दुर्लभ
बन्धु
भारतेंदु हरिश्चंद्र
प्रथम अंक
पहिला दृश्य
स्थान-वंशपुर की सड़क
(अनन्त, सरल और सलोने आते हैं)
अनन्त : सचमुच न जाने मेरा जी इतना क्यों उदास रहता है, इससे मैं तो
व्याकुल हो ही गया हूँ पर तुम कहते हो कि तुम लोग भी घबड़ा गए। हा, न जाने
यह उदासी कैसी है, कहाँ से आई है और क्यों मेरे चित्त पर इसने ऐसा अधिकार
कर लिया है? मेरी बुद्धि ऐसी अकुला रही है कि मैं अपने आपे से बाहर हुआ
जाता हूँ।
सरल : आपका जी क्या यहाँ है, आपका चित्त तो वहाँ है जहाँ समुद्र में आप के
सौदागरी के भारी जहाज बड़ी बड़ी पाल उड़ाए हुए धनमत्त लोगों की भाँति डगमगी
चाल से चल रहे होंगे और वरुण देवता के विमान की भाँति झूमते और आस पास की
छोटी छोटी नौकाओं की ओर दयादृष्टि से देखते आते होंगे और वे बेचारियाँ भी
अपने छोटे-छोटे परों से उड़ती हुई और सिर झुका झुकाकर बारंबार उनको प्रणाम
करती किसी तरह से लगी बुझी उनका अनुगम करती चली आती होंगी।
सलोने : महाराज! हम सच कहते हैं! जो हमारी इतनी जोखिम जहाज पर होती तो
हमारा जी आठ पहर उसी में लगा रहता, प्रति क्षण तिनका उठाकर हम हवा का रुख
देखा करते, रात दिन नकशा लिए सड़क, बन्दर और खाड़ियों को ताका करते और थोड़े
से खटके में भी अपनी हानि के डर से घबड़ा जाते।
सरल : और मेरा कलेजा तो गरम दूध के फूँकने में भी तूफान की याद करके दहल
जाता और सोचता कि हाय यदि कहीं समुद्र में आँधी चली तो जहाजों की क्या गति
होगी। बालू की घड़ी देखने से मुझे यह ध्यान बँधता कि मेरा माल से लदा जहाज
बालू की चर पर चढ़ गया है और उसके उलट जाने से उसका ऊँचा मस्तूल झुका हुआ
ऐसा दिखाई देता है मानो वह अपने प्यारे जलयान की समाधि को गले लगा कर रो
रहा है। देवालय के शिखर का ऊँचा पत्थर देखते ही मुझे पहाड़ों की चट्टानें
याद आतीं और सोचता कि इन्हीं चट्टानों से ठोकर खाकर मेरा भरा पूरा जहाज टूट
गया है, किराना पानी पर फैल गया है और रंग रंग के रेशमी कपड़े समुद्र की
लहरों पर लहरा रहे हैं, यहाँ तक कि जो जहाज अभी लाखों रुपये का था छन भर
में एक पैसे का भी न रहा। बतलाइए कि जब एक बार इस तरह का सोच जी में आवे तो
संभव है कि मनुष्य हानि के डर से उदास न हो जाय?
सलोने : मैं जानता हूँ कि आपको अपनी जोखों ही का सोच है।
अनन्त : इसका नहीं। मैं धन्यवाद करता हूँ कि मेरा माल कुछ एक ही जहाज पर
नहीं लदा है, और न सबके सब एक ही ओर भेजे गए हैं, और न एक साल के घाटे नफे
से मेरे व्यापार की इतिश्री है, इससे सौदागरी की जोखों के सबब से मैं इतना
उदास नहीं हूँ।
सरल : तो कहीं किसी से आँख तो नहीं लगी है?
अनन्त : छिः छिः!
सरल : वह भी नहीं यह भी नहीं तब तो आप का जी झूठ मूठ उदास है, अभी हँसो,
बोलो, वू$दो, अभी प्रसन्न हो जाव। संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं।
कुछ तो ऐसे हैं जो बे समझे बूझे तुच्छ तुच्छ बात पर बड़े बडे़ दाँत निकाल कर
खिलखिला उठते हैं और बाजे ऐसे (मुहर्रमी पैदाइश के) होते हैं कि ऐसा उत्तम
परिहास जिस पर धर्मराज सा गंभीर मनुष्य हँस पड़े उसपर भी उनका फूला हुआ थूथन
नहीं पिचकता।
(बसन्त, लवंग और गिरीश आते हैं)
सलोने : लो गिरीश और लवंग के साथ आपके प्रियबंधु बसन्त आते हैं। अब हमारा
प्रणाम लो। हम लोग आपको अपने से अच्छी मण्डली में छोड़ कर जाते हैं।
सरल : भाई यदि ये उत्तम मित्रगण न आ जाते तो मैं आपको अच्छी तरह प्रसन्न
किये बिना कभी न जाता।
अनन्त : मेरे हिसाब तो तुम भी बहुत उत्तम मित्र हो। परन्तु तुम्हें किसी
आवश्यक काम से जाना है इसी हेतु अवसर पाकर यह बात बनाई है।
सरल : प्रणाम महाशयो।
बसन्त : दोनों मित्रों को प्रणाम। कहो अब हम लोग फिर कब हँसे बोलेंगे। तुम
लोग तो अब निरे अपरिचित हो गए। सचमुच क्या चले ही जाओगे।
सरल : हम लोग अवसर के समय फिर मिलेंगे।
(सरल और सलोने जाते हैं)
लवंग : मेरे श्रीमन्त बसन्त लीजिए आपसे और अनन्त गुणकन्त अनन्त से भेंट हो
गई अब हम लोग भी जाते हैं, परन्तु खाने के समय जहाँ मिलने का निश्चय किया
उसे न भूलिएगा।
बसन्त : नहीं, न भूलूँगा।
गिरीश : भाई अनन्त। आप उदास मालूम पड़ते हो। हुआ ही चाहैं। संसार के कामों
में जो जितना विशेष फँसा रहेगा उतना ही विशेष वह उदास रहेगा। मैं सच कहता
हूँ कि आपकी सूरत बिलकुल बदल गई है।
अनन्त : मैं संसार को उसके वास्तविक रूप से बढ़कर कदापि नहीं समझता। गिरीश!
संसार एक रंगशाला है, जहाँ सब मनुष्यों को एक न एक स्वाँग अवश्यक बनना पड़ता
है उनमें से उदासी का नाट्य मेरे हिस्से है।
गिरीश : और मैं विदूषक की नकल करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे बाल भी
हँसते खेलते पकें। नित्य मद्य-पीने से मेरे कलेजे में गर्मी पहुंचे न कि
आहों के भरने से उसमें शीत आवे। शरीर में रक्त की गर्मी रहते भी लोग
क्योंकर मूरत की तरह चुपचाप बैठे रह सकते हैं, जागते हुए लोग भी किस तरह सो
जाते हैं, या रोगी की तरह कराह कराह कर दिन बिताते हैं। आप मेरी बात से
अप्रसन्न न हूजिएगा, मैं आपको जी से चाहता हूँ तब इतनी धृष्टता की है।
बहुतेरे मनुष्य ऐसे होते हैं कि बँधे पानी के तालाब की भाँति उनके मुख का
रंग सदा गँदला बना रहता है और यह समझ कर कि लोग हमको बड़ा सोचने वाला,
विचारवान, पंडित और गम्भीर कहेंगे व्यर्थ को भी मुंह फुलाए रहते हैं। उनका
मुंह देखने से स्पष्ट प्रगट होता है कि वह लोग अपने को बढ़कर लगाते और अपनी
बात को वेदव्यास से भी बढ़कर समझते हैं। मेरे प्यारे अनन्त। मैं ऐसे बहुतेरे
लोगों को जानता हूँ जो केवल जीभ न हिलाने के कारण समझदार प्रसिद्ध हैं। मैं
सच कहता हूँ कि ऐसे लोगों से बोलना ही पाप है क्योंकि इनकी बात के सुनते ही
क्रोध आ जाता है और मनुष्य के मुंह से बुरा भला निकल ही आता है। मैं इस
विषय में आप से फिर कभी बातचीत करूँगा। देखिए ऐसा न हो कि उसी झूठी बड़ाई की
इच्छा आप पर भी प्रबल हो। भाई लवंग चलो अब इस समय बिदा। खाने के पीछे आकर
मैं अपना व्याख्यान समाप्त करूंगा।
लवंग : तो खाने के समय तक के लिए जाता हूँ। परन्तु मैं तो उन्हीं गूंगे
बुद्धिमानों में से एक हूँ, क्योंकि गिरीश अपनी बकवाद में मुझे तो कभी
बोलने ही नहीं देता।
गिरीश : अभी दो बरस मेरी संगति में और रहो तो फिर तुम्हारी जिह्ना का शब्द
तुम्हारे कान को भी न सुनाई पड़ेगा।
अनन्त : अच्छा जाओ, मैं भी तब तक बकवाद करना सीख रखता हूँ।
गिरीश : आप बड़ी कृपा कीजिएगा क्योंकि चुप रहने का स्वभाव यों तो पशुओं के
लिये योग्य होता है या ऐसी स्त्रियों के लिये जिसे ब्याह करने वाला न मिलता
हो।
(गिरीश और लवंग जाते हैं)
अनन्त : कहो भाई इनकी बात में कोई आनन्द था?
वसंत : गिरीश बहुत ही व्यर्थ बकता है। सारे वंशनगर में उससे बढ़कर कोई बक्की
न निकलेगा। व्यर्थ की बकवाद की जाल में उसका वास्तविक आशय ऐसा छिपा रहता है
जैसे गट्ठे भर भूसे में अनाज का एक दाना। जब दिन भर उसके लिए हैरान हो तब
कहीं एक दाना हाथ लगे, वैसे ही जब बहुत सा समय इसकी बात के पीछे नाश करो तब
उसका आशय समझ में आवै और इतने कष्ट के पीछे समझने पर भी कुछ उसका फल
नहीं...
