नजर आ रहा है। ऐसे मौके पर हमारी एक और मिली आवाज यहाँ नेशनल गवर्नमेण्ट कायम करके ही रहेगी जिससे हम सारी ताकत से जापानी और हिटलर के खूँखार गिरोह का मुकाबला कामयाबी से करे सकेंगे। मेरा तो यह भी पक्का यकीन है कि बिना गैर-मामूली ताकत हासिल किये हम जापान के खतरे का सामना करे नहीं सकते और जब ऐसा करे चुकेंगे तो हमारी वही ताकत ब्रिटिश इम्पीरियलिज्म को बात की बात में मिटा छोड़ेगी अगर फिर भी मिटाने की जरूरत रही 'जरूरत रही' की बात इसलिए कि इस लड़ाई के दौरान में ही, हो सकता है, साम्राज्यवाद की भी कचूमर फासिज्म के साथ ही निकल जाय और वह सर उठाने की हिम्मत करे न सके। आखिर फासिज्म साम्राज्यवाद की ही तो आखिरी खूँखार और गुण्डानुमा सूरत है।

हाँ, जहाँ एक ओर हम कौमी और राष्ट्रीय सरकार फौरन से पेशतर कायम करने में लग जायें वहाँ देहातों और शहरों के लोगों में नाहक फैले हुए खौफ और आतंक को भी मिटा देने का पक्का इरादा करे लें और उनमें ऐसी हिम्मत ला दें कि वह चोर-डाकुओं का और जरूरत होने पर जापानी शैतानों का भी डट के मुकाबला करे सकें जैसा कि रूस और चीन के लोग करे रहे हैं हमें यह न भूलना होगा कि आज इस नाजुक घड़ी में हमारी हरेक बात तौल के ही बोली जाय नहीं तो अंग्रेजी सरकार का नुकसान करने के बजाय हम अपनी ही बर्बादी करे बैठेंगे जोश में हमारे ऐसा लेक्चर देने से कि 'सरकार लड़खड़ा रही है' हमें स्वराज्य तो कभी शायद ही मिले या उसके लिए लड़ने की हिम्मत लोगों में शायद ही आये, मगर चोर-डाकुओं की हिम्मत जरूर बढ़ेगी और डाकेजनी, चोरी वगैरह बढ़ेंगी, खासकरे देहातों में सभी पार्टियों, जमातों और लोगों की पंचायतें और वालेंटियर कोर एक राय से बनें जो दिन-रात उनकी हिफाजत करें। इसकी ही आज जरूरत है, न कि अलग-अलग अपनी डफली बजाने और वालण्टियर कोर या ब्रिगेड कायम करने की ऐसा करने में धोखा होगा यह मैं मानता हूँ। इसीलिए आज अलग किसान-सेवक-दल नये सिरे से बनाने की बात मैं नहीं पसन्द करता। पहले के बने सेवक-दल रहें जरूर, मगर वे औरों से मिलके एक जनता का वालण्टियर दल People's volunteer Corp की सूरत में तब तक के लिए बदल जायें जब तक लड़ाई जारी है। अगर हम बदअमनी नहीं चाहते और नहीं चाहते कि किसानों की फसलें और उनके घर-वार लुट जायें तो यही करना होगा दूसरा रास्ता हुई नहीं। नहीं तो अगर हमारी गैर-जिम्मेदारी के करते चारों ओर गोल-माल फैलने में रोक के बजाय मदद मिली तो नतीजा न सिर्फ यह होगा कि लोग लुट जायेंगे, गरीब पामाल हो जायेंगे, बल्कि हमारी आजादी की उम्मीद भी लुट जायेगी।

