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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

9. ज़मींदारी का ख़ात्मा कैसे हो?(मई 1946)
 

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जमींदारी का खात्मा कैसे हो? (मई, 1946)
    भूमिका के कुछ शब्द
1. जमींदार अकेले पड़ गये
2. मुआवजा देकरे खात्मा
3. तो क्या करें?

भूमिका के कुछ शब्द

जमींदारी उस सामाजिक और आर्थिक प्रणाली का अवशेष चिद्द है जो किसी जमाने में दुनिया-भर में प्रचलित थी( लेकिन संसार के अधिकांश हिस्से से आज भगा दी गयी है। वह देश भी, जिसने किसी वजह से आज तक इसे बर्दाश्त करे रखा था, अब इसे मिटा देने के लिए आतुर है यह बात हम बालकन प्रदेशों-रूमानिया, हंगरी आदि-और चीन में देख रहे हैं। भारत को भी इस मामले में किसी से पीछे नहीं रहना है। कांग्रेस ने अपने चुनाव-घोषणा पत्र में जो यह ऐलान किया है कि सरकार और किसान के बीच में कोई शोषकवर्ग न रहने पायेगा उसका सीधा अर्थ यही है। इस पूँजीवादी युग में इस जमींदारी रूपी सामंतशाही प्रथा के लिए स्वभावत: कोई भी स्थान नहीं है। यही कारण है कि अपनी प्रगति के पथ पर अग्रसर होने वाले भारत के पूँजीवादी इस जमींदारी प्रथा को विधिव दफना देना चाहते हैं।

जमींदारी का अर्थ है किसानों की वास्तविक स्थिति से कोई सम्पर्क न रखते हुए उसने मालिकाना पावना वसूल करना। इस जमींदारी के चलते रक्त चूसने वालों का एक ऐसा दल पैदा हो गया है जो केवल लगान वसूला करता है, जिसके अनेक रूप और विभिन्न नाम पाये जाते हैं और जिसका सिर्फ यही पेशा है कि किसानों के पसीने की गाड़ी कमाई पर मौज उड़ायें।

लगान चाहे कितना ही सख्त और अनुचित हो, फिर भी उसके ऊपर कानून का वरदहस्त है। फलत: ज्यों ही किसान के जिम्मे लगान बाकी पड़ा कि सरकारी कचहरियाँ जमींदार के लगान वसूली में चटपट सहायक बनने के लिए तैयार बैठी रहती हैं, चाहे लगान का यह बकाया उन कारणों से ही क्यों न हो जिन पर किसान का कोई वश न हो। किसानों के ऊपर आने वाली आपदाओं और जमींदारों की नृशंसता और सख्ती का एकमात्र कारण यही है कि उसका लगान अटल है।

जमींदारी की इस बला ने रैयतवारी इलाकों और प्रान्तों का भी पिण्ड न छोड़ा और वहाँ भी उन लगानचट्ट मध्यवर्ती दलालों की सेना पैदा हो गयी है। चाहे आप उन्हें साहूकार कहें, खोन कहें, जागीरदार कहें, तालुकदार कहें, जन्मी कहें या किसी और ही नाम से पुकारें। लेकिन किसी न किसी रूप में ये लगान-चट्ट वहाँ भी मौजूद हैं और उनका काम है किसानों के जीवन-रक्त को चूस लेना। रैयतवारी प्रान्तों में भी प्राय: सबकी-सब जमीन वास्तविक खेतिहरों के हाथ से निकलकरे इन्हीं शोषकों के हाथ में चली गयी हैं। और असली किसान या तो खेत-मजदूर बन गये हैं या उनकी ऐसी हालत है कि जब चाहें जमीन उनसे निकाल ली जाये।

इसीलिए जमींदारों या लगान-चट्ट मध्यवर्ती दल का खात्मा तब तक पूर्ण रूप से नहीं हो सकता जब तक किसी-न-किसी रूप में उनके पुनरपि पैदा हो जाने का जरा भी मौका या थोड़ी भी गुंजाइश रह जाती है। फलत: जमींदारी मिटाने के मानी यह है कि जमीन के बन्दोबस्त की ऐसी प्रथा प्रचलित हो जाये जिसमें इस बात के लिए जरा भी गुंजाइश न हो कि वास्तविक खेतिहरों के हाथ से जमीन निकल जाये और ऐसे व्यक्तियों या दलों के हाथ में चली जाये जिनके भीतर लगान-चट्ट करने और किसानों की स्थिति से कोई सम्पर्क न रखते हुए भी अपना पावना वसूल करने के मर्ज के मारक कीटाणु मौजूद हों। जब तक इस बात की गारण्टी न हो जाती तब तक जमींदारी मिटाना केवल रस्मअदाई की चीज रहेगी और उसका असली लक्ष्य पूरा न होगा। आगे लिखी पंक्तियों के जरिये सिर्फ इसी बात का रास्ता साफ करने की कोशिश की गयी है, न कि और कुछ।

-स्वामी सहजानन्द सरस्वती

बिहटा पटना
     मई दिवस, 1946

1. जमींदार अकेले पड़ गये

''मौजावारी प्रथा चलाने के लिए इस बात की जरूरत होगी कि जमींदार, तालुकदार और मालगुजार जैसे मौजूदा स्थिर स्वार्थों को मिटा दिया जाये।'' (गाँधीवादी पध्दति, पृष्ठ 63)

जमींदारी को बचाने के लिए आज जो यत्न जमींदार लोग करे रहे हैं उसमें अब बहुत देर हो चुकी है। और इस काम में उनके पुराने सहायक और मददगार भी साथ नहीं दे रहे हैं। फलत: उनकी हार निश्चित है। एक दिन वह भी था जब ब्रिटिश जनता और खास करे ऊँचे दर्जे के अंग्रेज इस जमींदारी प्रथा या दवामी बन्दोबस्त के सबसे बड़े हामी थे। बल्कि यों कहना चाहिए कि सन् 1793 ई. के मार्च में इस प्रथा को जन्म दिया ही गया, केवल इसलिए कि ब्रिटिश शक्ति और स्वार्थ के लिए आधार स्तम्भ और सहायक बने। यह बात इसके जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस ने अपने 3 फरवरी, 1790 ई. की रिपोर्ट में यों मानी है, 'जमीन के बन्दोबस्त के सिध्दान्त में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आज हमारे लिए अनिवार्य हो गया है। क्योंकि हमें इस मुल्क भारत को फिर सम्पन्न बनाना है और इसमें यह योग्यता ला देनी है कि संसार के इस भाग में यह देश ब्रिटिश स्वार्थ और शक्ति का एक जबर्दस्त आधार स्तम्भ बना रहे।

बेशक यहाँ पर लार्ड कार्नवालिस ने जमींदारी प्रथा चालू करने के उद्देश्यों में एक यह भी बताया है कि यह देश सुखी-सम्पन्न बने। मगर बाद की घटनाओं ने स्पष्ट दिखा दिया है कि दरअसल यह बात न थी और है यह ध्रुवसत्य। सर मणिलाल नानावती ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'भारत की देहाती समस्या' The Indian Rural Problem में यही बात स्वीकार की है। यह हम स्थानांतर में उद्दत कर चुके हैं। लार्ड कार्नवालिस के अन्तिम वाक्य में इस प्रथा का असली उद्देश्य लिखा हुआ है। जमींदार तो पैदा किये ही गये केवल इसीलिए कि यहाँ पर वे प्रतिक्रियावादी कार्य करें और भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए आधार-स्तम्भ बनें।

