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उपन्यास

क्या पता कॉमरेड मोहन

संतोष चौबे

अनुक्रम 4. कार्तिक, सरफराज, लक्ष्मण सिंह पीछे     आगे

कान्हा के घने जंगल में उस दिन एक अद्भुत दृश्य उपस्थित था। घने पेड़ों की छाया में प्रख्यात नाट्य निर्देशक राकेश रंजन के सामने, गोल बनाकर करीब तीस लोग बैठे थे जो जानना चाहते थे कि 'नाटक' क्या है? कार्तिक और सरफराज भी उन्हीं में से थे।

राकेश रंजन ने अपनी पतली कमानी का चश्मा नाक पर चढ़ाया, अपने झूलते हुए बालों को पीछे की ओर सँवारा और कहा,

'हमारी सदी में यूनान के एक प्रमुख कवि हुए हैं ओडिसिस इलाइटिस। एथेंस विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करने के बाद नाजी आधिपत्य के खिलाफ उन्होंने यूनानी प्रतिरोध मोर्चे का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने समय के प्रसिद्ध यूरोपियन कवि, नाटककार, नाट्य निर्देशक फेडेरिको गार्सिया लोर्का के बारे में एक निबंध लिखा है जिससे उनके नाटक की ताकत और उसकी आलोचना दोनों के बारे में पता चलता है। आप इजाजत दें तो मैं उसके कुछ हिस्से आपको पढ़कर सुनाऊँ?'

'हाँ, हाँ। क्यों नहीं?'

अब राकेश रंजन ने लोर्का के बारे में वह निबंध पढ़ना शुरू किया जिसमें स्पेन के गाँव, लोर्का के नाटक और उसके वातावरण का सघन चित्रण था,

'दूर कहीं चरागाह के किनारे उड़ती धूल के पीछे से एक जुलूस उभरता है और जैसे जैसे वह पास आता है एक संदेश पूरे गाँव में चक्कर लगाता है, फिर अचानक खुशी से भरे झुंड, धूल में लिपटे घुड़सवार का स्वागत करने के लिए गलियों में इकट्ठा हो जाते हैं। घुड़सवार चार पहियों पर टिकी घोड़ागाड़ी पर काफी आगे की ओर बैठा है, जिसकी छत पर सूरज की किरणों से चमकता हुआ चिह्न 'ला बेरेका' थरथरा रहा है।

ला बेरेका! सब जानते हैं कि ये छात्रों का एक ऐसा नाट्य समूह है जो गाँव में प्रदर्शन के लिए आया है। सबने यह भी सुना है कि इस नाट्य दल की आत्मा लोर्का है, कवि फेडेरिको गार्सिया लोर्का, जो अभिनेता भी है और संगीतकार भी, लेखक भी है और निर्देशक भी, जिसकी कविताओं ने अदृश्य हाथों से, हर समय उनका दिल छुआ है, चाहे जितनी भी बार उन कविताओं को सुना गया हो!

जल्दी ही सुंदर लड़कियों, बूढ़े किसानों, पसीने से लथपथ आदमियों, नंगे पाँव वाले बच्चों और सफेद बालों वाली माँओं का यह समूह रोएगा, खुशी से कँपकँपाएगा, जब एक तात्कालिक से बने मंच पर 'लोपडिवेगा' या 'कॉल्डेरॉन' या लोर्का के ही अपने नाटक खेले जाएँगे। पहले येर्मा, फिर ऐसिता, फिर स्पीच ऑफ दी फ्लॉवर, फिर जब्तेरा प्रोडिजिओसा और अंत में प्रसिद्ध, बोदास दी सांग्रे, जो आगे चलकर मेड्रिड, बारसीलोना, पेरिस, ब्यूनस आयर्स और मैक्सिको में अत्यधिक सफल हुआ। वो उस आदमी की तारीफ करेंगे जो इन नाटकों को खेलता है, उनमें अभिनय करता है और उन्हें दिलकश संगीत से सजाता है। ऐसा संगीत जो हर समय लोकप्रिय प्रेमकथाओं पर आधारित होता है। जैसे 'गैलेसियन्स' या 'कांते होंदोस'। अंत में वे उसकी कविताएँ सुनेंगे जिनमें उसकी प्रसिद्ध कविताएँ रोमन सिरोगिटानो, रोमान्स देलालूना एवं प्रिसिओसा येल आयर शामिल होंगी। वे घनीभूत संप्रेषण के ऊपर अपनी कल्पना को स्वतंत्रतापूर्वक दौड़ाएँगे तब तक, जब तक कि वास्तविकता स्वप्न और स्वप्न वास्तविकता न बन जाए।

ईश्वर की कृपा है कि राजधानी के बुद्धिजीवी उनके पक्ष में नहीं हैं। न ही अखबार उनकी खुशी में जहर घोल रहे हैं, ये फुसफुसाते हुए कि 'सुबह के कंधे प्रकंपित नहीं हो सकते' या 'तारे घंटियाँ नहीं बन सकते' या 'हवा आश्चर्य की बाँह नहीं मरोड़ सकती' और ये सब घटिया पागलपन है।

वे कुँवारी आत्माएँ भावना को अपनी छाती पर झेलती हैं और उसकी सहायता से किन से किन चीजें समझ लेती हैं, शर्त ये है कि उन चीजों को जीवित होना चाहिए। शुद्ध विचार सिर्फ पुस्तकालयों और मीनारों में ही सिमटा हुआ रह सकता है...'

राकेश रंजन ने अपना पाठ समाप्त किया।

पूरी कार्यशाला में एक सनाका सा खिंच गया। ये विचार का एक नया धरातल था। स्पेन का एक गाँव, उसमें नाटक खेलता छात्रों का समूह, खेत और चौपाल और उनमें पसीने से लथपथ ग्रामीण, जैसे अचानक जीवंत हो उठे।

कुछ देर की चुप्पी के बाद लखनऊ से आए वैज्ञानिक रवींद्र कुमार ने कहा,

'आपने जिस तरह के नाटक या कविता की बात की है उसका विवरण अद्भुत था। पर हो सकता है ये स्पेन का या यूरोप का अनुभव हो, हमारे देश में शायद ये संभव न हो सके...'

राकेश रंजन ने कहा,

'ऐसा नहीं है कि हमारे देश में नुक्कड़ नाटक की परंपरा नहीं। रामनगर की रामलीला की बहुत बात होती है, जिसके फार्म को बाद में प्रख्यात जर्मन नाट्य निर्देशक फ्रिट्ज बेनेविट्ज ने अपनाया। यह एक चलित रामलीला थी जिसके अलग अलग दृश्य अलग अलग स्थानों पर जाकर खेले जाते थे। बंगाल में प्रोसीनियम भी है और बाउल कथा वाचक भी। छत्तीसगढ़ में कितने तरह के नाटकों के प्रयोग हैं जो गाँव की चौपाल पर या नुक्कड़ पर रात रात भर खेले जाते हैं। आल्हा ऊदल की कथा है, पंडवानी है, भरथरी है - ये सब भी तो नुक्कड़ पर ही किए जाते हैं। मैं ऐसे विज्ञान नाटक की बात कर रहा हूँ जिसमें कम से कम उपादान हों, जिन्हें नुक्कड़ पर खेला जा सके और मंच की बहुत जरूरत न हो। हम अपनी परंपरा में ही ऐसा नाटक खोज सकते हैं...'

'आपकी बात लगती तो ठीक है पर हम कैसे उसे तैयार कर पाएँगे ये समझ नहीं आता। हम अपने अपने विषय तो जानते हैं पर नाटक...'

'चलिए ऐसा करते हैं हम आज शाम को कुछ समूह बनाते हैं। समूह कुछ नाटकों की थीम पर विचार करेंगे, या कोई छोटा नाटक लिखेंगे या कोई कहानी जिसे नाटक में बदला जा सके। आप कुछ किताबें भी देख सकते हैं जिन्हें कार्तिक ने यहाँ संदर्भ के लिए इकट्ठा किया है।'

फिर सब लोग खाना खाने के लिए बिखर गए थे।

वे सभी जो फिजिक्स, इलेक्ट्रॉनिक्स, गणित या इंजीनियरिंग के बारे में जानते थे नाटक और कहानी की समस्या पर बात कर रहे थे।

रात में कार्तिक और सरफराज अपने कमरे के बाहर वरांडे में बातचीत करने के लिए बैठे।

मौसम बहुत खुशगवार था। वह फरवरी की गुनगुनी ठंड वाली रात थी। आसपास घने जंगल के बीच कान्हा की वे कॉटेजेस जिसमें कार्यशाला में दूर दूर से आए साथी रुके थे एक अद्भुत वातावरण पैदा कर रही थीं, किसी गाँव जैसा। दो दो कमरों की कॉटेजेस को छप्पर छानकर बनाया गया था जिसमें अंदर तो सफेद रोशनी थी पर बाहर टिमटिमाते बल्बों का मध्यम पीला प्रकाश उन्हें अजीब रहस्यमयता से भरे दे रहा था। कॉटेजेस के बरामदों में, या कहीं पेड़ के नीचे गोला बनाकर या कैंटीन की गोबर से लिपी मुंडेर पर सभी साथी चार-चार, पाँच-पाँच के समूहों में बैठे थे और बातचीत कर रहे थे। सबके पास एक ही विषय था - कैसे बनाए जाएँ विज्ञान नाटक?

कार्तिक ने सरफराज से कहा,

'मुझे लगता है बात हमारे पकड़ में नहीं आ रही। राकेश रंजन नाटक के बारे में तो जानते हैं। उसके फॉर्म पर बहस कर सकते हैं पर सवाल तो पहले कंटेंट का है। हम कहना क्या चाहते हैं? ये तय होना चाहिए। फिर उसमें कथा या नाटकीयता होनी चाहिए, फिर उसका नाटक बन सकना चाहिए...'

'तुम ठीक कहते हो। हमें ऐसे विषय ढूँढ़ने चाहिए जो वैज्ञानिकता और नाटकीयता दोनों की शर्तों को पूरा करें'।

'एक्ज़ैक्टली। तो सबसे पहले तो ये देखें कि विज्ञान क्या है? जो हमें कक्षा में पढ़ाया जाता है, जो इंडस्ट्री में हम प्रयोग में लाते हैं, जो प्रयोगशालाओं में विधियाँ अपनाते हैं वह तो विज्ञान है ही पर सिर्फ वही विज्ञान नहीं। जैसा कि उस दिन कौल साहब ने कहा था, समाज को, पर्यावरण को, देखना समझना, उसके देखने, समझने और विकसित करने की दृष्टि पाना भी विज्ञान है। तो विज्ञान एक तरह का दृष्टिकोण हुआ...'

'और उस दृष्टिकोण को हासिल करना हमारा लक्ष्य...'

'बिल्कुल ठीक। अब देखें कि नाटकीयता कहाँ है। ये मैं मुंडेर पर बैठा हूँ मेरे पैर सिकुड़े हुए हैं, मैं हाथ फैलाकर बातें कर रहा हूँ और तुम आराम-कुर्सी पर अधलेटे हो, कभी कभी उचक कर हस्तक्षेप करते हो हमारी आवाजें घटती बढ़ती हैं, ये एक नाटकीय दृश्य है। मतलब मेरे और तुम्हारे बीच का संवाद, हमारा संबंध एक नाटकीय स्थिति पैदा कर रहा है। दूर से देखने पर वह पेड़ों के झुरमुट के बीच बैठा समूह, जिसमें कोई एक लड़का खड़ा होकर अपनी बात कह रहा है, क्या पेड़ों से ही बात करता नजर नहीं आता और क्या पेड़ों ने स्थिति को अधिक नाटकीय नहीं बनाया है? और वह दौड़कर एक कुत्ता कैंटीन मैनेजर के पास गया, गेंद उठाकर लाया और मैनेजर के कदमों में रखी, फिर दो पैर उठाकर उसके घुटनों पर टिकाए, क्या ये घटनाक्रम नाटकीय नहीं...'

'बोलते रहो, तुम ठीक जा रहे हो...'

'ऐसे ही जड़ वस्तुओं के साथ भी होता है। किताब में रखा फूल जाने कितनी स्मृतियाँ हमारे भीतर खोल देता है। अपने प्रियजन की कमीज हमें उसकी गंध की याद दिलाती है। लड़कियाँ ब्याह कर जाती हैं तो घर की दीवारों से लिपटकर रोती हैं... जड़ वस्तुओं में भी एक तरह की नाटकीयता होती है। वैसे ही देखें तो आदमी के बनाए यंत्रों और आदमी के बीच भी नाटक खोजा जा सकता है बशर्ते कि हम उनके बीच के संबंध को पहचान सकें...'

'वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ... क्यों ठीक?'

'बिल्कुल ठीक।'

'यार मजा आ गया। लगता है हम ठीक जगह आ गए। अब मैं 'यूरेका-यूरेका' चिल्लाते हुए दौड़ूँ?'

'दौड़ सकते हो। पर कपड़े मत उतार देना नहीं तो अति नाटकीय स्थिति हो जाएगी।'

अब कार्तिक और सरफराज खुल कर हँसे।

कल वे सार्थक हस्तक्षेप कर सकते थे।

अगली सुबह राकेश रंजन ने कार्यशाला शुरू की।

सभी समूहों से कहा गया कि उन्होंने जो कुछ लिखा हो सुनाएँ।

किसी भी समूह के पास कोई खास विचार नहीं था। कुछ लोगों ने पेड़ की कहानी जैसी बहुत ही जानी पहचानी कथा लिख दी थी जिसे पर्यावरण की श्रेणी में रखा जा सकता था। कुछ लोगों ने स्वास्थ्य और डॉक्टरों के आसपास कुछ रचनाएँ की थीं जो चुटकुलों की श्रेणी में आती थीं। कुछ समूह कुछ भी नहीं कर पाए थे।

राकेश रंजन ने सुनकर कहा,

'भई बात कुछ बनी नहीं।'

अब कार्तिक ने कहा।

'मुझे भी ऐसा ही लगता है।'

राकेश रंजन ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसकी ओर देखा। कार्तिक ने कहा,

'मुझे लगता है कि विज्ञान नाटक लिखने के पहले हमें इस बात पर विचार कर लेना चाहिए कि विज्ञान क्या है और वैज्ञानिकता क्या है तथा नाटक क्या है और नाटकीयता क्या है...।'

फिर उसने अपने और सरफराज के बीच हुई बातचीत का सार प्रस्तुत किया लोग उससे सहमत होते दिखे। अब कार्तिक ने कहा,

'तो हम देखते हैं कि विज्ञान कुल मिलाकर देखने की एक दृष्टि है, एक तरीका है और नाटक को अंतःसंबंधों में खोजा जा सकता है। जैसे आदमी और आदमी के बीच में, आदमी तथा प्रकृति के बीच में, आदमी और जानवरों के बीच में, यहाँ तक कि आदमी और उसके बनाए यंत्रों के बीच में भी...।'

फिर वह उठकर ब्लैकबोर्ड के पास गया। उसने उस पर दो गोले बनाए जो एक दूसरे को काट रहे थे फिर कहा,

'हममें से बहुत लोगों ने सेट थ्योरी पढ़ी है। मान लीजिए कि पहला गोला विज्ञान का सेट है और दूसरा समाज का, तो हमारा नाटक उस जगह पर खड़ा होगा जहाँ ये दोनों गोले एक दूसरे को काटते हैं...'

वैज्ञानिकों से उनकी भाषा में बात की जा रही थी। वह उन्हें समझ में आ रही थी। अब रामनारायण ने, जो विशेष रुचि के साथ इस कार्यशाला में आया था, कहा,

'भई मैं ज्यादा गणित-वणित नहीं जानता। पर जो कार्तिक ने कहा मुझे समझ में आता है। पहले तो ऐसे वैज्ञानिक विषय ढूँढ़े जाएँ जो हमारे जीवन को छूते हों, फिर उनमें नाटक की तलाश की जाए...'

सरफराज ने कहा,

'जैसे पर्यावरण'

शेफाली ने कहा,

'या स्वास्थ्य'

एक और आवाज आई,

'अंधविश्वास'

किसी ने दूसरे कोने से कहा,

'पानी'

दोपहर होते होते ऐसे विषयों की सूची बना ली गई जो विज्ञान और समाज की कॉमन स्पेस में खड़े थे। विशेषज्ञता के आधार पर लोगों के समूह बना दिए गए। अब उन्हें अपनी अपनी थीम के भीतर नाटक तलाशने थे।

अगले दिन सुबह सभी समूहों के चेहरे चमक रहे थे। सब कहीं न कहीं आगे बढ़े थे।

स्वास्थ्य समूह ने कहा कि उन्होंने स्वास्थ्य से जुड़े कई विषयों की तलाश कर ली है जैसे स्वास्थ्य और अंधविश्वास, दवाओं का अंधाधुंध उपयोग, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा देश में दवाओं का गलत प्रसार, स्वास्थ्य संबंधी चेतना, डॉक्टरों का व्यवहार, पानी से होने वाली बीमारियाँ, आदमी का शरीर और उसकी कार्यप्रणाली...।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले समूह ने भी कई विषय खोज निकाले थे जैसे सामाजिक व्यवहार में अंधविश्वास, ग्रहण और उसके प्रभाव, जादू टोने और उनके पीछे का सच, भूत और दिवास्वप्न, आदमी का विकास, ब्रह्मांड के रहस्य, विज्ञान और वैज्ञानिक प्रगति की कहानी...

सबसे ज्यादा विषय पर्यावरण समूह के पास थे। पानी और हवा में प्रदूषण, खराब पानी से होने वाली बीमारियाँ, वृक्ष और पर्यावरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, रासायनिक खाद और खेती, बाढ़ और सूखा, जनसंख्या तथा पर्यावरण, ग्रामीण और शहरी पर्यावरण, जल-जंगल-जमीन...।

एक सिलसिला चल निकला था। सबके पास विषय थे, कहानियाँ थीं।

राकेश रंजन आज खुश थे। उन्होंने कहा,

'आज हमारे पास बहुत सारे विषय हैं। हमें कार्तिक को बधाई देनी चाहिए कि उसने एक रास्ता खोल दिया। मेरा सुझाव है कि अब सभी समूह एक हफ्ते काम करें। या तो अपने विषय के भीतर नई कहानियाँ लिखें और नाटक का ढाँचा तैयार करें या परंपरा और संदर्भ ग्रंथों में से कहानियाँ खोज कर लाएँ। इस बीच हमारे दोस्त विष्णु कुछ गीत तैयार कर सकते हैं। हम लोग हर रोज शाम को यहीं मिलेंगे। एक दूसरे की प्रगति जानने के लिए...'

सबने हामी भरी और उत्साहपूर्वक अपने काम में लगे।

कार्तिक और उसके साथियों के लिए वह सप्ताह अद्भुत रचनात्मकता का सप्ताह था। दिन का रुटीन अपने आप ही बन गया।

लोग सुबह जल्दी उठ जाते और छोटे छोटे समूहों में जंगल में घूमने निकल जाते। हल्की फुल्की गपशप, कोई कहानी, कोई गीत, कोई चुटकुला चलता ही रहता।

ठीक आठ बजे चाय नाश्ते के बाद सब अपने समूह में बैठते और अपने विषय पर काम करते। कहानी बनती फिर बिखरती। विचार आता फिर चमकता। कल्पना उठती और दूर तक उड़ान भरती। इस तरह तैयार होता कोई नाटक।

दोपहर में पात्र गढ़े जाते। कुछ छोटे छोटे इंप्रूवाइजेशन होते और राकेश रंजन उन्हें देखते जाते। 'अच्छा है', 'कुछ और काम करिए', 'देखिए, कहानी में जान डालिए' जैसे वाक्यों से वे समूहों का मनोबल बढ़ाते।

शाम की चाय के बाद सब एक जगह इकट्ठे होते और अपने अपने अनुभव सुनाते अटपटे मगर नए अनुभव। चाय के बाद दो तीन घंटों की छुट्टी होती थी, घूमने, बतियाने, आराम करने और अपने छोटे छोटे काम पूरे करने की।

विष्णु ने तीन चार अच्छा गाने वालों का समूह बना लिया था। रात में खाना खाने के बाद सब किसी पेड़ के नीचे गाना गाने बैठते, सुंदर धुनें और मनमोहक गीत - पेड़ हैं साँसें पेड़ हैं जीवन, किताबें करती हैं बातें, थाम लो साथी मशालें थाम लो, लहू का रंग एक है...

कोई सोना नहीं चाहता था। कोई थकता नहीं था। थोड़ा बहुत सोकर सब अगले दिन सुबह फिर काम में जुट जाते।

पलक झपकते ही एक हफ्ता निकल गया।

एक बार फिर सब लोग अपनी अपनी कहानियाँ सुनाने इकट्ठे हुए।

राकेश रंजन और कार्तिक साथ साथ बैठे थे। राकेश ने शुरुआत करते हुए कहा,

'मित्रों आप सबने एक हफ्ते कड़ी मेहनत की है। मुझे भरोसा है कि सबके पास कोई न कोई कहानी है। मैं आपको आमंत्रित करता हूँ कहानी या नाटक, जो भी आपने लिखा हो - सुनाने के लिए...'

इसके बाद जिस तरह की कहानियाँ सुनाई गईं उन्हें कार्तिक ने अपने साहित्यिक पाठ में कभी नहीं सुना था। 'छोटी चींटियों की बड़ी दुनिया' चीटियों के संसार के बारे में थी। 'पैसा-पैसा-पैसा' एक छोटा नाटक था जो मुद्रा के बदलते स्वरूप के बारे में था। 'नमस्कारम्-नमस्कारम्' में भाषा की कहानी कही गई थी। 'कहानी नाक की' में मनुष्य के शरीर की कथा कही गई थी तथा 'निंदिया आए कहाँ से' नींद और स्वप्न के बारे में थी। 'तेजाबी बारिश' में पर्यावरण का दुख बताया गया था और 'आकाश की छतरी में छेद' ओजोन परत के बारे में थी।

लोग नाटकीय स्थितियों में कभी खिलखिलाते, कभी गंभीर और कभी उदास हो जाते। राकेश और कार्तिक नोट्स लेते जा रहे थे।

कौन कहता था कि 'विज्ञान' संबंधी विषयों पर 'नाटक' नहीं लिखे जा सकते?

पाठ के समाप्त होने पर पहले राकेश रंजन ने तालियाँ बजाईं, फिर कार्तिक ने, फिर पूरे समूह ने... अब पूरा समूह एक दूसरे को बधाई दे रहा था।

कार्तिक ने हाथ उठाया। एक खामोशी छा गई,

'मित्रों बहुत अच्छे काम के लिए हम एक दूसरे को बधाई दे सकते हैं। अब हमें इन कथाओं और नाटकों को लोगों के बीच ले जाना है। इसलिए इन्हें पठनीय के साथ-साथ दर्शनीय भी बनाना होगा। मैंने राकेश जी से अनुरोध किया है कि वे इन नाटकों की प्रोडक्शन कार्यशाला में भी हमारे साथ रहें और उन्होंने हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया है।'

एक बार फिर तालियाँ बजीं। कार्तिक ने आगे कहा,

'दोस्तो इस यादगार कार्यशाला को, आप सबके साथ को, इस खुशी को, आनंद को समाप्त करने का मन तो नहीं करता पर इस उम्मीद के साथ कि आपसे प्रोडक्शन कार्यशाला के दौरान या प्रदर्शन के समय फिर मुलाकात होगी, अब इसे समाप्त करना पड़ रहा है। याद रखियेगा, हमें भुलाइएगा नहीं...'

वातावरण कुछ भावुक हो चला था। तालियों की गड़गड़ाहट ने उसे हल्का कर दिया।

कान्हा किसली के जंगलों और मंडला की चक्करदार पहाड़ियों पर से घूमती बस जब नीचे उतर रही थी तो सरफराज कार्तिक के पास ही बैठा था। उसने कहा,

'वर्कशॉप तो बढ़िया हो गई। उम्मीद से ज्यादा अच्छी। काफी स्क्रिप्ट भी तैयार हैं। तुमने सही रास्ते पर डाला, नहीं तो भटक सकते थे।'

'मैं किनाई से लगातार मुठभेड़ करता रहता हूँ। उस दिन तुमसे बातचीत करना भी कारगर रहा।'

कार्तिक और सरफराज इस बीच गहरे दोस्त बन गए थे और दोनों में एक दूसरे के प्रति सम्मान दिखता था। विशेषकर उस प्रदर्शन के बाद जो सरफराज ने कार्तिक के पक्ष में आयोजित किया था।

सरफराज पार्टी ऑफिस में ही रहा करता था। नीले रंग की झड़ते प्लास्टर वाली दीवारों की उस बिल्डिंग में पार्टी ऑफिस दूसरी मंजिल पर था। नीचे कोई छोटा मोटा स्कूल लगा करता था। और अक्सर वहाँ चिल्ल पों मची रहती थी। बासी गंध से भरे जीने से ऊपर जाने पर एक बहुत ही उदास सी मंजिल थी जिसमें अक्सर अँधेरा छाया रहता था। नीले रंग की दीवारें पीले बल्बों से आती रोशनी को सोख कर उस अँधेरे को और गहरा बना देती थीं। ऊपर ऑफिस में लकड़ी के पार्टीशन से दो तीन कमरे बना दिए गए थे जिसमें से एक में कॉमरेड श्यामलाल की टेबल पड़ी रहती थी और बाकी में कुछ हिलती हुई कुर्सियाँ, और लंबी बेंच जिन पर कार्तिक और उसके मित्र जाकर बैठा करते थे।

अंदर वाले कमरे में पार्टी मेनिफेस्टो, चुनाव सामग्री, परचों और पुस्तिकाओं का ढेर लगा रहता था और जीने में डंडे तथा लाल झंडे तह किए रखे रहते थे जिन्हें वक्त जरूरत बाहर निकाला जाता था। एक दो ग्लास शेल्फ में मार्क्स-एंजेल्स-लेनिन की किताबें सजी रहती थीं।

सरफराज अक्सर वहाँ हाफ पैंट और बनियान में नीचे के तल्ले पर से पानी भरते, किताबों की झाड़ पोंछ करते या अपनी दुपहिया डुगडुगी पर अखबार बाँटते दिख जाता था। कार्तिक अक्सर उससे मिलने जाता। कॉमरेड श्यामलाल एक दूरी बनाए रखते थे जबकि सरफराज हर समय उपलब्ध रहता। धीरे धीरे पार्टी से कार्तिक का संपर्क सूत्र सरफराज ही हो गया।

वे लंबे समय तक कई मसलों पर बहस मुबाहिसा करते। विज्ञान से लेकर मजदूर आंदोलन तक और घर-बाहर से लेकर पार्टी के साथियों की आदतों तक, सब कुछ उनकी चर्चा में शामिल रहता। कार्तिक के मन में विज्ञान आंदोलन खड़ा करने की इच्छा थी। वह सरफराज से इसके बारे में विस्तार से बातें करता। कॉमरेड श्याम लाल अक्सर टाल देते,

'भई ये विज्ञान आंदोलन वगैरह बड़े शहरों में चल सकते हैं। हमारे यहाँ तो मजदूर किसान की लड़ाई है।'

पर सरफराज कहता,

'तुम निराश मत हो। हम लोग कॉमरेड मोहन से बात करेंगे।'

फिर गैस त्रासदी हुई और किसी से बात करने की जरूरत नहीं रही। पूरे शहर, देश और विश्व को विज्ञान के जनपक्षीय बनाने का महत्व समझ में आ गया था। सर्वेक्षण के दौरान, गैस त्रासदी के बाद रिलीफ तथा आंदोलन के काम में और उसके बाद संगठन बनाने की यात्रा में सरफराज कार्तिक के बहुत निकट आ गया था।

कह सकते हैं कि कार्तिक सरफराज को पसंद करने लगा था। वे दोनों अक्सर कई आयोजनों में साथ दिख जाते। कार्तिक सरफराज को पार्टी ऑफिस में बहुत सारे फालतू काम करते देखता और प्यार भरे गुस्से से भर जाता।

'सरफराज ये तुम जो सुबह शाम पानी की बाल्टियाँ ढोते हो इसे बंद कर कॉमरेड श्यामलाल से कह कर मोटर क्यों नहीं लगवा लेते।'

सरफराज हँस कर कहता।

'छोड़िए, कुछ वर्जिश हो जाती है।'

'ये अच्छा तरीका है वर्जिश करने का। और तुम्हारी पढ़ाई लिखाई, नौकरी...'

'मैंने यहीं रहना तय किया है।'

'अच्छा एक बात बताओ, कहीं लिखा है कि पार्टी ऑफिस ऐसी ही बुसी हुई बिल्डिंगों में रहा करेगा। उसकी दीवारों पर रंग नहीं कराया जाएगा, उसमें पीले बल्ब ही लगवाए जाएँगे, उसके टॉयलेट इतने ही गंदे और अँधेरे से भरे होंगे...'

'कहीं नहीं लिखा। कई राज्यों में हमारे ऑफिस भी अच्छे हैं। यहाँ पार्टी जरा गरीब है...'

'गरीब होने का मतलब ये तो नहीं कि ऑफिस गंदा भी रहे।'

कार्तिक को याद है कि एक बार उसने और सरफराज ने मिलकर पूरा ऑफिस साफ किया था, उसे दुबारा जमाया था, डंडों और झंडों को रखने की व्यवस्था की थी। शाम को कॉमरेड श्यामलाल आए थे और बस देखते रह गए थे। कार्तिक को देखकर उन्होंने कहा था,

'आप तो हमारे ऑफिस को भी बुर्जुआ बना देंगे।'

कार्तिक को थोड़ा बुरा लगा था। वह दिनभर मेहनत और साफ सफाई करता रहा था। उसने बस इतना कहा था,

'कॉमरेड डि क्लास होने का मतलब गंदा और साफ सुथरा न रहना तो नहीं ही है'

कामरेड श्यामलाल चुप रह गए थे। इसके बाद सरफराज कार्तिक पर निर्भर करने लगा। वह अक्सर अलग अलग आंदोलनों के लिए धन इकट्ठा करने, पत्र पत्रिकाओं की बिक्री करने या आलेखों का अनुवाद करवाने कार्तिक के पास जाता। कार्तिक एक जरूरी काम की तरह सरफराज के कामों को करता, प्यार से उसे अपने पास बिठाता और सारी बात हो चुकने के बाद कहता,

'आओ, एक कप चाय हो जाए।'

धीरे धीरे सरफराज ने कार्तिक के दिल में जगह बना ली। उसकी असुरक्षा, उसका सीधापन, उसकी मेहनत, उसकी सीखने और पास आने की ललक कार्तिक के पेट्रनाइजिंग इंस्टिक्ट को जगाते थे और सरफराज के लिए कुछ न कुछ करते रहने को मजबूर करते थे।

आज जब घने जंगलों के बीच से बस कार्तिक और सरफराज को लेकर गुजरती जा रही थी तब कार्तिक का दिल अचानक खुशी से भर उठा। उसका नया दोस्त सरफराज उसके साथ था और रामनारायण उसके कुछ ही पीछे, किसी बात पर हाके लगा रहा था। पूरी बस में उल्लास का वातावरण था। कार्तिक ने अचानक एक गीत शुरू किया,

'चले चलो। लहूलुहान पाँव ले के भी चले चलो...'

सरफराज ने आवाज मिलाई। फिर पीछे बैठी शेफाली ने सुर पकड़ा। रामनारायण क्यों पीछे रहने वाला था? फिर रवींद्र कुमार, विष्णु, विश्वास सभी गाने लगे।

वहाँ एक आंदोलन आकार ले रहा था।

शहर में लौटकर उनकी समिति अगले कार्यक्रम पर विचार करने के लिए बैठी। कार्तिक, सरफराज, रामनारायण और कॉमरेड मोहन, इस बैठक में थे। कॉमरेड मोहन ने कहा,

'अब हमारे प्रदेश में भी कुछ न कुछ प्रेसिपिटेट होना चाहिए। काफी काम किया जा चुका है।'

कार्तिक ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,

'कॉमरेड स्थितियाँ पूरी तरह अनुकूल हैं। गैस त्रासदी के बाद पूरे देश में और हमारे प्रदेश में भी इस बात को लेकर चेतना है कि विज्ञान का विस्तार आम आदमी के पक्ष में ही होना चाहिए, कि सही समझ से ही इसकी दिशा बदलना संभव है और दिशा बदलना जरूरी है। हम प्रतिरोध का एक बड़ा आंदोलन विज्ञान के आधार पर खड़ा कर सकते हैं।'

रामनारायण ने कहा,

'और इसमें खदानों, तालाबों, जंगलों, पानी, जमीन की लड़ाई को भी जोड़ें। वैज्ञानिक दृष्टि पूरे समाज को समेटती है। इन आंदोलनों को साथ लेने से हमें भी ताकत मिलेगी।' फिर उसने हँसते हुए कहा था, 'और लेखकों को मत भूल जाइएगा'

कॉमरेड मोहन ने पूछा,

'आपके लेखक साथ आएँगे?'

'क्यों नहीं, कोशिश तो की ही जानी चाहिए।'

कार्तिक ने फिर कहा,

'कॉमरेड मेरा एक ही कहना है। आंदोलन को बहुत व्यापक बनाने के चक्कर में हम उसका फोकस न गँवा दें। उसका एक विशिष्ट चरित्र है और उसे वैसे ही उभरना चाहिए। नहीं तो उसके गुम हो जाने का खतरा है।

यहाँ मैं फिर एक बात कहना चाहूँगा। हम जरूर राष्ट्रीय आंदोलन से बात करें। पर ये भी देख लें कि उनकी प्राथमिकताएँ हमसे अलग भी हो सकती हैं। जैसे हम अपने प्रदेश में संगठन बना रहे हैं वैसे ही अन्य प्रदेश भी बना रहे होंगे। कई आंदोलन आगे होंगे, कई पीछे। अगर हम अपनी प्राथमिकता तय नहीं करेंगे तो हम सिर्फ पिछलग्गू होकर रह जाएँगे और ताकतवर होकर नहीं उभरेंगे।'

'आप ठीक कहते हैं। आपके हिसाब से हमारी प्राथमिकताएँ क्या होनी चाहिए?'

