रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
7
आदर्श जीवन
- 1
पाँचवाँ प्रकरण -अध्यवयन
यदि हम चाहते हों कि हमें कोई ऐसा चस्काी लगे जो प्रत्येक दशा में हमारा
सहारा हो और जो जीवन में हमें आनन्द और प्रसन्नता प्रदान करे, उसकी
बुराइयों से हमें बचावे-चाहे हमारे दिन कितने ही बुरे हों और सारा संसार
हमसे रूठा हो-तो हमें चाहिए कि हम पढ़ने का चस्कान लगावें। पर अध्यहयन की
रुचि से जो लाभ हैं, वे इतने ही नहीं हैं। जिन उद्देश्यों के साधन के लिए
अध्येयन किया जाता है, वे इतने ही नहीं हैं, इनसे अधिक हैं और इनसे उच्च
हैं। आत्मसंस्कार सम्बन्धी पुस्तक में अध्यययन को केवल एक रुचि की बात कह
देना ठीक नहीं, उसे परम कर्तव्य् ठहराना चाहिए; क्योंकि ज्ञान की वृध्दि और
धर्म के अभ्यास का अध्ययन एक प्रधान साधन है। यह ठीक है कि बहुत से कर्मण्य
पुरुष हुए हैं जो बड़े बड़े काम कर गए हैं, पर लिखना पढ़ना नहीं जानते ये।
बहुत से लोग ऐसे हो गए हैं जिनके पठन पाठन वा मानसिक शिक्षा के अभाव की
पूर्ति उनकी प्रज्ञा की प्रतिभा, अनुभव की अधिकता और अन्वीक्षण के अभ्यास
द्वारा हो गई थी। पर पहली बात सोचने की यह है कि यदि वे पढ़े लिखे होते,
उनकी जानकारी और अधिक होती तो सम्भव है वे और अधिक उत्तम कार्य कर सकते।
दूसरी बात यह है कि स्वाध्या य और आचरण आदि के सम्बन्ध में जो नियम ठहराए
जाते हैं, वे ऐसे इक्के-दुक्के लोगों के लिए नहीं जिन्हें जन साधारण से
अधिक स्वाभाविक शक्तियाँ प्राप्त रहती हैं।
आत्मसंस्कार के विधान का स्वाध्याहय एक प्रधान अंग है। हमारे लिए किसी जाति
के उस साहित्य में गति प्राप्त करने का और कोई द्वार नहीं जिसमें उसके भाव
और विचार व्यक्त रहते हैं तथा उसकी उन्नति के क्रम का लेखा रहता है। मनुष्य
जाति के सुख और कल्याण के विषय में संसार के प्रतिभासम्पन्न पुरुषों ने जो
सिध्दान्त स्थिर किए हैं, उन्हें जानने का और कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य
पढ़ना नहीं जानता, उसे भूतकाल का कुछ ज्ञान नहीं। वह जो कुछ सोचता है,
विचारता है, परीक्षा करता है वह अपनी ही छोटी सी पहुँच और अपने ही अल्प
साधनों के अनुसार। उसे उस भण्डाषर का पता नहीं जो न जाने कितनी पीढ़ियों से
संचित होता आया है। एक प्रसिध्द गणितज्ञ के विषय में कहा जाता है कि जब वह
लड़का था और उसे पुस्तकों की जानकारी नहीं थी, तब उसने गणित की कुछ
प्रक्रियाएँ निकालीं और उन्हें यह समझकर कागज पर लिख लिया कि मैंने बड़े
भारी आविष्कार किए। कुछ दिनों के उपरान्त जब वह एक बड़े पुस्तकालय में गया,
तब उसे यह जानकर बड़ा दु:ख हुआ कि जिन्हें वह इतने दिनों से अपने आविष्कार
समझे हुए था, वे साधारण छात्रों तक को ज्ञात, पुरानी और पिष्टपेषित बातें
हैं। विद्या के प्रत्येक विभाग में यही दशा उसकी होती है जो पढ़ता नहीं।
मनुष्य की अन्वेषण और विचार परम्परा ज्ञान की किस सीमा तक पहुँच चुकी है,
इसकी उसे खबर नहीं रहती। उसके लिए उसके पूर्व का काल अन्धकारमय है। न जाने
कितने लोग हो गए, कैसे-कैसे विचार कर गए, पर उसे क्या? वह जो सामने देखता
है वही जानता है और शिक्षा के अभाव के कारण वह अच्छी तरह देख भी नहीं सकता।
वह अपने ही फैलाए हुए अन्धकार में गिरता पड़ता है, टेढ़ी मेढ़ी पगडण्डियों में
भटकता फिरता है, यह नहीं जानता कि मनुष्यों के श्रम से एक चौड़ा सीधा मार्ग
तैयार हो चुका है।
यहाँ हम पढ़ने के दो एक अत्यन्त प्रत्यक्ष लाभों की ओर ध्याषन देते हैं। यह
विषय जैसा उपयुक्त है, वैसा ही मनोरंजक भी है। पहली बात तो यह है कि पढ़ने
से इतिहास और काव्य में हमारी गति होती है और भूतकाल की घटनाएँ हमारे
अन्त:करण में प्रत्यक्ष हो जाती हैं। इसके द्वारा हमें संसार के बड़े बड़े
राज्यों की उत्पत्ति, वृध्दि और पतन का पता चलता है। पढ़ने से हमें विदित
होता है कि किस प्रकार मनुष्य जाति की सभ्यता का प्रवाह कभी कुछ दिनों के
लिए रुकता और कभी पीछे हटता हुआ, कभी एक स्थान में बँधता और दूसरे स्थान
में इकट्ठा होता हुआ, कभी कुछ दिनों के लिए उथला और छिछला पड़कर फिर
अनिवार्य वेग के साथ बहता और गम्भीर होता हुआ अन्तत: आगे ही बढ़ता आया और
उसने अपनी सुखसमृध्दिपूर्ण विजय का प्रसार किया। हम जानते हैं कि किस
प्रकार अनेक विघ्न-बाधाओं को सहकर कितने ही दिनों तक भयानक कष्टों और
आपत्तियों को झेलकर जनता ने क्रमश: अपनी उन्नति की है, जिसका फल यह हुआ है
कि प्रत्येक सभ्य देश के गरीब आदमी भी अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक सुख
चैन से हैं। हम जानते हैं कि किस प्रकार संसार की अनेक क्रूर और
धर्मभावशून्य जातियाँ बौध्द धर्म ग्रहण करने को तैयार हुईं, किस प्रकार
बौध्द धर्म का प्रभाव और प्रचार बढ़ा तथा उससे मनुष्य की रहन-सहन में कितना
शुभ परिवर्तन हुआ। पुस्तकों में हम देखते हैं कि किस प्रकार प्रताप और
शक्ति एक जाति से निकलकर दूसरी जाति में जाती है। उनसे यह भी पता लगता है
कि किन किन कारणों से और किन किन दशाओं में ऐसा होता है। भारतवर्ष, फारस,
काबुल, मिस्र, यूनान, रोम-जो अब नाम ही नाम को रह गए हैं, कल्पना में जिनके
प्रताप और महत्तव की धाुँधाली छायामात्र शेष रह गई है-पुस्तकों के द्वारा
हमें अपने यथार्थ रूप में प्रकट होते हैं और हम उनकी यथार्थ स्थिति को
समझने में समर्थ होते हैं। इन प्राचीन देशों की ओर जब हम ध्या न देते हैं
तब हम दिनों के फेर से सोचते हैं, भाग्य की चंचलता को सोचते हैं तथा
व्यक्ति के जीवन-क्रम और एक जाति के भाग्यक्रम के बीच जो विलक्षण समानता
है, उस पर विचार करते हैं। एक धार्मिक उपदेष्टा कहता है-'चाहे एक व्यक्ति
को लो चाहे एक जाति को लो, सबके समृध्दि के दिन प्राय: वे ही होते हैं
जिनके पीछे घोर विपत्ति के दिन आते हैं।' चाहे चन्द्रगुप्त, सिकन्दर,
कैखुसरो, तैमूर इत्यादि बड़े-बड़े विजेताओं को लो, चाहे हस्तिनापुर,
पाटलिपुत्र, एथेंस, रोम आदि की ओर ध्याेन दो, बात एक ही होगी। अपनी रक्षा
के निश्चय ही में नाश का अंकुर रहता है, अपने पराक्रम की भावना और उसे
दिखाने की वासना ही से पतन भी होता है। भाग्य के इस अचानक पलटा खाने पर
हमें ध्यानन देना चाहिए। पर सबसे अधिक ध्याेन तो हमें इस विश्वव्यापक नियम
की ओर देना चाहिए कि जब कोई मनुष्य या जाति अपनी पूर्ण प्रौढ़ता को पहुँच
जाती है, तब उसमें भीतर ही भीतर भोग, विलास, अनीति और दुर्वव्यहसन का घुन
शक्ति को खाने लगता है, अधिक तड़क-भड़क और शान दिखाई पड़ती है, यहाँ तक कि
बाहर से देखनेवालों को शक्ति की स्थिरता का अधिक विश्वास होता है। लोक में
कहावत प्रसिध्द है कि जब दीपक बुझने को होता है, तब अधिक जगमगाता और भभकता
है। पारसियों का प्रताप इतना प्रबल और कभी नहीं दिखाई पड़ा था जितना उस समय
जब क्षयार्स ने अपनी असंख्य सेना लेकर यूनान पर चढ़ाई की थी। पर यथार्थ में
पारसी जाति की शक्ति उस समय इतनी क्षीण हो गई थी कि थोड़े ही आघात से
ध्वमस्त हो सकती थी। जिस समय नेपोलियन अपनी चार लाख सेना लेकर यूरोप को
विजय करने की कामना से रूस की ओर बढ़ा था, उस समय सारा यूरोप काँप उठा था,
पर सच पूछिए तो भीतर ही भीतर उसके विनाश के सामान इकट्ठे हो रहे थे।
औरंगजेब के राजत्वकाल में मुगल साम्राज्य अपने पूर्ण विस्तार को पहँच गया
था; पर इतिहासविज्ञ मात्र जानते हैं कि वह वास्तव में उसके खण्ड खण्ड होने
का आयोजन मात्र था। जिस समय महाराज पृथ्वीराज दिल्ली के राजसिंहासन पर थे,
उस समय राजपूतों की शक्ति पराकाष्ठा को पहुँची जान पड़ती थी; पर देखते ही
देखते वह शक्ति विलीन हो गई और हिन्दू साम्राज्य का अन्त हो गया।
इतिहास की उस अस्थिरता का, जिनका परिज्ञान हमें पुस्तकों द्वारा होता है,
एक और भी दृष्टान्त दिया जा सकता है। विद्याभ्यासी युवक यदि संसार की बड़ी
बड़ी राजधानियों के इतिहास का मिलान उनके राज्यों के इतिहास से करेंगे तो
उन्हें जान पड़ेगा कि एक ओर तो उन राज्यों की शक्ति क्रमश: क्षीण हो रही थी
और दूसरी ओर उन राजधानियों की शोभा पूर्ण समृध्दि को पहुँची दिखाई पड़ती थी।
जब अवध के नवाबों का प्रताप प्रस्थान कर चुका था, जब वे अपने राज्य की
स्थिति के लिए दूसरी राज्य शक्ति का मुँह ताकने लगे थे, जब उनमें अपना बल
कुछ भी नहीं रह गया था, जब क्षमताहीन विलासपरायण वाजिदअली शाह सहस्रों
रमणियों से घिरे हुए मोतियों की राख फाँकते थे, उस समय लखनऊ के जोड़ का और
दूसरा नगर भारतवर्ष में नहीं था। वहाँ आठों पहर सोना बरसता था। गोमती के
किनारे छतरमंजिल, शीशमहल आदि को देख ऑंखों में चकाचौंध होती थी। नादिरशाह
के आक्रमण के समय मुहम्मदशाही में दिल्ली की जो रौनक थी, वह फिर कभी काहे
को दिखाई देगी। जिस समय महमूद ने हिन्दुस्तान की ओर यात्रा की, उस समय फूट
आदि के कारण हिन्दुओं की राजनीतिक शक्ति बिलकुल क्षीण हो चुकी थी, पर
मथुरा, सोमनाथ आदि तीर्थ स्थानों का ठाट बाट और वैभव वर्णन के बाहर था। जिस
समय बादशाह बेलशाजर अपने विशाल भवन में बैठा हुआ दीवार पर अपने भाग्य लेख
को पढ़ रहा था और विजयी पारसियों की विजय दुन्दुभी का तुमुल शब्द सुन रहा
था, उस समय बाबुल की शोभा अपनी पराकाष्ठा को पहुँच चुकी थी।
इतिहास की पुस्तकों से पाठकों को एक अत्यन्त अनमोल शिक्षा मिलती है। मनुष्य
जाति के मामलों में परमेश्वर किस प्रकार समय-समय पर हाथ डालता है, वे
स्पष्ट देखते हैं। पर आधुनिक कोटि के इतिहासवेत्ता इस बात को देखकर भी इससे
अनभिज्ञ बनते हैं। वे प्रत्येक कार्य वा घटना के कारण का पता विकास
सिध्दान्त अथवा निज कल्पित नियमों द्वारा लगाने का दम भरते हैं। पर यह बात
ऐसी प्रत्यक्ष है कि इस पर धूल नहीं डाली जा सकती। यह संसार के इतिहास में
अमिट अक्षरों में अंकित है। थोड़ा उन घटनाओं पर ध्याीन दीजिए जिनके सहारे
छत्रापति महाराज शिवाजी एक बड़े साम्राज्य के संस्थापक हुए थे और देखिए कि
किस प्रकार वे दैव प्रेरित जान पड़ती हैं। भारत के इतिहास में मगध का अन्धा
राजवंश प्रसिध्द है। इसके शूद्र संस्थापक ने कन्न वंश के अन्तिम राजा को
धोखे से मारकर मगध का राजसिंहासन प्राप्त किया था। इस वंश का राज्य बहुत
दिनों तक नहीं चला। इसका अन्तिम राजा पुलोम गंगा में डूबकर मरा। फिर वही
दशा इस वंश की हुई जो इसके संस्थापक ने कन्न वंश की, की थी। पुलोम का
सेनापति रामदेव राजा बनकर बैठा। पर उसे भी इसका ठीक ज्यों का त्यों
प्रतिकार ईश्वर की ओर से मिला। उसका सेनापति प्रतापचन्द्र उसे गद्दी पर से
हटाकर राजा हुआ। इस प्रकार यह प्रतिकार परम्परा शताब्दियों तक चली और एक
सेनापति के पीछे दूसरा सेनापति राजा बनता रहा। ये सेनापति राजा इतिहास में
अन्धारभृत्य के नाम से प्रसिध्द हैं। देशद्रोही जयचन्द ने द्वेष से प्रेरित
होकर पृथ्वीराज की शक्ति को ध्वसस्त करने की कुटिल कामना से मुसलमानों को
बुलाया, पर कुछ दिन भी वह अपने इस घोर पाप का सुख न भोग सका। दो ही वर्ष के
भीतर उसी सेना ने, जिसे अपने देश भाइयों का रक्त बहाने के लिए बुलाया था,
उसको रणभूमि में सुलाकर उसका सर्वस्व हरण किया और द्रोह का भयंकर परिणाम
भारतवासियों को दिखला दिया। भारतवासियों की धर्म प्रवृत्ति का बौध्द धर्म
द्वारा जो संस्कार हुआ, उसे देखने से स्पष्ट झलकता है कि किस प्रकार
मनुष्यों का आचार व्यवहार और रीति नीति में अनुकूल परिवर्तन उपस्थित करने
के लिए परमात्मा की प्रेरणा से एक न एक नई शक्ति खड़ी हो जाती है। जिस समय
भारतवासी अपना सारा धर्म पुरुषार्थ वैदिक कर्मकाण्ड की जटिल क्रियाओं में
समझने लगे थे, उस समय उन्हें परोपकार और दया धर्म की ओर फिर से प्रवृत्त
करने के लिए भगवान् बुध्द का अवतार हुआ। अग्निष्टोम, वाजपेय, दर्शपौर्णमास
आदि का जितना फल समझा जाता था; उतना ही फल कुऑं, तालाब खुदवाने, बाग लगाने
आदि का समझा जाने लगा। यह ठीक है कि परमात्मा का व्यापक उद्देश्य कभी-कभी
हमारे संकुचित उद्देश्य से भिन्न होता है जिससे हमारे मन में अनेक प्रकार
की शंकाएँ उठती हैं। हम जैसा होना न्याय समझते हैं, वैसा होते न देख ईश्वर
के विषय में अनेक प्रकार के सन्देह करने लग जाते हैं। पर यदि विचारकर देखिए
तो इतिहास में चारों ओर परमेश्वर की प्रेरणा का आभास मिलता है। कितनी छोटी
छोटी बातों से संसार में कितने बड़े बड़े उलट फेर हुए हैं, यह प्रत्येक
इतिहासविज्ञ मनुष्य को विदित है। जहाँ एक शक्ति का पतन और नाश होता है,
वहाँ दूसरी शक्ति का उदय और उत्थान होता है। अव्यवस्था के उपरान्त व्यवस्था
स्थापित होती है, अन्धेकर के पीछे सुनीति का संचार होता है, दुर्बलता के
पीछे बल आता है, बड़े बड़े प्राचीन राज्यों के खण्डहरों की ईंटों को जोड़
बटोरकर नए नए अधिक बल वैभव सम्पन्न साम्राज्य खड़े होते हैं। मिस्र, बाबुल,
फारस आदि के अवशिष्टांग से यूनान की सभ्यता का विकास हुआ, यूनान की खंडित
शक्ति से रोम राज्य खड़ा हुआ और रोम राज्य के छितराए खण्डों से यूरोप की
आधुनिक राजनीतिक शक्तियों की सृष्टि हुई।
इस विषय पर विचार करते हुए पाठकों को थोड़ा मुगल बादशाह औरंगजेब के
धर्मान्धा शासन पर ध्या न देना चाहिए। मुगल राज्य औरंगजेब के समय में
उन्नति की चरम सीमा को पहुँचा। औरंगजेब मदान्ध होकर दक्षिण की बीजापुर आदि
गरीब रियासतों को हड़प करने के लिए बढ़ रहा था, पर बीच ही में यह क्या हुआ?