लेकिन विगत डेढ़ सौ साल के इस जमींदारी जीवन में परिस्थिति का ऐसा आमूल परिवर्तन हो गया है और जमींदारों ने अपना ऐसा नग्न रूप प्रकट करे दिया है कि बंगाल के 'लैण्ड रेवेन्यू कमीशन' को मार्च सन् 1940 ई. में इस बात की सिफारिश करनी पड़ी कि यह जमींदारी जड़-मूल से मिटा दी जाये। यह वही सरकारी कमीशन था जिसके अध्यक्ष सर फ्रांसिस फ्लाउड-जैसे ख्यातनामा अंग्रेज थे और इसीलिए इसे फ्लाउड कमीशन भी कहते हैं। इस नियुक्ति जमींदारी प्रथा पर विचार करने के ही लिए हुई थी। अन्यान्य बातों के अलावे उस रिपोर्ट के 57 वें पाराग्राफ में कहा गया है कि 'सन् 1859 ई. वाले लगान-कानून Rent Act के बनने के पहले तक रैयत किसान लोग बेशक जमींदारों की मर्जी पर ही छोड़ दिये गये थे। फलत: जमींदारों ने उनके साथ उदार व्यवहार कतई नहीं किया। हालाँकि उसके लिए दवामी बन्दोबस्त के नियम-कायदों में ताकीद की गयी थी। इसीलिए भारत सरकार को इन किसानों की दशा के बारे में लिखना पड़ा कि उनसे कसके लगान वसूला गया तथा वे दरिद्र एवं मजलूम बना दिये गये।' फ्लाउड कमीशन की रिपोर्ट ने इस जमींदारों के दुर्गुणों, बुराइयों और सोलह आने निकम्मेपन को निसन्देह सिध्द करे दिया है उसमें इस प्रथा पर हर दृष्टिकोण से विचार किये जाने के बाद यही निष्कर्ष निकाला गया है कि यह जमींदारी जनता की प्रगति एवं जमीन को पैदावार का रास्ता चट्टान की तरह रोके खड़ी है।

सर अजीजुल हक ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'हल चलाने वाला' The man behind the plough के 255 वें पृष्ठ में सन् 1883 ई. के बंगाल के गवर्नर के एक भाषण को उद्दत किया है जो व्यवस्थापिका सभा में दिया गया था। वह यों है, 'सन् 1793 और 1859 के मध्यवत्ती पूरे 66 साल तक जहाँ एक ओर जमीन पर अधिकार जमाने वाले जमींदारों की ताकत और दौलत खूब ही बढ़ी, वहाँ दूसरी ओर आम पंचायतें चौपट हो गयीं, हर परगने के लगान की दर, जिसके चलते हर ग्राम के निवासी देही किसानों का लगान बढ़ने नहीं पाता था, लापता हो गयी और जमींदारों की लूट-खसोट तथा जोर-जुल्म ने किसानों के बचे-खुचे कानूनी अधिकारों के चिद्द को भी प्राय: मटियामेट करे दिया। यों तो ये अधिकार मुट्ठी-भर धानी-मानी और प्रतिष्ठित लोगों के अलावे दूसरों को शायद ही प्राप्त थे।'

अपनी अंदरूनी बुराइयाँ और परस्पर विरोधी बातों के चलते ही यह जमींदारी बात-की-बात में खत्म हो गयी रहती, यदि गैर-कानूनी कानून और ब्रिटिश सरकार के अस्त्रा-शस्त्रा ऐन मौके पर इसकी रक्षा और पुष्टि के लिए नहीं आ धमकते। यही कारण है कि इसके जन्म के बाद 6 साल गुजरते-न-गुजरते ही जमींदारों तथा उनके मामूली अमलों तक को मनमाने सुरसामुखी अधिकार 'काले सप्तम विधान' के द्वारा दिये गये जैसा कि न्यायाधीश मिस्टर फिल्ड ने अपनी 'जमींदारी' Land holding नामक अंग्रेजी पुस्तक में लिखा है। यही बात फ्लाउड कमीशन की रिपोर्ट के 51 वें पाराग्राफ में यों लिखी है, 'जो परिस्थिति पैदा हो गयी उसके चलते 'काला सप्तम' सन् 1799 ई. का सातवाँ विधान जारी किया गया जिससे जायदाद की जब्ती के मुतल्लिक मनमाने सुरसामुखी अधिकार जमींदारों को दे डाले। मालगुजारी की रक्षाके लिए जायदाद की जब्ती का सख्त-से-सख्त कानून बना डालना उस समय की सरकार के लिए प्रबन्ध की दृष्टि से निहायत जरूरी हो गया था।' इस काले कानून का परिणाम यह हुआ कि जमींदार और उनके अमले बेधाड़क उन किसानों के जनानखानों तक में घुस सकते थे जिनके जिम्मे लगान बाकी था और इस काम के लिए अधिकारियों या सरकारी न्यायालयों से तलाशी का वारण्ट निकलवाने की कोई भी जरूरत न थी। जिस किसान के जिम्मे लगान बाकी हो, उसके पड़ोसी के दरवाजे पर पड़े हुए माल-असबाब के बारे में यदि उन्हें सिर्फ शक हो जाये कि ये बकिओतावाले किसान के ही हैं तो उन चीजों को भी वे जब्त करे ले सकते थे। इसी तरह के गैर कानूनी कानूनों ने ही जमींदारी को बचाया, न कि उसको अपनी किसी भी खूबी ने।

आज से बहुत पहले सन् 1830 ई. में ही ये और इसी तरह की इस जमींदारी की दूसरी बुराइयों एवं दुर्गुणों की पूरी जानकारी ब्रिटिश जनता को ही चुकी थी, जबकि हाउस ऑफ कामंस पार्लियामेण्ट के द्वारा नियुक्त उपसमिति इस नतीजे पर पहुँची कि 'जमींदारी प्रथा को जारी करते हुए जो सदाकांक्षा लार्ड कार्नवालिस ने जाहिर की थी वह पूरी न हो सकी।' इसलिए फ्लाउड कमीशन न अपनी रिपोर्ट के 55वें पाराग्राफ में कहा है कि 'उस उपसमिति सेलेक्ट कमिटी ने यह मजेदार सुझाव पेश किया कि 'सरकार निजी तौर पर या सार्वजनिक रूप से जमींदारियों को खरीद ले, ताकि किसानों के अधिकारों की रक्षा की जा सके।' फलत: कीमत या मुआवजा देकरे जमींदारी के खत्म करने का विचार बहुत पुराना है और उसी पर फ्लाउड कमीशन ने सिर्फ मुहर लगा दी है।

लेकिन अगर आज भी ऐसे लोग हों जिन्हें इस जमींदारी के कतई निकम्मेपन तथा पैशाचिकता पर शक हो तो उनसे हमारी करेबध्द प्रार्थना है कि वे अकाल जाँच कमीशन, जिसे 'उडहेड कमीशन' भी कहते हैं, की अन्तिम रिपोर्ट को और खासकरे उसके 275 वें पृष्ठ को ध्यान से पढ़ जायें। उससे पता चलेगा कि बिहार, उड़ीसा और मद्रास की लाटशाही सरकारों तथा आसाम की सरकार ने भी यही सिफारिश की है कि जमींदारी दफना दी जाये। उस रिपोर्ट में लिखा है :

''बिहार सरकार की धारणा है कि दवायी बन्दोबस्त की प्रथा खेती की उपज की वृध्दि एवं किसान के जीवन-यापन के विकास सुखमय जीवन का रास्ता रोके खड़ी है। इसीलिए सरकार इस प्रथा के मिटाने पर गंभीर विचार करे, यह वांछनीय है। साथ ही, उस सरकार ने यह भी कहा है कि बहुत-सी ऐसी भी जमींदारियाँ हैं जिनकी अपेक्षा सरकारी खास महालों में कोई उल्लेखनीय खूबी है। यह भी बात है कि रैयतवारी प्रान्तों के किसानों के जीवन-यापन का पैमाना दवामी बन्दोबस्तवाले प्रान्तों के किसानों के उस पैमाने से कुछ बहुत अच्छा नहीं है। फलत: यह आवश्यक है कि खेती का नये तौर पर संगठन लम्बे पैमाने पर किया जाय, जिसमें सहयोग-मूलक खेती, सिंचाई का विस्तृत प्रबन्ध तथा खेती की प्रगति की सभी सुप्रसिध्द रीतियों के विस्तृत एवं घने प्रयोग भी आ जायें। इसके सिवाय जिन लोगों के लिए खेती में गुंजाइश न हो उनके लिए दूसरी रोजी का इन्तजाम हो। बिहार सरकार का यह भी ख्याल है कि ऊपर लिखी प्रगति की आसानी के लिए यह जरूरी है कि सरकार तथा किसान से मध्यवर्ती लगान वसूलने मालिकान के सभी हकों को सरकार हथिया ले।