अनन्त : हुआ, यह रामकहानी दूर करो। अब यह बतलाओ कि वह कौन सी स्त्री है,
जिसके लिये तुम गुप्त यात्रा करने वाले हो। देखो, आज मुझसे सब वृत्तान्त
कहने का वादा है।
वसंत : भाई अनन्त! तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैंने अपनी सब जायदाद किस तरह
गंवा दी। समझ कर व्यय न करके सर्वदा बड़ी चाल चला और यही चाल मेरे नाश की
कारण हुई। पंरतु मुझे अपनी अवस्था के घट जाने का कुछ भी सोच नहीं है, सोच
है तो केवल इस बात का है कि मुझे जो बहुत सा ऋण हो गया है उसे किसी तरह
चुका दूँ। भाई अनन्त! तुम्हारा मैं सब प्रकार ऋणी हूँ। रुपये का कहो दया का
कहो। इसलिये ऋण चुकाने का मैं जो जो उपाय सोचता हूँ वह तुम से सब स्वच्छ
स्वच्छ वर्णन करके अपने चित्त के बोझ को हलका करूंगा।
अनन्त : प्यारे वसन्त! परमेश्वर के वास्ते मुझसे सब वृत्तान्त स्पष्ट वर्णन
करो। यदि वह उपाय धर्म का है जैसा कि तुम सदा बरतते आए हो तो निश्चय रक्खो
कि मेरा रुपया मेरा शरीर सब कुछ तुम्हारे लिए समर्पण है।
वसंत : छोटेपन में जब मैं पाठशाला में पढ़ता था तब यदि मेरा कोई तीर खो जाता
था तो उसके ढूँढ़ने को मैं वैसा ही दूसरा तीर उसी ओर छोड़ता था और ध्यान रखता
था कि यह तीर कहाँ गिरता है। इसी भाँति दुहरी जोखम उठाने से प्रायः दोनों
मिल जाते थे। इस लड़कपन की बात के छेड़ने से मेरा आशय यह है कि अब मैं जो
उपाय किया चाहता हूँ वह भी इसी लड़कपन के खेल की भाँति है। मैं तुम्हारा बड़ा
ऋणी हूँ। जो कुछ मैंने तुमसे लिया वह सब एक हठी लड़के भाँति गँवा दिया
परन्तु जहाँ तुमने पहिले एक तीर छोड़ा है उसी ओर यदि एक तीर और फेंको तो मैं
तुम्हें निश्चय दिलाता हूँ कि अब की मैं उसके लक्ष्य की ओर अच्छी तरह
दृष्टि रख कर जैसे होगा वैसे दोनों तीर खोज लाऊँगा। और यदि संयोग से पहिला
न मिला तो दूसरा तो अवश्य ही फेर लाऊँगा और पहिले के लिये धन्यवाद के साथ
तुम्हारा सदा ऋणी रहूँगा।
अनन्त : भाई तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो। फिर मेरा जी टटोलने के लिये
फेरवट के साथ बात करके व्यर्थ क्यों समय नष्ट करते हो। मुझे इसका दुःख है
कि तुमने इस बात में सन्देह किया कि मैं तुम्हारे लिए प्राण दे सकता हूँ।
यदि तुम मेरी सर्वस्व हानि किए होते तब भी मुझे इतना दुःख न होता जो इस बात
से हुआ। व्यर्थ बात बढ़ाने से क्या लाभ? केवल इतना कहो कि मुझे तुम्हारे
हेतु क्या करना होगा, मैं उसके लिये प्रस्तुत हूँ शीघ्र बतलाओ।
वसंत : विल्वमठ में एक प्यारी स्त्री रहती है जो अपने माँ बाप के मर जाने
से एक बड़ी रियासत की स्वामिनी हुई है। उसका रूप ऐसा है कि केवल सौन्दर्य के
शब्द से उसकी स्तुति हो ही नहीं सकती। उसमें अनगिनत गुण हैं। कुछ दिन हुए
उसकी चितवन ने मुझको ऐसे प्रेम सन्तेश दिए थे कि मुझको उसकी ओर से पूरी आशा
है। उसका नाम पुरश्री है, वह सचमुच पुुरश्री है, पुरश्री क्या सारे संसार
की श्री है। रूप में श्री और गुण में सरस्वती है। संसार में ऐसा कोई स्थान
नहीं जहाँ उसकी स्तुति की सुगंध न फैली हो। चारों ओर से बड़े बड़े राजकुमार
और धनिक उसके ब्याह की आशा में आते हैं। भाई अनन्त! यदि मुझे इतना रुपया
मिलता कि वहाँ जाकर इन लोगों के समक्ष मैं विवाह की प्रार्थना कर सकता तो
मेरा जी कहता है कि मैं अपने मनोरथ में अवश्य विजयी होता।
अनन्त : भाई तुम अच्छी तरह जानते हो कि मेरी सब लक्ष्मी समुद्र में है, इस
समय न मेरे पास मुद्रा है न माल जिसे बेच कर रुपया मिल सके, इससे जाओ देखो
तो मेरी साक वंशनगर में क्या कर सकती है। तुम्हें पुरश्री के पास विल्वमठ
जाने के लिए जो रुपया चाहिए उसके प्रबन्ध में मैं ऊँचा नीचा सब काम करने को
प्रस्तुत हूँ। देखो अभी जाकर खोज करो कि रुपया कहाँ मिलता है और मैं भी
जाता हूँ मेरे नाम या जमानत से जिस प्रकार रुपया मिले मुझे किसी बात में
सोच विचार नहीं है।
(दोनों जाते हैं)
दूसरा दृश्य
स्थान-विल्वमठ में पुरश्री के घर का एक कमरा
(पुरश्री और नरश्री आती हैं)
पुरश्री : नरश्री मैं सच कहती हूँ कि मेरा नन्हा सा जी इतने बड़े संसार से
बहुत ही दुःखी आ गया है।
नरश्री : मेरी प्यारी सखी यह बात तो आप तब कहतीं जब, भगवान न करे, जैसा
आपका सुख है उसके बदले उतना ही दुख होता। परन्तु न जाने क्यों प्रायः ऐसा
देखा है कि जो बहुत धनवान हैं वह भी संसार से वैसे ही घबड़ाए रहते हैं जैसे
वह लोग जो भूखों मरते हैं। इसी से निश्चय होता है कि मध्यावस्था कुछ साधारण
भाग्य की बात नहीं। लक्ष्मी बहुत शीघ्र श्वेत बाल करती है पर तृप्ति बहुत
दिन तक जिलाती है।
पुरश्री : क्यों न हो तुमने कैसे मनोहर वाक्य कहे और कैसी अच्छी तरह।
नरश्री : यदि उनका बरताव किया जाय तो और उत्तम हो।
पुरश्री : यदि अच्छी बात का करना उतना ही सहज होता जितना कि उसका जानना तो
सब मढ़ियाँ मंदिर और सब झोंपड़ियाँ महल हो जातीं। अच्छा गुरु वही है जो अपनी
शिक्षा पर आप भी चलता है। बीस अच्छी बातें दूसरों को सिखलाना सहज हैं।
किन्तु उनमें से अपनी शिक्षा के अनुसार एक पर भी चलना कठिन है। बुद्धि
स्वभाव के ठण्डा करने के लिये बहुत से उपाय बतलाती है किन्तु समय पर क्रोध
की गर्मी को कब रोक सकती है। यौवन का हिरन शिक्षा के फन्ते में से बहुत सहज
से छूट जाता है। किन्तु इस बात से और पतिवरण करने से कोई सम्बन्ध नहीं।
हाय! भला मेरे वरण करने का फल ही क्या? मैं तो न जिसे चाहूँ उसे स्वीकार कर
सकती हूँ और न जिसे न चाहूँ, उसे अस्वीकार कर सकती हूँ। हाय! एक जीती लड़की
को आशा एक मरे हुए बाप के मृतपत्र से कैसी रुक रही है। नरश्री क्या यह घोर
दुःख की बात नहीं है कि न मैं किसी को स्वीकार कर सकती हूं और न अस्वीकार?
नरश्री : आपके बाप बड़े अच्छे और धर्मिष्ठ मनुष्य थे और ऐसे महात्माओं को
मरने के समय अनुभव हुआ करते हैं। इससे सोने चाँदी और जस्ते के तीन सन्दूकों
के निश्चय करने में जो बात उन्होंने सोची थी (जिसके अनुसार वह मनुष्य जो
उनका बतलाया हुआ सन्दूक ग्रहण करेगा उसी का विवाह आपसे होगा) वह कभी बुराई
न करेगी। मुझे निश्चय है कि चिंतित सन्दूक को वही मनुष्य चुनेगा जिसे आप जी
से प्यार करती होंगी। परन्तु यह तो कहिए कि इतने राजकुमार और धनिक जो विवाह
की आशा में आए हैं उनमें से किसी की ओर आपको कुछ भी स्नेह है या नहीं?
पुरश्री : तुम उनके नामों को मेरे सामने कहती जाओ तो मैं प्रत्येक के विषय
में अपना विचार दर्शन करती जाऊंगी। इसी से तुम मेरे प्रेम का वृत्तान्त जान
लोगी।
नरश्री : अच्छा तो नैपाल के राजकुमार से आरंभ कीजिए।
पुरश्री : छिः छिः! वह तो निरा बछेड़ा है, और कोई काम नहीं, बस रात दिन अपने
घोड़ों ही का वर्णन। सारे अस्तबल की बला अपने सिर लिये रहता है और बड़ा भारी
अभिमान इस बात पर करता है कि मैं अपने घोड़े की नाल आप ही बाँध लेता हूँ। वह
तो बिल्कुल खोगीर की भरती है। निखट्टई नैपाली टट्टई।
नरश्री : और पाटन वाला?
पुरश्री : मरकहा बैल। रात दिन फूँ-फूँ किया करता है मानो उसको चितवन कहे
देती है कि या तो ब्याह करो या साफ जवाब दो। सैकड़ों हँसी की बातें सुनाता
है पर चाहे कि तनिक भी उसका थूथन पिचके। मुस्कुराना तो सपने में नहीं
जानता। हँसी मानो जुए में हार आया है। अभी जब हट्टा कट्टा साँड बना है तब
तो वह रोनी मूरत है तो बुढ़ापे में तो बात पूछते रो देगा। सिवाय हर हर भजने
के और किसी काम का न रहेगा। मेरा ब्याह चाहे एक मुर्दे से हो पर इन भद्दे
जानवरों से नहीं। भगवान इन दोनों से बचावे।
नरश्री : और भला फनेश देश के नरेश को आप कैसा समझती हैं?
पुरश्री : बेलगाम का ऊँट। मनुष्य के साँचे में ढल गया है बस इसी से मनुष्य
कहा जाता है, नहीं तो निरा पशु। किसी की निन्दा करनी निस्सन्देह पाप है पर
सच्ची बात यह है कि नैपाल के राजकुमार से जैसा एक चाशनी बढ़कर यह घुड़चढ़ा है
वैसा ही पाटन वाले से बढ़कर नकचढ़ा। आप तो कुछ भी नहीं है पर छाया उसमें सब
किसी की है। अभी गौरेया बोले तो आप उसकी तान पर नाचने लगें और अभी अपनी
परछाइ देखें तो तलवार लेकर उससे लड़ने चलें। एक उससे न ब्याह किया मानो बीस
मनुष्य से एक साथ ब्याह किया। यदि वह मुझसे घृणा करेगा तो मैं उससे कदापि
अप्रसन्न न हूँगी वरंच अपना सौभाग्य समझूँगी क्योंकि यदि वह मेरे प्रेम में
पागल भी हो जायगा तो मैं उसे प्यार न कर सकूंगी।
नरश्री : अच्छा, अंगदेश के नवयुवक धनी ब्रजपालक को आप क्या कहती हैं?
पुरश्री : तुम जानती हो कि मैं उसको कुछ नहीं कह सकती क्योंकि न वह मेरी
बात समझता है न मैं उसकी। वह न हिन्ती जानता है न ब्रजभाषा न मारबारी और
तुम शपथपूर्वक कह सकोगी कि मैथिल में मुझे कितना न्यून अभ्यास है। उसकी
सूरत तो बहुत अच्छी है पर इससे क्या? खिलौने से कोई भी बातचीत कर सकता है?
उसका पहिनावा कैसा बेजोड़ है। उसने अपना अंगा मारवाड़ में मोल लिया है,
पाजामा मथुरा में बनवाया है, टोपी गुजरात से मँगनी लाया है, और चालढाल थोड़ी
थोड़ी सब जगह से भीख मांग लाया है।
नरश्री : और उसका परोसी मालवा का अधिपति?
पुरश्री : परोस की सी क्षमा तो उसके स्वभाव में निस्सन्देह है क्योंकि उस
दिन जब उस अंगवाले ने उसकी कनपटी पर एक घूसा मारा था तो उसने सौगन्ध खाई थी
कि अवसर मिलेगा तो अवश्य बदला लूँगा। इस पर फनेश देशवाले के बीच में पड़ कर
झगड़ा यों निबटा दिया कि रूसो मत दहिने के बदले बायाँ भी तुमको मिल जायगा।
नरश्री : और उस नवयुवक शम्र्मशय देश के मण्डलेश्वर के भतीजे को आप कैसा
पसन्द करती हैं?
पुरश्री : राम राम! वह तो बड़ा भारी घनचक्कर है। सबेरे जब वह अपने आपे में
रहता है तभी बहुत बुरा रहता है तो तीसरे पहर जब मद में चूर होता है तब तो
और भी बुरा हो जाता है। अच्छी दशा में वह मनुष्य से कुछ न्यून रहता है और
बुरी दशा में पशु से भी नीच हो ही जायगा। भगवान न करे यदि यह आपत्ति पड़े कि
मुझको उससे विवाह करना हो तो जैसे हो सके वैसे मैं उससे दूर रहूँ।
नरश्री : भला यदि ऐसा हुआ कि उसने वही मंजूषा चुना जिसके चुनने से यह आपको
पावे तब क्या कीजिएगा क्योंकि फिर तो विवाह न करना अपने बाप की इच्छा के
विरुद्ध चलना है।
पुरश्री : इसीसे मैं तुम से कहती हूँ कि जिस मंजूषा में भूत की मूर्ति है
उसके ऊपर एक उत्तम मद्य से भरा हुआ पाव रख दो क्योंकि भीतर भूत ऊपर मद्य बस
यह उसी सन्दूक को चुनेगा। जैसे ही उस समुन्दर सोख अगस्त से बचाने का कोई
उपाय करना ही पड़ेगा।
नरश्री : सखी आप इस बात का ताप मत कीजिए कि इन लोगों में से किसी से आप को
विवाह करना पड़ेगा क्योंकि मैं सब के जी का हाल ले चुकी हूँ। यदि आप अपने
बाप की आज्ञा के अनुसार मंजूषा के चुनने ही पर अपना निश्चय रक्खेंगी और कोई
दूसरी प्रतिज्ञा न करेंगी तो यह सब के सब यहाँ से चले जायँगे और फिर विवाह
की इच्छा प्रकट करके आपको कष्ट न देंगे।
पुरश्री : तुम निश्चय जानो कि यदि मुझे मारर्कंडेय की आयु मिले तो भी मैं
अम्बालिका की तरह क्वारी मर जाऊँगी पर अपने पूज्य पिता की इच्छा के विरुद्ध
कभी ब्याह न करूँगी। मुझको बड़ा आनन्द है कि इन सन्दूकों में ऐसी चातुरी है
कि यह सब आपत्ति बिना मंत्र जंत्र के आप से आप दूर हो जाती है क्योंकि
इनमें से ऐसा कोई नहीं जिसका मैं घड़ी भर रहना भी सह सकती हूँ।
नरश्री : क्यों सखी आपको स्मरण है कि नहीं कि आप के पिता के समय में फनित
मठ के राजा के साथ वंशनगर का एक युवक बुद्धिमान और शूर मनुष्य आया था?