शिवाजी रूपिणी एक महाशक्ति ने दीनदार औरंगजेब के गले रोजा मढ़ दिया! औरंगजेब
के पहले सिक्ख जाति एक धार्मिक मण्डली मात्र थी। पर जब औरंगजेब की
धर्मान्धता हद को पहुँच गई और सिक्ख लोग सताए जाने लगे, तब सिक्ख जाति ने
अपने हाथ में अस्त्र लिया और औरंगजेब के सामने ही गुरु गोविन्दसिंह ने
सिक्खों की उस भावी शक्ति का आभास दे दिया जिसने सारे पंजाब में विजय का
डंका बजाकर अफगानिस्तान के पठानों को भी कँपा दिया। जिस समय नेपोलियन सारे
यूरोप को ध्वकस्त करने की कामना से चार लाख सेना लेकर रूस की ओर बढ़ा, उस
समय उसकी क्या गति हुई? उसके लाखों सिपाही तूफान और बर्फ में गलकर मर गए, न
जाने कितनों ने भूख और प्यास से तड़पकर अपने प्राण दिए, और वह अपना सा मुँह
लेकर बड़ी कठिनता से लौट सका।
पढ़ने से और और जो लाभ हैं, अब मैं उन्हें थोड़े में कहना चाहता हूँ। अध्यनयन
के द्वारा हम घर बैठे बड़े बड़े धुरन्धर विद्वानों के गम्भीर विचारों को जान
सकते हैं, संसार के प्राचीन महापुरुषों के सत्संग का लाभ उठा सकते हैं।
अध्य यन द्वारा हम ज्ञान के स्रोत तक बराबर पहुँच सकते हैं, चाहे ज्ञानदाता
जिस स्थान पर हो और जिस काल में हुआ हो। इस विषय में दिक् या काल कोई बाधा
नहीं डाल सकता। अध्यरयन के द्वारा हम वाल्मीकि, व्यास और गौतम से उतने ही
परिचित हो सकते हैं जितने उनके समकालीन थे। अध्यकयन हमें भारतवर्ष के अतुल
ज्ञानभण्डातर से सन्तुष्ट कर सकता है, यूनान, रोम आदि की व्यवस्थित विचार
परम्परा से परिचित कर सकता है, अरब, फारस आदि की भावुकता का अनुभव करा सकता
है। भवभूति को हम मृत कैसे समझें जब कि वह 'उत्तररामचरित' द्वारा हमें अपनी
मधुर वाणी सुना रहे हैं। क्या कालिदास की उज्जयिनी में शिप्रा के किनारे
जाकर हमारा ऑंसू बहाना ठीक है जबकि अपने अलौकिक काव्य द्वारा वे हमारे
सामने उपस्थित हैं। थोड़ा सोचिए तो कि इससे बढ़कर आनन्द और क्या हो सकता है
कि हम अपनी कोठरी में ऐसे-ऐसे साथियों को लिए आराम के साथ लेटे हैं जैसे
कालिदास, भवभूति, चन्दबरदाई, तुलसी, रहीम। हमारा जी जब चाहता है तब हम
जायसी की कहानी सुनकर अपना समय काटते हैं, जब मन में आता है अन्धो सूर के
प्रेम और चतुराई से भरे पद सुनकर रसमग्न होते हैं, कभी कल्पना में चित्रकूट
के घाट पर बैठे राम लक्ष्मण के दर्शन करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी की
गम्भीर गिरा से अपने उद्विग्न मन को शान्त करते और मर्यादापुरुषोत्ताम
भगवान् रामचन्द्र का चरित देख पुलकित होते हैं। एक कोने में कबीर अपनी एड़ी
बेड़ी बानी और 'सबद' 'साखी' द्वारा पंडितों और मुल्लाओं को फटकारते हुए बैठे
हैं। कहीं बौध्दों से झगड़ते झगड़ते थककर सिर पर हाथ दिए अद्वैतवादी
शंकराचार्य संसार को मिथ्या बतला रहे हैं, कहीं भूषण जी मरहठों के बीच बैठे
अन्याय दमन की उत्ते जना दे रहे हैं। इसी प्रकार की एक खासी मंडली जहाँ लगी
हुई है, वहाँ और कोई साथी न रहे तो क्या?
पुस्तकों के द्वारा किसी महापुरुष को हम जितना जान सकते हैं, उतना उसके
मित्र क्या पुत्र कलत्रा भी नहीं जान सकते। चाणक्य पर जितना उसके पाठक
विश्वास करते हैं, उतना उसके समय के लोग न करते रहे होंगे, उसकी बातचीत में
वे खरी खरी बातें न आती रही होंगी जो लेखों में आती हैं। ग्वाल आदि शृंगार
के कवियों से पाठकों के चरित्र और भाव जितने दूषित हो सकते हैं, उतने उनके
पास बैठनेवालों के न होते रहे होंगे। जो ग्रन्थकार अपने जीवनकाल में आस पास
के लोगों से बोलने चालने में बहुत संकोच करते थे, अध्य यनशील पुरुष के निकट
एकान्त में वे अपनी पुस्तकों द्वारा अपने हृदय के सारे भावों को बेधड़क
खोलकर प्रकट कर देते हैं। उनकी पुस्तकों द्वारा हम उन्हें पूर्ण रूप से
देखते हैं, उनकी सारी प्रकृति हमारे सामने आ जाती है, कोई बात छिपी नहीं
रहती। चाणक्य के महत्तव को जितना हम आजकल के लोग समझ सकते हैं, उतना उसके
समकालीन लोग नहीं समझ सकते थे। वे उसके गुण के प्रत्येक अंग को, उसकी
स्थिति के पूर्ण रूप को नहीं देख सकते थे। यदि किसी पर्वत के आकार और
विस्तार को पूर्ण रूप से देखना चाहो तो तुम्हें उससे कुछ दूर जाकर खड़ा होना
होगा। इसी प्रकार हम उससे 2000 वर्ष पीछे हटकर उसके 'अर्थशास्त्र' और
'नीति' द्वारा तथा इतिहास में अंकित उसकी कृतियों के परिचय द्वारा उसकी
बुध्दि की सूक्ष्मता और तत्परता का पूर्ण अनुमान और उसके बतलाए हुए आदर्श
राज्य की भावना का पूरा अनुभव कर सकते हैं।
जो विद्याभ्यासी पुरुष पढ़ता है और पुस्तकों से प्रेम रखता है, संसार में
उसकी स्थिति चाहे कितनी ही बुरी हो, उसे साथियों का अभाव नहीं खल सकता।
उसकी कोठरी में सदा ऐसे लोगों का वास रहेगा जो अमर हैं। वे उसके प्रति
सहानुभूति प्रकट करने और उसे समझाने के लिए सदा प्रस्तुत रहेंगे। कवि,
दार्शनिक और विद्वान् जिन्होंने अपने घोर प्रयत्नों द्वारा प्रकृति के
रहस्यों का उद्धाटन करके शान्ति और सुख का तत्व निचोड़ा है, बड़े बड़े
महात्मा, जिन्होंने आत्मा के गूढ़ रहस्यों की थाह लगाई है, सदा उसकी बातें
सुनने तथा उसकी शंकाओं का समाधान करने के लिएउद्यत रहेंगे। यदि पाठक चाहे
तो उनमें से प्रत्येक व्यक्ति उसको तुच्छ चिन्ताओं से मुक्त करके ऐसी
भावमयी सृष्टि में ले जाने के लिए तैयार रहेगा जहाँ सांसारिक प्रपंचों का
लेश नहीं। चाहे कितनी ही घोर नि:स्तब्धता हो, उसके कानों में प्रकृति का
मधुर और रहस्यपूर्ण संगीत पड़ेगा, कोमल और गम्भीर वचन सुनाई देगा। कालिदास
अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल से उसे मेघ के साथ उस अलकापुरी में पहुँचावेंगे,
जहाँ-
नित पौन के पेरे कितेकहु बादर घूमत-घूमत आवत हैं।
जल बूँदन की बरखा करिके ऍंगनान के चित्र मिटावट हैं।।
भयभीत से फेरि झरोखन ह्नै सिमिटे तन बाहर धावत हैं।
कढ़ि जान को बेगि धुऑं बनि के बड़े चातुर वेहू कहावत हैं।।
अथवा भवभूति के साथ जाकर वह उस दण्डक वन में थोड़ा विश्राम पावेगा, जहाँ-
कहुँ सुन्दर घनश्याम कतहुँ धारे छवि घोरा।
कहुँ गिरि खोहन गूँजि बढ़त झरनन कर सोरा।।
सुनसान कहुँ गम्भीर वन कहुँ सोर बनपसु करत हैं।
कहँ लपटि निसरत सुप्त अजगर साँस सन तरु जरत हैं।
गिरि खोह महँ कछु जल भरे कहुँ क्षुद्र खात लखात हैं।
अहि स्वेद गिरगिट पियत तहँ जब प्यास सन घबरात हैं।
तुलसीदास उसे अपने अपने साथ गंगा उतरकर वन की ओर जाते हुए राम लक्ष्मण को
दिखावेंगे जिनके अलौकिक सौन्दर्य के कारण-
गाँव-गाँव अस होइ अनन्दू।
देखि भानुकुल कैरव चन्दू।।
जो यह समाचार सुनि पावहिं।
ते नृप रानिहिं दोष लगावहिं।।
और कहेंगे-
धन्य भूमि बन पंथ पहारा।
जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा।।
धन्य बिहग मृग काननचारी।
सफल जनम भे तुमहिं निहारी।।
हम सब धन्य सहित परिवारा।
दीख दरस भरि नयन तुम्हारा।।
जायसी उसे कलिंग देश में ले जाकर जहाज पर चढ़ावेगा और राजा रतनसेन के साथ
सिंहलद्वीप में उतारकर प्रेमपथ का माधुर्य और त्याग दिखावेगा, फिर
चित्तौरगढ़ लाकर चिता पर बैठी पद्मावती (पिर्निंी) के सतीत्व की अद्भुत
दीप्ति का दृश्य सम्मुख करेगा। चन्दबरदाई उसे प्राचीन काल के सूर सामन्तों
की आन और नोंक झोंक दिखावेगा। इस प्रकार विद्याभ्यासी पुरुष बड़े बड़े लोगों
की प्रतिभा से अपने भावों को पुष्ट करेगा। प्रत्येक युग और प्रत्येक देश के
महान् पुरुष उसके सामने हाथ बाँध इस प्रकार खड़े रहेंगे जिस प्रकार
मन्त्रवेत्ता के आह्नान पर देवता उपस्थित होते हैं।
पढ़ते समय हमें विद्वान् और प्रतिभाशाली पुरुषों के मनोहर वाक्यों को, उनकी
चमत्कारपूर्ण उक्तियों और विचारों को मन में संचित करते जाना चाहिए जिसमें
हमारे पास ज्ञान का एक ऐसा प्रचुर भांडार हो जाय कि उसमें से समय समय पर,
जब जैसा अवसर पड़े, हम शान्ति, उपदेश और उत्साह प्राप्त कर सकें। इस प्रकार
का भण्डापर अधिकार में रखना उपयोगी और आनन्दप्रद दोनों है। बहुत से ऐसे
अवसर आ पड़ते हैं जब हमारा जी टूट जाता है और हमारी शक्ति शिथिल हो जाती है।
सोचिए तो ऐसे अवसरों पर किसी ऐसे पुरुषार्थी महात्मा को उत्साहपूर्ण वचनों
से कितना उत्साह प्राप्त होगा जिन्होंने कठिन संकट और विघ्न सहे पर अन्त
में अपने अध्यसवसाय के बल से सिध्दि प्राप्ति की। इस वचन से कितना उत्साह
मिलता है-
छाँड़िए न हिम्मत, बिसारिए न हरि नाम,
जाही विधि राखैं राम, वाही विधि रहिए।
प्रयत्न में हताश वा दुखी व्यक्ति को कितना धैर्य बँध सकता है, यदि उसे
किसी ऐसे महात्मा के वचन सुनने को मिलें जो दु:ख पड़ने पर कहता है-'ईश्वर
चाहता है कि हम इस दशा में रहें, हम इसकर्तव्यन को पूरा करें, हम इस व्याधि
को भोगें, हम इस विपत्ति में पड़ें, हम यह अपमान और ताप सहें। ईश्वर की जैसी
इच्छा! ईश्वर की यही इच्छा है, हम या संसार चाहे जो कुछ कहे। उसकी इच्छा ही
हमारे लिए परम धर्म है।' बहुत से अवसर आते हैं जब दूसरों की इच्छा के
अनुसार कार्य करना, दूसरों की अधीनता स्वीकार करना अभिमानी युवकों को बड़ा
कड़घआ जान पड़ता है। ऐसे अवसर पर वे इस बात का स्मरण कर लें तो बहुत ही अच्छा
है कि संसार में जितने बड़े बड़े विजयी हुए हैं वे आज्ञा मानने में वैसे ही
तत्पर थे जैसे आज्ञा देने में। बहुत से ऐसे अवसर आते हैं जब सत्य के मार्ग
पर स्थिर रहने की उचित दृढ़ता हमें नहीं सूझती, और हम चटपट आवेश में आकर काम
करना चाहते हैं। ऐसे अवसरों पर हमें गिरधर की इस चेतावनी का स्मरण करना
चाहिए।
बिना विचारे जो करे से पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो जग में होत हँसाय।।
अस्तु, पढ़ने का एक लाभ तो हुआ कि उससे हम समय पड़ने पर शिक्षा, उत्साह और
शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त उसके द्वारा हमें ऐसे ऐसे
अस्त्र प्राप्त होते हैं जिन्हें लेकर जीवन के भीषण संग्राम में हम अपनी
थाप रख सकते हैं। उससे हमें उत्तम और उत्कृष्ट विचारों का आभास तथा उत्तम
कार्यों की उत्तेेजना मिलती है। एक बार किसी सरदार ने राजा की इच्छा के
विरुध्द कोई उचित और न्यायसंगत कार्य करने पर उद्यत एक दूसरे सरदार को
परामर्श देते हुए कहा-'पर महाशय, राजाओं का क्रोध तो आप जानते हैं, मृत्यु
सामने रखी है।' दूसरे सरदार ने चट उत्तर दिया-'तब तो मुझमें और आपमें केवल
इतना ही अन्तर है कि मैं आज मरूँगा और आप कल।' इस अभिप्रायगर्भित वाक्य से
किसका उत्साह नहीं बढ़ेगा, जिसका चित्त दृढ़ नहीं होगा? छोटा है या बड़ा, यह
कोई बात नहीं। मुख्य बात यह है कि जो जिस श्रेणी में है, वह उसके धर्म का
पालन करता है या नहीं। साधारण विद्या बुध्दि का मनुष्य भी यदि मर्यादा का
ध्यासन रखता हुआ धर्मपूर्वक अपना कार्य करता जाय तो वह उसी प्रकार सफलमनोरथ
हो सकता है जिस प्रकार कोई बड़ा बुध्दिमान् मनुष्य। इस विषय पर मुझे बहुत
कहने की आवश्यकता नहीं। पढ़ने का बड़ा भारी अलभ्य और मनोहर लाभ यह है कि उससे
चित्त शुभ भावनाओं और प्रौढ़ विचारों से पूर्ण हो जाता है। जब कभी जी चाहे,
मनुष्य चुपचाप बैठ जाय और जो कुछ उसने पढ़ा हो उसका चिन्तन करता हुआ उपयोगी
और आनन्दप्रद विचारों की धारा में मगन हो जाय, इसके लिए उसे किसी प्रकार के
बाहरी आधार की आवश्यकता नहीं। खाली बैठे रहने के समय-जैसे रेल, नौका आदि की
यात्रा में-हमारे लिए यह एक अच्छा लाभकारी मानसिक व्यायाम रखा हुआ है कि हम
किसी अच्छे ग्रन्थकार की कोई पुस्तक उठा लें और उसकी बातों को; उसकी
चमत्कारपूर्ण उक्तियों को तथा उसके मनोहर दृष्टान्तों को हृदय में इस क्रम
से धारण करते जायँ कि जब अवसर पड़े, तब उन्हें उपस्थित कर सकें। हृदय का यह