'पहली तो यही कि प्रदेश के हर जिले में स्थानीय मुद्दों के आधार पर विज्ञान समूह बनें। फिर उनके लगातार काम करने की स्थितियाँ बनें और वे अपना निर्वाह भी खुद कर पाएँ। हमें राष्ट्रीय आंदोलन से सीखना होगा और अपने लिए उपयोगी कार्यों को हाथ में लेना होगा। मैं अंधानुकरण के खिलाफ हूँ।'

अब कॉमरेड मोहन ने सरफराज से पूछा,

'क्यों सरफराज?'

उसने कहा,

'ठीक है कॉमरेड'

'तो अब क्या करना है?'

कार्तिक ने कहा,

'हमें अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर विज्ञान यात्रा निकालनी चाहिए। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ साथ, अपने संसाधनों के उपयोग और विज्ञान नीति जैसे विषयों को उठाएँ। इससे जो संपर्क बनेंगे वहाँ इकाइयों का निर्माण हो सकता है।'

'और इसके लिए संसाधन?'

'हम जुटा लेंगे। वैसे भी मेरा मानना है कि विचार महत्वपूर्ण है। धन नहीं। अगर विचार अच्छा हो तो धन आ ही जाता है।'

'चलो इस बार तुम्हारी तरह से कर के देखें।'

फिर विज्ञान यात्रा निकाली जाए इस निर्णय के साथ बैठक समाप्त हुई थी।

कार्तिक इसके बाद बहुत व्यस्त हो गया।

उसने और सरफराज ने मिलकर पहले विज्ञान यात्रा का रूट बनाया। यात्रा करीब बीस जिलों में जाने वाली थी और लौटकर फिर शहर में उसका समापन होता। इस दौरान हर दिन दो से तीन स्थानों पर संवादों, प्रदर्शनियों और नाट्य प्रदर्शनों का सिलसिला रखा गया था।

फिर सोचा गया कि सिर्फ नाटक के माध्यम के साथ साथ, छोटी-छोटी पुस्तिकाओं, पोस्टर प्रदर्शनियों तथा स्लाइड शो और फिल्मों का प्रयोग भी किया जाए। इन्हें तैयार करने या इनका चयन करने के लिए अलग अलग समूहों का निर्माण किया गया।

फिर रास्ते में आने वाले सभी संपर्क सूत्रों की सूची तैयार की गई जो यात्रा के सदस्यों को हराने, उसका प्रचार करने और प्रदर्शन करवाने का जिम्मा लेने वाले थे। इन सबका संयोजन एक बड़ा काम था।

पर कार्तिक का दिल तो नाटक में ही लगता था। उसने नाट्य कार्यशाला का काम अपने हाथ में लिया।

राकेश रंजन कार्यशाला के निर्देशक थे।

इस बार उन्होंने बिल्कुल अलग शिड्यूल बनाया। सुबह पाँच बजे से उठकर कलाकारों को व्यायाम करना पड़ता था। अच्छा नाटक करने के लिए शरीर का चुस्त दुरुस्त होना जरूरी था।

फिर आवाज की एक्सरसाइजेस करवाई जातीं। पेट से, गले से और नाक से अलग अलग तरह की आवाजें निकालने की कोशिश होती। व्यायाम में जानवरों की नकल उतारना भी शामिल था। कुत्तों की तरह, घोड़ों की तरह, साँपों की तरह कलाकारों को मूव करते देख कार्तिक को अजीब लगता। पर राकेश कहते, जानवरों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

नाश्ते के बाद का समय पढ़ने लिखने का होता। राकेश अक्सर नाटक के इतिहास और परंपरा, अलग-अलग निर्देशकों की स्टाइल, नाटक के संगीत तथा नाट्य प्रयोगों पर बातचीत से शुरुआत करते। फिर किसी नाटक का पाठ उठाया जाता। यात्रा के लिए आ छोटे नाटकों का चयन किया गया था। लगभग तीन दिनों में ही पाठ करवाने के माध्यम से पात्रों का चयन हो गया।

भोजन और विश्राम के बाद इंप्रूवाईजेशन का काम शुरू होता था। राकेश पात्रों को दृश्य और स्थितियाँ देते और उनसे अभिनय करने के लिए कहते। जब दृश्य बन जाता तो उसमें सुधार करते जाते।

कार्तिक के लिए नाटक को बनते देखना एक अद्भुत अनुभव था। वह वैसा ही था जैसे घर बनाते हैं। पहले नींव, फिर ढाँचा, फिर दीवारें-खिड़की, दरवाजे। उसके बाद प्लास्टर और रंग रोगन। या कोई इलेक्ट्रॉनिक सर्किट का निर्माण। पहले मदर बोर्ड, कुछ कंपोनेंट्स। फिर उन्हें जोड़कर एक सर्किट फिर सर्किटों को जोड़कर एक ब्लॉक और कई ब्लॉक्स को मिलाकर एक उपकरण। जैसे घर में जान उसमें रहने वाले आदमियों तथा सर्किट में उसमें बहने वाले विद्युत प्रवाह से आती है - वैसे ही नाटक में जान उसमें बहने वाली कथा तथा उस कथा के लोगों तक संप्रेषण से आती थी।

राकेश नाटक बनाने में सिद्धहस्त थे। उनके पास लोकरूपों और लोकसंगीत की सशक्त समझ थी जिसका प्रयोग वे नाटक को समृद्ध करने में करते थे। उन्होंने अलग अलग दृश्यों को जोड़ा, उनके बीच की सलवटें दूर कीं तथा विष्णु से कहा कि वह संगीत पर काम शुरू करे। नाटकों के लिए अलग से संगीत लिखे गए थे जिनका छंद भी अलग था और जिनकी तुकें मिलना जरूरी नहीं था। अब राकेश ने अलग अलग स्थानों के लिए संगीत चुना और एक गायक मंडली अलग बनाई गई जो नाटक के कलाकारों के बीच से ही बनती बिगड़ती थी।

नाटक तैयार होने के बाद राकेश और कार्तिक रन थ्रू के लिए बैठे। इस तरह से नाटक बनाना कार्तिक के लिए पहला अनुभव था, पर वह नाटक देखता और पढ़ता रहा था। गति और प्रभाव का आकलन वह अच्छी तरह कर सकता था। उसने हर नाटक पर अलग अलग नोट्स लिए, काटने छाँटने के सुझाव लिखे, गति कम करने और बढ़ाने का मन बनाया और राकेश को बताया। राकेश ने हर सुझाव को सुनकर कहा,

'कार्तिक तुम्हारी समझ बहुत अच्छी है। पॉलिशिंग का काम तुम बढ़िया कर सकते हो।'

नाटकों और पूरे प्रदर्शन की एक बार फिर पॉलिश की गई। अब वह चमककर दिखने के लिए तैयार था।

विज्ञान यात्रा ने प्रदेश में धूम मचा दी।

प्रदेश के लिए यह विचार पूरी तरह नया था। फिर विज्ञान के साथ सामाजिक मुद्दों को भी लिया गया था जिसमें लोग अपना पक्ष या विपक्ष तलाश सकते थे। नाटकों में प्रॉपर्टी का उपयोग कम से कम था और शरीर ही उनमें संप्रेषण का माध्यम था। मंच की कोई जरूरत नहीं थी और उन्हें नुक्कड़ पर, किसी स्कूल या कॉलेज के प्रांगण में या गाँव की चौपाल पर, कहीं भी खेला जा सकता था।

यात्रा जहाँ भी जाती लोग जुट जाते। स्थानीय समितियों ने अधिकतर जगहों पर अच्छा काम किया था। अखबार और मीडिया के लोग जो अब तक धार्मिक यात्राएँ देखते आए थे इस विज्ञान यात्रा को हाथों हाथ लेते।

'कार्तिक आपके मन में इस यात्रा का विचार कैसे आया?'

'ये विचार मेरा नहीं है। गैस त्रासदी के बाद की राष्ट्रीय यात्रा ने जो चेतना फैलाई थी उसके बाद हमें लगा कि हमारे प्रदेश में भी वैसा काम होना चाहिए।'

'ये नाटक बनाए किसने हैं?'

'हम सबने मिलकर। इन पर कान्हा में एक वर्कशॉप की गई थी, लिखने के लिए, फिर राजधानी में राकेश ने इन्हें प्रोड्यूस किया।'

'नाटक देखने और सुनने में प्रभावित करते हैं। आप इनकी कोई खास बात बता सकते हैं?'

'इनकी खास बात यही है कि ये संप्रेषित होते हैं, प्रभावित करते हैं कम से कम आडंबर के साथ, बिना मंच सज्जा के भी खेले जा सकते हैं। और इनका ढाँचा लचीला है, उसे बदला जा सकता है।'

'अब आपकी क्या योजना है।'

'प्रदेश में विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पक्ष में एक आंदोलन खड़ा करना है। यह हर जिले, हर पंचायत, हर गाँव में होगा। लोगों द्वारा, लोगों के विकास का आंदोलन...'

कार्तिक उत्साह से भरकर जवाब देता। वह कभी कभी थक भी जाता था पर जल्दी ही यात्रा की आंतरिक ऊर्जा उसे पुनः संचारित कर देती। बच्चों ने पूरी यात्रा में अभूतपूर्व उत्साह दिखाया था। वे घंटों पोस्टर प्रदर्शनियों के आसपास खड़े बहस करते, नोट्स लेते। फिल्मों और स्लाइड शो का भी अच्छा प्रभाव था, पर सबसे लोकप्रिय थे नाटक।

और सबसे ज्यादा विरोध भी उन्हीं का हो रहा था। कई धार्मिक पृष्ठभूमि वाले युवा दलों ने अंधविश्वासों का विरोध करने वाले नाटकों को हिंदू वर्ग के खिलाफ बताया था और विज्ञान यात्रा का विरोध करने का आह्वान किया था। उन्हीं से जुड़े कुछ बुद्धिजीवी सिर्फ 'विज्ञान' से दुनिया का काम नहीं चलता का राग अलापते हुए प्रच्छन्न रुप से यात्रा का विरोध कर रहे थे। पर जितना उसका विरोध होता यात्रा को उतना ही प्रचार मिलता। कार्तिक को समझ में आया कि डॉ. कौल क्यों कहते थे, कि विज्ञान के माध्यम से प्रतिरोध का आंदोलन खड़ा किया जा सकता था।

यात्रा के वापस राजधानी पहुँचने पर उसका जोरदार स्वागत हुआ।

स्वागत समिति ने एक जबर्दस्त रैली का आयोजन किया था जिसमें आसपास के शहरों के छात्र और विज्ञान कर्मी भी पहुँचे थे। यात्रा जहाँ जहाँ से गुजरी थी वहाँ की समितियों के सदस्य भी उसके अंतिम पड़ाव पर साथ देने पहुँचे थे। प्रदर्शनी के आसपास दिन भर बच्चों की गहमागहमी रही। स्कूलों में अलग अलग आयोजन किए गए। शाम को एक विज्ञान मेला भी रवींद्र भवन में आयोजित था।

यात्रा का सबसे आखिरी आयोजन था विज्ञान नाटकों का प्रदर्शन। आज कार्तिक खुद संचालन कर रहा था। 'इतिहास के सवाल' से लेकर 'मैं नदी आँसू भरी' तक के आ नाटकों ने समाँ बाँध दिया। प्रेस, बुद्धिजीवी, छात्र और कार्यकर्ता जैसे अभिभूत थे। बीच बीच में विष्णु के गीतों ने माहौल को और ओजपूर्ण बना दिया था। कार्यक्रम के समाप्त होने पर लंबे समय तक हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजता रहा। फिर कार्तिक एक बार मंच पर आया। कलाकारों का परिचय कराने।

कलाकार जो प्रदेश के कोने कोने से, कस्बों और शहरों से आए थे एक एक कर मंच पर आते और तुमुल ध्वनि से उनका स्वागत होता। अब कार्तिक ने राकेश रंजन और विष्णु को परिचय के लिए बुलाया,

'दोस्तो ये हैं राकेश रंजन जिन्होंने इन नाटकों का निर्देशन किया और ये विष्णु जिन्होंने इन्हें संगीत से सँवारा। कहने की जरूरत नहीं कि अपनी प्रतिभा के सहारे राकेश और विष्णु बंबई की राह पकड़ सकते थे पर उन्होंने आंदोलन के साथ रहना पसंद किया है। आइए एक बार फिर तालियों के साथ इनका अभिनंदन करें...'

पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

अब कलाकारों ने कार्तिक, राकेश और विष्णु को बीच में ले लिया था। उनके हाथ एक दूसरे के कंधों पर थे। और हॉल खड़े होकर उनका अभिनंदन कर रहा था।

कार्तिक हॉल के बाहर आया। उसका मन एकदम हल्का और उत्साह से भरा हुआ था। बधाइयों का सिलसिला अभी जारी था। अचानक किसी ने उसके कंधों पर हाथ रख कर कहा,

'कार्तिक जरा इधर आना।'

उसने देखा, नरेंद्र था। उसने पूछा,

'क्यों नरेंद्र, क्या बात है?'

'कार्तिक कलाकारों और आयोजन समिति के लिए भोजन की व्यवस्था सरफराज के जिम्मे थी। वो कहीं दिख नहीं रहा।'

'अच्छा? सरफराज तो ऐसा नहीं करता। तुमने दिखवाया?'

'हाँ, वह कैंपस में नहीं है।'

'फिर?'

'मैंने खुद जैन भोजनालय फोन करके पता किया। वहाँ खाना तैयार है। वे सरफराज के आने का इंतजार कर रहे थे।'

'अच्छा सरफराज को बाद में ढूँढ़ेंगे। तुम तत्काल खाने का इंतजाम करो। मैं यहाँ की बैठक व्यवस्था देखता हूँ।'

कार्तिक और नरेंद्र ने कुशलतापूर्वक काम सम्हाल लिया। कार्तिक ने वहीं एक समूह बनाया जिसने बैठक व्यवस्था कर दी। इस बीच नरेंद्र गाड़ी लेकर गया और खाना रखवा लाया। किसी को भी गड़बड़ी का भान नहीं हो पाया।

खाना खत्म होने पर सबको भेजने की व्यवस्था करने के बाद कार्तिक वहीं एक पेड़ के नीचे बेंच पर बैठ गया। नरेंद्र हाथ में ही दो पूरियाँ और आलू की सब्जी ले आया। उसने कहा,

'लो तुम भी कुछ खा लो।'

'और तुम?'

'मैं अपने लिए भी लेकर आता हूँ।'

इक्कीस दिन की कार्यशाला और महीने भर की लंबी यात्रा के बाद कार्तिक और नरेंद्र के लिए वे दो पल संतोष के पल थे। सिर्फ एक ही सवाल उनके मन में था, ये सरफराज कहाँ गायब हो गया?

अगले दिन सुबह कार्तिक सोकर भी नहीं उठ पाया था कि नीति ने कहा,

'तुम्हारे लिए फोन है, कॉमरेड मोहन का।'

कार्तिक ने उठते हुए कहा,

'हलो कॉमरेड, कैसे हैं?'

'मैं ठीक हूँ। आप दस बजे ऑफिस में आ जाइए।'

'जी, कोई खास बात?'

'आइए, मालूम पड़ जाएगा।'

नौ बज रहे थे। कार्तिक जल्दी जल्दी तैयार हुआ, वह थका हुआ था फिर भी कोशिश थी कि बैठक में समय पर पहुँच जाए। नीति ने कहा,

'करीब महीने भर बाद घर आए हो। एक आध दिन तो घर में रहो!'

'अभी आता हूँ।'

'मैं तुम्हारा अभी आना जानती हूँ। एक बार गए तो रात में ही दिखोगे'

'आज आ जाऊँगा। आज कोई काम नहीं है।'

'देखते हैं'

कार्तिक ने स्कूटर उठाया और पार्टी ऑफिस की राह पकड़ी।

ऑफिस में कॉमरेड मोहन के साथ साथ सरफराज और नरेंद्र उपस्थित थे।

कार्तिक को लगा कि कल के कार्यक्रम की सफलता पर कॉमरेड मोहन उसे बधाई देंगे। आज के सारे अखबार विज्ञान यात्रा की सफलता से भरे पड़े थे। पर कॉमरेड मोहन ने कुछ नहीं कहा। कार्तिक का दिल बुझ सा गया। वह बिना कुछ बोले वहीं बैठ गया।

अब कॉमरेड मोहन ने पूछा,

'कहिए कैसा रहा आपका कार्यक्रम?'

कार्तिक को लगा, कार्यक्रम सिर्फ उसी का क्यों था? वह तो सबका था। क्या कॉमरेड मोहन के सवाल में कोई व्यंग्य छुपा था? उसने कहा,

'ठीक हुआ कॉमरेड, आपको खबर तो लग ही गई होगी?'

'हाँ इसीलिए तो आपको बुलाया है।'

'जी?'

'ये बताइए कार्यक्रम के पहले एक बैठक होनी थी, क्यों नहीं हुई?'

कार्तिक को फिर लगा, ये क्या बात हुई? वह महीने भर की यात्रा करके आया था, न उसके बारे में कोई बात, न उसके प्रभाव पर कोई चर्चा, न मीडिया कवरेज पर कोई टिप्पणी, न आगे के कार्यक्रमों के स्वरूप पर कोई विचार। उसने कहा,

'कौन सी बैठक कॉमरेड?'

अब सरफराज ने कहा,

'कार्यक्रम के ठीक पहले पाँच बजे वाली बैठक।'

कार्तिक को आज सरफराज की आवाज अपने दोस्त की आवाज की तरह नहीं लगी। उसने कहा,

'कॉमरेड ये सूचना गलत है। मूलतः बैठक परसों शाम को हो गई थी। सबको काम बाँट दिए गए थे। कहा ये गया था कि अगर संयोजक होने के नाते मुझे कोई गड़बड़ी महसूस हो तो मैं कार्यक्रम के दो घंटे पहले यानी पाँच बजे समिति की संक्षिप्त बैठक कर सकता हूँ। मुझे ऐसी कोई गड़बड़ी महसूस नहीं हुई। इसलिए मैंने बैठक नहीं बुलाई।'

'फिर भी आपको सरफराज से पूछ तो लेना चाहिए था।'

अब कार्तिक को थोड़ा गुस्सा आ गया।

'कॉमरेड नाटकों का कार्यक्रम था। उसके ठीक पहले इतना दबाव रहता है। एक बार रन थ्रू करके भी देखना था। बाहर से इतने लोग आए हैं उनका इंतजाम भी देखना था। सुबह से सरफराज गायब थे। नरेंद्र ने ही सब सम्हाला। मेरा पूरा ध्यान इस बात पर था कि सभी इंतजाम ठीक हो जाएँ और कार्यक्रम ठीक तरह संचालित हो, मीडिया कवरेज अच्छा मिले। पौने पाँच बजे सरफराज दिखे और इन्होंने कहा चलो बैठक कर लेते हैं। मैंने कहा, इस समय जरूरत इस बात की है कि मीडिया को और दर्शकों को सम्हाला जाए। उसके बाद ये फिर गायब हो गए। खाना खिलाने की जिम्मेदारी इनकी थी, वह भी नरेंद्र ने पूरी की।'

कॉमरेड मोहन ने अपनी ठंडी पर कड़क आवाज में कहा,

'आप सीनियर आदमी हैं आपको गुस्सा नहीं होना चाहिए। अगर तय हुआ था कि आप बैठक करेंगे तो आपको करनी चाहिए थी...'

'पर कॉमरेड ये तय नहीं हुआ था...'

'अब बहस से क्या फायदा? आगे ध्यान रखियेगा...'

कार्तिक का चेहरा तमतमा आया। झूठ बोला जाएगा और वह गुस्सा भी नहीं हो सकता। इन्हें सरफराज में कोई गलती नहीं दिखती। और सरफराज खुद कितना भोला बन रहा है। क्या इसने खुद खाने के समय गायब रहकर गड़बड़ी फैलाने की कोशिश नहीं की? वह तो नरेंद्र ने सम्हाल लिया नहीं तो और बतंगड़ बनता। उसने आपको जब्त करते हुए कहा,

'ठीक है कॉमरेड।'

फिर बाहर निकल आया।

वह सोच रहा था कि सरफराज ने ऐसा क्यों किया? वह तो कार्तिक का दोस्त था। क्या उसे किसी बात का बुरा लगा था? या ये सिर्फ ईर्ष्या थी? उसे ईर्ष्या क्यों होनी चाहिए। यात्रा उसकी भी तो थी। फिर ये कार्यक्रम खत्म होते ही कॉमरेड मोहन से शिकायत जैसा करने की क्या जरूरत थी? वह सीधे कार्तिक से भी बात कर सकता था। आखिर वह कार्तिक का दोस्त था।

उसका मन घर जाने का नहीं हुआ। उसने स्कूटर रामनारायण के दफ्तर की ओर मोड़ लिया।

रामनारायण उसे नीचे ही मिल गया था। दफ्तर के नीचे नीम के पेड़ तले चाय के ठेले पर चाय पीते हुए। उसे देखकर रामनारायण ने कहा,

'कार्तिक इधर ही चले आओ'

कार्तिक ने स्कूटर पार्क किया और ठेले के पास पड़ी पत्थर की पटिया पर बैठ गया। रामनारायण ने पूछा,

'चाय पियोगे?'

'हाँ।'

चाय वाला एक कट चाय दे गया।

'क्या बात है कुछ उदास दिख रहे हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए। तुम्हारा कार्यक्रम जलवेदार हुआ।'

'सुबह तक तो खुश ही था।'

'फिर?'

'फिर कॉमरेड मोहन ने बुला लिया।'

'बधाई दे रहे होंगे।'

'हाँ अपनी ओर से तो बधाई ही दे रहे थे।'

रामनारायण ने कार्तिक की आवाज में छुपे दर्द को पहचान लिया। अब वह गंभीर हो गया,

'क्यों बात क्या है?'

कार्तिक ने सुबह की पूरी घटना रामनारायण को सुनाई और कहा,

'मुझे कॉमरेड मोहन की बात पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना सरफराज के व्यवहार पर। आखिर वह बैठक क्यों करवाना चाहता था जब काम का बँटवारा एक दिन पहले ही हो चुका था। फिर कॉमरेड मोहन से शिकायत क्यों? मुझसे बातचीत क्यों नहीं...'

'इसलिए कि वह ये सिद्ध करना चाहता था कि तुम कहीं भी अकेले निर्णय लेने को स्वतंत्र नहीं हो। तुम्हारे ऊपर एक कमिटी है और तुम्हें उससे पल पल में पूछते रहना चाहिए...'

'मैं कमिटी का पूरा सम्मान करता हूँ। हम एक दिन पहले मिले ही थे और सब काम तय हो गए थे...'

'हो सकता है कि सरफराज अपना काम बदलवाना चाहता हो। जैसे कि कार्यक्रम में मंच पर कुछ स्थान प्राप्त करना...'

'आह! तो ये बात है। ये तो बहुत ही बचकानी बात हुई...'

'हो सकती है, पर है...'

'मान लो ऐसा है भी तो भी क्या मुझसे नहीं कहा जा सकता था? कॉमरेड मोहन के पास शिकायत जैसी क्यों...'

'कार्तिक तुम पार्टी को नहीं जानते। मेरा खयाल है कि सरफराज को तुम्हें बैलेंस करने के लिए लगाया गया है, उसे आगे भी महत्व दिया जाता रहेगा। हमारे यहाँ महत्व पाने का एक सरल तरीका है साथियों के बारे में गलत सलत रिपोर्टिंग...'

'और कॉमरेड मोहन? क्या उन्हें ये गलत सलत रिपोर्टिंग ले लेना चाहिए?'

'नहीं। पर उनके निर्णय हर समय पॉलिटिकल होंगे, नैतिक आधार पर नहीं। अगर एक बढ़ते हुए आंदोलन पर नियंत्रण बनाए रखना है तो सरफराज को महत्व दिया जाता रहेगा...'

'ओह! तो पार्टी इस तरह से सोचती है...'

'सभी पार्टियाँ इसी तरह से सोचती हैं...'

कार्तिक आगे कुछ और कहता तभी किसी ने आकर रामनारायण के कंधे पर हाथ मारा,

'और प्यारे हमें भी तो चाय वाय पिलवाओ'

'साले निरंजन। जरा ध्यान भी तो रखा करो। अभी चाय का गिलास मेरे हाथ से छूट जाता।'

'छूट जाता तो छूट जाता। कोई दारू का गिलास तो है नहीं...'

रामनारायण ने हँसते हुए परिचय कराया,

'ये निरंजन। बड़े कवि-कथाकार हैं। मेरे साथ ही काम करते हैं।'

तब निरंजन ने अपने थोड़ा पीछे रह गए दोस्त का परिचय और कराया,

'और मेरे साथ एक बड़ा आदमी और है। बड़ा नाट्य निर्देशक - अपूर्वानंद'

रामनारायण का ध्यान अब अपूर्वानंद की ओर गया,

'आओ साले जुगाड़ू। कहाँ थे अब तक?'

अपूर्वानंद थोड़ा अकड़ते हुए सामने के पटिये पर बैठ गए। उन्होंने रामनारायण से कहा,

'तुम साले चूतिये, आजकल बड़े उड़ते फिर रहे हो।'

निरंजन ने हँसते हुए कहा,

'आप लोगों का परिचय हो गया हो तो अब चाय पी लें।'

अब कार्तिक ने बारी बारी से निरंजन और अपूर्वानंद से हाथ मिलाया,

'कार्तिक।'

चाय के गिलास फिर से चारों के हाथ में थे।

रामनारायण ने अब बात कार्तिक की ओर मोड़ी,

'निरंजन तुमने कल विज्ञान नाटकों का प्रदर्शन देखा? जबर्दस्त हिट रहा।'

निरंजन ने कहा,

'देखा था। मुझे अच्छा लगा। उसमें कुछ बात थी'

फिर वह अपूर्वानंद की ओर मुड़ा और पूछा,

'क्यों नाट्य निर्देशक महोदय आप कुछ नहीं कहेंगे?'

अपूर्वानंद ने जवाब दिया,

'चूतियापा था'

अब कार्तिक ने अपूर्वानंद को ध्यान से देखा। मैला सा कुर्ता और नीली जीन्स की पैंट। घिसी हुई चप्पलें। भारी शरीर, आँखों पर काले फ्रेम का चश्मा जो उनके मूल काले रंग में और इजाफा कर रहा था। बड़ा सा चेहरा और उससे बड़ा गंजा माथा। पीछे के बाल थोड़े बड़े और घुँघराले। उनके चेहरे से घृणा टपक रही थी, जैसे वे पूरे विश्व से चिढ़ते हों। निरंजन ने उन्हें छेड़ते हुए कहा,

'क्यों यार अच्छे खासे नाटक थे। इतने लोगों ने उन्हें देखा, प्रशंसा की। अखबार उनकी प्रशंसा में भरे पड़े हैं और आपको वे चूतियापा लग रहे हैं...।'

'चूतियापा लग रहे हैं क्योंकि वे चूतियापा हैं...'

अब अपूर्वानंद ने अपनी आवाज बढ़ा ली। उनका मुँह खुलते ही कार्तिक को तीखी गंध आई। वे दिन में भी अच्छे खासे सुगंधित थे। उन्होंने आगे कहा,

'जिसने भी उन नाटकों को बनाया है उसे कला की बेसिक समझ तक नहीं है। आप उँगलियाँ उठा उठा कर दर्शकों को समझाइश दे रहे हैं, कहानी पूरी तरह गायब, संगीत बेसुरा, कच्चे पक्के कलाकार जिन्हें अभिनय की कोई तमीज नहीं, नाट्यरूपों की कोई तलाश नहीं। किसी शैली के दर्शन नहीं। आप भेनचोद अपने आपको समझते क्या हैं? वे नाटक नहीं थे, नाटक के नाम पर इंसल्ट थे।'

कार्तिक को अपनी कार्यशाला में लोर्का पर पढ़ा हुआ निबंध याद आया,

'ईश्वर की कृपा थी कि राजधानी के बुद्धिजीवी उनके पक्ष में नहीं थे, न ही अखबार उनकी खुशी में जहर घोल रहे थे...'

अब निरंजन ने कार्तिक से कहा,

'कार्तिक जी आप कुछ कहना चाहेंगे इस पर?'

रामनारायण ने गुस्से से कहा,

'नहीं, कार्तिक कुछ नहीं कहेगा।'

पर कार्तिक अब तक मन बना चुका था। उसने कहा,

'ठहरो रामनारायण। मुझे कुछ कहना है।'

फिर उसने अपूर्वानंद की ओर देख कर कहा,

'जो लोग दिन में दारू पीकर, सड़क पर नाटक के बारे में गंभीर बहस करना चाहते हैं उन्हें जवाब देना मैं जरूरी नहीं समझता। पर कहीं आप ये न समझ लें कि मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है इसलिए ये उत्तर दे रहा हूँ।

मैं आपको जानता हूँ और मैंने बुंदेलखंड के उस लोक गायक के जीवन पर किया गया आपका नाटक देखा था जो संगीत और नृत्य तथा परंपरा की जगमग से भरा पड़ा था। मेरी समझ से नाट्यरूपों की तलाश एक फंडामेंटल जरूरत है, जो हर संवेदनशील रंगकर्मी को गहराई से महसूस होती है, नाट्य जगत को एक नई शैली से जगमग कर देने की चाह भी कलाकार में एक जोरदार छटपटाहट पैदा करती है, लेकिन ऐसा भी होता है कि कथ्य के अभाव में, अपने खालीपन से परेशान होकर कलाकार सिर्फ चकाचौंध कर देने वाली, चौंका देने वाली शैली का सहारा लेकर अपने वजूद, अपनी हस्ती को बनाए रखना चाहता है। आप वैसे ही कलाकार हैं...

शैली का जन्म होता है कलाकार और यथार्थ के आपसी टकराव, आपसी संघर्ष से, पैदा होने की जद्दोजहद से। लेकिन जब कोई नई शैली को बगैर इस टेंशन, इस संघर्ष, इस जद्दोजहद के हासिल करना चाहता है तो वहीं से कला, कथ्य, कलाकार, परंपरा सबका विनाश शुरू हो जाता है। मेरी समझ में आपका विनाश शुरू हो चुका है...'

कार्तिक के द्वारा किए गए इस जबर्दस्त वैचारिक हमले से अपूर्वानंद हक्का बक्का रह गया। फिर उसने कुछ सम्हलते हुए कहा,

'आपको मालूम होना चाहिए कि मैंने अपने नाटक में नौटंकी शैली का पहली बार इस्तेमाल किया था...।'

'मैं जानता हूँ। पर आपको भी ये समझना चाहिए कि सिर्फ नौटंकी शैली में, या यक्षगान में या नेचुरलिस्ट मोल्ड में काम करना ही अहम नहीं है। जरूरी यह है कि आप कहना क्या चाहते हैं। कोई कहे कि मैं सिर्फ नौटंकी ही करना चाहता हूँ तो शायद वह कुछ नहीं कर पाएगा। क्योंकि नौटंकी या यक्षगान, नौटंकी या यक्षगान होने के अलावा अपने-अपने संदर्भों में एक विशेष सामाजिक, दार्शनिक और धार्मिक भूमिका भी अदा करते हैं। इनके खोल में दूसरे कॉन्सैप्ट्स, दूसरी कॉस्मोलॉजी समा पाएगी या नहीं ये भी देखा जाना चाहिए। अगर आप कहें कि थियेटर को समाज का जीवंत हिस्सा बनाएँगे, उसे बहस और संघर्ष के मंच में तब्दील करेंगे तो शायद आप उसे सशक्त और समृद्ध करेंगे...'

'मैं थियेटर में भारतीयता के प्रयोग कर रहा हूँ...।'

'भारतीयता आपके रंगमंच में तभी आएगी जब आप वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ, ईमानदारी और लगन से, भारतीय समाज का अध्ययन और विश्लेषण प्रस्तुत करें। भारतीयता या परंपरा का मतलब यथार्थ से मुँह मोड़ लेना नहीं...।'

निरंजन ने तालियाँ बजाते हुए कहा,

'वाह यार। मान गए आपको। आप तो उस्ताद निकले, चलो अपूर्वानंद, ये मत समझना कि साले तुम ही एक उस्ताद हो। अच्छा कार्तिक जब भी यहाँ आओ मुझसे मिलना मत भूलना।'

वे दोनों चले गए। रामनारायण ने भी उठते हुए कहा,

'बढ़िया यार। तुमने अच्छा जवाब दिया। ये साले कभी भी किसी नई चीज को एप्रीशियेट नहीं कर पाएँगे...'

