भूमि-व्यवस्था कैसी हो?
अभी हाल तक जमींदारों और उनके समर्थकों का ख्याल था कि फिलहाल जमींदारों को
बचा लेंगे। इस उद्देश्य को हासिल करने में उन्होंने कोई तरीका कोई प्रयत्न
उठा नहीं रखा। उनकी कोशिशें अभी भी जारी है। इसमें शक नहीं, ये प्रयत्न आगे
भी जारी रहेंगे। कारण स्पष्ट हैं। प्रतिगामी और दकियानूस ताकतें एवं
व्यवस्थाएं जल्द मरती नहीं-मर-मर करे जिन्दा हो उठती हैं, उठती-सी हैं। और
जमींदार भारत की जमींदारी? यह सबसे बड़ी दकियानूस चीज है। अत: अपनी हस्ती
बनाये रखने के लिए( वह जो करे थोड़ा है। फिर भी, यह बात एक प्रकार से तय है
कि न सिर्फ बिहार से, बल्कि समस्त भारत से जिस किसी भी रूप में जहाँ कहीं
भी यह प्रथा पायी जाती है, इसका खात्मा हो के रहेगा। और अब इसके समर्थक भी,
एकान्त में ही सही, यह स्वीकार करने लगे हैं कि यह बच नहीं सकती। उनके
सामने निराशा पहाड़ के रूप में खड़ी है। ऐसे लोग अपने भावी जीवन की रहन-सहन
की तैयारियाँ भी इसी दृष्टि से मुस्तैदी से करने लगे हैं। लगता है,
अवश्यंभावी के सामने सिर झुकाने के सिवा उन्हें कोई दूसरा चारा ही नहीं।
अत: जमींदारी के समर्थन में वे जो कुछ भी करे रहे हैं, केवल एक अड़ंगा है,
रोक रखने की नीति मात्र है। इस तरह वे चाहते हैं कि जमींदारी के बदले
उन्हें अधिक से अधिक पैसे मिल जायें, अधिक से अधिक सुविधायें मिल जायें।
उन्हें इस अड़ंगे से ऐसी आशा है। अत: ऐसा कहने में अत्युक्ति नहीं कि
जमींदारी जरूर जायेगी।
(शीर्ष पर वापस)
समय की गति के विपरीत
हमने कहा है, भारत की जमींदारी सबसे ज्यादा दकियानूस है। क्योंकि इसकी
स्थापना समय की गति के विपरीत चलकरे ही हुई थी यों तो जमींदारी प्रथा ही
प्रतिगामी या विपरीत गतिवाली चीज मानी जाती है। यह एक ऐसे स्वार्थ या वर्ग
को जन्म देती है, जिसका महत्त्व समाज या राष्ट्र के हित के दृष्टि से कुछ
भी नहीं है। समाज या राष्ट्र का आज कौन सा जरूरी काम वर्तमान जमींदार करते
हैं। जो उनके बिना हो नहीं सकता? मगर जमीन में खेती-बारी करके समाज एवं
राष्ट्र के लिए आवश्यक अन्नादि उत्पन्न करने के लिए किसानों का होना
अनिवार्य है। यह काम दूसरा नहीं करे सकता। पर वह जमींदार क्या करते हैं?
किसानों से जमीन का लगान या करे लेकरे उसका एक अल्प अंश सरकार को देते हैं,
और बस। मगर यह काम तो सरकार खुद करे सकती है, रैयतवारी इलाकों में जहाँ
जमींदार नहीं हैं, स्वयं करती है। तब जमींदारों की क्या जरूरत है, खास करे
इस जनतन्त्र के युग में? उनकी कौन सी उपयोगिता समाज के लिए है? पाथियों के
पन्ने उलट करे उनकी प्राचीनता सिध्द करने मात्र से ही उनकी उपयोगिता कैसे
सिध्द होगी? चोर, डाकू, दुराचारी आदि भी तो प्राचीन समय से पाये जाते हैं।
मगर इससे उनकी उपयोगिता का दावा कौन करेगा? और भारत की उत्तरी सीमा पर
नेपाल का स्वतन्त्र राज्य है। नेपाल की तराई में आज भी जिम्मेदार पाये जाते
हैं न कि जमींदार। उन्हें वहाँ जिम्मेदार ही कहा जाता है। उनका काम
है-किसानों से सरकारी पावना या करे वसूल करके नेपाल सरकार को दे देना और
पाँच से दस प्रतिशत कमीशन लेना। समस्त भारत में पहले यही जिम्मेदार थे, जो
कमीशन पर सरकारी जमा वसूलते थे। यह मान लेने में कौन सी पोथी रंज हो जायेगी
या उसके पन्ने गल पच जायेंगे? यों तो जहर की उपयोगिता होती ही है, मगबर उसे
मानता कौन है?
एक बात और, इतिहास जानने वालों को विदित है कि अठारहवीं शताब्दी के अन्त,
1789 में, जो फ्रांसीसी क्रान्ति हुई, उसका एक जबर्दस्त नारा था जमींदारी
का उच्छेद। क्रान्ति के फलस्वरूप ही वहाँ जमींदारी मिटी और पुन: पनप न सकी,
यह भी ठोस सत्य है। उसे मिटाकरे नेपोलियन से अपनी शक्ति दृढ़ की। उसी के
लगभग 1776 में उत्तरी अमेरिका में क्रान्ति हुई और वह ब्रिटिश आधिपत्य से
स्वतन्त्र हुआ उसी आधिपत्य से जहाँ जमींदारी किसी न किसी रूप में मौजूद है,
हालाँकि उसका रूप दूसरा ही है, और है प्राय: निर्दोष। जिन अंग्रेजों ने
आयरलैण्ड में जमींदारी को जन्म दिया, वे अमेरिका को उससे बचने देते क्या?