भण्डावर ऐसा होगा जो खाली न होगा; दिन दिन बढ़ता जायेगा। इस प्रकार हृदय में
संचित किए हुए भाव और दृष्टान्त मोतियों के समान होंगे जिनकी आत्मा कभी
नष्ट व क्षीण नहीं होती।
पढ़ने से हमारे व्यवसायों की बुराइयों और प्रलोभनों का, हमारे आचार व्यवहार
की त्रुटियों का, हमारे समय की कुप्रवृत्तियों का जो निराकरण होता है, वह
भी थोड़ा लाभ नहीं है। इस विषय में अध्य,यन औषधोपचार का काम करता है। जो लोग
दिनभर ऐसे कामों में हैरान रहते हैं जिनमें कठिन तर्कवितर्क और सूक्ष्म
विवेचना की आवश्यकता होती है, उन्हें चाहिए कि जब अवकाश मिले तब वे
विस्तीर्ण कल्पना वाले लेखकों की भावमयी रचनाओं का अवलोकन करें। पर जहाँ तक
देखा जाता है, ऐसे लोग उत्कृष्ट कल्पनापूर्ण रचनाओं और काव्यों से दूर
भागते हैं, वे यह नहीं समझते कि उन्हें ऐसी पुस्तकों के अध्यायन की बड़ी
आवश्यकता है। क्योंकि जो अपने समस्त जीवन का संस्कार करना चाहता हो, उसे
अन्त:करण की ऐसी वृत्तियों का अभ्यास रखना चाहिए जिनका काम उसे अपने नित्य
के व्यवसाय में नहीं पड़ता अथवा जिनके व्यवहार की ओर उसकी स्वाभाविक
प्रवृत्ति नहीं होती। तर्कशास्त्र का अभ्यास ऐसे लोगों के लिए बहुत उपयोगी
होगा जो प्रमाणपूर्वक यथातथ्य बात कहने तथा प्रौढ़ युक्ति देने में अनभ्यस्त
हैं। जो जटिल विवेचना और कठिन मानसिक प्रयास में व्यस्त रहते हैं, काव्यों
के अवलोकन से उनके चित्त को बहुत विश्राम और आनन्द मिलेगा। बहुत से लोगों
के लिए ऐतिहासिक पुस्तकें औषध और पुष्टई का काम करेंगी। विशेष विशेष
पुस्तकें विशेष विशेष अवस्थाओं के लिए उपयोगी होंगी। नाच रंग और भोग विलास
की प्रवृत्ति का संशोधन भर्तृहरि के नीति और वैराग्यशतक तथा केशव की
विज्ञानगीता आदि से हो सकता है। जिसमें प्राकृतिक दृश्यों के सौन्दर्य के
अनुभव की मार्मिकता नहीं, उसमें कालिदास और भवभूति की वाणी सुनते सुनते यह
मार्मिकता आ जायगी। प्रत्येक अवसर और प्रत्येक दशा के लिए वाल्मीकि का
महाकाव्य उपयुक्त होगा। जो हर समय उदास और मुँह लटकाए रहते हैं, उनकी दवा
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और प्रतापनारायण मिश्र के नाटकों तथा बंगाली लेखक
दीनबन्धु मित्र के उपन्यासों से हो सकती है। मानसिक विकारों के लिए
पुस्तकें बहुत ही उपयुक्त औषध हैं। जिनका चित्त अपने आसपास के व्यापारों को
दिन रात देखते देखते ऊब गया हो, उन्हें चाहिए कि वे अद्भुत घटनाओं और
वृत्तान्तों से पूर्ण यात्रा की पुस्तकें पढ़ें। इससे उनका चित्त बहल जायेगा
और उनमें फुरती आ जायगी। 'चीन में तेरह मास', 'भारतभ्रमण', 'कोलम्बस की
यात्रा' इत्यादि को हाथ में लेकर जब वे चीन, लंका, अमेरिका की बैठे बैठे
सैर करेंगे, तब वे अपने को कारागार से मुक्त हुआ समझेंगे और सृष्टि के
विस्तार को देख प्रसन्न होंगे। संकीर्ण भाव के लोगों के आगे इतिहास की
पोथियाँ खोलकर रखनी चाहिए। एक ग्रन्थकार कहता है-'मुझे स्मरण आता है कि
मैंने एक बार एक ऐसे पुरुष को, जो पत्नी के मरने पर उसके वियोग में दिन दिन
घुलता जाता था और किसी प्रकार की दवा दारू के पास नहीं जाता था,
भूगर्भशास्त्र की दस पाँच बातें सुनाकर चंगा कर दिया। मैंने तो यह सोचा कि
जिस प्रकार पुस्तकालयों में लोग विषय के अनुसार दर्शन, गणित, इतिहास,
काव्य, विज्ञान आदि लिखकर अलमारियों पर चिपकाते हैं, उसी प्रकार जिन जिन
रोगों के लिए जो जो पुस्तकें उपकारी हों, उनकी अलमारियों पर उन्हीं रोगों
के नाम-काश, ज्वर, शोकोन्माद आदि-लिखकर लगा दूँ।' आगे चलकर वही ग्रन्थकार
थोड़ा गम्भीर होकर फिर कहता है-'जब कोई ऐसा दु:ख तुम्हारे चित्त में समा
जाता है जो हटाए नहीं हटता, और तुम यह समझने लगते हो कि जब ईश्वर ने इस एक
सुख से तुम्हें वंचित कर दिया तब फिर जीवन व्यर्थ है, तब तुम्हारे लिए
अच्छा यह होगा कि बड़े बड़े पुरुषों के जीवनचरित हाथ में लो। फिर देखो कि
उनमें एक पृष्ठ भी ऐसा न मिलेगा जिसमें किसी तुम्हारे दु:ख का पचड़ा गाया
गया हो। प्रत्येक पृष्ठ में बराबर जीवन में अग्रसर होते जाने की बात
मिलेगी। तुम पर जहाँ कोई दु:ख पड़ा, तुम समझते हो कि बस तुम बिना हाथ पैर के
हो गए, तुम्हारी कमर टूट गई। नहीं, कभी नहीं! तुम्हारे हाथ पैर टूटे नहीं,
उनमें झुनझुनी चढ़ गई है। जीवनचरित में तुम देखोगे कि किस प्रकार दु:खों को
लाँघता फाँदता महान् पुरुष का जीवन आगे बढ़ता गया है।'
मनुष्य को किन किन विषयों के पठन का क्रम रखना ठीक होगा, इसका विचार बहुत
कुछ उसके व्यवसाय के अनुसार होना चाहिए। जो दिन रात किस्से कहानियाँ ही पढ़ा
करता है, वह अच्छा गणितज्ञ कभी नहीं हो सकता। पर यह ध्यािन रखना चाहिए कि
पढ़ने का मुख्य उद्देश्य अन्त:करण का अर्थात् उसकी सब शक्तियों का समान
संस्कार है जिसमें जब जिस शक्ति का प्रयोजन पड़े, उससे काम लिया जा सके।
इससे हमें ऑंख मूँदकर विद्या के किसी एक ही विभाग की ओर संलग्न न हो जाना
चाहिए। विवेचना शक्ति का ऐसा अनन्य अभ्यास न करना चाहिए जिससे कल्पना की
शक्ति मारी जाय; और कल्पना के व्यवहार की ही इतनी अधिकता न हो कि विवेचना
की शक्ति मन्द पड़ जाय दोनों का पल्ला एक हिसाब में रखा जाय-ठीक उसी प्रकार
जैसे संगीत में बहुत से बाजे एक साथ बजते हैं। पर उनमें से कोई एक दूसरे को
दबाकर ऊँचा नहीं होने पाता, सब इस क्रम से बजते हैं कि स्वर मैत्री बनी
रहे। यदि कोई बजाज दिन-रात कपड़ों ही की बातचीत किया करे तो लोग ऊब जायँ और
उसके पास कोई न बैठे। एक अनुभवी नीतिज्ञ कहता है-''जो कोई मनुष्य
व्यवसायसम्बन्धी अध्युयन ही की ओर दत्ताचित्त रहेगा, संस्कार शिक्षा की ओर
मन न लगावेगा, उसे यह समझ रखना चाहिए कि व्यवसाय शिक्षा चाहे कितनी ही
पूर्ण हो, उसे व्यवसाय का पूरा परिज्ञान नहीं हो सकता। व्यवसाय की नियम
पध्दति में उसे अपने व्यवसाय का एक अत्यन्त आवश्यक अंग सीखने को रह जायेगा;
उसे इसका बोध न होगा कि व्यवसाय की विशेष बातों का मनुष्य की सामान्य
प्रवृत्तियों और भावनाओं से कैसा सम्बन्ध है। कानून ही के व्यवहार को लो।
एक ओर तो इससे बढ़कर कृत्रिम, आडम्बरपूर्ण तथा भावुकता शून्य दूसरा विषय
नहीं, दूसरी ओर मनुष्य जाति के स्वत्व, उसकी स्वतन्त्रता आदि से यह घनिष्ठ
सम्बन्ध रखता है जिससे एक वकील के लिए सब बातों का थोड़ा बहुत जानकार होना
जितना आवश्यक है, उतना अच्छा कानूनदाँ होना नहीं। जो मनुष्य विद्या के एक
ही अंग में लिप्त रह जाता है, वह उस अंग का भी पूर्ण अधिकारी नहीं हो सकता;
क्योंकि विद्या के भिन्न भिन्न अंगों का सम्बन्ध एक दूसरे से लगा हुआ है,
वे एक दूसरे के आश्रित हैं। जो अपना सारा जीवन केवल व्याकरण ही में बिता
देते हैं उनकी विद्या बुध्दि कैसी होती है, यह प्रकट ही है। जो ऑंख मूँदकर
किसी एक ही विषय में लीन रह जाता है, संसार उसे मूर्खों की कोटि में समझता
है। वह कुछ नहीं जानता। जहाज पर पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए कई बन्दरगाहों
पर उतरना पड़ता है, यदि विश्राम के लिए नहीं तो रसद के लिए सही। इसी से मेरा
प्रत्येक मनुष्य से यह कहना है कि जहाँ तक हो सके, किसी एक विषय में
प्रवीणता प्राप्त करते हुए सब बातों की आवश्यक जानकारी करो और पूरे मनुष्य
बनो। इससे उस विषय में भी उत्कृष्टता आवेगी और मानव जीवन भी सफल होगा। इस
ढंग में तुम उस विचार संकीर्णता से बच सकते हो जो किसी एक ही विषय में मग्न
रहनेवालों में पाई जाती है। सारांश यह कि पेशा व व्यवसाय चाहे जो हो, जो
लोग उस पेशे ही भर रह जायँगे, वे उन चीनियों के समान एकांगदर्शी और संकीर्ण
ज्ञान के हो जायँगे, जो अपने बनाए हुए भूगोल के नक्शे में चीन साम्राज्य के
तो छोटे छोटे गाँवों तक को लिखते हैं, पर उसके आगे लिख देते हैं 'अज्ञात
मरुभूमि' वा 'बर्बरों का देश'।
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए यह आवश्यक है कि आहार के लिए भिन्न भिन्न
प्रकार के और भिन्न भिन्न गुण रखनेवाले पदार्थ हों। हमें ऐसी वस्तुओं का
भोजन करना चाहिए जिनसे रुधिर भी बने, मांस भी बने, मेद भी बने, अस्थि भी
बने। मनुष्य रोटी ही पर नहीं रह सकते। यदि वे केवल रोटी ही खायँ तो उनके
जोड़ों और पेशियों में फुरती न रहेगी, स्नायुओं की शक्ति क्षीण हो जायगी,
हाथ पैर न उठेंगे और रक्त दूषित हो जायेगा। जो दशा शरीर की है, वही आत्मा
की भी है। अन्त:करण तभी सशक्त और फुरतीला रह सकता है जब उसके पोषण के लिए
भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुएँ पहुँचाई जायँ। उसकी कल्पना की शक्ति को भी
पोषण सामग्री पहुँचानी होगी और विवेचना की शक्ति को भी-विवेक को भी पुष्ट
रखना होगा और भावना को भी तीव्र रखना होगा। इस प्रकार अन्त:करण को स्वस्थ
और बलिष्ठ रखना ही पढ़ने का उद्देश्य है। अध्य यन से अन्त:करण की सारी
वृत्तियों का अभ्यास बढ़ता है, इससे बल और उत्साह भी प्राप्त होता है और
आवश्यकतानुसार शान्ति भी आती है।
मैं ऊपर बतला चुका हूँ कि पढ़ने का उद्देश्य चित्त में चेतावनी और उत्ते्जना
से भरी उत्तम उक्तियों को धारण करना भी है। इसी प्रकार पढ़ने का एक प्रयोजन
यह भी है कि इतिहास, काव्य आदि से उत्कृष्ट कर्मों के दृष्टान्तों को चुनकर
उन्हें हृदय में अंकित करके सजावे-ठीक उसी भाँति जैसे गुणी चित्रकार अपनी
चित्रशाला सजाता है। इन दृष्टान्तों और घटनाओं को एक एक करके स्मृति के
सम्मुख लाना, उनके ब्योरों पर ध्याषन देना, उनके महत्तव का चिन्तन करना और
उनसे उपदेश ग्रहण करना कितना आनन्ददायक होता है! वे चित्र जिन्हें पाठक
अपनी स्मृति में उपस्थित करेंगे, उतने ही रंग-बिरंग के होंगे जितने प्रकार
के ग्रन्थ वे देखेंगे। उन्हें भिन्न भिन्न जातियों के इतिहास से, श्रेष्ठ
पुरुषों के जीवनवृत्तान्तों से, कवियों की अलौकिक सृष्टि से, यात्रियों और
अन्वेषकों की छानबीन से, वैज्ञानिकों के अनुसंधान से अनेक प्रकार के रुचिर
और मनोरम दृश्य प्राप्त होंगे। वे वेदव्यास अंकित महात्मा भीष्म के उस समय
के पराक्रम को देखेंगे जब वे रथ पर चढ़े पाण्डव सेना पर अनिवार्य अस्त्रों
की वर्षा कर रहे थे, अपने बाणों के अखण्ड प्रवाह से पाण्डवों को विकल कर
रहे थे और अर्जुन ऐसे धीर और पराक्रमी पुरुष के छक्के छुड़ा रहे थे। उसके
उपरान्त फिर उन्हीं वृध्द भीष्म पितामह को पाठक शरशय्या पर लेट लेटे
राजनीति और धर्म के गूढ़ तत्तवों का उपदेश करते देखेंगे। पाठक अपने
स्मृतिक्षेत्र में देशभक्ति के और सच्ची वीरता के इस दृश्य को जब चाहें तब
देख सकते हैं-'आज 1662 संवत् के श्रावण मास की सप्तमी है। आज मेवाड़ के
राजपूत 'स्वर्गादपि गरीयसी' जन्मभूमि के लिए प्राण देने को उद्यत हुए हैं।
बादशाह अकबर की कई लाख सेना मानसिंह के साथ मेवाड़ पर अधिकार करने को आई है।
मोगल सम्राट सूर्यवंश पर कलंक की कालिमा लगाने पर उद्यत हैं। इधर मेवाड़ के
वीर-शिरोमणि महाराणा प्रतापसिंहजी इस वंश की पवित्रता को अटल रखने के लिए
प्राणपण से कटिबध्द हैं। सच्चे क्षत्रिय वीर ने सच्चे क्षत्रियपन के गौरव
की रक्षा का संकल्प विकल्प किया है। चिरस्मरणीय हल्दीघाटी के मैदान में
मेवाड़ के अवलम्ब और गौरव स्वरूप केवल बाईस हजार राजपूत वीर इकट्ठे हैं और
महाराणा प्रताप इनके नेता बनकर असंख्य मुगल सेना की गति का अवरोध करने को
खड़े हैं।' पाठकों को इतना ही आभास दे देना बहुत होगा। वे स्वयं भिन्न भिन्न
प्रकार की पुस्तकों से भिन्न भिन्न प्रकार के मनोहर दृश्य चुन लेंगे।
सच्चा विद्यानुरागी ज्ञानप्राप्ति का साधन इसलिए करेगा जिसमें वह अपना तथा