''आसाम सरकार का कहना है कि जमींदारी की मातहती में रहने वाले लोग अपने को आमतौर से अरक्षित समझते हैं। फलत: जब तक यह खूसट प्रथा खत्म न करे दी जाये, किसी भी और परिवर्तन से पूरा काम न चलेगा।

''मद्रास सरकार का फर्माना है कि अगर किसी समय इस जमींदारी प्रथा की कोई उपयोगिता रही भी हो तो वह अब खत्म हो चुकी है।

''उड़ीसा की सरकार ने अपना विचार प्रकट किया है कि दवामी बन्दोबस्त की प्रणाली की अपेक्षा रैयतवारी प्रथा अच्छी जरूर है। फिर भी इसका जो एकमात्र उपाय है कि दवामी बन्दोबस्त की प्रथा जमींदारी खत्म करे दी जाय उसे व्यावहारिक रूप कम-से-कम कई सालों तक दिया नहीं जा सकता।''

इस प्रकार जमींदार जो अकेले और असहाय अवस्था में पड़ गये हैं वह बात सिर्फ इसी ठोस सत्य पर खत्म नहीं हो जाती कि उनके जन्मदाता और खैरखाह अंग्रेज लोग इस विपत्ति में उन्हें छोड़करे उनके दुश्मनों, जमींदारी मिटाने वालों, से मिल गये हैं। जमींदारों की ओर से यहाँ पर कहा जा सकता है कि आखिर अंग्रेज तो बिराने और विदेशी ठहरे न? और उनने देखा कि जमींदारों के साथ का उनका मतलबी गठबन्धन बेकार सिध्द हो रहा है। क्योंकि विदेशी जुए को उठा फेंकने के लिए भारतीय जनता की बगावत की उतरोत्तार बढ़ने वाली लहर के सामने अब ये जमींदार खुद-ब-खुद भीगी बिल्ली हो रहे हैं, तो फिर जिस राजनीतिक उद्देश्य से वे बनाये गये थे उसे अब पूरा कैसे करे सकते हैं? इसीलिए स्वभावत: उनने अपना दिमाग बदल दिया। लेकिन भारतीय मालदारों और कारखानेदारों के बारे में क्या कहा जायेगा? वे तो विदेशी और बिराने नहीं हैं न? मगर वे भी चाहते हैं कि जमींदारी मिटा दी जाये। यह बात मिस्टर ताता और बिड़ला आदि धानसेठों के द्वारा 'बम्बई योजना' Bombay Plan के द्वितीय भाग में साफ लिखी है जैसा कि उसके 19-20 पारा से स्पष्ट है। वे लिखते हैं-'जमीन पर जमींदारों का जो मालिकाना हक था उसके अधिकांश से तो विभिन्न काश्तकारी कानूनों ने जमींदारों को व्यवहारत: महरूम करे दिया है और इस प्रकार उतने अंशों में उन्हें सिर्फ लगान-वसूलने वाला बना छोड़ा है।'

फिर भी आमतौर से यह बात सही है कि जमींदारी प्रथा के चलते ये जमींदार अधिकांश में सिर्फ लगान-चट्ट बन गये हैं और यह जमींदारी कोई भी राष्ट्रीय हित का कार्य करने में असमर्थ हो गयी है। भारत में कहीं भी इस प्रथा के फलस्वरूप जमींदारों का एक ऐसा दल नहीं पैदा हुआ है जो जमीन की उत्पादन-शक्ति की वृध्दि और खेती के विस्तार के लिए स्वेच्छापूर्वक पूँजी लगाने को तैयार हो जैसी कि आशा शुरू में की गयी थी। बेशक रैयतवारी प्रथा भी उन बुराइयों से एकदम शून्य नहीं है जो कि साधारणतया जमींदारी प्रथा में पायी जाती हैं। फिर भी रैयतवारी में बहुत बड़ा लाभ यह है कि वास्तविक खेतिहर का सीधा सम्बन्ध इस प्रथा के चलते सरकार से हो जाता है। फलत: किसान की स्थिति इसके चलते उन्नत हो जाती है और सरकार को भी सहकार मूलक खेती, आबपाशी एवं जमीन के कट तथा धुल जाने से रोकने आदि के बारे में अपनी जवाबदेही का भान हो जाता है। ये बातें ऐसी हैं जिनके बिना रैयतवारी प्रथा में भी किसी प्रकार की भी प्रगति सम्भव नहीं है। फ्लाउड कमीशन ने अभी-अभी बंगाल में मालगुजारी सम्बन्धी प्रथा जमींदारी के बारे में रिपोर्ट तैयार की है। उसने भी इस समस्या की पूरी जाँच-पड़ताल तथा उधेड़्बुन के बाद यही सिफारिश की है कि वर्तमान जमींदारी प्रथा के स्थान पर रैयतवारी प्रणाली जारी करे दी जाये। हमारा भी वही सुझाव है कि समस्त भारत में जो भी जमींदारी इलाके हों और जहाँ ये जमींदार अपनी जमीन में खुद खेती करते न हों, सर्वत्र फ्लाउड कमीशन की सिफारिशों के अनुसार ही काम हो। इससे प्रकट है कि अन्ततोगत्वा पूँजीपतियों ने भी उस महान् अनर्थ को समझ लिया है जो इस जमींदारी के करते हुआ और हो रहा है। इसीलिए वे इसे दफना देना ही अच्छा समझते हैं। यही है 'बम्बई-योजना' की बात।

अच्छा, आइये अब जरा 'गाँधी-योजना' पर भी एक नजर डालें जिसे श्री श्रीमन्नारायण अग्रवाल ने विस्तृत रूप में तैयार किया है और जिस पर महात्मा गाँधी की मुहर लगी है। हमें इस तरह पता लगान है कि आया वह योजना भी जमींदारी प्रथा पर कसकरे एड़ जमाती और इस प्रकार उसकी श्मशान यात्रा का रास्ता साफ करती है या नहीं। इस योजना के बारे में स्वयं महात्माजी अपने पूर्व वक्तव्य में फर्माते हैं कि, 'ताहम मैंने इसे इतना काफी पढ़ लिया है जिसके बल पर कह सकता हूँ कि इसमें कहीं भी मेरे विचार गलत ढंग से नहीं रखे गये हैं।' इसलिए मानना होगा कि इस योजना में जो कुछ लिखा है उसे खुद महात्माजी की मंजूरी मिली है। और योजना के 62, 63 पृष्ठों में श्री अग्रवाल लिखते हैं कि 'जमींदारी प्रथा कमबेश सामान्तशाही का अवशेष चिद्द है। इसीलिए वर्तमान समय के साथ उसका मेल नहीं है।

'मौजावारी प्रथा चलाने के लिए इस बात की जरूरत होगी कि जमींदार तालुकेदार और मालगुजार जैसे मौजूदा स्थिर स्वार्थों को मिटा दिया जाये। यों कहिये कि जमीन का राष्ट्रीयकरेण होगा और किसान तथा सरकार के बीच में कोई न रहने पायेगा। सरकार लम्बी मीयाद के पट्टों पर ज़मीन उन लोगों को देगी जो वास्तव में उसे जोतें। किसान-पिता का पुत्र उसकी जमीन का उत्ताराधिकारी होगा। जो खुद इसे जोतने की प्रतिज्ञा न करें उनके हाथ में ये जमीन न जाने पायेगी। केवल लगान उगाहना ही जिनका काम है, ऐसे लोगों जमींदारों का पता न होगा। बेशक, भूस्वामित्व सम्बन्धी वर्तमान अधिकारों को धीरे-धीरे खत्म करने के लिए एक मुनासिब सन्धिकाल माना जायेगा। जमींदारों को एक युक्तियुक्त मुआवजा भी दिया जा सकता है। लेकिन ऐसा करने के पहले हरेक भूस्वामी के अधिकार की बहुत बारीक छान-बीन करके देखा जायेगा कि उसका अधिकार उचित है या नहीं। खराब कानूनों तथा हृदयहीन सूदखोरी के चलते किसानों की बहुत सी जमीनें जमींदारों ने हथिया ली हैं। ऐसी जमीनों के मौजूदा मालिक एक कौड़ी भी पाने के हकदार न होंगे। जमीन का राष्ट्रीयकरेण यों भी हो सकता है कि उन पर उत्ताराधिाकार-करे या मृत्यु-करे लगा दिया जाये। जमीन का जो भी उत्तराधिकारी होगा उसे उस जमीन की कीमत का कम-से-कम आधा उत्तराधिकारी -करे के रूप में देना होगा। इस तरह प्राय: दो पीढ़ियों में जमीन सम्बन्धी व्यक्तिगत सम्पत्ति स्वयमेव खत्म हो जायेगी।'