कार्तिक कुछ हल्का महसूस कर रहा था। अब उसने स्कूटर उठाया और घर की राह ली।

अगले कुछ दिन कार्तिक के लिए चिंता के थे।

विज्ञान यात्रा की सफलता ने आंदोलन का काम बढ़ा दिया था। जगह जगह से इकाइयाँ बनने की खबरें आ रही थीं। साथी चाहते थे कि वह आए और मदद करे।

इधर वह नौकरी छोड़ चुका था और घर में आमदनी का कोई और जरिया नहीं था। नीति ने कह दिया था,

'तुम्हें अपना नया काम अच्छा लग रहा है देख कर मुझे खुशी है। पर घर तो चलाना ही पड़ेगा, उसके बारे में भी कुछ सोचो।'

कार्तिक ने सोच कर देखा था। दोबारा नौकरी प्राप्त करना उसके लिए मुश्किल काम नहीं था। अपनी योग्यता और अनुभव के बल पर उसे शहर में या शहर के बाहर नौकरियाँ मिल सकती थीं। पर क्या अब वह किसी भी प्रायवेट प्रबंधन के साथ काम कर सकता था? क्या वहाँ उसे विज्ञान प्रसार का अपना काम करने की स्वतंत्रता होगी?

और सरकार के साथ? सरकार से तो वह लड़ना ही चाहता था। उसकी नौकरी कैसे करता?

तो फिर कंसल्टेंसी, छोटा मोटा काम धंधा, भी एक विकल्प हो सकता था। पर इसमें समय और ऊर्जा बहुत लगने वाली थी।

तो फिर वह क्या करे?

उसने दीपू से बात करने का निश्चय किया।

दीपू विज्ञान परिषद् में काम करता था और कई बार उससे कह चुका था कि समाज और विज्ञान संबंधी कई परियोजनाएँ सरकार के पास हैं। उन्हें भी अच्छे आदमियों की तलाश रहती है। कार्तिक वैसी कुछ परियोजनाएँ लेकर काम शुरू क्यों नहीं करता? उनमें लंबे समय की बाध्यता भी नहीं रहती और उन समूहों के साथ काम करने का अवसर मिलता है जिनके साथ कार्तिक काम करना चाहता है।

दीपू कार्तिक का दोस्त था। जैसे ही कार्तिक ने उसे अपने असमंजस के बारे में बताया उसने कहा,

'मैं तो इतने दिनों से तुमसे कह ही रहा था कि तुम एप्लाई करो। मैं डॉ. जॉन से बात भी करूँगा। तुम्हारा प्रस्ताव पास करा लेंगे।'

फिर दीपू ने उसे कुछ फॉर्म निकाल कर दिए और कहा,

'ये स्कीम है। इसका अध्ययन कर लो। चाहो तो एक दो स्वयंसेवी संस्थाओं का दौरा कर लो। देखो वो लोग कैसे काम करते हैं। इससे तुम्हें भी अपना दिमाग साफ करने में मदद मिलेगी।'

कार्तिक ने दीपू को धन्यवाद कहा था और एक बार फिर काम में भिड़ गया था। उसने सबसे पहले प्रदेश में काम कर रही स्वयंसेवी संस्थाओं की जानकारी इकट्ठी की। अधिकतर संस्थाएँ शिक्षा का काम कर रही थीं। कुछ स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी थीं। साहित्य और संस्कृति को लेकर भी कुछ समूह काम कर रहे थे पर उनका काम आयोजनों पर केंद्रित था। तकनीक या टेक्नॉलॉजी तथा विज्ञान को लेकर बहुत कम संस्थाएँ सक्रिय थीं।

फिर कुछ नेटवर्क्स थे जिन्होंने संगठित समूह के रूप में काम करना शुरू किया था। उनमें से कुछ गांधीवादी और सर्वोदयी थे जो अक्सर पदयात्राएँ निकाला करते थे, खादी और प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों का एक्सटेंशन करते थे और शहर की अच्छी बिल्डिंगों तथा जमीनों पर कब्जा किए रहते थे। अभी अभी एक राष्ट्रीय दैनिक ने उनके विदेशी धन प्राप्त करने और उसका दुरुपयोग करने को लेकर बड़ा भंडाभोड़ किया था। पर उनमें भी कुछ अच्छे लोग थे जो जमीनी लड़ाई लड़ते रहते थे, ग्रामीणों को उनके अधिकार दिलाने की लड़ाई।

एक दूसरी तरह का समूह भी था जिसकी आय का कुछ पता नहीं चलता था, पर वे रहते बहुत ठाठ से थे। कहीं किसी दूर के गाँव में उनकी 'फील्ड' होती थी जहाँ वे कभी कभी जाते थे और जब भी जाते थे कोई न कोई हंगामा करके आते थे, इस तरह लगातार खबरों में बने रहते थे। गरीब, गरीबी, शोषण, मानव अधिकार इनकी जुबान पर हर समय रहने वाले शब्द थे। मीडिया उन्हें बहुत लपकता था और बड़ी बड़ी हेडलाइन दिया करता था। कहा जाता था कि वे सब विदेशी धन पाते थे और परियोजनाएँ चलाते थे। कभी कभी लंबे समय के लिए वे विदेश चले जाया करते थे।

फिर क्रिश्चियन संस्थाएँ थीं जिनके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने बड़े बड़े स्कूल और अस्पताल बना रखे थे। वे लोगों की सांस्कृतिक जड़ों पर प्रहार करते थे और ऐसा करते समय मालूम भी नहीं होने देते थे कि वे ऐसा कर रहे हैं। देश की परतंत्रता के समय से ही गोरे आदमी ने अपना बोझ उतारने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं का नेटवर्क पूरे देश में खड़ा किया था जो 'शिक्षा' और 'स्वास्थ्य' के बहाने पूरे समाज में अपनी पैठ बनाए हुए था। वे अपना काम अच्छी तरह करते थे पर ईसाइयत को बढ़ावा देना भी उनके कामों में शामिल था।

और जैसे उन्हें जवाब देने के लिए ही हिंदूवादी संस्थाओं का एक बड़ा नेटवर्क प्रदेश में कार्यरत था जिन्होंने शिक्षा का काम पकड़ा था और स्कूलों के माध्यम से समाज में पैठ बनाई थी। अब वे आदिवासियों के बीच काम करने के लिए वनवासी संगठन, हरिजनों में काम करने के लिए हरिजन सेवा समाज और अलग अलग तबकों में काम करने के लिए अलग अलग नामों से संगठन खड़े करते जा रहे थे। उनके पीछे अनुशासित कार्यकर्ताओं का समूह था जो कि एक विशिष्ट राजनीतिक दल को सहयोग करता था।

स्वाभाविक ही था कि इनके बरक्स मुस्लिम संगठन भी होते और उन्हें मुस्लिम वैश्वीकरण के चलते विदेशों से पैसा मिलता, सो वे भी थे और इस बीच उन्हें ज्यादा पैसा मिलना शुरू हुआ था। हालाँकि कार्तिक के प्रदेश में उनकी संख्या कम थी पर फिर भी कुछ हिस्सों में उनका प्रभाव था।

कुछ ही समय में स्पष्ट हो गया कि इनके साथ काम करना तो दूर कार्तिक इनमें से किसी को अपना रोल मॉडल भी नहीं मान सकता था। तब फिर?

अंत में जाकर कार्तिक को 'विकास भारती' का काम पसंद आया था। उसने उनके बारे में कुछ आलेख पत्र पत्रिकाओं में पढ़े थे। वे विज्ञान शिक्षण, विज्ञान प्रचार और ग्रामीण तकनीक के क्षेत्र में काम कर रहे थे। वे चुने हुए गाँवों और जिलों में लगकर काम कर रहे थे और उन्होंने राजधानी में अपना एक स्रोत केंद्र भी बनाया था। वह कार्तिक का रोल मॉडल हो सकता था।

उसने तय किया वह वहाँ एक बार जाएगा। संस्था के अध्यक्ष प्रोफेसर अनिल कुमार ही तो थे जिनसे वह गैस त्रासदी के आंदोलन में कई बार मिल चुका था। उसने फोन किया तो उधर से आवाज आई,

'हमें खुशी होगी। कभी भी चले आइए।'

कार्तिक ने सरफराज को साथ लिया और विकास भारती पहुँच गया।

जब कार्तिक की ट्रेन उस छोटे से स्टेशन पर पहुँची तो प्रोफेसर अनिल कुमार खुद उन्हें लेने के लिए वहाँ उपस्थित थे।

उन्होंने दूर से ही उन्हें देखकर हाथ हिलाया। पास आते ही गले मिले, फिर बोले,

'आइए आपका स्वागत है।'

'आपने क्यों तकलीफ की? हम लोग पहुँच ही जाते।'

'तकलीफ किस बात की? हमें तो छोटे मोटे कामों के लिए यहाँ आते ही रहना पड़ता है। आपको लेने आया तो कुछ सामान भी खरीद लिया।'

स्टेशन से बाहर निकलते हुए उन्होंने कहा,

'यहाँ कोई सवारी थोड़े ही मिलती है। आपको लिफ्ट लेते हुए विकास भारती पहुँचना पड़ता।'

अनिल भाई को स्टेशन पर सभी लोग जानते थे। चाय वाला, सामने खड़ा रिक्शे वाला, उदास से स्टेशन का वह अनमना सा टिकिट चालक, झंडियाँ लिए खलासी, पान की दुकान वाला... । उन्होंने सबसे 'नमस्ते', 'राम राम', 'क्या हाल हैं' किया। फिर अपनी जीप में बैठते हुए कहा,

'आइए।'

जीप वे खुद ही चला रहे थे। 'विकास भारती' वहाँ से करीब बीस किलोमीटर दूर थी। नर्मदा - तवा के कछार में बसे संपन्न इलाकों की हरियाली दोनों ओर बिखरी थी। कार्तिक से पूछे बिना नहीं रहा गया,

'अनिल भाई, आप तो शायद बंबई में थे? यहाँ कैसे पहुँचे?'

उन्होंने हँसते हुए कहा,

'बहुत से लोग ये सवाल पूछते हैं। हाँ, मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में था। कई अन्य वैज्ञानिकों की तरह मेरा भी नेहरुवियन विकास के मॉडल से मोह भंग हुआ। सा और सत्तर के दशक में हममें से कई ने अपनी स्थापित नौकरियाँ छोड़ीं और गाँवों की तरफ मुड़े विकास के वैकल्पिक मॉडल की तलाश में। हम लोग चाहते थे वैकल्पिक तकनीक, वैकल्पिक शिक्षा, यही हमारे स्वप्न थे।'

'तो फिर?'

'हमने सबसे पहले तो अपने अपने फील्ड एरिया का चुनाव किया। मैंने मध्य प्रदेश देखा था, पहले यहाँ आता रहा था, कई लोगों को जानता था। फिर मैंने डॉ. कौल से बात की। बहुत ही मॉडर्न, प्रतिभासंपन्न और वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले व्यक्ति थे कौल साहब। उन दिनों प्रधानमंत्री के सचिव भी थे। उन्होंने कहा, विचार तो अच्छा है बस आश्रम मत बनाना।'

फिर अनिल खुलकर हँसे। कार्तिक ने पूछा,

'तो आपने आश्रम बनाया कि नहीं?'

'विकास भारती दिखता तो आश्रम जैसा ही है पर अपने चरित्र में वैज्ञानिक है, प्रयोगशाला की तरह। देशभर से सीखने सिखाने के लिए लोग आते हैं, उनमें से कई शिक्षाविद् होते हैं, कई पी.एच.डी., डॉक्टर्स, वैज्ञानिक, इंजीनियर। हमें सबकी जरूरत पड़ती है।'

कार्तिक को लगा इसी तरह का काम वह करना चाहता था। उसके मन में 'विकास भारती' को देखने समझने की उत्सुकता और ज्यादा बढ़ गई।

जीप एक छोटे से रास्ते पर बाएँ मुड़ी। वे लोग 'विकास भारती' में प्रवेश कर रहे थे।

वाकई वह एक आश्रम की तरह ही था।

चारों तरफ ऊँचे ऊँचे पेड़ों से घिरा। एक तरफ अच्छी नस्ल की कद्दावर गायों का बाड़ा था। बाएँ हाथ पर कुछ वर्कशेड बने थे जो शायद रहने, पढ़ने लिखने और बैकों के काम आते थे। सामने जाकर एक सामूहिक किचन था जो अपनी सादगी और प्राकृतिक खुलेपन के कारण आकर्षित करता था। पीछे एक विशाल पुस्तकालय था जिसमें किताबों का कलेक्शन देखकर कार्तिक दंग रह गया था।

वहीं किचन के सामने पड़े लकड़ी के बेंच और टेबलों पर कार्तिक, सरफराज और अनिल कुमार बैठे। एक धोती और बंडीधारी सज्जन आकर चाय रख गए। अनिल कुमार ने परिचय कराया।

'पंडित जी। इन्हीं के भरोसे हम लोगों का जीवन चलता है।'

फिर वे ठठा कर हँसे। उनकी हँसी में एक अजीब खुलापन और उन्मुक्तता थी जो उन्हें और प्यारा इनसान बनाती थी। अब उन्होंने कार्तिक से पूछा,

'अपने बारे में भी तो कुछ बताइए!'

कार्तिक ने संक्षेप में उन्हें अपने बारे में बताया। अब तक के अनुभव और विज्ञान तथा ग्रामीण विकास के लिए काम करने की अपनी मंशा के बारे में बताया। गैस त्रासदी ने उसके निर्णय और पुख्ता किया है इस बात पर उसने विशेष जोर दिया।

अनिल कुमार उसकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। कार्तिक की बात खत्म होने पर उन्होंने कहा,

'सबसे पहले तो हमें समझना होगा कि विज्ञान कोई राजनीति निरपेक्ष चीज नहीं है। विज्ञान की भी एक राजनीति है। सामान्य रूप से हमारे समय में विज्ञान का उपयोग शक्तिशाली को और सशक्त बनाने तथा निर्बल का बल और क्षीण करने में हो रहा है। लेकिन इस दिशा को बदला जा सकता है। एक जनपक्षीय विज्ञान की दिशा भी है,जो जनता के बीच छुपी वैज्ञानिक दृष्टि, उसकी खोजी दृष्टि को पहचानती है तथा विज्ञान के फायदों को वहाँ तक ले जाना चाहती है। सबसे पहले तो आपको अपना पक्ष तय करना होगा।'

कार्तिक फिलहाल अपनी राजनीति के बारे में बात करना नहीं चाहता था। उसने इतना ही कहा।

'मेरा पक्ष जनपक्षीय ही है।'

'गुड तो हम आगे बात कर सकते हैं। दूसरी चीज है जनता की जरूरतों को पहचानना, हमने जब इस क्षेत्र में काम शुरू किया तो देखा कि भूमि इस तरह की है कि कुएँ अक्सर भसक जाते हैं। इससे लोगों को बड़ी परेशानी होती थी। तो सबसे पहले तो हमने रिंग वेल बनाने शुरू किए। आइए मैं आपको दिखाता हूँ।'

अनिल कुमार कार्तिक को एक रिंग वेल के पास ले गए। सीमेंट कांक्रीट से बने रिंग्स को कुएँ के भीतर एक के ऊपर एक जमाया गया था जिससे मिट्टी के भसकने का खतरा खत्म हो गया था।

'एक बार हमने ये तकनीक दिखाई तो लोगों को बहुत पसंद आई। अब इस इलाके में करीब एक हजार ऐसे कुएँ हैं जो हजारों एकड़ जमीन को सींच रहे हैं।'

अनिल एक क्षण को साँस लेने के लिए रुके। फिर कहा,

'उसके बाद हमने गायों पर ध्यान केंद्रित किया। इस इलाके की गायें बहुत शक्तिशाली नहीं थीं हालाँकि चारा उपलब्ध था। अपने गौ संवर्धन कार्यक्रम के अंतर्गत हमने दुधारू संकर गायों को बढ़ाने का काम हाथ में लिया। आज इस इलाके में सैकड़ों दुधारू संकर गायें देखी जा सकती हैं।'

हम लोग बातें करते करते बाहर निकल आए थे और अब एक छोटे मोटे वन में प्रवेश कर रहे थे, अनिल कहते जा रहे थे,

'एक बार आप समाज के बीच जाएँ तो आपको कई चीजें पानी की तरह साफ दिखने लगती हैं। अब बच्चों की शिक्षा को ही लीजिए। उन्हें किस तरह रटाया जाता है, ज्ञान उनके गले के नीचे उंड़ेला जाता है, पर्यावरण से काटकर रखा जाता है और विज्ञान के नाम पर कुछ बहुत ही अन इक्विप्ड प्रयोगशालाओं में ले जाया जाता है जबकि उनका पूरा पर्यावरण ही एक प्रयोगशाला हो सकता है। हम लोगों ने अपने विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में इसी बात को पकड़ा। बच्चों को उनके आसपास से जोड़ने की कोशिश की, उपलब्ध सामग्री से उपकरण बनाए, उनमें पर्यावरण से सीखने की दृष्टि पैदा करने की कोशिश की और नए सिरे से किताबें लिखीं। मुझे लगता है हम लोग एक बिल्कुल नया काम करने में सफल रहे हैं...'

कार्तिक को 'विकास भारती' के बारे में पढ़े गए वे सभी आलेख याद आए जो उसने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में पढ़े थे। उसने कहा,

'आपके चलित पुस्तकालयों और स्वास्थ्य कार्यक्रमों के बारे में भी हमने बहुत सुना है।'

अनिल कुमार ने एक डिस्पेंसरी में प्रवेश करते हुए कहा,

'आइए आपको स्वास्थ्य कार्यक्रमों की प्रणेता से मिलवाऊँ।'

एक गोरी सी विदेशी महिला बाहर आईं। अनिल ने कहा,

'मीट माई वाइफ। लीना।'

कार्तिक ने कहा 'हलो'। लीना ने हाथ जोड़कर नमस्ते किया। कार्तिक ने पूछा,

'हाउ डू यू फाइंड हियर?'

लीना ने शुद्ध हिंदी में जवाब दिया,

'बहुत बढ़िया। मजा आ रहा है।'

अब उनके समूह में लीना भी शामिल हो गई।

वे चारों अब एक जंगल के बीच से गुजर रहे थे। प्रोफेसर अनिल ने कहा,

'हमने चालीस एकड़ जमीन में सामाजिक वन लगाने का भी प्रयोग किया है। ये जो वन आप देख रहे हैं अपने स्रोतों से लगाया गया है। बाकी अस्सी एकड़ जमीन पर अस्सी गरीब परिवारों को संगठित कर एक किसान मजदूर संगठन बनाया है। हर परिवार एक एक एकड़ भूमि पर खेती करता है। हम उनके साथ शिक्षा और सामाजिक चेतना के कार्यक्रम चलाते हैं। वन के उत्पादनों यानी लकड़ी, बाँस, लाख, घास आदि को संगठन के सदस्यों को बाजार मूल्य से कम दर पर उपलब्ध कराया जाता है...'

कार्तिक के सामने जैसे सामूहिक जीवन के नए पक्ष खुलते जा रहे थे। उसे लगा कि उसे भी ऐसा ही कोई प्रयोग करना चाहिए। अब लीना ने कहा,

'और मैं सबकी सेहत का ध्यान रखती हूँ। विशेषकर औरतों और बच्चों की सेहत का...'

'और थोड़ा बहुत मेरा भी ध्यान रख लेती हैं...'

अनिल ने कहा। सब ठठा कर हँसे।

अब वे एक बार फिर सामूहिक किचन के सामने थे।

किचन के सामने पड़ी टेबलों और कुर्सियों पर कुछ नए चेहरे दिखे।

अनिल ने परिचय कराते हुए कहा,

'बच्चों की विज्ञान पुस्तकों पर आज दिनभर बात होती रही है। ये हमारे युवा वैज्ञानिक हैं। आइए आपका परिचय कराऊँ...'

कार्तिक ने उत्सुकता से सबकी ओर देखा। अनिल ने कहा,

'ये हैं डॉ. अरविंद कुमार। दिल्ली विश्वविद्यालय के फिजिक्स विभाग में पढ़ाते रहे हैं। अब बच्चों की पुस्तकों पर ध्यान दे रहे हैं...'

एक तीखी नाक और पतली कमानी के चश्मे वाले साँवले से युवक ने हाथ बढ़ाते हुए कहा,

'हाय'

कार्तिक ने हाथ मिलाया।

'और ये डॉ. अनिता कुमार। समाज विज्ञानी हैं। बंबई यूनिवर्सिटी में हैं...'

एक सुकुमार सी बड़ी बड़ी आँखों वाली लड़की ने कहा,

'हल्लो...'

कार्तिक ने सिर हिलाकर अभिवादन का जवाब दिया।

'और ये डॉ. कुरैशी। अभी अभी मॉस्को से कंप्यूटर साइंस में पी.एच.डी. करके लौटे हैं...।'

डॉ. कुरैशी ने हँसते हुए कहा,

'मगर यहाँ कंप्यूटर नहीं पढ़ा रहा हूँ...'

अब अनिल ने आखिरी आदमी से परिचय कराया।

'ये डॉ. भट्ट। कार्यशाला के संयोजक। हमारे ब्रइटेस्ट स्टार...'

डॉ. कुरैशी ने फिर मजाक किया,

'हर चीज का संयोजन यही करते हैं। ये बात अलग है कि मुझे अंत में सब ठीक करना पड़ता है...'

सब खुलकर हँसे। सिर्फ डॉ. भट्ट गंभीर बने रहे। उन्होंने कार्तिक की ओर देखकर पूछा,

'और आपकी तारीफ?'

कार्तिक कुछ कहता उसके पहले ही अनिल ने कहा,

'ये कार्तिक हैं। युवा इंजीनियर हैं। इनकी भी रुचि विज्ञान और समाज में है। अपनी संस्था देखने समझने के लिए आए हैं...'

'फिर एक एन.जी.ओ. बनाएँगे?'

कार्तिक को डॉ. भट्ट की टोन में अजीब कड़वाहट सी लगी। क्या ये आदमी कुछ तंज कर रहा था? अब कार्तिक ने कहा,

'हो सकता है। इसकी कोई मनाही तो नहीं।'

डॉ. भट्ट ने व्यंग्य से ही जवाब दिया,

'नहीं नहीं मनाही क्यों होगी। इतने लोग बना रहे हैं एक और सही। पर अक्सर लोग बिना सोचे समझे एन.जी.ओ. बना लेते हैं। फिर परियोजनाएँ लेने में लग जाते हैं बस। सही मायने में सामाजिक कार्य कठिन काम है...'

अनिल ने किसी अप्रिय विवाद को टालने की गरज से कहा,

'कार्तिक उनमें से नहीं। यदि ये उनमें से होते तो मैं अपना इतना समय इन्हें कभी नहीं देता। कार्तिक भारतीय प्रशासनिक सेवा का मोह छोड़ चुके हैं। सही मायनों में विज्ञान के सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर काम करना चाहते हैं...'

डॉ. भट्ट कुछ कहते उसके पहले पंडित जी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा,

'खाना तैयार है।'

सभी लोग अपनी अपनी कुर्सियों से उठे। एक कोने में थालियाँ और कटोरियाँ जमी हुई रखी थीं। सबने अपनी थाली लगाई और वापस अपनी टेबल पर आ बैठे। रोटी, आलू की सब्जी, दाल चावल और आम का अचार कार्तिक को पहले कभी भी इतना स्वादिष्ट नहीं लगा था।

अनिल दिन भर की गतिविधियों पर साथियों से बातें करते जा रहे थे। कार्तिक बातचीत के स्तर और उसकी गंभीरता पर चकित था। वे सभी उच्चतम शिक्षा पाए हुए लोग थे। निश्चित ही कोई आदर्श था जो इस छोटे से गाँव के एक कोने में उन्हें शिक्षा के प्रयोग करने के लिए प्रेरित कर रहा था। कार्तिक को लगा वह भी उस आदर्श को मन में बसा ले।

जीप से स्टेशन लौटते समय अनिल ने कार्तिक से कहा,

'कोई भी काम करो मगर देखना कि स्थानीय जरूरतों और अपेक्षाओं के अनुरूप हो।'

कार्तिक ने कहा,

'ये मैं समझ चुका हूँ।'

'और दूसरी बात ये कि हम लोग पहले वैज्ञानिक हैं फिर सामाजिक कार्यकर्ता, ये ध्यान रखना। हमारे काम में, हमारे हस्तक्षेप में हमारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिखना चाहिए। कई बार हम सिर्फ राजनैतिक कार्यकर्ता रह जाते हैं। अपना प्रोफेशन, अपना आधार छोड़ देते हैं। तब हमारी मान्यता ही खत्म होने का खतरा हो सकता है। तुम इसका ध्यान रखना...'

'जी, याद रखूँगा।'

कार्तिक ने जीप से उतर कर कहा,

'आपसे और दोस्तों से मिलकर बहुत मजा आया। बहुत कुछ सीखने को भी मिला। उम्मीद है फिर मुलाकात होगी।'

अनिल ने हाथ मिलाते हुए कहा,

'दौड़िए आपकी ट्रेन आ रही है।'

ट्रेन पकड़ते समय कार्तिक का मन थोड़ा भारी हो गया था।

पूरी यात्रा में सरफराज चुप रहा था।

कार्तिक ने ट्रेन में बैठने के बाद पूछा,

'क्या बात है भाई? पूरी यात्रा में एकदम चुप्पी साधे रहे।'

'मैं उन लोगों को देख रहा था'

'क्या?'

'यही कि वे कैसे रहते हैं, कैसे काम करते हैं।'

'तो फिर क्या देखा?'

'कार्तिक, मैं उनसे पूछना चाहूँगा कि उनके पास पैसा कहाँ से आता है?'

कार्तिक को अचानक लगा कि सरफराज गंभीर बात कर रहा है। उसने गंभीरता से कहा,

'शायद उन्हीं परियोजनाओं से जिनकी डॉ. भट्ट बुराई कर रहे थे।'

'तो फिर फर्क कहाँ है?'

'फर्क उनकी ईमानदारी में हैं। वे ईमानदारी से नए काम करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे शायद कुछ बदले।'

'शायद'

सरफराज ने कहा और आँखें मूँद लीं।

कार्तिक अपनी आगे की कार्यवाही पर विचार कर रहा था।

'विकास भारती' से लौटने के बाद कार्तिक को अपना आगे का रास्ता साफ नजर आने लगा था।

उसने कार्यवाही को अंतिम स्वरूप देने के लिए एक छोटी सी बैठक बुलाई। बैठक में उसके अलावा रामनारायण और सरफराज शामिल थे।

कार्तिक ने बातचीत की शुरुआत करते हुए कहा,

'विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि का प्रचार करने की हमारी प्रारंभिक कोशिश बहुत हद तक सफल रही है। पर आप मानेंगे कि हम लगातार कैंपेन करते हुए नहीं रह सकते हैं। हमें अपने टिके रहने का रास्ता भी तलाशना होगा। हमारी अपनी जरूरतें भी हैं, घर परिवार हैं, उन्हें पूरी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता। सबसे अच्छा तो यह होगा कि हमारा काम और हमारा जीवन पूरी तरह एक हो जाए। मुझे इस दृष्टि से विकास भारती का मॉडल सही लगता है। हम सस्टेन भी कर सकते हैं और अपने काम के माध्यम से एक राजनैतिक पक्ष भी रख सकते हैं।'

अब उसने संक्षेप में विकास भारती के दौरे, उनके काम और निष्कर्षों को रखा। रामनारायण ने शंका जाहिर करते हुए कहा,

'संस्था बनाने का सबसे बड़ा खतरा ये है कि हमारा ध्यान आगे चलकर अपने मूल उद्देश्य से हटकर संस्था और उसके लोगों को बचाने में लग जाता है। फिर पैसा अपना प्रभाव अलग दिखाता है। अच्छे अच्छे लोगों में मतभेद पैदा कर देता है।'

कार्तिक ने कहा,

'मैं मानता हूँ कि तुम जो कह रहे हो, वह एक हद तक सही है। पर हमें कहीं तो शुरुआत करनी होगी। अगर हम अपने घर में बंद रहें तो शायद पूरी तरह पवित्र बने रह सकते हैं, हालाँकि मुझे उसमें भी संदेह है। जब हम बाहर निकलेंगे तो हो सकता है हम बदलें या हमारे विचार बदलें, हम उतने शुद्ध न रह पाएँ। हममें मतभेद हैं पर अगर हम अपनी सामूहिकता बनाए रखते हैं तो मतभेदों से पार पा सकते हैं। एक शक्ति बन सकते हैं।'

सरफराज ने कहा,

'हाँ, मगर दूसरी तरह से। अगर हम स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में जाते हैं तो पहली बात तो ये कि उसमें नवाचार के क्षेत्र में 'विकास भारती' जैसी संस्थाएँ हमसे काफी आगे हैं, वहाँ हम लीड नहीं ले सकते। फिर औपचारिक शिक्षा में भी प्रतिक्रियावादी ताकतें और अन्य समूह बहुत आगे हैं। उनके पास सैकड़ों-हजारों स्कूल हैं, संस्थाएँ हैं जो सस्टेन भी करती हैं, उनकी विचार धारा का प्रचार भी करती हैं। हमें कुछ नया काम सोचना चाहिए।'

रामनारायण ने पूछा,

'जैसे?'

कार्तिक ने कहा,

'जैसे नई तकनीक का प्रचार, ग्रामीण क्षेत्रों में कारीगरों की जरूरतों के अनुसार तकनीकी की तलाश उसके प्रयोग का विस्तार। इससे हमें कारीगर समूहों से मिलने में मदद मिलेगी, अपने आधार का विस्तार करने में मदद मिलेगी और कुछ परियोजना आधारित सहायता भी हम प्राप्त कर सकते हैं।'

'कहीं हम भटक तो नहीं रहे?'

'नहीं। समता आधारित समाज की स्थापना हमारा लक्ष्य है और यह विज्ञान तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर ही हो सकता है। अगर हम विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में रहते हैं तो अपनी बात ज्यादा ताकत से कह पाएँगे और कारीगरों के बीच काम करते हैं तो एक संगठन भी बना पाएँगे। यह एक अलग तरह का काम होगा और हमें विजिबिलिटी भी प्रदान करेगा।'

अब रामनारायण ने कहा,

'जैसे तुम कह रहे हो वह कन्विसिंग लगता है। शुरुआत करके देखते हैं।'

सरफराज ने भी कहा,

'ठीक है।'

इस तरह निर्णय हुआ था कि संस्था ग्रामीण तकनीक पर, कारीगरों के साथ, उनके लिए काम शुरू करे।

कार्तिक को एक दिशा मिल गई।

वह एक बार फिर दीपू के पास पहुँचा और पिछले कुछ महीनों की खोज के अपने अनुभव सुनाए। उसने बताया कि उन्होंने ग्रामीण तकनीक पर काम करने का निर्णय लिया है और इसके लिए दुर्ग और बैतूल जिलों के आदिवासी इलाकों को चुना है।

दीपू कार्तिक के अनुभव सुनकर बड़ा खुश हुआ था। उसने कहा था,

'अब उन इलाकों में रहने वाले कारीगरों और उनकी तकनीकों के बारे में जानना है। तुम एक सर्वेक्षण का प्रस्ताव बना लो। मैं डॉ. जॉन से बात करता हूँ।'

कार्तिक ने बड़ी मेहनत से उन दोनों जिलों के कारीगरों के सर्वेक्षण के प्रस्ताव बनाए थे। दीपू ने डॉ. जॉन से बात भी कर ली थी। वे समाज और विज्ञान से संबंधित कार्यक्रमों को देखते थे। उन्हें कार्तिक के प्रस्ताव पसंद आए थे और उन्होंने उन्हें पास कर दिया था।

अब कार्तिक का काम बहुत बढ़ गया।

वह दोनों जिलों में घूमता फिरता। बाँस, मिट्टी, चमड़े पर काम करने वाले जाने कितने कारीगर समूह थे जो धीरे धीरे समाज की परिधि पर धकेले जा रहे थे क्योंकि उनके पास नई तकनीकें नहीं थीं या बाजार नहीं था। एक छोटे से इनपुट से उनकी उत्पादकता और आय बढ़ सकती थी। ये इनपुट उन्हें मिल नहीं रहा था। मछुआरे अलग थे और तालाबों के ठेके किसी और के पास थे। इमली बीनने वाले अलग थे और कोल्ड स्टोरेज पर किसी और का कब्जा था। बाँस पर काम करने वालों के पास हुनर था पर उन्हें बाँस नहीं मिलते थे क्योंकि उन्हें कागज बनाने की मिलों में ले जाया जाना था। हथकरघा कारीगर भूखों मर रहे थे क्योंकि मिलों के कपड़ों के सामने वे प्रभावी बाजार पैदा नहीं कर पा रहे थे।

दूसरी ओर बहुत सारा पारंपरिक ज्ञान था जो उन्हीं लोगों के बीच बिखरा पड़ा था और जिसे व्यवस्थित किए जाने की जरूरत थी। वे दवाईयों का गुण रखने वाले पौधों के बारे में जानते थे, वे कृषि के ऐसे तरीके जानते थे जिनमें रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होती, वे जंगल के उत्पादों को पहचानते थे और उनकी नेचुरल साईकिल से परिचित थे, उनके पास भूमि, वृक्षों तथा मौसम आदि जानवरों संबंधी जानकारी का अपार खजाना था।

विज्ञान का कितना बड़ा काम उन लोगों के लिए, उनके साथ मिलकर किया जा सकता था। एक ओर पारंपरिक ज्ञान को सहेजने की जरूरत थी और दूसरी ओर नई तकनीकों को उन तक पहुँचाने की आवश्यकता थी। वह अपना पूरा जीवन इस काम में लगा सकता था।

कार्तिक ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में इसी बात को रखा। उसकी रिपोर्ट को भी बहुत पसंद किया गया। डॉ. जॉन ने कहा कि वह एक दो समूहों का चयन कर ले जिनके साथ वह काम करना चाहेगा। समाज और विज्ञान विभाग को उसके साथ काम करने में खुशी होगी।

कार्तिक ने कुम्हारों और बाँस का काम करने वाले कारीगरों के दो समूह चुने और उनके लिए नई तकनीक का प्रयोग करने की परियोजना बनाई। परियोजनाएँ पास हो गईं और उसे तीन सालों के लिए सरकारी मदद मिल गई।

अब वह और भी अधिक व्यस्त हो गया। उसे कारीगरों से बात करनी थी और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में जाकर उनके लिए तकनीकी की तलाश भी करनी थी। बाजार से नई मशीनों का चयन करना था। फिर कारीगरों को मनाना भी था कि वे उन्हें स्वीकार करें।

व्यस्तता थी, पर इस काम से उसके जीवन में एक नया संतुलन आ गया था। अब वह नीति को और अपने परिवार को सपोर्ट कर सकता था और फिर भी अपने मन का काम करते रह सकता था। वह सीधे विज्ञान और तकनीक के सामाजिक प्रयोग पर काम कर रहा था। इससे उसकी समझ में भी इजाफा हो रहा था।

वे लोग बीच बीच में विज्ञान संबंधी सामाजिक मुद्दों को उठाते। गैस त्रासदी से प्रभावित लोगों की लड़ाई जारी थी। कभी स्वास्थ्य, कभी रोजगार और कभी मुआवजे के लिए कार्तिक और उसके दोस्त लड़ते पाए जाते। पानी और पर्यावरण के लिए काम करने वाले समूहों से उनके रिश्ते बनने लगे थे। प्रदेश में भी करीब दस जिलों में उनके संगठन ने इकाइयाँ बना ली थीं। पीछे कारीगर आधारित उत्पादक इकाइयाँ थीं और सामने कैंपेन करने वाले समूह जिनमें कॉलेज के छात्र, शिक्षक, पत्रकार तथा वैज्ञानिक शामिल थे।

कार्तिक के प्रदेश में एक नई तरह का संगठन आकार ले रहा था और उसकी कीर्ति पार्टी के भीतर तथा बाहर और देश के अन्य राज्यों में फैलनी प्रारंभ हो गई थी।

सरफराज कार्तिक के साथ साथ ही रहता था।

कभी सर्वेक्षण में मदद करते हुए, कभी कारीगरों के काम में हाथ बँटाते, कभी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में खोजबीन करते और कभी कार्यशालाओं में भाग लेते हुए।

वे अक्सर साथ साथ यात्रा करते। रेलगाड़ियों का सफर और बसों की यात्राएँ उन्हें एक दूसरे के बारे में जानने का अच्छा अवसर प्रदान करती थीं। वह आंदोलन के बारे में समझ बनाने का भी मौका होता था।

ऐसी ही एक यात्रा में, जब ट्रेन तेज गति से भागती चली जा रही थी, और होशंगाबाद के आसपास का जंगल, विशाल नर्मदा नदी तथा उसका सुरम्य इलाका अभी-अभी मन में ताजगी भरता हुआ निकला ही था, कि कार्तिक ने सरफराज से पूछा,

'अच्छा, ये बताओ ये तुम ऊपर की बर्थ पर सामान रखने से इतना डरते क्यों हो?'