दूसरों का हित साधन कर सके। उसका मुख्य उद्देश्य उन शक्तियों की वृध्दि और
परिष्कृत का साधन होना चाहिए जो उसे प्राप्त हैं। और उस साधन का मुख्य फल
वह आनन्द होना चाहिए जो ज्ञान द्वारा प्राप्त होता है। ऐसे व्यक्ति को पढ़ने
का लाभ मैं और क्या बतलाऊँ? प्रसिध्द ऍंगरेज विद्वान् बेकन का उपदेश
है-'हमें खण्डन मण्डन करने के लिए, विश्वास और स्वीकार करने के लिए, तरह
तरह की बात करने के लिए नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि विवेक और विचार के लिए पढ़ना
चाहिए।' आगे चलकर उसने पठन, वार्तालाप और लेखन का भेद समझाया है कि पठन से
पूर्णता, वार्तालाप से तत्परता और लेखन से यथार्थता आती है। इसी से वह कहता
है-'यदि कोई मनुष्य थोड़ा लिखे तो समझना चाहिए कि उसे धारणा की आवश्यकता है;
यदि थोड़ा वार्तालाप करे तो समझना चाहिए कि उसमें उपस्थित बुध्दि का अभाव
है; और यदि थोड़ा पढ़े तो समझना चाहिए कि उसे चतुराई और समझ की आवश्यकता है।'
बातचीत और लिखना दोनों बहुत प्रयोजनीय हैं। बातचीत व्यवहारकुशल पुरुषों के
लिए प्राय: पुस्तक का काम देती है। पर विद्यानुरागी के लिए पढ़ना एक बड़ा
भारी मन्त्र है जिसके प्रभाव से चिरकाल का संचित ज्ञानभण्डाुर उसके सामने
खुल पड़ता है, वह सब काल के पुरुषों का समकालीन हो जाता है, और सब जातियों
के विचारों का आगार बन जाता है, सैकड़ों पीढ़ियों के प्रयत्न का फल उसके हाथ
में आ जाता है। यह प्रत्यक्ष है कि मनुष्य के कर्मों की व्यवस्था ज्ञान से
प्राप्त होती है; और ज्ञान वही श्रेष्ठ है जो अनेक विषयों से सम्बन्ध रखता
है। ऐसे ज्ञान का द्वार अध्य यन है।
पर अध्य्यन वा पढ़ना है क्या वस्तु? बिना किसी उद्देश्य के यों ही सरसरी तौर
पर पुस्तकों के पन्ने उलटते जाना, जैसा कि प्राय: लोग मनबहलाव के लिए अवकाश
के समय किया करते हैं, पढ़ना नहीं है; बल्कि उनमें लिखी बातों को
विचारपूर्वक स्थिर किए हुए नियमों और व्यवस्थाओं के अनुसार पूर्णरूप से
हृदय में ग्रहण और धारण करने का नाम पढ़ना है। आर्थर हेल्पस् कहते
हैं-'प्रत्येक स्त्रीख पुरुष को, जो थोड़ा बहुत पढ़ सकता है, अपने पढ़ने का
कोई उद्देश्य स्थिर कर लेना चाहिए। वह अपनी शिक्षा का कोई एक मूल काण्ड मान
ले जिससे चारों ओर शाखाएँ निकलकर उस मूल वृक्ष के लिए प्रकाश और वायु संचित
करें जो आगे चलकर शोभायमान और उपयोगी निकले तथा बराबर फूलता-फलता रहे।
विद्यार्थी को इसका ध्या न सबसे पहले रखना चाहिए। यदि वह बिना नक्शे वा
धारुवयन्त्र के यों ही विद्या के अपार समुद्र में चल पडेग़ा और यह स्थिर न
कर लेगा कि उसे किस बन्दर की ओर चलना है, तो या तो उसकी नाव डूब जायगी या
हवा और लहरों के झोंके खाती इधर उधर टकराती फिरेगी।' यहाँ पर कोई एक ऐसी
युक्ति बतलाने की चेष्टा करना मूर्खता ही होगी जिसके अनुसार प्रत्येक
मनुष्य अपने लिए अध्यकयन का मार्ग स्थिर करे। हाँ इतना कहा जा सकता है कि
कोई पुरुष सरसरी तौर पर पढ़ने का अभ्यास न डाले, बल्कि अपने मानसिक संस्कार
का ध्या न रखे। यदि वह ऐसा करेगा तो उसे कुछ दिनों में आपसे आप मालूम हो
जायेगा कि क्या करना चाहिए। यद्यपि अध्यकयन के लिए कोई ऐसी सटीक युक्ति
नहीं बतलाई जा सकती, पर विद्यार्थी को जिन साधारण सिध्दान्तों पर अपने
अध्यइयन का क्रम स्थिर करना चाहिए; वे निर्धारित किए जा सकते हैं।
सबसे पहली बात तो यह है कि पढ़ना नियमपूर्वक होना चाहिए, अर्थात् उसके लिए
नित्य कुछ समय रख लेना चाहिए और इस बात का ध्या,न रखना चाहिए कि बहुत ही
आवश्यक बातों को छोड़ और दूसरी बातें उस समय के बीच बाधक न होने पावें। यदि
विद्यार्थी को जीविका के लिए कोई काम करना पड़ता हो, तो यह समय के अनुसार ही
रखा जा सकता है। बहुत करके ऐसे व्यक्ति को रात ही को ऐसा समय मिल सकता है
जिसमें यह अपनी प्रिय पुस्तकों को हाथ में ले। अन्यथा सबेरे का समय ही
एकाग्र चित्त के अध्युयन करने के लिए उपयुक्त होता है। उस समय चित्त बहुत
तत्पर रहता है। रात भर के विश्राम से उसकी सारी शक्तियाँ काम करने के लिए
तैयार रहती हैं। सूरदास के विषय में प्रसिध्द है कि वे नित्य सबेरे
स्नानादि के उपरान्त कुछ पद बनाकर तब जलपान आदि करते थे। यही बात कई भक्त
कवियों के विषय में कही जाती है। प्रसिध्द ऍंगरेज उपन्यासकार स्कॉट
प्रात:काल जलपान आदि करके दोपहर तक लिखता था। पर चाहे सबेरे का समय हो चाहे
रात का, चाहे एक घण्टे का समय लगाया जाय चाहे दो-तीन घण्टे का, उसका नियम
बराबर रखना चाहिए। टेव ही सब कुछ है। प्राय: ऐसा होता है कि हमारा पढ़ने
लिखने को जी नहीं चाहता, आलस्य मालूम होता है। इसे दृढ़तापूर्वक रोकना
चाहिए, नहीं तो आत्मसंस्कार की सारी आशा धूल में मिल जायगी। इस बुरे प्रभाव
से बचने की सबसे अच्छी युक्ति यह है कि बाँधो हुए नियम का दृढ़तापूर्वक पालन
करे, उसे टूटने न दे। हमारा चित्त सदा एक सा नहीं रहता। उसमें सदा एक सी
तत्परता नहीं रहती। आज हम जिस बात को लेकर आशा और उत्साह से भरे हैं, उसी
बात से कल कोई आशा नहीं बँधती। प्रत्येक मनुष्य चित्त की इस चंचलता के
वशीभूत है। पर यदि बुध्दि उदय होकर तुम्हें आलस्य छोड़ने और उत्साह के अभाव
में भी कठपुतली की तरह चटपट काम कर चलने का आदेश करे और तुम उस काम को कर
चलो, तो थोड़ी ही देर में देखोगे कि तुममें ज्यों का त्यों उत्साह आ गया है।
फिर तुम सोचोगे कि हमने बहुत अच्छा किया जो आलस्य के फेर में पड़कर अपने
नियमित विधान नहीं छोड़े। बुध्दि को साधाना का सहारा दो, आलस्य और खिन्नता
को अपने दृढ़ संकल्प द्वारा हटाओ; फिर देखोगे कि आलस्य तुम्हें आता ही नहीं
और तुम्हारे चित्त में संयम और अध्यिवसाय का संस्कार दृढ़ हो गया है।
दूसरी बात यह है कि पढ़ना समझ बूझकर हो अर्थात् हम ग्रन्थकार के भाव को ठीक
ठाक समझने का उद्देश्य रखें, उसकी वाक्य रचना पर ध्याान दें, उसके पूर्व
पक्ष और उत्तर पक्ष को समझें, उसकी त्रुटियों का पता लगावें तथा उसके
सिध्दान्तों की परीक्षा करें। हम जो पुस्तक पढ़ें, उसका मत भी देखें और अपना
मत भी देखें। उस पुस्तक का अभिप्राय क्या है? उस अभिप्राय का साधन वह किस
ढंग से करती है? क्या हम उसके अभिप्राय को पूर्णरूप से समझते हैं और उसके
साधन को अच्छी तरह निरीक्षण करते हैं? क्या उसमें किए हुए तर्क से हमारा
समाधान होता है? क्या उसके वर्णन हमारे चित्त में स्पष्ट दृश्य उपस्थित
करते हैं? उसमें वस्तुओं और व्यक्तियों के जो जो प्रसंग आए हैं, उन्हें हम
अच्छी तरह समझते हैं? सारांश यह कि क्या हमारा चित्त वही भाव ग्रहण करता है
जो ग्रन्थकार ने धारण किया था? क्या हम उसी रूप से विवेचना करते हैं जिस
रूप से उसने की थी? क्या हमारे विचार में भी वैसा ही आया है जैसा उसके
विचार में आया था? यदि नहीं, तो क्या हम यह देख सकते हैं कि किन किन बातों
में और कहाँ तक हम उससे सहमत नहीं हैं और क्यों सहमत नहीं हैं? इन प्रश्नों
का ठीक ठीक उत्तर बिना सूक्ष्मता के साथ डूबकर अध्यऔयन किए हुए नहीं दिया
जा सकता। इस रीति से अध्यरयन करने का कष्ट प्राय: नवयुवक नहीं उठाते। पर
उन्हें समझ रखना चाहिए कि बिना इस ढंग से अध्यरयन किए किसी अच्छे ग्रन्थ वा
बड़े ग्रन्थकार का अभिप्राय पूर्ण रूप से समझ में नहीं आ सकता। वह प्रणाली
पहले बहुत लम्बी चौड़ी और कष्टसाधय प्रतीत होगी, पर थोड़े दिनों के अभ्यास से
हम इसका अनुसरण सहज में और जल्दी जल्दी करने लगेंगे। काल पाकर हमें इसकी
टेव सी पड़ जायगी और हम झट झट पृष्ठ पर पृष्ठ पढ़ते जायँगे और हमारा पढ़ना इसी
प्रणाली के अनुसार आपसे आप होगा। पर यदि ऐसा भी न हो, तो भी इस प्रणाली से
अध्यायन करने में जो अधिक समय और परिश्रम लगेगा, उससे भरपूर लाभ होगा। जो
पुस्तक इस प्रकार समझ बूझकर पूर्णरूप से पढ़ी जायगी, वह सब दिन के लिए हमारी
हो जायगी, उसके भाव हमारी नस नस में घुस जायँगे और उसका विषय हमारे ज्ञान
का एक अंग हो जायेगा। इस प्रकार पूर्णरूप से दस पुस्तकों का पढ़ना साधारण
रीति से सौ पुस्तकों के पढ़ने से अच्छा है। जो मुसाफिर डाकगाड़ी में बैठा
रम्य से रम्य प्राकृतिक दृश्यों के बीच से होकर 35 मील प्रति घण्टे के
हिसाब से भागा जाता है, वह भला क्या देख-सुन सकता है? वह एक बड़े देश से
होकर निकल जायेगा, पर उसकी विशेषताओं को न जान सकेगा। एक बात और भी है। यदि
इस प्रणाली का पूर्णतया अनुसरण किया जायेगा तो पढ़ने में बड़ी सुगमता होगी;
क्योंकि इसके द्वारा हम प्रस्तुत पुस्तकों की अच्छी बातों का पूरा आनन्द
लेते जायँगे। बहुत से नवयुवक यह कहते सुने जाते हैं कि मैंने यह पढ़ा है वह
पढ़ा है; पर यदि उनसे पूछिए तो पुस्तक के नाम के सिवा वे और बात नहीं बतला
सकते। यह कोई पढ़ना नहीं है, इसे समझ बूझकर पढ़ना नहीं कह सकते। तुम किसी
पुस्तक को तब तक पढ़ी हुई नहीं कह सकते जब तक कि उसका सारतत्वक, उसके निरूपण
की शैली, ग्रन्थकार की तर्क प्रणाली तथा उसके सिध्दान्तों को पुष्ट करने
वाले दृष्टान्त तुम्हारे मन में बैठ न जायँ।
मैंने अध्यपयन की उस प्रणाली से बहुत ही लाभ उठाया है जिसे उध्दरणी कहते
हैं। इस प्रणाली में बार बार दोहराने की क्रिया करनी पड़ती है जिससे पढ़ी हुई
बात मन में बैठ जाती है। मैं पढ़ने में इसी प्रणाली का अनुसरण करता हूँ। जब
मैं किसी पुस्तक का एक प्रकरण पढ़ चुकता हूँ, तब मैं पुस्तक को बन्द कर देता
हूँ और उसमें आई हुई मुख्य-मुख्य बातों को फिर ध्यारन पर चढ़ाता हूँ। इसी
क्रम से मैं एक एक प्रकरण पढ़ता जाता हूँ। जब पुस्तक समाप्त हो जाती है, तब
मैं सारी पुस्तक के विषय का अनुक्रम, एक एक प्रकरण करके, मन में धारण करता
हूँ और इस प्रकार पुस्तक की सारी बातों को मन में दोहरा जाता हूँ। यह हो
सकता है कि कोई मनुष्य बहुत सी पुस्तकें पढ़े और कुछ भी न जाने। पढ़ने का जो
ढंग ऊपर बतलाया गया है, उसके अनुसार यदि कोई पढ़े तो उसे पुस्तकों के विषय
पर पूरा पूरा अधिकार हो जायेगा। यह ढंग जल्दी जल्दी पढ़ने के लिए तो उपयुक्त
नहीं है, पर सम्यक् रूप से पढ़ने के लिए उपयुक्त है। जब कोई युवा पुरुष पढ़ना
आरम्भ करे, तब उसे चाहिए कि वह धीरे धीरे समझ बूझकर पढ़े। दूर जानेवाला कोई
हरकारा जब अपनी यात्रा आरम्भ करता है, तब धीरे धीरे चलता है; फिर ज्यों
ज्यों पैर गरमाता जाता है, वह अपनी चाल बढ़ाता जाता है। यदि कोई पाठक पहले
ही बहुत अधिक आगे बढ़ना चाहेगा तो उसका चित्त बहुत सी बातों के बोझ से घबरा
जायेगा और वह विषय को ग्रहण और धारण न कर सकेगा। प्राचीन काल के पण्डित और
विद्वान् आजकल के पण्डितों और विद्वानों से एक बात में अच्छे थे। उनके पास
पुस्तकें तो थोड़ी ही सी रहती थीं, पर वे उन्हें अच्छी तरह पढ़ते थे। बहुत सी
पुस्तकों ही से बोध नहीं हो जाता। बोध के लिए यह देखना आवश्यक नहीं है कि
'हमने कितना पढ़ा है' बल्कि यह देखना आवश्यक है कि 'हममें कितना उपस्थित
है।' एक अनाड़ी किसान सौ बीघे में भी उतनी फसल नहीं पैदा कर सकता, जितनी एक
चतुर किसान पचास बीघे में कर सकता है।
पढ़ने के समय एक नोट बुक रख लेने से बड़ी सहायता मिल सकती है। जो पुस्तक तुम
पढ़ो, उसके उत्तम और चमत्कारपूर्ण अंशों को उसमें अक्षरक्रम से या और किसी
क्रम से टाँकते जाओ। पढ़ते समय हाथ में एक पेंसिल भी रखो और (यदि पुस्तक
तुम्हारी हो तो) पृष्ठ के किनारे ऐसे स्थलों पर निशान करते जाओ जो बार बार
पढ़ने योग्य हों, जिनमें कोई सुन्दर उक्ति हो, जो संदिग्ध हों, अथवा जिनके
विषय में छानबीन आवश्यक हो। पठन प्रणाली के कई एक लेखकों ने पुस्तक पर
निशान करने के लिए इतने प्रकार के चिद्द बनाए हैं कि यदि कोई पाठक उनका