इस तरह देखते हैं कि भारतीय धानसेठों और राष्ट्रीय कांग्रेस की अपेक्षा जमींदारों के प्रति गाँधी जी कहीं अधिक बेमुरव्वत हैं। अगर इस गाँधीवादी तर्क-दलील के नतीजे और अर्थसिध्द बातों को मान लें तो जमींदारों को जमीन से हाथ ही धोना पड़ेगा। इस सम्बन्ध में और बातें आगे लिखी जायेंगी।

सबके अन्त में कांग्रेस का हाल वाला चुनाव-घोषणा-पत्र आता है जिसने जमींदारी पर आखिरी धक्का मारा है। उसमें लिखा है कि 'भारत में जमीन के बन्दोबस्त की प्रणाली के बदलने की बहुत सख्त जरूरत है और इसके चलते किसान और सरकार के बीच वाले सभी लोग मिट जायेंगे। इसलिए ऐसे मध्यवर्ती लोगों के अधिकारों को, उचित मुआवजा देकरे, ले लेना चाहिए।'

उधर बहुत दिनों से किसान सभा और सभी वामपन्थी दल इस बात की बराबर माँग करते रहे हैं कि सभी मध्यवर्ती लोगों को बिना एक कौड़ी दिये ही पूर्ण रूप से खत्म करे दिया जाये। इस तरह देखते हैं अब जमींदार, भूमि से सम्पर्क न रखने वाले मालिक और सभी तरह के लगान-चट्ट लोग बिलकुल ही अकेले पड़ गये हैं और अब किसी को भी इस बात से धोखा नहीं हो सकता कि अमुक इलाका और प्रान्त जमींदारी वाला है और अमुक रैयतवारी है, क्योंकि लगान-चट्ट लोग तो किसी-न-किसी रूप में सभी जगह पाये जाते हैं। इसीलिए उनके साथ कोई रिआयत नहीं की जा सकती है। उन्हें भागना होगा-'भारत छोड़ो' नारे का साथी 'जमींदारी छोड़ो' भी होगा।

(शीर्ष पर वापस)

2. मुआवजा देकरे खात्मा

'इसलिए आर्थिक दृष्टि से हमें ऐसी सम्भावना प्रतीत होती है कि अपेक्षाकृत कम समय में जमींदारी प्रथा का खात्मा नहीं किया जा सकता। नहीं तो देने-पावने के ऐसे बन्धन खड़े हो जायेंगे जिनसे सार्वजनिक ऋण लेने के वे साधन इसी तरह संकुचित हो जायेंगे जिनके द्वारा युध्दोत्तार काल में अत्यावश्यक सार्वजनिक विकास के कामों के लिए कर्ज लिया जा सकता है।' (उडहेड कमीशन की रिपोर्ट, पृ. 276)

जमींदारी और मध्यवर्ती सभी स्वार्थों के खात्मा के सम्बन्ध में अब तक जितना मसाला एकत्र किया गया है वह इसी बात के पक्ष में है कि उचित मुआवजा देकरे ही यह बात की जाय। इसीलिए आइये, जरा कुछ विस्तार के साथ इस पर विचार करें।

एक मात्र बंगाल के ही बारे में फ्लाउड कमीशन की रिपोर्ट का कहना है कि 'साथ ही हम यह भी सुझा देना चाहते हैं कि आजकल दो पक्षों के बीच होने वाले सर्वे सेटलमेण्ट के आधार पर यह सम्भव नहीं कि 30 साल से कम में सरकार के कब्जे में जमीनें लायी जा सकें।' पारा 134 'सरकार के द्वारा जमीनों को हथियाने के पहले फिर से सर्वे करवाना जरूरी है।' पारा 103 और बेशक यह नया सर्वे ऐसा थकाने वाला काम है जो अनेक दशकों तक चला जायेगा।

उसी कमीशन ने लगान वसूलने वालों के मुआवजे का हिसाब उनकी  बचत के 10, 12 या 15 गुने की दर से लगाया है और माना है कि क्रमश: 98, 113.58 तथा 136.95 करोड़ रुपये देने होंगे पारा 138। कमीशन का और भी कहना है कि 'हम यह भी देखते हैं कि इस स्कीम को यों पूरा करने में जमींदारों, टेन्योर होल्डरों या लगान-चट्ट लोगों की मौजूदा आय घटाकरे आधी या उससे भी कम किये बिना यह बात असम्भव है, अगर हमें उनकी बचत का 15 या 12 गुना पैसा उन्हें देना है।' पारा 138

यहाँ पर यह ख्याल करने की बात है कि उस कमीशन ने इन मध्यवर्तियों के मुआवजे का हिसाब लगाने में उन समूचे बर्गादारों, अधिकारों या बटाईदारों को कतई छोड़ दिया है जिनकी जमीनें उनके मालिक जब चाहें छीन सकते हैं और जो बंगाल को कुल जमीन का पंचमांश जोतते हैं जैसा कि कमीशन यों कहता है, 'वर्तमान समय में सभवत: बंगाल की जमीन का पाँचवाँ भाग जमींदारों, टेन्योर होल्डरों, रैयतों या मातहत रैयतों के नाम पर वे लोग जोतते हैं जिनमें अधिकांश के कब्जे में दरअसल जमीन हैं।' पारा 142 और उन्हें इस हिसाब से छोड़ देने का प्रधान कारण यह आर्थिक प्रश्न ही है। क्योंकि इन बर्गादारों या बटाईदारों से सीधे सम्बध्द मालिकों को अगर मुआवजा दिया जाय तो पूर्वोक्त लम्बी रकम के अलावे सरकार को एक और भी काफी बड़ी रकम का प्रबन्ध करना होगा। यह बात उसी रिपोर्ट में यों लिखी है, 'जैसा कि माना जाता है कि बंगाल की प्राय: पंचमांश भूमि की खेती बर्गा प्रणाली के अनुसार होती है। तदनुसार इस मुआवजे की रकम एक बहुत बड़ी तादाद में होगी और इस तरह सरकार के द्वारा जमीनों को हथियाया जाना असम्भव हो जायेगा।' पारा 112 आजकल गल्ले की कीमत आसाधारण रूप में बढ़ी है। फलत: इन बर्गादारों के मालिकों के हिस्से के अन्नादि का मूल्य बहुत ही ज्यादा होगा, और अगर उसका 10, 12 या 15 गुना उन्हें दिया जाये तो यह रकम बहुत ज्यादा बड़ी होगी। इसीलिए बर्गादारों की बात छोड़ दी गयी है।

एक और भी ख्याल है। ज्यों ही इन बर्गादारों के मालिकों को मुआवजा देने का यत्न होगा उन्हीं जमीनों के लिए जिन्हें बर्गादार जोतते हैं त्यों ही वे मालिक एक ही साथ बर्गादारों को जमीनों से बेदखल करे देंगे और इस प्रकार उन्हें साधनविहीन भिक्षुक एवं आवारागर्द बना छोड़ेंगे।

इसीलिए कमीशन ने सलाह दी है कि 'पहले पहल ऊपर से नीचे तक सिर्फ नगद लगान देने वाले किसानों के मालिकों के ही हकों को ले लिया जाय' पारा 114। उसके बाद ही मुस्तैदी के साथ बर्गादारों का प्रश्न हाथ में लिया जाय पारा 114। उसके बाद ही मुस्तैदी के साथ बर्गादारों के प्रत्यक्ष मालिकों को मुआवजा के रूप में बहुत ज्यादा रुपये देने न पड़ें इस दृष्टि से 'बर्गादारों' का उचित नगद लगान ठीक किया जायेगा। इसके बाद उस लगान और उनके मालिकों के द्वारा अपने मालिक को दिये जाने वाले लगान में जो अन्तर होगा उसी के आधार पर मुआवजा तय पायेगा। पारा 113