'सीधी सी बात है। कहीं सिर पर न गिर पड़े।'

'ऐसे कैसे गिरेगा? वह पूरी बर्थ की चौड़ाई घेर कर रखा गया है। सामने उसके स्ट्रैप्स की रोक भी है। फिर गिरेगा तो हमारे हटने की संभावना भी तो रहेगी।'

'कभी कभी संभावना नहीं भी रहती...।'

सरफराज अचानक गंभीर हो गया था और खिड़की के बाहर देखने लगा था। कार्तिक को लगा उसकी आँखों की कठोर में शायद आँसू थे। उसने पूछा,

'क्या बात है सरफराज...।'

'यूँ ही, पिताजी की याद आ गई थी...'

'अचानक कैसे...।'

'अचानक नहीं, तुमने ऊपर से सामान गिरने की बात की उससे याद आई। वे स्टील प्लांट में कैरियेज ड्राइवर थे। पिघला हुआ लोहा उनकी कैरियेज में भरा जाता था और वे उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाते थे। एक बार पता नहीं कैसे वह पिघला हुआ लोहा उन पर गिर पड़ा। उनका और कैरियेज का कोई पता नहीं चला...'

'ओह...'

कार्तिक से और कुछ कहा नहीं गया। कभी कभी किसी सामान्य बात से ही कैसी गंभीर चिंता निकल आती थी। सरफराज दिल में कितनी बड़ी खराश छुपाए बैठा था। इंडस्ट्रियल सिक्यूरिटी को लेकर उसकी चिंता बेमानी नहीं थी, बहुत व्यक्तिगत थी।

'जब पिताजी गए तो मैं बहुत छोटा था। घर की हालत भी कुछ ऐसी नहीं थी कि सबका काम चल सके। भाइयों ने छोटे छोटे काम हाथ में लिए। मैं पढ़ने में ठीक था तो इधर निकल आया।'

'और पार्टी में...।'

'पहले छात्र आंदोलन में था। वहाँ से धीरे धीरे पार्टी की ओर बढ़ा। फिर तय किया इसी में रहूँगा...'

इस घटना ने सरफराज को समझने में कार्तिक की मदद की थी। उसके मन में सरफराज के लिए स्नेह बढ़ गया था। पहले की तनावपूर्ण घटनाओं को उसने पीछे धकेल दिया था। अच्छा आदमी तो था सरफराज! एक सामान्य भावुक आदमी...

लेकिन इसी बीच सरफराज का एक और रंग कार्तिक को देखने मिला।

दुर्ग और बैतूल के सर्वेक्षणों के बाद कार्तिक की संस्था में सर्वेक्षण करने की क्षमता विकसित हो गई थी। समूहों का चयन कैसे करना है, सैंपलिंग कैसे करनी है, सर्वेक्षण टीमों का गठन कैसे होगा और डाटा कैसे प्रोसेस किया जाएगा इस बारे में उनकी समझ साफ होती गई थी।

इस आधार पर कार्तिक ने सोचा कि उन्हें कुछ और सर्वेक्षण हाथ में लेने चाहिए। एक तो उससे कुछ पैसा प्राप्त हो सकेगा और दूसरे काम के नए रास्ते तलाश करने में मदद मिलेगी। सो उसने सर्वेक्षण कराने वाले कुछ विभागों में संपर्क किया। इस बार झुग्गी बस्तियों तथा शहरी क्षेत्रों को उसने अपना लक्ष्य बनाया था। उन्हें दो शहरों के सर्वेक्षणों का काम प्राप्त भी हो गया।

काम प्राप्त होने पर सरफराज कार्तिक से मिला। उसने कहा,

'कार्तिक, शहरी क्षेत्रों के सर्वेक्षण का काम मैं करना चाहूँगा।'

'बाई ऑल मींस। तुम तय कर लो कब से शुरू करोगे। मुझे बता देना।'

कार्तिक ने सरफराज को पूरा काम समझा दिया। कुल तीन महीने में ही काम पूरा भी होना है, समझाया। उसे काम सौंपकर वह निश्चिंत हो गया।

करीब ढाई महीने बाद, जब वह कारीगरों के प्रशिक्षण के बाद लौटा तो उसने सर्वेक्षण की खोज खबर ली, अब रिपोर्ट जमा करने का वक्त आ रहा था। उसने सरफराज से पूछा,

'सरफराज, सर्वेक्षण के क्या हाल हैं।'

उसने गोल मोल सा जवाब दिया,

'चल रहा है।'

'पर अब तो खत्म होने का समय आ रहा है।'

'चलो, देखते हैं।'

'क्या मतलब?'

'आओ तो!'

सरफराज ने कार्तिक को अपने दुपहिया वाहन पर पीछे बिठाया और विश्वविद्यालय के पास वाले मोहल्ले में ले गया। एक मोड़ पर मुड़ते हुए सरफराज ने कहा,

'देखूँ आज भी मिलता है या नहीं।'

'आखिर कौन?'

'तुम्हें बता दूँगा कुछ देर में।'

वे एक मकान के सामने रुके। वहाँ ताला लटक रहा था। सरफराज ने कहा,

'साला आज भी नहीं मिला।'

अब कार्तिक का धैर्य साथ छोड़ने लगा,

'कुछ बताओगे भी। बात क्या है?'

'असल में सर्वेक्षण का काम मैंने दहिया को सौंप दिया था। पहले तो उसने बड़ी रुचि दिखाई। फिर जैसे ही फील्ड वर्क का समय आया गायब हो गया।'

'और एडवांस जो मैंने तुम्हें दिया था?'

'वह मैंने उसे ही दे दिया था।'

कार्तिक ने सिर पकड़ लिया। पैसा हाथ से निकल चुका था। काम रत्ती भर भी नहीं हुआ था। उसने गुस्से से कहा,

'तुम्हें मुझसे पूछना तो चाहिए था।'

'मुझे लगा मैं करवा लूँगा।'

'मैंने काम तुम्हें दिया था। दहिया को नहीं। उसे तो मैं जानता भी नहीं। किसी अनजाने व्यक्ति को लाने के पहले तुम्हें मुझसे बात करनी चाहिए थी।'

सरफराज उस समय चुप रहा था। पर उसके बाद उसने मुड़ कर भी नहीं देखा। उसे बिल्कुल भी महसूस नहीं हुआ था कि सर्वेक्षण समय पर समाप्त होना चाहिए, कि फील्ड वर्क और रिपोर्ट बनाने के काम में कम से कम दो महीने और लगने वाले थे, कि पैसा लगभग खत्म हो चुका था।

कार्तिक ने एक दो बार उसे फोन किया पर सरफराज ने बात मुँह पर नहीं ली।

वह असफलता की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था।

अब कार्तिक ने ही एक बार फिर सर्वे टीम का गठन किया। दूसरी परियोजनाओं में से कतर ब्योंत करके कुछ धन की व्यवस्था की और फील्ड वर्क करवाया। फील्ड वर्क पूरा होने के बाद सरफराज फिर कार्तिक के पास आया,

'मैं रिपोर्ट लिखवा देता हूँ।'

'सरफराज सर्वे पहले ही दो महीने लेट हो चुका है। विभाग में हमारी आलोचना हो रही है। अब अगर रिपोर्ट में देरी हुई तो और बात बिगड़ेगी।'

'कुछ नहीं बिगड़ेगी। असल में तुम मुझे काम नहीं करने देना चाहते।'

'ये क्या बात हुई? सर्वे तुम्हारे ही जिम्मे छोड़ा गया था। तुमसे हो नहीं पाया तो मैं जैसे तैसे पूरा करवा रहा हूँ। तुम्हें तो आभारी होना चाहिए।'

'अगर दहिया भाग गया तो मेरा क्या दोष?'

'चलो अच्छा, रिपोर्ट का काम तुम करवा लो। पर ये तो बताओ किससे करवाओगे?'

'डॉ. कुमार से।'

डॉ. कुमार अपने ढीलेपन और आलस्य के लिए प्रख्यात थे। वे समय पर काम करेंगे इसमें कार्तिक को बड़ी शंका थी। फिर भी उसने कहा,

'कोशिश कर लो। पर जिम्मेदारी से करवाना।'

कार्तिक की शंका सही साबित हुई। कुमार ने काम ले लिया पर महीने भर तक कुछ भी नहीं किया। फिर वे पोलैंड चले गए। कार्तिक के मन में सरफराज को लेकर बेहद गुस्सा था। उसने उसे बुलाकर पूछा,

'अब?'

'मैं क्या करूँ? कुमार ने काम किया ही नहीं।'

'तुमने उसे दिया क्यों? तुम्हें मालूम नहीं था कि वह बहुत ही ढीला आदमी है और दूसरे कामों में मसरूफ रहता है? मैंने पहले भी तुम्हें चेताया था। अब कह रहे हो कि मैं क्या करूँ? आखिर जिम्मेदारी भी कोई चीज होती है। इस तरह की गैर जिम्मेदाराना हरकतों से कोई विज्ञान संगठन नहीं बन सकता।'

अब कार्तिक ने डॉ. खन्ना से बात की। उन्होंने पंद्रह दिनों में रिपोर्ट तैयार करने का वादा किया और उसे पूरा भी कर दिया। रिपोर्ट प्रोजेक्ट की समय सीमा से करीब तीन महीने बाद सबमिट हो पाई। पर रिपोर्ट अच्छी बनी थी। निष्कर्ष भी सही निकाले गए थे। उसकी प्रशंसा हुई और कार्तिक के संगठन को और काम देने का तय किया गया।

जब कार्तिक रिपोर्ट जमा करके वापस आया तो उसने सुना सरफराज ऑफिस में किसी से कह रहा था,

'कार्तिक किसी को काम नहीं करने देना चाहता। इस सर्वे के प्रोजेक्ट से उसने मुझे दो बार हटाया। मैं देखता हूँ ये कैसे काम कर पाता है...'

कार्तिक को धक्का सा लगा था। ये कैसी दुहरी नीति थी। उसकी अच्छाई का फायदा भी उठाओ, उसी की आलोचना भी करो। अपनी असफलता को दूसरे की आलोचना के पीछे छुपाओ, ये बहुत ही जहरीला काम था।

पर वह चुप रहा। सरफराज को देखते रहना होगा, उसने सोचा।

दुर्ग और बैतूल के कारीगर समूहों के साथ उनका काम बढ़ता चला गया था। कुम्हारों के लिए उन्होंने नए किस्म के चाक, जो मोटर से संचालित होते थे और मेहनत बचाते थे, इंट्रोड्यूस किए, बर्तनों को पकाने और नए रंग देने की कला भी वे सीखकर आए और अपने कारीगरों को सिखाने लगे। बाँस के कारीगरों के लिए नए औजार भी उन्होंने तैयार करवाए। अब कारीगर ज्यादा माल, कम कीमत पर और कम मेहनत से बना पाते थे। कार्तिक का संगठन लोकप्रिय होता जा रहा था।

कार्तिक अक्सर सरफराज को अलग अलग जिलों में कारीगरों के प्रशिक्षण के लिए, बाजार तलाशने के लिए या नया काम दिलवाने के लिए भेजता था पर हर बार उसे ये जानकर आश्चर्य होता था कि सरफराज दो तीन दिनों में ही वापस चला आता था। हर बार उसके पास कोई न कोई बहाना होता था। कभी तबियत खराब होने का, कभी कारीगरों के न मिल पाने का। कभी पैसा खत्म हो जाने का, कभी पार्टी की ओर से अचानक बुलावा आ जाने का।

जब ये एक पैटर्न ही बन गया तो कार्तिक ने सोचना शुरू किया कि वह ऐसा क्यों करता है? उसने रामनारायण से बात की। रामनारायण बहुत स्पष्ट था,

'वह केंद्र में या उसके आसपास ही रहना चाहता है।'

'क्यों, उसकी तो फील्ड में बहुत रुचि थी!'

'तब तक जब तक कि वह वहाँ का काम न समझ ले, पर अंत में उसे केंद्र पर कब्जा करना है।'

ये कैसी भाषा थी? क्या हम लोग केंद्र पर कब्जा करने या कैरियर बनाने या धन कमाने के लिए विज्ञान आंदोलन में थे। कम से कम कार्तिक तो ऐसा नहीं सोचता था। वह पहले ही तीन चार नौकरियाँ छोड़ चुका था और वे सभी उच्च पदों की नौकरियाँ थीं। उसे लगता था कि विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि का प्रचार वाकई एक जरूरी काम है, सामाजिक जरूरत का काम, और वह अपना जीवन उसमें खपा सकता है। उसने पूछा,

'केंद्र पर कब्जा करके क्या करेगा?'

'तुम्हें कंट्रोल में रखेगा। अपने लिए जगह बनाएगा, पार्टी और आंदोलन में महत्वपूर्ण बनेगा।'

'और उन लोगों का क्या जिनके लिए हम ये काम कर रहे हैं?'

'फिलहाल वे शायद उसकी प्राथमिकता में नहीं।'

'ये बहुत ही घटिया सोच है। मैं उससे सहमत नहीं। मैं विज्ञान आंदोलन को देश में जारी परिवर्तन की कार्रवाई का ही हिस्सा मानता हूँ। इस विचार को छोड़ देने के बाद हमारे काम का कोई महत्व नहीं रह जाता। वह किसी भी सरकारी विभाग द्वारा किए जा रहे एक्सटेंशन वर्क की तरह हो जाता है।'

'तुम आदर्शवादी आदमी हो। व्यावहारिक राजनीति के लायक नहीं।'

'हो सकता है पर मैं जैसा हूँ वैसा ही रहना चाहता हूँ।'

'थोड़ा बदलो, नहीं तो तकलीफ पाओगे।'

कार्तिक को उस वक्त क्या पता था कि रामनारायण एक हद तक सच कह रहा है।

अब कार्तिक ने खुद जिलों में जाना शुरू किया।

कारीगरों के छोटे छोटे गाँवों में, उनके बीच उठते बैठते, उनकी समस्याओं को समझते, चौबारों और चौपालों में बतियाते वह हफ्तों गुजार देता। उसे वहाँ अच्छा भी लगता।

ऐसे ही एक लंबे दौरे के बाद जब वह शहर लौटा तो नरेंद्र उसका इंतजार कर रहा था। वह उसे अलग ले गया। बोला,

'कार्तिक तुमसे एक जरूरी बात करनी है।'

'आखिर ऐसी क्या बात है। मैं आज ही तो लौटकर आया हूँ। हम एक दो दिन बाद कर लेंगे।'

'नहीं आज ही करनी है।'

'अच्छा, चलो बताओ।'

नरेंद्र ने कुछ सोचकर कहा,

'कार्तिक तुम सरफराज पर जरूरत से ज्यादा विश्वास कर रहे हो।'

'क्यों? तुम ऐसा कैसे कह सकते हो?'

'क्योंकि मैंने अपनी आँखों से देखा है।'

'क्या?'

'जब तुम नहीं रहते हो तो सरफराज तुम्हारी टेबल और अल्मारियों की तलाशी लेता है।'

'क्या कह रहे हो?'

'हाँ वह तुम्हारी चेक बुक, पास बुक और फाइलें चेक कर रहा था। उसने कुछ कागजों की फोटोकॉपी भी कराई। उसे लगा कि उसे किसी ने देखा नहीं, पर मैंने सारी कार्रवाई अपनी निगाहों से देखी।'

'अव्वल तो मेरे पास कुछ भी छुपाने के लिए नहीं है। मेरी दराजें और अल्मारियाँ खुली ही रहती हैं। उसने कुछ निकाला और देखा तो उसमें कोई बुराई नहीं।'

'पर वह तुम्हारे आने का इंतजार कर सकता था। इस तरह की जासूसी का क्या मतलब है?'

'चलो मैं पता करूँगा। तुम चिंता मत करो।'

कार्तिक ने कहा, ऊपर से वह शांत था पर उसे दिल में बहुत तकलीफ हुई थी। आखिर सरफराज ये सब क्यों कर रहा था? वह मुझसे बात भी कर सकता था। उन दोनों के बीच वैसे भी ज्यादा कुछ छुपा हुआ नहीं था। वह सिद्ध क्या करना चाहता था? और किसे? कार्तिक की इच्छा हुई कि वह सीधे सरफराज से बात करे। वह पार्टी ऑफिस की ओर चल पड़ा था।

सरफराज ऑफिस में नहीं था। पूछने पर राजू ने बताया कि वह पीछे कॉमरेड श्यामलाल के यहाँ बैठा है।

कॉमरेड श्यामलाल बगल वाली गली में रहते थे। पहली मंजिल पर जाफरी वाला मकान, जिसके सामने पतला सा छज्जा था, जिसमें से होकर उनके घर जाया जाता था।

कार्तिक जीने से ऊपर चढ़ा। वह अभी छज्जे पर ही था कि उसे अपना नाम सुनाई पड़ा। जाफरी के दूसरी तरफ पर्दा पड़ा था और शायद अंदर बैठे लोगों ने उसे आते नहीं देखा था।

सरफराज कह रहा था,

'कॉमरेड, कार्तिक प्रोजेक्ट पर प्रोजेक्ट लिए जा रहा है। उसका आंदोलन की तरफ कोई ध्यान नहीं है। वह हम लोगों से बात भी नहीं करता है।'

कार्तिक अचानक रुक गया। सरफराज सरासर झूठ बोल रहा था। हर बात, हर परियोजना उससे पूछ कर ली जाती थी। उनके क्रियान्वयन में वह शामिल था। बल्कि कार्तिक उसे पार्टी के प्रतिनिधि की तरह ही सारी जानकारी देता था और उम्मीद करता था कि वह उसे पार्टी सचिव तक पहुँचा रहा होगा। पर यहाँ तो बिल्कुल उल्टा ही हो रहा था। जानकारी दी जा रही थी पर गलत।

कॉमरेड मोहन ने पूछा,

'तो तुम विरोध क्यों नहीं करते?'

'करता हूँ कॉमरेड पर वह मेरी बात नहीं सुनता।'

'और रामनारायण।'

'वह भी कार्तिक के साथ है।'

एक बार फिर झूठ। एक लंबे समय से कार्तिक रामनारायण से नहीं मिला था। सिवा औपचारिक चर्चा के, उसकी परियोजनाओं को लेकर रामनारायण से कोई बात नहीं होती थी। सरफराज पार्टी को गलत निष्कर्ष पर पहुँचा रहा था। और वे पहुँच भी रहे थे। कॉमरेड मोहन ने पूछा,

'तो क्या करना चाहिए?'

'आप आइए कॉमरेड। कमिटी में आप आइए तो हम लोग कंट्रोल कर पाएँगे।'

तो कार्तिक अलग था और सरफराज अलग? कार्तिक कंट्रोल किए जाने वाली चीज था और सरफराज इसके लिए हथियार? क्या वह खुद ही हथियार नहीं बनना चाहता था? और इस तरह अपनी ताकत बढ़ाना चाहता था? शायद इस तरह वह अपने व्यक्तित्व की कमी को भरना चाहता था। तकनीकी ज्ञान या भाषा या सामाजिक ज्ञान के क्षेत्र में उसे हर समय एक निम्नता बोध से गुजरना पड़ता था हालाँकि कार्तिक की कोशिश हर समय बिना जताए मदद करने या हैंड होल्डिंग करने की रहती थी। हो सकता है कि सरफराज को वह निम्नता बोध सालता हो और वह इस तरह से उसे डॉमिनेट करके बराबरी पर आना चाहता हो?

वैसे करने को और भी बहुत सी बातें थीं। बाँस के कारीगरों को बाँस मिलने में बहुत दिक्कत हो रही थी और वे फॉरेस्ट के कर्मचारियों से परेशान भी हो रहे थे। उन्हें लेकर आंदोलन चलाया जा सकता था। कुम्हारों के बीच संगठन निर्माण किया जा सकता था, उनसे निकटता बढ़ी थी। पास ही बेतवा नदी में शराब का कारखाना बड़े पैमाने पर रासायनिक अवशिष्ट छोड़ रहा था और पानी के प्रदूषण की बड़ी समस्या थी, उसे उठाया जा सकता था।

पर सरफराज, कॉमरेड मोहन और कॉमरेड श्यामलाल किसी और चर्चा में लगे थे। उनके लिए कार्तिक को कंट्रोल करना ज्यादा जरूरी था।

कार्तिक खड़े खड़े जलने लगा। उसे लगा कि भीतर जाए और कहे कि कॉमरेड मैंने आपकी बातें सुन ली हैं और आपकी सोच बहुत ही घटिया है। आपमें इतना भी धैर्य नहीं कि किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले जाँच लें।

पर फिर उसे लगा कि किसी की बात सुनने या समझने के लिए सहानुभूति या सह-अनुभूति पहली शर्त है। वह अपनी बात शायद इन्हें समझा नहीं पाएगा। वह उल्टे पाँव वापस लौट आया।

कॉमरेड मोहन को अब पार्टी की ओर से विज्ञान आंदोलन की समिति का पूर्णकालिक सचिव बना दिया गया। इसी के साथ कार्यालय में पार्टी का हस्तक्षेप भी बढ़ गया।

सरफराज कार्यालय में पार्टी की लिंक की तरह काम करता था। उसके लिए विज्ञान आंदोलन के अपने काम, परियोजनाओं को पूरा करने की तिथियाँ, तकनीकी और वैज्ञानिक पक्षों की जरूरतें कोई मायने नहीं रखती थीं। या कम से कम वह उन्हें दूसरे नंबर पर रखता था। नए कार्यकर्ताओं और साथियों को वह अक्सर गलत सलत जानकारियों से प्रभाव में लाने की कोशिश करता, इसमें कार्तिक की आलोचना भी शामिल रहती थी। कार्तिक की आलोचना वह अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए भी करता था। ऑफिस में एक अजीब षड्यंत्र का वातावरण बन गया। पहले सत्ता के दो केंद्र विकसित हुए। एक कार्तिक के पास जो वास्तविक काम, और वैज्ञानिकता के आसपास था और दूसरा सरफराज के पास जो उसने पार्टी के नाम पर विकसित किया था और जिसे वह कार्तिक के पीछे, उसे विचलित करने और अपनी ताकत बढ़ाने के लिए संचालित करता था।

ऑफिस के साथी बहुत जल्दी इन केंद्रों को समझ गए और एक या दूसरे के निकट जाने की कोशिश करने लगे। ये निकटता अपनी कमजोरियों को छुपाने, कामचोरी को बढ़ावा देने और पैसा कमाने के लिए भी प्रयुक्त की जाने लगी। एक साल में ही ऑफिस का वातावरण नष्ट हो गया। षड़यंत्र, आलोचना-प्रत्यालोचना, एक दूसरे के ऊपर गंदे हमले, तरह तरह की बातें सुनाई पड़ने लगीं।

कार्तिक उस पूरे खेल को समझता था। पर वह ये समझ नहीं पाता था कि इसे खेला क्यों जा रहा है। क्या पार्टी ये बात नहीं समझती है कि भले ही विज्ञान, कला और इस तरह के अन्य अनुशासन, सुपरस्ट्रक्चर का हिस्सा हों पर उनकी एक तरह की स्वतंत्र सत्ता होती है और उसे बने रहने देने, उसका विस्तार होने देने और उससे संवाद बनाए रखने में ही पार्टी का हित तथा विस्तार होने की संभावना है। या फिर पार्टी के नेताओं की दृष्टि और दिल इतना छोटा है कि वे नाक के आगे देख नहीं पाते और अन्य किसी भी पहल को अपने में समाहित नहीं कर पाते...?

पहले तो कार्तिक ने ये नीति बनाई थी कि वह अपने काम से काम रखेगा और विज्ञान प्रचार प्रसार के अपने काम पर केंद्रित रहेगा लेकिन जब वातावरण बहुत ही खराब हो गया और ऑफिस में काम करना संभव नहीं रहा तब उसने पार्टी समिति की बैठक बुलाई। उसने कॉमरेड मोहन से कहा,

'कॉमरेड इस तरह से हमारे कार्यालय का काम नहीं चल सकता।'

कॉमरेड मोहन के चेहरे पर एक अजीब संतोष की छाया थी। उन्हें शायद इस बात से सुख मिल रहा था कि उन्होंने कार्तिक के कार्यालय में गड़बड़ी पैदा कर उसे पार्टी के पास आने के लिए मजबूर कर दिया था। उन्होंने भोले बनते हुए पूछा,

'क्यों कॉमरेड? ऐसी क्या बात है?'

'कॉमरेड जहाँ तक मैं समझता हूँ पार्टी समिति का काम नीति निर्धारण का है, रोजाना के कार्यों को संचालित करने या छोटी छोटी बातों में हस्तक्षेप करने का नहीं। सरफराज ने ये नीति बना ली है कि पहले तो वह हर काम को रुकवा देता है, फिर कहता है पार्टी से पूछना पड़ेगा। अगर हमें कुर्सी टेबल लगाने के पहले, कर्मचारियों को काम देने के पहले, उनकी मॉनीटरिंग करने के पहले, हर बात पर पार्टी से पूछना पड़ेगा तो हमारी ऑटोनॉमी क्या रह जाएगी? हम अपनी पहल कैसे बना पाएँगे? समय पर काम कैसे निबटा पाएँगे जिसकी हमसे अपेक्षा की जाती है?'

कॉमरेड मोहन ने शांतिपूर्वक कहा था,

'पार्टी आपके आंदोलन को डेमोक्रेटाइज करना चाहती है। हम उसी दिशा में प्रयास कर रहे हैं।'

'ये डेमोक्रेटाइज करना नहीं है। ये उसे किल करना है, खत्म करना है। जब कुछ बचेगा ही नहीं तो आप डेमोक्रेटाइज किसे करेंगे? और बचेगा इसलिए नहीं कि विज्ञान एक अलग अनुशासन है, उसे उसकी शर्तों पर समझे बिना हम उसका संचालन नहीं कर सकते। मुझे लगता है कि आपका दृष्टिकोण संकुचित है।'

अब सरफराज ने गुस्सा होते हुए कहा,

'आप कॉमरेड से इस तरह से बात नहीं कर सकते।'

'किस तरह से?'

'जैसे आप कर रहे हैं।'

'मैं उन्हें बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि पार्टी का एटीट्यूड घातक है। इससे एक उभरते आंदोलन को नुकसान पहुँचने की संभावना है।'

'पार्टी खुद समझ लेगी।'

'मैं अपने आपको पार्टी का अंग मानता हूँ।'

इस पर सरफराज चुप हो गया। अब कॉमरेड मोहन ने कहा,

'आपकी समस्या क्या है?'

'मेरी समस्या ये है कि मुझे ऑफिस में ठीक से काम नहीं करने दिया जा रहा और ये सब पार्टी के नाम पर हो रहा है। मुझे लगता है कि विज्ञान एक 'अनुशासन' है और उसे उसकी शर्तों पर ही देखा जाना चाहिए। पार्टी से उसका रिश्ता हॉरिजेंटल हो सकता है, वर्टिकल नहीं। कम से कम इस समय तो फैलने की संभावना है, कंट्रोल बाद में भी किया जा सकता है, ज्यादा समझदारी के साथ। और अगर ये संभव नहीं तो मैं काम करना नहीं चाहूँगा। सरफराज ही इसे चला लें...'

कार्तिक नाराज हो गया था। कॉमरेड मोहन ने कहा था,

'पार्टी आपकी बात पर विचार करेगी...।'

और बैठक समाप्त कर दी थी।

लेकिन सरफराज के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था। बल्कि कॉमरेड मोहन की शह मिलने के कारण वह और ढीठ हो गया था। अब उसने काम की चिंता करना और भी कम कर दिया था। काम की तारीखें निकल जाती थीं, खराब मटेरियल खरीद लिया जाता था, कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण नहीं हो पाता था पर उसे चिंता नहीं थी।

एक दिन इसी तरह, जब एक जरूरी रिपोर्ट जिसको बनाने की जिम्मेदारी सरफराज की थी, को जमा करने की तारीख आ गई और सरफराज ये जानते हुए भी ऑफिस से गायब हो गया, तो कार्तिक का गुस्सा फट पड़ा।

उसने नरेंद्र से पूछा,

'सरफराज कहाँ है?'

'पार्टी ऑफिस से फोन आया था। वहीं गया होगा।'

कार्तिक ने फोन लगाया,

'सरफराज है?'

'हाँ, एक मीटिंग में है।'

'उसे बुलाइए।'

'मैंने कहा तो, एक मीटिंग में है। खत्म होने पर बात कर लेगा।'

'मैंने भी कहा तो, उसे बुलाइए, नहीं तो मैं खुद वहाँ आता हूँ।'

कुछ देर उधर से चुप्पी रही। फिर सरफराज की आवाज आई,

'हाँ कार्तिक, क्या बात है?'

'तुम्हें पता है कि विज्ञान विभाग के लोग कल आ रहे हैं। अपने पूरे काम का रिव्यू है। तुम्हें रिपोर्ट तैयार करनी थी। पर तुम गायब हो।'

'यहाँ छात्र आंदोलन की बैठक थी। मैं उसमें भी हूँ। कॉमरेड मोहन का फोन आया था। मैं आ गया।'

'पर मुझे बता कर जाना चाहिए था। ये भी महत्वपूर्ण काम है। और तुम्हारी मूल जिम्मेदारी यही है।'

'मुझे जो ठीक लगा वह कर रहा हूँ।'

कार्तिक आग बबूला हो गया।

'ये क्या बात हुई? तुम एक विज्ञान संगठन में काम करते हो। और मैं उसका प्रमुख हूँ। डेडलाइन, प्रदर्शन, परफॉर्मेंस, इवेल्यूएशन जैसी भी कुछ चीजें होती हैं। तुम्हारी मूल जिम्मेदारी इन्हें निभाने की है। छात्र आंदोलन की नहीं।'

'कॉमरेड मोहन का फोन आया था।'

'तो मेरी कॉमरेड मोहन से बात कराओ। मैं उनके कहे को भी ब्रह्मवाक्य नहीं मानता। मुझे लगता है कि हमारे आंदोलन को लेकर उनकी समझ भी बहुत अच्छी नहीं है...'