लेकिन स्वतन्त्र अमेरिका ने वहाँ जमींदारी का जन्म होने ही न दिया और वह आज
संसार में सर्वोपरि समृध्दशाली, उद्योग-व्यापारशाली एवं शक्तिशाली माना
जाता है, विज्ञजन इसे मानते हैं। साथ ही, सबने किसी न किसी रूप में माना है
कि अमेरिका की सर्वोन्नत दशा के मूल में इस जमींदारी का न होना भी है। इससे
अधिक लिखने का अवसर नहीं है। उसने यह भी लिखा है कि पूँजीवादी लोग पूँजीवाद
के प्रसार के लिए ही भूमि में व्यक्तिगत सम्पत्ति बना देते हैं। अमेरिका के
पूँजीवादियों ने यही किया भी।
लेकिन भारत में इस जमींदारी का जन्म ठीक उसी समय 1793 में हुआ। इससे स्पष्ट
हो जाता है, उसका श्री गणेश ही समय की गति के विपरीत हुआ। जब संसार से
जमींदारी के उन्मूलन का उद्योग बड़ी मुस्तैदी से हो रहा हो और क्रान्तिकारी
शक्तियों ने सामन्ती प्रथा के विरुध्द जेहाद बोल दिया हो, उसी समय भारत में
इसका प्रादुर्भाव बताता है कि यह कितनी दकियानूस और प्रतिगामिनी है। इसलिए
यहाँ इसके संहार का समय सबसे पीछे आया है। फिर भी यह तो तय है कि यह युग ही
इसका शत्रु है और इसे मिटा के ही दम लेगा।
(शीर्ष पर वापस)
मध्यवर्गीय स्वार्थ का अन्त
बता चुके हैं कि एक ओर राष्ट्र समाज एवं उसकी कार्यवाहिका सरकार का तथा
दूसरी ओर किसान का होना आवश्यक है। इन दोनों के अपने-अपने निर्दिष्ट स्थान
हैं। मगर जमींदार का? उसका कोई भी स्थान नहीं? जमींदारी से अभिप्राय है उस
मध्यवर्ती स्वार्थ या उसके प्रतिनिधि से, जो उन दोनों-किसान तथा सरकार-के
बीच में त्रिशंकु की तरह लटका हुआ है और जिसकी आवश्यकता आज दो में एक को भी
नहीं है।
यह मध्यवर्ती वर्ग या स्वार्थ किसी न किसी रूप में भारत के सभी प्रान्तों
में हैं। इसके जमींदार, मालगुजार, ताल्लुकेदार, इनामदार, इस्तमरारदार,
साहूकार, जन्मी, खोत, पवाईदार, जागीरदार आदि विभिन्न नाम विभिन्न प्रान्तों
में पाये जाते हैं। फलत: जमींदारी के मिटाने से हमारा आशय उन सभी वर्गों या
स्वार्थों के खात्मा से है, जो किसी-न किसी रूप में किसान या वास्तविक खेती
करने वालों तथा राष्ट्र, समाज या सरकार के बीच में पाये जाते हैं और जिनका
कोई भी योग भूमि के उत्पादन या उसकी वृध्दि में नहीं है। हल, बैल, सिंचाई,
बीज, खाद आदि खेती के साधानों में किसी के भी जुटाने में जिनका हाथ नहीं
है, वही जमींदार हैं। प्रत्युत वे तो चाहते हैं कि फसल मारी जाये, तो किसान
लगान न दे सकेगा और विवश होकरे या तो जमीन ही छोड़ भागेगा, या हम जमीन को
नीलाम करा करे काफी सलामी या नजराने के बाद दूसरों के हाथों बन्दोबस्त
करेंगे। यह एक ठोस सत्य है। भला ऐसे वर्ग को कौन बर्दाश्त करना चाहेगा?
इसलिए यदि आज जमींदारों को सर्वशोषण सिंह कहा जाता है, तो इसमें अत्युक्ति
क्या है?