पुरश्री : हाँ वह बसन्त था-क्यों यहा न उसका नाम था?
नरश्री : हाँ सखी-जहाँ तक कि मुझ मूर्ख की समझ है सुन्दरी स्त्री के योग्य
उससे उत्तम और कोई वर मुझे दृष्टि नहीं पड़ा।
पुरश्री : मुझको भलीभाँति स्मरण है और जो कुछ तुमने उसकी प्रशंसा की बहुत
ठीक है।
(एक नौकर आता है)
क्यों क्यों! कोई नई बात है?
नौकर : बबुई साहिब ऊ चारों आदमी आप से बिदा होए कै ठाढ़ होएँ और एक पाँचवाँ
का हरकारा आयल हौ सो कहत हौ की मोरकुटी कै राजकुमार ओकर मालिक आज राती के
इहाँ पहुँचि हैं।
पुरश्री : यदि यह पाँचवाँ मनुष्य ऐसा होता है कि मैं उसके आने पर वैसी ही
प्रसन्नता प्रकट कर सकती जैसी प्रसन्नता से इन चारों को विदा करती हूँ तो
क्या बात थी। परन्तु यदि इसका रूप भूत का सा है और चित्त देवता का सा तो
मैं उसका शाप देना इसकी अपेक्षा उत्तम समझूँगी कि वह मुझसे ब्याह करे।
नरश्री चलो। नौकर तू आगे जा। एक गाहक जाने ही नहीं पाता कि दूसरा आ उपस्थित
होता है। (सब जाते हैं)
तीसरा दृश्य
(बसन्त और शैलाक्ष आते हैं)
शैलाक्ष : छः सहस्र मुद्रा-हूँ।
बसन्त : हाँ साहिब-तीन महीने के वादे पर।
शैलाक्ष : तीन महीने का वादा-हूँ।
बसन्त : और इसके लिये, जैसा कि मैं आप से कह चुका हूँ, अनन्त जामिन होंगे।
शैलाक्ष : अनन्त जामिन होंगे-हूँ।
बसन्त : तो आप मुझे देंगे? आप से मेरा काम निकलेगा? मैं आप के उत्तर की राह
देखता हूँ।
शैलाक्ष : छः सहस्र मुद्रा तीन महीने का वादा-और अंनत की जमानत।
बसन्त : जी हाँ। आप क्या उत्तर देते हैं?
शैलाक्ष : अनन्त है तो अच्छा मनुष्य।
बसन्त : क्यों क्या आपने इसके विरुद्ध कुछ सुना है?
शैलाक्ष : नहीं नहीं, मेरा अभिप्राय उनके अच्छे होने से यह है कि उनकी
जमानत ही बहुत है-यद्यपि आजकल उनकी दशा हीन है क्योंकि उनका एक जहाज विपुल
को गया है दूसरा हिन्दुस्तान। को सुना है कि बाजार में भी कुछ व्यवहार है,
एक तीसरा जहाज मौक्षिक में तथा चैथा अंग देश में है। इसी भाँति इधर-उधर और
बन्दरों में भी उनकी जोखों है। परन्तु जहाज फिर भी काठ ही है और मल्लाह भी
मनुष्य ही है; चूहे थल में भी होते हैं और जल में भी, वैसे ही चोर पृथ्वी
पर भी होते हैं और पानी में भी अर्थात् डाकुओं का भय सभी स्थल है और फिर
आँधी, तूफान और चट्टान का भय अलग लगा हुआ है पर फिर भी वह बहुत हैं-छः
सहस्र मुद्रा-मैं समझता हूँ कि उनकी जमानत स्वीकार कर लूँगा।
बसन्त : सन्तोष रखिए उनकी जमानत निस्सन्देह ग्रहण करने योग्य है।
शैलाक्ष : मैं अपना मन भर लूँगा और किस तरह मेरा तोष होगा इस पर विचार
करूँगा-मैं अनन्त से इसकी बातचीत कर सकता हूँ?
बसन्त : यदि दोपहर को कृपा कर के हम लोगों के साथ खाना खाइए तो वहाँ सब बात
निश्चय हो जाय।
शैलाक्ष : जी हाँ सूअर सूँघने को और उस घर में खाने को जहाँ आप के देवताओं
ने सब पिशाची की बातें भर दी हैं। मैं आप लोगों से लेन देन करूँगा बोलूँगा,
आप के साथ चलूँ फिरूँगा और ऐसे ही दूसरी बातें करूँगा, परन्तु यह नहीं हो
सकता कि मैं आप लोगों के साथ खाना खाऊँ, पानी पीऊँ या पूजा करूँ। बाजार की
क्या खबर है?-यह कौन आता है।
(अनन्त आता है)
बसन्त : अनन्त आप आ पहुँचे।
शैलाक्ष : (आप ही आप) देखो इसकी सूरत ही से यह बात झलकती है कि यह हिन्दुओं
को प्रसन्न करने के लिये जैनियों से शत्रुता रखता है। मैं इससे घृणा करता
हूँ क्योंकि यह ईसाई है परन्तु मुख्यतः इस कारण से यह ऐसा निरुत्साह और नीच
है कि लोगों को रुपया बिना ब्याज के ऋण दे दे कर हम लोगों के ब्याज का भाव
बिगाड़ देता है। यदि एक बार भी मेरे हाथ चढ़े तो मैं सब पुरानी कसर निकाल
लूँ। यह मनुष्य हमारी पवित्र जाति को तुच्छ समझता है और मेरी और मेरे
व्यवहारों की निन्दा वहाँ भी नहीं छोड़ता जहाँ बहुत से व्यापारी इकट्ठा होते
हैं। धम्र्मोपार्जित द्रव्य का ब्याज नाम रखता है। धिक्कार है मेरी जाति को
यदि मैं इस मनुष्य से बदला न लूँ।
बसन्त : शैलाक्ष आपने सुना?
शैलाक्ष : मैं अभी आपने जी में हिसाब कर रहा था कि मेरे पास कितना रुपया
तैयार है और जहाँ तक मैंने सोचा इस समय मेरे पास छः सहस्र रुपया न
निकलेगा-पर इससे क्या? मैं त्रयंबक से जो मेरी जाति का एक धनिक पुरुष है
शेष मुद्रा से लूँगा। परन्तु नेक ठहरिए-कै महीने की मिती आप चाहते हैं?
(अनन्त से) प्रणाम महाशय, आपकी बड़ी आयु है, अभी आप ही का हम लोग वर्णन कर
रहे थे।
अनन्त : शैलाक्ष यद्यपि मैं ब्याज पर रुपये का कभी लेन देन नहीं करता तो भी
अपने मित्र की अत्यन्त आवश्यकता को समझ कर अपने नियम के तोड़ने पर प्रस्तुत
हूँ। बसन्त तुम इनसे कह चुके हो कि कितने रुपये की आवश्यकता है?
शैलाक्ष : हाँ हाँ-छः सहस्र मुद्रा।
अनन्त : और तीन महीने के लिये।
शैलाक्ष : हाँ मैं भूल गया था-तीन महीने के मिती पर-आप कह चुके हैं-तो किन
प्रतिज्ञाओं पर, नेक ठहरिए-किन्तु सुनिए तो सही अभी आपने कहा था कि हम सूद
पर लेन देन नहीं करते।
अनन्त : मैं इसका व्यापार कभी नहीं करता।
शैलाक्ष : जब कि यादव अपने मामा लवेन्द्र की भेड़ों को चराते थे-तो उनको
उनकी माँ की चातुरी से बरकत मिली थी।
अनन्त : तो उनके नाम से यहाँ क्या तात्पर्य है? क्या वह सूद खाते थे?
शैलाक्ष : नहीं ब्याज नहीं खाते थे, जिसे आप सूद कहते हैं ठीक वैसा ब्याज
नहीं लेेते थे-सुनिए वह क्या उपाय करते थे। जब कि लवेन्द्र और उनमें परस्पर
यह बात निश्चय हुई कि जितने भेड़ों के बच्चे धारीदार और चितकबरे पैदा हों वह
यादव को वेतन में मिलें तो यादव ने चतुराई से बहुत सी हरी छड़ियाँ काट कर और
स्थान स्थान से छिलका उड़ा कर उन्हें गण्डेदार बनाया और उठी हुई भेड़ों के
सामने गाड़ दिया और जब यह गाभिन हुईं तो इसके प्रयोग से चितकबरे बच्चे
उत्पन्न हुए, जो यादव के भाग में आये। यह लाभ उठाने का एक उपाय था और यादव
पर ईश्वर की कृपा थी क्योंकि लाभ भी होना ईश्वर की कृपा है, यदि मनुष्य
उसको चोरी से न उपार्जन करे।
अनन्त : यह तो ईश्वर की दया थी जिससे यादव ने अपने परिश्रम का इस प्रकार से
फल पाया। इसमें उनका कुछ वश न था वरंच केवल ईश्वर की माया से यह बात प्रकट
हुई। पर क्या आपका यह तात्पर्य है कि इतिहास में इस कथा के लिखने से यह
अभिप्राय था कि ब्याज लेना उचित समझा जाय, या आप अपने रुपये और अशरफी को
भेड़ी समझते हैं।
शैलाक्ष : मैं यह नहीं कह सकता परन्तु मैं उनसे बच्चे वैसे ही शीघ्र
उत्पन्न कर लेता हूँ। परन्तु नेक इस बात को सुनिए।
अनन्त : बसन्त इस पर विचार करो, राक्षस भी अपने स्वार्थ के लिये इतिहास और
पुराण का प्रमाण दे सकता है। दुष्ट मनुष्य जो अपनी निष्कलंकता प्रकट करता
है एक हँसमुख बात करनेवाला होता है। वह एक सेब की भाँति है जिसका छिलका
बहुत स्वच्छ और उत्तम है परन्तु भीतर बिलकुल सड़ा हुआ है, देखो झूठ की सूरत
देखने में कैसी चिकनी चुपड़ी होती है।
शैलाक्ष : छः हजार रुपया-यह तो एक पूरी जमा है-और महीने भी तीन-तो हमें भाव
सोचने दीजिए।
अनन्त : स्पष्ट कहो रुपया देना है या नहीं।
शैलाक्ष : अनन्त महाशय आपने बाजार में सहस्रों ही बार मेरे धन और लाभ के
लिये मेरी दुर्दशा की होगी पर मैंने क्षमा करने के सिवाय कभी कुछ उत्तर
नहीं दिया क्योंकि क्षमा हमारी जाति का चिन्ह है। आप मुझे नास्तिक, गलकट्टा
और कुत्ता कह कर मेरे जातीय परिधान पर थूकते थे और यह सब केवल इस अपराध के
लिये कि मैं अपनी जमा को जिस भाँति चाहता हूँ काम में लाता हूँ। अस्तु तो
अब जान पड़ता है कि आप मेरी सहायता के अपेक्षी हैं। आप मेरे पास आए हैं और
कहते हैं कि शैलाक्ष हमें रुपया ऋण दो-ऐं आप ऐसा कहते हैं, आप जो मेरी डाढ़ी
को अपना उगालदान समझते थे और मुझे ठीक इस तरह ठोकर मारते थे जैसे कोई अपनी
देहली पर अनजान कुत्ते को मारता है। आपकी प्रार्थना रुपये की है-इसका मैं
आपको क्या उत्तर दूँ? क्या मैं आपसे यह पूछूँ कि साहिब कही कुत्ते के पास
भी रुपया सुना है? कभी संभव है कि अपवित्र कुत्ता भी छः सहस्र मुद्रा ऋण दे
सके? या नम्रता से सिर झुका कर भृत्य की भाँति काँपता हुआ धीमे स्वर से
निवेदन करूँ ‘महाराज ने कृपापूर्वक मुझ पर गए बुध को थूका था और फलाने दिन
ठोकर मारी थी और फलाने दिन कुत्ते की उपाधि दी थी, अतः इन कृपाओं के बदले
मैं उतना रुपया देने को प्रस्तुत हूँ?’
