आँख की किरकिरी
रवीन्द्रनाथ
टैगोर
41
रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़कर महेन्द्र अपने कपड़े और किताबें
लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी
विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी तो उसे कभी भी न
थी, इतनी ज़रूर थी कि अगर एक ओर गरम हो जाए, तो दूसरी तरफ करवट बदलकर सो
सके। आज लेकिन निर्भर करने की जगह निहायत सँकरी हो गई थी। जिस नाव पर सवार
होकर वह प्रवाह में बह चली है, उसके दाएँ-बाएँ किसी भी तरफ ज़रा झुक जाने से
पानी में गिर पड़ने की नौबत। लिहाज़ा बड़ी सावधानी से पतवार पकड़नी थी- ज़रा-सी
चूक, ज़रा-सा हिलना-डुलना भी मुहाल। ऐसी हालत में भला किस औरत का कलेजा नहीं
काँपता। पराये मन को मुट्ठी में रखने के लिए जिस चुहल की जरूरत है, जितनी
ओट चाहिए, इस सँकरेपन में उसकी गुंजाइश कहाँ! महेन्द्र के एकबारगी
आमने-सामने रहकर सारी जिंदगी बितानी पड़ेगी। फर्क इतना ही है कि महेन्द्र के
किनारे लगने की गुंजाइश है, विनोदिनी के लिए वह भी नहीं।
अपनी इस असहाय अवस्था को वह जितना ही समझने लगी, उतना ही उसे बल मिलने लगा।
कोई-न-कोई उपाय करना ही पड़ेगा, ऐसे काम नहीं चलने का।
बिहारी को प्रेम-निवेदित करने के दिन से ही विनोदिनी के धीरज का बाँध टूट
गया था। अपने जिस उमगे हुए चुंबन को वह उसके पास लौटाकर ले आई, संसार में
और किसी के पास उसे उतारकर नहीं रख सकती। पूजा के चढ़ावे की तरह देवता के
लिए उसे रात-दिन ढोने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उसका मन कभी हथियार डाल
देना नहीं जानता, निराशा वह नहीं मानती। उसका मन बार-बार उससे कह रहा था-
''यह पूजा बिहारी को कबूल करनी ही पड़ेगी।''
उसके इस अदम्य प्रेम से उसकी आत्म-रक्षा की आकांक्षा आकर मिल गई। बिहारी के
सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं। महेन्द्र को उसने अच्छी तरह समझ लिया
था।- उस पर टिकना चाहो तो वह भार नहीं सह सकता- छोड़ने पर ही उसे पाया जा
सकता है- पकड़ना चाहो कि भाग खड़ा होना चाहता है। लेकिन औरत के लिए जिस एक
निश्चित, विश्वासी सहारे की नितांत आवश्यकता है, वह सहारा बिहारी ही दे
सकता है। अब बिहारी को छोड़ने से उसका काम हर्गिज नहीं चल सकता।
यह सोचकर उसने खिड़की खोली और गैस की रोशनी से दमकते शहर की ओर देखने लगी,
बिहारी अभी साँझ को इस शहर में ही है, यहाँ से एकाध रास्ते, दो-चार गलियाँ
पार करके अभी-अभी उसके दरवाज़े पर मज़े में पहुँचा जा सकता है। द्वार के बाद
ही नल वाला छोटा-सा अंगना, वही सीढ़ी, वही सज़ा-सजाया कमरा-सन्नाटे में
बिहारी आराम-कुर्सी पर अकेला बैठा-शायद सामने खड़ा ब्राह्मण का वह लड़का,
गोल-मटोल, गोरा-गोरा सुन्दर-सा वह लड़का नजर गड़ाये तस्वीरों वाली किसी किताब
के पन्ने पलट रहा हो- एकाएक सारे चित्र को सुधि में लाकर स्नेह से, प्रेम
से विनोदिनी का सर्वांग पुलकित हो उठा। जी चाहे तो अभी वहाँ पहुँच जाया जा
सकता है। यह सोचकर विनोदिनी इस इच्छा को छाती से लगाए खेलने लगी। पहले की
बात होती, तो शायद वह अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए लपक पड़ती, लेकिन अब
आगे-पीछे बहुत सोचना पड़ता है। अब तो महज़ वासना पूरी करने का सवाल नहीं रहा,
उद्देश्य की पूर्ति करनी है। विनोदिनी सोचने लगी- 'पहले यह देखूँ कि बिहारी
जवाब क्या देता है, उसके बाद तय करूँगी कि किस रास्ते जाना है।' कुछ समझे
बिना बिहारी को तंग करने के लिए जाने की हिम्मत न पड़ी।
इसी तरह सोचते-विचारते जब रात के नौ बज गए तो महेन्द्र लौटकर आ गया। ये कई
दिन उसे भूखे-प्यासे, बदपरहेजी और उत्तेजना में कटे। आज कामयाब होकर
विनोदिनी को वह अपने डेरे में ले आया; इसीलिए थकावट से मानो चूर-चूर हो
गया। दुनिया से, अपने मन की हालत से लड़ने लायक बल उसमें नहीं रह गया था।
भारों से लदे उसके भावी जीवन की थकावट ने मानो पहले से ही उसे दबोच लिया।
बाहर से दरवाज़े के कड़े खटखटाने में महेन्द्र को बड़ी शर्म लगने लगी। जिस
पागलपन में दुनिया का कोई ख्याल ही न किया, वह पागलपन कहाँ! रास्ते के
अचीन्हे- अजाने लोगों की नज़र के सामने भी उसका सर्वांग सकुचा क्यों रहा है?
अन्दर नया नौकर सो गया था। दरवाज़ा खुलवाने के लिए बड़ा हंगामा करना पड़ा।
अपरिचित नए डेरे के अंधेरे में पहुँचाने पर महेन्द्र का मन ढीला पड़ ही गया।
माँ का लाड़ला महेन्द्र जिन विलास-उपकरणों- पंखे, कुर्सी, सोफे-का आदी रहा
है, उसका अभाव यहाँ साफ दिख गया। इन कमी-खामियां को मिटाना ही पड़ेगा। डेरे
के सारे इन्तज़ाम का भार उसी पर था। महेन्द्र ने आज तक कभी अपने या किसी के
आराम के फिक्र नहीं की- आज से उसे एक नए और अधूरे संसार का तीली-तीली भार
उठाना। सीढ़ी पर एक ढिबरी धुऑं उगलती हुई टिमटिमा रही थी; वहाँ के लिए एक
लैम्प लाना पड़ेगा। बरामदे से सीढ़ी को जाने वाला रास्ता नल के पानी से
चिपचिपाता रहता, मिस्त्री बुलाकर सीमेंट से उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। सड़क
की तरफ के दो कमरे जूतों की दुकान वालों के जिम्मे थे, उन्होंने अभी तक
उन्हें खाली नहीं किया-मकान-मालिक से इसके लिए लड़ेगा। सारा काम खुद ही करना
पड़ेगा- लम्हे-भर में यह बात दिमाग में आई और उसकी थकावट के भार पर और भी
बोझ लद गया।
सीढ़ी पर कुछ देर खड़े रहकर महेन्द्र ने अपने को सँभाल लिया- विनोदिनी के
प्रति जो प्रेम था, उसे उभारा। अपने-आपको समझाया कि आज तक सारी दुनिया को
भूलकर उसने जो चाहा था, वह मिल गया- दोनों के बीच अब अड़चन की कोई दीवार
नहीं- आज तो महेन्द्र की खुशी का दिन है। कोई अड़चन नहीं थी- लेकिन सबसे बड़ी
अड़चन यही थी- आज वह आप ही अपनी बाधा था।
रास्ते में महेन्द्र को देखकर विनोदिनी ध्याअन के आसन से उठी। कमरे में
रोशनी जलाई। सिलाई का काम लेकर नज़र झुकाए बैठ गई। सिलाई उसकी एक ओट- थी।
उसकी आड़ में मानो उसका एक आश्रय था।
कमरे में आकर महेन्द्र बोला- ''यहाँ, ज़रूर तुम्हें बड़ी असुविधा हो रही है,
विनोद!''
अपनी सिलाई में लगी-लगी बोली- ''बिल्कुल नहीं।''
महेन्द्र बोला- ''दो ही तीन दिनों में मैं सारा सामान ले आऊँगा। कुछ दिन
तुम्हें थोड़ी तकलीफ होगी।''
विनोदिनी बोली- ''नहीं, वह न होगा- तुम अब एक भी सामान और न लाओ- जो है,
वही मेरे ज़रूरत से कहीं ज्यादा है।''
महेन्द्र ने कहा- ''मैं अभागा भी क्या उससे कहीं ज्यादा में हूँ?''
विनोदिनी- ''अपने को उतना ज्यादा लगाना ठीक नहीं, कुछ विनय रहनी चाहिए।''
दीये की जोत में सूने कमरे में सिर झुकाए विनोदिनी की उस आत्मतल्लीन मूर्ति
को देखकर महेन्द्र के मन में फिर उसी मोह का संचार हुआ।
घर में होता तो दौड़कर विनोदिनी के पैरों में गिर पड़ता- मगर यह घर तो था
नहीं, इसलिए वैसा न कर सका। आज विनोदिनी बड़ी बेचारी थी बिलकुल महेन्द्र की
मुट्ठी में- आज अपने को संयत न रखे तो बड़ी कायरता होगी।
विनोदिनी ने कहा- ''अपने किताब-कपड़े यहाँ क्यों ले आए?''
महेन्द्र ने कहा- ''उन्हें मैं अपने लिए ज़रूरी सामान मानता हूँ- वे कहीं
ज्यादा वाले वर्ग में नहीं हैं...''