पंजाब तथा सीमाप्रान्त को किसान का प्रान्त कहते हैं। वहाँ जमींदार के आम
तौर से मानी हैं, मालिक नहीं( किन्तु किसान। साधारणत: किसी के पास ज्यादा
जमीन है नहीं, किन्तु खेती करने के लायक ही है। इसी प्रकार बम्बई तथा
मद्रास के बहुत बड़े भाग को रैयतवारी कहते हैं। उसका भी आशय यही है कि सरकार
ने सीधे किसानों को ही जमीनें दीं। बीच में जमींदार जैसा स्वार्थी वर्ग
वहाँ नहीं है। आसाम का अधिकांश तथा बरार भी रैयतवारी ही है। फिर भी साहूकार
या सूदखोर महाजनों ने सर्वत्रा जमीनें किसानों से खरीद ली हैं और सरकार से
सम्बन्ध सीधा उन्हीं का है। वास्तविक किसान पीछे पड़ गये हैं। उन्हीं
साहूकारों से वही जमीनें लेकरे वे किसान खेती करते हैं। कहीं-कहीं नामदार
या जागीरदार आ गये हैं। जिन्हें सरकारी लाभ के कामों के पुरस्कार-स्वरूप
सरकार ने बहुत से मौजे इनाम या जागीर के रूप में दे दिये हैं। इस प्रकार
देखते हैं कि ये मध्यवर्ती स्वार्थ सर्वत्रा आ गये हैं, जो असली किसानों का
शोषण करते हैं। देशी रजवाड़ों में तो बड़े-बड़े जागीरदार हैं, जो जमींदार भी
हैं और सामन्त शासक भी। उन्हें दीवानी तथा फौजदारी अधिकार भी कमोबेश
प्राप्त है।
इस तरह करैला नीम पर चढ़ गया है। फलत: जमींदार मिटाने के मानी हैं, इन सभी
मध्यवत्तर्वर्गों या स्वार्थों का मूलोच्छेद, क्योंकि भारत का कोई भाग इन
जमींदारों से बचा नहीं है। बहुत ज्यादा रैयती जमीनवाले जो किसान नामधाारी
बिना जमीनवालों को शिकमी या बटाई पर जमीन देते हैं, वे भी मध्यवर्ती
स्वार्थों या जमींदारों के भीतर ही आते जाते हैं।
(शीर्ष पर वापस)
अपुनरावृत्ति
यहाँ पर इन स्वार्थों के मूलोच्छेद को भी समझ लेना होगा। लेकिन ऐसा करने के
पूर्व इनके मूल कारण का भी जान लेना ठीक है। हमने देखा है कि जहाँ जमींदारी
प्रथा की स्थापना नहीं की गयी, वहाँ भी ये जमींदार पैदा हो ही गये। इसीलिए
उनका मिटाना भी आवश्यक हो गया। फलत: मानना होगा कि भारत में सर्वत्रा
जमींदारी के मूलभूत कारण, इसके उत्पादन की सामग्रियाँ मौजूद थीं और हैं,
जिन्होंने लार्ड कार्नवालिस जैसे पिता के न होने पर भी जमींदारी को
प्रकारान्तर और नामान्तर से जन्म ही दिया। यह तो एक आर्थिक एवं सामाजिक
व्यवस्था है, जो अनुकूल भूमि तथा वायुमण्डल में उपजती-पनपती है, फलती-फूलती
है।
ऐसी दशा में इस जमींदारी के मूलोच्छेदन में तब तक पूर्ण सफलता नहीं मिलेगी,
जब तक इसके उत्पादक कारणों का उच्छेद न करे दिया जाये। मान लीजिए कि सभी
जमींदारों को हटाकरे सरकार ने अपने हाथ में सारी जिम्मेदारियाँ ले लीं। मगर
आगे चलकरे होगा क्या? किसान अपनी जरूरतों से विवश होकरे बैंकों से महाजनों
से या सम्पन्न किसानों से ही कर्ज लेंगे। इस प्रकार ये बैंक, महाजन या
सम्पन्न किसान ही समय पाकरे जमींदार बन बैठेंगे, जैसा कि पहले हुआ है। आखिर
बैंक तो किसानी करेंगे नहीं और न महाजन ही किसान बनेंगे। यदि किसान बनाना
भी चाहें, तो होगा क्या? इसीलिए न कि उनके पास ज्यादा जमीन हो जाने पर, सब
में स्वयं खेती करे नहीं सकते? महाजनों या बैंकों की भी यही हालत होती है,
हो सकती है। अधिक जमीन होने पर दूसरों के हाथ बन्दोबस्त करके वे जमींदार बन
बैठते हैं, चाहे उनका नाम जमींदार भले ही न हो। जिन जातियों में जमींदारी
कभी नाम की भी न थी, उनमें भी आज जमींदार पैदा हो गये इसी प्रकार। इसीलिए
जमींदारी का मिटाना बेकार हो गया, यदि उसके जनक कारणों का उच्छेद न किया
गया।
रूस के किसानों की गुलामी जब 1865 में मिटी तो उन्हें थोड़ी-थोड़ी जमीन मिली
लेकिन, उनके पास खेती का सामान न था। नन्हे-नन्हे खेतों के टुकड़ों के लिए,
सामान आता भी कैसे? यदि हल चलाने के लिए उन्होंने किसी प्रकार घोड़े खरीदे,
क्योंकि वहाँ बैलों से हल नहीं चलता था-तो इनके खिलाने के लिए घास वगैरह की
सुविधा न थी। फलत: इन्होंने जमीनें बेच दीं और अन्यत्र चले गये या नौकरी
करे ली। इस प्रकार वहाँ कुलकों, धानी किसानों का जन्म हुआ जो जमींदार ही