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किसानों की लड़ाई

जेल से बाहर आते ही मेरे सामने यह सवाल बार-बार लाया गया है कि किसानों की बकाश्त की या दूसरी लड़ाइयों का क्या हो-यह चालू रहें, जारी हों या बन्द करे दी जाएँ? सवाल तो ठीक और मौजूँ है। मगर इसका जवाब इतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है आज तक जितनी भी लड़ाइयाँ हमने इस सिलसिले में लड़ी हैं उनसे चाहे आपने कुछ सीखा हो या नहीं, मैंने न सिर्फ बहुत सीखा है, बल्कि आगे के लिए बहुत कुछ तय भी करे लिया है कि कैसे लड़ी जायें। मौका मिलते ही साथियों से उन पर राय-सलाहें करके आखिरी फैसला किया जायेगा लेकिन इतना कहने में तो मुझे जरा भी हिचक नहीं कि इन लड़ाइयों का अब तक का तरीका हमें छोड़ के कुछ नया ढंग अख्तियार करना होगा हीं तो नतीजा बुरा होगा और हम कुछ करे न सकेंगे। आप में बहुतेरे यह तो जानते ही हैं कि रेवड़ा की ही लड़ाई हमने सबसे ज्यादा मुस्तैदी के साथ लड़ी थी और दुश्मनों की कमर तोड़ दी थी मगर क्या उसका झमेला अभी तक खत्म हुआ? किसी-न-किसी सूरत में वह रह-रह के सर उठाता रहता ही है। जमींदारी ऐसी डायन है कि वह मरती ही नहीं और सताती रहती है जब तक उसे भागने को मजबूर न किया जाये। जमींदारों को तो आसानी से हम पकड़ सकते हैं, मगर जमींदारी तो हवा की और दिमागी चीज है और लड़ना है उसी के खिलाफ इसी से दिक्कतें बढ़ती हैं। इसलिए हमें ऐसी तदबीर करनी है कि उसे मात करे दें। यही नहीं, अगर हम पहली जैसी ही लड़ाइयाँ चलाते रहे तो जमींदारों के हौसले बढ़े जायँगे और वह ठठेरे वाली बिल्ली बन जायेंगे इसीलिए थोड़ी देर भले ही हो, फिर भी जल्दबाजी हर्गिज नहीं करनी चाहिए और खूब सोच- समझ के आगे बढ़ना होगा आखिर अगर अब तक किसान लुट न गये और कायम हैं तो थोड़े दिनों तक और भी जमींदारों की नादिरशाही बर्दाश्त करें। यकीन रखें, इससे हमारी और उनकी ताकत बढ़ेगी, जबकि जल्दबाजी के करते खामखा घटेगी। लड़ाई के चलते सरकार भी यह हर्गिज न चाहेगी कि उसकी ताकत इन लड़ाइयों में खर्च हो इसीलिए फौरन ही ऐसी लड़ाइयाँ चाहे जैसे हो खत्म करा देना चाहेगी ही ऐसी हालत में हमें गैर-मामूली और आले दर्जे की तैयारी करनी होगी और उसके लिए समय चाहिए, लेकिन याद रहे कि डिफेंस एक्ट के सामने कोई तैयारी टिक नहीं सकती वह नंगी तलवार है। फिर नाहक हम क्यों अपनी ताकत जाया करें? इसी के साथ हमें यह भी तो सोचना है कि फासिज्म के बवण्डर को हमारे काम मदद न पहुँचायें।

इसलिए एक तो हमें साफ-साफ अपनी बातें सबों से कह देना है कि हम खामखा लड़ना नहीं चाहते, हमें परेशान करके किसानों की लड़ाई में घसीटा न जाये। इसी के साथ जहाँ एक ओर मजबूती के साथ हम यह कह दें कि बर्दाश्त की भी कोई हद होती है जिसके बाद हमें इसमें जरूर ही पड़ना होगा और इसकी जवाबदेही जमींदारों और सरकार पर ही होगी, तहाँ दूसरी ओर किसानों को भी यकीन दिला देना चाहिए कि घबरायें न, हिम्मत और बर्दाश्त से काम लें। नतीजा अच्छा होगा और अगर आज जमींदार बकाश्त को छोड़ने को राजी नहीं हैं तो इसी के चलते कल उन्हें जमींदारी से ही हाथ धोना होगा। हमें एक और भी काम करना होगा- जहाँ-जहाँ ऐसे झमेले हों वहाँ-वहाँ की पूरी और ब्योरेवार रिपोर्ट प्रोविंशल किसान सभा के दफ्तर में भेजना होगा, ताकि पूरी जाँच के बाद सारी बातें सरकार और जमींदार के पास आखिरी बार बाकायदा रख दी जा सकें और उन्हें एक और मौका दिया जा सके कि संभल जायें। इससे हमारा काम आसान हो जायेगा। मुझे साफ-साफ ऐसा कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि अब तक यह काम हम कहीं भी ठीक-ठीक करे सके हैं नहीं,यों ही गोल-मटोल बातें करते और लड़ते रहे हैं। इसी से ज्यादा ताकत लगाने पर भी नतीजा वैसा अच्छा नहीं हुआ है। हम बखूबी समझ लें कि यह काम बकाश्त की लड़ाई की तैयारी को ही पूरा करने वाला है, न कि और कुछ।