विनोदिनी- ''मालूम है, मगर यहाँ क्यों?''
महेन्द्र- ''ठीक है, आवश्यक चीजें यहाँ नहीं सोहतीं-विनोद, इन
किताबों-विताबों को उठाकर रास्ते पर फेंक देना, मैं चूँ भी न करूँगा- केवल
उनके साथ मुझे भी मत उठा फेंकना।''
इतना कहकर महेन्द्र थोड़ा खिसक आया और कपड़ों में बँधी किताबों की गाँठ को
विनोदिनी के पैरों के पास रख दिया।
उसी गंभीर भाव से सिलाई करती हुई विनोदिनी बोली- ''भाई साहब, तुम यहाँ नहीं
रहोगे।''
अपने उठते हुए आग्रह पर चोट पाकर महेन्द्र व्याकुल हो उठा। गद्गद स्वर में
बोला- ''क्यों, तुम मुझे दूर क्यों रखना चाहती हो? तुम्हारे लिए सब-कुछ
छोड़ने का यही पुरस्कार है?''
विनोदिनी- ''अपने लिए मैं तुम्हें सब-कुछ न छोड़ने दूँगी।''
महेन्द्र कह उठा- ''अब वह तुम्हारे हाथ की बात नहीं- सारी दुनिया मेरी
चारों तरफ से खिसक पड़ी है-बस, एक तुम हो- तुम विनोद...''
कहते-कहते विह्नल होकर महेन्द्र लौट पड़ा और विनोदिनी के पैरों को पकड़कर
उन्हें बार-बार चूमने लगा।
पाँव छुड़ाकर विनोदिनी उठ खड़ी हुई। बोली- ''याद नहीं, तुमने क्या प्रतिज्ञा
की थी?''
सारी शक्ति लगाकर महेन्द्र ने अपने को ज़ब्त किया। कहा- ''याद है मैंने शपथ
ली थी कि तुम जो चाहोगी वही होगा, मैं कभी कोई एतराज़ न करूँगा। उस शपथ को
मैं रखूँगा। बताओ, मुझे क्या करना है?''
विनोदिनी- ''तुम अपने घर पर रहोगे।''
महेन्द्र- ''एक मैं ही क्या तुम्हारी अनिच्छा की वस्तु हूँ, विनोद! अगर यही
बात है तो तुम मुझे खींच क्यों लाई? जो तुम्हारे भोग की चीज़ न थी, उसके
शिकार की क्या ज़रूरत पड़ी थी? सच-सच बताओ, मैंने स्वेच्छा से तुम्हें पकड़
लिया या तुमने जानकर मुझे पकड़ा? मुझसे तुम इस तरह खिलवाड़ करोगी और यह भी
मुझे सहना पड़ेगा? फिर भी अपनी शपथ मैं रखूँगा, जिस घर को मैं लात मारकर
आया, वहीं जाकर रहूँगा।''
विनोदिनी ज़मीन पर बैठी फिर से सिलाई में जुट गई।
कुछ देर तक उसके मुँह की ओर एकटक देखकर महेन्द्र बोल उठा- ''बेरहम! निर्दयी
हो तुम, विनोद! मैं बड़ा ही अभागा हूँ कि मैंने तुम्हें प्यार किया।''
विनोदिनी से सिलाई में कोई गलती हो गई। रोशनी के पास बड़ी मेहनत से वह धागे
को खोजने लगी। महेन्द्र के जी में आ रहा था कि विनोदिनी के संगदिल को अपनी
मुट्ठी में लेकर पीस डाले। उसकी इस मौन निर्दयता और अडिग उपेक्षा को धक्का
देकर बाहु-बल से शिकस्त देने को जी चाह रहा था।
महेन्द्र बाहर निकला और फिर-फिर लौट आया। बोला- ''मैं न रहूँगा तो यह
तुम्हारी हिफाज़त कौन करेगा?''
विनोदिनी- ''उसकी तो तुम फिक्र ही न करो। बुआ ने उस छमिया नौकरानी को जवाब
दे दिया है। आज से वह यहीं रहेगी। अन्दर से घर बन्द करके हम दोनों मज़े में
यहाँ रह लेंगी।''
भीतर-भीतर उस पर जितना ही गुस्सा आने लगा, विनोदिनी के लिए उसका उतना ही
ज़बरदस्त खिंचाव होने लगा। उस टस से मस न होने वाली मूरत को वज्र की ताकत से
छाती से चिपकाकर चूर-चूर कर देने की इच्छा होने लगी। अपनी उस प्रबल इच्छा
के हाथों से छुटकारा पाने के लिए महेन्द्र दौड़कर कमरे से बाहर चला गया।
रास्ते से जाते हुए महेन्द्र प्रतिज्ञा करने लगा, उपेक्षा के बदले में वह
विनोदिनी की उपेक्षा ही करेगा। संसार में महेन्द्र के सिवाय अब विनोदिनी का
और कोई सहारा नहीं, ऐसी हालत में भी इस निडरता और अडिगता से उसे ठुकराना-
किसी मर्द के नसीब में ऐसा भी अपमान कभी हुआ है। महेन्द्र का गर्व चूर-चूर
होकर भी मटियामेट न हुआ- पीड़ित और दलित होता रहा। वह सोचने लगा- 'ऐसा नाचीज़
हूँ मैं! मेरे लिए ऐसी स्पर्धा उसके मन में कैसे आई? मेरे सिवाय इस समय
उसका और है कौन?'
सोचते-सोचते अचानक याद आ गया- 'बिहारी'। सहसा उसके कलेजे का रक्त-प्रवाह थम
गया। बिहारी को ही उसने अपना भरोसा माना है- मैं तो उपलक्ष्य-मात्र हूँ,
उसकी सीढ़ी हूँ, पैर रखने की, कदम-कदम पर ठोकर मारने की जगह। इसी साहस पर
मेरी ऐसी अवज्ञा।
महेन्द्र को शंका हुई कि विनोदिनी से बिहारी की चिट्ठी-पत्री चलती होगी और
इसे कोई भरोसा मिला होगा।
सोचा और उसी दम वह बिहारी के घर की ओर चल पड़ा। जब उसके घर पहुँचा, तो रात
नहीं के बराबर बाकी रह गई थी। बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा पीटते-पीटते बैरे ने
दरवाज़ा खोलकर बताया- ''बाबूजी घर पर नहीं हैं।''
महेन्द्र चौंक उठा। सोचा, 'मैं इधर नासमझ की तरह मारा-मारा फिर रहा हूँ और
इस मौके का फायदा उठाकर बिहारी विनोदिनी के पास गया है। इसीलिए उसने इस
बेरहमी से मेरा अपमान किया और मैं भी मारकर भगाए गए गदहे की तरह भाग आया।'
महेन्द्र ने उस जाने-पहचाने पुराने बैरे से पूछा-''भज्जो, मालिक तुम्हारे
घर से किस वक्त निकले हैं?''
भज्जो ने कहा- ''जी, चार-पाँच दिन हो गए। पछाँह की ओर कहीं घूमने गए हैं।''
महेन्द्र की मानो जान में जान आई। जी में आया, 'अब आराम से थोड़ी देर सो
लूँ। तमाम रात भटकते रहने की अब हिम्मत नहीं है।'
वह ऊपर गया और बिहारी के कमरे में सोफे पर सो गया।
जिस रात महेन्द्र ने बिहारी के घर जाकर ऊधम मचाया, उसके दूसरे ही दिन बिना
कुछ तय किए बिहारी न जाने कहाँ चला गया। उसने सोचा, 'यहाँ रहने से जाने कब
अपने दोस्त से ऐसा घिनौना संघर्ष हो जाए कि जन्म-भर पछताना पड़े।'
दूसरे दिन महेन्द्र जगा तो ग्यारह बज चुके थे। उठते ही उसकी निगाह सामने की
तिपाई पर पड़ी। देखा, बिहारी का एक पत्र पड़ा था। ठिकाने के हरफ विनोदिनी के
थे। लिफाफा पत्थर के पेपर-वेट से दबा था। महेन्द्र ने झपटकर उसे उठा लिया।
लिफाफा खोला नहीं गया था। प्रवासी बिहारी के इन्तज़ार में बन्द पड़ा था।
काँपते हाथों से महेन्द्र ने उसे फाड़ डाला और पढ़ने लगा। यही चिट्ठी
विनोदिनी ने अपने गाँव से बिहारी को भेजी थी, जिसका उसे कोई जबाव नहीं मिला
था।
चिट्ठी का एक-एक अक्षर महेन्द्र को काटने लगा। छुटपन से सदा ही बिहारी
महेन्द्र की ही ओट में पड़ा था। प्रेम-स्नेह के नाते महेन्द्र-देवता के गले
की उतरी माला ही उसे नसीब हुआ करती। आज महेन्द्र स्वयं प्रार्थी तथा बिहारी
विमुख था, फिर भी विनोदिनी ने महेन्द्र को ठुकराकर बिहारी को अपनाया।
विनोदिनी की चिट्ठियाँ महेन्द्र को भी दो-चार मिली थीं, मगर इसके मुकाबले
वे निरी नकली हैं, नासमझ को फुसलाने का बहाना!