थे। संयुक्त परिवार के टूटने तथा उत्ताराधिकार कानून के करते यहाँ बँटवारा
होता है और नन्हे-नन्हे खेत बनकरे बनियों या दूसरों के हाथ चले जाते हैं।
वही लोग समय पाकरे जमींदार बनते हैं।
इसीलिए जमींदारी मिटाने के साथ बहुत-सी दूसरी चीजें भी मिटानी होंगी। तभी
इस मिटाने के कुछ मानी होंगे नहीं तो यह मिटाना हाथी का नहाना ही होगा।
उत्ताराधिकार तथा बँटवारे के कानूनों को भी बदलना होगा। किसके पास जमीन
रहे, किसके पास नहीं, यह बात व्यक्तिगत रूप से तय करनी होगी। कुछ जातियों
को खेतिहर बनाकरे उन्हीं के पास जमीन रहे और उन्हीं के हाथ बेची जाए, खरीदी
जाय, जैसा कि पंजाब में इस शताब्दी के शुरू से ही किया गया था, वैसा करने
से काम न चलेगा। किसान की जमींदार बनेंगे और खाली खरीद-बिक्री होगी। इसीलिए
व्यक्तिगत के बारे में ही यह व्यवस्था की जानी चाहिए। पाँच आदमियों का
परिवार कम से कम और ज्यादे-से ज्यादा कितनी जमीन रख सकता है, यह भी तय करे
देना होगा। बड़ी-से-बड़ी और छोटी-से-छोटी होल्डिग तख्ता कितने एकड़ों की होगी,
यही भी निश्चित करना पड़ेगा। यह भी कानून बनाना होगा कि उन होल्डिग को घटना
या बढ़ना जुर्म है। लगान पर दूसरों को खेत देना भी अपराध करार दिया जायेगा।
जो किसान अपनी जमीन में अच्छी तरह खेती न करें उसकी जमीन के सरकार के हाथ
चली जाने का भी कानून होगा।
लेकिन, इस निषेधात्मक बातों के साथ ही खेती की सफलता के लिए कम-से-कम तीन
विधानात्मक बातों की भी फौरन जरूरत है। एक यह कि वर्तमान जनसंख्या के आधा
को खेती से हटाकरे उद्योग धान्धे या नौकरियों में लगान पड़ेगा। यदि खेती की
पैदावार काफी हो, तो भी भारत की खेती के योग्य भूमि से सिर्फ आज के आधा
लोगों की ही गुजर हो सकती है। मुश्किल से भारत की 30 करोड़ एकड़ जमीन में
खेती होती है। इण्डियन इंस्टीच्यूट ऑफ एग्रीकल्चर नाम की संस्था ने युध्द
के अन्तिम दिनों में अनुसंधान करके बताया था कि प्राय: 25 करोड़ एकड़ जमीन और
भी है, जो खेती के योग्य बनाई जा सकती है। इसमें पर्याप्त समय और पैसा
लगेगा। फिर भी कुल, मिलाकरे 55 करोड़ एकड़ ही तो होगी और प्रति मनुष्य दो एकड़
उपजाऊ जमीन से कम में चलता नहीं। फलत: इतनी जमीन दस करोड़ से अधिक लोगों का
भरण-पोषण करे नहीं सकती। जनसंख्या तो बढ़ती ही जायेगी( मगर जमीन तो बढ़ेगी
नहीं। इसीलिए गाँवों के आधा लोगों को खेती से हटाकरे दूसरी जीविका देना
सरकार का पहला काम होगा।
दूसरा काम है-भूमि के उत्पादन को बढ़ाने तथा समुन्नत कृषि के सभी साधानों को
सम्पन्न करे देना। सिंचाई, खाद अच्छे बीज, खेती की उपज एवं उसके लिए आवश्यक
वस्तुओं की खरीद-बिक्री आदि का प्रबन्ध खुद सरकार को करना पड़ेगा और
स्थान-स्थान पर सलाहकार रखने होंगे, जो किसानों को राय-मशविरा देते रहें।
समुन्नत खेती की शिक्षा का भी प्रबन्ध करना होगा। पंचायती खेती और टैक्टर
आदि की व्यवस्था जरूरी है। पथदर्शन के लिए सरकार के द्वारा संचालित समुन्नत
खेती के बड़े-बड़े फार्मों का होना भी आवश्यक है। एतत सम्बन्धी साहित्य को भी
किसानों तक पहुँचना होगा। प्रचारक और सिनेमा आदि से भी इस में काम लेना ही
पड़ेगा। समुन्नत खेती के लिए इनाम, पारितोषिक आदि की व्यवस्था भी चाहिए।
सरकार का तीसरा काम होगा, लम्बी मुद्दत के लिए नाममात्र के ब्याज पर
किसानों को खेती-बारी तथा घर-गृहस्थी के कामों के लिए ऋण देने की समुचित
व्यवस्था करना। यह ऋण खेती की उपज से ही आसान किस्तों में धीरे-धीरे वसूल
होगा, न कि जमीन नीलाम करके या बिकवा करे। यह भी नियम होना जरूरी है। तभी
तो सरकार और किसान, दोनों ही को चिन्ता होगी कि जमीन की उपज बढ़े। यह भी
यहीं जान लेना होगा कि उपजाऊ जमीन के दस एकड़ों से और मामूली के पचीस एकड़ों
से पांच आदमियों का भरण-पोषण अच्छी तरह हो सकता है। ऐसा परिवार पचीस एकड़ से
अधिक जमीन में अच्छी तरह से खेती नहीं करे सकता। खामखा लापरवाही करता है।
इसीलिए ज्यादे-से-ज्यादे पचीस एकड़ों की होल्डिग , लाभदायक या व्यावसायिक