अनन्त : मैं तुझे फिर भी ऐसा कहूँगा और तुझ पर थूकूंगा और लात मारूँगा। यदि
तुझे रुपया उधार देना है तो मुझे अपना मित्र समझ कर मत दे (क्योंकि मित्रता
रुपये से जो एक बाँझ की भाँति है बच्चे कब उत्पन्न कर सकती है?) वरंच अपना
शत्रु समझ कर जिससे भंगप्रतिज्ञ होने पर तुझे सर्व प्रकार से
प्रतिज्ञानुसार दण्ड ग्रहण करने का मुँह पड़े।
शैलाक्ष : वाह वाह देखिए तो आपे कैसा आपने से बाहर हो गये! मैं आपसे
मित्रता का नाता रक्खा चाहता हूँ और पिछले बैरों को भुला कर आपके स्नेह की
आशा रखता हूँ, मैं आपको रुपया उधार देने को प्रस्तुत हूँ और सूद एक पैसा
नहीं चाहता तिस पर जो आप मेरी बात नहीं सुनते। क्या यह मेरा बर्ताव मित्रता
का नहीं है?
अनन्त : यह आपकी दया है।
शैलाक्ष : मैं इस कृपा को दिखलाऊँगा। (अनन्त से) मेरे साथ किसी व्यवस्थापक
के यहाँ चलिए और उसके सामने तमस्सुक पर अपनी मुहर कर दीजिए और हँसी की रीति
पर वह शर्त लिख दीजिए कि यदि अमुक दिन और अमुक स्थान पर आप रुपया मेरा
जिसका तमस्सुक में वर्णन है न चुका दें तो मुझे अधिकार होगा कि उसके बदले
मैं आपके जिस शरीर के अंश से चाहूँ आध सेर माँस काट लूँ।
अनन्त : मैं चित्त से प्रसन्न हूँ और इन शर्तों पर मुहर कर दूँगा और यह भी
कहूँगा कि इस जैन में बड़ी मनुष्यता है।
बसन्त : तुम मेरे लिये ऐसे तमस्सुक पर हस्ताक्षर न करने पाओगे इससे तो मैं
अपनी दरिद्रावस्था में रहना ही श्रेय समझूँगा।
अनन्त : क्यों? डरो मत-प्रतिज्ञा भंग होने की घड़ी कदापि न आवेगी-दो महीने
के भीतर अर्थात् तमस्सुक की मिती पूजने के एक महीना पहिले मुझे आशा है कि
इसका तिगुना धन मेरे पास पहुँच जायगा।
शैलाक्ष : हे ईश्वर, ये आर्य भी कैसे मनुष्य होते हैं! जैसा इनका चित्त
कठोर होता है वैसा ही औरों का भी समझ कर सन्देह करते हैं! भला यह तो
बतलाइये कि यदि इन्होंने प्रतिज्ञा भंग की तो मुझे इस शर्त के पूरा कराने
से क्या लाभ, होगा? मनुष्य के शरीर का आध सेर माँस किस रोग की औषधि है और
वह किस गिनती में है? क्या वह उतना भी काम में आ सकता है जैसा भेड़ी बकरी का
माँस? सुनिए केवल इनसे मैत्री करने के लिये मैं इनके साथ ऐसी कृपा करता
हूँ, यदि यह इसे समझें तो अच्छी बात है नहीं तो प्रणाम, और मेरी प्रीति के
बदले मेरे साथ बुराई न कीजिएगा।
अनन्त : हाँ शैलाक्ष मैं इस तमस्सुक पर मुहर कर दूँगा।
शैलाक्ष : तो अभी व्यवस्थापक के घर पर जाइए और इस हँसी की दस्तावेज के
लिखने को कहिए। मैं भी शीघ्र ही जा कर थैली में छ हजार रुपये लिये हुए वहीं
पहुँचता हूँ और अपना घर भी देखता आऊँगा जिसे एक बड़े बहुव्ययी और अविश्वासी
भृत्य को सौंप आया हूँ-मैं सब काम करके बात की बात में आप से मिलता हूँ।
(जाता है)
अनन्त : अच्छा झटपट जाओ। यह जैन ऐसा कृपालु होता जाता है कि आर्य बन जायगा।
बसन्त : मैं चिकनी चुपड़ी बातें और दुष्ट अन्तःकरण नहीं पसन्द करता।
अनन्त : आओ, इसमें कोई धोका नहीं हो सकता क्योंकि मेरे जहाज मिती पूजने के
एक महीना पहिले अवश्य ही पहुँच जायँगे। (जाते हैं)
द्वितीय अंक
पहला दृश्य
स्थान-विल्वमठ। पुरश्री के घर का एक कमरा
(तुरहियाँ बजती हैं। मोरकुटी का राजकुमार अपने सभासदों के सहित और पुरश्री,
नरश्री और अपनी दूसरे सहेलियों के संग आती है।)
मोरकुटी : मेरी रंगत देखकर मुझसे घृणा न करना क्योंकि यह तो सूर्य की दी
हुई वर्दी है जिसके समीप मैं रहता हूँ और जिसकी छाया में पला हूँ। उत्तर के
देश जहाँ सूर्य की गर्मी बर्फ के टुकड़ों को भी नहीं गला सकती वहाँ के किसी
सुन्दर से सुन्दर युवा को मेरे सामने लाओ और हम दोनों तुम्हारे प्रेम के
लिये अपने शरीर में नश्तर चुभावें तो विदित होगा कि किस का रुधिर अधिक रक्त
है। सखी तुम विश्वास मानो कि मेरे इसी चेहरे ने बड़े से बडे़ वीरों का
पित्ता पानी कर दिया है और मैं अपने प्रेम की सौंगंध खा कर कहता हूँ कि इसी
मुख को मेरे देश की परम सुन्दरी युवतियाँ भी चाहती हैं। मैं अपने इस रंग को
किसी अवस्था में बदलना पसन्द न करूँगा पर हाँ तुम्हारी प्रसन्नता के
लिये...
पुरश्री : मेरी रुचि के लिये केवल मेरी आँखें ही नहीं हैं और न मैं किसी
भाँति अपनी इच्छा के अनुसार पति बर सकती हूँ, किन्तु ऐ प्रसिद्ध राजकुमार,
यदि मेरे पिता ने मुझे परवश न कर दिया होता अर्थात् इस बात की उलझन न लगा
दी होती कि जो कोई मुझे उस विधि से जीते (जिसका आपसे मैं वर्णन कर चुकी
हूँ) उसकी मैं स्त्री बनूँ तो जिन लोगों को मैंने अब तक देखा है उनमें से
आपको किसी की अपेक्षा पूर्ण मनोरथ होने का अवसर कम न था।
मोरकुटी : मैं इतनी कृपा के लिये भी तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ, तो ईश्वर
के लिये अब मुझे सन्दूकों के पास ले चलो जिसमें अपने प्रारब्ध की परीक्षा
करूँ। शपथ है इस खंग की, जिसने राजा को वध किया और इन्दर के उस राजकुमार को
मारा जो महाराज सुलक्षण से तीन लड़ाइयाँ जीता था, तुम्हारे मिलने की आशा में
मैं संसार में वीर से वीर का सामना करने को प्रस्तुत हूँ, रीछ की मादा के
सामने से उसके बच्चे उठा लाने को उपस्थित हूँ, सिंह जिस समय कि शिकार की
खोज में गरज रहा हो उसकी आँख निकाल लाने को प्रस्तुत हूँ-पर हाय ऐसी अवस्था
में किसका वश है! यदि हारित और लक्षेन्द्र पासा फेंक कर इस बात को निश्चय
करना चाहें कि दोनों में कौन बड़ा आदमी है तो संभव है कि पासे के पड़ने से
अनारी जीत जाय और संसार का सबसे बड़ा पहलवान अपने एक नीच नौकर के सामने नीचा
देखे। ऐसे ही संयोग से मेरी अवस्था हो सकती है कि अपने लक्ष्य को प्राप्त
करने में असमर्थ हूँ जिसे कदाचित् एक साधारण व्यक्ति भी कर ले और मुझे कुढ़
कुढ़ कर मरना पड़े।
पुरश्री : लाचारी है-बिना मंजूषा चुने हुए कुछ नहीं हो सकता, इसलिये या तो
आप इस इच्छा ही को छोड़ दें या यदि चुनना चाहें तो पहिले इस बात की शपथ खायँ
कि यदि आप झूठी मंजूषा को चुनेें तो फिर आमरण किसी स्त्री की ओर ब्याह करने
के अभिप्राय से दृष्टि न करें-इसे खूब सोच लीजिए।
मोरकुटी : हमें यह प्रतिज्ञा स्वीकार है। चलो अपने भाग्य की परीक्षा करें।
पुरश्री : पहिले मन्दिर में चलिए। तीसरे पहर सन्दूक चुनिएगा।
मोरकुटी : ऐ भाग्य सहाय हो, मुझे सबसे अधिक प्रसन्न या सबसे अधिक अभागा
बनाना तेरे ही हाथ है।
तुरहियाँ बजती हैं। सब जाते हैं,
दूसरा दृश्य
स्थान-बंशनगर-एक सड़क
(गोप आता है)
गोप : निस्सन्देह मेरा धर्म मुझे इस जैन अपने स्वामी के पास से भाग जाने की
सम्मति देगा। प्रेत मेरे पीछे लगा है और मुझे बहकाता है कि गोप, मेरे अच्छे
गोप, पाँव उठाओ, आगे बढ़ो, और चलते फिरते दिखलाई दो। मेरा धर्म कहता है
नहीं, खबरदार सच्चे गोप खबरदार, सच्चे गोप भागो मत, भागने पर लात मारो। तो
एक ओर से बली भूत बहका रहा है कि अपनी बोरिया बँधना बाँधो, धता हो, दून हो,
साहस को दृढ़ करो और नौ दो ग्यारह हो जाओ-दूसरी ओर से धर्म मेरे चित्त को,
गले का हार होकर, इस प्रकार से शिक्षा देता है-मेरे धर्मिष्ट मित्र गोप!
तुम कि एक धर्मात्मा के पुत्र हो वरंच यों कहना चाहिए कि एक धर्मात्मा
स्त्री के पुत्र हो-अस्तु मेरा धर्म कहता है कि अपने स्थान से हिलो मत-तो
अब भूत कहता है कि अपने स्थान से हिलो और धर्म कहता है कि अपने स्थान से मत
हिलो। मैं अपने धर्म से कहता हूँ कि तुम्हारी सम्मति बहुत अच्छी है। फिर
मैं भूत से कहता हूँ कि तुम्हारी राय बहुत अच्छी है। यदि मैं अपने धर्म की
आज्ञा मानता हूँ तो मुझे अपने स्वामी जैन के साथ ठहरना पड़ता है जो कि आप ही
एक प्रकार का भूत है-यदि मैं जैन के पास भाग जाता हूँ तो भूत की आज्ञा पर
चलता हूँ जो कि (स्वामी की प्रतिष्ठा में अन्दर नहीं डालता) आप ही भूत है।
निस्सन्देह जैन तो निज भूत का अवतार है इसलिये मेरी जान से तो मेरा धर्म
बड़ा कठोर है जो इस जैन के साथ ठहरने की सम्मति देता है। भूत की सम्मति बहुत
भली जान पड़ती है, तो ले भूत मैं भागने को उपस्थित हूँ, मेरे पाँव तेरी
आज्ञा में हैं, मैं अवश्य भागूँगा।
(वृद्ध गोप एक टोकरा लिए हुए आता है)
वृद्ध गोप : भाई समृद्ध परदेसी महाजन के घर का कौन सा मार्ग है?
गोप : (आप ही आप) ईश्वर का त्राण! आप मेरे सगे बाप हैं, जो ऐसे अंधे हो गए
हैं कि अपने जनमाए हुए लड़के को नहीं पहिचानते। ठहरो तनिक इनकी परीक्षा
लूँगा।
वृद्ध गोप : साहिब नेक कृपा करके परदेसी महाजान के घर का मार्ग तो बता
देते।
गोप : आगे के मोड़ पर पहुँच कर अपने दाहिने हाथ को फिर जाना, और सबसे आगे के
मोड़ पर जब पहुँचो तो अपने बायें हाथ को मुड़ना, फिर दूसरे मोड़ पर किसी ओर न
फिरना वरंच तिरछे मुड़ कर सीधे परदेसी महाजन के घर चले जाना।
वृद्ध गोप : भगवान की शपथ है इस मार्ग का पाना तो कठिन होगा। भला आप को
विदित है कि एक मनुष्य गोप नाम का जो उनके यहाँ रहता था अब वहाँ है या
नहीं?