इसके बाद कार्तिक बहुत देर तक विज्ञान आंदोलन की जरूरतों, पार्टी में उसको लेकर समझ की कमी और कॉमरेड मोहन तथा सरफराज के ऊपर गुस्सा होता रहा था। उधर से सरफराज ने तर्क करना बंद कर दिया था। वह सिर्फ हाँ-हूँ करता जा रहा था।

काफी देर बाद कार्तिक को लगा जैसे उधर से दो लोग फोन पर उसकी बात सुन रहे हैं। एक सरफराज और दूसरे कॉमरेड मोहन। उसे सरफराज का वह खेल याद आया जिसमें वह अक्सर अपने फोन को उसके कान के पास लाकर उधर से आने वाली आवाज सुना दिया करता था। कार्तिक को हर समय वह किसी की निजता में दखल की तरह लगता था। आज शायद यही खेल उसने कार्तिक के साथ खेल दिया था।

कॉमरेड मोहन पूरे कंटेक्स्ट को तो नहीं समझेंगे बस उन्हें अपनी या पार्टी की आलोचना ही सुनाई पड़ेगी।

ओफ! कितना शातिर था सरफराज।

कार्तिक ने सोचा और फोन बंद कर दिया।

उसने रात तक कर रुक कर रिपोर्ट पूरी की थी।

फिर अगले दिन वह विज्ञान विभाग के लोगों को संस्था का काम दिखाने-समझाने में लगा रहा।

सरफराज आ गया था, पर कटा कटा रहा।

शाम को सबके जाने के बाद कार्तिक अपनी सीट पर बैठा एक कप कॉफी को धीरे धीरे समाप्त करते हुए उसे अपने काम की गहरी निरर्थकता का एहसास हुआ।

उसने सोचा आखिर इस सब का मतलब क्या है? वह विज्ञान के क्षेत्र में इसलिए आया था कि अव्वल तो उसकी ट्रेनिंग विज्ञान की थी, और दूसरे वह डॉ. कौल की इस बात को मानता था कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार प्रसार से धार्मिक पुनरुत्थानवाद और कट्टरता पर अंकुश लगाया जा सकता था। विज्ञान का काम करना और जनपक्षीय तरीके से करना क्रांतिकारी काम ही था। और इसीलिए उसने एक क्रांतिकारी पार्टी की सदस्यता भी ग्रहण की थी। पर जो हो रहा था उसमें विज्ञान कहाँ था और कहाँ था जन? ये पार्टी द्वारा समर्थित, कब्जे की लड़ाई थी जो बहुत ही संकुचित अवधारणा के आधार पर लड़ी जा रही थीं। इसको लड़ने का क्या मतलब था? और क्या ये बेमानी नहीं था? अगर कॉमरेड मोहन को लगता है कि सरफराज उससे बेहतर ढंग से विज्ञान संगठन चला सकता है तो वैसा ही सही। वह धीरे धीरे अपने आपको उससे अलग कर लेगा। कुछ नया काम करेगा।

यह सोचकर उसे थोड़ा सुकून मिला। फिर उसे पिछले पाँच सात सालों में बने अपने और सरफराज के रिश्तों की याद आई। उसे लगा कि सरफराज को एक पत्र लिखना चाहिए।

घर पहुँचकर उसने ये पत्र लिखा।

'प्रिय सरफराज,

वक्त आ गया है कि मैं तुम्हें खत लिखूँ। जब बात करनी मुश्किल हो जाए तो शायद लिखने से सुकून मिले। लिखना मेरे लिए दूसरों तक पहुँचना तो है ही, पर इस बहाने मैं अपने दिमाग के जाले भी साफ करता हूँ, एक खुला दिमाग और साफ दृष्टि हासिल करता हूँ। मेरा मानना है कि प्रत्येक गंभीर तर्क वितर्क को लिखकर किया जाना चाहिए। पर लिखने की इस अंदरुनी जरूरत तक पहुँचने के लिए दिल में एक खलबली और शरीर में एक निश्चित तापक्रम की जरूरत पड़ती है। शायद वह अब आ चुका है।

तुम्हारे अटपटे और न समझ में आने वाले व्यवहार के संबंध में मैं पहले भी सोचता रहा हूँ। मैं सोचता था कि कभी न कभी हमारे बीच मुद्दों को लेकर बहस होगी, एक समझ पैदा होगी, शायद तुम खुद नहीं जानते कि तुम्हारा व्यवहार कितना अजीब है और शायद काम करते करते तुम समझ जाओगे, शायद तुम पर भी कुछ अन्य लोगों का दबाव है जिसके कारण तुम खुलकर संबंध नहीं बनाते और टिप्पणियाँ भी इस तरह की करते हो जो दिल को चोट पहुँचाती हैं। मैं सोचता था कभी न कभी परिस्थिति बदलेगी और हम स्वस्थ संबंध बना पाएँगे।

एक और भी कारण था - बहुत व्यक्तिगत कारण - जिसके चलते मैंने तुम्हारी चोट पहुँचाने वाली हरकतों का जवाब नहीं दिया। कारण बहुत सरल है - मैं तुम्हें पसंद करता था। तुममें अपनी वह प्रतिकृति देखता था, जो शुरू के दिनों में अपनी बौद्धिक जगह पा लेने के लिए संघर्ष कर रही थी, जो लोगों को, दुनिया को जानने की कोशिश कर रही थी और इस कोशिश में अपने खुद की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को बहुत संतुलित नहीं रख पा रही थी। मुझे लगता था तुम्हें एक बौद्धिक सहारे की जरूरत है, तुम्हें फटकार नहीं प्रेम की जरूरत है। सो मैंने दिया। लेकिन इस बार मैं ऐसा नहीं कर पा रहा। मैं अपने बारे में बहुत ही संयोजित तरीके से चलाई जा रही गलतबयानी या निराधार कैंपेन से गहरे आहत हुआ हूँ। सभी तथ्य इस बात की ओर इंगित करते हैं कि ये कैंपेन तुमसे शुरू होती है। मुझे समझ नहीं आता कि तुम्हारी तरह का एक आदमी जो मेरे इतना निकट है, जो मेरे साथ घूमता फिरता और रहता रहा है, साथ खाता पीता रहा है, महीनों हर बात पर बहस करता रहा है, जानता-समझता रहा है, वह कैसे तथ्यों को इतना तोड़ मरोड़ के प्रस्तुत कर सकता है?

मुझे दो ही कारण समझ आते हैं। या तो वह जानबूझकर ऐसा कर रहा है जिससे मेरी छवि खराब हो सके और इस बहाने उसकी खुद की छवि सुधर सके ताकि संगठन और आंदोलन में अपनी बेहतर जगह बनाने में वह कामयाब हो सके या वह जानता नहीं कि वह क्या कर रहा है? मुझे पहले कारण पर विश्वास नहीं होता। इसलिए मैं मान लेता हूँ कि दूसरा कारण सच है, और इसीलिए ये लंबा खत - ये स्पष्टीकरण लिख रहा हूँ।

मुद्दों पर आने के पहले तुम्हारी तकनीक पर बात कर लें।

तुम्हारी तकनीक का पहला पक्ष है 'गलतबयानी और फुसफुसाहट कैंपेन के द्वारा एक साथी के खिलाफ अन्य को उत्तेजित करो और खुद चुप रहो'। मैंने पिछली कई बैठकों में देखा है कि तुमने बैठक के पहले ही अर्धसत्यों एवं झूठ के द्वारा साथियों को मेरे खिलाफ भड़काया है और जब बैठक एक गरमागरम बहस में बदली, तुम चुप रहे। बैठक का पूरा समय जवाब और स्पष्टीकरण देने में ही बीत जाता है और किसी नए काम पर बात नहीं हो पाती। अगर तुममें बौद्धिक हिम्मत होती तो तुम्हें मुद्दों को खुद उठाना चाहिए था। अपने दोस्तों का उपयोग अपने ही एक दूसरे साथी के खिलाफ करना नीचता नहीं तो क्या है? और वह भी झूठी कैंपेन के आधार पर? इस तरह पैदा की गई गलतफहमियाँ ऐसी खाईं में तब्दील हो जाती हैं जिन्हें पाटना मुश्किल होगा। मुझे लगता है तुम यही चाहते भी हो।

तुम्हारी तकनीक का दूसरा हिस्सा है 'आमने सामने बात मत करो। झूठ फैलाओ।' भाई मुझसे बात करने में तुम्हें क्या दिक्कत है? क्या चीज तुम्हारे आड़े आती है? अपनी शंकाओं या अवधारणाओं को तुम मुझसे शेयर क्यों नहीं कर सकते? बिना उनका समाधान किए अन्य लोगों तक अपने भ्रम फैलाना कहाँ तक वैज्ञानिक या तार्किक है? योजनाओं और परियोजनाओं के बारे में क्या तुम पूरी तरह नहीं जानते? तो फिर शंका क्यों? भ्रम क्यों? चर्चा क्यों नहीं?

तुम्हारी तकनीक के तीसरे पक्ष को इस तरह रखा जा सकता है, 'रोजमर्रा के कामों में उत्तेजना पैदा करो और साथियों को बार बार आश्चर्य में डालते रहो।' कार्यालय की सामान्य जानकारियों को, जिन्हें तुम अच्छी तरह जानते हो, बाहर कुछ इस अंदाज में पेश करते हो जैसे तुम उन्हें जासूसी करके लाए हो। जैसे कुछ बहुत सीक्रेट रखा जा रहा है, और तुम अपने पवित्र सिद्धांतों के तहत उसका भांडाफोड़ कर रहे हो। जबकि वाकई में ऐसा कुछ नहीं है। सभी परियोजनाओं पर तुमसे चर्चा होती रही है, सभी तथ्यों को तुम जानते हो और तुम खुद निर्णयों में शामिल हो।

कार्यालय के भीतर मेरे साथ रहना, भागीदारी करना और बाहर होते ही मेरे विरुद्ध हो जाना, तथाकथित 'सीक्रेट' जानकारी मित्रों में भ्रम के साथ बाँटना और दसवीं कक्षा के बच्चों की तरह जासूसी के खेल करना क्या वयस्क साथियों को शोभा देता है? क्या यही कॉमरेडशिप है?

मुझे पता है कि तुम इस बीच अलमारियों में से फाइलें निकालकर देखते रहे हो, पासबुक चेक करते रहे हो, पिछले तीन सालों से चेकबुक को भी चेक करते रहे हो। अगर मैं चाहता तो इन्हें बंद कर ताले में रख सकता था, पर मैंने ऐसा नहीं किया। मेरे पास छुपाने के लिए कुछ नहीं है।

लेकिन तुम कब तक जासूसी के बचकाने खेल करते रहोगे? वयस्कों की तरह सीधी बात करना तुम कब सीखोगे? कब तुम विश्वास करना सीखोगे? कब तुम दुरंगी नीति का अपना खेल बंद करोगे? आखिर संगठन तो पूरा तुम्हारे पास ही है। फिर तुम क्या लेना चाहते हो, आलोचना के हथियार से, मैं समझ नहीं पाता।

तुम्हारी जासूसी की इस प्रवृत्ति और हर चीज को सीक्रेट रखने की आदत पर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। तुम्हारा व्यवहार सीक्रेट है, तुम्हारा आवागमन-मूव्हमेंट - सीक्रेट है, तुम्हारे प्लान सीक्रेट हैं, तुम्हारी मीटिंग सीक्रेट हैं। तुम्हारे संपर्क सूत्र सीक्रेट हैं, तुम जिन लोगों से अनुवाद कराते हो वे सीक्रेट हैं, असल में सब कुछ इतना सीक्रेट है कि कभी कुछ सामने नहीं आता। कुछ होता भी नहीं। ये सीक्रेट व्यवहार किसी गहरी असुरक्षा या अपराधबोध से उपजा लगता है। मेरा एक ही अनुरोध है, कृपया सामान्य संवाद में, आसानी से समझ आने वाले मुद्दों में, अपने इस 'सीक्रेट' मिशन की मदद से अनावश्यक थ्रिल पैदा करने की कोशिश मत करो। तुम्हारा थ्रिल हम सबकी समस्या है।

तुम्हारी तकनीक का चौथा पक्ष है 'केंद्र से अपनी निकटता का उपयोग कर दूसरों को मैनिपुलेट करो'। सौभाग्य से या दुर्भाग्य से तुम खुद पार्टी कार्यालय में रहते हो। बहुत दिनों से रहते आ रहे हो। इससे इधर उधर की छोटी मोटी जानकारियाँ तुम तक पहुँचती रहती हैं। इनका बड़ी चतुराई से उपयोग दूसरों को भ्रम में डालने में या उन्हें पार्टी की नजरों में उठाने गिराने में किया जा सकता है। तुम कुछ लोगों को 'आशीर्वाद' दे सकते हो - दिलवा सकते हो और इस तरह अपनी ताकत बढ़ा सकते हो। पार्टी केंद्र पर रहते हुए तुमने इसी तरह अपनी ताकत बढ़ा ली, और अपने हित साधना शुरू कर लिए। ये बहुत ही घटिया हरकत थी।

आओ अब कुछ ठोस मुद्दों पर बात कर लें।

तुमने ये आरोप लगाना शुरू किया है कि मैं निर्णयों और गतिविधियों को केंद्रीकृत करता हूँ। फिलहाल विकेंद्रीकरण की उन संभावनाओंको निरस्त भी कर दें जो मैंने नए विचारों, नए कामों एवं संगठन के द्वारा पैदा की हैं, जिनके माध्यम से ज्यादा से ज्यादा लोग हमारे काम में हिस्सेदारी कर सकते हैं, तो भी ये तो मानना ही पड़ेगा कि सचिव के रूप में, विभिन्न निर्णयों में मेरी ज्यादा जिम्मेदारी या भूमिका रहनी चाहिए। इसका मतलब केंद्रीकरण तो नहीं। कहीं तुम ये तो नहीं कहना चाहते कि मुझे सचिव ही नहीं रहना चाहिए?

विकेंद्रीकरण के महत्वपूर्ण कदम के रूप में मैंने तुम्हें ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारियाँ देने की कोशिश की। पर तुमने क्या किया? तुम्हारी गैर जिम्मेदाराना हरकतों के सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं, पर फिलहाल कुछ ही काफी होंगे।

हमारी समिति ने तुम्हें संयुक्त सचिव बनाकर तीन चार घंटे कार्यालय में बैठने और पत्र व्यवहार देखने के लिए कहा था। क्या तुमने एक भी पत्र लिखा? फिर सम्मेलन में तुम्हें पर्यावरण उपसमिति का संयोजक बनाया गया। वह उपसमिति कहाँ है? नर्मदा आंदोलन ने इतना विशाल स्वरूप ले लिया, पर हमारी उसमें हिस्सेदारी कहाँ है? हमारे अपने शहर के पर्यावरण के बारे में तुम्हारे परचे, तुम्हारा विश्लेषण कहाँ हैं?

तुम कह सकते हो कि तुम अकादमिक आदमी नहीं हो। तो चलो तुम्हारे सांगठनिक कामों पर बात कर लें।

पार्टी समिति ने सबसे पहले तुम्हें बैतूल और दुर्ग जिलों का काम सौंपा था। तुम उन्हें अपने हाल पर छोड़कर वापस केंद्र में आ गए। इसके उलट रामनारायण को दो बहुत कठिन जिलों विदिशा और रायसेन की जिम्मेदारी दी गई थी जो उसने बीमारी के बावजूद बखूबी निभाई। फिर तुम्हें क्षेत्रीय संयोजक बना दिया गया। लेकिन तुमने अपने जिलों का एक भी दौरा नहीं किया।

कहने का मतलब ये कि तुम्हें लगातार जिम्मेदारी भी दी जाती रही है और निर्णयों में शामिल भी किया जाता रहा है। मैं अन्य साथियों के बारे में भी ऐसे ही सैकड़ों उदाहरण दे सकता हूँ। लेकिन तुम निर्णय लेते समय आगे रहते हो और जिम्मेदारी उठाते समय पीछे। तुम फाइलें देखते हो, पर पत्रों के उत्तर नहीं देते। तुम पास बुक्स और चेक बुक्स पर निगरानी रखना चाहते हो पर किसी उत्पादक गतिविधि में मदद करना नहीं चाहते।

तुम केंद्र को संचालित करना चाहते हो बाकी नीचे का आंदोलन भाड़ में जाए। विकेंद्रीकरण तुम्हारे लिए एक बोगी है जिसके माध्यम से तुम खुद केंद्र में सत्ता हथियाना चाहते हो। तुम्हारे पास सलाह तो है पर सांगठनिक अनुभव नहीं, न ही तुम ऐसा कोई अनुभव पाना चाहते हो।

तुम्हें सत्ता चाहिए, जिम्मेदारी नहीं। मेरा सुझाव है कि तुम जिम्मेदारी उठाओ, सत्ता तुम्हारे पास स्वयं आ जाएगी।

आजकल तुमने एक और आलोचना शुरू की है। 'कार्तिक परियोजनाएँ ले रहा है।' कॉमरेड ये पार्टी का निर्णय था कि सरकार द्वारा दी जाने वाली ऐसी परियोजनाओं पर काम किया जाए जो जनहित की हों। तुम पूरी तरह जानते हो कि हमने आदिवासी क्षेत्रों में चलाई जा सकने वाली दस परियोजनाओं की पहचान सामूहिक रूप से की थी और उनमें से चार को शुरू किया जाना है। एक को मैं, एक को तुम खुद, तीसरे को विजय सक्सेना और चौथे को नरेंद्र संचालित कर रहे हैं। पर तुम्हें तो अपनी क्रांतिकारी छवि भी बनाए रखनी है। सो कार्तिक परियोजनाएँ ले रहा है और तुम क्रांति के लिए काम कर रहे हो - कहना कितना सुविधाजनक है?

तुम परियोजनाओं की जिस तरह आलोचना कर रहे हो, शोर मचा रहे हो, ये पैसा प्राप्त करते रहने के बाद भी अपनी छवि बनाए रखने के लिए है। और शायद मेरी छवि बिगाड़ने के लिए। तुम निर्णय लेते समय एक बात कहते हो और फोरम के बाहर दूसरी। तुम्हारी आलोचना भी अपने स्वार्थी हितों की पूर्ति के लिए है।

अब जरा दोस्ताना व्यवहार के बारे में बात कर ली जाए। मेरा मानना है कि दोस्ती और काम दो अलग अलग चीजें हैं। तुम अक्सर वहाँ आते थे जहाँ मैं पहले नौकरी करता था। हम आपस में चाय का एक कप शेयर करते थे, कुछ हँसी मजाक करते थे और थोड़ी बहुत हल्की फुल्की बातें कर लेते थे। हमें एक दूसरे के व्यवहार पर कोई आपत्ति नहीं थी। तुम अपनी एम-फिप्टी पर घूमते थे और मैं अपने विजय सुपर पर, हम एक दूसरे के प्रति मीठे हो सकते थे।

लेकिन फिर हम साथ काम करने लगे। हमसे निश्चित समय में टारगेट पूरा करने की अपेक्षा की जाने लगी। हमारे प्रतिस्पर्धी पहले भी थे और कुछ नए पैदा हो गए और हमारी उनसे तुलना की जाने लगी। हमारे काम का व्यावसायिक रूप से परीक्षण होने लगा। इस सबने हमारे पर्यावरण में और हमारे बीच में भी तनाव पैदा किया है।

अगर तुम या अन्य लोग इस बात को नहीं समझते तो संयोजक के नाते मैं उन्हें चेतावनी दूँगा। यदि हमें कोई परियोजना जनवरी में लिखनी हो और मार्च तक हम उसे न लिख पाएँ और हमारा कोई प्रतिस्पर्धी उस पर कब्जा कर ले तो मेरा डाँटना स्वाभाविक है। यदि काम पूरा करने की तिथि पहले हफ्तों, फिर महीनों और फिर सालों तक टलती रहे तो हमारे संगठन की क्या प्रतिष्ठा रहेगी? क्या मैं इस पर नाराज न होऊँ?

इस संदर्भ में अगर मैं किसी से कुछ कहता हूँ तो इसका अर्थ ये नहीं कि मैं उस व्यक्ति का बुरा सोच रहा हूँ बल्कि ये है कि मैं संगठन का भला सोच रहा हूँ।

तुम्हें विजय सक्सेना वाली घटना याद होगी। हम लोग एक नाटक की रिहर्सल कर रहे थे और वे अपने एक डॉक्टर मित्र को लेकर मंच पर आ गए थे। न सिर्फ वे मंच पर खड़े थे बल्कि जोर-जोर से बातें भी कर रहे थे। तब मैंने उन्हें वहाँ से चले जाने के लिए कहा था। उन्होंने इसे मेरा बुरा व्यवहार माना था और पार्टी कमिटी में इसकी शिकायत भी की थी। मैं उनसे पूछना चाहूँगा कि जब वे ऑपरेशन थियेटर में एक रोगी का ऑपरेशन कर रहे होते हैं तो उसके संबंधियों को बाहर जाने के लिए क्यों कहते हैं? क्या वे रोगी का बुरा चाहते हैं या उसके संबंधियों का? क्या संबंधियों को बाहर जाने को कहना खराब व्यवहार है? क्या दोनों ही प्रोफेशन में एक तरह के ध्यान की आवश्यकता नहीं पड़ती है? फिर बुरा मानने की क्या जरूरत?

'अच्छा व्यवहार' एक तरह की बचकानी अपेक्षा है। वयस्क विश्व में 'वयस्क व्यवहार' की अपेक्षा की जानी चाहिए। आप स्वयं अपने अनुभव से इसे जान चुके हैं। हमने सागर जिले का सर्वेक्षण कराया था। लक्ष्य था गरीबी रेखा के नीचे के लोगों की पहचान करना। मेरा मानना था कि उसकी रिपोर्ट हमें ही बनानी चाहिए। पर तुम्हें दहिया 'अच्छा' लगता था, उसका व्यवहार 'अच्छा' लगता था। वो तुम्हारे साथ घूमता था, तुम्हें कभी कभी चाय पिलाता था। तुमने इसे 'अच्छा व्यवहार' मान लिया, मुझसे लड़ाई की और रिपोर्ट लिखने का काम उसे अलॉट करवा दिया। यहाँ तक कि उसे बहुत सारा पैसा एडवांस भी दिलवाया। लेकिन हुआ क्या? दहिया ने काम ले लिया। फिर तुम महीनों चक्कर लगाते रहे पर उसने काम नहीं किया। सारे टाइम शिड्यूल पीछे छूट गए। लेकिन दहिया के घर पर ताला ही लगा रहा।

तब तुम एक दूसरे 'अच्छे व्यवहार' वाले मित्र के यहाँ गए। उन्होंने काम लिया और पोलैंड चले गए। तुमने उन्हें मेरे खिलाफ भड़काया भी, हालाँकि परियोजना तुम खुद देख रहे थे। फिर अंत में हम डॉ. खन्ना के घर गए। उन्होंने रिपोर्ट तैयार भी की पर परियोजना, जिसमें तीन महीने लगने थे, एक साल में पूरी हुई। मेरा मानना है कि व्यावसायिक संगठन में काम करते हुए अगर हम काम और समय सीमा का कठोरता से पालन नहीं करते तो हम खुद अपनी छवि खराब कर रहे होते हैं। पता नहीं क्यों मैं तुम्हें कभी समझा नहीं पाया कि काम और मित्रता दो अलग अलग चीजें हैं।

एक जगह और खड़े होकर तुम्हारे व्यवहार को देखा जाए। संस्था के संयुक्त सचिव के नाते क्या तुम्हारी ये जिम्मेदारी नहीं है कि तुम अपने दोस्त की यानी मेरी मदद करो? कुछ तनाव और दबाव से मुझे मुक्त करो? मेरा व्यवहार अगर किसी कारणवश खराब हो रहा हो तो उसे ठीक करने में मेरी मदद करो। किसी आदमी की छवि को उसके दोस्त ही बनाते और बिगाड़ते हैं।

क्या तुमने कभी सोचा है कि लोग तुम्हारे व्यवहार के बारे में क्या सोचते हैं? कस्बे में बिखरे हमारे मित्रगण तुम्हें क्या समझते हैं? मेरा सुझाव है तुम पता करो।

तुम हर समय मुझे 'फोरम' पर चर्चा करने का सुझाव देते रहे हो। जरा देखें कि हमारे पास सही फोरम कौन से हैं? मेरा सोचना है कि रोजमर्रा के कामों के लिए हमारा अपना कार्यालय ही सही फोरम है। हम वहीं चर्चा कर सकते हैं, सुझाव दे सकते हैं। फिर हमारी उप समिति है। अगर कार्यालय में चर्चा करके हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाएँ तो हम पार्टी उपसमिति में जाएँ। इससे फायदा ये होगा कि क्योंकि हम पहले बात कर चुके होंगे, किसी को पार्टी उपसमिति में आने में आश्चर्य नहीं होगा। यदि पार्टी उपसमिति में भी दिक्कत महसूस हो तब हमें पार्टी सचिव के पास जाना चाहिए।

पर तुम क्या करते हो? हर छोटे और बड़े मामले को सीधे पार्टी सचिव के पास ले जाते हो। शायद तुम्हारा लक्ष्य है कि ऐसा करते हुए तुम उनके निकट पहुँच सकोगे। पर ऐसा करते हुए क्या तुम 'फोरम' की इज्जत कर रहे हो? मुझे तो लगता है कि तुम्हारा पूरा प्रयास बहुत ही बचकाना है। वैसे भी तुम अपनी पहली हरकतों से सिद्ध कर चुके हो कि तुम 'फोरम' की कितनी इज्जत करते हो!

अब जरा समालोचना की बात कर लें? क्या ये समालोचना है कि एक व्यक्ति के सालभर के काम की अनदेखी कर एक छोटी सी भूल के लिए उसे बुरी तरह प्रताड़ित किया जाए? क्या ये समालोचना है कि नए प्रयासों को, नयी दिशाओं को, पूरी तरह भुना कर, उनके फायदों का लाभ उठाने के बाद तिल का ताड़ बना दिया जाए? क्या ये समालोचना है कि अपनी गलतियों को छुपाने के लिए दूसरे आदमी पर तमाम आलोचना और जिम्मेदारी ऐसे मढ़ दी जाए कि वह सर ही न उठा सके? उत्तर मैं तुम पर छोड़ता हूँ।

इस सबका एक बड़ा कारण जो मुझे समझ में आता है वह ये है कि तुम खुद अपना रोल परिभाषित नहीं कर पाए हो। एक लगातार संघर्ष तुम्हारे भीतर चल रहा है जिसे तुम सुलझा नहीं पाए हो और इससे पैदा हुए विभ्रम को तुम दूसरों पर प्रतिस्थापित कर देते हो। तुम अगर अपनी इच्छाओंको जाहिर कर सको तो शायद उनकी पूर्ति की सही जगह भी खोजी जा सके। जब तक तुम ऐसा नहीं करते दूसरे की छवि खराब करने या उसका स्कैंडल बनाने या गलत बयानी करने से तुम अपनी छवि नहीं बचा पाओगे।

मैंने ये सब इसलिए लिखा है कि हमारे रिश्ते सही समझ के साथ और मजबूत हों, इसलिए भी कि मैं तुम्हारे बारे में चिंतित हूँ। मैं तुमसे प्रत्युत्तर की आशा रखता हूँ।

तुम्हारा दोस्त

कार्तिक।'

मगर सरफराज की ओर से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया था।

कार्तिक का भी मन खट्टा हो गया था। अब वह परियोजनाओं के संचालन तथा कार्यक्रमों में बहुत रुचि नहीं लेता था। अपने काम से काम रखता और जहाँ तक हो सके ऑफिस के बाहर या फील्ड के काम में ज्यादा रुचि लेता था।

हाँ इस बीच एक नई बात जरूर हुई थी।

कार्तिक उस दिन जब सरफराज को पत्र देने पार्टी ऑफिस गया था, तब एक नए आदमी से उसकी मुलाकात हुई थी। जीन्स की पैंट पर मटमैले रंग का खादी का कुर्ता पहने एक चालीस वर्ष का दुबला पतला आदमी कॉमरेड मोहन के सामने बैठा था। कॉमरेड मोहन ने परिचय कराते हुए कहा था,

'कार्तिक ये लक्ष्मण सिंह हैं।'

कार्तिक ने हाथ बढ़ाते हुए कहा था,

'आपसे मिलकर खुशी हुई।'

'जी मुझे भी, आपका बहुत नाम सुना है, कभी अपना ऑफिस भी दिखाइए।'

'कभी भी। आप सरफराज के साथ आ जाइए।'

'वही तो रोना है, मैं जब भी उससे कहता हूँ, वह टाल जाता है। लगता है मुझे वह आपके ऑफिस में घुसने देना नहीं चाहता।'

'ऐसी क्या बात है? मैं आपको पता और फोन नंबर देता हूँ। एक ऑटो पकड़िए और कभी भी आ जाइए।'

'जरूर। एक दो दिन में ही आता हूँ।'

'वैसे आप करते क्या हैं?'

'सस्पेंड हूँ'

लक्ष्मण सिंह ने हँसते हुए कहा था। कार्तिक ने आश्चर्य से पूछा,

'जी?'

जवाब कॉमरेड मोहन ने दिया,

'मैं बताता हूँ। ये राज्य सरकार की नौकरी में हैं। अक्सर सस्पेंड हो जाया करते हैं। उससे फायदा ये होता है कि इन्हें आधी तनख्वाह मिलती रहती है और ये पार्टी का काम करते रहते हैं।'

कार्तिक ने हँसते हुए कहा था,

'इस तकनीक के बारे में पहली बार सुन रहा हूँ।'

'आलम तो ये है कि अगर ये एकाध साल लगातार नौकरी में रह लिए तो इनके हाथ में खुजली होने लगती है। और ये अपने बॉस को पीट देते हैं और फिर सस्पेंड हो जाते हैं। इस समय ये खुश हैं। सस्पेंड चल रहे हैं...'