अपना नया ठिकाना बताने के लिए महेन्द्र को गाँव के डाकखाने में भेजने की
व्याकुलता महेन्द्र को याद आई और अब उसका कारण उसकी समझ में आया। विनोदिनी
बिहारी के पत्र का बेसब्री से इन्तजार कर रही है।
जैसाकि पहले किया करता था, मालिक की गैरहाजिरी में भज्जो ने महेन्द्र को
बाज़ार से लाकर चाय-नाश्ता दिया। नहाना महेन्द्र भूल गया। तभी जैसे रेत पर
राही जल्दी-जल्दी कदम उठाकर चलता है, उसी तरह विनोदिनी की जलाने वाली
चिट्ठी पर वह तेजी से नजर दौड़ाने लगा। वह प्रतिज्ञा करने लगा कि विनोदिनी
से अब हर्गिज भेंट न करूँगा।फिर मन में आया, 'और दो-एक दिन में जब उसे
बिहारी का जवाब न मिलेगा, तो वह बिहारी के यहाँ आएगी और तब सारा हाल जानकर
उसे तसल्ली होगी।' यह संभावना महेन्द्र के लिए असह्य हो गई।
आखिर उस पत्र को अपनी जेब में डालकर वह पटलडाँगा पहुँचा। महेन्द्र की यह गत
देखकर विनोदिनी को दया आ गई। वह समझ गई- हो न हो तमाम रात वह रास्ते के ही
चक्कर काटता रह गया है। पूछा- ''रात घर नहीं गए?''
महेन्द्र ने कहा- ''नहीं।''
विनोदिनी ने परेशान होकर पूछा- ''अभी तक खाया-पिया भी नहीं क्या?'' कहकर
सेवा-परायणा विनोदिनी ने उसके खाने का इन्तज़ाम करना चाहा।
महेन्द्र बोला- ''रहने दो, मैं खा चुका हूँ।''
विनोदिनी- ''कहाँ खाया?''
महेन्द्र- ''बिहारी के यहाँ।''
पलभर के लिए विनोदिनी का चेहरा पीला पड़ गया। ज़रा देर चुप रहकर उसने अपने को
सँभाला और पूछा-''बिहारी बाबू कुशल से तो हैं न?''
महेन्द्र बोला- ''कुशल से ही है। वह तो पछाँह चला गया।'' महेन्द्र ने कुछ
इस लहज़े से कहा मानो बिहारी आज ही गया है।
विनोदिनी का चेहरा फिर एक बार पीला पड़ गया। फिर अपने को सँभालकर बोली-
''ऐसा डाँवाडोल आदमी तो मैंने नहीं देखा। उन्हें हम लोगों का सारा हाल
मालूम पड़ गया है? खूब नाराज़ हो गए हैं क्या?''
महेन्द्र- ''नाराज़ न हुआ होता तो इस शिद्दत की गर्मी में भी कोई भला आदमी
पछाँह घूमने जाता है!''
विनोदिनी- ''मेरे बारे में कुछ कहा?''
महेन्द्र- ''कहने को क्या है। यह उसकी चिट्ठी लो!''
चिट्ठी उसके हाथ में देकर महेन्द्र तीखी नज़र से उसके मुँह के भाव पर गौर
करने लगा।
विनोदिनी ने झट से चिट्ठी लेकर देखी, खुली थी वह। लिफाफे पर उसी के हरफ में
बिहारी का नाम लिखा था। अन्दर से चिट्ठी निकाली। वह उसी की लिखी वही चिट्ठी
थी। उलटकर देखा, बिहारी का जवाब तो कहीं न मिला।
थोड़ी देर चुप रहकर विनोदिनी ने पूछा- ''यह चिट्ठी तुमने पढ़ी है?''
विनोदिनी के चेहरे के भाव से महेन्द्र को डर लगा। वह झूठ बोल गया-
''नहीं।''
विनोदिनी ने चिट्ठी फाड़ डाली। उसके टुकड़े-टुकड़े किए और खिड़की से बाहर फेंक
दिए।
महेन्द्र बोला- ''मैं घर जा रहा हूँ।''
विनोदिनी ने कोई जवाब न दिया।
महेन्द्र- ''तुमने जैसा चाहा है, मैं वैसा ही करूँगा। सात दिन मैं वहीं
रहूँगा। कॉलेज आते समय रोज़ नौकरानी की मार्फत यहाँ का सारा प्रबन्ध कर जाया
करूँगा। तुमसे भेंट करके तुम्हें आजिज़ न करूँगा।''
विनोदिनी महेन्द्र की कोई बात सुन भी पाई या नहीं, कौन जाने, मगर उसने कोई
जवाब न दिया। खुली खिड़की से बाहर अंधेरे आसमान को ताकती रही।
अपनी चीजें उठाकर महेन्द्र वहाँ से निकल पड़ा।
सूने कमरे में विनोदिनी बड़ी देर तक काठ की मारी-सी बैठी रही और अंत में
मानो जी-जान से अपने को सजग करने के लिए छाती का कपड़ा फाड़कर अपने पर बेरहमी
से चोट करने लगी।
आवाज़ पाकर नौकरानी दौड़ी आई- ''दादी जी, क्या कर रही हैं?''
''तू चली जा यहाँ से''- डपटकर विनोदिनी ने छमिया को कमरे से बाहर निकाल
दिया। उसके बाद ज़ोरों से किवाड़ बंद करके दोनों हाथों से मुट्ठी बाँधकर ज़मीन
पर लोट गई- तीर खाए जानवर जैसी रोने लगी। अपने को इस तरह विक्षत और श्रांत
बनाकर विनोदिनी रात-भर खिड़की के पास नीचे पड़ी रही।
सुबह जैसे ही सूरज की किरणें कमरे में आईं विनोदिनी को अचानक ऐसा लगा,
बिहारी गया नहीं होगा, कहीं उसे चकमा देने के लिए महेन्द्र ने यों ही झूठ
कह दिया हो। उसने छमिया को बुलाकर कहा- ''छम्मी, तू फौरन ज़रा बिहारी भाई
साहब के यहाँ जा-उन लोगों का हाल पूछ आ।''
छमिया कोई घंटे-भर बाद लौटकर बोली- ''उनके घर के सारे खिड़की-दरवाज़े बन्द
हैं। दरवाज़ा पीटने पर अन्दर से बैरा निकला। बोला- 'वे घर पर नहीं हैं। वे
घूमने के लिए पछाँह गए हैं'।''
विनोदिनी के संदेह का कोई कारण ही न रहा।
42
'महेन्द्र रात में ही उठकर चला गया,' यह सुनकर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत
नाराज हुई। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने
आशा से पूछा- ''महेन्द्र रात चला क्यों गया?''
आशा ने सिर झुकाकर कहा- ''मालूम नहीं, माँ!''
राजलक्ष्मी को लगा, यह भी रूठने की बात है। आज़िजी से कहा- ''तुम्हें नहीं
मालूम तो किसे मालूम होगा? कुछ कहा था उससे?''
आशा ने सिर्फ 'नहीं' कहा।
राजलक्ष्मी को यकीन न आया। ऐसा भी हो सकता है भला। पूछा- ''कल वह गया कब?''
सकुचाकर आशा बोली- ''नहीं जानती।''
राजलक्ष्मी ने ज़ोर देकर यह भी कह दिया कि आशा के आचरण और स्वभाव की वजह से
महेन्द्र घर से निकल गया। सिर झुकाकर यह फटकार झेलती हुई आशा अपने कमरे में
जाकर रोने लगी। अपने मन में सोचने लगी, 'पता नहीं क्यों कभी मेरे स्वामी ने
मुझे प्यार किया था और यह भी नहीं जानती कि उसका वह प्यार मैं फिर कैसे पा
सकूँगी। जो प्यार करता है, उसे कैसे खुश करना चाहिए, हृदय आप ही यह बता
देता है, लेकिन जो प्यार नहीं करता, उसके हृदय को कैसे पाया जा सकता है,
आशा यह क्या जाने। जो आदमी किसी और को प्यार करता है, उससे सुहाग पाने-जैसी
शर्मनाक कोशिश वह कैसे करे?'
शाम को परिवार के ज्योतिषीजी और उनकी बहन आई। बेटे की ग्रहशांति के लिए
राजलक्ष्मी ने उन्हें बुलवाया था। बहू की जन्म-कुंडली और हाथ देखने का
राजलक्ष्मी ने उनसे अनुरोध किया, और इसके लिए आशा को वहाँ बुलवाया गया।
दूसरों के आगे अपनी बदनसीबी की चर्चा के संकोच से कुंठित होकर आशा किस तरह
से अपना हाथ निकालकर बैठी कि इतने में अपने कमरे के पास वाले अंधेरे बरामदे
में राजलक्ष्मी को जूतों की हल्की-सी आहट सुनाई दी- कोई जैसे दबे पाँव जा
रहा हो। राजलक्ष्मी ने पूछा- ''कौन?''