गोप : क्या तुम युवक गोप को पूछते हो?-(आप ही आप) अब देखो मैं कैसा खेल
करता हूँ-क्या तुम युवा गोप महाशय का वर्णन करते हो?
वृद्ध गोप : ‘महाशय’ न कहिए वरंच एक दरिद्र का बेटा। उसका बाप एक बहुत ही
धर्मात्मा दरिद्री है पर धन्य है ईश्वर को कि रोटी कपड़े से सुखी है।
गोप : उसके बाप को कौन पूछता है वह जो चाहे सो हों, यहाँ तो इस समय युवा
गोप महाशय का वर्णन है।
वृद्ध गोप : जी हाँ वही गोप आप का मित्र।
गोप : इसीलिये तो बूढ़े बाबा मैं तुम से कहता हूँ, इसीलिये तो निवेदन करता
हूँ कि उसे युवा महाशय कहो।
वृद्ध गोप : आपकी साहिबी बनी रहे मैं गोप को पूछता हूँ।
गोप : तो उसका नाम गोप महाशय हुआ-बाबा गोप महाशय का वर्णन न करो क्योंकि वह
युवा सज्जन मनुष्य तो कुछ दिन हुए मर गया या यों समझ लो कि स्वर्ग को गया।
वृद्ध गोप : भगवान न करे! वही लड़का तो मेरे बुढ़ापे की लकड़ी था, मेरे अँधेरे
घर का दीपक था।
गोप : मेरी सूरत तो कहीं लकड़ी या दिये से नहीं मिलती? - बाबा तुम मुझे
पहचानते हो?
वृद्ध गोप : सोच है कि मैं आपको नहीं पहिचानता, किन्तु ईश्वर के लिये मुझे
शीघ्र बतलाइए कि मेरा लड़का (भगवान सबकी आत्मा को सुख दे!) जीता है कि मर
गया?
गोप : बाबा तुम मुझे नहीं पहिचानते?
वृद्ध गोप : साहिब मैं तो बिल्कुल अंधा हूँ और तुम्हें नहीं पहिचान सकता।
गोप : और न यदि तुम्हारे आँख होती तो तुम मुझे पहिचान सकते। यह बड़े
बुद्धिमान पिता का काम है कि अपने लड़के को पहिचान लें। अच्छा बूढ़े बाबा मैं
तुम्हारे बेटे का हाल तुमसे कहूँगा, मुझे आशीर्वाद दो, अभी सच्चा हाल खुल
जायगा। रुधिर अधिक दिन तक नहीं छिप सकता, लड़का कदाचित् छिप सकें-परन्तु
अन्त को मुख्य बात प्रकट हो जाती है। (घुटने के बल झुकता है)।
वृद्ध गोप : भाई उठो यह क्या बात है-मुझे निश्चय है कि तुम मेरे लड़के गोप
नहीं हो।
गोप : ईश्वर के लिये अब अधिक मूर्ख मत बनो और मुझे आशीर्वाद दो। मैं वही
गोप हूँ जो पहिले तुम्हारा लड़का था, अब तुम्हारा बेटा है, और आगे तुम्हारा
बच्चा कहलायेगा।
वृद्ध गोप : मैं कैसे जानूँ कि तुम मेरे बेटे हो?
गोप : मैं नहीं जानता कि तुम्हारी समझ को क्या कहूँ पर महाजन का नौकर गोप
मैं ही हूँ और भली भाँति जानता हूँ कि तुम्हारी पत्नी मागधी मेरी माता है।
वृद्ध गोप : निस्सन्देह उसका नाम मागधी है। मैं शपथ से कह सकता हूँ कि यदि
तू गोप है तो तू मेरे ही माँस और रुधिर से है। वाह वाह तेरी दाढी कितनी
लंबी निकल आई है! जितने बाल तेरी टुड्डी पर हैं उतने तो मेरे घोड़े दमनक की
पोंछ पर भी न होंगे।
गोप : तो इससे मालूम होता है कि दमनक की पोंछ बढ़ने के बदले दिन पर दिन भीतर
घुसी जाती है। मुझे स्मरण है कि जब मैंने उसे अंतिम बार देखा था तो उसकी
पोंछ के बाल मेरी डाढ़ी के बाल से कहीं बड़े थे।
वृद्ध गोप : हे भगवान्! तुम में कितना अन्तर हो गया है। भला तुझ से और तेरे
स्वामी से कैसी पटती है? मैं उसके लिये कुछ भेंट लाया हूँ। बता तेरी उनके
साथ कैसी निभती है?
गोप : किसी भाँति निभ जाती है। मैं अपने जी में नौ दो ग्यारह होने की ठान
चुका हूँ और जब तक कुछ दूर भाग न लूँगा कदापि दम न लूँगा। मेरा स्वामी पूरा
जैन है। उसे भेंट दोगे! हुंह, उसे फाँसी दो। मैं उसकी नौकरी में भूखों मरता
हूँ-नेक मेरी दशा तो देखो कि कोई चाहे तो मेरी नसों को हर एक अँगुली को गिन
ले। बाबा बड़ी बात हुई कि तुम यहाँ आ गए। चलो अपनी भेंट बसन्त महाराज को दो
जो अच्छी नई नई वर्दियाँ बाँटता है। यदि मुझे इसकी नौकरी न मिली तो जहाँ तक
कि ईश्वर के पास पृथ्वी है, मैं भाग जाऊँगा। अहा! मेरा भाग्य कैसा प्रबल
है! देखो वह आप चले आते हैं। बाबा इनसे कहो, क्योंकि यदि अब मैं एक दम भी
जैन की नौकरी करूँ तो मैं उससे अधम।
(बसन्त लोरी तथा दूसरे भृत्यों के सहित आता है)
बसन्त : अच्छा यों ही करो-परन्तु देखो ऐसी शीघ्रता से सब प्रबन्ध हो कि
अधिक से अधिक पाँच बजे तक ब्यालू तैयार हो जाय। इन पत्रों को डाक में डाल
आओ, वर्दियाँ झटपट बनवा लो और गिरीश से जाकर कहो कि अभी मेरे घर आवें।
(एक नौकर जाता है)
गोप : बाबा-हूँ।
वृद्ध गोप : ईश्वर आपको चिरायु करै!
बसन्त : (धन्यवादपूर्वक) तुम्हें मुझसे कुछ काम है?
वृद्ध गोप : धम्र्मावतार यह दीन बालक मेरा पुत्र-
गोप : दीन बालक नहीं महाराज वरंच धनिक महाजन का मनुष्य जो इस बात को चाहता
है जैसा कि मेरा पिता विवरण के साथ कहेगा कि-
वृद्ध गोप : इसे नौकरी की बड़ी इच्छा है और-
गोप : सचमुच महाराज मुख्य बात यह है कि मैं जैन के यहाँ नौकर हूँ और इच्छा
रखता हूँ जैसा कि मेरा बाप कहेगा कि-
वृद्ध गोप : महाराज इसकी और इसके स्वामी की जरा भी नहीं पटती-
गोप : मैं थोड़े में सच्ची बात कहे देता हूँ कि जैन ने मेरे साथ बुराई की है
जिसके कारण से मैं चाहता हूँ जैसा कि मेरा बाप जो मैं आशा करता हूँ कि एक
वृद्ध मनुष्य है आपसे सविस्तार वर्णन करेगा-
वृद्ध गोप : मैं एक थाली कबूतर के मांस की आपकी पारितोषिक देने को लाया हूँ
और मेरी प्रार्थना यह है कि -
गोप : सौ बात की एक बात यह है कि यह प्रार्थना मेरे विषय में जैसा कि आपको
इस सच्चे बुड्ढे के कहने से विदित होगा जो यद्यपि बूढ़ा और दीन है तो भी
मेरा बाप है।
बसन्त : दो के बदले एक मनुष्य बोलो-तुम क्या चाहते हो?
गोप : सर्कार की सेवा करना।
वृद्ध गोप : जी हाँ यही मुख्य तात्पर्य है।
बसन्त : मैं तुम्हें भली भाँति जानता हूँ, तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार हुई।
तुम्हारे स्वामी शैलाक्ष ने आज ही तुम्हारी सिफारिश की है, यदि एक धनवान
जैन की सेवा छोड़ कर मुझ ऐसे दरिद्री की नौकरी करना चाहते हो।
गोप : वह पुरानी कहावत सर्कार के और मेरे स्वामी शैलाक्ष के विषय में ठीक
ठीक घट गई है-सर्कार पर ईश्वर की कृपा है और उसके पास पुष्कल धन है।
बसन्त : यह बात तो तुमने खूब कही। बूढ़े बाबा अपने बेटे के साथ जाओ अपने
पुराने स्वामी से बिदा होकर मेरे घर का पता लगा कर उपस्थित हो। (अपने
भृत्यों से) इस मनुष्य को एक वर्दी जिसमें औरों की वर्दियों से उत्तम लैस
टँकी हो दे दो, देखो अभी निबटा दो।
गोप : बाबा चलो-मेरे लिये कहीं नौकरी की कमी हो सकती है, नहीं। मैं कभी
अपने मुँह से प्रार्थना नहीं करता! हाँ (अपना हाथ देख कर) क्या मुझसे बढ़ कर
मारवाढ़ भर में किसी को हथेली निकलेगी, जो पुस्तक लेकर शपथ खाने को प्रस्तुत
है कि तुम खूब रुपया कमाओगे! यह देखो आयु की रेखा कैसी सीधी चली गई है!-और
यह पत्नियों का एक साधारण लेखा है-हा केवल पन्द्रह स्त्री यह तो कुछ भी
नहीं है-ग्यारह राँड़ और नौ क्वांरियों से ब्याह करना तो मनुष्य के लिये
थोड़ी ही बात है-फिर तीन बार डूबते डूबते बचना-और फिर एक तिनके से जीव का
जोखिम-यह देखो यह इन सब आपत्तियों से बचने की रेखा है-अहा! यदि विधाता कोई
स्त्री है तो ऐसे उत्तम स्त्रीधन के साथ अवश्य ब्याहने के योग्य है-बाबा
आओ-मैं पलक भांजते मैं जैन से विदा हो लूँगा। (गोप और वृद्ध गोप जाते हैं)।
बसन्त : लोरी इसको भली भाँति समझ लो। इन वस्तुओं को मोल लेकर और वर्दियाँ
बाँट कर शीघ्र लौट आओ क्योंकि आज ही रात को मुझे अपने परम प्रतिष्ठित मित्र
का आतिथ्य करना है। शीघ्रता करो, जाओ।
लोरी : जहाँ तक हो सकता है शीघ्र प्रबन्ध करके उपस्थित होता हूँ।
(गिरीश आता है)
गिरीश : तुम्हारे स्वामी कहाँ हैं?
लोरी : महाराज, वहाँ टहल रहे हैं।
(लोरी जाता है)
गिरीश : बसन्त महाशय-
बसन्त : गिरीश!