Economic होगी। बड़ी-से-बड़ी होल्डिग भी पचास एकड़ की होगी। उससे ज्यादा जमीन
कोई न रखेगा, यही नियम चाहिए।
(शीर्ष पर वापस)
सरकार जमींदार न बने
इस सभी बातों के लिए माना जाने लगा है कि सरकार को ही जमींदारी की गद्दी पर
आसीन करे देना ठीक है। जमींदारी के स्थान पर रैयतवारी कायम करने की मानी तो
यही हैं। इस सम्बन्ध के अब तक जो कहा-सुना या नियम-कानून का मसविदा बना है
उसका भी आशय यही है। मगर है यह बात सरासर गलत। रैयतवारी की दशा जमींदारी
प्रान्तों से यदि बुरी नहीं, तो अच्छी भी नहीं, यह जानकारों से छिपी नहीं
है। मेरा तो इस बारे में निजी अनुभव है। अत: मुझे यह कहने में जरा भी हिचक
नहीं कि रैयतवारी सरासर धोखा है। इसमें किसानों का खून बुरी तरह होता है।
सचमुच किसानों को वहाँ कोई कानूनी हक शायद ही है। मेरा अभिप्राय 80 प्रतिशत
या उससे भी अधिक ऐसे किसानों से है, जो साहूकारों, इनामदारों आदि के गुलाम
हैं और जिनके द्वारा वे लूटे जाते हैं। यह लूट पुरानी है। मगर उन्हें इससे
बचाने के लिए अभी तक कौन से कानून बने हैं। इधर हाल में इस ओर पाँव बढ़ा है।
जरूर। मगर देहली हनौज दूरस्त। इनसे तो जमींदारी प्रान्तों के किसानों की
दशा कहीं अच्छी है। जमींदारों के विरुध्द इनके कानूनी हक हैं। मगर वहाँ?
वहाँ खाक है और जब जमींदारों के स्थान पर सरकार लगान लेती ही रही, तो
जमींदारी मिटी क्या खाक? जमींदारी मिटाने के तो मानी ही हैं कि किसान को
लगान या मालगुजारी के नाम पर कौड़ी भी न देना पड़े।
एक बात और। सरकार रुपये पैसे के मामले में बड़ी बेमुरव्वत होती है। इसलिए
उसके पावने की वसूली में बड़ी सख्ती होती है। वह तो मशीन ठहरी न? उसमें
मनुष्यता का पुट कहाँ, लेश कहाँ? उसका तो बजट पूरा होना चाहिए। यदि आय की
वसूली न होगी, तो व्यय कैसे चलेगा। जमींदारों की तरह कर्ज लेकरे तो उसका
काम चल नहीं सकता। कर्ज की मंजूरी तो पार्लियामेण्ट या व्यवस्थापिका सभा से
लेनी होगी( और जब बजट में आय की मदें हैं, तो कर्ज का सवाल उस सभा के सामने
क्यों? यदि वसूली न होती है, तो अधिकारी अयोग्य है। उन्हें हटाकरे दूसरे
रखे जायें, यही हो सकता है। इसीलिए सरकारी मशीनरी तो निर्दयता के साथ ठीक
समय पर, किस्त वसूली करेगी ही। नहीं तो जमीनें जब्त करे लेगी। दोनों हालतों
में किसानों में घोर असन्तोष एवं तज्जनित विद्रोह की अग्नि का भड़कना
अनिवार्य होगा। जिनकी आदत पड़ी है, वर्षों या कई सालों बाद अपनी मर्जी से
सुविधा के अनुसार देने की, उन्हीं को यह सख्त से सख्त अनुशासन और पाबन्दी
किस दिशा में ले जायेगी, इसका अन्दाज आसानी से हो सकता है। इस आग में घी का
काम करेगी माल-महकमे के कर्मचारियों की भ्रष्टता और घूसखोरी। उनकी
तुम्बाफेरी किसानों को खून के आठ-आठ ऑंसू रुलाएगी याद रहे। खास महाल के इन
कर्मचारियों का जिन्हें अनुभव है, वह समझ सकते हैं कि वे क्या गजब ढायेंगे।
यह भी बात है कि जमींदारों के पुराने अमले ही कर्मचारी बहाल होंगे। फिर तो
'शैतान के हाथ में मशाल' देने की हालत होगी। यह रैयतवारी खास महाल का
भीषणतम रूप होगी और कलक्टर होगा जमींदारों का दादा गुरु। किसानों के लगान
में न तो छूट होगी और न उन्हें दूसरी सुविधायें ही मिलेंगी, जैसा कि आगे
विदित होगा। उन्होंने बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँध रखी हैं। उन पर पानी फिर जायेगा।
उसी के साथ यह सख्ती और यह तुम्बाफेरी उन्हें आपे से बाहर करे देगी, यह
अन्देशा है। जब किस्त पर लगान न दे सकने पर उनकी जमीनें जब्त होने लगेंगी,
तो उनके दिमाग का पारा ऊँचा चढ़ेगा। जमींदार और उनके पिट्ठू उन्हें और भी
उकसायेंगे यह मानी हुई बात है। नतीजा स्पष्ट है। इसीलिए जमींदारी की गद्दी
पर बैठने की भूल सरकार हर्गिज न करे। नहीं तो दुश्मनों के हाथ में खेलेगी।
शत्रु ताक लगाये बैठे हैं यह सबको मालूम ही है।
(शीर्ष पर वापस)
किसान जमीन का मालिक हो
प्रश्न होता है, तब हो क्या? जमींदारी के स्थान पर जमीन के बन्दोबस्त की
कौन-सी प्रथा जारी हो? भूमि की व्यवस्था कैसी हो?