फलत: स्पष्ट है कि एक-एक करके सभी मध्यवर्तियों को खत्म करने में पूर्वोक्त 30 साल के सिवाय कम-से-कम 10 साल और भी लगेंगे। बंगाल के लिए मुआवजे के रूप में जो रकम जरूरी होगी वह भी इस प्रकार कमबेश पूरे दो अरब हो जायेगी। अब अगर समस्त भारत में यही बात करनी हो तो बंगाल के लिए अपेक्षित रुपयों के कमबेश दसगुने लगेंगे, तभी सभी लगान-चट्टों को नगद मुआवजा दिया जा सकेगा। और फ्लाउड कमीशन की राय में नगद देना ही ठीक है। दस गुना इसलिए कि ब्रिटिश भारत की कुल भूमि बंगाल की भूमि से भी दस गुनी से ज्यादा है। क्योंकि जहाँ बंगाल की 4,92,58,000 एकड़ है तहाँ ब्रिटिश भारत की पूरे 51,00,32,000 एकड़ है। अत: महाकाय बीस अरब रुपये से छुटकारा होना असम्भव है। इतने पर भी 14,70,00,000 एकड़ भूमि वाले देशी रजवाड़े अछूते ही रहेंगे, और अगर वहाँ भी यही किया जाये तो जमींदारी को वहाँ से भी भगाने के लिए पूरे छह अरब रुपये और चाहिए, मानी कुल पूरे छब्बीस अरब।

जो लोग सोचते हैं कि नगद न देकरे बौंड या दूसरे ही रूप में मुआवजा दिया जा सकता है, अच्छा हो कि वे फ्लाउड कमीशन के एतद सम्बन्धी शब्दों की याद रखें। वे ये हैं, 'हमने बहुत ही गौर से इसका विचार किया है कि मुआवजा नगद दिया जाये या बौण्ड के रूप में। हम सबों की राय है कि सिध्दान्तत: नगद देना ही अच्छा होगा। गो हम मानते हैं कि ऐसा करने में बहुत ज्यादा आर्थिक दिक्कतें होंगी। नगद देने का फैसला हमने इसलिए किया है कि यदि जमींदारी को मिटाना है तो अच्छा है कि एक ही बार जमींदारों और टेन्योर होल्डरों को पैसे दे-दिलाकरे खत्म करें, बनिस्वत इसके कि सरकार से सालाना रुपये पाने वालों की बड़ी गिरोह 60 साल तक रखी जाये। क्योंकि एतद सम्बन्धी रुपये चुकाने का फण्ड की मीयाद हमने 60 ही साल रखी है। विपरीत इसके यदि बौंड दिये जायें तो उनकी खरीद-बिक्री का झमेला खड़ा होने के कारण उनका मूल्य गिर सकता है। इसीलिए हमारे कुछ सदस्यों की राय है कि अगर बौंड जारी हों तो उनके बारे में भारत सरकार को गारंटी करनी होगी कि मूल्य कायम रहेगा। मगर इससे भी बड़ी कठिनाई यह होगी कि बौंड सम्बन्धी प्रबन्ध में बहुत-सी दिक्कतें पेश आयेंगी। हर जिले के खजाने के ऑफिस में ऐसे सभी लोगों का हिसाब रखना पड़ेगा जो मुआवजे के मुस्तहक हैं। बौंड की हरेक खरीद-ब्रिकी का वहाँ दाखिल-खारिज करना होगा और इस तरह काम इतना बढ़ जायेगा कि मालगुजारी रेवेन्यू देने और न देने वाली लाखेराज जमींदारियों के हिसाब के रजिस्टरों से भी ज्यादे की जरूरत इसके लिए होगी।' पारा 102

इसीलिए उडहेड (अकाल जाँच) कमीशन अपनी अन्तिम रिपोर्ट में इस नतीजे पर पहुँचा है कि बंगाल के मालगुजारी कमीशन¹ ने अन्दाज किया है कि जमींदारों की बचत का 15 गुना देने पर सभी मालिकों को कुल मिलाकरे 1 अरब 37 करोड़ रुपये देने होंगे। उसने यह भी हिसाब लगाया है कि यदि यह रकम चार रुपये सैकड़ा सालाना सूद पर कर्ज ली जाये तो मालिकों का पावना देने के बाद इस प्रकार सरकार को जो बचत होगी उससे वह कर्ज साठ साल में सधोगा जो मुआवजे के लिए लिया जायेगा। यह एक अरब और सैंतीस करोड़ रुपया की रकम सचमुच ही बहुत बड़ी है और है यह प्राय: उतनी ही बड़ी जितनी कि समूचे ब्रिटिश भारत में सन् 1932-1933 ई. तक सिंचाई के कामों में लगी है। खूबी तो यह है कि इतनी बड़ी रकम केवल एक ही प्रान्त की जमींदारी के हासिल करने के लिए चाहिए। जहाँ-जहाँ दवामी बन्दोबस्त है सभी को खत्म करने के लिए इससे कई गुनी बड़ी रकम अपेक्षित है। इसलिए आर्थिक दृष्टि से हमें ऐसी सम्भावना प्रतीत होती है कि अपेक्षाकृत कम समय में जमींदारी प्रथा का खात्मा नहीं किया जा सकता। नहीं तो देने-पावने के ऐसे बन्धान खड़े हो जायेंगे जिनसे सार्वजनिक सरकारी ऋण लेने के वे साधन बुरी तरह संकुचित हो जायेंगे जिनके द्वारा युध्दोत्तार काल में अत्यावश्यक सार्वजनिक विकास के कामों के लिए कर्ज लिया जा सकता है। ऋण के जो साधन हैं उन्हें सर्वप्रथम सिंचाई या कल-कारखानों की वृध्दि में ही लगाया जाना चाहिए। क्योंकि जमीन के बन्दोबस्त की एक प्रथा को हटाकरे दूसरी को स्थापित करने के विपरीत ये चीजें मुल्क की उत्पादनशक्ति को सीधे बढ़ाती हैं।

¹ लैंड रेवेन्यू कमीशन फ्लाउड कमीशन

''ऐसा बताया जाता है कि बंगाल के मालगुजारी-कमीशन के द्वारा बताये गये तरीकों के अलावे मुआवजा देने के दूसरे भी रास्ते हैं बिना कर्ज लिए ही जिनके अनुसार अमल किया जा सकता है। इस तरह मालिक की बचत को पूँजी के रूप में देने की बात कतई छोड़करे हरेक को वार्षिक रुपये देने का तरीका काम में लाया जा सकता है और ये रुपये उसी जमीन की आय से बचत के रूप में मिल सकते हैं। लेकिन हमें मौका नहीं मिला कि हम इन सुझावों की सम्भावना पर विचार करें। फिर भी हमें यह कहना है कि बहुत मालिकों और लोगों के बारे में एकमुश्त पूँजी या बौंड के रूप में मुआवजा देना टाला नहीं जा सकता( जैसे कि छोटे-मोटे मालिक और महाजन। साथ ही, हर हालत में सरकार को इस वार्षिक देन की भी गारण्टी करनी होगी। ऐसी दशा में हमारे ख्याल में हमारा यह मानना सही है। बंगाल के मालगुजारी-कमीशन के बताये हुए मुआवजे के तरीके में परिवर्तन करे देने पर भी उस कमीशन के इस निष्कर्ष में कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा कि मौजूदा जमींदारी प्रथा को रैयतवारी बनाने में तीस साल लगेंगे।

''इस प्रश्न के आर्थिक पहलू के अलावे प्रबन्ध सम्बन्धी एक पहलू भी है। सरकार जमीन को हथिया ले उसके पहले यह निहायत ही जरूरी है कि जमीनों

का सर्वे होकरे हक के कागजात तैयार हों। मगर यह सर्वे सेटलमेण्ट ऐसी चीज है कि बंगाल वाले कमीशन ने निश्चय किया है कि इस तरह तीस-साल से कम में सरकार के हाथ में जमीनें नहीं आ सकती हैं। फलत: आर्थिक एवं प्रबन्ध सम्बन्धी बातों को मद्देनजर रखते हुए उस कमीशन ने राय दी है कि यह काम जिलेवार किया जाय और ज्यों ही, एक जिले में सर्वे पूरा हो जाय और मुआवजे का अन्दाज हो जाये, प्राय: चार करोड़ रुपयों की किस्त में कर्ज लेकरे मुआवजा दिया जाया करे'' (पृष्ठ 276,77)