गिरीश : मेरी आपसे एक प्रार्थना है।
बसन्त : मैंने स्वीकार की-कहो।
गिरीश : देखिए अस्वीकार न कीजिएगा-मैं आपके साथ विल्वमठ चलूँगा।
बसन्त : इसमें कौन सी बात है आनन्द से चलो-लेकिन सुनो गिरीश, तुम में
ढिठाई, अनार्यता और असभ्यता अधिक है जो यद्यपि तुम में गुण जान पड़ते हैं और
हमारी दृष्टि में दुर्गुण नहीं ठहरते तथापि बाहर वालों की दृष्टि में
धृष्टता समझी जाती है। नेक तथापि ध्यान रखना और लज्जा के ठंढे पानी से अपने
चिलविलेपन की गर्मी को ठंढा करने का यत्न करना जिससे ऐसा न हो कि जहाँ मैं
जाने वाला हूँ वहाँ तुम्हारी अनार्यता के कारण मैं भी हल्का समझा जाऊँ और
मेरी सब आशाएँ धूलि में मिल जायँ।
गिरीश : बसन्त महाराज, सुनिए यदि मैं गंभीर बन जाऊँ, नम्रता के साथ न
बोलूँ, शपथ खाने का अभ्यास कम न कर दूँ, स्तोत्र की पुस्तक जेब में न भरे
रहूँ, दृष्टि नीची न रक्खूँ, केवल इतना ही नहीं वरंच जिस समय स्तुति पढ़ी
जाती हो अपनी टोपी की इस तरह आँख पर अँधेरी न चढ़ा लूँ, और आह भर कर एवमस्तु
कहूँ, और एक बड़े विद्वान सभ्य मनुष्य की भाँति नम्रता के साथ हर बात में
चुनाचुनी न करूँ, तो आज से मेरी बात का विश्वास न कीजिएगा।
बसन्त : वह तो देखने ही में आवेगा।
गिरीश : हाँ पर आज की रात को इस प्रतिबंधन से दूर रखिए, आज की रात हँसी के
लिये रुकावट न रहेगी।
बसन्त : नहीं नहीं मैं कब ऐसा चाहने लगा, वरंच मैं तो स्वयं कहने को था कि
आज की सभा में नियम से भी अधिक ढीठ रहो क्योंकि आज ऐसे मित्रों का भोज है
जो बहुत की इच्छा रखते हैं-परन्तु इस समय विदा हों क्योंकि मुझे कुछ काम
है।
गिरीश : और मैं लवंग प्रभूति के पास जाता हूँ, पर भोजन के समय हम सब अवश्य
उपस्थित होंगे।
(दोनों जाते हैं)
तीसरा दृश्य
स्थान-वंशनगर, शैलाक्ष के घर की एक कोठरी
(जसोदा और गोप आते हैं)
जसोदा : मुझे खेद है कि तू मेरे बाप की नौकरी छोड़ता है। यह घर मुझे नरक
समान लगता है पर तुझ ऐसे हँसमुख भूत के कारण थोड़ा बहुत जी बहल जाता था।
अस्तु, विदा हो; यह ले एक रुपया तेरे लिये पारितोषिक है और सुन गोप! थोड़ी
देर में तेरे नये स्वामी के यहाँ लवंग भोजन करने जायगा उसे चुपके से यह
पत्र दे देना-बस जा-मैं नहीं चाहती कि मेरा बाप मुझे तुझसे बात करते देख
ले।
गोप : तुम्हें ईश्वर को सौंपता हूँ!-आँसुओं के मारे मुँह से शब्द नहीं
निकलने पाता। ऐ सुन्दरी कामिनी, ऐ प्यारी जैनिन, यदि कोई आर्य तुझे न ठगे
और अपनी स्त्री न बनावे तो मेरा नाम नहीं। किन्तु बस, ईश्वर ही रक्षा करे।
प्रेम के आँसू तो मेरे दृढ़ चित्त पर पर प्रबल हुआ चाहते हैं ईश्वर रक्षा
करे-
(जाता है)
जसोदा : अच्छा बिदा हो सुहृद गोप। हाय! मेरे लिये कैसे यह पाप की बात है कि
मैं अपने बाप की लड़की होने से लज्जित होऊँ। परन्तु यद्यपि मैं उसके रक्त से
उत्पन्न हूँ पर मेरा चित्त उसका सा नहीं है। ऐ लवंग, यदि तू अपने वचन पर
दृढ़ रहा तो मैं इस झगड़े को निबटा दूँगी और आर्य होकर तेरी प्यारी स्त्री बन
जाऊँगी।
(जाती है)
चौथा दृश्य
स्थान-वंशनगर-एक सड़क
(गिरीश, लवंग, सलारन और सलोने आते हैं)
लवंग : नहीं, वरंच हम लोग खाने के समय खिसक देंगे और मेरे घर पर आकर भेस
बदल कर सब लोग लौट आवेंगे। एक घंटे में सब काम हो जायगा।
गिरीश : हम लोगों ने अभी सब तैयारी नहीं की है।
सलारन : अब तक मशल्चियों का भी कुछ प्रबन्ध नहीं हुआ है।
सलोने : जब तक कि स्वाँग का उत्तमत्ता के साथ प्रबन्ध न हो वह निरा लड़कों
का खेल होगा और मेरी सम्मति में ऐसी अवस्था में उसका न करना ही उत्तम होगा।
लवंग : अभी तो केवल चार बजा है-अभी हमें तैयारी के लिए दो घंटे का अवकाश
है-
(गोप हाथ में पत्र लिए आता है)
कहो जी गोप क्या समाचार लाए?
गोप : यदि आप इसे खोलेंगे तो आप ही सब समाचार विदित हो जायगा।
लवंग : मैं इन अक्षरों को पहिचानता हूँ, ईश्वर की सौगन्ध कैसे सुन्दर अक्षर
है, और जिस कोमल हाथ ने इन्हें लिखा है वह इस पत्र से भी अधिक गोरा है।
गिरीश : निस्सन्देह यह तुम्हारी प्यारी का पत्र है।
गोप : साहिब अब मुझे आज्ञा होती है?
लवंग : कहाँ जाते हो!
गोप : अपने पुराने स्वामी जैन को अपने नये आर्य स्वामी के साथ आज रात को
भोजन करने के लिये निमंत्रण देने।
लवंग : ठहरो, यह लो, प्यारी जसोदा से कह दो कि कदापि अन्तर न पड़ेगा-देखो
अकेले में कहना-जाओ।
(गोप जाता है)
महाशयो आप लोग अब तो रात के लिये स्वाँग की तैयारी करेंगे? मशाल दिखलाने
वाले का प्रबन्ध हो गया।
सलारन : जी हाँ मैं अभी जाकर तैयार होता हूँ।
सलौने : और मैं भी चला।
लवंग : लगभग एक घंटे के बाद गिरीश के घर पर मुझसे और गिरीश से मिलना।
सलारन : बहुत ठीक।
गिरीश : वह पत्र जसोदा ही का न था? (सलारन और सलोने जाते हैं)
लवंग : अवश्य है कि मैं तुझसे सब हाल वर्णन कर दूँ। उसने मुझे सूचना दी है
कि मैं उसे किस भाँति उसके बाप के घर से ले जाऊँ, कितनी अशरफी और गहने उसने
ले रक्खे हैं, और कैसा परिचारक का वस्त्र अपने लिये उपस्थित कर रक्खा है।
भाई गिरीश यदि कभी इसके बाप जैन को स्वर्ग में आने की आज्ञा मिलेगी तो अपनी
बेटी के सुकृत के बदले, और यदि कभी कोई बुराई इस तक आवेगी तो इस बहाने से
कि वह एक अधर्मी जैन की बेटी है। आओ, मेरे साथ आओ, मार्ग में इसे पढ़ते चलो।
सुन्दरी जसोदा आज स्वाँग में मशाल दिखलावेगी।
(दोनों जाते हैं)
पाँचवाँ दृश्य
स्थान-वंशनगर-शैलाक्ष के घर के सामने
(शैलाक्ष और गोप आते हैं)
शैलाक्ष : अच्छा तो तू देखेगा, तेरी आँखें आप ही इस बात का न्याय करेंगी कि
वृद्ध शैलाक्ष और बसन्त में कितना अन्तर है। अरी जसोदा! जैसा तू मेरे यहाँ
भुखमुए को भाँति ढाई सेर भकोसता था उसका स्मरण वहाँ आवेगा। अरी जसोदा! और
हर समय पड़े रहने और खर्राटे लेने और कपड़े फाड़ डालने की महिमा भी जान पड़ेगी।
अरी जसोदा, सुनती नहीं!
गोप : जसोदा!
शैलाक्ष : तुझे किसने पुकारने को कहा है? मैंने तुझसे नहीं कहा कि पुकार।
गोप : आप ही न मुझ पर सदा क्रुद्ध हुआ करते थे कि तू बेकहे कोई काम नहीं
करता।
(जसोदा आती है)
जसोदा : मुझे आपने बुलाया है? आज्ञा?
शैलाक्ष : मुझे आज का नेवता आया है, लो जसोदा यह कुंजियाँ तुम्हारे सुपुर्द
हैं। पर मैं क्यों जाने लगा? मुझे वह लोग कुछ प्रेम में नहीं बुलाते वरंच
सुश्रपा से-किन्तु क्या हुआ मैं भी तिरस्कार की दृष्टि से जाऊँगा और उस
बहुव्ययी आर्य का माल चाभूँगा। मेरी प्यारी बेटी तू घर से सावधान रहियो।
मेरा जाने को तनिक भी जी नहीं चाहता, मुझे कोई बुराई आती मालूम होती है
जिसका मेरे जी में खटका लग रहा है, क्योंकि आज ही रात को मैंने रुपये के
तोड़ों का सपना देखा था।
गोप : आप कृपा करके चलें; मेरे नये स्वामी आपकी राह देखते होंगे; और उन
लोगों ने आपस में गुट किया है। यह मैं नहीं कह सकता कि आप अवश्य ही स्वाँग
देखिएगा परन्तु यदि ऐसा हुआ तो निस्सन्देह कुछ न कुछ रंग खिलेगा क्योंकि
मेरी नाक से उस दिन तेवहार के छ बजे सवेरे से रुधिर का बहना व्यर्थ न
जायगा।
शैलाक्ष : क्या स्वाँग भी बनेंगे? सुनो जसोदा द्वारों में ताला लगा दो और
जब भेर की ढबढब और बाँसुरी की ध्वनि सुनाई दे तो झरोखों में से झाँकने के
लिये ऊपर न चढ़ना और न इन आर्य मसखरों के लुक फेर हुए चेहरों को देखने के
लिए खिड़की से बाजार की ओर सिर निकालना वरंच शीघ्र ही मेरे घर के कानों को
अर्थात् खिड़कियों को बन्द कर लेना जिसमें ऐसे असभ्य तुच्छ जनों का शब्द
मेरे सभ्य घर के भीतर न पहुँचने पावे। शपथ है अहन्त देव की छड़ी की मेरा जी
आज रात के नेवते में जाने को नेक भी नहीं उभरता। किन्तु मैं जाऊँगा। अबे तू
आगे जा कह दे कि मैं आऊँगा।
गोप : महाराज मैं चला। बबुई तुम इनकी बकबक पर ध्यान न दे कर अवश्य खिड़की
में से झांकती रहना क्योंकि ‘आज होगा उस मसीहा का गुजर इस राह से, जिसने
मूसा है यहूदी के दिले बीमार को।’ (जाता है)।
शैलाक्ष : वह मूर्ख प्रेत का अवतार क्या कहता था, ऐं?
जसोदा : उसने केवल इतना ही कहा कि ‘बबुई ईश्वर आपकी रक्षा करें’ और कुछ
नहीं।
शैलाक्ष : वह मूर्ख प्रेम तो रखता है परन्तु खाने में साण्ड से अधिक है,
दिन को सोने में जंगली बिल्ली से बढ़ कर और काम करने में घोंघे से अधिक
सुस्त। ऐसे कृतघ्नों का निर्वाह मेरे साथ कहाँ हो सकता है; इसीलिये मैं उसे
दूर करता हूँ, और फिर उसे पल्ले भी कैसे मनुष्य के बाँधता हूँ जिसके उधार
लिए हुए रुपये के नष्ट करने में वह सहायता देगा। अच्छा जसोदा अब तुम भीतर
जाओ, कदाचित् मैं अभी लौट जाऊँ। जिस भाँति मैंने समझा दिया है वैसा ही
करना। द्वारों को बन्द करती जाओ-‘जागै सो पावै सोवै सो खोवै’ यह कहावत बहुत
ठीक है। (जाता है)
जसोदा : जाइए (आप ही आप)
”गर वर आई आर्जूं मेरी तो रुखसत आपको,
आपने बेटी को खोया और मैंने बाप को।“
(जाती है)
छठा दृश्य
(स्थान-शैलाक्ष के घर के सामने)
(गिरीश और सलारन भेस बदले हुए आते हैं)
गिरीश : यही बरामदा है जिसके नीचे लवंग ने हमें खड़े रहने को कहा था।
सलारन : उनका समय तो हो गया।
गिरीश : आश्चर्य है कि उन्होंने देर की क्योंकि अनुरागियों की चाल तो सदा
घड़ी से तीव्र रहती है।
सलारन : ओह! नये अनुरागी कामदेव के कबूतर की भाँति अनुराग की दस्तावेज पर
मुहर करने को तो दस गुने तेज उड़ते हैं पर फिर उसकी उलझन में उतने ही सुस्त
हो जाते हैं।
गिरीश : यह तो नियम की बात है। किसी को भी खाने के पश्चात् वह भूख नहीं रह
जाती है जो खाने पर बैठने के समय थी? कोई घोड़ा भी उस तीव्रगति के साथ लौट
सकता है जिसके साथ वह चला था? संसार में जितनी वस्तुएँ हैं उनके मिलने से
पूर्व जो उत्साह रहता है वह उनके मिलने पर नहीं रहता जैसा कि कहा भी है।
”जो मजा इंतिजार में देखा, वह नहीं वस्ले यार में देखा।“ जिस समय जहाज अपनी
खाड़ी से रवाना होता है तो कैसा एक युवा व्यसनी अथवा बहुव्ययी के भाँति
झंडियाँ फहराए हुए और दुष्ट वायु के गले लगा हुआ चला जाता है! पर जब वह
लौटता है तो उसी बहुव्ययी की भाँति उसकी कैसी दुरव्यवस्था हो जाती है
अर्थात् तूफान से किनारे टूटे हुए, पाल फटे हुए, निरातंक और व्याकुल! और
यहा सब बुराइयाँ उसी कठोर वायु के द्वारा होती है।
(लवंग आता है)
गिरीश : वह देखो लवंग आ पहुँचे। उस विषय में हम लोग फिर बातचीत करेंगे।
लवंग : मेरे प्यारे मित्रो, मुझे विलम्ब के लिये क्षमा करना। इसमें अपराध
मेरा न था वरंच आवश्यक कामों का। जब स्त्री चुराने की तुम्हारी बारी आवेगी
तब मैं भी इतनी देर तक तुम्हारी राह देखूँगा। अच्छा इधर आओ, यहीं मेरा
ससुरा जैनी रहता है। ऐ कोई भीतर है?