पहले तो कोई जवाब न मिला। फिर आवाज दी-''कौन है?'' इस पर महेन्द्र चुपचाप
कमरे में आया।
आशा खुश तो क्या होती, महेन्द्र की लज्जा देखकर लज्जा से उसका हृदय भर गया।
अब महेन्द्र को अपने घर में ही चोर की तरह आना पड़ा है। ज्योतिषीजी और उनकी
बहन के रहने से उसे और भी शर्म आई। दुनिया-भर के सामने अपने स्वामी के लिए
लाज़ ही आशा को दु:ख से बड़ी हो उठी थी। और अब राजलक्ष्मी ने धीमे-से
कहा-''बहू, पार्वती से कह दो, महेन्द्र का खाना लगा दो,'' तो आशा बोली-''न,
मैं ही ले आती हूँ।''
घर की दास-दासियों से भी वह महेन्द्र को ढके रखना चाहती।
इधर ज्योतिषीजी और उनकी बहन को देखकर महेन्द्र मन-ही-मन बड़ा नाराज़ हुआ।
उसकी माँ और स्त्री जंतर-मंतर से उसे वश में लाने के लिए इन अशिक्षित
मूर्खों के साथ बेहयाई से साज़िश कर रही हैं, यह महेन्द्र को सहन नहीं हुआ।
इस पर जब ज्योतिषीजी की बहन ने, ज़रूरत से ज्यादा शहद- सने स्वर में पूछा-
'कुशल तो है, बेटे' तो उससे वहाँ बैठा न गया। उनके कुशल-प्रश्न का उत्तर
दिए बिना ही बोला- ''माँ, मैं ज़रा ऊपर चलता हूँ।''
माँ ने समझा, महेन्द्र शायद एकांत में बहू से बात करना चाहता है। बेहद खुश
होकर खुद रसोई में गई। जाकर आशा से कहा- ''जाओ, जल्दी से ऊपर जाओ, महेन्द्र
को शायद कुछ काम है।''
आशा धड़कते हृदय और सकुचाते कदमों से ऊपर गई। सास के कहने से उसने यह समझा
कि महेन्द्र ने शायद उसे बुलाया है। लेकिन अचानक ही उससे कमरे में जाते न
बना, वह पहले अंधेरे दरवाज़े की आड़ से महेन्द्र को देखने लगी।
महेन्द्र बड़े ही सूने मन से फर्श के बिस्तर पर तकिए के सहारे लेटा-लेटा छत
के शहतीर गिन रहा था। वही महेन्द्र तो था। सारा कुछ वही मगर कितना
परिवर्तन!
आशा अंधेरे में खड़ी-खड़ी जितना ही महेन्द्र को देखने लगी, उतना ही उसके मन
में होने लगा कि महेन्द्र अभी-अभी उसी विनोदिनी के यहाँ से आया है, उसके
अंगों में उसी विनोदिनी का स्पर्श है, ऑंखों में उसी की मूरत, कानों में
उसी विनोदिनी की आवाज़, मन में उसी विनोदिनी की वासना घुली-मिली है। आशा इस
महेन्द्र को अपनी पवित्र भक्ति कैसे दे, कैसे एक मन से कहे कि आओ, मेरे
हृदय में विराजो।
विनोदिनी का महेन्द्र मानो आशा के लिए पराया पुरुष हो। इतने में छत के
लोहे-लक्कड़ से महेन्द्र की अनमनी नज़र सामने की दीवार की तरफ उतरी। उसकी नज़र
का अनुसरण करते हुए आशा ने देखा, दीवार पर महेन्द्र की तस्वीर के पास ही
आशा का एक फोटो लटक रहा है। उसके जी में आया, दामन से उसे ढक दे। अभ्यासवश
क्यों वह आज तक उसकी नज़र में न आया, क्यों अब तक उसने उतार नहीं फेंका, यही
सोचकर वह अपने को धिक्कारने लगी। उसे लगा, महेन्द्र मन-ही-मन हँस रहा है।
अंत में आजिज़ आए महेन्द्र की नज़र दीवार से नीचे उतर आई। अपनी मूर्खता
मिटाने के लिए आशा आजकल साँझ को काम-काज और सास की सेवा से फुरसत पाते ही
काफी रात तक लिखा-पढ़ी करती थी। उसके पढ़ने-लिखने की कापी-किताबें कमरे में
एक तरफ रखी हुई थीं। महेन्द्र ने उनमें से एक कापी उठा ली और देखने लगा।
आशा की ख्वाहिश होने लगी कि चीखकर उसे छीन लाए। अपने कच्चे हरफ पर महेन्द्र
की व्यंग्य दृष्टि की कल्पना करके वह एक पल-भर भी और न खड़ी रह सकी। तेज़ी से
नीचे उतर गई- आहट छिपाने की भी चेष्टा न रही।
महेन्द्र का खाना तैयार था। राजलक्ष्मी सोच रही थी 'महेन्द्र बहू से हँसी
दिल्लगी कर रहा होगा,' लिहाज़ा भोजन ले जाकर बीच ही में रुकावट डालने को जी
नहीं चाह रहा था। आशा को उतरते देख खाने की जगह पर थाली रखकर उन्होंने
महेन्द्र को खबर दी। महेन्द्र खाने जाने को उठा ही था कि आशा दौड़कर कमरे
में गई और दीवार से अपनी तस्वीर उतारकर छत की दीवार के बाहर फेंक दी और
अपनी कापी-किताबें उठा ले गई।
खा-पीकर महेन्द्र कमरे में आ बैठा। राजलक्ष्मी ने लेकिन बहू को आस-पास कहीं
नहीं पाया। अंत में रसोई में जाकर देखा, आशा उनके लिए दूध उबाल रही थी। कोई
ज़रूरत न थी इसकी, क्योंकि जो नौकरानी रोज़ दूध उबाला करती थी, वह पास ही थी
और आशा के इस निरर्थक उत्साह पर ऐतराज़ कर रही थी। पानी डालकर जितना दूध वह
रोज़ गायब करती थी, आज वह हाथ से जाता रहा, इससे वह अकुला रही थी।
राजलक्ष्मी बोलीं- ''अरे, यहाँ क्यों बहू, ऊपर जाओ!''
आशा ने ऊपर जाकर सास के कमरे में पनाह ली। बहू के इस व्यवहार से राजलक्ष्मी
नाराज़ हुईं। सोचा, 'उस मायाविनी के फंदे से निकलकर महेन्द्र घड़ी-भर के लिए
घर भी आया, तो नाराज़ होकर, रूठ कर बहू फिर उसे घर से निकालने को तैयार! और
विनोदिनी के फंदे में जो महेन्द्र पड़ा वह ही तो आशा के ही चलते। मर्द तो
गलत राह पर चलने के लिए पाँव बढ़ाए ही रहता है। औरत का कर्तव्य है, छल-बल
कौशल से उसे सही रास्ते पर रखे।'
राजलक्ष्मी ने फटकार बताई- ''यह तुम्हारा क्या रवैया है, बहू! खुश-किस्मती
से स्वामी कहीं घर आ गए तो मुँह लटकाए तुम इस- उस कोने में क्यों छिपी
फिरती हो?''
खुद को कसूरवार समझ अंकुश खाए हुए की तरह आशा ऊपर गई और मन को आगा-पीछा
करने का ज़रा भी मौका न देकर वह एक साँस में कमरे के अन्दर चली गई। दस बज
चुके थे। उस समय महेन्द्र बिस्तर के पास खड़ा बेमतलब बड़ी देर से चिन्तित-सा
मच्छरदानी झाड़ रहा था। उसके मन में विनोदिनी के लिए एक तीखा अभियान हो गया
था। वह मन में सोच रहा था कि विनोदिनी ने आखिर मुझे ऐसा खरीदा हुआ गुलाम
समझ रखा है कि मुझे आशा के पास भेजते हुए उसके जी में ज़रा भी आशंका न हुई।
कहीं मैं आज से आशा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करूँ तो वह किसके सहारे
इस दुनिया में खड़ी होगी? उसने सोचा वह विनोदिनी से अपनी उपेक्षा का बदला
जरूर लेगा।
आशा ने जैसे ही कमरे में कदम रखा, महेन्द्र का अनमना होकर मच्छरदानी झाड़ना
बन्द हो गया। एक समस्या हुई कि आशा से वह बोल-चाल कैसे शुरू करे।
बनावटी हँसी हँसकर अचानक जो बात उसकी जबान पर आ गई, महेन्द्र वही बोला।
बोला, ''मैं देख रहा हूँ, तुमने भी मेरी तरह पढ़ने में जी लगाया है। यहाँ
कापी-किताबें पड़ी देखी थीं, कहाँ गईं?''
बात बेसिर-पैर की लगी। इतना ही नहीं, उसने आशा को चोट की। गँवार आशा
शिक्षित होने की चेष्टा कर रही है, वह बड़ी ही गोपन बात थी उसकी। और उसका वह
संकल्प अगर किसी के हँसी-मज़ाक के अभ्यास से भी गोपन रखने का विषय था तो वह
खासतौर से महेन्द्र। और उसी महेन्द्र ने जब बोल-चाल के आरम्भ में ही हँसकर
वही बात चलाई, तो बेरहम बातों की मार खाए कोमल बच्चे के देह-सा उसका मन
संकुचित और पीड़ित होने लगा। वह कुछ बोली नहीं मुँह फेरकर तिपाई का किनारा
पकड़े खड़ी रही।
मुँह से बात निकलते ही महेन्द्र ने समझ लिया था कि बात संगत और समय के
अनुकूल नहीं हुई। लेकिन ऐसी स्थिति में उपयुक्त बात क्या हो सकती है, वह
सोच ही न सका। बीच में एक इतना बड़ा विद्रोह हो गया, उसके बाद पहले की तरह
कोई सहज बात जँचती नहीं। महेन्द्र ने सोचा, 'मसहरी के अन्दर दाखिल हो जाऊँ,
तो वहाँ के एकान्त से बात करना शायद सहज हो।' यह सोचकर अपनी धोती के छोर से
वह फिर मसहरी झाड़ने लगा। नया अभिनेता रंगमंच पर जाने से पहले जैसे अपना
पार्ट मन-ही-मन दुहराया करता है, महेन्द्र वैसे ही मसहरी के सामने खड़ा-खड़ा
अपने वक्तव्य और कर्तव्य की सोचता रहा। इतने में हल्की-सी आहट हुई।
महेन्द्र ने मुड़कर देखा, लेकिन आशा नहीं थी।
43
अगले दिन महेन्द्र ने माँ से कहा- ''माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत
कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।''
माँ खुश हो गई, ''तब तो महेन्द्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से
सुलह हो गई। भला अपनी ऐसी अच्छी बहू की सदा उपेक्षा कर सकता है। ऐसी
लक्ष्मी को छोड़कर उस मायाविनी डायन के पीछे वह कब तक भूला रह सकता है?''