यहाँ पर इस संकट से पार होने और इस समस्या के सुलझाने के लिए कहा जा सकता है कि सभी जमींदारी और लगान उगाहने वालों से यों ही बिना मुआवजे के जमीनें छीनकरे वास्तविक खेतिहरों को उनका मालिक क्यों नहीं बना दिया जाता? परन्तु यह सुलझाव भी वैसा आसान नहीं है जैसा कि एकाएक देखने से प्रतीत होता है। हकीकत यह है कि मधर्यवत्तियों को मिटाने के लिए जो भी कानूनी रास्ता अपनाया जायेगा उससे मुआवजे का यह पेचीदा प्रश्न उठ खड़ा होगा ही। भारतीय विधान (सन् 1935) की 299 वीं धारा के अनुसार सार्वजनिक अधिकार में लायी जाने वाली जमीनों के सम्बन्ध में मुआवजे का सिध्दान्त लागू किया जाना और उसकी रकम को विशेष रूप से बता देना जरूरी है। इसलिए कानून ढंग से जमींदारों की जमींदारियाँ छीन लेने का तो ख्याल भी नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो क्रान्तिकारी ढंग से वर्तमान शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकना लाजिमी है।

बेशक ऐसे भी लोग हैं जो गम्भीरतापूर्वक सोचा करते हैं कि दवामी बन्दोबस्त बहुत ही पवित्र चीज है और इसे कोई छू नहीं सकता। इसीलिए फ्लाउड कमीशन को इस प्रश्न पर बखूबी विचार करके निश्चय करना पड़ा। अपनी रिपोर्ट के 97 वें पारा में कमीशन का कहना है कि, ''ऐसा करने के पूर्व हमें अपना विचार कह देना है कि राष्ट्रीय हित की दृष्टि से जो भी सुधार जरूरी हो उनके दायरे से बाहर यह दवामी बन्दोबस्त जा नहीं सकता। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उत्ताराधिकारी के रूप में ब्रिटिश सरकार का चाहे जो भी उत्तरदायित्व रहा हो, लेकिन प्रान्तीय स्वायत्ता शासन के स्वीकृति ने नयी परिस्थिति पैदा करे दी है जिसके अनुसार बंगाल की सरकार स्वतन्त्र है कि इस समस्या पर नये सिरे से विचार करे और वर्त्तमान परिस्थिति को देखते हुए यदि कोई रद्दोबदल आवश्यक हो तो उसे करे।'' सच्ची बात तो यह है कि कमीशन की नियुक्ति और उसके अधिकार ही इस बात के प्रमाण हैं कि दवामी बन्दोबस्त पर पुनर्विचार करने या उसकी जगह वर्तमान समय के उपयुक्त कोई प्रथा लाने में कानूनी या वैधानिक अड़चनें नहीं हैं।

''हाउस ऑफ कामंस ने भारत के वैधानिक सुधारों के सम्बन्ध में जो संयुक्त कमिटी बनाई थी उसने इस प्रश्न पर विचार करके अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जो मन्त्रिमण्डल भारतीय व्यवस्थापक सभा के प्रति जवाबदेह हो और अन्यान्य कामों के साथ ही जिस पर बंगाल की मालगुजारी की प्रणाली को ठीक करने का भी भार हो, उसके अधिकार के बाहर की यह बात नहीं होनी चाहिए कि दवामी बन्दोबस्त के सम्बन्ध के कानूनों को बदल दे। यह ठीक है कि उन कानूनों में इस व्यवस्था को दवामी रखने की प्रतिज्ञा है। फिर भी कानून की दृष्टि से उनमें भी परिवर्तन उसी तरह किया जा सकता है जैसे भारत सम्बन्धी अन्य कानूनों में। उसी तरह वे उठा भी दिये जा सकते हैं।''

इस प्रकार वैधानिक तरीके से मुआवजा देकरे ही जमींदारी मिटाने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है। बेशक इसमें पूर्वोक्त कठिनाइयाँ जरूर हैं जो प्राय: दुर्भेद्य हैं। सचमुच ही भारतीय किसान इस जमींदारी प्रथा के मिटाने के लिए कमबेश पचास साल तक प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं है। इस हृदयहीन और बेदर्द प्रणाली ने उन्हें प्राय: धूल में मिला दिया है और उनकी यह दुर्दशा ज्यों-की-त्यों जारी ही है। भारत के विभिन्न इलाकों को चाहे आप रैयतवारी या जमींदारी नाम भले ही दे डालें, फिर भी इस प्रथा ने देश-भर में जमीन से बहुत ही दूर रहने वाले मालिकों, लगान-चट्टों एवं उनके पिट्ठुओं की एक ऐसी सेना पैदा करे दी है जिसका केवल यही काम है कि हजार दाँवपेंचों के बल पर किसानों का जीवन-रक्त चूस ले। किसानों की यन्त्रणायें और वेदनायें चरम सीमा को पहुँच चुकी हैं। फलत: किसी समय भी ऐसा विस्फोट हो सकता है जिसमें न सिर्फ यह मनहूस प्रथा खत्म होगी, इन रक्त पीने वालों और उनके पिट्ठुओं के समूचे दल को भी मिट जाना होगा। सन् 1942 ई. की 8 वीं अगस्त के बाद जो ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था उसके लिए कोई भी तैयार न था। ताउम्र यह होके रहा और सभी अवाक् रह गये। कौन कह सकता है कि जमींदारी एवं जमींदारों के सम्बन्ध में भी उसी इतिहास की पुनरावृत्ति एक दिन होके उन्हें हजम न करे लेगी? इसलिए अगर उस परिस्थिति को रोकने और जमींदारों तथा उनके जी-हुजूरों को बचाना है तो जमींदारों को बहुत ही जल्द इतना जल्द जितना कि बहुतेरे सोचते भी नहीं-खत्म होना होगा। लेकिन यदि मुआवजा तय करने तथा उसकी अदायगी का सनातनी तरीका काम में लाया गया तो यह बात होने की नहीं। इस तरह हमारे सामने पेचीदा पहेली है। बिना मुआवजा के यह जमींदारी कानूनी ढंग से मिटाई जा सकती नहीं और मुआवजे की समस्या ऐसी है कि उसका आखिरी नतीजा जमींदारी मिटाने के वास्तविक लक्ष्य को खत्म ही करे देगा। सही हमारी पहेली है। इसका समाधान हमें करना ही होगा।

(शीर्ष पर वापस)

3. तो क्या करें?

'खराब कानूनों तथा हृदयहीन सूदखोरी के चलते किसानों की बहुत सी जमीनें जमींदारों ने हथिया ली हैं। ऐसी जमीनों के मौजूदा मालिक एक कौड़ी भी पाने के हकदार न होंगे।' (गाँधी-योजना, पृष्ठ 63)

जमींदारी मिटाने की पेचीदा पहेली को सुलझाने के प्रयत्न में आइये जरा इसकी थोड़ी और भी जाँच-पड़ताल करें। इस सम्बन्ध में हमने गाँधी-योजना देखी है बेशक( परन्तु उसकी छानबीन नहीं की है। साथ ही, 'बम्बई योजना' की ओर भी देखना होगा। लेकिन यह सबकुछ करने के पूर्व ही मुझे बिहार सरकार के बहुत ही हाल के एक काम की याद हो आती है जो उसने 'मालिकाना' के मुतल्लिक किया है। आज से बहुत दिन पूर्व जिन जमींदारों की जमींदारियों को सरकार ने हथिया लिया था, उन्हीं को वह जो वार्षिक रकम देती है उसे ही मालिकाना कहते हैं। सरकारी कब्जे में आने के समय में जमींदार जो लगान वसूलते थे उसका दशांश ही सरकार प्रतिवर्ष उन्हें देती है ऐसा हमें बताया गया है यह भी बात है कि इस लम्बी मुद्दत के दरम्यान आमतौर से जमींदारों ने उस समय किसानों से मिलने वाले लगानों को काफी बढ़ा लिया है। फिर भी यह मालिकाना ज्यों का त्यों है और एक पाई भी नहीं बढ़ा है। अतएव अगर हम इस इजाफे का ख्याल करें तो दरअसल यह मालिकाना उन जमींदारों को निजी आय का प्राय: सोलहवाँ भाग ही रह गया है।