(जसोदा लड़के का कपड़ा पहिने हुए ऊपर से झांकती है)
जसोदा : तुम कौन हो? शीघ्र बतलाओ जिसमें मेरा पूरा सन्तोष हो जाय। यद्यपि
मैं शपथ खा सकती हूँ कि मैं तुम्हारा शब्द पहिचानती हूँ।
लवंग : तुम्हारा प्रेमी लवंग।
जसोदा : निस्सन्देह तुम लवंग हो, और सचमुच मेरे प्यारे, क्योंकि मैं
तुम्हारे सिवाय किसको प्यार करता हूँ? किन्तु प्यारे इस बात को सिवाय
तुम्हारे कौन जान सकती है कि मैं भी तुम्हारी प्यारी हूँ या नहीं?
लवंग : इस बात का साक्षी तो ईश्वर और तुम्हारा मन है।
जसोदा : लो इस सन्दूक को सम्हालो, इसमें हम लोगों के परिश्रम का पूरा
मिहनताना मिलेगा। मुझे हर्ष है कि रात का समय है और तुम मेरी सूरत नहीं देख
सकते क्योंकि मुझे अपने इस वेष पर बड़ी लज्जा आती है; पर प्रेम अंधा होता है
और प्रेमी अपनी मूर्खता की बातों को कभी नहीं देख सकते, क्योंकि यदि वह देख
सकें तो कामदेव आप मुझे लड़के के वेष में देख कर लज्जित हो जाय।
लवंग : उतरो, क्योंकि तुम्हें मशाल दिखलानी होगी।
जसोदा : क्या मैं अपनी निर्लज्जता को आप ही मशाल लेकर दिखाऊँ। वह तो स्वयं
अत्यन्त प्रकाशमान है। प्यारे, मशालची तो इसलिये होता है कि अंधेरे में की
वस्तुओं को प्रकट करे पर मुझे तो उनके विरुद्ध अपने तईं छिपाना चाहिए।
लवंग : प्यारी तुम तो लड़के के सुहावने वेष में आप ही छिपी हो। परन्तु अब
शीघ्रता करो क्योंकि रात, जो प्रेमियों की अवलम्ब है, बीतती जाती है और हम
लोगों को अभी बसन्त के भोज में कुछ देर ठहरना है।
जसोदा : मैं द्वार बन्द करके और कुछ और रुपये ले कर अभी आती हूँ।
(ऊपर से जाती है)
गिरीश : मैं शपथ खा कर कह सकता हूँ कि यह जैन नहीं वरंच आर्या जान पड़ती है।
लवंग : मेरा बुरा हो यदि मैं इसे जी से न प्यार करता हूँ। यदि मेरी समझ ठीक
है तो यह बुद्धिमती है, और यदि मेरी आँखें अन्धी नहीं हो गई हैं तो सुन्दर
भी अत्यन्त ही है। सचाई इसकी जैसी कुछ है विदित है, अतः ऐसी बुद्धिमती,
सुन्दरी और सच्ची युवती का मैं सदा मन से आज्ञाकारी रहूँगा।
(जसोदा नीचे आती है)
क्या तुम आ गई? चलो महाशयो, चलो, हमारे स्वाँग के साथी लोग हमारी राह देख
रहे होंगे।
(जसोदा और सलारन के साथ जाता है)
अनन्त आता है,
अनन्त : कौन है?
गिरीश : अनन्त महाराज?
अनन्त : छी छी गिरीश! और लोग कहाँ हैं? नौ बज गया। हमारे सब मित्र तुम
लोगों का बाट जोहते हैं। आज स्वाँग बन्द रहा क्योंकि अभी-अनुकूल वायु चला
और वसन्त शीघ्र ही यात्रा करने जायँगे। मैंने बीसियों मनुष्यों को तुम्हारी
खोज में चारों ओर दौड़ाया है।
गिरीश : मैं इस समाचार से बहुत प्रसन्न हुआ। मुझे स्वाँग से कहीं बढ़ कर इस
बात में आनन्द मिलेगा कि आज ही रात को पाल उड़ाऊँ और चलता फिरता दिखलाई दूँ।
(जाते हैं)
सातवाँ दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा,
(तुरहियाँ बजती हैं। पुरश्री और मोरकुटी का राजुकुमार अपने अपने साथियों के
साथ आते हैं)
पुरश्री : जाओ, पर्दे उठाओ और इस प्रतिष्ठित राजकुमार को तीनों सन्दूक
दिखलाओ। अब आप पसन्द कर लें।
मोरकुटी : पहला सन्दूक सोने का है जिस पर यह लेख लिखा है। ”जो कोई मुझे
पसन्द करेगा वह उस वस्तु को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।“
दूसरा चाँदी का है जिस पर यह प्रतिज्ञा लिखी है।
”जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“
तीसरा कुन्त सीसे का है जिस पर भी वैसी ही धमकी लिखी हुई है। ”जो कोई मुझे
पसन्द कर वह अपनी सब वस्तुओं को भय में डाते और उनसे हाथ धोवै।“
भला मैं कैसे जानूँगा कि मैंने सही सन्दूक चुना?
पुरश्री : इनमें से एक में मेरी तस्वीर है-यदि आप उसे चुनेंगे तो मैं भी उस
चित्र के साथ आप की हो जाऊँगी।
मोरकुटी : कोई देवता इस अवसर पर मेरी सहायता करता! देखूँ तो;
मैं इस सन्दूकों के परिलेखों पर फिर तो विचार करूँ। इस सीसे के सन्दूक पर
क्या लिखा है?
”जो कोई मुझे पसन्द करे वह अपनी सब वस्तुओं को भय में डाले और उनसे हाथ
धोवै।“
हाथ धोवे-किस के लिये? सीसे के लिये? भय में डालना और सीसे के लिये? यह
सन्दूक तो बहुत ही धमकाता है; लोग जो अपनी सब वस्तुओं को जोखों में डालते
हैं तो अच्छे अच्छे लाभ की आशा में; सहृदय वू$ड़े करकट की ओर कब झुक सकता
है; तो मैं सीसे के लिये न किसी वस्तु से हाथ धोऊँगा और न उसे भय में
डालूँगा। अब देखो यह चाँदी जिसकी रंगत अल्पवयस्क कामिनियों की सी है क्या
कहती है? ”जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“
उतना जितने के वह योग्य है?-मोरकुटी के राजकुमार नेक ठहर और हाथ साध कर
अपनी योग्यता को तौल। यदि तू अपने नाम की ख्याति के अनुसार आँका जाय तो तू
निस्सन्देह बहुत कुछ पाने के योग्य है, पर कौन जाने कदाचित यह कुमारी इस
बहुत कुछ से बढ़कर हो। किन्तु इसी के साथ अपनी योग्यता में सन्देह करना भी
निर्बलता की बात है और अपनी योग्यता में बट्टा लगाना है। उतना जितने के मैं
योग्य हूँ? वाह वह तो यही कुमारी है; मैं अपनी उत्पत्ति, अपनी लक्ष्मी,
अपनी शिक्षा, अपनी चालचलन हर बात से उसके पाने की क्षमता रखता हूँ, पर सबसे
बढ़ कर अपने प्रेम के ध्यान से मैं अपने को उसके योग्य कह सकता हूँ। तो अब
मैं आगे क्यों भटकूँ और इसी को चुन लूँ-पर एक बार सोने के सन्दूक की लिपि
को फिर तो देखूँ। ‘जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उस वस्तु को पावेगा जिसकी
बहुत लोग इच्छा रखते हैं।’
वाह वह तो यही कुमारी है; सारा संसार इसकी इच्छा रखता है और पृथ्वी के
चारों कोनों से लोग इस जागृत महात्मा के पैर चूमने को चले आते हैं।
हरिद्वार के जंगल और बीकानेर के उजाड़ मैदान दोनों आज कल पुरश्री के प्रणयी
राजकुमारों के लिये साधारण मार्ग हो रहे हैं। समुद्र जिसका अभिमानी मस्तक
आकाश के मुँह पर थूकता है उसका भय भी आने वालों के साहस को नहीं तोड़ सकता
और लोग पुरश्री के देखने की लालसा में उस पर से ऐसे चले आते हैं जैसे कोई
एक छोटे से नाले को पार करता हो। इन सन्दूकों में से एक में उसका मनोहर
चित्र है। क्या यह सम्भव है कि वह सीसे के भीतर हो? ऐसा तुच्छ विचार मेरे
नाश का कारण होगा।
सीसा तो अंधेरी समाधि में उसके कफन के रखने के लिये भी एक बड़ी भद्दी वस्तु
होगी। या यह समझूँ कि वह चाँदी में बन्द है जिसका मूल्य खरे सोने से दस
गुना कम है? ऐसा सोचना ही पाप है! भला कभी भी ऐसा लभ्य रत्न सोने से कम
मूल्य वाले पदार्थ में जड़ा गया है? अंग में एक सोने का सिक्का होता है जिस
पर पार्षदों का चित्र खुदा रहता है, परन्तु वह तो ऊपर खुदा रहता है और यहाँ
सचमुच एक अप्सरा सोने के बिछौने पर भीतर मग्न है। अच्छा मुझे ताली दो मैं
इसी को चुनता हूँ आगे जो कुछ मेरे भाग्य में हो!