व्यवहार करे तो सारी पुस्तक ही रँग जाय। पर मैंने जहाँ तक अनुभव किया है,
केवल चार चिद्दों से काम चल जाता है। वे चार चिद्द ये हैं-
। इस चिद्द से यह सूचित होता है कि जहाँ यह लगा है, उस स्थल का भाव या
उक्ति सुन्दर है।
× इससे ऊपरवाले चिद्द का उल्टा अभिप्राय समझना चाहिए।
? इस चिद्द से यह अभिप्राय है कि बात संदिग्ध वा अयथार्थ है।
0 यह सूचित करता है कि कथन कहीं से उध्दात है, वा विचार कहीं से लिए गए
हैं।
बहुत से चिद्दों का आडम्बर रखने से पढ़ने से सुविधा न होगी, रुकावट होगी,
क्योंकि पढ़नेवाले का ध्याडन इन्हीं चिद्दों की ओर रहेगा, विषय की ओर न
रहेगा। उसका पढ़ना इसी प्रकार होगा जैसे कोई रास्ते में मील या फलाँग के
पत्थर गिनता चले और चारों ओर के रमणीय दृश्यों और विशेषताओं की ओर ध्याइन न
दे।
पढ़ने में विषयों का विभाग भी अत्यन्त प्रयोजनीय है। हमें ऐसी शक्ति प्राप्त
करनी चाहिए कि जिस धारण करने योग्य विचार का एक बार हमारे चित्त में संचार
हो, उसे हम धारण करे लें। 'नोटबुक' और चिद्दों से, जिनका उल्लेख ऊपर हुआ
है, विषयविभाग में बड़ी सहायता मिलेगी; पर सबसे अधिक सिध्दि अन्त:करण में
स्थिति, अन्वय और व्यतिरेक की शक्ति की साधाना से होगी। पाठक को अपने
विचारों को सुव्यवस्थित करने का अभ्यास करना चाहिए। ज्यों ज्यों वह पढ़ता
जाय, त्यों त्यों उन भावों और विषयों को क्रमबध्द करता जाय जो उसके सामने
आवें।
विषयों के अध्यनयन का कोई क्रम होना चाहिए। इस क्रम का अभाव बड़ी भारी भूल
है जो प्राय: नवयुवकों से हुआ करती है। वे काव्य पढ़ते पढ़ते इतिहास पढ़ने
लगते हैं, इतिहास छोड़कर तर्क विद्या की ओर झुकते हैं, फिर उपन्यास हाथ में
लेकर बैठते हैं; सारांश यह कि जैसे भिखमंगे एक द्वार से दूसरा द्वार देखा
करते हैं, वैसे ही वे एक विषय से दूसरे विषय की ओर जाया करते हैं। वे लोहे
की खान खोदते खोदते ताँबे की खान खोदने लगते हैं, फिर सीसे की खान की ओर
लपकते हैं। तात्पर्य यह कि एक एक करके वे प्रत्येक विषय का पल्ला चूमते हैं
पर किसी में कुछ काल तक नहीं लगे रहते। इस प्रकार का पढ़ना अध्य यन के
उद्देश्य और अभिप्राय का साधाक नहीं बाधक होता। इससे चित्त सदा चंचल और
अस्थिर रहता है; और बहुत से विषयों का बोझ लाद देने से बुध्दि स्तब्ध और
शिथिल हो जाती है। सोचना चाहिए कि पढ़ने का उद्देश्य क्या है। जैसा कि बेकन
ने कहा है-'पढ़ना खण्डन मण्डन करने, वा मानने मनाने के लिए नहीं होता, बल्कि
विचार और विवेक के लिए होता है।' अस्तु; हम लोग जो कुछ पढ़ें, एक क्रम के
साथ पढ़ें जिसमें जो कुछ हम पढ़ें, उसे अच्छी तरह समझें बूझें। पढ़ना हमें
केवल ज्ञान की सामग्री प्रदान करता है, विषय में पूर्ण प्रवेश चिन्तन से
होता है। जिस प्रकार चौपाये एक बार जो कुछ खाते हैं, उसे फिर जुगाली के
द्वारा कई बार कुचलते हैं, तब वह उनके शरीर में लगता है, उसी प्रकार
अध्यफयन में बिना चर्वितचर्वण के ज्ञान प्रौढ़ नहीं होता। यों ही मोटे तौर
पर बहुत से विषयों का स्पर्श करते रहने से ज्ञान के भण्डा्र की वृध्दि नहीं
होती; क्योंकि दूसरों के कथन को न हम ठीक ठीक दोहरा सकते हैं और न उनके
तर्क और प्रमाण को अपने हृदय में उपस्थित कर सकते हैं। इस प्रकार की
जानकारी वैसी ही होती है जैसी सुनीसुनाई बातों की। इस प्रकार की जानकारी जो
कभी कहीं प्रकट करता है, तो उसका आधार या तो कुछ रटे हुए वाक्य होते हैं या
बिना सोचे समझे सिध्दान्त।
मान लीजिए कि किसी ने 'महाराष्ट्र जाति के अभ्युदय का इतिहास' पढ़ने में
लग्गा लगाया है। उसके लिए देश की उस अवस्था की पूरी छानबीन करनी चाहिए जो
महाराष्ट्र आधिापत्य के समय में थी। पहले तो उसे तत्कालीन लेखकों के दिए
हुए वृत्तान्तों का पूरा परिचय प्राप्त करना चाहिए जिसमें घटनाओं का क्रम
उसे ठीक ठीक विदित रहे, जिसमें उसके सहारे पीछे के इतिहास लेखकों के
सिध्दान्तों और अनुमानों की वह पूर्ण परीक्षा कर सके। इस ढंग से जिस विषय
को विद्यार्थी उठावे, उसका अन्त तक अध्यरयन करे; यह नहीं कि बीच में किसी
अन्य विषय की कोई अच्छी पुस्तक देखी तो सब छोड़ छाड़कर उसी की ओर लपक पड़े।
समय समय पर सब विषयों का अनुशीलन करना चाहिए पर जो विषय हाथ में हो उसे एक
ठिकाने पर छोड़ना चाहिए। उस किसान को लोग क्या कहेंगे जो एक खेत में दो कूँड़
डालकर हल बैल लेकर दूसरे खेत में पहँचता है, फिर दूसरे से तीसरे में? लोग
यही कहेंगे कि वह ऐसा काम करके अपना समय और श्रम नष्ट करता है। विचार कर
देखिए तो यही दशा बहुत से पाठकों की पाई जायगी। वे बड़ी उतावली के साथ कभी
एक विषय को हाथ में लेते हैं, कभी दूसरा विषय उठाते हैं, कभी थोड़ा इधर पढ़ते
हैं, कभी थोड़ा उधर, कभी इतिहास का एक प्रकरण पढ़ते हैं, फिर गणित की कोई
क्रिया करने लगते हैं। इसका फल क्या हो सकता है? बिना किसी क्रम और
व्यवस्था के धारणा में बहुत सी ऊटपटाँग और बेमेल बातों को स्थान देने से
कोई लाभ नहीं हो सकता। जैसे और सब बातों में वैसे ही पढ़ने के विषय में भी
पक्का सिध्दान्त यही है कि एक समय में एक ही चीज पढ़ी जाय, और अच्छी तरह पढ़ी
जाय। तीन घोड़ों पर चढ़ कर केवल सरकसवाले निकलते हैं, पर सवार जिसे किसी
दूसरे प्रदेश में जाना रहता है, एक ही जँचे हुए घोड़े पर चढ़कर निकलता है। वह
अस्थिर चित्त का मनुष्य जो कभी कविताएँ लिखता है, कभी पुरातत्वप में टाँग
अड़ाता है, कभी राजनीतिक विषयों पर व्याख्यान देता है, किसी एक में भी
प्रवीणता नहीं प्राप्त कर सकता। सच्चे विद्यार्थी को इस प्रकार की कुदान और
सरसरी पढ़ाई से दूर रहना चाहिए, यह न समझना चाहिए कि बहुत से विषयों का
पल्ला चूमने से ही आदमी कुछ सीख सकता है या बहुत सी पुस्तकें उलटने ही का
नाम खूब पढ़ना है। एक अनुभवी ग्रन्थकार का उपदेश ध्याकन देने योग्य है जो
कहता है-'साधारणत: पढ़ने की ओर प्रवृत्ति आनन्द और शिक्षा के लिए होती है।
इससे युवा पुरुष का पढ़ना ऐसा होना चाहिए जिसमें कुछ श्रम मालूम हो और जिसका
कुछ विशिष्ट उद्देश्य हो। जिसमें कुछ श्रम पड़ता है, उससे अन्त:करण की सब
शक्तियों पर जोर पड़ता है। और कोई विशेष उद्देश्य रखकर हम जो कुछ पढ़ते हैं,
उसकी धारणा जितनी दृढ़ता के साथ ग्रहण करती है, उतनी दृढ़ता के साथ यों ही
सरसरी तौर पर पढ़ी हुई बातों को नहीं।'
एक बात और है। विद्याभिलाषी जो कुछ पढ़े, उसे आलोचनापूर्वक पढ़े। इसी
सिध्दान्त की ओर लक्ष्य करके एक विद्वान् कहता है-'कुछ पुस्तकें ऐसी होती
हैं जिन्हें सरसरी तौर पर ही पढ़ने के लिए एक आदमी की पूरी उमर चाहिए, कुछ
ऐसी होती हैं जो पढ़ने में सहायक मात्र होती हैं और जिनका काम समय पर पड़ता
है, कुछ ऐसी होती हैं जो केवल खुशामद वा शिष्टाचार के निमित्त लिखी जाती
हैं और जिनका केवल देख लेना ही पढ़ जाना है।' इन भारी भारी पुस्तकों, सहायक
पुस्तकों और शिष्टाचार की पुस्तकों को अलग रखकर विद्यार्थी को ऐसी ऐसी
पुस्तकें पढ़नी चाहिए जो उसे कुछ सिखावें, जो यह बतलावें कि कैसे जीना और
कैसे मरना होता है, जो उसकी धारणा में उत्तम ज्ञान का भण्डाौर भर दें और
कल्पना में उत्तम उत्तम चित्र अंकित कर दें, उसके श्रेष्ठ मनोवेगों को
उभाड़ें तथा हृदय की पवित्र और मृदुल भावनाओं को प्रेरित करें। उसे अपने
पढ़ने के लिए पुस्तकें बहुत सोच-विचार कर चुननी चाहिए, क्योंकि जो समय बुरी
पुस्तक देखने में जाता है, वह नष्ट हो जाता है; और नष्ट करने के लिए
विद्यार्थी को समय नहीं मिल सकता। अच्छी पुस्तकों की भी तीन श्रेणियाँ
हैं-एक तो वे पुस्तकें जिनका ऊपर बताए हुए ढंग से पूर्ण अनुशीलन करना
चाहिए, दूसरी वे पुस्तकें जिनका दो तीन बार पढ़ जाना ही काफी है, तीसरी वे
जिन्हें एक बार से अधिक पढ़ने की आवश्यकता नहीं। जैसे और सब काम करने के
वैसे ही पढ़ने के भी तीन ढंग कहे गए हैं-साधारण पढ़ना, अच्छी तरह पढ़ना और खूब
अच्छी तरह पढ़ना। पर इस अन्तिम ढंग से पढ़ने के योग्य पुस्तकें कितनी थोड़ी
हैं! ऐसी पुस्तकें कितनी थोड़ी हैं जिनके विषय में मिल्टन की यह उक्ति
चरितार्थ होती हो कि 'पुस्तकों में वैसी ही क्रियमाण जीवनशक्ति उत्पन्न
करने का गुण होता है जैसी उनके लिखनेवालों की आत्मा में थी।' पुस्तकों में
उनके कर्ताओं की पवित्र बुध्दि का सार खींचकर रखा रहता है, जिनके सेवन से
मननशील पुरुषों में ज्ञानशक्ति का संचार होता है।
मिल्टन ने आलोचनापूर्ण अध्यनयन कोकर्तव्यर ठहराकर इस बात का पक्ष लिया है
कि पुस्तकों के प्रकाशन में किसी प्रकार की बाधा राज्य की ओर से न होनी
चाहिए, सब प्रकार की पुस्तकें छपें और प्रकाशित हों। बहुत से धार्मिक
महात्मा हो गए हैं जो नास्तिकों की लिखी पुस्तकों को बराबर देखते थे। एक
धर्मात्मा साधु के विषय में मिल्टन ने लिखा है-'वह मनसा, वाचा, कर्मणा किसी
प्रकार कोई पाप नहीं करना चाहता था। एक दिन सोचते-सोचते वह इस उलझन में पड़
गया कि मैं कैसी बातों पर विचार करूँ। इसी बीच में उसे दैवी स्वप्न हुआ कि
चाहे जो पुस्तक तेरे हाथ में आवे, उसे तू पढ़ डाल; क्योंकि तेरी बुध्दि सत्य
का निर्णय करने और प्रत्येक विषय की ठीक ठीक परीक्षा करने के योग्य है।'
जिसे पर्यालोचन का अभ्यास हो जाता है, वह सब प्रकार की बातें पढ़ता है; पर
उसमें जो अच्छी होती हैं, उन्हीं को ग्रहण करता है।
मिल्टन ने आगे चलकर फिर कहा है-'पवित्र मनुष्य के निकट सब वस्तुएँ पवित्र
हैं, खान पान ही नहीं, सब प्रकार का पढ़ना भी, चाहे अच्छा हो चाहे बुरा। यदि
अन्त:करण शुध्द है, तो किसी प्रकार की पुस्तकें उसे कलुषित नहीं कर सकतीं।
पुस्तकें भोजन की सामग्री के समान हैं जिनमें कुछ अच्छी होती हैं, कुछ
बुरी। लोग अपनी रुचि के अनुसार उनको चुन सकते हैं। जिसकी पाचनशक्ति बिगड़ गई
है, उसके लिए अच्छा भोजन और बुरा भोजन क्या? इसी प्रकार दुष्ट प्रकृतिवाले
के लिए उत्तम से उत्तम पुस्तकें भी अच्छे उपयोग में नहीं लाई जा सकतीं। पर
पुस्तकों और खानपान की वस्तुओं में यह एक अन्तर है कि निकृष्ट भोजन स्वस्थ
से स्वस्थ शरीर का भी पोषण नहीं कर सकता, पर निकृष्ट पुस्तकें पर्यालोचन की
शक्ति रखने वाले विवेकशील पाठकों को पता लगाने, खण्डन करने, सावधन करने और
दृष्टान्त देने में सहायता देती हैं।' मिल्टन का यह कथन वहीं तक स्वीकार
किया जा सकता है जहाँ तक उसका सम्बन्ध राज्य की ओर से पहुँचाई जानेवाली
बाधा को रोकने से है। वह विद्यार्थी के अनुसरण के योग्य नहीं है। राज्य की
ओर से पुस्तकों के विषय में किसी प्रकार का बन्धन होना अनुचित है, पर
विद्यार्थी के लिए आवश्यक और उपयोगी है। उसे इस बात के ऊपर कभी न जाना
चाहिए कि शुध्द अन्त:करण वाले के लिए सब कुछ पवित्र है; क्योंकि बड़ी कठिनाई
तो यह है कि यह निर्णय नहीं कर सकते कि कौन सी वस्तुएँ पवित्र हैं। बचपन से
लेकर बराबर हम बुराई की ओर ले जानेवाली बातों से घिरे रहते हैं। ऐसी अखण्ड
पवित्रता कितनों में पाई जाती है, जिन पर बुराइयों के संसर्ग से कुछ कल्मष
न लगे? बहुत सी पुस्तकें ऐसी हैं जिन्हें पढ़कर कोई युवा पुरुष बिना हानि
उठाए नहीं रह सकता। यदि ऐसा भी हो सकता हो, यदि काजल की कोठरी में जाकर
कालिख से बच भी सकता हो, तो भी उसे कोई लाभ नहीं पहुँच सकता। पहाड़ पर चढ़कर
कंकड़ चुनने से क्या लाभ? नदियों और तालों में मोती नहीं मिल सकते।
कुरुचिपूर्ण पुस्तकों में समालोचक लोग रचना के चाहे कितने ही चमत्कार
दिखलावें, पर उनकी कुप्रवृत्ति के कलंक को नहीं मिटा सकते। ग्वाल, देव आदि
कवियों में रस और अलंकार की पूर्णता और उक्तियों की अपूर्वता का जो आनन्द