अब बिहार सरकार का निर्णय सुनिये। उसने तय किया है कि उस बेदखल जमींदारों को जो मालिकाना सालाना मिलता है उसका सोलह गुना उन्हें एक ही बार देकरे सदा के लिए झमेला ही खत्म करे दिया जाये। इसी आधार पर उन्हें नोटिसें भी दी गए हैं। इन नोटिसों का नतीजा क्या हुआ इससे यहाँ हमें मतलब नहीं है और न इसी बात से कि सरकार ने आगे क्या कार्यवाही की है। इस मालिकाना को खत्म करे देने के लिए उसने जो सिध्दान्त मान लिया है हमें उसी से मतलब है। और अगर ऊपर लिखी बातों पर ख्याल किया जाये तो बिना विरोध या अत्युक्ति के ही कहा जा सकता है कि मुआवजे के रूप में मालिकाना वालों को जो रकम दी गयी है वह तो कमबेश उतनी ही है जितनी वह आज हर साल खुद ही वसूलते रहते, अगर लगान की वसूली उन्हीं के हाथों में बराबर बनी रहती और जमींदारी ले ली गयी न हो तो। असली रकम के 16 वें भाग के 16 गुने के मानी हैं वही असली रकम न कि कम या बेश। और जमींदारी के थोड़े से हिस्से के बारे में बिहार सरकार ने यह सिध्दान्त मान लिया है कि दरअसल सालाना आमदनी देकरे ही यह झमेला सदा के लिए खत्म करे दिया जाये और जमींदारों का लगान वसूली वाला हक जाता रहे, तो इसी मन्तव्य को व्यापक और विस्तृत रूप में लागू करने में क्या उज्र है? यहाँ हमें इस बात पर विचार नहीं करना है कि मालिकाना वालों ने यह सिध्दान्त मान लिया है या नहीं। हो सकता है उनने इसे न माना हो। आखिर जमींदारी मिटाने का सिध्दान्त भी तो उन्हें मान्य नहीं ही है। लेकिन यदि कांग्रेस सरकार यह जमींदारी मिटाने वाली बात उनके गले के नीचे उतारने जा रही है, तो मुआवजे का यह सिध्दान्त भी उसी तरह उनसे मनवा सकती है।

दलील दी जा सकती है कि एक ही साल की आमदनी उन्हें मुआवजे के रूप में देकरे जमींदारों से सदा के लिए जमींदारी छीन लेना बड़ी ही बेमुरव्वती होगी। यह भी कहा जा सकता है कि अधिकांश जमींदारों के टटुपुँजिये होने के नाते उनकी लगानवाली सालाना आय बहुत ही कम या नाम-मात्र की है। फलत: ऐसे मुआवजे के करते उन्हें दर-दर का भिखारी बनना पड़ेगा।

किन्तु जमींदारों के ऊपर की जाने वाली इस तरह की सख्ती की दलीलें देने वाले लोग सबसे जबर्दस्त बात भूल जाते हैं कि गत डेढ़ सौ साल के दरम्यान इन्हीं जमींदारों ने किसानों के ऊपर एक के बाद दीगरे हजारों मुसीबतें ढायी हैं। सर अजीजुल हक ने अपनी अंग्रेजी किताब 'The man behind the plough' हल चलाने वाले के 29 वें पृष्ठ में यों लिखा है, 'जमींदारों की मदद के लिए एक के बाद दीगरे विधान बनाये गये, और आखिरकार हक्का-बक्का करने वाला वह विधान बना कि जो किसान जमींदारों की बेबुनियाद शिकायतें करेगा या उन पर मुकदमे लावेगा उसे जुर्माना होगा और जेल की सजा दी जायेगी।' स्थानान्तर में उसी पुस्तक में सन् 1859 ई. के लेफ्टिनेण्ट गवर्नर के भाषण का उध्दरण यों दिया है, 'बंगाल की जमीन के बन्दोबस्त की प्रणाली की खूबी यह थी कि एक ओर सामन्तशाही थी और दूसरी ओर गुलामी।' क्या इससे भी अधिक सख्ती की जा सकती है?

रह गयी टटुपुँजिये जमींदारों की बात। सो अगर वे आज अपनी नगण्य आमदनी के रहते ही भिखमंगों एवं आवारागर्दी की तरह मारे-मारे नहीं फिरते हैं, हालाँकि उससे उनकी गुजर नहीं हो सकती तो जमींदारी मिटने पर वे कैसे ऐसा करेंगे और लाखों तथा करोड़ों दुर्दशाग्रस्त किसानों की ओर नजर करने का कष्ट भी किसने अब तक उठाया है? अच्छा, मान लें कि फ्लाउड कमीशन की सिफारिशों के अनुसार ही इन छुटभैये जमींदारों को मुआवजा दिया जायेगा। इतने पर भी उनमें बहुसंख्यक दर-दर के भिखारी बनेंगे ही। क्योंकि इस तरह उन्हें जो रकम मिलेगी वह एक ही दो साल में खर्च हो जायेगी और वे निराश्रय हो जायेंगे?

लेकिन ये समालोचक छोटे जमींदारों की सम्भावित भिखमंगी को लेकरे खामखाह अड़ जायें तो हम एक दूसरा सुझाव पेश करते हैं जिससे न तो छुटभैये जमींदारही भिखमंगे बनेंगे और न किसान या दूसरे ही लोग। छोटे-बड़े सभी जमींदारों से लगान वसूली का हक छीन लीजिये बिना कुछ दिये ही, उन्हें कोई-न-कोई मुनासिब काम दे दीजिए और सभी भारतीयों के लिए, जिनमें वे भी आ जाते हैं, उत्ताम या कामचलाऊ जीवन-यापन के पदार्थों की गारण्टी करे दीजिए। राष्ट्रीय सरकार को यह करना ही होगा और देखना पड़ेगा कि कोई भारतीय न तो बेकार है और न भूखा फिरता है। और इस तरह सभी जमींदारों की आय का रुपया लाभजनक रूप में हजारों नये उद्योग-धन्धे को चालू करने में लगाया जाकरे लक्ष-लक्ष लोगों को काम दे सकता है।

बहुत सम्भव है 'बिना कुछ दिये ही छीन लो' शब्दों से हमारे समालोचक आतंकग्रस्त होकरे इस प्रस्ताव के विरुध्द तोबातिल्ला मचाना शुरू करे दें। लेकिन इस चीज पर थोड़ा-सा भी विचार करे लेने पर उन्हें खुद मौनावलम्बन करना ही पड़ेगा। यदि फ्लाउड कमीशन की रिपोर्ट को ही वे लोग पढ़ें तो उसमें भी यह 'छीन लेना' मिलेगा ही। कमीशन के बहुमत ने कहा है कि जमींदारों की बचत का दस गुना मुआवजा दिया जाये। साथ ही, उसने माना है कि 15 गुना देने पर भी जमींदारों की वर्तमान आय आधी ही रह जायेगी और 12 या 10 गुना देने पर तो और घटेगी। अब अगर इसे छीन लेना न कहें तो और क्या कहें? ठीक है, यह पूरा छीन लेना न होकरे अधूरा है। फिर भी छीन लेना तो हुई। और जब हम जमींदारों के उत्तम जीवन-यापन की गारण्टी सरकार के द्वारा की जाने की बात बोलते हैं तो हम भी पूर्णतया छीन लेने की बात नहीं ही कहते हैं। अतएव अंततोगत्वा हमारी और कमीशन की बात में केवल अंशों का फर्क है, न कि और कुछ। और जैसा कि पहले कह चुके हैं, बम्बई-योजना में भी माना गया है कि 'विभिन्न काश्तकारी कानूनों ने जमीन पर होने वाले जमींदारों के बहुत-से मालिकाना हकों को छीन लिया है।' इसीलिए किसी भी हालत में इस छीना-झपटी से छुटकारा नहीं है।