माँ ने झट कहा- ''हर्ज क्या है, रहो!''
उन्होंने तुरन्त कुंजी निकाली, ताला खोला और झाड़-पोंछ की धूम मचा दी-
''बहू, अरी ओ बहू, कहाँ गई?'' बड़ी कठिनाई से घर के एक कोने में दुबकी हुई
बहू को बरामद किया गया- ''एक धुली चादर ले आओ! इस कमरे में मेज़ नहीं है,
लगानी पड़ेगी। इस रोशनी से काम नहीं चलेगा, ऊपर से अपना वाला लैम्प भिजवा
दो।'' इस तरह दोनों ने मिलकर उस घर के राजाधिराज के लिए अन्नपूर्णा के कमरे
में राज-सिंहासन तैयार कर दिया। महेन्द्र ने सेवा में लगी हुई माँ-बहू की
तरफ ताका तक नहीं, वहीं किताब लिये ज़रा भी समय बर्बाद न करके गम्भीर होकर
पढ़ने बैठ गया।
शाम को भोजन के बाद वह फिर बैठा। सोना ऊपर के कमरे में होगा या वहीं, कोई न
समझ सका। बड़े जतन से राजलक्ष्मी ने आशा को मूरत की तरह सजाकर कहा- ''बहू,
महेन्द्र से पूछ तो आओ, उसका बिस्तर क्या ऊपर लगेगा?''
इस प्रस्ताव पर आशा का पाँव हर्गिज़ न हिला, वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही।
नाराज़ होकर राजलक्ष्मी खरी-खोटी सुनानें लगीं। बड़े कष्ट से आशा दरवाजे तक
गई, पर उससे आगे न बढ़ सकी। दूर से बहू का वह रवैया देखकर राजलक्ष्मी नाराज़
होकर इशारे से निर्देश करने लगीं। मरी-सी होकर आशा कमरे में गई। आहट पाकर
किताबों से सिर न उठाकर ही महेन्द्र ने कहा- ''मुझे अभी देर है- फिर तड़के
से ही उठकर पढ़ना है- मैं यहीं सोऊँगा।''
शर्म की हद हो गई! आशा महेन्द्र को ऊपर सुलाने के लिए थोड़े ही गिड़गिड़ाने आई
थी।
वह निकली। निकलते ही खीझकर राजलक्ष्मी ने पूछा- ''क्यों, क्या हुआ?''
आशा बोली- ''अभी पढ़ रहे हैं। वे यहीं सोएँगे।''
कहकर वह अपने अपमानित शयन-कक्ष में चली गई। कहीं उसे चैन नहीं- मानो सब कुछ
दोपहर की धारती-सा तप उठा है।
कुछ रात बीती, तो उसके कमरे के दरवाजे पर थपकी पड़ी- ''बहू, बहू, दरवाज़ा
खोलो!''
आशा ने झटपट दरवाज़ा खोल दिया। दमे की मरीज़ राजलक्ष्मी सीढ़ियाँ चढ़कर तकलीफ
से साँस ले रही थीं। कमरे में जाकर वह बिस्तर पर बैठ गईं और वाक्-शक्ति
लौटते ही बोलीं- ''तुम्हारी अक्ल की बलिहारी! ऊपर कमरा बन्द किए पड़ी हो! यह
क्या राग-रोष का समय हे! इस मुसीबत के बाद भी तुम्हारे भेजे में बुध्दि
नहीं आई! जाओ नीचे जाओ!''
आशा ने धीमे-से कहा- ''उन्होंने कहा है, एकांत में रहेंगे।''
राजलक्ष्मी- ''कह दिया और हो गया। गुस्से में जाने क्या कह गया, उसी पर तुम
तुनक बैठोगी। ऐसी तुनक-मिज़ाज होने से काम नहीं चलेगा। जाओ, जल्दी जाओ।''
दु:ख के दिनों में सास को बहू से लाज नहीं। जो भी तरकीब उन्हें आती है, उसी
से महेन्द्र को किसी तरह बाँधना पड़ेगा। आवेग से बातें करते हुए राजलक्ष्मी
का फिर से दम फूलने लगा। अपने को थोड़ा-बहुत सँभालकर उठीं। आशा भी आजिज़ न
होकर पकड़कर उन्हें नीचे लिवा ले गई। उनके सोने के कमरे में आशा ने उन्हें
बिठा दिया और पीठ की तरफ तकिए लगाने लगी। राजलक्ष्मी बोलीं- ''रहने दो बहू,
किसी को भेज दो। तुम जाओ!''
अबकी आशा ज़रा भी न हिचकी। सास के कमरे से निकलकर सीधी महेन्द्र के कमरे में
गई। महेन्द्र के सामने मेज़ पर किताब खुली पड़ी थी- वह मेज़ पर दोनों पैर रखकर
कुर्सी पर माथा टेके ध्या्न से न जाने क्या सोच रहा था। उसके पीछे पैरों की
आहट हुई। चौंककर उसने पीछे की ओर देखा। मानो किसी के ध्या न में लीन था-
एकाएक धोखा हुआ कि वह आ गई। आशा को देखकर महेन्द्र सँभला। खुली किताब को
उसने अपनी गोद में खींच लिया।
मन-ही-मन महेन्द्र को अचरज हुआ। इन दिनों ऐसे बेखटके तो आशा उसके सामने
नहीं आती- अचानक भेंट हो जाती है तो वह वहाँ से चल देती है। आज इतनी रात को
वह इस सहज भाव से उसके कमरे में आ गई, ताज्जुब है! किताब से ऑंखें हटाए
बिना ही महेन्द्र ने समझा, आज आशा के लौट जाने का लक्षण नहीं। वह महेन्द्र
के सामने आकर स्थिर भाव से खड़ी हुई। इस पर महेन्द्र से मान करते न बना। सिर
उठाकर उसने देखा। आशा ने साफ शब्दों में कहा- ''माँ का दम उखड़ आया है। चलकर
एक बार देख लो तो अच्छा हो!''
महेन्द्र- ''वे हैं कहाँ?''
आशा- ''अपने सोने के कमरे में हैं। नींद नहीं आ रही है।''
महेन्द्र- ''अच्छा, चलो, उन्हें देख आऊँ।''
बहुत दिनों के बाद आशा से इतनी-सी बात करके महेन्द्र जैसे हल्का हुआ। किसी
दुर्भेद्य किले की दीवार-सी नीरवता मानो उन दोनों के बीच स्याह छाया डाले
खड़ी थी- महेन्द्र की ओर से उसे तोड़ने का कोई हथियार न था, ऐसे समय आशा ने
अपने हाथों किले में एक छोटा-सा दरवाज़ा खोल दिया। आशा सास के कमरे के
दरवाजे पर खड़ी रही। महेन्द्र गया। उसे असमय में अपने कमरे में आया देखकर
राजलक्ष्मी को डर लगा। सोचा, 'कहीं फिर दोनों में कहा-सुनी हो गई और वह चल
देने की कहने आया हो।' पूछा- ''अब तक सोया नहीं महेन्द्र?''
महेन्द्र ने कहा- ''क्या दमा उखड़ आया है, माँ?''
ज़माने के बाद यह सवाल सुनकर उनके मन में मान हो आया। समझीं, 'जब बहू ने
जाकर बताया, तो यह माँ का हाल पूछने आया है।' इस आवेश से उनका कलेजा और भी
काँपने लगा। किसी तरह बोलीं- ''तू सो जाकर, यह कुछ नहीं।''
महेन्द्र- ''नहीं, नहीं एक बार जाँच देखना अच्छा है। यह बीमारी टालने की
नहीं।''
महेन्द्र को पता था, माँ को हृदय की बीमारी है। इस वजह से तथा उनके चेहरे
का लक्षण देखकर उसे घबराहट हुई।
माँ ने कहा- ''जाँचने की ज़रूरत नहीं। मेरी यह बीमारी नहीं छूटेगी।''
महेन्द्र ने कहा- ''खैर, आज की रात के लिए सोने की दवा ला देता हूँ। सवेरे
अच्छी तरह से देखा जाएगा।''
राजलक्ष्मी- ''दवा ढेर खा चुकी, दवा से कुछ होता-जाता नहीं। बहुत रात हो
गई, तुम सो जाओ।''
महेन्द्र- ''तुम्हें ज़रा चैन तो मिले।''
इस पर राजलक्ष्मी ने दरवाजे पर खड़ी बहू को संबोधित करके कहा- ''बहू, तुम
रात में महेन्द्र को तंग करने के लिए यहाँ क्यों ले आईं!''