उत्तर है-जमीन के मालिक किसान ही हों। निजी जोत जमीनें किसान बोये उतना उसी
की है, यही कानूनी व्यवस्था जारी हो। जमीन को राष्ट्र या समाज की सम्पत्ति
बनाने के समर्थक लेनिन जैसे महापुरुष को भी यही काम रूसी क्रान्ति के बाद,
1917 में, करना पड़ा था। उसने किसानों में मौजूदा जमीन की भूख देख ली थी।
उसे यह भी मालूम था भोला-भाला रूसी किसान जमीन की राष्ट्रीयता की बात समझता
नहीं, वह उससे बुरी तरह भड़कता है, भड़केगा। वह तो जमीन को अपनी देखने को
भूखा है। यदि उसे यह विश्वास न हुआ कि क्रान्ति के फलस्वरूप उसकी जोत की
जमीन अपनी हो गयी, तो वह विद्रोही बन जायेगा और क्रान्ति को मिट्टी में
मिला देगा। फलत: लेनिन ने अपनी भूमि-सम्बन्धी आदेश में Land Decree किसानों
को तत्काल जमीन का मालिक घोषित करके, उनके दिलों को जीत लिया। लेनिन की उसी
जीत के कारण, पीछे, धीरे- धीरे वहाँ पंचायती एवं सामूहिक खेती का भी प्रसार
हो सका। तब भारत उसका अपवाद नहीं हो सकता। यहाँ भी यही करना होगा।
साथ ही, लगान या Rent or Revenue की प्राणाली को खत्म करके या भू-करे की
प्रथा जारी करनी होगी। जमीन की उपज किसानों को करना होगा, यही नियम हो।
जैसे दूसरे-दूसरे आय करों का कायदा है, एक निश्चित आय को छोड़करे शेष पर करे
लगता है, किसानों के सम्बन्ध में भी वही किया जाना चाहिए। पाँच व्यक्तियों
के परिवार के लिए साल में बारह सौ रुपये या ऐसी ही आय छोड़, शेष पर करे लगे,
तो ठीक हो। जब खेती की समुन्नति के सभी साधन किसानों को मिल जायेंगे, तो
गल्ले या किराने की फसलों मनी क्रॉप्स से उन्हें पर्याप्त आमदनी होगी यह
निर्विवाद है। किराने से तो आज भी काफी पैसे मिलते ही हैं। जब घनी खेती
इनटेनसिव कल्टीवेशन होगी तो यह आय और भी बढ़ेगी। ऐसी दशा में इस तर्क के लिए
स्थान न होगा कि 50 एकड़ से ज्यादा जमीन जब किसी के पास ही नहीं, और
साधारणतया तो हर एक के पास 20-25 ही एकड़ रहेगी तो वह भूमि- करे या कृषि-करे
देगा? पंचायती एवं सामूहिक खेती का प्रसार होने तथा मार्केटिंग की ठीक
व्यवस्था करे देने पर, सरकार को पर्याप्त पैसे मिलेंगे। सरकार को भी फिक्र
होगी कि किसानों की आय बढ़ायें ताकि हमारी भी आय बढ़े और दोनों के पारस्परिक
सद्भाव का इससे बढ़िया साधन और क्या हो सकता है?
(शीर्ष पर वापस)
उत्पादन का साधन न कि करे का
अब तो यह बात भी सर्वमान्य हो गयी है कि लगान, माल या भूमि-करे से कोई
राष्ट्र या उसकी सरकार चल नहीं सकती। सरकारें अब आयकरे पर ही अवलम्बित रहा
करती हैं। जितनी ही वृध्दि उद्योग-ध्न्धे की होती है, सरकार की आमदनी उतनी
ही बढ़ती है। इसलिए सरकार को फिक्र भी बराबर रहती है कि ये उद्योग- ध्न्धे
कैसे समुन्नत हों। भारत में तो इस चीज की और भी जरूरत है। फलत: सरकार को
यदि आयकरे का ही सहारा हो तो विवश होकरे वह उद्योग- ध्न्धे का प्रचार
करेगी, लेकिन इनके लिए कच्चे माल की आवश्यकता होती है, और उनका उत्पादन
किसान की जमीनें करेंगी। जमीन के तो दो ही काम हैं। राष्ट्र के खाने-पीने
के लिए अन्न, फल, शाक, तरकारी पैदा करे और कारखानों के लिए आवश्यक कच्चा
माल। यही तो उसके मौलिक काम हैं। फिर उससे लगान या माल पैदा करने के क्या
मानी? इन्हीं से सरकार की आय होगी, जैसे दूध से दही। फिर गाय-भैसों से सीधे
दही पैदा करने की कोशिश क्यों? यदि खाद्य पदार्थ सस्ते हों, राष्ट्र और
समाज शक्तिशाली और हृष्ट-पुष्ट हों? इसी तरह कच्चा माल सुलभ और सस्ता हो,
उद्योग-धन्धे चमके और राष्ट्र समृध्दशाली हो। अमेरिका की समृध्दि का प्रधान
कारण यह है उसने जमीन से लगान या कीमत लेने के बजाय किसानों को मुफ्त
जमीनें दी हैं और खेती में बिना कहे सभी सुविधायें पहुँचाई हैं। भारत को भी