और गाँधी-योजना भी क्या कहती है? यदि हम इसे थोड़ा ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा कि वह तो इस छीना-झपटी का सबसे बड़ा पोषक है। सर्वप्रथम उसका कथन है कि 'जमीन पर जमींदारों के हकों की अच्छी तरह छानबीन के बाद ही उन्हें उचित मुआवजा दिया जा सकता है।' अब अगर इस छानबीन को ठिकाने के साथ अन्त तक ले जायें तो उसके फलस्वरूप प्राय: सभी लगान-चट्ट लोग अपने हक खो बैठेंगे। मौजूदा जमींदारों के लिए यह छानबीन सचमुच ही भयंकर वस्तु है। क्योंकि जमींदारों ने किसानों की बेबसी से अनुचित लाभ उठाया है, उनकी कौड़ी-कौड़ी उनने नोच ली है। और जब कुछ न मिल सका है तो अन्त में जमीन भी छीन ली है। स्वयं गांधी-योजना ने यह बात स्वीकार की है जैसा कि यहाँ और इस प्रकरण में लिखे उसके उध्दरण से स्पष्ट है और यह तो स्पष्ट ही छीन लेता है। लेकिन गाँधी-योजना इससे भी आगे जाकरे और जमींदारों के उत्ताराधिकारियों से जमीन के मूल्य का कम-से-कम आधा मृत्यु-करे के रूप में ऐंठ लेने की बात पेश करके जमींदारों की जमीनें सोलहों आना उतनी ही मुद्दत में छीन लेने का रास्ता साफ करती है जितनी मुद्दत मुआवजा देने के लिए अपेक्षित है। यही कारण है कि इसमें 'देना चाहिए' की जगह 'दे सकते हैं' लिखा गया है जैसा कि औरों ने और खासकरे कांग्रेस- घोषणा तथा बम्बई-योजना में लिखा गया है। फलत: अगर जमींदारों की उत्ताम जीवन-यापन की गारण्टी करे दी जाये और इस तरह इस बारीक जाँच-पड़ताल की अत्यन्त कष्टप्रद फजीती से उनका पिण्ड छूट जाये तो यह बात कहीं अच्छी होगी।

इसीलिए हमारी पक्की राय है कि पूर्वोक्त दो उपायों में से कोई एक को जमींदारी मिटाने के लिए मान लेना होगा इससे सबों के हक में अच्छा होगा। दूसरे सभी तरीके न सिर्फ थकान पैदा करने वाले हैं, बल्कि उनमें बहुतेरे खतरे भी हैं।

लेकिन अगर हमारी यह आवाज केवल अरण्यरुदन सिध्द हो जाये और फ्लाउड कमीशन एवं दूसरों के द्वारा बतलाया गया मुआवजे का सनातनी मार्ग ही अन्त में जमींदारी मिटाने के लिए मान लिया जाये तो हमारा सुझाव है कि फौरन ही कोर्ट ऑफ वार्ड्स कानून इस तरह सुधार देना होगा कि उसके भीतर लगान वसूलने वाली सभी बातें आ जायें, उसके बाद फौरन ही सभी लगान वसूली के हक कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अन्दर ले लेना होगा। खास महाल तथा कोर्ट ऑफ वार्ड्स के बीच हम कोई फर्क नहीं मानते। हमारा मतलब केवल यही है कि सभी मध्यवर्तियों के हकों का इन्तजाम सरकार ही करे। इसी दृष्टि से हाल में ही बिहार प्रान्तीय किसान सभा ने एक प्रस्ताव पास किया है। उसका आशय यही है कि जब तक जमींदारी मिटा नहीं दी जाती तब तक सभी लगान वसूलने के हक जबर्दस्ती कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन फौरन ही करे दिये जायें और अगर हम बम्बई योजना को देखें तो उसमें भी कुछ इसी तरह की चीज पाकरे हमें खुशी होती है। क्योंकि उसमें लिखा है कि वर्तमान सरकार जमींदारों का काम अपने ही हाथों में ले ले और इस कर्तव्य के पालन में जो खर्च हो उसे लगान में से काटकरे जमींदारों को उचित लगान दिया करे। आगे चलकरे जब सरकार की हालत अच्छी हो जाए, तो जमींदारों का पावना एक मुश्त चुकता करके उनका दावा सदा के लिए खत्म करे दिया जाये। फिलहाल जमींदार और किसान के बीच का ताल्लुक खत्म करे देना चाहिए। पारा 20

जो बातें ऊपर लिखी गयी हैं कुछ इसी तरह की बातें नीचे लिखे पत्र-व्यवहार में, जो 28-4-46 के इलाहाबाद के 'लीडर' के डाक संस्करण में प्रकाशित हुआ था, पायी जाती हैं। इससे स्पष्ट हे कि दूसरे भी इसी दृष्टि से इस बात पर विचार करे रहे हैं। वह पत्र यह है :

'जमींदारी का खात्मा'

'सन् 1946 में इस बात से इनकार किया नहीं जा सकता कि राष्ट्रीय जीवन में जमींदार श्रेणी ने अपने को प्रतिगामी तथा उसकी सामाजिक अर्थ-व्यवस्था के लिए बेकार साबित करे दिया है।

'जमींदार सिर्फ जोंक है जिसका काम है मुल्क की कृषि-सम्बन्धी दीन-हीन आर्थिक व्यवस्था के जीवन-रक्त को चूस लेना। लगातार बीस वर्षों से ज्यादा बार-बार चेतावनी देने पर भी जमींदारों ने अपना रवैया बदला नहीं है। यही नहीं कि उनने किसानों की खेती के समुन्नत साधानों के प्रयोग में कोई मदद नहीं की है। उनने किसानों की भूमि सम्बन्धी भूख से अधिक से अधिक लाभ उठाकरे उनसे भले-बुरे ढंग से जितना भी हो सका है, वसूला है। कुछ दिनों के लिए जब कांग्रेसी नेता सार्वजनिक जीवन से जुदा करे दिये गये थे, इस जमींदारों ने जरा भी सुस्ती न की और काश्तकारी कानून में जो खराबी दुर्भाग्य से रह गयी थी उससे अधिक से अधिक फायदा निर्दयता के साथ उठाया। उनने अपने खजाने भरे और इस तरह बेईमानी से मिले पैसे को युध्द-सम्बन्धी उन अनेक चंदों में हृदय खोलकरे दिया जिन्हें सलाहकारों की सरकार ने चालू किया था। यह इसीलिए कि सरकार उनकी शैतानी हरकतों पर नजर न डाले। इसमें इन्हें सफलता भी मिली।

'माना जाता है कि जमींदारी प्रथा को जड़ से उखाड़ना कुछ पेचीदा प्रश्न है फलत: इसमें काफी समय लगेगा। बहुसंख्यक पीड़ितों को तत्काल ही तेजी के साथ आराम पहुँचाने की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि सरकार कोर्ट ऑफ वार्ड्स के कानून ने सुधार करने के लिए जमींदारों के जरिये अपनी जमींदारी का खुद प्रबन्ध करने की अयोग्यता की यह भी एक शर्त उसमें जोड़ दे कि यदि वे स्वभावत: दूर या अलग रहने वाले मालिक हों, अपनी जमींदारी का ऐसा प्रबन्ध करते हों जिससे किसानों के हकों की हानि हो, अपने जमींदारी हक से अनुचित लाभ उठाने की आदतवाले हों या स्वभावत: बेगारी करवाते, गैर-कानूनी वसूलियाँ करते या नजराना लेते हों तो उसकी जमींदारी कोर्ट ऑफ वार्ड्स अपने हाथ में ले ले कुछ खास मुद्दत के लिए लेकिन अगर हालत बहुत ही बुरी हो तो उनकी जिन्दगी-भर के लिए ही ले ले।

'हम कोर्ट ऑफ वार्ड्स का नियम और उसकी नीति ऐसी बना लें जिससे कर्जदार जमींदारियों को बचाने के बजाय उन्हें किसानों के हाथ बेच दिया करें और अगर जरूरत समझें तो किसानों से किस्त-किस्त करके कीमत लें। इस प्रकार फौरन ही जमींदारी मिटाने का श्रीगणेश करके किसानों को राहत दें। '

अपूर्ण-सम्पादक

(शीर्ष पर वापस)

 

 

 

 

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