कहते-कहते उनकी साँस की तकलीफ और भी बढ़ गई। तब आशा कमरे में आई। उसने कोमल
किन्तु दृढ़ स्वर में महेन्द्र से कहा- ''तुम सोओ जाकर। मैं माँ के पास
रहूँगी।''
महेन्द्र ने आशा को अलग बुलाकर कहा- ''मैंने एक दवा लाने भेजा है। दो-खुराक
दवा होगी। एक से अगर नींद न आए तो घंटे-बाद दूसरी खुराक देना। रात में साँस
और बढ़े तो मुझे खबर देना।''
कहकर महेन्द्र अपने कमरे में चला गया। आशा आज जिस रूप में उसके सामने प्रकट
हुई, उसके लिए वह रूप नया था। इस आशा में संकोच नहीं, दीनता नहीं- यह आशा
अपने अधिकार में खड़ी हुई थी। अपनी स्त्री की महेन्द्र ने अपेक्षा की थी,
मगर घर की बहू के लिए संभ्रम हुआ।
आशा ने जवाब न दिया। पीछे बैठकर पंखा झलने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा- ''तुम
सोओ जाकर, बहू।''
आशा धीमे-से बोली- ''मुझे यहीं रहने को कह गए हैं।''
आशा समझती थी कि यह जानकर माँ खुश होंगी कि महेन्द्र उसे माँ की सेवा के
लिए छोड़ गया है।
44
राजलक्ष्मी ने जब साफ समझ लिया कि आशा महेन्द्र के मन को बाँध नहीं पा रही
है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेन्द्र को यहाँ
रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठीक न हो जाएँ।
इसलिए आशा से छिपाकर दवा फेंकने लगीं।
अनमना महेन्द्र खास कुछ ख्याल नहीं करता था। लेकिन आशा यह देख रही थी कि
राजलक्ष्मी की बीमारी दबने के बजाय कुछ बढ़ ही रही है। वह सोचती, 'महेन्द्र
खूब सोच-विचारकर दवा नहीं दे रहा है- उसका मन इतना ही खराब हो गया है कि
माँ की तकलीफ भी उसे सचेतन नहीं कर पाती।' उसकी इस दुर्गति पर आशा अपने मन
में उसे धिक्कारे बिना न रह सकी। एक तरफ से बिगड़ने पर कोई क्या हर तरफ से
बर्बाद हो जाता है। एक दिन शाम को बीमारी की तकलीफ में राजलक्ष्मी को
बिहारी की याद आ गई। जाने वह कब से नहीं आया। आशा से पूछा- ''जानती हो बहू,
बिहारी आजकल कहाँ है? उसका महेन्द्र से कुछ झगड़ा है, क्यों? यह उसने बड़ा
बेजा किया, बहू! उस- जैसा महेन्द्र का भला चाहने वाला और कोई दोस्त नहीं।''
कहते-कहते उनकी ऑंखों में ऑंसू जमा हो आए। एक-एक करके आशा को बहुतेरी बातें
याद आईं। अंधा और भोली आशा को समय पर चेताने के लिए जाने कितनी बार, कितनी
कोशिश बिहारी ने की और उन्हीं कोशिशों के चलते वह आशा का अप्रिय हो उठा।
फिर बड़ी देर तक चुपचाप चिंतित रहकर राजलक्ष्मी बोल उठीं- ''बहू, बिहारी
होता तो हमारे इस आड़े वक्त में बड़ा काम आता। वह हमें बचाता, बात यहाँ तक न
बढ़ पाती।''
आशा चुपचाप सोचती रही। उसाँस लेकर राजलक्ष्मी ने कहा- ''उसे अगर मेरी
बीमारी का पता चल जाए, तो वह हर्गिज़ नहीं रुक सकता।''
आशा समझ गई, राजलक्ष्मी चाहती हैं कि बिहारी को यह खबर मिले। बिहारी के न
होने से वह असहाय-सी हो गई हैं।
कमरे की बत्ती गुल करके चाँदनी में महेन्द्र खिड़की के पास चुप खड़ा था। पढ़ना
अच्छा नहीं लग रहा था। घर में कोई आराम नहीं। जो नितांत अपने हैं, उनसे जब
सहज नाता टूट जाता है तो उन्हें बिराने की तरह आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता
और फिर प्रियजन के समान सहज ही अपनाया भी नहीं जा सकता।
पीछे आहट मिली। महेन्द्र ने समझा, आशा आई है। मानो आहट उसे मिली ही नहीं,
इस भाव से वह स्थिर रहा। आशा बहाना ताड़ गई, फिर भी वह कमरे से बाहर नहीं
गई। पीछे खड़ी-खड़ी बोली- ''एक बात है, वही कहकर मैं चली जाऊँगी।''
महेन्द्र ने पलटकर कहा- ''जाना ही क्यों पड़ेगा- ज़रा देर बैठ ही जाओ।''
इस भलमनसाहत पर उसने ध्या'न न दिया। स्थिर खड़ी-खड़ी बोली- ''बिहारी भाई साहब
को माँ की बीमारी की खबर देना लाज़िमी है।''
बिहारी का नाम सुनते ही महेन्द्र के गहरे ज़ख्म पर चोट लगी। अपने को सँभालकर
वह बोला- ''लाज़िमी क्यों है, मेरे इलाज का भरोसा नहीं हो रहा है, क्यों?''
आशा ने मन में यह शिकायत भरी-सी थी कि महेन्द्र माँ के इलाज में उतना
ध्याबन नहीं दे रहा है, तो उसके मुँह से निकल पड़ा- ''कहाँ, उनकी बीमारी तो
जरा भी नहीं सुधरी, बल्कि दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है।''
इस मामूली बात में जो ऑंच थी, महेन्द्र अपने अहंकार से आहत हो विस्मित
व्यंग्य के साथ बोला-''देखता हूँ, तुमसे डाक्टरी सीखनी पड़ेगी।''
इस व्यंग्य से आशा को उसकी जमी हुई वेदना पर अप्रत्याशित चोट लगी। तिस पर
कमरा अंधेरा था, जो सदा ही चुप रह जाने वाली आशा आज बे-खटके तेज़ी के साथ
बोल उठी- ''डाक्टरी न सही, माँ की सेवा सीख सकते हो।''
आशा से ऐसा जवाब पाकर महेन्द्र के अचरज की सीमा न रही। ऐसे तीखे वाक्य
सुनने का वह आदी न था। वह कठोर हो उठा। बोला- ''तुम्हारे बिहारी भाई साहब
को यहाँ आने की मनाही क्यों की है- तुम तो जानती हो- शायद फिर याद आ गई
है!''
आशा तेज़ी से बाहर चली गई। शाम की ऑंधी मानो उसे ढकेलकर ले गई। शर्म अपने
लिए न थी। जो आदमी सिर से पैर तक अपराध में डूबा हो, वह जुबान पर ऐसे झूठे
अपवाद भी ला सकता है! इतनी बड़ी बेहयाई को लाज के पहाड़ से भी नहीं ढका जा
सकता।
आशा के चले जाने के बाद ही महेन्द्र अपनी पूरी हार का अनुभव कर सका।
महेन्द्र को मालूम भी न था कि आशा कभी भी किसी भी अवस्था में महेन्द्र को
इस तरह धिक्कार सकती है। उसे लगा, जहाँ उसका सिंहासन था, वहीं वह धूल में
लोट रहा है। इतने दिनों के बाद अब उसे ये शंका होने लगी, 'आशा की वेदना
कहीं घृणा में न बदल जाए।'
और उधर बिहारी की चर्चा आते ही विनोदिनी की चिंता ने उसे बेताब कर दिया।
पश्चिम से बिहारी लौटा या नहीं, कौन जाने? हो सकता है, इस बीच विनोदिनी
उसका पता ले आई हो, विनोदिनी से बिहारी की भेंट भी असंभव नहीं। महेन्द्र से
अब प्रतिज्ञा का पालन न हो सका।
रात को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ गई। उससे न रहा गया। उन्होंने महेन्द्र को
बुलावा भेजा। बड़ी तकलीफ से बोलीं फूटी- ''महेन्द्र, बिहारी को देखने को
मेरा बड़ा जी चाहता है- बहुत दिनों से वह नहीं आया है।''
आशा सास को पंखा झल रही थी। मुँह नीचा किये बैठी रही। महेन्द्र ने कहा-
''वह यहाँ नहीं है। जाने कहाँ पछाँह गया है।''
राजलक्ष्मी ने कहा- ''मेरी अंतरात्मा कह रही है, वह यहाँ है, सिर्फ तुझसे
रूठकर नहीं आ रहा है। मेरे सिर की कसम रही, कल तू एक बार उसके यहाँ जाना।''
महेन्द्र ने कहा- ''अच्छा, जाऊँगा।''
आज सब बिहारी के लिए परेशान हैं।
45
दूसरे दिन तड़के ही महेन्द्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाज़े पर कई
बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेन्द्र ने भज्जो से पूछा-
''माजरा क्या है?'' भज्जो ने कहा- ''बाबू ने बाली में गंगा के किनारे एक
बगीचा लिया है। यह सब वहीं जा रहा है।'' महेन्द्र ने पूछा- ''बाबू घर पर
हैं क्या?'' भज्जो ने कहा-''वे सिर्फ दो दिन कलकत्ता रुककर कल बगीचे चले
गए।''
सुनते ही महेन्द्र का मन आशंका से भर गया। उसकी गैरहाजिरी में बिहारी से
विनोदिनी की भेंट हुई है, इस पर उसे कोई सन्देह न रहा। उसने कल्पना की
ऑंखों से देखा, विनोदिनी के डेरे के बाहर भी बैलगाड़ियाँ लद रही हैं। उसे यह
निश्चित-सा लगा कि इसलिए मुझ नासमझ को विनोदिनी ने डेरे से दूर ही रखा है।
पल की भी देर न करके महेन्द्र गाड़ी पर सवार हुआ और कोचवान से हाँकने को
कहा। बीच-बीच में कोचवान को इसके लिए गालियाँ सुनाईं कि घोड़े तेज नहीं चल
रहे हैं। गली के अन्दर डेरे के दरवाज़े पर पहुँचकर देखा, यात्रा की कोई
तैयारी नहीं है। डर लगा, वहीं यह काम पहले ही न हो चुका हो। तेज़ी से किवाड़
के कड़े खटखटाए। अन्दर से जैसे ही बूढ़े नौकर ने दरवाज़ा खोला, महेन्द्र ने
पूछा- ''सब ठीक तो है?''