इसी मौके पर हमें यह कहते हुए निहायत खुशी होती है कि किसान सभा पर जब आफतों पर आफतें ढाई जा रही थीं और इसके ज्यादातर रहनुमा आप से अलग थे उसी समय आपने डुमराँव में उस बेहूदे और जालिमाना बेहयाई टैक्स के खिलाफ सीधी लड़ाई लड़करे उस इलाके के लोगों को जितना आराम पहुँचाया, किसान सभा का सर ऊँचा जिस कदर किया, जमींदारी जुल्म के खिलाफ बाकी सभी लोगों के संयुक्त मोर्चे और यूनाइटेड-फ्रण्ट की जो जिन्दा मिसाल पेश की और लाठी राज कायम करने में अपनी मिसाल नहीं रखने वाले डुमराँव महाराज को जो बुरी तरह नीचा दिखाया, हराया और ठण्डा किया वह हमारे आन्दोलन और कशमकश की एक लाजवाब और बेमिसाल चीज है। डुमराँव की लड़ाई में बहुत खूबियाँ हैं जो यहाँ कही जा सकती हैं नहीं। उसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ और मेरा सर आपके सामने झुक जाता है।

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ऊख और किराना फसलें

ऊख बोने वाले किसानों पर बीते दो साल के भीतर कौन-कौन मुसीबतें गुजरीं यह किससे छिपा है? मैंने तो इस मसले पर बहुत कुछ कहा और लिखा है। जब तक किसान अपना निजी ऊख-संघ सूबे-भर में किसान सभा की मातहती में कायम नहीं करे लेते, ऊख की खेती कम नहीं करते और गुड़ बनाने को हरदम तैयार नहीं हो जाते तब तक उनकी तकलीफें बनी ही रहेंगी। सरकारी ओर से ऊखवालों की सोसाइटियाँ बनाई जाती हैं उनमें किसान हर्गिज न जायें जब तक हमारी दो माँगें पूरी न हो जायें। एक तो सोसाइटी में जाने वाले किसानों को आजादी रहे कि गुड़ महँगा होने पर भी मिलों में ऊख देने को वे मजबूर न हों और गुड़ बना सकें। दूसरे मिल वालों पर दबाव डालके ऊख की कीमत बढ़ाने के लिए हड़ताल करने की आजादी उन्हें रहे, जब कभी इसकी जरूरत आ जाये। इन्हीं दो शर्तों के पूरा होने पर ही किसानों का हक मुनहसिर है, निर्भर है। इन दो शर्तों के बिना सोसाइटियों में जाने पर उनकी तबाही बढ़ती ही जायेगी। चीनी की मिलों के मजदूरों की तकलीफें, मिलों के चलते फैलने वाली गन्दगी, बीमारी और मच्छरों की फौज से होने वाली मुसीबतें और शुगर सिंडिकेट की नादिरशाही वगैरह बातें ऐसी हैं जिनके बारे में कुछ न कहना ही अच्छा है। जब तक यह सिंडिकेट तोड़ न दी जायेगी न तो किसान, न मजदूर और न चीनी खाने वाले ही आराम से रह सकेंगे या उनके साथ इंसाफ हो सकेगा। ऊख के दाम के बारे में भी जब तक खासतौर से सरकार ऐसी जाँच न करे जिसमें किसान सभा को काफी मौका मिले कि खेती के खर्च का पूरा सबूत पेश करे और जाँच कमेटी के फैसले पर पूरा असर डाल सके तब तक हमेशा अन्धेर-खाता और अटकलबाजी ही चलेगी। मुख्तसिर यह है कि ऊख और चीनी के बारे में बुनियादी बातों की जरूरत है जो अभी हो नहीं सकी हैं।

इस कारबार को कामयाब बनाने के लिए हर इलाके में किसानों के लिए किराने की दो-दो फसलों Money crops का इन्तजाम सरकार को करना ही पड़ेगा। दूसरा चारा नहीं है। नहीं तो हमेशा तूफान जारी ही रहेगा। इन फसलों, गुड़ और आम तौर से दूसरी फसलों की पैदावार के लिए किसानों को काफी पैसे मिल सकें इसके लिए गोले का प्रबन्ध marketing सरकार को खुद करना होगा नहीं तो लगान और मालगुजारी न मिलने की शिकायतें घटने के बजाय बराबर बढ़ती ही जायेंगी और नतीजा बुरा होगा।