लक्ष्मण सिंह हँसते रहे थे। चलते समय उन्होंने कहा था,

'तो एक दो दिन में मिल रहा हूँ।'

'हाँ अवश्य आइए।'

उस समय कार्तिक को नहीं मालूम था कि एक ऐसे रिश्ते की शुरुआत हो रही थी जो कई रंग दिखाने वाला था।

प्रदेश के बाहर कार्तिक के काम की खुशबू फैल चुकी थी।

इस समय हर प्रदेश में एक विज्ञान संगठन आकार ले रहा था और उभरते संगठनों में कार्तिक के प्रदेश को सबसे आगे माना जा रहा था। इधर प्रदेश की पार्टी ने भी कार्तिक को राष्ट्रीय समिति के लिए नामांकित किया था और उधर अलग अलग प्रदेशों से उसे बोलने, बात करने या कार्यशालाओं में हिस्सा लेने के लिए बुलाया जा रहा था।

कार्तिक का दिल एक बार फिर भरा भरा रहने लगा।

उसी समय राष्ट्रीय समिति के सचिव डॉ. नारायणन का पत्र आया था। उन्होंने लिखा था कि राष्ट्रीय समिति विज्ञान आंदोलन के अगले चरण पर विचार करने के लिए दिल्ली में मिल रही है। कार्तिक भी सदस्य के नाते उसमें पहुँचे।

कार्तिक को अपने काम का यह स्वीकार, यह मान्यता अच्छे लगे थे। वह उत्साह से राष्ट्रीय समिति की बैठक में भाग लेने गया।

राष्ट्रीय समिति में देश भर के चुनिंदा प्रतिनिधि उपस्थित थे।

कॉमरेड राम, जो अपनी हाजिर जवाबी, मीडिया प्रेजेंस तथा जे.एन.यू. पृष्ठभूमि के कारण उभरते हुए बौद्धिक नेता के रूप में पार्टी में पहचाने जाते थे, राष्ट्रीय समिति के इनचार्ज थे। सबसे पहले हर राज्य के प्रतिनिधि से अपने अपने राज्य के विज्ञान आंदोलन का विवरण देने के लिए कहा गया। कॉमरेड राम ने बताया कि पार्टी विज्ञान आंदोलन को गंभीरता से लेती है और उसके तथा पार्टी संगठन के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करना चाहती है। लगभग हर राज्य के प्रतिनिधि ने अपने राज्य में आंदोलन की प्रगति की जानकारी दी।

इस बीच कॉमरेड राम के लिए बार बार फोन आते रहते थे और उन्हें उठ उठकर जाना पड़ता था। शायद उनके पास और भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ थीं। पर कार्तिक को लगा उनका आंदोलन देश में नए किस्म का, उभरता हुआ आंदोलन था। उस पर और ध्यान दिया जाना चाहिए था।

अंततः मीटिंग अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी गई।

कार्तिक को इस बीच राष्ट्रीय समिति के प्रतिनिधियों के बीच स्पष्ट विभाजन दिखाई देने लगा था। केरल, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के साथी एक साथ थे और बंगाल, त्रिपुरा के एक साथ। दिल्ली के दोस्त बंगाल वालों के साथ जाने की कोशिश कर रहे थे। हिंदी राज्यों की स्थिति बीच वाली थी और उनके आंदोलनों को वैसे भी पिछड़ा हुआ माना जाता था, इसलिए ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था, जबकि स्थिति उसके बिल्कुल उलट होनी चाहिए थी।

हिंदी राज्यों पर बात करने के लिए, जो देश का हृदय प्रदेश कहे जाते थे और देश की राजनीति संचालित करते थे, पार्टी की सर्वोच्च समिति में कोई हिंदी बोलने वाला व्यक्ति नहीं था। इस पर कार्तिक को बहुत आश्चर्य होता था।

अगले दिन डॉ. नारायणन् ने साक्षरता आंदोलन की जरूरत पर अपना परचा रखा। उन्होंने बताया कि कैसे विज्ञान आंदोलन का विस्तार साक्षरता के जरिये हो सकता है। कैसे देश के करीब सा प्रतिशत लोग अभी भी निरक्षर हैं और ज्ञान विज्ञान की दुनिया से दूर हैं। कैसे विज्ञान तक पहुँचने के लिए भी भाषा की जरूरत होगी और साक्षरता वहाँ भी काम आएगी। कैसे साक्षरता का काम करते हुए संगठन का निर्माण किया जा सकता है।

परचे पर गरमागरम बहस छिड़ गई। बंगाल के साथियों ने तत्काल ये स्टैंड ले लिया कि विज्ञान आंदोलन को पुरानी तर्ज पर ही चलाना चाहिए। दिल्ली के मित्रों को, जिनका वैसे भी कोई जनाधार नहीं था और जो लगातार सरकारी परियोजनाओं पर केंद्रित रहते थे, बंगाल के साथ जाने में ही भलाई दिखी। पर केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और दक्षिण के सभी साथियों ने साक्षरता आंदोलन में हिस्सेदारी की जोरदार वकालत की।

अब हिंदी राज्यों की बारी थी। कार्तिक ने कहा,

'हम विज्ञान के प्रचार का काम भी करना चाहते हैं और साक्षरता का भी। हमें दोनों में कोई द्वंद्व नहीं दिखाई देता। हमारे प्रदेश में वैसे भी जनवादी आंदोलन कमजोर है, जितने अधिक मोर्चों पर काम किया जा सके, करना चाहिए। इसलिए मैं तो कहूँगा कि राष्ट्रीय स्तर पर भी विशेषकर हिंदी राज्यों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, साक्षरता का काम हाथ में लिया जाना चाहिए।'

हिंदी राज्यों के अन्य प्रतिनिधियों ने भी इसकी वकालत की।

अंत में कॉमरेड राम ने कहा,

'बुर्जुआ-पूँजीवादी सरकार ने जिन कामों को पूरा नहीं किया है, वे वैसे भी हमारे कार्यभार में शामिल हैं। साक्षरता भी जनवादी क्रांति के कार्यभार में शामिल हो सकती है क्योंकि वह लोगों की चेतना को बढ़ाने में मददगार होगी। आप लोग ब्रॉड फोरम में चर्चा कर लें।'

कार्तिक को समझ नहीं आया था कि ये 'हाँ' कह रहे हैं या 'न' कह रहे हैं। डॉ. नारायणन् ने समझाते हुए कहा था,

'ये इसी तरह हाँ कहते हैं। ताकि अगर बाद में कोई गड़बड़ हो जाए तो बाहर आने का रास्ता खुला रहे।'

केंद्रीय राजनीति में वह कार्तिक के लिए पहला पाठ था।

ब्रॉड फोरम में कोई दिक्कत नहीं हुई।

सभी उपस्थित लोगों ने, जिनमें भारत सरकार के बड़े अधिकारियों से लेकर, अभिनेता, कलकार, शिक्षाविद् तथा राजनैतिक कार्यकर्ता सभी शामिल थे, खुले दिल से डॉ. नारायणन् के प्रस्ताव का समर्थन किया। व्यापक समर्थन देखकर दिल्ली तथा बंगाल के साथी भी उनके पीछे हो लिए। राष्ट्रीय साक्षरता समिति के गन के साथ बैठक समाप्त हुई।

डॉ. नारायणन ने सभी को केरल के एर्नाकुलम जिले में आने का निमंत्रण दिया जहाँ पहले से ही साक्षरता के पक्ष में एक बड़ा अभियान जारी था।

कार्तिक के अपने प्रदेश में साक्षरता के पक्ष में माहौल बनाना ज्यादा सरल था। हालाँकि सरफराज ने, जिसके हित अब विज्ञान आंदोलन को बनाए रखने से जुड़ गए थे, एक अटपटी सी बहस चला दी थी। तर्क कुछ इस प्रकार था - क्योंकि विज्ञान आंदोलन की शक्ति प्रदेश में कम है इसलिए उसे साक्षरता जैसा बड़ा काम अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। कार्तिक ने पूछा था कि अगर हम बड़ा काम हाथ में नहीं लेंगे तो हमारी शक्ति बढ़ेगी कैसे? फिर सरफराज ने कहा था कि यदि करें भी, तो साक्षरता के काम को विज्ञान आंदोलन के 'अंतर्गत' रहना चाहिए। इस पर कार्तिक ने कहा था कि दोनों का क्षेत्र और व्याप्ति अलग अलग है, दोनों की छवि भी अलग अलग होगी, इसलिए साक्षरता के लिए एक नया संगठन बनाना ठीक रहेगा। हालाँकि दोनों के संयोजन के लिए संयोजन समिति बनाई जा सकती है।

अंत में कार्तिक का विचार स्वीकृत हुआ था और एक जन शिक्षा समिति बना ली गई थी जो स्वतंत्र रूप से काम करने वाली थी।

उसने यह भी तय करवा लिया था कि इस बार केरल में एर्नाकुलम के अध्ययन के लिए सरफराज के साथ साथ रामनारायण, विजय सक्सेना, और लक्ष्मण सिंह भी जाएँगे।

उसने सोच लिया था, वह लड़ाई को आगे ले जाएगा।

घने पेड़ों की छाया से ढके पतले रास्तों से गुजरते हुए कार्तिक सोच रहा था, केरल वाकई बहुत खूबसूरत है। हरियाये समुद्र तटीय वनों की आदिम गंध उसे बहुत उत्तेजक लगी थी। अचानक वनों को चीरते हुए समुद्री तट और सुंदर रेतीले किनारे निकल आते थे जो पूरे प्रदेश को और खूबसूरत बनाते थे।

कार्तिक और उसके चारों साथियों को अलग अलग परिवारों के साथ रखा गया था जो उनकी सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे, उन्हें समितियों की बैकों में ले जाते थे तथा साक्षरता आंदोलन की झलक दिखाते थे। परिवारों के प्रमुख या कोई न कोई सदस्य केरल विज्ञान साहित्य परिषद् का सदस्य था। कार्तिक जिस परिवार में था उसके दोनों सदस्य, पति-पत्नी बहुत मीठे स्वभाव के थे। ज्ञानी, पर जिज्ञासा से भरे हुए। वे उत्तर भारत के रीति रिवाजों को समझना चाहते थे और केरल की परंपरा को समझाना चाहते थे।

बागों, बगीचों, वनों और खाने की टेबलों पर, केला हर जगह था। तरह तरह के रूपों, रंगों और आकारों वाले केले तथा चावल के विभिन्न व्यंजन हर जगह परोसे जाते। वे लोग मछली भी बड़े चाव से खाते, हालाँकि कार्तिक के निरामिष होने का ध्यान बराबर रखते थे।

वे सादे और सरल लोग थे। बातों बातों में कार्तिक ने पता लगा लिया था कि उनके राजनैतिक रुझान वामपंथी ही थे पर वे उन्हें अपने माथे पर चिपका कर नहीं रखते थे। वे अपनी स्टाइल से, धीमी आवाज के साथ सामाजिक राजनैतिक कार्य कर रहे थे। कार्तिक को लगा काश वह अपने प्रदेश के लोगों को वैसा सभ्य और सुसंस्कृत बना पाता।

कार्तिक की सुबह बहुत जल्दी हो जाती थी। उसके मेजबान नायर दंपत्ति सुबह सात बजे ही चाक चौबंद मिलते थे। आ बजे तक नाश्ता करके वे लोग साक्षरता कक्षाएँ देखने निकल जाते।

शहरी और ग्रामीण इलाकों का माहौल अलग अलग था। वैसे, गाँव जैसे गाँव तो थे ही नहीं। वनों में बिखरे दो दो चार घरों के समूहों को ही गाँव मान लिया जाता था। शहरों में बस्तियों, विशेषकर मुस्लिम बस्तियों और उनमें भी महिलाओं के बीच जबरदस्त उत्साह था। नायर साहब ने बताया कि मुस्लिमों के धार्मिक नेताओं से भी अक्षर ज्ञान प्राप्त करने को लेकर अपील करवाई गई थी। उर्दू के प्रायमर और पाठ्य सामग्री भी बनाई गई थी।

महिलाएँ भले ही बुर्के में हों या सादे लिबास में, एक से उत्साह के साथ साक्षरता कक्षाओं में आतीं। किसी एक आदमी का आहाता क्लास रूम बन जाता। उन्हीं के बीच की कोई लड़की शिक्षक होती। सामान्यतया कक्षा की शुरुआत एक गीत से होती और वह फिल्मी गीत भी हो सकता था। फिर धीरे धीरे किसी विषय पर बातचीत शुरू की जाती जो धीरे धीरे चर्चा या बहस में बदल जाती। इसी बीच अवसर निकालकर शिक्षिका कोई पाठ शुरू कर देती।

साक्षरता कक्षा अपने अपने दुख बाँटने का भी साधन थी और आनंद उठाने का भी। रंगोली और मेहँदी प्रतियोगिताएँ अक्सर होतीं। कभी कभी पिकनिक भी आयोजित की जाती। साक्षरता समिति ने सीखने के काम को आनंद भरे काम में तब्दील कर दिया था।

गाँवों में कक्षाएँ अक्सर रात में आयोजित होतीं। किसान-मजदूर दिनभर काम करते पर शाम को कक्षाओं में आते थे। अगर कोई शराब पीकर आ जाता तो उसे निकाला नहीं जाता था पर सब लोग मिलकर उसे समझाते। अगर कोई लंबे समय तक कक्षा से गोता लगाता तो बाकी लोग शिक्षक के साथ उसके घर जाते। समझा बुझाकर उसे कक्षा में लाने की कोशिश होती।

एक दिन सुबह सुबह नायर साहब ने कहा,

'आज हम आपको समुद्र में घुमाएँगे।'

'क्या वहाँ भी कक्षा लग रही है?'

'देखिए तो!'

हम लोग सुबह छह बजे उठकर मछुआरों के गाँव पहुँचे। एक नाव में हमारे लिए जगह सुरक्षित रखी गई थी। हमारे अलावा आठ और मछुआरे थे और था एक शिक्षक। वे सुबह सुबह मछली पकड़ने निकल रहे थे और उन्होंने अपनी किताबें भी साथ ले ली थीं। दोपहर तक अपना कैच हाथ में आने के बाद जब वे आराम कर रहे थे और वापस लौटने की तैयारी में थे तो शिक्षक ने अपना काम शुरू किया। काम मछलियों को गिनने से शुरू हुआ, फिर नाप तौल, वजन कीमत जैसी रोजमर्रा की समस्याओं पर बात शुरू हुई। कार्तिक ने देखा, सभी मछुआरे इस समस्या को समझने के इच्छुक थे, वे उनकी रोजमर्रा की जरूरत थी।

खुले आसमान के नीचे, चलती नाव में समुद्र के बीचों बीच साक्षरता कक्षा चल रही थी। कार्तिक के लिए एर्नाकुलम एक अद्भुत अनुभव था।

पंद्रह दिनों के बाद जब सब लोग समीक्षा के लिए फिर इकट्ठे हुए तो इस बार डॉ. नारायणन भी उपस्थित थे। उन्होंने हँसते हुए कहा था,

'तो दोस्तो क्या हाल है? मजा आया कि नहीं?'

कार्तिक ने कहा,

'बहुत आनंद आया डॉ. नारायणन्। बहुत कुछ सीखने को मिला।'

डॉ. नारायणन् ने कहा,

'मैं यहीं से बात शुरू करना चाहूँगा। मजा - यह शब्द ही बहुत मजेदार है। हमारे काम में आनंद होना चाहिए। उसके बिना कोई भी काम लंबे समय तक किया नहीं जा सकता है। और होना चाहिए क्रियेटिविटी। मैं साक्षरता के आलोचकों से पूछना चाहूँगा - आपने कभी इसके सांगठनिक पक्ष के बारे में सोचा है। हम कितने लोगों से संपर्क बना रहे हैं? कितनी महिलाएँ घर से बाहर आ रही हैं? कितने पुस्तकालय नवसाक्षरों के लिए बनाए जा सकते हैं? उनकी अपनी रचनाओं और अनुभवों का कितना बड़ा संसार हमारे बीच उपस्थित हो सकता है जो हमें कितना समृद्ध बनाएगा? हम कितनी सारी कहानियाँ लिख सकते हैं, कितने चित्र बना सकते हैं, कितने गीत गा सकते हैं, कितने लोगों को अपने पास ला सकते हैं - कितनी क्रियेटिव संभावनाएँ पैदा कर सकते हैं? है इसका कोई उत्तर आपके पास...'

वे बोलते बोलते साँस लेने के लिए रुके। किसी ने पूछा,

'पर क्या आप अकेले ही ये कर पाएँगे?'

उन्होंने जवाब दिया,

'मैंने ये कब कहा? हमने जो मॉडल अपनाया है उसमें हमारे जैसी स्वयंसेवी संस्थाएँ एक स्तंभ होंगी। दूसरा स्तंभ होंगे सरकार और प्रशासन जो जरूरी मदद प्रदान करेंगे। और तीसरा स्तंभ होगा पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का एक छोटा समूह। लेकिन पढ़ने पढ़ाने वाले स्वयंसेवी होंगे, वे इसलिए ये काम कर रहे होंगे कि क्योंकि उन्हें इसमें आनंद आएगा। हमने एर्नाकुलम में ये मॉडल सफल करके दिखलाया है...'

किसी ने पूछा,

'अब आपका अगला कदम क्या होगा?'

'पूरे केरल को साक्षर बनाना। हम करीब एक करोड़ लोगों को अगले एक साल में साक्षर बनाने जा रहे हैं'

'क्या ये बहुत बड़ा काम नहीं है?'

'है, पर उससे बड़ा नहीं जो हम उसके बाद करेंगे। यानी पूरे भारत को साक्षर बनाने का काम। करीब चालीस करोड़ निरक्षर भारतीयों को साक्षर बनाने का काम।'

कार्तिक ने एक अजब उत्तेजना महसूस की थी। उसे लगा था - सोच का पैमाना इतना ही बड़ा होना चाहिए। तभी बदलाव संभव है।

दौरे का समापन एक शानदार साक्षरता रैली से हुआ।

शहर के एक प्रमुख पार्क से निकाली गई रैली को सभा मैदान तक जाकर सभा में तब्दील होना था।

रैली में करीब एक लाख लोग पहुँचे थे। उनमें नव साक्षर, शिक्षक, पार्टी कार्यकर्ता, अन्य पार्टियों के लोग सभी शामिल थे। बड़ी संख्या में महिलाएँ भी उसमें शिरकत कर रही थीं।

लोगों ने साक्षरता, विकास और बदलाव के पक्ष में नारे लिखी तख्तियाँ अपने हाथ में ले रखी थीं। चौराहों को झंडियों से सजाया गया था। रास्ते बैनरों से अँटे पड़े थे। जगह जगह पर स्वागत द्वार देश भर से आए प्रतिनिधियों का स्वागत करते दीख पड़ते थे। महत्वपूर्ण चौराहों पर स्थानीय संगठनों ने अपने शामियाने लगा रखे थे और वे गर्मजोशी से गुजरती रैली का स्वागत कर रहे थे।

वातावरण में अद्भुत ऊर्जा का संचार हो रहा था।

रैली में कार्तिक के साथ सरफराज और लक्ष्मणसिंह भी थे।

कार्तिक ने पूछा,

'क्या कहते हो सरफराज?'

'रैली शानदार है।'

'इसे जिले के साक्षरता आंदोलन की सफलता कहेंगे?'

'रैली तो पार्टी ने आयोजित की होगी।'

'अकेले?'

'बाकी लोग भी हो सकते हैं।'

'जैसे कि डॉ. नारायणन्?'

'उनके अलावा भी लोग काम कर रहे हैं। वो खुद तो सी.आई.ए. एजेंट हैं।'

'क्या कह रहे हो?'

'पार्टी का ऐसा मानना है।'

'पार्टी कैसे कह सकती है?'

'तो वे विकास के हर काम का विरोध क्यों करते हैं? उन्होंने साइलेंट वैली प्रोजेक्ट का विरोध क्यों किया? उससे इतने लोगों को रोजगार मिल सकता था। पार्टी की ट्रेड यूनियन उस प्रोजेक्ट के पक्ष में थी।'

'और प्रकृति को जो नुकसान होता, लोगों का विस्थापन होता, उसका क्या?'

'विकास के लिए कुछ लोगों को नुकसान सहना ही पड़ता है।'

'हो सकता है डॉ. नारायणन् की विकास की परिकल्पना कुछ और हो।'

'तो पार्टी उसे सपोर्ट क्यों करे?'

'शायद खुद के विकास के लिए।'

कार्तिक ने कहा था। फिर लक्ष्मण सिंह से पूछा था,

'तुम क्या कहते हो लक्ष्मण?'

'मुझे तो आनंद आ रहा है, मैं चाहूँगा कि ऐसा काम अपने यहाँ भी हो। हम वही पुरानी तरह की बहसों में उलझे हुए हैं।'

रैली सभा मैदान तक आ पहुँची थी। प्रदेश के नेता के तौर पर कार्तिक को मंच पर बुलाया गया। साक्षरता गीतों और तुमुल हषर्ध्वनि के बीच एर्नाकुलम जिले को पूर्ण साक्षर घोषित किया जा रहा था। नवसाक्षर मंच पर आकर अपनी कहानियाँ सुना रहे थे। और करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया जा रहा था। वे मजदूर, मछुआरे, घरेलू स्त्रियाँ मंच पर पीछे हाथ बाँधकर खड़े होते और पूरे विश्वास से अपनी कहानी सुनाते। बदलाव और किसे कहते हैं?

अंत में प्रदेशों से आए प्रतिनिधियों का परिचय कराया गया। कार्तिक को उभरते हुए आंदोलन के हिंदी प्रदेश के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया गया। उसके परिचय के साथ ही पूरा मैदान तालियों से गूँज उठा। अचानक उसे अपना कद बढ़ता हुआ लगा। लगा कि वह आसमान को छू सकता है। कि पिछले दस सालों की मेहनत अकारथ नहीं गई है। उसके काम का कहीं कोई महत्व है।

वह एक नई ऊर्जा और नई चेतना से भर गया था।

रैली के बाद रात में डॉ. नारायणन ने कार्तिक को अपने कमरे में बुला लिया।

कार्तिक ने बैठते हुए कहा,

'इतना शानदार आंदोलन खड़ा करने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।'

'आंदोलन तो खैर हम सबका है। वैसे मैंने भी तुम्हें बधाई देने के लिए ही बुलाया था।'

'बधाई किसलिए।'

'भई तुमने एक पिछड़े माने जाने वाले 'बिमारू' प्रदेश में इतना बढ़िया नेटवर्क बनाया है।'

'जी धन्यवाद। पर वह आप सबकी प्रेरणा और दोस्तों की मदद से ही संभव हो सका है।'

'इसी को देखकर हम लोगों ने सोचा है कि मध्यप्रदेश और बिहार को साक्षरता आंदोलन के विस्तार की रणभूमि बनाया जाए। वहाँ साक्षरता दर भी कम है और काम करने वाला नेटवर्क भी अपनी जगह पर है।'

'बढ़िया विचार है। हम लोग पूरी ताकत लगा देंगे। शुरुआत कैसे करेंगे?'

'हम लोग सोचते हैं कि पहले केरल से कुछ जत्थे मध्यप्रदेश के हर जिले का दौरा करें। इसे साक्षरता यात्रा कहा जाएगा। इसके बाद आप खुद जिला स्तर पर कला समूहों का गठन कर बड़ी यात्राएँ निकालें जिसके दौरान कार्यकर्ताओं और शिक्षकों की पहचान भी की जाए और गाँवों में सर्वेक्षण भी किए जाएँ। इसके बाद हम जिले की परियोजनाएँ बनाएँगे और सरकार को शामिल करेंगे।'

'यानी मॉडल केरल वाला ही होगा।'

'स्थानीय रंगों के साथ।'

'पर क्या भरोसा है कि सरकार साथ आएगी?'

'कम से कम केंद्र सरकार से बात कर ली गई है। पैसा वहीं से आना है।'

'मुझे आप अपने साथ मानिए। मैं प्रदेश में भी सबसे बात करूँगा।'

डॉ. नारायणन् दीवार से पीछे टिक गए थे। कार्तिक को लुंगी और आधे बाँह की शर्ट में चश्मे के पीछे से झाँकता वह आदमी संत की तरह लगा।

अब उन्होंने कहा,

'कार्तिक तुम्हें ये लड़ाई बुद्धिमानी से लड़नी होगी। मैं तुम्हें लड़ाई के बारे में तीन बातें बताता हूँ। पहली, अगर किसी सत्ता के प्रतीक को उलटाने की जरूरत पड़े तो सीधे उसकी कुर्सी पर जाकर उसे धक्का मत दो। उसकी कुर्सी के नीचे की जमीन खोदना शुरू करो। कुर्सी अपने आप लुढ़क जाएगी। जैसे बच्चे रेत के घरौंदे बनाते और गिराते हैं, उस तरह। दूसरे, अगर तुम्हारे सामने प्रतिरोध की दीवार खड़ी हो जाए, तो दीवार से सिर टकराना मूर्खता होगी। तुम दीवार से ऊँचा पेड़ तलाश करो और पेड़ पर चढ़कर दूसरी ओर कूदने का प्रयत्न करो। तीसरे, अगर सौ आदमी तुम्हारी राह रोकने खड़े हों तो उनसे लड़ने के बदले उनसे कन्नी काटकर निकल जाना ही बुद्धिमत्ता है। वह अगली लड़ाई के लिए तुम्हें बचाए रखेगा। मुझे उम्मीद है तुम मेरी बात समझ रहे हो।'

डॉ. नारायणन् बोलते बोलते रूपक में चले जाते थे। आपको उन्हें समझने के लिए प्रयत्न करना पड़ता था।

अचानक कार्तिक को लगा उसे उनसे पूछ लेना चाहिए। उसने कहा,

'एक बात बताइए डॉक्टर। क्या आप सी.आई.ए. एजेंट हैं?'

डॉ. नारायणन् एक पल को चौंके। फिर जोर से ठठाकर हँसे।

'तो तुम तक भी ये खबर पहुँच गई?'

'मेरा एक निकट का दोस्त बता रहा था कि पार्टी आपके बारे में ऐसा सोचती है।'

अब वे गंभीर हो गए। उन्होंने कहा,

'पार्टी ऐसा सोच सकती है। उसे कुछ भी सोच सकने का हक है। जैसे कि मुझे भी पार्टी के बारे में सोच सकने का हक है। वैसे मैं तुम्हें एक बात बताऊँ। पार्टी कोई एक व्यक्ति या एक ही विचार नहीं है। उसके भीतर भी तरह तरह के व्यक्ति और तरह तरह के विचार होते हैं, उन सबसे मिलकर पार्टी बनती है। पार्टी बाहर के दुश्मनों तथा विचारों से लड़ती है पर पार्टी के भीतर समूह अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ते रहते हैं। हो सकता है कि एक समूह ये मानता हो कि मैं सी.आई.ए. का आदमी हूँ, या सिर्फ मेरी छवि बिगाड़ने के लिए ये आरोप लगा रहा हो। मैं बस इतना जानता हूँ कि मैं भी 'पार्टी' हूँ, और मुझे जो ठीक लगता है उस तरह का काम करता हूँ।'

कार्तिक को लगा यहाँ वह डॉ. नारायणन से अपने मन की बात कह सकता है। उसने उन्हें अपने प्रदेश के बारे में बताया। वहाँ आ रही कठिनाइयों के बारे में बताया। उसने कहा कि उसे प्रतिक्रियावादी ताकतों और अपनी पार्टी दोनों की ही ओर से दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। उसने पूछा,

'आखिर पार्टी विज्ञान आंदोलन को स्वीकार क्यों नहीं करती?'

'शायद इसलिए कि उत्तर भारत में इस तरह का आंदोलन वे खुद खड़ा नहीं कर पाए हैं। पर ज्यादा इसलिए कि उन्हें आज भी अपने मजदूर किसान वाले पुराने हथियार पर ज्यादा भरोसा है।'

'पर समय मार्क्स के समय से डेढ़ सौ साल आगे आ चुका है। नई तरह के आंदोलन विकसित हो रहे हैं, नई नई तकनीकें आ रही हैं। पर्यावरण और महिलाओं के बड़े आंदोलन हैं, विज्ञान को लेकर दुनिया भर के संगठन हैं, सूचना और संचार के प्रभाव हैं जो पार्टी की सत्ता को ही चुनौती दे रहे हैं। क्या पार्टी को इन सबको नहीं देखना चाहिए?'

'उन्हें देखना ही पड़ेगा। नहीं देखेंगे तो पुराने पड़ जाएँगे। असल में ज्ञान विज्ञान में सत्ता के ढाँचों को हिलाने की बड़ी ताकत है। उसे रिजेक्ट नहीं करना चाहिए, समझ कर उसका उपयोग करना चाहिए। जब आप ये नहीं कर पाते तो दूसरों को सी.आई.ए. एजेंट घोषित कर देते हैं।'

कार्तिक मुस्कुराया। डॉ. नारायणन ने कहना जारी रखा,

'हमारी पार्टी में अपने विरोधियों को मारने के तीन तरीके हैं। उनमें से पहला और बहुत लोकप्रिय तरीका है अपने विरोधी को सी.आई.ए. एजेंट घोषित कर देना और उसके खिलाफ कैंपेन चलाना। जिस तरह का अमेरिका विरोध पार्टी के भीतर है और वाम आंदोलन के भीतर है, उसमें ये रास्ता सबसे मुफीद पड़ता है।'

कार्तिक को मजा आ रहा था। उसने पूछा,

'और दूसरा?'

'भ्रष्ट है। ये कहना कि फलाँ आदमी भ्रष्ट है। और बिना भ्रष्टाचार सिद्ध किए लगातार ये कहते रहना कि वह भ्रष्ट है। पाँच सात आदमी अगर एक फुसफुसाहट कैंपेन चला दें और लगातार खबरें उड़ाते रहें तो आदमी के लिए अपने आपको बचाना मुश्किल पड़ जाता है। अब उसे सिद्ध करना पड़ता है कि वह भ्रष्ट नहीं है। इस तरह वह दबाव में या बचाव की मुद्रा में तो आ ही जाता है।'

'और तीसरा तरीका क्या है?'

'वह जरा ज्यादा विश्वसनीय है। यानी भारतीय सामाजिक दृष्टि से। जब पहले दो बाण न चल पाएँ तो अमोघ अस्त्र चला दिया जाता है। कह देते हैं कि फलाँ आदमी वूमनाइजर है। स्त्रियों के पीछे भागता है। और भागता क्या है, उसे तो फलाँ फलाँ स्थितियों में देखा भी गया है। और देखना क्या है, वह तो ऑफिस में ही इस तरह के काम कर डालता है। और ये कैंपेन भी कभी उस आदमी के मुँह पर नहीं चलाई जाती। हर समय उसके पीठ पीछे, कानों कान बातें उड़ाई जाती हैं। न किसी की प्रायवेसी की चिंता, न स्त्री के सम्मान का खयाल। बस अब आप बचते फिरिए। और मजे की बात ये कि पार्टी के नेताओं को भी इसमें बड़ा आनंद आता है...'

'तो आप इस तरह के हमलों से कैसे बचते हैं?'

'आइडिया नं. एक और दो के बारे में तो मैं कह देता हूँ या तो आप सिद्ध करिए या चुप हो जाइए। इस तरह हमलावर को बचाव की मुद्रा में ला देता हूँ। और तीसरे का मैंने सरल उपाय निकाला है।

'क्या?'

'मैं अपने ऑफिस में किसी स्त्री को रखता ही नहीं। मेरे साथ काम करने वालों को भी अपना परिवार पीछे छोड़कर आना पड़ता है। कम से कम दो सालों के लिए। इस तरह मैं आलोचना का अवसर ही नहीं देता।'

'ये तो महिलाओं पर ज्यादती है।'

'दिज इज एन एक्शन इन सेल्फ डिफेंस। जैसे जैसे तुम प्रगति करोगे तुम्हें भी झेलना पड़ेगा।'

डॉ. नारायणन् ने कहा और फिर ठठाकर हँसे। कार्तिक को क्या पता था कि वे भविष्यवाणी कर रहे थे। अब उन्होंने कहा,

'अच्छा भूलना नहीं, वी आर कमिंग टू युअर स्टेट।'

'जरूर जरूर। मैं तैयारी करके रखूँगा।'

इस तरह कार्तिक का केरल दौरा समाप्त हुआ था।

उसने ट्रेन में अपने दोस्तों को डॉ. नारायणन् से हुई चर्चा के बारे में बताया।

लक्ष्मण सिंह ने कहा था,

'मैं तो अभिभूत हूँ। मौका मिलने पर ये काम अपने जिले में जरूर करना चाहूँगा।'

रामनारायण ने भी कहा,

'इससे लेखकों को भी जोड़ा जा सकता है। और नई तरह का मजबूत संगठन बनाया जा सकता है।'

सरफराज ने कहा,

'हमें अपना ध्यान विज्ञान आंदोलन पर ही केंद्रित रखना चाहिए। साक्षरता में बहुत से खतरे हैं।'

लक्ष्मण सिंह ने गुस्सा होते हुए कहा,

'यार आप काम बाद में करते हैं और खतरे पहले देखने लगते हैं।'

विजय सक्सेना ने उठते हुए कहा,

'भई आप लोग बात करिए, मैं तो सोने जा रहा हूँ।'

कह कर वह ऊपर वाली बर्थ पर सोने चला गया।

कार्तिक ने कहा,

'मुझे तो इसमें बड़ा पोटेंशियल दिखता है।'

फिर वे चारों बड़ी देर तक साक्षरता आंदोलन की संभावनाओं और उससे संगठन बनाने के तरीकों पर बात करते रहे थे। बात खत्म होते होते कार्तिक को लगा, इस बार लक्ष्मण सिंह को बड़ी जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। और नए लोगों को भी शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए।

नताशा उसकी इसी तलाश का नतीजा थी। नताशा से उसका पहले से हल्का फुल्का परिचय था। वह जनवादी आंदोलन में, सभाओं-गोष्ठियों में छोटा मोटा काम करती दिख जाती थी। जब पहली बार कार्तिक ने विस्तृत बातचीत के लिए उसे बुलाया, तो उसने कहा था,

'मैं समाज के लिए कुछ करना चाहती हूँ।'

कार्तिक को लड़कियों की फैशनेबल दुनिया में इस तरह का आदर्शवाद अच्छा लगा था। पर सरफराज ने उसे रिजेक्ट कर दिया था।

'बोगस लड़की है यार। ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी।'

'ये तो हमारे ऊपर है कि हम लोगों को कैसे तैयार करते हैं। प्रारंभ में तो सभी रॉ मटेरियल होते हैं। जैसे हम तुम थे। फिर धीरे धीरे आदमी बनता है...'

कार्तिक ने कहा था और नताशा को साथ ले लिया था।

सनत कुमार अलग रास्ते से आंदोलन में आए थे।

असल में कार्तिक को बार बार डॉ. नारायणन का तीन पैरों वाला फार्मूला याद आता था, और अच्छा लगता था। अगर साक्षरता को जनांदोलन बनना था तो तीन पैरों वाला ढाँचा खड़ा होना था, जिसमें से एक पैर उसकी जैसी संस्थाएँ और पार्टी के लोग हो सकते थे, दूसरा अकादमिक लोगों से चुनकर बनाया जा सकता था पर तीसरा? तीसरा सरकार की मदद के रूप में था, पर कोई भी सरकार क्यों वाम छवि वाले साक्षरता आंदोलन की मदद करेगी? तीसरे पाए की तलाश कार्तिक की सबसे बड़ी मुश्किल थी।

तभी रामनारायण ने सुझाव दिया था,

'तुम सनत कुमार से बात करो। राज्य सरकार में सचिव स्तर के अधिकारी हैं। शिक्षा में गहरी रुचि रखते हैं। खुले दिमाग के आदमी हैं। वाम के प्रति कम से कम घोषित विरोध नहीं रखते...'

कार्तिक सनत कुमार से मिलने गया था। वे लॉन में कुर्सी डालकर बैठे हुए थे। शायद अभी अभी मॉर्निंग वॉक से लौटे थे इसलिए हाफ पैंट और टी शर्ट में ही बैठे अखबार पलट रहे थे। सामने नींबू पानी का गिलास रखा था। पहली नजर में कार्तिक को वे अच्छे लगे।

उसने अपना परिचय दिया और आने का मंतव्य बताया। सनत कुमार ने पूछा,

'तो आप साक्षरता के लिए प्रदेश भर में कैंपेन चलाना चाहते हैं?'