यही करना होगा। राष्ट्रीय सरकार लगान लेने की परवाह छोड़करे कृषि की
सर्वांगीण उन्नति की ही परवाह करे, किसानों की खेती की समुन्नति का मार्ग
प्रशस्त करे, बिना माँगें सभी साधन उनके पास पहुँचा दे। तभी हमारी
अन्न-समस्या और कच्चे माल की समस्या हल होगी। गत दशक में यहाँ की जनसंख्या
15 प्रतिशत बढ़ी। उत्तरोत्तर बढ़ने वाली संख्या को अन्न-वस्त्र देने का कोई
अन्य मार्ग है भी नहीं।
(शीर्ष पर वापस)
मुआवजा या मूल्य
जमींदारी मिटाने के सिलसिले में यह भी प्रश्न उठा हुआ है कि जमींदारों को
इसके बदले में क्या दिया जाये? जमींदारी के एवज में जो दिया जाये, उसे
मुआवजा भी कहते हैं। यह मुआवजा कमोबेश हो सकता है। इसलिए जमींदारी का मूल्य
देकरे ही उसे खरीद लेने की बात चलती है। लोग इस सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी उड़ानें
भी मारते हैं कि यह दिया कैसे जाये, किस रूप में कहाँ से? इसलिए इस पहलू पर
भी गौर करे लेना जरूरी है। यह भी कह दें कि हम यहाँ इस मूल्य का मुआवजे की
नैतिकता अनैतिकता के पहलू पर विचार व्यर्थ समझते हैं, हालाँकि वह अवश्य ही
अपना महत्त्व रखता है। हमें व्यावहारिक दृष्टि से ही इस पर विचार करना है
और इस समय यही जरूरी भी है।
कुछ लोग कहते हैं कि सरकार को सिर्फ बिहार प्रान्त में ही डेढ़-दो अरब रुपये
चाहिए मुआवजे के लिए यदि उसकी अपनी ही रेट मान ली जाय और जमींदारों की माँग
ठुकरा भी दी जाये। लेकिन, इतने रुपये वह लायेगी कहाँ से? यदि किसी तरह
लायेगी भी तो अन्ततोगत्वा किसानों से ही वसूल करके वह कर्ज धीरे-धीरे
चुकायेगी। ऐसी दशा में किसान ही अपने-अपने कब्जे की जमीनों की कीमत सरकार
या जमींदारों को चुकता करे क्यों न दें और जमीन के मालिक क्यों न बन जायें?
तब जमींदारों की गद्दी पर सरकार को बैठने का सवाल भी न रहेगा। उनका यह भी
कहना है कि युध्द और महँगी के चलते किसानों के पास पैसे भी काफी हैं। मगर
यह गलत बात है। महँगी ने अधिक से अधिक केवल 10-15 फीसदी किसानों को ही
जिनके पास काफी जमीनें हैं और गल्ले आदि बेचते हैं, धानी बनाया है। लेकिन
85-90 प्रतिशत को तो खाने-भर को भी अन्न नहीं होता। फलत: वे खरीदते-खरीदते
अत्यन्त दरिद्र हो गये हैं। उन्हें अपने परिवार का पेट काटना पड़ा है। यदि
उन्होंने पुराने ऋण चुकाकरे कुछ जमीनें लौटाई हैं, तो उसकी बड़ी महँगी कीमत
इस पेट काटने के रूप में चुकायी गयी है। परिवार को प्राय: मार डाला ही है,
इतना मारा है कि उससे ज्यादा अब मार भी नहीं सकते। फिर वह जमींदारों को
देंगे क्या खाक? तो क्या 10-15 प्रतिशत धानी किसान ही सब कीमत चुकाकरे नये
जमींदार बनें यही मंशा है और उत्तर प्रदेश की सरकार और वहाँ की कांग्रेस की
पूरी शक्ति पूरी छह मास लगाने तथा सभी प्रकार के उचित-अनुचित उपायों को काम
में लाने पर भी मुश्किल से जो केवल 16 करोड़ ही रुपये किसानों से वूसल हो
सके हैं, वे क्या इस बात के लिए पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं कि किसानों से
रुपये वसूलना बालू से तेल निकालना है? लगान के दसगुनी मात्र की वसूली की जब
यह दशा है, तो 16-20 गुने की क्या बात? पौने दो अरब रुपये वसूलने की तैयारी
थी, मगर मिले सिर्फ 16 करोड़। लगान आधी हो जाने का बड़ा प्रलोभन भी कुछ करे न
सका।
दस से बीस साल तक के लगान से कम तो ये जमींदार लेंगे ही नहीं( हालाँकि वे
40 साल तक की बातें करते हैं तो क्या इतनी बड़ी रकम साधारणत: किसान एक किस्त
या दो-तीन किस्तों में भी दे सकते हैं? याद रहे कि किस्त होने पर यह रकम
कुछ-न-कुछ बड़ी ही होगी और अगर दे भी तो, फिर इस लम्बी मुद्दत के भीतर खेती