है, वह उस हानि से घटकर है जो पाठक को उनकी विलास वासनापूर्ण वाक्यावाली से
हो सकती है। इससे हमें क्या पढ़ना चाहिए, इसका पूर्ण विचार रखना चाहिए;
अच्छी पुस्तकों का ग्रहण और बुरी पुस्तकों का त्याग करना चाहिए, हमें यह
देख लेना चाहिए कि कौन पुस्तक पवित्र और सारगर्भित हैं और कौन पुस्तक
अपवित्र और नि:सार। मन, वचन और कर्म से किए हुए पापों के लिए हम उत्तरदाता
हैं और पढ़ने का सम्बन्ध मन से है। प्रसिध्द ऍंगरेजी उपन्यास लेखक स्कॉट ने
जब जाना कि उसके अन्तिम दिन निकट आते जाते हैं, तब उसने कहा-'अब मेरे जीवन
का अन्तिम दिन निकट आता जाता है, अब मैं इस संसार रूपी रंगभूमि से विदा
होना चाहता हूँ। मैंने अपने समय में सबसे अधिक पुस्तकें लिखीं और मुझे यह
सोचकर परम सन्तोष है कि मैंने अपनी पुस्तकों द्वारा किसी मनुष्य का धर्म
विश्वास डिगाने या किसी मनुष्य का सिध्दान्त दूषित करने का प्रयत्न नहीं
किया। मैंने ऐसी कोई बात नहीं लिखी है जिसे मृत्युशय्या पर पड़ने के समय मैं
मिटा देना चाहूँ।' इसी प्रकार जब हमारी आयु पूरी होती दिखाई देगी, जब हमारे
जीवन का अवसान निकट जान पड़ेगा, तब हमें यह सोचकर बड़ी शान्ति होगी कि हमने
ऐसी कोई पुस्तक नहीं पढ़ी जिसे मृत्युशय्या पर पड़ने के समय हम भूलजाना
चाहें।
मैंने अब तक जो कुछ कहा है, वह कुवासनापूर्ण पुस्तकों ही को लक्ष्य करके;
पर मेरी चेतावनी ऐसी पुस्तकों के विषय में भी है जिनकी रचना दूषित है, जो
आडम्बरपूर्ण कृत्रिम शब्दावली से भरी हैं, जिनकी वर्णनशैली भद्दी और जिनके
विचार निकम्मे हैं, और जिनकी ओर ध्याभन देना समय और श्रम को नष्ट करना है।
रसविहीन शब्दाडम्बर पूर्ण काव्य, बनावटी इतिहास, प्रचलित संशयवाद,
उद्वेगपूर्ण उपन्यास इनको विद्यार्थी अपने मार्ग से दूर रखे, क्योंकि ये
उसकी उन्नति में बाधक ही होंगे। महात्मा लोग कह गए हैं कि ऐसी बातों को
ग्रहण करना चाहिए जो ऊँची हों। पर यदि हम अन्त:काव्य को मूर्खता, प्रमाद और
असत्य द्वारा पतित होने देंगे तो यह कैसे हो सकेगा? पुस्तकालयों और
विद्यार्थियों के लिए महात्माओं का यह उपदेश कितना अमोल है! पढ़ना उसी को
चाहिए जिससे कुछ शिक्षा मिले, न कि केवल उद्वेग उत्पन्न हो; जिससे कुछ आवे,
न कि केवल ऊलजलूल विचार हो। अध्य्यन सूर, तुलसी ऐसे कवियों का करना चाहिए
जो मानव प्रकृति को प्रत्यक्ष करते हैं; ग्वाल और देव ऐसे कवियों का नहीं
जो विषयवासना को उत्तेचजित करते हैं। पढ़ने में इसको अपना अटल सिध्दान्त
रखना चाहिए।
अब पूछे कि यह कैसे जानें कि कौन सी पुस्तकें अच्छी और पढ़ने योग्य हैं और
कौन सी पुस्तकें बुरी और रद्दी में फेंकने योग्य हैं, तो मैं यही कहता हूँ
कि इस विषय में लोकमत और परम्परागत आलोचना को प्रमाण मानकर चलना चाहिए।
बुरी पुस्तकों पर संसार ने कलंक का टीका लगा दिया है, जो प्रत्यक्ष है। यदि
तुम ऑंख खोलकर देखोगे तो वह स्पष्ट दिखाई देगा। यन्त्रालयों से जो अनेक
प्रकार की पुस्तकें नित्य निकला करती हैं और जो पदयोजना तथा वर्णनशैली की
विलक्षणता के कारण कुछ दिनों तक बहुत प्रिय रहती हैं, उनके विषय में यह सहज
में निश्चित किया जा सकता है कि उनके पढ़ने से कोई लाभ होगा या नहीं। एक
प्रकरण
क्या, एक पृष्ठ ही पढ़ने से उनका उद्देश्य और भाव प्रकट हो जायेगा।
स्थालीपुलाकन्याय से एक चावल से सारी बटलोई का पता चल जाता है। एक चावल
जिसे अच्छा लगेगा, वह बटलोई का भात रुचि के साथ खायगा; यदि कच्चा या जला
मालूम होगा, तो छोड़ देगा। जब मैं कुछ पढ़ता हूँ, तब किसी अच्छे उद्देश्य से
पढ़ता हूँ। बहुत सी पुस्तकें ऐसी होती हैं जिन्हें देखते ही प्रकट हो जाता
है कि वे उन सिध्दान्तों के प्रतिकूल हैं, जिन्हें मैं उत्तम समझता हूँ।
ऐसी पुस्तकों के विषय में मैं यह नहीं कह सकता कि मुझे उन्हें पढ़ना ही
चाहिए। यदि कोई मनुष्य मुझसे आकर कहे कि मैं बड़ी गूढ़ युक्तियों के द्वारा
यह सिध्द करूँगा कि दो और दो पाँच होते हैं, तो मुझे उसकी बातें सुनने की
अपेक्षा और बहुत से जरूरी काम हैं। यदि मुरब्बे का एक टुकड़ा मुँह में रखते
ही मुँह का स्वाद बिगड़ जाय, तो हमें यह देखने के लिए कि मुरब्बा रखना चाहिए
या नहीं, सबका सब खाने की आवश्यकता नहीं है। बीस भागों में समाप्त किसी
बड़े, पर साधारण ग्रन्थ के तीन चार भाग पढ़कर ही हमें ग्रन्थकार की शक्ति और
पहुँच का अन्दाज कर लेना चाहिए और यह समझ लेना चाहिए कि यदि हम बीसों भाग
पढ़ जायँगे, तो भी हमें कोई उच्च भाव, गम्भीर अन्वीक्षण वा हृदय का सच्चा
उद्गार न मिलेगा। ऐसे बीस भागों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं। ऐसे बहुत से लोग
पाए जाते हैं जो किसी फल की कामना से वा किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए
किसी ग्रन्थ का पाठ, बिना उसके अभिप्राय से कोई सम्बन्ध रखे हुए, सप्ताह वा
महीने के भीतर जैसे तैसे समाप्त करते हैं। विद्यार्थी को ऐसी कोई आफत नहीं
पड़ी है। हमें क्या पड़ी है कि हम किसी अपरिचित की निकम्मी बातें सुनने जायँ?
इसी प्रकार हमें क्या पड़ी है कि हम कोई बुरी पुस्तक पढ़ने जायँ? जिस प्रकार
हम एक से अपना पीछा छुड़ाते हैं, उसी प्रकार दूसरी से भी अपना पीछा क्यों न
छुड़ावें?
छठा प्रकरण - स्वास्थ्य विधान
'धर्मार्थकाममोक्षाणां शरीरं साधानं परम्'
इस बात का विश्वास उन्नति के लिए परम आवश्यक है कि स्वास्थ्य रक्षा मनुष्य
का प्रधान धर्म है। बहुत कम लोग यह अच्छी तरह समझते हैं कि शरीर का संयम भी
मनुष्य के कत्ताव्यों में से है। जब तक शरीर है, तभी तक मनुष्य सब कुछ कर
सकता है। लोग बात बात में प्रकट करते हैं कि शरीर उनका है, वे जिस तरह
चाहें, उसे रखें। प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने से जो बाधा होती है,
उसे वे एक आकस्मिक आपत्ति समझते हैं, अपने किए का फल नहीं समझते। यद्यपि इस
शारीरिक व्यतिक्रम का कुफल भी कुटुंब और परिवार के लोगों को उतना ही भोगना
पड़ता है जितना और अपराधों का, पर इस प्रकार का व्यतिक्रम करनेवाला अपने को
अपराधी नहीं गिनता। मद्यपान से जो शारीरिक व्यतिक्रम होता है, उसकी बुराई
तो सब लोग स्वीकार करते हैं; पर यह नहीं समझते कि जैसे यह शारीरिक
व्यतिक्रम बुरा है, वैसे ही सब शारीरिक व्यतिक्रम बुरे हैं। बात यह है कि
स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन भी पाप है। आत्मसंस्कार की वह शिक्षा अधूरी
ही समझी जायगी जिसमें शरीर संयम की व्यवस्था और स्वास्थ्य रक्षा का विधान न
होगा। इसी से बड़े-बड़े विद्यालयों में, जिनमें वैज्ञानिक शिक्षा का पूर्ण
प्रबन्ध है, शरीर विज्ञान को अच्छा स्थान दिया जाता है। हमारे कल्याण के
लिए जैसे गणित के नियमों और शब्दों के रूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक
है, वैसे ही शरीर यन्त्र की उन क्रियाओं का जानना भी परम आवश्यक है जिनके
द्वारा जीवन की स्थिति रहती है। जब शरीर अस्वस्थ रहता है, तब चित्त भी ठीक
नहीं रहता। प्रौढ़ बुध्दि और सूक्ष्म विवेक के लिए पुष्ट शरीर का होना
आवश्यक है। शरीर की रक्षा करना प्रत्येक धार्मिक का कर्तव्या है; क्योंकि
'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' ईश्वर के सामने हमें इसका हिसाब देना होगा कि
हमने उससे प्राप्त की हुई शक्तियों का ठीक ठीक उपयोग किया है। इसके लिए
समाज के प्रति भी हम उत्तरदाता हैं, क्योंकि उसका कल्याण प्रत्येक व्यक्ति
के कल्याण पर निर्भर है। सबसे अधिक तो हमारे व्यतिक्रम का परिणाम हमारे ही
ऊपर पड़ेगा; क्योंकि हमारा यह कर्तव्ये है कि हम किसी शारीरिक शक्ति पर
अत्यन्त अधिक जोर न डालें।
स्वास्थ्य का बड़ा भारी नियम इस रूप में कहा जा सकता है। शरीर की शक्तियों
का जो नित्यश: क्या प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, उसकी पूर्ति का ठीक ठीक
प्रबन्ध परम आवश्यक है। शरीर की जो गरमी बराबर निकलती रहती है और उसके
संयोजक द्रव्यों का जो क्षय होता रहता है, उसकी कड़ी सूचना भूख और प्यास के
वेग द्वारा मिलती है। जिस प्रकार किसी सेना के सिपाही अधिपति से कहते हैं
कि और सामग्री लाओ, नहीं तो हड़ताल कर देंगे, उसी प्रकार शारीरिक शक्तियाँ
भी शरीर से अपनी पुकार सुनाती हैं और काम बन्द करने की धामकी देती हैं।
बुध्दिमान् मनुष्य अपना लाभ सोचकर उनकी सूचना पर ध्याकन देता है और उन्हें
आवश्यकता के अनुसार ताजी हवा अन्न और जल पहुँचाता है। जिन अवयवों से स्वच्छ
वायु का उपयोग होता है, उन्हें श्वास वाहक अवयव कहते हैं, जो भोजन ग्रहण
करते और उसका रस तैयार करते हैं, उन्हें पाचक अवयव कहते हैं; जो सारे शरीर
में रक्त द्वारा वायु और रस का संचार करते हैं, संचारक अवयव कहलाते हैं; और
जो शरीर के अनावश्यक द्रव्यों को बाहर करते हैं, वे मलवाहक अवयव कहलाते
हैं। बहुत सी अवस्थाओं में तो अधिकतर यह मनुष्यों ही के वश की बात है कि वे
इन अवयवों को स्वस्थ दशा में रखें, जिसमें वे अपना काम ठीक ठीक कर सकें।
यदि वे ऐसा न करेंगे तो उनके शरीर के भीतर जो क्षय होता है, वह पोषण की
अपेक्षा अधिक होगा, जिसका परिणाम रोग और मृत्यु है। उनका मस्तिष्क और हृदय
भी, जो जीवन के आधार हैं, अशक्त होने के कारण अपना काम छोड़ देंगे। पर जो
लोग इस विषय में अपने लाभ और कर्तव्यउ को विचारेंगे, वे दो बातों का पूरा
ध्याोन रखेंगे, भोजन का और व्यायाम का। व्यायाम संचारक अवयवों को रस का
ठीक-ठीक संचार करने में सहायता देता है। भोजन संचारक और मलवाहक अवयवों की
क्रिया का उपक्रम करता है। स्वास्थ्य के लिए और बहुत सी बातों का विचार
रखना होता, जैसे ताजी हवा और ऋतु के अनुकूल कपड़े लत्तो का, विश्राम और नींद
का इत्यादि इत्यादि। पर मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य भोजन
और व्यायाम के विषय में पूरी चौकसी रखे तो वह भलाचंगा रह सकता है। यह भी
आवश्यक है कि मनुष्य सफाई से रहे और कोई ऐसा व्यवसाय न करे जो स्वास्थ्य के
लिए हानिकर हो।
भोजन के विषय में पक्का सिध्दान्त यह है कि न बहुत अधिक खाय और न बहुत कम।
अधिक खाने से कभी कभी जितनी हानि हो जाती है, उतनी कम खाने से नहीं होती।
यदि तुम पक्वाशय और ऍंतड़ियों पर इतना बोझ डालोगे कि वे उसे सँभाल न सकें,
तो उनका काम बन्द हो जायेगा। इस विषय में संयम का ध्या न बराबर रखना चाहिए
और इस बात को समझना चाहिए कि हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए नहीं
जीते। भोजन उतना ही करना चाहिए जितने में तुष्टि हो जाय; उसके ऊपर केवल मजे
के लिए खाते जाना ठीक नहीं है। शरीर के पोषण के लिए यह आवश्यक है कि जो कुछ
हम खायँ, उसमें कई प्रकार के द्रव्य हों, जैसे सत्ता (जो आटे, मांस, अण्डे,
छेने आदि में होता है), चिकनाई (जो दूधा, घी, चरबी, तेल आदि में होती है,)
लसी (जो चीनी, साबूदाने, शहद आदि में होती है), और खनिज पदार्थ (जो पानी,
नमक, क्षार आदि में होता है)।
स्वास्थ्य के लिए जैसे यह आवश्यक है कि भोजन बहुत अधिक न किया जाय, वैसे ही
यह बात भी आवश्यक है कि कोई एक ही प्रकार की वस्तु बहुत अधिक न खाई जाय।
हमें मिलाजुला भोजन करना चाहिए; अर्थात् हमारे भोजन में कई प्रकार की चीजें
रहनी चाहिएँ जिसमें आवश्यक मात्रा में वे सब द्रव्य पहुँचें जिनसे शरीर का
पोषण होता है और उसमें शक्ति आती है। कोई पदार्थ बराबर भोजन का काम नहीं दे
सकता अर्थात् शरीर के क्षय को नहीं रोक सकता, जब तक कि उसमें शरीर तन्तु
बनाने वाला सत्ता न हो। जिस पदार्थ में यह सत्ता आवश्यक मात्रा में होता
है, वही बराबर आहार के लिए उपयोगी हो सकता है। खनिज अंश का भी उसमें रहना