'जी एर्नाकुलम की तर्ज पर।'

'बढ़िया। मैंने एर्नाकुलम के बारे में काफी पढ़ा है। वहाँ जाना भी चाहता हूँ। डॉ. नारायणन के नाम से भी परिचित हूँ।'

'सर, सबसे पहला काम एक अच्छी राज्य आयोजन समिति बनाने का है। जो लगातार साक्षरता के काम में हमारी मदद करे।'

'पहले एक कोर ग्रुप बना लेते हैं। जो छोटा और ठोस होगा। फिर उसका राज्य में विस्तार करते जाएँगे। वैसा ही जिलों में करेंगे।'

कार्तिक को ये विचार अच्छा लगा था। सनत कुमार ने कहा था,

'पहली बैठक आप मेरे घर पर भी रख सकते हैं।'

'जी जरूर'

राज्य आयोजन समिति की पहली बैठक बहुत शानदार ढंग से संपन्न हुई थी। कार्तिक ने अपने सभी साथियों और कार्यकर्ताओं को इकट्ठा किया था। सनत कुमार के प्रभाव के कारण कई बड़े अधिकारी उपस्थित थे। रामनारायण ने लेखकों और कलाकारों के समूह को मोबिलाईज किया था। इस तरह प्रभावशाली और काम करने वाले लोगों का समूह साक्षरता के पक्ष में इकट्ठा हो रहा था। कार्तिक को लगा, वह प्रदेश में आंदोलन खड़ा करने में सफल हो जाएगा...।

इस बार कार्तिक ने राज्य समिति में नए लोगों को स्थान दिया।

सनत कुमार अध्यक्ष बनाए गए। लक्ष्मण सिंह और नताशा को भी समिति में लिया गया।

सरफराज को अपना महत्व कम होता लगा था और उसने प्रतिक्रिया स्वरूप पहले से ही साक्षरता आंदोलन की बुराई करना शुरू कर दिया था। हालाँकि अभी वह ठीक से शुरू भी नहीं हो पाया था।

जिलों में भी बिल्कुल नए लोगों को सामने लाया गया। कार्तिक खुद लगभग सभी जिलों में जाकर बैठकें कर रहा था। साक्षरता के महत्व पर जब वह बोलता तो अजीब-अजीब सवाल सामने आते। लोगों को रोटी नहीं मिल रही आप साक्षरता की बात करते हैं? जी करता हूँ, क्योंकि साक्षर होने पर हम रोटी प्राप्त करने की दिशा में भी आगे बढ़ सकते हैं। मजदूर दिनभर काम करेगा तो शाम को आराम करेगा कि आपकी कक्षा में आएगा? काम भी करेगा, आराम भी करेगा, कक्षा में भी आएगा। औरतों को कौन रात में आने देगा? उन्हें कहीं आना नहीं है, कक्षाएँ उनके घरों के पास ही लगाई जाएँगी। और उनके पतियों ने रोका तो? तो हम उनसे बात करेंगे। अब इस उम्र में कौन पढ़ने जाएगा? पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। कार्तिक बातें करता जाता था और उसे समाज में बिखरे कई सवाल समझ में आते जाते थे।

कहीं पार्टी के लोग थे, कहीं ट्रेड यूनियन के, कहीं कलाकार थे तो कहीं लेखक, कहीं छात्र थे तो कहीं शिक्षक। हर जिले में नए लोग सामने आ रहे थे।

इस बीच सनत कुमार ने एक जोरदार काम किया। उन्होंने धीरे से प्रमुख सचिव से बात कर सभी कलेक्टरों के नाम एक पत्र जारी करवा दिया। पत्र में कहा गया था कि साक्षरता एक महत्वपूर्ण काम है और सभी कलेक्टर इसमें मदद करें।

पत्र से साक्षरता समितियों को बहुत ताकत मिल गई थी और प्रशासन भी उनके पक्ष में आ गया था। अब पूरा प्रदेश केरल से आने वाले साक्षरता जत्थों का स्वागत करने के लिए तैयार था।

और उनका स्वागत भी शानदार हुआ था। राजधानी में उन्हें पहुँचाने खुद डॉ. नारायणन् आए थे। उन्होंने कहा था,

'दोस्तो हम लोग आजादी की दूसरी लड़ाई शुरू करने जा रहे हैं। ये निरक्षरता से मुक्त होने की लड़ाई है। ये खुद को आजाद करने की लड़ाई है। एक बार हमने इसे जीत लिया तो कोई भी क्षेत्र हमसे छूट नहीं पाएगा, हम प्रगति के नए रास्ते तलाश करेंगे...'

जत्थे हर जिले में फैल गए थे। साक्षर बनने का संदेश देते, लोगों की समस्याओं पर बात करते, सामाजिक समरसता की अलख जगाते उन्हें सैकड़ों गाँवों और नगरों में एक साथ देखा जा सकता था।

अचानक एक बड़ी लहर चल पड़ी। साक्षरता की लहर। अखबार उनकी प्रशंसा में रंग गए। प्रशासन के लोगों ने जनसभाओं में जाना शुरू कर दिया, छोटे से छोटे कार्यकर्ता कलेक्टर के साथ कंधे मिलाकर काम करने लगे, स्कूल और कॉलेज के छात्र सामने आने लगे। सबसे अधिक उत्साह तो दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं में था जिन्होंने इस काम के प्रति बड़ा उत्साह दिखाया।

जितनी प्रशंसा उतना ही विरोध। देवास में सांप्रदायिक मूल के लोगों ने एक नाटक पर आपत्ति की और जत्थे पर हमला कर दिया, ग्वालियर में भी झगड़ा हुआ और पुलिस को बीच में आना पड़ा, राजधानी में लोगों ने कलाकारों पर अश्लीलता का आरोप लगा दिया क्योंकि कलाकार नंगे बदन नाटक कर रहे थे, बस्तर में नक्सलियों ने पहले तो राह रोकी पर मकसद जानने के बाद जत्थों को जाने दिया।

जल्द ही खबरें मुख्यमंत्री तक पहुँच गईं।

उस दिन दोपहर के खाने के बाद, जब कार्तिक जत्थों के बारे में छपी खबरों को देख रहा था, अचानक उसके फोन की घंटी घनघना उठी।

किसी ने उधर से कहा,

'ये साक्षरता समिति का कार्यालय है?'

'जी, जी हाँ।'

'क्या मैं कार्तिक जी से बात कर सकता हूँ?'

'जी, बोल रहा हूँ।'

'मैं मुख्यमंत्री कार्यालय से अवस्थी बोल रहा हूँ। मुख्यमंत्री जी ने आपको मिलने के लिए बुलाया है।'

'मुझे? क्यों?'

'ये तो वही आपको बताएँगे।'

'ठीक है। पहुँच जाऊँगा। बताएँ कहाँ आना है?'

'बंगले पर। शाम चार बजे।'

कार्तिक ने घड़ी देखी। करीब दो बज रहे थे। उसके पास दो घंटे का वक्त था। उसने सोचना शुरू किया। क्यों बुलाया होगा मुख्यमंत्री ने? उसका उनसे या उनकी पार्टी से दूर दूर तक का संबंध नहीं था। कभी उनसे मुलाकात भी नहीं हुई थी। फिर उन्होंने क्यों बुलाया होगा? उसके सुनने में आया था कि मुख्यमंत्री की पार्टी के लोग साक्षरता जत्थों की अद्भुत सफलता और उनकी हलचल से हतप्रभ थे और उनके बारे में शिकायतें कर रहे थे। कहा जा रहा था कि वे केरल में राज कर रही वामपंथी पार्टी का षड्यंत्र हैं। उनका मध्यप्रदेश में क्या काम? कई जगह उनकी स्थानीय दलों से टकराहट भी हुई थी। पर क्या कोई राज करता मुख्यमंत्री उन्हें खतरा मान सकता था। कार्तिक को लगा ऐसा नहीं हो सकता।

तो फिर? शायद वे कार्यक्रम के बारे में जानना चाहते हों। पर तब उन्हें सनत कुमार को बुलाना चाहिए था। वे सरकार में थे। और सरकार की ओर से ही जिलों में चिट्ठियाँ वगैरह भेजी गई थीं। निश्चित ही मुख्यमंत्री इस बारे में जानते होंगे। तो फिर?

उसने कॉमरेड मोहन से बात करने का निश्चय किया। उन्हें फोन पर पूरी बात बताने के बाद उसने पूछा,

'कॉमरेड आपको क्या लगता है। उन्होंने क्यों बुलाया होगा?'

उधर से बहुत रूखा सा जवाब आया था,

'मैं क्या बता सकता हूँ? आप लोगों ने ही पूरे प्रदेश में शोर कर रखा है। हो सकता है डाँटने के लिए बुलाया हो।'

कार्तिक को थोड़ा खराब लगा था। कॉमरेड मोहन को इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि कार्तिक इस समय ठीक से सोच नहीं पा रहा है, कि ये उसके लिए एक बड़ा अवसर है और सीनियर तथा ज्यादा अनुभवी होने के नाते कॉमरेड मोहन को उसकी मदद करना चाहिए।

अब कार्तिक ने डॉ. नारायणन् को फोन लगाया। उन्होंने पूरी बात ध्यान से सुनी फिर कहा,

'आई थिंक दे आर फीलिंग द हीट। ये अच्छा भी है। वो जानना चाहेंगे कि साक्षरता आंदोलन कौन संचालित कर रहा है, कैसे कर रहा है, पैसा कहाँ से आ रहा है। टॉक टू हिम बट डोंट टेल हिम द होल स्टोरी।'

कार्तिक को उनकी सलाह अच्छी लगी। उसने थोड़ी तैयारी करना ठीक समझा। कुछ पुस्तिकाएँ, प्रचार सामग्री, अखबार की खबरें अपने साथ ले लीं। और सरकार का वह सर्कुलर भी, जिसके आधार पर जिला प्रशासन मदद कर रहा था।

ठीक चार बजे वह मुख्यमंत्री के बंगले पर पहुँच गया।

गेट पर उसकी गाड़ी को रोका गया। दो सजे धजे पुलिस वालों ने आगे बढ़कर पूछा,

'आपका नाम?'

'कार्तिक'

'ठीक है जाइए।'

उसके आने की सूचना गेट पर थी।

उसे वेटिंग रूम में ले जाया गया। बीच के सहन में बड़ी गहमागहमी का माहौल था। जिलों से आए प्रतिनिधि, से किस्म के नेता और नेता किस्म के से, बाहर बड़ी बड़ी शेखी बघारने वाले पत्रकार, मुख्यमंत्री के अपने क्षेत्र के छुटभैये और बगल में फाइलें दबाए अफसर, बगीचे में, कॉरीडोर में, लॉन पर, वेटिंग रूम में भरे पड़े थे। मुख्यमंत्री के बंगले में इतनी भीड़ होती है?

कार्तिक ने पी.ए. को अपने आने के बारे में बताया। उसने कहा,

'हाँ, हाँ बैठिए। मैंने ही आपको फोन किया था। मैं साहब तक खबर भिजवाता हूँ।'

उसने एक चपरासी के हाथों पर्ची भीतर भिजवा दी। करीब पंद्रह मिनिट तक कोई जवाब नहीं आने पर कार्तिक ने फिर पूछा,

'फोन पर पूछ लें।'

पी.ए. ने कहा,

'किसी काम में व्यस्त होंगे। अपने आप बुलाएँगे।'

कार्तिक कमरे में लगी पेंटिंग देखने लगा। फिर उठकर बाहर टहल आया। उसे भीतर के दृश्य देखने में मजा भी आ रहा था। करीब पौने पाँच बजे आकर उसने फिर पी.ए. से पूछा,

'क्या हुआ भाई साहब?'

'अभी तक तो नहीं बुलाया।'

अचानक कार्तिक का चेहरा तमतमा आया। वह उनसे मिलना नहीं चाहता था। उन्होंने ही फोन करके उसे बुलाया था। फिर इस तरह इंतजार करवाने का क्या मतलब? क्या वे उसके धीरज की परीक्षा ले रहे थे? या उसकी हिम्मत तोड़ना चाहते थे, उसे मानसिक रूप से थकाना चाहते थे? वह इस 'वेटिंग गेम' को खूब जानता था। उसने पी.ए. अवस्थी से कहा,

'देखिए मैंने सी.एम. से मिलने की पहल नहीं की थी। उन्हीं ने मुझे बुलाया था। मैं समझ सकता हूँ कि वे व्यस्त हैं। तो फिर आपको मुझे चार बजे नहीं बुलाना चाहिए था। ये मेरे घर का फोन नंबर है और ये गाड़ी का नंबर। मैं जा रहा हूँ। जब साहब फ्री हो जाएँ तो मुझे बुला लीजिएगा। मैं पंद्रह मिनिट में हाजिर हो जाऊँगा।'

पी.ए. अवस्थी ने ऐसे आदमी कम ही देखे थे। उसने कहा,

'आखिर मुख्यमंत्री हैं। व्यस्त हो सकते हैं।'

'मैंने कब कहा नहीं हो सकते। जब खाली हो जाएँ तो मुझे फोन कर दीजिएगा।'

कार्तिक ने कहा और बाहर निकल आया।

घर जाकर उसने पूरी घटना नीति को बताई। उसने सुनकर कहा,

'अच्छा छोड़ो। मैं अच्छी सी चाय बनाती हूँ जैसे मुख्यमंत्री होते हैं वैसे ही वे भी हैं। उनके कारण हम अपना दिमाग क्यों खराब करें?'

कार्तिक रात तक घर पर ही काम करता रहा था। बहुत दिन बाद वह शाम को घर पर था। उसने अपना कमरा जमाया, किताबें व्यवस्थित कीं, पुरानी चिट्ठियाँ और अखबार हटाए। रात ग्यारह बजे के करीब अचानक फोन की घंटी बजी,

'अवस्थी बोल रहा हूँ। आ जाइए।'

'इस वक्त?'

'साहब इसी वक्त फ्री हो पाए हैं।'

'ठीक है, पहुँचता हूँ।'

नीति ने सुनकर कहा।

'इतनी रात को क्यों बुला रहे हैं। मुझे तो डर लग रहा है।'

'डरने की कोई बात नहीं। हम लोग कोई अपराध थोड़े ही कर रहे हैं।'

'जल्दी आ जाना।'

'जितनी जल्दी हो सकेगा आ जाऊँगा।'

इस बार बहुत देर नहीं लगी। गेट पर उसकी गाड़ी का नंबर देखकर ही अंदर जाने दिया गया। अवस्थी थका हुआ सा बैठा था। कार्तिक को देखकर उसने फोन उठाया और कहा,

'सर, आ गए हैं।'

फिर कार्तिक से कहा,

'जाइए।'

एक विशाल से कमरे के बीच काँच की बड़ी सी टेबल पर मुख्यमंत्री, बारीक कमानी के चश्मे में, फाइलें निबटाते बैठे थे। कार्तिक को देखकर उन्होंने चश्मे से झाँकती अपनी गोल गोल आँखें घुमाते हुए कहा,

'आइए। आप ही कार्तिक हैं?'

'जी।'

अब उन्होंने अपनी दराज में से अखबारों की कटिंग की एक फाइल निकाली और उसे कार्तिक के सामने फेंकते हुए कहा,

'ये क्या है?'

कार्तिक ने कतरनों को पलट कर देखा और कहा,

'साक्षरता जत्थों के बारे में प्रकाशित समाचार हैं।'

'वही तो मैं जानना चाहता हूँ कि ये साक्षरता जत्थे क्या चीज हैं? कौन इन्हें निकाल रहा है? और ये केरल से आए इतने सारे लोग हमारे प्रदेश में क्या कर रहे हैं? क्या आपने सरकार से इसकी अनुमति ली है?'

तो कार्तिक का अनुमान सही था। इनकी पार्टी के लोगों ने इनसे सवाल पूछे हैं। वाकई जत्थों ने प्रदेश में इतनी बड़ी हलचल मचाई थी कि मुख्यमंत्री को ये सवाल पूछने को मजबूर होना पड़ा था। उसे तत्काल कोई संतोषजनक उत्तर देना होगा। उसने कहा,

'सरकार की अनुमति है। आपके मुख्य सचिव ने सर्कुलर जारी किया है।'

'जरा दिखाइए।'

कार्तिक ने सर्कुलर की कॉपी उन्हें दे दी। उन्होंने देखकर कहा,

'ओह तो सनत कुमार का काम है। वे गड़बड़ी किए बिना मानते नहीं। इस समय वे कहाँ हैं?'

'मैं कैसे बता सकता हूँ। वे सरकारी कर्मचारी हैं।'

मुख्यमंत्री ने फोन उठाकर पी.ए. से कहा,

'सनत कुमार कहाँ हैं पता लगाओ। मेरी बात कराओ।'

फिर कार्तिक से कहा,

'कौन इसे संचालित कर रहा है?'

'जी मैं राज्य संयोजक हूँ। बाकी जिला संयोजकों के नाम इस फोल्डर में हैं।'

उन्होंने फोल्डर पलटते हुए कहा,

'कार्तिक जी मैं पिछले चालीस वर्षों से पब्लिक लाइफ में हूँ। मैंने इनमें से एक का भी नाम नहीं सुना। कौन हैं ये लोग?'

'सर ये नए और उत्साही छात्र हैं, फैक्ट्री वर्कर हैं। शिक्षक हैं, साक्षरता में इनकी रुचि है।'

'मैं मान नहीं सकता। इतना बड़ा नेटवर्क अचानक अनजाने लोगों के सहारे खड़ा नहीं हो जाता। पैसा कहाँ से आ रहा है?'

'कुछ कार्यशालाओं और प्रचार प्रसार का पैसा केंद्र से मिला है। बाकी जत्थों का खर्चा खुद जिला समिति वहन कर रही है।'

उधर सनत कुमार लाइन पर आ गए थे। मुख्यमंत्री ने फोन उठाते हुए कहा,

'आप कहाँ हैं?'

...।

'ठीक है। कल दो बजे कार्यालय में मिलिए।'

फिर कार्तिक से कहा,

'आप खुद क्या करते हैं?'

'जी इंजीनियर हूँ। प्रशासनिक सेवा के लिए भी चुना गया था। अब सभी नौकरियाँ छोड़कर डेवलपमेंट एक्टिविस्ट बन गया हूँ।'

'आई सी! आप पूरे कार्यक्रम पर एक विस्तृत रिपोर्ट बनाएँ और दो दिनों के भीतर मेरे कार्यालय में सबमिट करें।'

कार्तिक नमस्कार करके बाहर निकल आया था।

बाहर निकलते हुए उसे लगा कि वह वाकई एक क्रांतिकारी काम में लगा है। एक ऐसे काम में, जिसमें प्रतिक्रियावादी पार्टी के मुख्यमंत्री तक को हिलाने की ताकत है। उसने कम से कम ये परीक्षा तो अच्छी तरह दे दी। गेट से निकलते समय उसके चेहरे पर मुस्कान थी।

लौटकर उसने पूरा किस्सा डॉ. नारायणन् को सुनाया।

उन्होंने कहा,

'सो दे आर गेटिंग इरिटेडेड। हम चाहते हैं कि वे परेशान हों, अपनी सुरक्षित जगह से हिलें। सोचने पर मजबूर हों। यू आर डूइंग वेल, गिव हिम अ गुड रिपोर्ट। एंड कंटीन्यू युअर वर्क।'

कार्तिक ने मुख्यमंत्री के लिए एक अच्छी रिपोर्ट बनाकर सनत कुमार के पास पहुँचा दी थी। और अपने काम में लग गया था।

जिलों में जत्था कार्यक्रमों की समाप्ति पर सारे जत्थे एक बार फिर राजधानी पहुँचने वाले थे और उस समय एक बड़ी साक्षरता रैली का आयोजन होना था। एक बार फिर केंद्रीय आयोजन समिति की बैठक हुई। रैली की व्यापक तैयारियाँ शुरू हो गईं।

इस बार शहर के नए समूह भी तैयारियों में शामिल थे। फैक्ट्री के ट्रेड यूनियन सहयोगियों ने बड़ी संख्या में झंडे तैयार कर दिए। लेखक मित्रों ने हस्तलिखित पोस्टर तैयार किए जिनमें शीर्ष लेखकों की सुंदर कविताओं का प्रयोग किया गया था। बच्चों ने हजारों छोटी झंडियाँ तैयार कर दीं। रैली के रास्तों को झंडियों और बैनरों से सजाया गया। साक्षरता रैली किसी भी बड़े राजनैतिक नेता की रैली से अधिक भव्य थी और उसके पीछे लोगों की ताकत काम कर रही थी।

इस रंग बिरंगी और भव्य रैली में हजारों लोग शामिल थे। उसका नेतृत्व साक्षरता जत्थे कर रहे थे। उनके पीछे बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार थे और उनके साथ हजारों ट्रेड यूनियन के साथी, कर्मचारी, शिक्षक, छात्र और आसपास के शहरों से आए उत्साही कार्यकर्ता।

रैली का समापन एक शानदार ऑल पार्टी मीटिंग के साथ हुआ जिसमें सभी दलों के शीर्ष नेता मौजूद थे। कॉमरेड मोहन इनमें शामिल थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा था,

'ये निरक्षरता के खिलाफ जंग की शुरुआत है। इसे हम जीतकर ही रहेंगे।'

मध्यमार्गी पार्टी के नेता ने कहा,

'गांधी जी के समय से हम प्रौढ़ शिक्षा पर जोर देते आए हैं। अब राजीव गांधी के सपनों को पूरा करने के लिए हमने साक्षरता मिशन की स्थापना की है। हम सबको इस मिशन को पूरा करना है...'

सत्तासीन पार्टी के मंत्री ने कहा,

'साक्षरता अच्छी बात है। पर हमें बच्चों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हम स्कूली शिक्षा का विस्तार करना चाहते हैं, कर रहे हैं...।'

कार्तिक ने सबको साथ आने की जरूरत पर बल दिया था,

'साक्षरता या यों कहें कि प्रौढ़ और स्कूल छोड़ चुके व्यक्तियों को पढ़ाना तथा बच्चों को पढ़ाना दोनों ही जरूरी काम हैं। उन्हें अपने अपने तरीके से पूरा किया जाना चाहिए। देश के साठ प्रतिशत से अधिक लोग पढ़ना लिखना नहीं जानते हैं और उस खिड़की को नहीं खोल पाते जो उनके जीवन की दिशा बदल सकती है। ये उनके लिए नहीं हमारे लिए शर्म की बात है जिन्हें पढ़ने की सुविधाएँ मिलीं। मैं ये नहीं कहता कि उनके पास ज्ञान नहीं है। उनके पास पीढ़ियों से संचित ज्ञान है और हमें उसका सम्मान करना चाहिए। पर साक्षर होने पर निश्चित ही एक नई रोशनी उनके जीवन में आ सकती है, वे आसपास के समाज और पर्यावरण को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं, उसे बदलने की कोशिश कर सकते हैं। आइए हम सब प्रण करें कि इस काम में उनकी मदद करेंगे और ऐसा करते हुए खुद भी कुछ सीखेंगे...'

करतल ध्वनि से इस आह्वान का स्वागत हुआ था। जत्थों ने एक बार फिर अपना शानदार प्रदर्शन किया था और अंत में साक्षरता के पक्ष में सबने शपथ ली थी।

कार्तिक को लगा था कि ऐसा लांच पैड तैयार हो गया है जहाँ से अगले चरण का रॉकेट फायर किया जा सकता है।

कार्तिक अभी रैली में आए मेहमानों को विदा कर ही रहा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा।

'बधाई हो भाई।'

कार्तिक ने देखा, निरंजन था।

'तो आप भी हैं। चलिए मुझे इस बात की खुशी है कि बड़े लेखक भी अब साक्षरता रैलियों में आने लगे हैं।'

'पहली बात तो मैं उतना बड़ा लेखक नहीं जितना कुछ वामपंथी अपने आप को समझते हैं। दूसरा मैं सिर्फ साक्षरता के कारण नहीं आया। मैं तुम्हारे कारण आया हूँ।'

'मेरे कारण?'

'हाँ। आओ कहीं बैठकर चाय पिएँ, तो मैं तुम्हें बताऊँ।'

कार्तिक और निरंजन वहीं पत्रकार भवन के पास पड़ी एक चट्टान पर बैठ गए। वहीं एक छोटे से झुरमुट के नीचे एक बड़ी सी चट्टान पड़ी थी। उसी झुरमुट में पप्पू चाय का ठेला लगाता था। आज रैली की सफलता से वह भी उत्साहित हो गया था। उसने चट्टान कपड़े से साफ करते हुए कहा,

'भैया, आज की चाय मेरी तरफ से।'

निरंजन ने कहा,

'अकेली चाय पिलाओगे? एक दो समोसे भी तो खिलाओ!'

फिर उसने कार्तिक से मुखातिब होते हुए कहा,

'जो मैं कह रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनना।'

कार्तिक को लगा जरूर कोई गंभीर बात है, उसने कहा,

'आई एम ऑल इयर्स।'

'तुम जो काम कर रहे हो उसका असर दिखना शुरू हो गया है।'

'कैसे?'

'तुम्हारी छवि नष्ट करने की तैयारी है। हो सकता है तुम्हें सरेआम पीट दिया जाए।'

'पीट दिया जाए? पर मैंने किसी का कुछ छीना नहीं है अब तक।'

'छीना है।'

'क्या?'

'पॉलीटिकल स्पेस। तुमने कुछ लोगों की राजनीतिक जमीन छीनी है।'

'किसकी?'

'मेरे एक दोस्त हैं। राजेंद्र निरमलिया। पुराने समाजवादी हैं। ट्रेड यूनियन की ठेकेदारी भी करते हैं। अब कांग्रेस में हैं। वे कांग्रेस से चुनाव लड़ने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि तुम उनकी राजनीतिक जमीन पर कब्जा कर रहे हो। उन्होंने तय किया है कि तुम्हें सार्वजनिक रुप से अपमानित किया जाए।'

'मैं भी कोई गुलाबजामुन नहीं कि मुझे मुँह में रखेंगे और खा जाएँगे।'

'कार्तिक तुम समझ नहीं रहे। राजेंद्र गुंडा है। गुंडे पालता भी है। वह किसी भी हद तक जा सकता है। उसके गुस्से का एक कारण और भी है।'

'क्या?'

'उसकी प्रेमिका। या वह स्त्री जिसने उसे अपना रखैल बनाया है।'

'मैं समझा नहीं।'

'स्टड। अंग्रेजी में ऐसे व्यक्ति को स्टड कहते हैं। वह एक ऐसी स्त्री का स्टड है जो देश की एक प्रमुख पार्टी की नेता है। पहले छोटे मोटे एन.जी.ओ. चलाती थी। फिर एक मंत्री से उसकी निकटता हो गई जिन्होंने उसे राजनीतिक प्रगति का रास्ता दिखा दिया। अब वह अपने आपको क्रिश्चियन कम्यूनिटी का अलमबरदार मानती है। शायद खुद भी चुनाव लड़ना चाहती है। तुम जो विकास को लेकर उसकी पार्टी की आलोचना करते हो वह उसे बर्दाश्त नहीं। उसने भी निरमलिया से कहा है...'

'तुम्हें ये सब कैसे मालूम?'

'वामपंथियों की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वे अपने ही बीच में घूमते रहते हैं और क्रांति करते रहते हैं। दूसरे क्या सोचते हैं। उनकी दृष्टि क्या है इसके बारे में उन्हें खबर तक नहीं रहती और वे पूरा संसार बदल डालने की बात करते हैं। भाई साहब मुझे खुद निरमलिया ने ये सब बताया है। वह मेरा पुराना दोस्त है।'

'ओह! तो तुम्हारे हिसाब से अब मुझे क्या करना चाहिए?'

'हम निरमलिया से मिलेंगे। जब वह मेरे पास आया तो उसे मालूम नहीं था कि तुम भी मेरे दोस्त हो। मैंने उससे कहा कि हमारे समाज में जब भी कोई अच्छा काम करने निकलता है, तो तुम साले उसकी टाँग खींचने निकल पड़ते हो। मैं तुम्हें कार्तिक से मिलवाऊँगा। और तुम उसे हाथ भी नहीं लगाओगे।'

'फिर उसने क्या कहा?'

'ठीक है भाई साहब, और क्या?'

कार्तिक ने पूछा,

'तो कहाँ मिलेंगे?'

'नीलम पार्क में। वो वहीं रहता है।'

अगले दिन शाम सात बजे नीलम पार्क में, जब शाम के झुटपुटे में पेड़ सरसरा कर माहौल खुशनुमा बना रहे थे, और पृष्ठभूमि में तालाब के भीतर रोशनी झिलमिला रही थी, वे तीनों मिले।

निरंजन ने परिचय कराते हुए कहा,

'कार्तिक ये राजेंद्र हैं। तुम्हें पीटना चाहते हैं।'

'तो पीटें।'

राजेंद्र थोड़ा शर्मिंदा हुआ। उसने, अपना भारी हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा,

'आज तो दोस्ती करने आया हूँ।'

निरंजन ने कहा,

'साले तुमने दोस्ती नहीं की तो मेरी तुमसे लड़ाई हो जाएगी।'

कार्तिक ने कहा,

'हम लोग बड़े पैमाने पर साक्षरता कार्यक्रम चलाना चाहते हैं। इससे आपको क्या परेशानी है?'

निरंजन ने कहा,

'परेशानी इन्हें कम, इनकी 'उनको' ज्यादा है। यदि भारत सरकार का पैसा आए तो उनके पास आए। उससे कोई संगठन बने तो उनका बने। कोई राजनीतिक जगह बने तो उसका लाभ उन्हें मिले। यही चाहते हैं, और क्या...?'

'पर ऐसा करने से उन्हें कोई रोकता तो नहीं।'

'तुम्हारी ईमानदारी रोकती है। अगर तुम खराब काम करो तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं। अच्छा करोगे तो होती है क्योंकि इससे उनकी जगह कम होती है...'

अब राजेंद्र ने कहा,

'निरंजन की बात छोड़िए। इन्हें छीलते रहने की आदत है। मैडम चाहती हैं कि वे भी अपने क्षेत्र में ये काम करें।'

'कौन मैडम?'

निरंजन ने कहा,

'तुम भी यार कार्तिक! कल बताया तो था।'

कार्तिक समझ गया। उसने कहा,

'तो जरूर करें। हम तकनीकी रूप से मदद करेंगे।'

अचानक कार्तिक को लगा साक्षरता का काम एक राजनैतिक काम है। एक मुख्यमंत्री उससे चिंतित हो सकता है, दूसरी प्रमुख राजनैतिक पार्टी को उससे खतरा हो सकता है और उसकी अपनी पार्टी? उनका विचार जानने के लिए उसे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा...।

वैसे कार्तिक को अनुमान था कि कॉमरेड मोहन का फोन आएगा।

जब भी कोई बड़ा या अच्छा कार्यक्रम आयोजित होता था और सफलतापूर्वक संपन्न हो जाता था तो उन्हें अपना कंट्रोल जताने या बताने की एक बार फिर जरूरत महसूस होती थी। उनकी इस जरूरत को सरफराज जैसे दोस्त हवा देते थे।

रैली के दो दिनों के बाद ही उनका फोन आ गया था।

'कॉमरेड जरा ऑफिस आ जाइएगा।'

'कोई विशेष बात?'

'नहीं कोई खास नहीं। बस बहुत दिनों से आपसे बात नहीं हुई है।'

'जी आज शाम को ही पहुँच जाऊँगा।'

'ठीक है।'

कार्तिक सोचता रहा था कि वे क्या बात करेंगे। साक्षरता आंदोलन में प्रगति उनकी आशा के विपरीत, बहुत तेजी से हो रही थी। क्या वे इसे अच्छा मानते थे, या बुरा? उन्होंने बात शुरू करते हुए कहा था,

'तो बहुत तेजी से फैल रहा है आपका आंदोलन?'

'जी। आप देख ही रहे हैं।'

'आपने कभी सोचा है कि इससे पार्टी को क्या लाभ होगा!'

'मुझे लगता है कि मूल लड़ाई चेतना की लड़ाई है। अगर हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार कर रहे हैं या लोगों को साक्षर बना रहे हैं तो एक तरह से वह जमीन बना रहे हैं जिस पर क्रांतिकारी चेतना का विस्तार हो सकता है।'

'मैं सीधे सीधे पार्टी संगठन के निर्माण की बात कर रहा हूँ। पार्टी सदस्यता की बात कर रहा हूँ।'

'सीधे सीधे पार्टी संगठन के निर्माण में कई दिक्कतें आ सकती हैं। वैसा करना बुद्धिमत्ता नहीं होगा। फिर भी आप जानते हैं कि काफी नए लोग पार्टी के पास आए हैं, हमारे आंदोलन के माध्यम से।'

'ये काफी नहीं है। मेरा खयाल है कि आप एक विस्तृत नोट तैयार करें। मैं उसे स्टेट कमिटी में ले जाऊँगा और फिर हम पार्टी निर्माण की और सदस्यों के प्रशिक्षण की प्रक्रिया तय करेंगे।'

'मैं नोट तैयार कर दूँगा। मेरी एक ही चिंता है। कहीं विज्ञान का काम पीछे न चला जाए।'

'मेरा मूल काम एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण करना है।'

'ठीक है कॉमरेड।'

कार्तिक ने कहा था और वापस चला आया था।

बहुत मेहनत से कार्तिक ने पार्टी के लिए नोट तैयार किया जो इस प्रकार था।

'भोपाल गैस त्रासदी के बाद के वर्षों में मध्यप्रदेश में और देश में भी एक नई तरह का आंदोलन उभर कर सामने आया है, जो अब तक विकसित जनांदोलनों से कई मायनों में भिन्न है, अपनी कार्यप्रणाली और तौर तरीकों में नया है और शायद इसीलिए विकास की अभूतपूर्व संभावनाएँ अपने में छुपाए हुए है। पिछले दिनों विज्ञान और साक्षरता आंदोलनों के माध्यम से आम जनता से बड़े पैमाने पर संपर्क कायम हुआ है। सवाल ये है कि क्या इसके माध्यम से पार्टी संगठन का निर्माण किया जा सकता है और अगर हाँ तो कैसे?