पुरश्री : यह लो राजकुमार यदि मेरी तस्वीर इसके भीतर निकली तो मैं आपकी हो
चुकी। (सोने के सन्दूक को खोलता है)
मोरकुटी : हाय अन्धेर! यह क्या निकला। एक खोपड़ी जिसकी आँख के गढे़ में एक
लिपटा हुआ पत्र खोसा है। इसे पढूँ तो सही-
”करि विचार देखहु जिय माहीं।
कितने ही मम छबि ललचाने।
जे समाधिगन कनक रँगाये।
जिमि तुम अंग वीर रस साना।
जिमि तुमरे तन जोबन जोती।
तो न होत यह पढ़ि òम नासा।
सचमुच सर्द और श्रम व्यर्थ, तो अब गर्मी को विदा और सर्दी से काम-पुरश्री
का ईश्वर रक्षक हो! मेरा जी इतना टूट गया है कि अब एक दम ठहरने का सामथ्र्य
नहीं रखता। जिसका मनोरथ पूरा नहीं होता वे ऐसे ही विदा होते हैं।
(जाता है)
पुरश्री : अच्छी छूटी, जाओ परदों को गिराओ। यदि इस राजकुमार की रंगत के सब
लोग मुझे इसी भाँति बरैं तो क्या बात है।
(सब जाते हैं)
आठवाँ दृश्य
स्थान-वंशनगर, एक सड़क
(सलारन और सलोने आते हैं)
सलारन : अजी मैंने स्वयं बसन्त को जहाज पर जाते देखा; उन्हीं के साथ गिरीश
भी गया है, पर मुझे विश्वास है कि उस जहाज में लवंग कदापि नहीं है।
सलोने : उस दुष्ट जैन ने वह आपत्ति मचायी कि महाराज को स्वयं बसन्त के जहाज
की तलाशी लेने के लिये जाना पड़ा।
सलारन : हाँ, परन्तु वह देर करके पहुँचे, उस समय जहाज जा चुका था और वहाँ
महाराज को समाचार मिला कि लवंग अपनी वल्लभा जसोदा के सहित एक छोटी सी नाव
में जाता दृष्टि पड़ा था। इसके सिवाय अनन्त ने महाराज को अपने भरोसे पर इस
बात का विश्वास कराया कि वह दोनों बसन्त के जहाज पर नहीं हैं।
सलोने : मैंने तो आज तक घबराहट और झँुझलाहट के ऐसे बेजोड़ और विचित्र वाक्य
न सुने थे जैसे कि वह जैनी कुत्ता सड़क पर बक रहा था-मेरी बेटी!-हाय मेरी
अशरफियाँ!-हाय मेरी बेटी!-हाय!-एक आर्य के साथ भाग गई!-हाय मेरी आर्य
आशरफियाँ!-न्याय कानून! मेरी अशरफियाँ और मेरी बेटी! एक सरबमुहर तोड़ा, दो
सरबमुहर तोड़े अशरफियों के, कलदार अशरफियों के, मेरी बेटी चुरा ले गई!-और
रत्न; दो नगीने, दो अमूल्य, अलम्भ्य, नगीने, जिन्हें मेरी बेटी चुरा ले
गई!-न्याय! लड़की का पता लगाओ! उसी के पास अशरफियाँ और पत्थर हैं।’
सलारन : अजी वंशनगर के सारे लड़के उसके पीछे दौड़ते हैं और हल्ला मचा कर
चिढ़ाते हैं-इसके पत्थर, इसकी लड़की और इसकी अशरफियाँ।
सलोने : अनन्त महाशय को चाहिए कि उससे सावधान रहें और ठीक समय पर ऋण चुका
दें नहीं तो पीछे से पछताना पड़ेगा।
सलारन : तुमने अच्छा स्मरण दिलाया, कल मैं एक फनेशवासी से बातचीत कर रहा था
कि उसने वर्णन किया कि उस छोटे समुद्र में जो फनेश और अंगदेश को जुदा करता
है तुम्हारे देश का एक अमूल्य धन से लदा हुआ जहाज डूब गया है। मुझे इस
समाचार के सुनते ही अनन्त के जहाज का ध्यान आया और मन में ईश्वर से
प्रार्थना करने लगा कि वह उनका जहाज न हो।
सलोने : पर तुमको यही उचित है कि जो कुछ सुनो अनन्त के कान तक पहुँचा दो,
किन्तु अकस्मात् मत कह देना क्योंकि इसमें कदाचित उन्हें अधिक सोच हो।
सलारन : मुझे तो उनसे बढ़कर दयावन्त मनुष्य सारे संसार में दृष्टि नहीं आता।
मैं बसन्त और अनन्त के जुदा होने के समय उपस्थित था। बसन्त ने उनसे कहा कि
मैं जहाँ तक सम्भव होगा शीघ्र लौट आऊँगा जिस पर उन्होंने उत्तर दिया-”बसन्त
मेरे लिये काम में कदापि शीघ्रता न करना वरंच उचित अवसर के अधीन रहना और उस
दस्तावेज के विषय में जो मैंने जैन को लिख दी है कभी अपने जी में ध्यान न
करना। प्रति क्षण प्रसन्न रहना और अपने चित्त का प्राणप्रिया की प्रसन्नता
और प्रेम के सूचित करने में आसक्त रखना जो तुम्हारे मनोरथ के लिये उपयुक्त
हों।“ परन्तु अन्त को उनकी आँखों मे आसू ऐसे डबडबा आए कि और कुछ न कह सके
औरं अपना मुँह फेर कर बसन्त की ओर हाथ बढ़ाया और एक अद्भुत अनुराग सहित
जिससे सच्ची प्रीति टपकती थी उनसे हाथ मिला कर विदा हुए।
सलोने : मैं समझता हूँ कि वह संसार को वसन्त ही के लिये चाहते हैं। चलो
उन्हें खोज करके मिलें और उनके जी की उदासी को किसी शुभ समाचार से दूर
करें।
सलारन : चलो। (जाते हैं)
नवाँ दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा
(नरश्री एक नौकर के साथ आती है)
नरश्री : शीघ्रता करो; पर्दे को झटपट उठाओ; आर्यग्राम के राजकुमार शपथ ले
चुके और सन्दूक चुनने के लिये पहुँचा ही चाहते हैं। (तुरहियाँ बजती हैं।
पुरश्री और आर्यग्राम का राजकुमार अपने अपने मुसाहिबों के सहित आते हैं।)
पुरश्री : अवलोकन कीजिए, ऐ प्रसिद्ध राजकुमार, वह सन्दूक रक्खे हैं। यदि
आपने उस मंजूषा को चुना जिसके भीतर मेरी छबि है तो अभी आप के साथ मेरे
विवाह के उपचार हो जायँगे परन्तु यदि आप भ्रम में पड़े तो शीघ्र ही मुख से
एक वर्ण उच्चारण किए बिना आप को यहाँ से चले जाना पड़ेगा।
आ. रा. : मुझे शपथ है कि प्रण के अनुसार तीन बातों का ध्यान रखना होगा।
पहिले इस बात को किसी पर प्रकट न करना कि मैंने कौन सा सन्दूक चुना था;
दूसरे यदि मैं लक्ष्य मंजूषा को न चुन सकूँ तो फिर अपनी अवस्था भर किसी
स्त्री की ओर प्रणय की दृष्टि से न देखूँ , तीसरे यदि मैं सन्दूक के चुनने
में त्रुटि करूँ तो शीघ्र ही तुमसे पृथक् हो कर अपनी राह लूँ।
पुरश्री : जो कोई मुझ अधम के प्राप्त करने का प्रयत्न करता है उसे इन्हीं
प्रणों के अनुसरण करने की सौगन्ध खानी पड़ती है।
आ. रा. : और मैं भी तो उसी को अनुकूल कर चुका। हे ईश्वर मेरे मन का मनोरथ
पूरा कर!-सोना, चाँदी और तुच्छ सीसा। ”जो कोई मुझे चाहे वह अपनी सब वस्तुओं
को विघ्न में डाले और उनसे हाथ धो बैठे।“
वाह, इसी रूप पर? नेक अपने मुख की श्यामता को धो ले सब विघ्न डालने और हाथ
धोने की सुना और सोने का सन्दूक क्या कहता है? तनिक देखूँ तो सही; ”जो कोई
मुझे चाहेगा वह उस पदार्थ को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।“
जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं। सम्भव है कि इस ‘बहुत’ का संकेत मूर्खों की
ओर हो जो कि बाहरी चमक दमक पर जाते हैं और दृष्टि के ऐसे स्थूल होते हैं कि
किसी वस्तु की आन्तरिक अवस्था को कदापि नहीं ज्ञात कर सकते, वरंच गोला
कबूतर की भाँति अपने खोते को भय स्थान में घर की बाहरी दीवार पर बनाते हैं
जहाँ कि हर समय भय रहता है। मैं उस वस्तु को नहीं चाहूँगा जिसकी बहुत लोग
इच्छा रखते हैं क्योंकि मैं सर्वसाधारण के तुल्य नहीं हुआ चाहता और गँवार
लोगों की सहायता नहीं किया चाहता। तो अब मैं तेरी ओर ध्यान देता हूँ ऐ
चाँदी के सन्दूक, एक बार फिर तो बता तेरा क्या प्रण है, ”जो कोई मुझे
चाहेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“ भई सच्ची सच्ची तूने इसमें
कही क्योंकि निज की योग्यता बिना कौन प्रतिष्ठा लाभ कर सकता है और कौन बड़ा
हो सकता है। किसी मनुष्य को अपनी योग्यता से अधिक अधिकार पाने का साहस न
करना चाहिए। अहा! कैसा अच्छा होता यदि अधिकार, उपाधि और पद उत्कोच से न मिल
सकते और प्रतिष्ठा निष्कलंक बनी रहती अर्थात् केवल पाने वाले की योग्यता से
मोल ली जा सकती। फिर कितने सिर जो अब मान सूचन में नंगे दिखलाई देते हैं
टोपी से ढके हुए दृष्टि पड़ते। कितने लोग जो अब हाकिम हैं महकूम होते। कितने
कमीन जो बड़े बन बैठे हैं मानियों में से दूध की मक्खी की भाँति निकाल दिए
जाते और कितने प्रतिष्ठित जो समय के हेरफेर से साधारण में मिल गए हैं भूसी
में से अन्न की भाँति छाँट कर बड़े पद तक पहुँचा दिए जाते। अस्तु, किन्तु
मैं अपना काम देखूँ।
”जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“ मैं अपनी
योग्यता को मान लेता हूँ। मुझे इसकी कुंजी दो तो मैं इसे तुरन्त खोलकर अपने
भाग्य की परीक्षा करूँ।
(चाँदी के सन्दूक को खोलता है)
पुरश्री : क्या निकला? आह इतना क्यों रुके हैं?
आ. रा. : ऐं यह क्या है? एक झूंठे अंधे का चित्र जो मुझे एक पत्र दे रहा
है! मैं इसे पढूँगा। हाँ! मुझमें और पुरश्री के स्वरूप में क्यों सादृश्य।
और मुझसे और मेरी आशाएँ और योग्यता से क्या सम्बन्ध।
‘जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जिसके वह योग्य है।’
क्या मेरे मुँह के योग्य यही मूर्ख का मस्तक है? क्या मेरे लिये यही
पारितोषिक है? क्या मेरी योग्यता इससे अधिक नहीं है।
पुरश्री : अपराध करना, और न्याय करना दो विरुद्ध बाते हैं और एक दूसरे के
प्रतिकूल।
आ. रा. : इसमें लिखा क्या है?
(पढ़ता है)
‘जिमि यह उज्जल रजत सुहायो।
तिमि यह बुद्धिहु बहुत बिधि जाँची।
ऐसे बहु मूरख जग माँही।
पै कहूँ तिन को आस पुराई।
जो सुख छायहिं अंक लगाए।
ऐसे बहुत जग न अज्ञाना।
पै नहिं बुद्धि तिनहिं अछु आई।
जो रहिहै तुअ होइ निसानी।
ब्याहहु जाइ औरही काहू।
मैं जितनी देर तक यहाँ ठहरूँगा उतना ही अधिक मूर्ख बनूँगा, एक मूढ़ का सिर
लेकर तो मैं ब्याह करने को आया पर अब दो लेकर जाता हूँ। प्यारी ईश्वर रक्षा
करै! मैं अपनी सौगन्ध पर स्थिर रहूँगा और सन्तोष के साथ अपने दुःख को
खाऊँगा।
(आर्यग्राम का राजकुमार अपने साथियों के सहित जाता है)
पुरश्री : वाह इस कर्पूरवर्ति का ने तो अच्छे उस पतंग के पंख जला दिए।
समझदार मूर्ख ऐसों ही को कहते हैं। जिस समय वह सन्दूकों को चुनते हैं तो
अपने मन की स्फूर्ति में सब बुद्धि को खो देते हैं।
नरश्री : यह पुरानी कहावत मिथ्या नहीं है-फाँसी और स्त्री दोनों का मिलना
भाग्य से होता है।
पुरश्री : नरश्री आओ पर्दे को गिराओ।
(एक भृत्य आता है)
भृत्य : रानी साहिब कहाँ हैं?
पुरश्री : इधर, राजा साहिब क्या आज्ञा करते हैं?
भृत्य : सर्कार की डेवढ़ी पर वंशनगर का एक नवयुवक अपने स्वामी के आगमन का
समाचार लेकर आया है। यह मनुष्य अपने स्वामी के प्रणाम के साथ बहुमूल्य
सौगात भी लाया है। अब तक मैंने अभिलाष का ऐसा मनोहर दूत न देखा था। बसन्त
ऋतु जो कि सुहावन ग्रीष्म के आगमन का समाचार देता है ऐसा प्रिय नहीं प्रतीत
होता जैसा कि यह दूत जो अपने स्वामी के पहुँचने का समाचार लाया है।
पुरश्री : किसी भाँति चुप भी रह; मैं सोचती हूँ कि थोड़ी ही देर में तेरे
मुँह से सुनूँगी कि वह मनुष्य तेरा कोई सम्बन्धी है क्योंकि उसकी प्रशंसा
तू अत्यन्त कर रहा है। आओ नरश्री आओ; मैं इस अभिलाष के दूत को जो ऐसी
नम्रता के साथ आता है अभी देखा चाहती हूँ।
नरश्री : ऐ कामदेव वह मनुष्य बसन्त का हो? जाती है,
। इति
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