आवश्यक है। लसी वा चिकनाई दो में से एक भी हो, तो काम चल सकता है।
यद्यपि भोजन में सत्तावाले पदार्थों का उपयोग बहुत होता है, पर उन्हें अधिक
मात्रा में खाने से खर्च भी अधिक होता है। एक जवान आदमी को शरीर की पूर्ति
के लिए 4000 ग्रेन कारबन और 8000 ग्रेन नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है।
सत्तावाले पदार्थों में साधारणत: सैकड़े पीछे 53 भाग कारबन और 15 भाग
नाइट्रोजन होता है। अत: 4000 ग्रेन कारबन के लिए मनुष्य को 7500 ग्रेन
सत्ता खाना चाहिए। 7500 ग्रेन में 1100 ग्रेन नाइट्रोजन होता है जो आवश्यक
से चौगुना है। इससे सत्ता ही अधिक खाने के मेदे पर बहुत जोर पड़ता है और
ऑंतों को फालतू नाइट्रोजन निकालने में बड़ा परिश्रम पड़ता है। स्निग्धा
पदार्थों (घी, मक्खन, तेल आदि) तथा चीनी आदि में कारबन का भाग बहुत अधिक
होता है और नाइट्रोजन कुछ भी नहीं होता। भोजन के साथ घी वा मक्खन आदि मिला
लेने से सत्ता की बहुत कुछ आवश्यकता पूरी हो जाती है। भोजन में कुछ चीनी
आदि का रहना भी उपकारी है।
भोजन के विषय में ठीक ठीक कोई नियम निर्धारित करना असम्भव है। प्रत्येक
मनुष्य को अपने निज के अनुभव द्वारा यह देखना चाहिए कि उसे क्या क्या वस्तु
कितनी कितनी खानी चाहिए। लोगों की प्रकृति जुदा-जुदा होती है। कुछ लोग मांस
नहीं खा सकते, कुछ लोग रोटी नहीं पचा सकते। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनका
पेट उरद की दाल खाते ही बिगड़ जाता है। सारांश यह कि प्रत्येक मनुष्य आप यह
निश्चित कर सकता है कि उसे कौन सी वस्तु अनुकूल पड़ती है और कौन प्रतिकूल।
उसे यह उपदेश देने की उतनी आवश्यकता नहीं है कि तुम यह खाया करो, यह न खाया
करो। ध्यावन रखने की बात इतनी ही है कि भोजन भिन्न भिन्न प्रकार का हो और
उसमें संयम रखा जाय। दो चार बातें बतलाने की हैं। एक भोजन के उपरान्त फिर
दूसरा भोजन कुछ अन्तर देकर किया जाय जिसमें पहले भोजन को पचने का समय मिले।
जब तक एक बार किया हुआ भोजन पच न जाय, तब तक दूसरा भोजन न करना चाहिए। यदि
तुमने सबेरे छ: बजे कुछ जलपान कर लिया है तो दस बजे के पहले भोजन न करो।
इसी प्रकार संध्याब के समय यदि कुछ जलपान कर लिया है तो रात को नौ बजे से
पहले भोजन न करो। कसरत करने के पीछे तुरन्त ही भोजन न करो, शरीर को थोड़ा
ठिकाने हो लेने दो; तब उस पर भोजन पचाने का बोझा डालो। इस बात का ध्याशन
रखो कि खाने की जो चीजें आवें, वे ताजी और अच्छी हों, सड़ी-गली न हों। भोजन
अच्छी तरह से पका हो, कच्चा न रहे। जो लोग मांस खाते हैं, उन्हें बीच बीच
में मछली भी खानी चाहिए। अनाज के साथ साग, भाजी, तरकारी का रहना भी आवश्यक
है। खाली सेर दो सेर दूधा पी जाने की अपेक्षा उसे भोजन के साथ मिलाकर खाना
अच्छा है। जाड़े के दिनों में स्निग्धा पदार्थों का सेवन कुछ बढ़ा देना चाहिए
और गरमी में कम कर देना चाहिए। बिना भूख के भोजन करना ठीक नहीं। भोजन का
उतना ही अंश उपकारी होता है जितना पचता है; बिना पचे भोजन से हानि को छोड़
लाभ नहीं। बहुत से लोग यह समझते हैं कि जितना ही भोजन पेट में जाय, उतना ही
अच्छा; और वे दिनभर कुछ न कुछ पेट में डालने की चिन्ता में रहा करते हैं।
फल यह होता है कि उनकी पाचनशक्ति बिगड़ जाती है और उन्हें मन्दाग्नि,
संग्रहणी आदि कई प्रकार के रोग लग जातेहैं।
खाद्य पदार्थों पर विचार करके अब मैं पेय पदार्थों के विषय में कुछ कहना
चाहता हूँ। प्राचीन यूनानियों का यह सिध्दान्त था कि पीने के लिए पानी से
बढ़कर और कोई पदार्थ नहीं। गरम देश के लोगों के लिए यह सिध्दान्त बड़े काम का
है। ठण्डे देशों के लोग चाय, कॉफी, शराब आदि उत्तेसजक पदार्थों का सेवन
करते हैं। स्वस्थ और हृष्टपुष्ट मनुष्य के लिए उत्ते जक पदार्थों की उतनी
आवश्यकता नहीं होती। थोड़ी चाय या कॉफी का पीना अच्छा है, क्योंकि उससे शरीर
में फुरती आती है और शरीर के क्षय का कुछ अवरोध होता है। पर चाय अधिक नहीं
पीनी चाहिए अधिक पीने से भय रहता है। चाय से क्षुधाा की पूर्ति होती है,
इससे यात्रा आदि में उसका व्यवहार अच्छा है। एक साहब चाय की प्रशंसा इस
प्रकार करते हैं-'चाय पीनेवाला थोड़ा खाकर भी शरीर को बनाए रख सकता है।' पर
यह स्मरण रखना चाहिए कि पानी जिस सुगमता से पिया जाता है, उस सुगमता से चाय
आदि नहीं पी जा सकती। पानी सब प्रकृति के लोगों के स्वभावत: अनुकूल होता
है, पर बहुत से लोग चाय आदि नहीं पी सकते। बहुत से छात्रा आजकल रात को
जागने के लिए खूब चाय पी लेते हैं। यह साधन बुरा है। कसरत के समय भी चाय
नहीं पीनी चाहिए। लगातार बहुत देर तक परिश्रम करते करते यदि शरीर शिथिल हो
गया हो तो थोड़ी सी चाय पी लेने से शरीर स्वस्थ हो जाता है; पर प्यास लगने
पर पानी ही पीना ठीक होता है। गरमी के दिनों में थोड़ा शरबत पी लेने से शरीर
में ठण्ढक आ जाती है और घबराहट दूर हो जाती है। सारांश यह है कि खाने पीने
में भी हमें उसी प्रकार विचार से काम लेना चाहिए, जिस प्रकार और सब कामों
में। हमें अति कभी न करनी चाहिए और अनुभव से जो बात पाई जाय, उसी को
स्वीकार करना चाहिए। केवल फलाहार करना, केवल पयाहार करना, जल ही को समस्त
व्याधियों का नाशक बतलाना ये सब सनक की बातें हैं। ऐसी ऐसी बात उन्हीं को
शोभा दे सकती है जो कहते हैं कि मोक्ष किसी एक ही प्रकार के साम्प्रदायिक
विश्वास से हो सकता है। मनुष्य के लिए सबसे पक्का सिध्दान्त तो यह है कि वह
संयम रखे। यदि कोई युवा पुरुष खान पान के असंयम द्वारा अपने सोने का शरीर
मिट्टी कर दे तो यह उसका बड़ा भारी अपराधा है। खान पान के विषय में जितनी
व्यर्थ की बकवाद होती है उतनी धर्म को छोड़कर और किसी विषय में नहीं होती।
बात यह है कि जो लोग ऐसी बकवाद किया करते हैं, वे शरीर शास्त्र के नियमों
को कुछ भी नहीं जानते। यदि युवा पुरुष थोड़ी सी जानकारी इस शास्त्र के विषय
में प्राप्त कर लें, तो उन्हें फिर खान पान के विषय में बहुत सा उपदेश
सुनने की आवश्यकता न रह जाय, और वे आप ही निश्चित कर लिया करें कि क्या
खाना चाहिए, क्या पीना चाहिए, किससे बचना चाहिए। खानपान में समय का नियम
बाँधो और सादा भोजन संयम के साथ करो।
अब मैं भाँग, शराब आदि उत्तेरजक पदार्थों के विषय में दो चार बातें कहता
हूँ। यह तो सर्वसम्मत है कि इनका अनियमित और अधिक मात्रा में सेवन दोषों का
घर है। जिन्हें इनके अधिक सेवन की लत लग जाती है, उनका सारा जीवन सत्यानाश
हो जाता है। पर यह कभी नहीं कहा जा सकता कि जो चित्त के उदास होने वा शरीर
के शिथिल होने पर कभी थोड़ी ठण्डाई पी लेते हैं, वे सीधो काल के मुख में ही
जा पड़ते हैं। हाँ, जो लोग अपने को वश में नहीं रख सकते, जिनके लिए संयम
बहुत कठिन है, जिन्हें थोड़े से बहुत करते कुछ देर नहीं, ऐसे लोगों के लिए
उचित यही है कि वे एकदम बचे रहें। उत्तेसजक पदार्थों से बचना युवा पुरुषों
के लिए तो बहुत ही अच्छा है, पर एक चुल्लू भाँग को विष का घूँट कहना
अत्युक्ति है। किसी दिन भर के थके माँदे मनुष्य को संध्याल के समय थोड़ी
ठण्डाई पीते देख यह कहना कि 'बस अब यह चौपट हो गया' आडम्बर ही जान पड़ेगा।
मैंने बहुत से बुङ्ढों को देखा है जो सबेरे थोड़ी सी अफीम ले लेने से दिन भर
अपना काम बड़ी फुरती के साथ करते हैं। ऐसे बुङ्ढों को हम अफीमची नहीं कह
सकते। ठण्डे देशों के लोग भोजन के साथ, पाचन आदि के लिए, थोड़ी मात्रा में
मद्य का सेवन करते हैं। उनकी वह मात्रा जब बढ़ जाती है, तब वे शराबी कहलाने
लगते हैं और घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं।
उत्तेतजक पदार्थों के पक्ष में इतना कहने के उपरान्त मैं यह बतलाना आवश्यक
समझता हूँ कि हृष्ट पुष्ट मनुष्य को, जिसे उपयुक्त भोजन और ताजी हवा मिलती
है तथा विश्राम और व्यायाम करने को मिलता है, ऐसे पदार्थों की आवश्यकता
नहीं। पाठक मेरे कथन में कुछ विरोधाभास देखकर चकित होंगे; पर बात यह है कि
इस संसार में ऐसे लोग बहुत हैं जिनका शरीर हृष्ट पुष्ट नहीं, जिन्हें बहुत
अधिक काम करना पड़ता है, जो चिन्ता से पीड़ित रहते हैं। ऐसे लोग उत्ते जक
पदार्थों का थोड़ा बहुत सेवन करें तो हानि नहीं। चालीस वर्ष की अवस्था के
उपरान्त बहुत लोगों को उत्तेहजक पदार्थों के सेवन की आवश्यकता होती है;
क्योंकि उनसे भोजन पचता और शरीर में लगता है तथा शिथिल अंगों में काम करने
की फुरती आती है। ऐसी अवस्था में भी उत्तेतजक द्रव्य की मात्रा थोड़ी हो और
वह क्रमश: बढ़ने न पावे।
अब रही हुक्के, सिगरेट आदि पीने की बात। इस सम्बन्ध में तो यह जानना चाहिए
कि भले चंगे आदमी को तम्बाकू से किसी रूप में भी कोई लाभ नहीं पहुँच सकता।
तम्बाकू का व्यसन चाहे खाने का हो, चाहे पीने का, चाहे सूँघने का, व्यर्थ
और निष्प्रयोजन ही है। इससे युवा पुरुषों को अपने कार्य में कोई सहायता
नहीं मिल सकती। सिगरेट पीनेवाले व्यर्थ कड़घआ धुऑं उड़ाकर परमेश्वर की स्वच्छ
वायु को दूषित करते हैं और सुकुमार नासिकावालों को कष्ट पहुँचाते हैं।
सुनते हैं कि चित्रकूट के पास के जंगल में दो ऍंगरेज सिगरेट पीते हुए सैर
को निकले। रास्ते के किनारे दोनों ओर मधुमक्खियों के छत्तो थे। सिगरेट के
धाुएँ से मक्खियाँ इतनी बिगड़ीं कि सब छत्तों को छोड़कर निकल आईं और उन्होंने
डंकों से उन दोनों साहबों को मार डाला। अधिक तम्बाकू पीने से हानि होती है,
इसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। पर इक्कीस वर्ष से ऊपर की अवस्थावाले
प्राय: बहुत से लोगों को परिमित मात्रा में तम्बाकू पीने से कोई हानि नहीं
पहुँचती। पर यदि हानि न भी पहुँचे तो भी लाभ कोई नहीं है।
इस देश में पान खाने की प्रथा बहुत दिनों से है। भोजन के उपरान्त लोग पान
खाते हैं, आए गए का सत्कार भी पान इलायची देकर करते हैं। इसमें कोई सन्देह
नहीं कि भोजन के पीछे वा कुछ खाने के पीछे दो बीड़े पान खा लेने से मुख
शुध्द हो जाता है; मुख में किसी प्रकार की दुर्गन्ध नहीं रह जाती और भोजन
के उपरान्त जो एक प्रकार का आलस्य वा भारीपन आता है, वह दूर हो जाता है।
पान पाचन में भी सहायता देता है। पर अधिक मात्रा में पान खाना हानिकारक
होता है। बहुत अधिक पान खाने से अग्नि मन्द हो जाती है, भूख पूरी नहीं
लगती, एक प्रकार की घबराहट सी बनी रहती है जिससे किसी काम में चित्त नहीं
लगता, जीभ स्तब्ध हो जाती है जिससे शब्दों का उच्चारण अस्पष्ट और रुक रुककर
होने लगता है।
जिस प्रकार ऐसे लोग मिलते हैं जो दिन रात क्षण क्षण पान चबाया करते हैं,
उसी प्रकार ऐसे लोग भी मिलते हैं जो पान के नाम से कोसों दूर भागते हैं और
सौ तरह से नाक भौं सिकोड़ते हैं। पहले प्रकार के लोगों पर यदि दुर्वव्यससन
सवार रहता है, तो दूसरे प्रकार के लोगों पर अपने को संयमी प्रकट करने की एक
झूठी धुन।
अब व्यायाम का विषय लेता हूँ जिस पर ध्याकन देने की विद्यार्थी वा युवा
पुरुष को सबसे अधिक आवश्यकता है। शरीर और चित्त की स्वस्थता, मन की फुरती
और शक्ति की उमंग, बुध्दि की तीव्रता और मनन शक्ति की सूक्ष्मता इत्यादि
नियमित व्यायाम ही से हो सकती है। व्यायाम भी हमारी शिक्षा का एक अंग है।
जैसे खाने और सोने के बिना हमारा काम नहीं चल सकता, वैसे ही व्यायाम के
बिना भी नहीं चल सकता। व्यायाम ही के द्वारा हम अपने अंगों, अवयवों और
नाड़ियों की शक्ति को स्थिर रख सकते हैं। व्यायाम ही के द्वारा हम शरीर के
प्रत्येक भाग में रक्त का संचार समान रूप से कर सकते हैं; क्योंकि व्यायाम
से पेशियों का दबाव रक्तवाहिनी नाड़ियों पर पड़ता है जिससे रक्त का संचार