उसने कहा- ''जी हाँ, ठीक ही है।''
ऊपर जाकर महेन्द्र ने देखा, विनोदिनी नहाने गई है। उसके सूने सोने के कमरे
में जाकर महेन्द्र विनोदिनी के रात के बिस्तर पर लोट गया, दोनों हाथों से
खींचकर चादर को छाती के पास ले आया और सूँघकर उस पर मुँह रखते हुए बोला-
''बेरहम, निर्दयी!''
हृदय के उच्छ्वास को इस तरह निकलकर वह सेज से उठकर विनोदिनी का इन्तज़ार
करने लगा। कमरे में चहलकदमी करते हुए देखा, फर्श्श के बिछौने पर एक अखबार
खुला पड़ा है। समय काटने के ख्याल से कुछ अनमना-सा होकर अखबार अठाकर देखा।
जहाँ पर उसकी नज़र पड़ी, वहीं पर बिहारी का नाम था। उसका मन बात-की-बात में
अखबार देखते-देखते वहीं पर टूट पड़ा। किसी ने संपादक के नाम पत्र लिखा था,
'मामूली तनखा पाने वाले गरीब किरानियों के बीमार होने पर नि:शुल्क चिकित्सा
और सेवा के लिए बिहारी ने बाली में एक बगीचा खरीदा है, वहाँ एक साथ पाँच
आदमियों के लिए प्रबन्ध हो चुका है, आदि-आदि।'
यह खबर विनोदिनी ने पढ़ी, पढ़कर उसके मन में क्या हुआ होगा! बेशक उसका मन उधर
ही भाग-भागकर रहा होगा। न केवल इसीलिए बल्कि महेन्द्र का जी इस वजह से और
भी छटपटाने लगा कि बिहारी के इस संकल्प से उसके प्रति विनोदिनी की भक्ति और
भी बढ़ जाएगी। बिहारी को महेन्द्र ने अपने मन में 'हम्बग' और उसके इस काम को
'सनक' कहा।
विनोदिनी के पैरों की आहट सुनकर महेन्द्र ने अखबार मोड़ दिया। नहाकर
विनोदिनी कमरे में जो आई, महेन्द्र उसके चेहरे की तरफ देखकर हैरत में आ
गया। उसमें जाने कैसा एक अनोखा बदलाव आ गया था। मानो पिछले कई दिन तक वह
धूनी जलाकर तप कर रही थी। शरीर उसका दुबला हो गया था और उस दुबलेपन को
भेदकर उसके पीले चेहरे से एक दमक निकल रही थी।
बिहारी के पत्र की उम्मीद उसने छोड़ दी है। अपने ऊपर बिहारी की बेहद हिकारत
की कल्पना करके वह आठों पहर चुपचाप जल रही थी। बिहारी मानो उसी का तिरस्कार
करके पछाँह चला गया है- उस तक पहुँच पाने की कोई तरकीब उसे नहीं सूझी।
काम-काजी विनोदिनी काम की कमी से इस छोटे-से घर में घुल रही थी- उसकी सारी
तत्परता खुद उसी को घायल करती हुई चोट करती थी। उसके समूचे भावी जीवन को इस
प्रेमहीन, कर्महीन, आनन्दहीन घर में इस सँकरी गली में सदा के लिए कैद समझकर
उसकी बागी प्रकृति हाथ न आने वाले अदृष्ट के खिलाफ मानो आसमान से सिर मारने
की बेकार कोशिश कर रही थी। नादान महेन्द्र ने विनोदिनी की मुक्ति के सारे
रास्तों को चारों तरफ से बंद करके जीवन को इतना सँकरा बना दिया है, उस
महेन्द्र के प्रति उसकी घृणा और विद्वेष की सीमा न रही।
विनोदिनी का दुबला-पीला चेहरा देखकर महेन्द्र के मन में ईर्ष्या जल उठी।
उसमें ऐसी कोई शक्ति नहीं कि वह बिहारी की चिंता में लगी इस तपस्विनी को
ज़बरदस्ती उखाड़ सके? गिद्ध जैसे मेमने को झपट्टा मारकर देखते-ही-देखते अपने
अगम अभ्रभेदी पहाड़ के बसेरे में ले भागता है, क्या वैसी ही कोई मेघों से
घिरी दुनिया की निगाहों से परे जगह नहीं, जहाँ महेन्द्र अकेला अपने इस
सुन्दर शिकार को कलेजे के पास छिपाकर रख सके?
विरह की जलन स्त्रियों के सौंदर्य को सुकुमार कर देती है, ऐसा महेन्द्र ने
संस्कृत-काव्यों में पढ़ा था। आज विनोदिनी को देखकर वह जितना ही अनुभव करने
लगा, उतना ही सुख-सने दु:ख के आलोड़न से उसका हृदय बड़ा व्यथित होने लगा।
विनोदिनी ज़रा देर स्थिर रही। फिर पूछा- ''तुम चाय पीकर आए हो?''
महेन्द्र ने कहा- ''समझ लो, पीकर ही आया हूँ, मगर इस वजह से अपने हाथ से
प्याला देने की कंजूसी मत करो-प्याला मुझे दो।''
शायद जानकर ही विनोदिनी ने निहायत निर्दयता से महेन्द्र से इस उच्छ्वास को
चोट पहुँचाई। कहा- ''बिहारी भाई साहब इन दिनों कहाँ हैं, मालूम है?''
महेन्द्र का चेहरा फक हो गया। बोला- ''कलकत्ता में तो वह नहीं हैं इन
दिनों।''
विनोदिनी- ''पता क्या है उनका?''
महेन्द्र- ''यह तो वह किसी को बताना नहीं चाहता।''
विनोदिनी- ''खोज नहीं की जा सकती पूछ-ताछ करके?''
महेन्द्र- ''मुझे ऐसी ज़रूरत नज़र नहीं आती।''
विनोदिनी- 'जरूरत ही क्या सब-कुछ है, बचपन से आज तक की मैत्री क्या कुछ भी
नहीं?''
महेन्द्र- ''बिहारी मेरा छुटपन का साथी है, तुम्हारी दोस्ती महज़ दो दिन की
है, फिर भी ताकीद तुम्हारी ही ज्यादा है।''
विनोदिनी- ''इसी से तुम्हें शर्म आनी चाहिए। दोस्ती कैसे करनी चाहिए, यह
तुम अपने वैसे दोस्त से भी न सीख सके?''
महेन्द्र- ''मुझे इसका कतई मलाल नहीं, मगर धोखे से औरत का दिल कैसे लिया
जाता है, यह विद्या उससे सीखता तो आज काम आती।''
विनोदिनी- ''केवल चाहने से वह विद्या नहीं सीखी जा सकती, उसकी क्षमता होनी
चाहिए।''
महेन्द्र- ''गुरुदेव का पता मालूम हो, तो मुझे बताओ, इस उम्र में उनसे
दीक्षा ले आऊँ, फिर क्षमता की कसौटी होगी।''
विनोदिनी- ''मित्र का पता ढूँढ़ निकालने की जुर्रत न हो तो प्रेम की बात
जुबान पर मत लाओ! बिहारी भाई साहब से तुमने ऐसा बर्ताव किया है कि तुम पर
कौन यकीन करेगा?''
महेन्द्र- ''मुझ पर पूरा यकीन न होता तो मेरा इतना अपमान न कर पातीं-मेरे
प्रेम पर अगर इतनी निश्चिन्तता न होती, तो शायद मुझे इतनी तकलीफ न होती।
बिहारी पालतू न बनने की कला जानता है, वह कला अगर इस बदनसीब को बता देता तो
वह एक दोस्त का फर्ज अदा करता।''
''आखिर बिहारी आदमी है, इसी से पालतू नहीं बनता''- यह कहकर विनोदिनी खुले
बालों को पीठ पर बिखेरकर खिड़की पर जिस तरह खड़ी थी, खड़ी रही। महेन्द्र अचानक
खड़ा हुआ। मुट्ठी कस ली और नाराजगी से गरजकर बोला- ''आखिर बार-बार मेरा
अपमान करने का साहस क्यों करती हो तुम? इस इतने अपमान का कोई बदला नहीं
मिलता, वह तुम्हारी क्षमता के कारण या मेरे गुण से? इतना बड़ा पुरुष मैं
नहीं कि चोट करना जानता ही नहीं।''
इतना कहकर वह विनोदिनी की तरफ देखता हुआ ज़रा देर स्तब्ध रहा, फिर बोला-
''विनोद, चलो यहाँ से चलें- कहीं और। चाहे पछाँह, चाहे किसी पहाड़ पर, जहाँ
तुम्हारा जी चाहे- चलो! यहाँ जीना मुहाल है। मैं मरा जा रहा हूँ।''
विनोदिनी बोली- ''चलो अभी चलें पछाँह।''
महेन्द्र- ''पछाँह?''
विनोदिनी- ''किसी खास जगह नहीं। कहीं भी दो दिन रहते- घूमते फिरेंगे।''
महेन्द्र- ''ठीक है, आज ही रात को चलो!''