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खेती के मजदूर

अगर हम गाँवों की असली हालत की जाँच करें तो पता चलेगा कि हिन्दुस्तान में हर साल कमबेश दस लाख किसानों की जमीनें लगान, मालगुजारी और कर्ज में छीनी जाती हैं, वे बिना जमीन के होते जाते हैं और इस तरह खेती के मजदूरों की तादाद बढ़ती जाती है। यह बड़ी ही खतरनाक बात है। हमने जेल में बैठे-बैठे इस सवाल पर बहुत छानबीन की और एक किताब भी लिखी है। सरकारी और दूसरी रिपोर्टों की बिना पर ही हम यह बात कह रहे हैं। अगर यही रवैया, जारी रहा तो ज्यादे से ज्यादा सत्तार-अस्सी साल में वे सभी किसान बिना जमीन के हो जायेंगे जो अपनी जमीनों में खेती करते हैं और उनकी जमीनें सिर्फ लगान पर जीने वाले लोगों के पास जा धमकेंगी। इधर वे खुद मजदूर बन के मारे-मारे फिरेंगे! इसीलिए खेत-मजदूरों का सवाल न तो अछूत या हरिजन कहे जाने वालों का है और न कुछ खास जातियों का। इस गिरोह में तो आज वे सभी जाति वाले और धर्म वाले शामिल हैं और तेजी से होते जा रहे हैं जिनकी जमीनें धडाधड छिन रही हैं। वे या तो गैरों के खेतों में ही काम करके जैसे-तैसे आधा-चौथाई पेट खा पाते हैं या शीकमी और बटाई जमीनें जोत-जात के गुजर करते हैं अगर मुझसे कोई सच पूछे तो मैं तो उन्हीं को दरअसल किसान मानता हूँ। दूसरे किसान भी आज नहीं तो कल उन्हीं की कतार में जाने को मजबूर होंगे यही वजह है कि किसान सभा उन्हें छोड़ नहीं सकती, उनकी ओर से ऑंखें मोड़ नहीं सकती और उनके सवाल को अपना सवाल बनाये बिना रह नहीं सकती नहीं तो वह खतम हो जायेगी और उसकी जरूरत रहेगी ही नहीं मौजूदा खेत-मजदूरों के साथ इज्जत और भाईचारे का सवाल, उनकी मजदूरी बढ़ाने की बात और उनके और हकों के मसले तो इस असली मसले के सामने फीके पड़ जाते हैं। जब जमीन हमारे पास रहेगी ही नहीं तो मजदूरी बढ़ाने का क्या सवाल? जब किसान के पास खुद खाने को नहीं रहेगा तो वह खेत-मजदूर को क्या देगा? इसलिए ऊसर, चौंर वगैरह की जमीनों को खेती के लायक बना के ओर उन्हीं जमीनों में बड़े-बड़े जमींदारों की जिरात को भी मिलाके ऐसी जमीनें सबसे पहले उन्हीं लोगों को दी जायें जो खेत-मजदूर या निहायत गरीब किसान हैं तभी यह सवाल थोड़ा बहुत हल हो सकता है यों तो जब तक मुल्क में कल-कारखाने काफी नहीं बढ़ते दिक्कतें रहेंगी ही।

मैं बहुत ढूँढ़-खोज के बाद इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि जब तक जमींदारी का खात्मा बिना मुआविजा या कीमत दिये ही नहीं किया जाता-हाँ, जमींदारों के अच्छी तरह खाने-पीने वगैरह का इन्तजाम तो करना ही होगा और वे कुछ न कुछ काम करें इसका भी इन्तजाम जरूरी है-और जब तक कम-से-कम अस्सी फी सदी किसान मालगुजारी, लगान या कर्ज की वसूली से कतई बरी नहीं करा दिये जाते जिनके पास गुजर-बसर से ज्यादा पैदावार की जमीन नहीं है तब तक खेत-मजदूरों और किसानों का सवाल हल नहीं होगा- उसके हल का रास्ता साफ न होगा। अस्सी फी सदी से ज्यादा किसान अपनी जमीनों से बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे गुजर करे पाते हैं यह बात मैंने वहीं साबित की है।