तीव्र होता है। व्यायाम ही के सहारे जीवन सुखमय प्रतीत हो सकता है, क्योंकि
व्यायाम से पाचन में सहायता मिलती है और पाचन ठीक होने से उदासी नहीं रह
सकती। व्यायाम ही के प्रभाव से मस्तिष्क अपना काम ठीक ठीक कर सकता है।
संसार में जितने प्रसिध्द पुरुष हो गए हैं, सबने व्यायाम का कोई न कोई ढंग
निकाल रखा था। गोस्वामी तुलसीदास का नियम था कि नित्य सबेरे उठकर वे शौच के
लिए कोस दो कोस निकल जाते थे। शौच ही से लौटते समय उनका प्रेत से
साक्षात्कार होना प्रसिध्द है। भूषण कवि को घोड़े पर चढ़ने का अच्छा अभ्यास
था। महाकवि भवभूति को यदि विन्धय पर्वत की घाटियों में घूमने का अभ्यास न
होता, तो वे दण्डकारण्य आदि का ऐसा सुन्दर वर्णन न कर सकते। महाराज
पृथ्वीराज शिकार खेलते खेलते कभी कभी अपने राज्य की सीमा के बाहर निकल जाते
थे। जब तक तुम आनन्ददायक और नियमित व्यायाम द्वारा अपने को स्वस्थ न कर
लिया करोगे, तब तक तुम्हारा अंग वा तुम्हारा मस्तिष्क ठीक नहीं रह सकेगा,
तुम बातों का ठीक ठीक विचार और उचित निर्णय नहीं कर सकोगे। पीले पड़े हुए
छात्रा से मैं यही कहूँगा-'गेंद खेलो, कबड्डी खेलो, पेड़ों में पानी दो,
किसी न किसी तरह की कसरत करो।' जो शारीरिक परिश्रम तुमसे सहज में हो सके,
उसी को कर चलो; शरीर को किसी न किसी तरह हिलाओ डुलाओ। मुझसे जो पूछते हो तो
मैं टहलना वा घूमना सबसे अधिक स्वास्थ्यवर्धाक और आनन्ददायक समझता हूँ; पर
तुम रुचि के अनुसार फेरफार कर लिया करो। कभी उछलो कूदो, कभी निशाना लगाओ,
कभी तैरो, कभी घोड़े की सवारी करो। यह कभी न कहो कि तुम्हें समय नहीं मिलता
या तुम्हारे पढ़ने में रुकावट होती है। पढ़ने में रुकावट जरूर होती है, पर यह
रुकावट होनी चाहिए। यह न कहो कि व्यायाम तुमसे हो नहीं सकता। तुमसे हो नहीं
सकता, इसीलिए तो तुम्हें करना चाहिए। बुध्दि को पुराने समय की पोथियों के
बोझ से दबाने की अपेक्षा उत्तम यह होगा कि तुम थोड़ा शरीर विज्ञान जान लो और
स्वास्थ्य के नियमों का ज्ञान प्राप्त कर लो। तब तुम्हें मालूम होगा कि नौ
नौ, दस दस घण्टे तक सिर नीचा किए और कमर झुकाए हुए इस प्रकार बैठे रहने से
कि नाड़ियों का रक्त स्तम्भित होने लगे, तुम बहुत दिनों तक पृथ्वी पर नहीं
रह सकते।
पाठक व्यायाम के लाभों को अच्छी तरह समझकर मुझसे इसके नित्य नियम के विषय
में पूछेंगे। वे कहेंगे कि हम टहलने को तो तैयार हैं, पर यह जानना चाहते
हैं कि कितनी दूर तक और कितनी देर तक टहलें। यहाँ मैं फिर भी यही बात कहता
हूँ कि हर एक की प्रकृति जुदा जुदा होती है; इससे कोई ऐसा नियम बताना, जो
सबको बराबर अनुकूल पड़े प्राय: असम्भव सा है। मैं बहुतों को जानता हूँ
जिन्हें अत्यन्त अधिक कसरत करने से उतनी ही हानि पहुँची है जितनी न करने से
पहुँचती है। पहले पहल एकबारगी बहुत सा श्रम करने लगना हानिकारक क्या भयानक
है। जो मनुष्य कई सप्ताह तक बराबर कलम दवात लिए बैठा रहा है, उसका एकबारगी
उठकर बड़ी लम्बी दौड़ लगाना ठीक नहीं है। यदि किसी कारण से शारीरिक परिश्रम
कुछ दिन तक बराबर बन्द रहा हो, तो उसे फिर थोड़ा थोड़ा करके आरम्भ करना चाहिए
और सामर्थ देखकर धीरे धीरे बढ़ाना चाहिए। एक डॉक्टर की राय है कि एक भले
चंगे आदमी के लिए नित्य नौ मील तक पैदल चलना बहुत नहीं है। इस नौ मील में
वह चलना फिरना भी शामिल है जो काम काज के लिए होता है। पर जो लोग मस्तिष्क
वा बुध्दि का काम करते हैं, उनके लिए नित्य इतना अधिक परिश्रम करना न सहज
ही है और न निरापद ही। मैं तो समझता हूँ कि नित्य के लिए कोई हिसाब बाँधना
उतना उपकारी नहीं है। यदि टहलते समय हमें इस बात का ध्या न रहेगा कि आज
हमें इतने मील अवश्य चलना है, तो टहलना भी एक बोझ या कोल्हू के बैल का
चक्कर हो जायेगा। जो बात आनन्द के लिए की जाती है, वह इस प्रतिबन्ध के कारण
पिसाई हो जायगी। मनुष्य को दो घण्टे खुली हवा में बिताने चाहिए और उन दो
घण्टों के बीच कोई हल्का परिश्रम करना चाहिए तथा किसी प्रकार के प्रतिबन्ध
वा हिसाब का भाव चित्त में न आने देना चाहिए। तीन मील प्रति घण्टे के हिसाब
से टहलना अच्छा है।
एक डॉक्टर ने जिन जिन अंगों पर परिश्रम पड़ता है, उनके अनुसार व्यायाम के
तीन भेद किए हैं। पहला वह जिसमें शरीर के सब भागों पर समान परिश्रम पड़ता
है; जैसे तैरना, कुश्ती लड़ना, पेड़ पर चढ़ना। दूसरा वह जिसमें हाथ पैर को
परिश्रम पड़ता है; जैसे गेंद खेलना, निशाना लगाना आदि। तीसरा वह जिसमें पैर
और धाड़ पर जोर पड़ता है, ऊपर का भाग केवल सहायक होता है; जैसे उछलना, कूदना,
दौड़ना, टहलना आदि। तीनों में से प्रत्येक प्रकार का व्यायाम रुचि और अवस्था
के अनुसार चुना जा सकता है। यह बात भी देखनी चाहिए कि किस प्रकार की कसरत
लगातार कुछ देर तक हो सकती है, किस प्रकार की कसरत से मन में फुरती आती है
और किस प्रकार की कसरत सहज में और सब जगह हो सकती है। इन सब बातों पर विचार
करने से टहलना ही सबसे अच्छा पड़ता है। पर फेर फार के लिए और और प्रकार का
परिश्रम भी बीच में कर लेना अच्छा है। जिमनास्टिक वा लकड़ी पर की कसरत को
मैं बहुत अच्छा नहीं समझता; क्योंकि एक तो वह अस्वाभाविक (कृत्रिम) है,
दूसरे उसमें श्रम अत्यन्त अधिक पड़ता है।
स्नान का स्वास्थ्यवर्ध्दक गुण सब स्वीकार करते हैं, इससे उसके सम्बन्ध में
अति के निषेधा के सिवा और बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है। बहुत से युवा
पुरुष जब नदी, तालाब आदि में पैठते हैं, तब बहुत देर तक नहीं निकलते। यह
बुरा है। इससे त्वचा की क्रिया में सुगमता नहीं, बाधा होती है। भोजन के
उपरान्त तुरन्त स्नान नहीं करना चाहिए। ठण्ढे पानी से स्नान उतना ही करना
चाहिए जितने से नहाने के पीछे खून में मामूली गरमी जल्दी आ जाय। मनुष्य के
रक्त में साधारणत: 98 या 99 दरजे की गरमी होती है। यदि यह गरमी बहुत घट जाय
या बढ़ जाय तो मनुष्य की अवस्था भयानक हो जाय और वह मर जाय। ठण्डे पानी में
स्नान करने से त्वचा शीतल होती है, पर साथ ही खून की गरमी बढ़ती है। पर थोड़ी
देर पानी में रहने के पीछे खून की गरमी घटने लगती है। नाड़ी मन्द हो जाती है
और एक प्रकार की शिथिलता जान पड़ने लगती है। पानी से निकलने पर खून में गरमी
आने लगती है और शरीर में फुरती जान पड़ती है। तौलिए या ऍंगोछे की रगड़ से यह
गरमी जल्दी आ जाती है। गरम पानी से नहाने से इसका उलटा असर होता है। नहाते
समय त्वचा और रक्त दोनों की गरमी साथ ही बढ़ती है, नाड़ी तीव्र होती है। गरम
पानी से निकलने से त्वचा अत्यन्त सुकुमार हो जाती है और रक्तवाहिनी नाड़ियों
के फिर ठण्डी होकर सिकुड़ने वा स्तब्ध होने का भय रहता है। इससे गरम पानी से
नहाने के पीछे शरीर को कपड़े से ढक लेना चाहिए वा किसी गरम कोठरी में चला
जाना चाहिए, एकबारगी ठंढी हवा में न निकल पड़ना चाहिए।
हृष्ट पुष्ट मनुष्य को सबेरे ठंढे पानी में स्नान करने से बड़ी फुरती रहती
है, पर अशक्त और दुर्बल मनुष्यों तथा गठिया आदि के रोगियों को इस प्रकार के
स्नान से बहुत भय रहता है। स्नान करना बहुत ही अधिक लाभकारी है, पर यदि समझ
बूझकर किया जाय तो। अत्यन्त अधिक स्नान करने से शरीर की अवस्था का विचार
करने से, लाभ के बदले हानि होती है।
स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जितनी आवश्यक बातें थीं, उनका उल्लेख मैं संक्षेप
में कर चुका। केवल एक निद्रा का विषय और रह गया है। भला चंगा आदमी जैसे यह
नहीं जानता कि पेट कैसे बिगड़ता है, वैसे ही यह भी नहीं जानता कि लोगों को
नींद कैसे नहीं आती है। नींद के लिए उसे कोई उपाय करने की आवश्यकता ही नहीं
होती। खेद के साथ कहना पड़ता है कि मस्तिष्क से काम करनेवाले लोग नींद की
चिन्ता और चर्चा बहुत किया करते हैं; क्योंकि उन्हें नींद बार बार बुलाने
पर भी नहीं आती। वे एक करवट से दूसरी करवट बदला करते हैं, थकावट से उनके
अंग अंग शिथिल रहते हैं, पर नींद उनके पास नहीं फटकती। नींद भी क्या सुन्दर
वस्तु है! जिस समय हम नींद में झपकी लेते हुए बिस्तर पर पड़ते हैं, उस समय
कैसी शान्ति मिलती है! हम हाथ पैर हिलाना डुलाना नहीं चाहते, एक अवस्था में
कुछ देर पड़े रहना चाहते हैं। संज्ञा भी धीरे धीरे विदा होने लगती है, चेतना
हमें छोड़कर अलग जा पड़ती है और न जाने कहाँ कहाँ भरमती है। जब मनुष्य देखे
कि उसे नींद जल्दी नहीं आती तो उसे तुरन्त उसके कारण का पता लगाना चाहिए।
क्योंकि नींद की ही एक ऐसी अवस्था है जब मस्तिष्क की शक्ति के क्षय की
पूर्ति होती है। यदि पूर्ति न होगी तो पागल होने में कुछ देर नहीं।
मस्तिष्क का काम करनेवालों को हाथ पैर का काम करनेवालों की अपेक्षा नींद की
अधिक आवश्यकता होती है। पर जिनको अधिक आवश्यकता होती है, उन्हीं को नींद न
आने की शिकायत भी होती है। तब फिर ऐसे लोगों को करना क्या चाहिए? जिसे
उन्निद्र रोग हो, उसे अपने रोग के कारण का पता लगाना चाहिए और सोने के पहले
उसे गरम पानी से स्नान कर लेना वा थोड़ा टहल आना चाहिए। कभी कभी कोठरी बदल
देने से भी उपकार होता है। ऐसे रोगी को नींद लाने के लिए अफीम, मरफिया आदि
का सेवन कभी नहीं करना चाहिए।
अब यह बात अच्छी तरह से प्रमाणित हो गई है कि निद्रा मस्तिष्क के रक्तकोशों
के खाली होने से आती है; अर्थात् मस्तिष्क में जब रक्त नहीं पहुँचता, तभी
निद्रा आती है। इससे निद्राभिलाषी रोगी को चाहिए कि वह कोई ऐसा काम न करे
जिससे मस्तिष्क में रक्त का संचार तीव्र हो। यदि ऐसा रोगी अच्छी तरह पता
लगाकर देखेगा, तो उसे मालूम होगा कि उसके रोग का कारण काम का अधिक बोझ,
व्यायाम का अभाव, रात को बहुत देर तक पढ़ना लिखना, बन्द कमरे में बहुत देर
तक बैठना इन्हीं में से कोई है। जब कारण मालूम हो जायेगा, तब उपाय सुगम हो
जायेगा। पर यदि उन्निद्रता की मात्रा बहुत अधिक बढ़े तो समझना चाहिए कि शरीर
में कोई व्याधि लग गई है और तुरन्त किसी अच्छे चिकित्सक को दिखाना चाहिए।
मैं यहाँ पर ऐसे उन्निद्र रोग की चर्चा करता हूँ जो प्राय: लिखने पढ़नेवाले
लोगों को उनकी भूलों के कारण हो जाया करता है। रात को बहुत देर तक काम करने
या सोने के समय मन में बहुत सी बातों की चिन्ता रखने से यह रोग प्राय: हो
जाता है। कभी कभी छात्रागण साँस लेने के लिए कैसी और कितनी हवा चाहिए, इसका
कुछ भी ध्या न नहीं रखते। वे जाड़े के दिनों में कोठरी के किवाड़ बन्द करके
सो रहते हैं, जिससे उन्हें साँस लेने के लिए ताजी हवा नहीं मिलती।
अब यह प्रश्न रहा कि कितने घंटे सोना चाहिए। इसका भी कोई ऐसा उत्तर नहीं
दिया जा सकता जो सब लोगों पर बराबर ठीक घटे। बहुत से लोग ऐसे होते हैं
जिनमें अधिक काम करने की शक्ति होती है और जो कम सोते हैं। सोने की
आवश्यकता जब पूरी हो जाती है, तब प्रकृति प्राय: आप जगा देती है। पर
साधारणत: यह कहा जा सकता है कि लिखने पढ़नेवाले लोगों को कम से कम सात घंटे
सोने की आवश्यकता होती है। यदि वे ग्यारह बजे सोवेंगे तो छह बजे उठ जाने
में उन्हें कोई कठिनता न होगी। जाड़े के दिनों में यदि सबेरे आधा घंटा और
सोया जाय तो कोई हर्ज नहीं है। कृष्णपक्ष में शुक्लपक्ष की अपेक्षा सोने की
अधिक आवश्यकता होती है। सबेरे उठना बहुत अच्छी बात है, पर इस प्रकार सबेरे
उठना नहीं कि सोने के लिए पूरा समय ही न मिले। सबेरे वही उठ सकता है जो रात
को जल्दी सो जाता है। यदि विद्यार्थी दस बजे दीया बुझा दे, तो पाँच बजे
सबेरे उठ सकता है।
भाग - 1
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भाग -2 //
भाग -3 //
भाग - 4 // भाग - 5 //
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