में सुधार के लिए रकम कहाँ से लायेंगे? कर्ज लेकरे मूल्य चुकाने पर सूद
देते-देते ही मरेंगे। सरकार के पास भी पैसे कहाँ कि सुधार करे। यदि कर्ज ले
तो सूद देना पड़े, इन्हीं किसानों को, घुमा-फिरा करे या सीधे। यह भी बात
होगी कि उस दशा में छोटे-बड़े सभी जमींदारों को एक ही दर में मूल्य मिलेगा,
वे ऐसा ही दावा करेंगे हालाँकि बाजार में ऐसा नहीं होता। वहाँ बड़े जमींदार
कम मूल्य पाते हैं।
यदि कहा जाय, सरकार ही कर्ज लेकरे कीमत चुकायेगी तो यह भी असम्भव जैसी चीज
होगी। कहा जाता है, 40 साल में धीरे-धीरे सरकार सारा मुआवजा चुकायेगी।
लेकिन, सिर्फ बिहार में ही पौने दो अरब की यह रकम होगी, जिसके साफ मानी है,
सालाना साढ़े चार करोड़ चुकाना। उसका सूद भी ढाई रुपये सैकड़े के हिसाब से
इतना ही होगा। इस तरह नौ करोड़ तो यही रकम हुई। 15-20 साल तक सूद में नाम
मात्र की ही कमी होगी। फलत: कमबेश इतना ही देना पड़ेगा। साथ ही, किसानों से
लगान वसूली आदि का व्यय बीस प्रतिशत के हिसाब से तीन और चार करोड़ के बीच
होगा। फसलों के मारे जाने के कारण साल में कुल मिलाकरे एकाध करोड़ छूट भी
देनी होगी। एकाध करोड़ की वसूली हर हालत में नहीं ही होगी इस प्रकार
कम-से-कम 14-15 करोड़ का सालाना खर्च होगा और जमींदारी की आय बतायी जाती
है-कमबेश 13 करोड़ ही। फलत: यह तो घाटे का सौदा होगा और किसानों के लिए
सरकार कुछ भी नहीं करे सकेगी। उससे न सिर्फ असन्तोष एवं विद्रोह फैलेगा,
बल्कि खेती की उन्नति न होने से लोग भूखों मरेंगे और दूसरे उद्योग- धन्धे
भी प्रगति नहीं करे सकेंगे। फिर गाँव के आधा से ज्यादा लोगों को खेती से
हटाकरे रखा कहाँ जायेगा? उधर आबकारी की प्राय: पाँच करोड़ की आय से सरकार को
हाथ धोना ही है। शराब आदि के रोकने के निमित्ता अधिक पुलिस वगैरह रखने ही
होंगे, जिनके लिए भी एकाध करोड़ चाहिए ही। फलत: बिक्रीकरे सेल्स टैक्स से जो
नवीन आय होने की है, उससे तो आबकारी वाले घाटे की भी पूर्ति नहीं हो सकती,
फिर उन्हीं रुपयों में से कृषि की समुन्नति में खर्च करने की आशा कहाँ है?
हाँ, एक बात तो हो सकती है। यदि जमींदारों को मुआवजे 60 या 80 साल में
चुकाने का निर्णय हो जाये, तो सालाना खर्च में सरकार को कमी होगी और उसी
बचत से शायद खेती की उन्नति की योजना भी की जायेगी। 80 साल से कम में
चुकाने पर तो यों भी शायद ही काम चलेगा। मगर क्या यह सम्भव है? क्या
जमींदार इसके लिए राजी होंगे? क्या इस तरह का कानून बनाया जा सकेगा? क्या
आज की तेजी से बदलती दुनिया में यह बात कोई मानी रखती है? यदि कानून भी बने
और जमींदारों को विवश भी किया जाये? ये बड़े प्रश्न हैं, असाधारण सवाल हैं,
इनका उत्तर कौन देगा?
(शीर्ष पर वापस)
मुआवजा नहीं, जमीन दो
इसलिए उचित यही है कि कीमत या मुआवजे का प्रश्न ही न उठाया जाये। इससे
जमींदारों को समाज में आगे वह सम्मानपूर्ण स्थान भी न मिलेगा, जो मिलना
चाहिए। कीमत के पैसे जिन उद्योग-व्यापारों में वे लगायें उन पर भी तो आगे
आक्रमण होगा ही, वे भी समाज की सम्पत्ति बनेंगे ही, तो फिर उन्हें स्थायी
लाभ क्या हुआ? इसके चलते उनके साथ बराबर जो चख-चुख चलती रहेगी, जनसाधारण का
रुख उनके प्रति अच्छा न रहेगा। इसलिए हम चाहते हैं कि उन्हें अच्छी तरह
भरण-पोषण के लायक जमीनें हैं या नहीं यही देखा जाय और उन जमीनों में
समुन्नत खेती का प्रबन्ध सरकार द्वारा करे दिया जाये। अगर कुछ को जमीन न दी
जा सके तो उनके समयोचित जीवनयापन के लिए कारबार या नौकरी भी दी जा सकती है।
नोट-यह पुस्तिका प्रथम बार श्री फागू राय मंत्री किसान सभा बक्सर द्वारा
अभ्युदय प्रेस बक्सर से छपवायी गयी थी-सम्पादक
(शीर्ष पर वापस) |