विनोदिनी राज़ी होकर महेन्द्र के लिए खाना बनाने गई। महेन्द्र ने समझ लिया,
बिहारी वाली खबर विनोदिनी की नज़रों से नहीं गुज़री। अखबार में जी लगाने-
जैसी स्थिति अभी उसके मन की नहीं है। कहीं अचानक उसे वह खबर न मालूम हो
जाय, इसी उधेड़-बुन में महेन्द्र पूरे दिन चौकन्ना रहा।
46
बिहारी की खोज-खबर लेकर महेन्द्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी
थी। काफी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई
थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेन्द्र के लिए यह बेताबी उन्हें और कष्ट
दे रही थी। यह देखकर आशा ने पूछ-ताछकर यह पता किया कि महेन्द्र की गाड़ी
वापिस आ चुकी है। कोचवान से मालूम हुआ, महेन्द्र बिहारी के यहाँ से होता
हुआ पटलडाँगा के डेरे पर गया है। राजलक्ष्मी ने सुना और दीवार की तरफ करवट
बदलकर लेटी रहीं। आशा उनके सिरहाने चित्र-लिखी-सी बैठी पंखा झलती रही और
दिन समय पर आशा को खाने के लिए जाने का वह आदेश किया करती थीं- आज कुछ न
कहा। कल जब उनकी तबीयत ज्यादा खराब थी, यह देखकर भी महेन्द्र विनोदिनी के
मोह में चला गया, तो राजलक्ष्मी के लिए दुनिया में कुछ भी करने का मन बुझ
गया।
कोई दो बजे आशा बोली- ''माँ, दवा पीने का वक्त हो गया।''
राजलक्ष्मी ने कोई जवाब न दिया, चुप रहीं, आशा दवा लाने जाने लगी, तो
बोलीं- दवा की ज़रूरत नहीं बहू, तुम जाओ!''
आशा ने माँ के रूठने का मर्म समझा और उसकी समझ ने उसके हृदय के आन्दोलन को
दूना कर दिया। आशा से न रहा गया। अपनी रुलाई रोकते-रोकते वह फफक पड़ी।
राजलक्ष्मी धीरे-धीरे करवट बदलकर आशा की तरफ हो गई और स्नेह से उसका हाथ
सहलाने लगीं। कहा- ''बहू, तुम्हारी उम्र ही क्या है, सुख का मुँह देखने का
तुम्हें बहुत समय है। मेरे लिए तुम परेशान मत होओ बिटिया, मैं काफी जी
चुकी, अब क्या होगा जीकर?''
आशा की रुलाई और उमड़ आई। उसने ऑंचल से मुँह दबा लिया। रोगी के घर इस तरह
निरानन्द दिन मन्द गति से कट गया। रूठे रहने के बावजूद दोनों नारियों को
अन्दर-ही-अन्दर आशा थी कि महेन्द्र अभी आएगा। खटका होते ही दोनों के शरीर
में एक चौंक-सी जगती थी, इसे दोनों समझ रही थीं। धीरे-धीरे सूर्यास्त की
आभा धुँधली पड़ गई- कलकत्ता के अन्त:पुर में उस गोधूलि की आभा में न तो
खिलावट है, और न अधेरे का आवरण ही होता है- वह विषाद को गहरा और निराशा के
ऑंसू सुखा डालती है। कर्म और भरोसे के बल को वह छीन लेती है, लेकिन विश्राम
और वैराग्य की शांति नहीं लाती। रोग से दुखी घर की उस सूनी और कुरूप साँझ
में आशा पाँव दबाए गई और दीया जलाकर कमरे में ले आई। राजलक्ष्मी ने कहा,
''बहू, रोशनी नहीं सुहाती, दीए को कमरे से बाहर रख दो।''
आशा दीये को बाहर रख आई। घना होकर अधेरा जब अनन्त रात को छोटे से कमरे में
ले आया, तो आशा ने धीमे-से राजलक्ष्मी से पूछा- ''माँ, उन्हें खबर भिजवाऊँ
क्या?''
राजलक्ष्मी ने सख्त होकर कहा- ''नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, महेन्द्र को
खबर मत देना!''
आशा स्तब्ध रह गई। रोने की उसमें शक्ति न थी। कमरे के बाहर से बैरे ने आवाज़
दी- ''माँजी, बाबू के यहाँ से चिट्ठी आई है।''
यह सुना और तुरंत राजलक्ष्मी के मन में आया, 'हो न हो, महेन्द्र की अचानक
तबीयत खराब हो गई है। इसीलिए वह आ न सका और चिट्ठी भेजी है।' चिन्तित और
परेशान होकर उन्होंने कहा, ''देखो तो बहू, महेन्द्र ने क्या लिखा है?''
काँपते हुए हाथों से आशा ने बाहर जाकर रोशनी में चिट्ठी खोलकर पढ़ी। उसने
लिखा था, इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट है, इसलिए वह घूमने के लिए पछाँह जा
रहा है। माँ की बीमारी के लिए खास कोई चिंता की बात नहीं। उन्हें बराबर
देखने के लिए नवीन डॉक्टर से कह दिया है। रात को उन्हें नींद न आए या
सिर-दर्द हो तो क्या करना होगा, यह भी उसने लिखा था। साथ ही दवाखाने से
मँगाकर उसने हल्के और ताकतवर पथ्य के दो डिब्बे भी भेज दिए थे। फिलहाल
गिरीडीह के पते पर माँ का हाल लिखने के लिए चिट्ठी में 'पुनश्च' में अनुरोध
किया था।
चिट्ठी पढ़कर आशा स्तम्भित हो गई- एक ज़बरदस्त धिक्कार ने उसके दु:ख को छिपा
लिया। यह कठोर समाचार वह माँ को किस तरह सुनाए?
आशा के इस विलम्ब से राजलक्ष्मी बहुत ही उतावली हो उठीं। बोलीं- ''बहू,
मुझे बताओ, महेन्द्र ने क्या लिखा है?''
आशा ने आखिर अन्दर बैठकर शुरू से आखिर तक चिट्ठी पढ़ सुनाई। राजलक्ष्मी ने
कहा- ''अपनी तबीयत के बारे में उसने क्या लिखा है, ज़रा वह जगह फिर से पढ़ो
तो...''
आशा ने फिर से पढ़ा- ''इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट-सी चल रही थी, इसीलिए
मैं...''
राजलक्ष्मी- ''बस, बस, रहने दो। उचाट न हो तबीयत, क्या हो! बुङ्ढी माँ मरती
भी नहीं और बीमार होकर उसे तंग करती है। तुम मेरी बीमारी को कहने उससे
क्यों गई?'' कहकर वह बिस्तर पर लेट गई।
बाहर जूतों की चरमराहट हुई। बैरे ने कहा- ''डॉक्टर आए हैं।''
खाँसकर डॉक्टर साहब अन्दर आए। घूँघट निकालकर आशा पलंग की आड़ में हो गई।
डॉक्टर ने पूछा- ''आपको शिकायत क्या है, यह तो कहें।''
राजलक्ष्मी झुँझलाकर बोलीं- ''शिकायत क्यों होगी? किसी को मरने भी न देंगे।
आपकी दवा से ही क्या मैं अमर हो जाऊँगी?''
राजलक्ष्मी कह उठीं- ''तकलीफ की दवा तभी होती थी, जब विधवाएँ जल मरती थीं
अब तो बाँधकर मारना ठहरा। आप जाएँ डॉक्टर साहब, मुझे तंग न करें- मैं अकेली
रहना चाहती हूँ।''
डॉक्टर ने डरकर कहा- ''ज़रा आपकी नब्ज़...''
राजलक्ष्मी ने खीझकर कहा- ''मैं कह रही हूँ, आप जाइए... मेरी नब्ज़ सही है-
यह खतरा नहीं कि यह जल्दी छूटेगी।''
लाचार होकर डॉक्टर कमरे से बाहर चला गया। उसने आशा को बुलाया। उससे बीमारी
का सारा ब्यौरा पूछा। सब-कुछ सुनकर गम्भीर-सा होकर वह फिर कमरे में गया।
बोला- ''महेन्द्र मुझ पर आपके इलाज का भार सौंप गया है। अगर आप इलाज़ न
कराएँगी, तो उसे दु:ख होगा।''
महेन्द्र को दु:ख होगा, यह बात राजलक्ष्मी को मज़ाक जैसी लगी। उन्होंने कहा-
''महेन्द्र की इतनी फिक्र न करें आप। दुनिया में हर किसी को दु:ख भोगना
पड़ता है। आप जाएँ, मुझे सोने दें।''
डॉक्टर ने समझा, बीमार को ज्यादा तंग करना ठीक नहीं। वह बाहर निकला और जो
कुछ करना था, आशा को बता दिया।
आशा जब कमरे में लौटी, तो राजलक्ष्मी बोलीं- ''तुम ज़रा आराम कर लो जाकर,
बिटिया! तमाम दिन मरीज़ के पास बैठी हो! हारू की माँ से कह दो, बगल के कमरे
में बैठेगी।''
आशा राजलक्ष्मी को समझती थी। यह उनके स्नेह का आग्रह नहीं, आदेश था- इसे
मान लेने के सिवा चारा नहीं। उसने हारू की माँ को भेज दिया था और अपने कमरे
में नीचे लेट गई।
दिन-भर उसने खाया-पीया नहीं। तकलीफ भी थी। उसका तन-मन चूर-चूर हो गया था।
उस दिन पड़ोस में दिन में ब्याह के बाजे बजते रहे। अभी फिर शहनाई पर धुन
छिड़ी। उस रागिनी से चोट खाकर रात का अधेरा काँपकर आशा पर बार-बार आघात करने
लगा। उसके अपने विवाह के दिन की छोटी-से-छोटी घटना भी सजीव हो उठी और सबने
मिलकर रात के आसमान को स्वप्न की छवि से पूर्ण कर दिया।
कमरे में रोशनी जलाकर वह कागज़ लिये लगातार ऑंसू पोंछती हुई लिखने बैठ गई-
''पूजनीय मौसी-
तुम्हारे सिवाय आज मेरा कोई नहीं। एक बार आओ और अपनी इस दुखिया को अपनी गोद
में उठा लो, वरना मैं जिऊँगी कैसे! क्या लिखूँ, नहीं जानती। चरणों में
कोटि-कोटि प्रणाम।
तुम्हारी प्यारी
चुन्नी''
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