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झारखण्ड के किसान

छोटा नागपुर के पाँच जिले और संताल परगने को मिलाकरे छहों को झारखण्ड कहते हैं। यहाँ के किसान का तो मालूम पड़ता कोई भी खुशहाल है नहीं। अभी तक वहाँ जब्ती-कुर्की के जरिये लगान वसूल होता है जबकि बिहार में यह बात है नहीं। भावली जमीनों के बारे में जो कानून कांग्रेसी मिनिस्ट्री ने बनाये वह वहाँ अमली तौर पर आमतौर से लागू हुए ही नहीं, यो तों कहने के लिए भले ही लागू करा दिये गये। पहाड़ी जमीनें काटके वे पहले बेरोक खेत बना लेते थे जिन्हें 'कोड़करे' और 'उटकरे' कहते हैं और बहुत साल के बाद जमींदारों का मामूली लगान देते थे, मगर अब यह बात नहीं रही और ऐसी दिक्कतें पेश करे दी गयी हैं कि यह काम बन्द-सा है, पलास, बेर और कुसुम के पेड़ों से लाह पैदा करने में उन्हें कोई दिक्कत न थी मगर अब तो अपने खेतों में लगे पेड़ों में भी वे ऐसा करे पाते नहीं महुवे का फल उनके गुजर की खास चीज है मगर अब उस पर भी आफत है जेल डिपार्टमेण्ट और काँजीहौस के चलते वे हाय मार के रह जाते हैं और लुट जाते हैं। उनके बच्चों को उनकी अपनी जबान भाषा पढ़ाने का अब तक कोई भी इन्तजाम किया नहीं गया है और यह कैसा अन्धेर है। संताल परगने के पहाड़िया लोगों पर तो आफत का पहाड़ ही टूट पड़ा है। वे अब तक जंगलों को काट-काट के एक तरह के बिना हल-बैल की खेती करते और गुजर करते थे जिसे झूमचास या कुराँवचास कहते हैं। अब वह ऐसा करे पाते नहीं। कानूनी रोक डाल दी गयी है और वह दूसरी तरह जीविका करना जानते नहीं यह है उन झारखण्डियों की सैकड़ों तकलीफों में केवल दोई-चार लोग कहते हैं, दुनिया में न्याय है, खुदा है, भगवान है मगर उसका पता कहाँ है? इन तबाह और पामाल झारखण्ड वालों से कोई पूछे तो क्या इसका जवाब मिलेगा?

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किसान सभा का संगठन

आखिर में मैं किसान सभा के संगठन पर आपका ख्याल लाना चाहता हूँ। हम और आप बहुत घमण्ड करते हैं कि हमारे यहाँ की किसान सभा काफी मजबूत है। दूसरे सूबे वाले भी ऐसा ही समझते हैं। मगर मुझे यह सुनके दर्द होता है, शर्म आती है, तकलीफ होती है। सूबे के सोलह जिलों में तीन सौ से ज्यादा थाने हैं। भला आप कह सकते हैं कि कितने जिलों की किसान सभायें बाकायदे जबर्दस्त ऑफिस रखती हैं और काम करती हैं? अगर जिलों में कुछ को छोड़ ज्यादातर में जैसे-तैसे ऑफिस हों भी और वे काम भी बुरा-भला करते हों तो भी कितनी थाना-किसान कौंसिलें ऐसी हैं? हरेक ने साल में कितने मेम्बर किसान सभा के बनाये, अपने चन्दे का कोटा जिले और सूबे को भेजा, बाकायदा रिपोर्ट भेजी और बकाश्त या जंगल वगैरह की लड़ाइयाँ लड़ीं? जब हम ठिकाने से कागजी घोड़े भी नहीं दौड़ा सकते तो मौके पर किसानों की लड़ाई के समय सरकार या जमींदारों के असली घोड़े जब किसानों की छाती पर दौड़ना चाहेंगे तो उन्हें रोकेंगे कैसे? जब हमने बाकायदा किसान सेवक दल बनाके उसे तैयार नहीं किया और किसान-कोष में पैसे वगैरह जमा नहीं ही किये तो बकाश्त की लड़ाई लड़ेंगे क्या खाक और जब हमारे पास एक हफ्तेवारी अखबार भी नहीं है तो किसान सभा की ताकत की डींग फिजूल है। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बिना हम चल नहीं सकते, रह नहीं सकते, जी नहीं सकते, आगे बढ़ नहीं सकते।

बातें तो बहुत ज्यादा हैं और उन्हें कहने को दिल भी चाहता है। मगर लम्बा पोथा जो हो गया इसकी तोंद आखिर कितनी बढ़ाई जाये? कागज भी तो मिलता नहीं कि सभी बातें छापी जा सकें। इसलिए आज इतने से ही सब्र करना ठीक है। उम्मीद है, आप भाई यहाँ से जाने के पहले कुछ ऐसा तय करके जायेंगे जिससे किसान सभा का झण्डा ऊँचा फहराता रहे, किसानों का पेट भरे, उनका तक ढँके, उन्हें सर उठाके इज्जत के साथ जिन्दगी गुजारने का मौका मिले, हमारा मुल्क आजाद हो, यहाँ किसान-मजदूर-राज्य कायम हो।

इन्किलाब जिन्दाबाद! नात्सीवाद मुर्दाबाद!
     फासिज्म का नाश हो! पँजीवाद खत्म हो!

जमींदारी प्रथा चौपट हो!

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