भारत में विज्ञान आंदोलन के शीर्ष पर केरल विज्ञान साहित्य परिषद् को रखा जाता है जिन्होंने तीस और चालीस के दशक में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कार्यरत जे.डी. बर्नाल और उनके साथियों द्वारा विकसित विज्ञान और समाज के अंतःसंबंधों की अवधारणाओं को अपने काम का आधार बनाया। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वैज्ञानिक प्रगति में छुपी विनाश की संभावना को लेकर जो निराशा पूरे विश्व में फैली थी उसके सामाजिक पक्षों पर ध्यान केंद्रित करने का काम बर्नाल ने ही किया था। वैज्ञानिक प्रगति के उज्जवल पक्षों में मानव का विश्वास पुनः जगाने का दायित्व उन्होंने निभाया।

अब विज्ञान आंदोलन का जो अर्थ हम समझते हैं उसके कुछ मूल सिद्धांत इस प्रकार हैं। एक, किसी भी देश में विज्ञान और वैज्ञानिक प्रगति को वहाँ के समाज और सामाजिक परिस्थितियों से काटकर नहीं देखा जा सकता। दो, हमें विज्ञान के एकांगी स्वरूप को नहीं उसके समग्र स्वरूप को देखना होगा। हमारा विज्ञान, विज्ञान में संवेदनशीलता की और संवेदनशीलता में वैज्ञानिक दृष्टि की जरूरत पर बल देता है। इसलिए हम स्वास्थ्य को गरीबी से, पर्यावरण को जनसंख्या वृद्धि से और साक्षरता को सामाजिक उपयोगिता से काटकर नहीं देख सकते। तीन, विज्ञान आंदोलन का ये मानना है कि वर्तमान में उपलब्ध ज्ञान विज्ञान विश्व की सामूहिक धरोहर है और उसके विकास में इतिहास के अलग अलग दौर में सभी राष्ट्रों का योगदान रहा है। इसलिए ये कहना कि पूर्व मूलतः आध्यात्मिकतावादी रहस्यवादी है और पश्चिम मूलतः भौतिकवादी-विज्ञानवादी गलत है। और अंत में विज्ञान आंदोलन ये मानता है कि ज्ञान विज्ञान के विकास में मनुष्य की मुक्ति की संभावनाएँ छुपी हुई हैं और इस अंतर्दॄष्टि के साथ आदमी अपने आसपास को समझ सकता है, अपने इतिहास को समझ सकता है और अपने वर्तमान को बदलने की कोशिश कर सकता है।

देशभर में काम कर रहे संगठनों की स्थितियाँ अलग अलग हैं। हमने अपने प्रदेश में जिस संगठन का निर्माण किया उसमें इस स्थिति से बचे हैं कि किसी एक प्रदेश या संगठन की लाइन फॉलो करें। मसलन व्यापक जन कार्यवाही की ओर ले जाने वाली केरल विज्ञान साहित्य परिषद् की अवधारणा और तकनीकी नीतियों तथा रिसोर्स एक्टिविटीज की ओर ले जाने वाली दिल्ली विज्ञान परिषद् की अवधारणा में से किसी एक को चुनने के दबाव का प्रतिकार करते हुए हमने दोनों ही तरह की कार्यवाहियों का उपयोग अपने संगठन का विस्तार करने में किया है। लेकिन फिर भी हमें सोचना चाहिए कि हम वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तकनीकी लोगों को आकर्षित क्यों नहीं कर पा रहे, आत्मनिर्भरता के सवाल पर बड़ा आंदोलन खड़ा क्यों नहीं कर पा रहे, संगठन की अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रयास क्यों नहीं हो रहे और मित्र अपनी खुद की क्षमता बढ़ाने के प्रति कितने सचेत हैं, अपनी दोहरी तिहरी जिम्मेदारियों के बीच हम कैसे अपने मूल काम - यानी विज्ञान आंदोलन को बढ़ाने के मूल काम - को कर पाएँगे?

अब विज्ञान के साथ-साथ हमने साक्षरता का काम भी अपने हाथ में लिया है। जत्थों ने बताया है कि महिलाओं, बच्चों और दलित वर्गों के बीच काम करने की असीमित संभावनाएँ हैं बस अपने सीमित चौखटे से बाहर देखने की जरूरत है। किसानों, पंचों और सरपंचों से भी व्यापक संपर्क हुआ है।

मेरे विचार में दोनों ही आंदोलनों के विस्तार से अति उत्साहित होकर सीधे पार्टी संगठनों का निर्माण करना जल्दीबाजी होगा और प्रशासन की नजरों में पूरे आंदोलन को ही संदिग्ध बना देगा। मुझे लगता है कि वर्तमान में कंसॉलिडेशन का सबसे अच्छा तरीका विज्ञान और साक्षरता आंदोलन को ही मजबूत करने की शक्ल में होना चाहिए। जैसे हम सैकड़ों स्कूल खोल सकते हैं या ज्ञान विज्ञान केंद्र स्थापित कर सकते हैं। हम जिलों, विकास खंडों तथा पंचायतों तक जाने की स्थिति में हैं, पार्टी के साथ बेहतर तालमेल कर ऐसा किया जा सकता है।'

कार्तिक इस नोट को लेकर कॉमरेड मोहन के पास गया था। उसे उम्मीद थी कि वे इसे गंभीरता से पढ़ेंगे और शायद प्रशंसा भी करें। पर उन्होंने सरसरी तौर पर देखकर कहा था,

'ठीक है मैं स्टेट कमिटी में बात करूँगा। फिर देखते हैं क्या तय होता है।'

'तो मेरा काम खत्म?'

'फिलहाल आप ऐसा मान सकते हैं'

कार्तिक को लगा, कुछ अधूरा रह गया है। पर वह घर लौट आया था।

अगले दिन ही लक्ष्मण सिंह ने कार्तिक के ऑफिस में प्रवेश किया। गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया और कहा,

'क्या सर, हम लोग चेतना ही पैदा करते रहेंगे या आगे कुछ करेंगे भी?'

'मतलब?'

'मतलब ये कि जहाँ जहाँ जत्थे गए थे वहाँ कक्षाएँ शुरू करने की माँग आ रही है, सरकार को जो करना है वह करेगी। क्यों न हम लोग एक दो जिलों में खुद भी परियोजनाएँ शुरू करें।'

'विचार अच्छा है।'

'तो फिर?'

'मैं तीनों लोगों से बात करके देखता हूँ। एक तो डॉ. नारायणन्, दूसरे कॉमरेड मोहन और तीसरे सनत कुमार। कोई न कोई रास्ता निकल आएगा।'

डॉ. नारायणन् ने कहा था जहाँ काम करना चाहते हो वहाँ की क्षमता जाँच लो, देखो कि वहाँ कोर ग्रुप बन सकता है या नहीं, इनर्जी है या नहीं। अगर है तो शुरू करो। कॉमरेड मोहन ने कहा था 'देख लीजिए।' सनत कुमार ने कहा था बहुत अच्छा विचार है, हमें जरूर शुरू करना चाहिए। पर परियोजना लिखेगा कौन? कार्तिक ने कहा था कि वह कोशिश कर सकता है। पहले वह ये काम करता रहा है।

फिर सनत कुमार, कार्तिक और लक्ष्मण सिंह एक दिन ऑफिस में बैठ गए थे। लक्ष्मण सिंह ने फील्ड से आँकड़े और जानकारियाँ इकट्ठी कर ली थीं। कार्तिक ने विभिन्न चैप्टर्स की योजना बना दी थी, सनत कुमार ने सरकारी नीतियाँ और पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर दी थी। फिर तीनों करीब सात दिन तक भिड़े रहे थे। और लक्ष्मण सिंह के जिले की परियोजना तैयार हो गई थी।

डॉ. नारायणन् ने, जो कि अब तक भारत सरकार की परियोजना स्वीकृत करने वाली समिति में आ गए थे, जब उसे देखा तो बोले, परियोजना अच्छी बनी है। मैं पास कराने की कोशिश करूँगा।

और अगली बैठक में परियोजना पास हो गई थी।

लक्ष्मण सिंह को जब खबर मिली तो उसने पूछा था,

'क्या ये इतना सरल है?'

कार्तिक का जवाब था,

'हाँ अगर पूरी तैयारी हो तो ये इतना ही सरल है। तुम्हारी परियोजना के पीछे बरसों का काम और आंदोलन की प्रतिष्ठा है। इसीलिए इतना सरल लगता है। अब इस प्रतिष्ठा को बचाए रखना।'

लक्ष्मण सिंह भूत की तरह परियोजना के संचालन में जुट गया था।

करीब तीन महीने बाद उसने कार्तिक को अपना काम देखने बुलाया।

पेड़ों से घिरे उस छोटे से ऑफिस में पहुँचने पर कार्तिक को जो पहली अनुभूति हुई, वह सुखद थी।

वरांडे से लगे कमरे में दो दीवान पड़े हुए थे जिन पर गद्दे वगैरह डालकर उन्हें बैठक का रूप दे दिया गया था। दो कमरों में एक छोटा सा ऑफिस था। एक में लक्ष्मण सिंह खुद बैठते थे और एक में टेबल कुर्सियाँ डालकर चार पाँच लोगों के बैठने का प्रबंध कर दिया गया था। साइड के बड़े कमरे में स्टोर बना दिया गया था। पूरे कार्यालय में लोगों का आवागमन सतत जारी था और उससे ऊर्जा छलकी पड़ती थी।

कार्तिक के पहुँचते ही किसी ने उसके हाथ से बैग ले लिया। उसी दीवान वाले कमरे में लक्ष्मण सिंह और साथी उपस्थित थे। सबने बहुत गर्मजोशी से उसका स्वागत किया। प्रताप भाई आकर हाथ में चाय का गिलास पकड़ा गए। फिर कमरा धीरे-धीरे लोगों से भर गया।

सभी अपनी अपनी बात बताना चाहते थे।

'भैया हमारे यहाँ ट्रेनिंग अच्छी चल रही है। चलिए आपको दिखाएँगे।'

'हमारे ब्लॉक में तो कक्षाएँ भी शुरू हो गई हैं। वहाँ चलिए मजा आएगा।'

'हमारे यहाँ महिलाओं के जत्थे निकल रहे हैं। आप उनका उत्साह बढ़ाने चलें।'

लक्ष्मण सिंह ने कहा,

'कार्तिक सभी जगह जाएँगे। पर पहले आप अपनी अपनी रिपोर्टिंग तो ठीक से कर दीजिए।'

फिर बड़े कमरे में घेरा बनाकर सब बैठे थे और विकास खंड वार रिपोर्टिंग शुरू हुई थी। कार्तिक को ये देखकर आश्चर्य हुआ था कि कितनी जल्दी लक्ष्मण सिंह ने युवाओं की एक शानदार टीम खड़ी कर ली थी। और तीन महीनों में ही वे तैयार भी हो गए थे। उन्हें अपने ब्लॉक के सभी आँकड़े मुँह जबानी याद थे, वे सभी गाँवों का दौरा कर चुके थे और शिक्षकों तथा प्रभावशाली लोगों को चिन्हित कर चुके थे, उन्होंने बहुत सी सामग्री खुद बना ली थी और बहुत सी नई जानकारी इकट्ठी कर ली थी। कार्तिक को रह रह कर डॉ. नारायणन् की याद आ रही थी, जो अक्सर कहा करते थे, कि साक्षरता और विज्ञान से भी संगठन खड़ा किया जा सकता है।

अंत में लक्ष्मण सिंह ने फोटोग्राफ और खबरों का संग्रह दिखाया। अखबार अभियान की प्रशंसा से भरे पड़े थे। अब कार्तिक का अगले तीन दिनों का कार्यक्रम तय किया गया। लक्ष्मण सिंह और प्रताप भाई खुद साथ रहने वाले थे।

अगले तीन दिन कैसे गुजरे ये कार्तिक को मालूम ही नहीं पड़ा। सुबह आ बजे तक वे लोग किसी एक दिशा में निकल जाते। कहीं शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम, कहीं सामग्री निर्माण कार्यशाला, कहीं महिलाओं के जत्थे और रात में चलती साक्षरता कक्षाएँ। कार्तिक अभिभूत हो गया था। एक रचनात्मक संगठन बनाने का कितना बड़ा अवसर सामने था।

रोज रात के दो बजे तक वे लोग वापस लौट पाते। सुबह आ बजे फिर निकलना होता था पर थकान का कहीं नामो निशां तक नहीं था। लक्ष्मण सिंह अपनी दुबली पतली काया में इतनी ऊर्जा छुपाए है इसका कार्तिक को भान नहीं था। हर दूसरे चौथे गाँव में जीप रोकी जाती और कार्यकर्ताओं के समूह वहाँ मिलते थे। लक्ष्मण सिंह उन्हें समझाते, प्लान बनाते, फीडबैक लेते और आगे बढ़ जाते जैसे एक विद्युत प्रवाह पूरे जिले में फैला था और उसके पीछे थे लक्ष्मण सिंह और उनके साथी।

कार्तिक बहुत ऊर्जा लेकर वापस लौटा था। क्या हुआ अगर पार्टी आज उसकी बात नहीं समझ पा रही। एक बार कॉमरेड मोहन ने जिले का दौरा किया तो अपने आप ही उनका मत बदल जाएगा।

लेकिन कॉमरेड मोहन के पास लक्ष्मण सिंह के जिले में जाने का वक्त नहीं था। उन्होंने कार्तिक से कहा,

'मैं पार्टी निर्माण के काम को आगे बढ़ाना चाहता हूँ। हमारी पहली जरूरत है उन लोगों की शिक्षा का प्रबंध करना जो साक्षरता या विज्ञान आंदोलन से पार्टी में या उसके आसपास आ गए हैं।'

'तो बताएँ कॉमरेड क्या करना होगा।'

'मेरा ख्याल है कि जितने नए लोग पार्टी में या पार्टी के आसपास आ गए हैं उनकी एक क्लास आयोजित की जानी चाहिए। उन्हें बार बार एजुकेट करना होगा।'

'ठीक है कॉमरेड। आप तारीख वगैरह तय करें, मैं प्रबंध करके आपको बताता हूँ। किनको बुलाया जाए ये सूची तो शायद पार्टी ही बनाएगी?'

'हाँ वह हम देख लेंगे।'

पूरे प्रदेश से करीब अस्सी युवा लड़के लड़कियों को छाँटा गया था। जो अपने अपने क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे थे। वक्ताओं में एक तो पार्टी के पुराने थ्योरीटिशियन थे जो उत्तरप्रदेश से आया करते थे और दूसरे कॉमरेड मोहन खुद थे। केंद्रीय समिति से राज्य के इनचार्ज क्लास का उद्घाटन करने वाले थे। विज्ञान आंदोलन की क्लास में विज्ञान आंदोलन के किसी व्यक्ति को नहीं बुलाया जा रहा था ये सोचकर कार्तिक को आश्चर्य हुआ, पर उसने कुछ कहा नहीं।

कार्तिक ने एक आश्रम से दिखने वाले क्रिश्चियन ट्रेनिंग सेंटर में सुंदर से हॉल और कमरों का इंतजाम कर दिया था, जिसमें एक फूलों से घिरा बाग भी था और पास ही लहराती हुई झील थी। पढ़ने पढ़ाने के लिए वातावरण बहुत अच्छा था। कार्तिक ने पूछा था कि क्या किसी ओ.एच.पी. या कंप्यूटर प्रोजेक्टर की जरूरत पड़ेगी? आखिर लोगों को दिन भर बैठाना था। पर कॉमरेड मोहन ने कहा था - इसकी कोई जरूरत नहीं, ये कोई बुर्जुआ क्लास रूम नहीं। हालाँकि कार्तिक को समझ नहीं आया था कि क्लासरूम बुर्जुआ कैसे हो सकता है? वह तो बस क्लास रूम होगा। राजधानी में होने वाली क्लास का क्लास रूम। और आखिर युवाओं के लिए होने वाली क्लास में कोई फिल्म क्यों नहीं दिखाई जा सकती?

फिर वह सरफराज के कहने पर स्कूल वाली पतली पतली कॉपियाँ और कुछ बॉल पेन खरीद लाया था। इसके अलावा कोई पाठ्य सामग्री नहीं थी। जस्टिफिकेशन ये था कि प्रत्येक प्रशिक्षु कॉमरेड अपना खर्च खुद वहन कर रहा था इसलिए कम से कम खर्च करना चाहिए।

उद्घाटन केंद्रीय समिति के सदस्य ने किया। कुछ हल्की फुल्की राजनीतिक बातों के बाद उन्होंने अपना चिंतन प्रस्तुत किया। मध्यमार्गी वामपंथ ही सही राह थी क्योंकि जैसे ही आप दाएँ जाएँगे तो आप पूँजीवादी प्रतिक्रियावादी गर्त में जा गिरेंगे और यदि अधिक बाएँ गए तो हिंसक अराजकता में पड़ जाएँगे। हमें युवाओं को ये बात समझानी थी और उन्हें अपने साथ लाना था।

चर्चा के सत्र में कार्तिक ने उनसे पूछा,

'कॉमरेड अगर हमारी पॉलिटिकल लाइन सही है तो हमारा विस्तार क्यों नहीं होता और अगर हमारा विस्तार नहीं होता तो क्या ये मानना ठीक नहीं होगा कि हमारी पॉलिटिकल लाइन में ही कहीं गड़बड़ है।'

केंद्रीय समिति के सदस्य ने कहा,

'ये मानना गलत है कि हमारा विस्तार नहीं हुआ। आप बंगाल और केरल की तरफ देखिए। बंगाल में तो हम लोग बीस साल से सत्ता में हैं।'

ये कहकर उन्होंने केरल, बंगाल और त्रिपुरा के पुराने आँकड़े दोहरा दिए।

एक युवा लड़की ने हाथ उठाकर कहा,

'कॉमरेड आपका कहना है कि युवाओं को साथ लाना चाहिए। पर युवा व्यक्ति जो पंद्रह से बीस वर्षों के बीच का है, जीवन को आशा भरी निगाह से देखता है, वह कुछ क्रियेटिव कुछ रचनात्मक करना चाहता है, हमारी पार्टी कोई पॉजिटिव, आनंद भरा कार्यक्रम क्यों नहीं लेती जिससे युवा व्यक्ति को कुछ हासिल करने का और योगदान करने का सुख मिले...।'

'जैसे...'

'जैसे साक्षरता आंदोलन। हम लोग पढ़ाते हैं तो हमें अच्छा लगता है। नया कुछ करने का अनुभव होता है।'

'ठीक है। पर वह एक तरह का रिफॉर्म है। उससे मूलभूत क्रांति नहीं हो सकती।'

अब कार्तिक ने कहा,

'कॉमरेड मूलभूत क्रांति तो अन्य तरीकों से भी नहीं हो रही। हमारे प्रदेश में ही लीजिए। बीस सालों से हम वहीं हैं, जहाँ थे। तो क्यों न हम नए रास्ते ढूँढ़ें। बड़े पैमाने पर रिफॉर्म में हिस्सा लें, लोगों को पास लाएँ, और उन्हीं के बीच से रास्ता तलाशने की कोशिश करें...।'

कॉमरेड मोहन ने हस्तक्षेप करते हुए कहा,

'ये वाद विवाद का फोरम नहीं, पार्टी क्लास है। अब जिसे प्रश्न पूछना हो वह अपना प्रश्न और नाम परची पर लिख कर दे दे।'

इसके बाद उन्होंने सवालों का चयन करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे बहस ठंडी पड़ती गई। और फिर कॉमरेड केंद्रीय समिति के सदस्य को धन्यवाद देकर चाय की घोषणा कर दी गई।

दूसरे सत्र में उत्तर प्रदेश से आए पुराने साथी ऐतिहासिक भौतिकवाद और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर भाषण देने वाले थे। उन्होंने बताया कि पदार्थ पहले है और जीवन बाद में, क्योंकि वह पदार्थ में से ही निकला है। मनुष्य मूलतः भौतिकतावादी है। प्रगति थीसिस और एंटीथीसिस में द्वंद्व के चलते होती है और हमें इन द्वंद्वों को ऐतिहासिक दृष्टि से ही जाँचना चाहिए।

भोजन के बाद का सत्र था और भाषण करीब दो घंटे चला। पीछे बैठे लोग पहले जम्हाई ले रहे थे फिर ऊँघने लगे।

सत्र की समाप्ति के बाद सवाल जवाब का सिलसिला शुरू हुआ। इस बार शुरू से ही प्रश्नों की परचियाँ ले ली गई थीं और कॉमरेड मोहन चयन में सावधानी बरत रहे थे। फिर भी रामनारायण ने पूछ ही लिया,

'कॉमरेड इस सदी में ऐसे कई आंदोलन हैं जिन्हें परंपरावादी तरीकों से देखना मुश्किल होगा। जैसे दलितों और आदिवासियों के आंदोलन हैं, या महिला मुक्ति की लड़ाई है या पर्यावरण को बचाने का संघर्ष है। हमारे अपने शहर में गैस त्रासदी हुई है। ऐसी घटनाओं के आसपास भी तो आंदोलन खड़े किए जा सकते हैं। पार्टी इन्हें दरकिनार क्यों करती है?'

'पार्टी मूल द्वंद्वों के आधार पर ही अपना संघर्ष आगे बढ़ाना चाहती है। हमने चार तरह के वैश्विक द्वंद्वों की पहचान की है, हम उन्हीं के आधार पर आगे बढ़ना चाहते हैं। हालाँकि मैं आपकी बात मानता हूँ, नए आंदोलनों के साथ भी रिश्ते बनाने चाहिए।'

'आपको नहीं लगता कि इसमें हमारा थ्योरिटिकल फ्रेमवर्क आड़े आता है? न दलित हमारे पास आ रहे हैं और न आदिवासी और माफ कीजिए मॉइनॉरिटीज भी कोई बहुत आपके साथ नहीं...।'

वक्ता ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। प्रश्न आगे बढ़ गया।

अब पहले सत्र वाली लड़की ने ही कहा,

'कॉमरेड मुझे लगता है समाज सिर्फ द्वंद्व के आधार पर ही नहीं चलता। कई अन्य भावनाएँ या जज्बात भी होते हैं जिनके वशीभूत लोग काम करते हैं। जैसे राष्ट्रभक्ति एक जज्बा है, आदमी उसके लिए प्राण भी देता है। या प्रेम एक भावना है जो आदमी से बड़े बड़े काम करवाती है। हम ऐसे स्फुरणों के आधार पर भी तो काम कर सकते हैं।'

'शायद ये सही हो। पर ये सब सुपर स्ट्रक्चर का हिस्सा हैं। मूल द्वंद्व इकानॉमिक है।'

'कॉमरेड मैं इतने सपाट तरह से नहीं देख पाती।'

वक्ता ने फिर कोई जवाब नहीं दिया।

अब कॉमरेड मोहन ने फिर हस्तक्षेप करते हुए कहा,

'अगर हम लोग मूल विषय पर केंद्रित रहें तो ज्यादा अच्छा होगा।'

बातचीत एक बार फिर परचियों के आधार पर होने लगी। बहस की आँच ठंडी पड़ती गई। फिर भोजन के लिए ब्रेक कर दिया गया।

तीसरे सत्र में कॉमरेड मोहन खुद संगठन के सिद्धांतों पर बात करने वाले थे।

उन्होंने सबसे पहले जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत को लिया। हमारी पार्टी अभी भी बहुत लोकतांत्रिक है। हर स्तर पर बहस कराई जाती है। सबसे फीडबैक लिया जाता है। और अंत में जनवादी केंद्रीयता के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं।

कार्तिक सोच रहा था कि क्या इससे निर्णय की केंद्रीयता भी नहीं बढ़ती जाती। अंत में कुछ लोग रह जाते हैं जो निर्णय लेते हैं और फिर वह नीचे की तरफ सिर्फ आदेश की शक्ल में आता है। क्या हम और खुले नहीं हो सकते?

अब कॉमरेड मोहन ने आलोचना एवं आत्मालोचना के सिद्धांत को सामने रखा। आलोचना को एक हथियार की तरह प्रयुक्त किया जाना था एवं आत्मालोचना को अपने व्यवहार एवं कार्यपद्धति में सुधार के लिए उपयोग में लाना था। अचानक कार्तिक को लगा कि अगर हम आलोचना को हथियार की तरह प्रयुक्त करें तो उसके प्रति हमारी प्रतिबद्धता कम हो जाती है। वह तो बस एक हथियार रह जाती है जिसका विरोधियों को परास्त करने में उपयोग किया जाना है। आम आदमी भावना में बहकर यानी भावनात्मक संबद्धता के साथ ही आलोचना कर पाता है, वह उसमें विश्वास भी करता है। पर जैसे ही आपने आलोचना को हथियार बनाया, आप उसके प्रति ठंडे और निरपेक्ष हो जाते हैं, वह आपके लिए मैनिपुलेशन का हथियार बन जाती है। क्या ये अमानवीय हो जाना नहीं है, क्या इसे इतना अमानवीय हो जाना चाहिए?

और आत्मालोचना? कार्तिक ने देखा था कि मित्रगण अभी भी आत्मालोचना के नाम पर दूसरों की ही आलोचना करते थे क्योंकि वह उनकी तर्क पद्धति में शामिल हो चुका था। उसे अभी भी गांधी का शुचिता और परिष्कार ज्यादा अच्छा लगता था।

अब कॉमरेड मोहन पार्टी और मास ऑर्गनाइजेशन के सवाल पर आए। मास ऑर्गनाइजेशन को खुला खुला होना था। वह पार्टी नहीं था। उसमें बातचीत की आजादी रहनी चाहिए थी और कई तरह के अभिमतों के लिए जगह। अगर हम उसे पार्टी की तरह चलाएँगे तो उसे खत्म कर देंगे।

बिल्कुल। कार्तिक ने सोचा। पर क्या वे खुद ऐसा नहीं कर रहे थे? कम से कम उसके आंदोलन पर तो ये बात लागू होती थी।

फिर उन्होंने मजदूरों, किसानों, छात्रों तथा महिलाओं के संगठनों पर बल दिया और बताया कि उन्हें मास आर्गनाइजेशन की तरह विकसित किया जाना है।

कार्तिक बहुत देर से सुन और सोच रहा था। पहला सवाल भी उसी का था,

'कॉमरेड इस बीच मैं पूरे प्रदेश में घूमता रहा हूँ। मैं आपको बताना चाहूँगा कि जिस पार्टी की हम सबसे ज्यादा आलोचना करते हैं उसने समाज में सबसे गहरी पैठ बनाई है। एक तो उनके तेरह सौ से अधिक स्कूल प्रदेश में चलते हैं जिनके माध्यम से उन्होंने लाखों बच्चों और उनके अभिभावकों से संपर्क बनाया है। अब हजारों एकल स्कूल स्थापित कर रहे हैं। फिर छब्बीस फ्रंट आर्गनाइजेशन उन्होंने बनाए हैं जिनमें वनवासियों के लिए अलग संस्था है, हरिजनों के लिए अलग, शिक्षकों, वकीलों और समाज के अन्य तबकों के लिए भी अलग अलग फ्रंट हैं। वे तीन चार सालों में झाबुआ जैसे आदिवासी जिले की राजनैतिक हवा बदल देते हैं, हम तीस वर्ष में भी नहीं कर पाते। क्यों?'

कॉमरेड मोहन ने कहा,

'वे एक बुर्जुआ, प्रतिक्रियावादी पार्टी हैं, हम एक क्रांतिकारी पार्टी हैं। हम उनकी तरह नहीं सोच सकते।'

'अंत में क्रांति भी व्यक्तियों के लिए ही होगी। पार्टी के लिए नहीं। हम उनकी अच्छी बातें तो ले सकते हैं...'

'आपने अपनी बात कह दी।'

अब कार्तिक चुप हो गया। अब एक युवा पढ़ाकू से दिखने वाले लड़के ने कहा,

'कॉमरेड मैं एलविन टॉफलर के विचारों की पृष्ठभूमि में कुछ पूछना चाहूँगा। उन्होंने अपनी किताब 'थर्ड वेव' में कहा है कि सूचना प्रौद्योगिकी ने एक नई तरह की क्रांति पूरे विश्व में ला दी है और सभी स्थापित ढाँचे नीचे से दरक रहे हैं। मिडल मैनेजमेंट की शक्ति हर जगह कम हो रही है। अब मजदूर भी वही जानते हैं या जान सकते हैं जो उनका प्रबंधन जानता था। वैसे ही पूरे विश्व की सूचनाएँ तेजी से इधर-उधर हो रही हैं। ऐसी दशा में पार्टी संगठन में कुछ बदलाव आएगा या नहीं?'

कार्तिक को सवाल अच्छा लगा था पर कॉमरेड मोहन ने अपनी व्यंग्यभरी मुस्कान से कहा,

'मैं फुटपाथ पर बिकने वाली किताबें नहीं पढ़ता, इसलिए मैं उनके संदर्भ में जवाब भी नहीं देता।'

ये क्या बात हुई? आज के समय में ये सवाल नितांत जरूरी था। उस पर बहस करवाई जानी चाहिए थी। पर कॉमरेड रमेश ने - जो कॉमरेड मोहन के पीछे बैठे थे और जिन्होंने कॉमरेड केंद्रीय समिति के सदस्य के भाषण का हिंदी में अनुवाद करने के अलावा अन्य सत्रों में एक भी शब्द नहीं कहा था - अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, कॉमरेड मोहन के बचाव में कहा,

'देखिए अगर आप लोग पार्टी संगठन के अलावा कोई सवाल पूछना चाहें तो उसे शाम के भोजन के समय पूछिए। फिलहाल हम लोग इसी पर केंद्रित रहें।'

पार्टी और संगठन कोई एब्स्ट्रैक्ट चीज नहीं थे। पर फिर भी कॉमरेड रमेश के इतना कहने पर बहस एक बार फिर रुक गई।

अब पीछे बैठे लड़कों ने कार्टून और चित्र बनाना शुरू कर दिया था। वे उस पर स्लोगन लिख लिख कर उनका आदान प्रदान भी कर रहे थे।

क्लास लगभग समाप्ति पर थी। चाय की घोषणा के साथ ही वह पूरी तरह समाप्त हो गई।

क्लास के बाद कार्तिक शाम को एहसान कुरैशी के साथ झील के किनारे घूमने निकला।

एहसान साहब पुराने कॉमरेड थे और कार्तिक से करीब-करीब बीस साल बड़े थे। शिक्षक रहे थे। उर्दू के लोगों की तरह का कुछ कुछ छुपा सा सेंस ऑफ ह्यूमर रखते थे जो ऐसे मौकों पर खुल कर सामने आता था। पहला सवाल उन्होंने ही दागा,

'क्यों मियाँ आप क्यूँ कॉमरेड लोगों के पीछे पड़े हैं? क्लास को मजे मजे में हो जाने दीजिए। खामखाँ सवाल पर सवाल खड़े कर हमारे युवा कॉमरेडों को परेशान कर रहे हैं।'

कार्तिक अभी भी गंभीर मुद्रा में था,

'एक बात बताइए एहसान साहब। हम गंभीर बहस कहाँ करें? समिति की बैठकें तात्कालिक एजेंडे पर होती हैं, क्लास में आप समय बाँध देते हैं। पार्टी सम्मेलनों में भी ज्यादातर एक ही तरफ से संवाद होता है, तब या तो हम अपने प्रश्न अपने पास रखें या कहीं और जाकर उनके जवाब ढूँढ़ें। एक और भी विकल्प हो सकता है - हर समय आपकी बात मानते रहें।'

'तो मियाँ आप सच की तलाश में निकले काहे के लिए हैं? क्रांति अवश्यंभावी है, होकर रहेगी।'

'आप मेरे कहे को मजाक में ले रहे हैं।'

'अच्छा चलो एक बात बताओ। आपके हिसाब से पार्टी कौन कंट्रोल कर रहा है?'

'क्यों स्टेट कमिटी और स्टेट सेक्रेटेरियट है, वही करते होंगे।'

'गलत। जनवादी केंद्रीयता होते होते स्टेट सेक्रेटेरियट ही रह जाता है, अब बताइए, स्टेट सेक्रेटेरियट में कौन कौन हैं?'

'मुझे नहीं मालूम।'

'आप देखें तो पाएँगे कि हमारे ही क्षेत्र के अधिकतर लोग हैं। और क्षेत्र भी क्या एक दो परिवारों के ही अधिकतर लोग हैं। सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। और हैं नहीं तो हो जाएँगे।'

'ओह!'

'तो पहले तो आप पार्टी का स्ट्रक्चर जानिए। अब बताइए आप मनवाना क्या चाहते हैं?'

'मैं चाहता हूँ कि पार्टी वैकल्पिक तरीकों को देखे। हमारे आंदोलन की ऊर्जा को देखे। सिर्फ बने बनाए चौखटे से देखने पर हम कहीं नहीं जा रहे हैं।'

'तो आपको सबसे महत्वपूर्ण आदमी से बात करनी चाहिए। अब बताइए सबसे महत्वपूर्ण आदमी कौन है?'

'कॉमरेड मोहन'

'गलत। हमारे यहाँ जो दिखता है वह महत्वपूर्ण नहीं होता। उनसे भी महत्वपूर्ण एक आदमी है जो उन्हें संचालित करता है।'

'कौन?'

'आपने अब तक नहीं पहचाना। आज तो वह आपके सामने भी था।'

'नहीं। आप ही बता दीजिए।'

'कॉमरेड रमेश, और कौन?'

'मुझे उनसे भी कोई दिक्कत नहीं। मैं उनसे भी बात करने को तैयार हूँ।'

'असल में दिक्कत यहीं पर है, मानो कि जो कॉमरेड मोहन कह रहे हैं उसमें उनकी पहले ही सहमति है'

'तो वे भी तर्क की बात नहीं सुनेंगे?'

'वह नहीं जो कॉमरेड मोहन के कहे के खिलाफ जाती हो। और उसका एक और भी कारण है।'

'क्या?'

'कॉमरेड मोहन और कॉमरेड रमेश के संबंध बहुत 'पुराने' और बहुत 'गहरे' हैं।'

ऐसा कहते हुए एहसान साहब अजीब तरह से मुस्कुराए। कार्तिक कुछ समझा, कुछ नहीं समझा। उसने बस इतना कहा,

'ओह!'

'जी!'

'आप कैसे जानते हैं?'

'अव्वल तो मैं उनका शिक्षक रहा हूँ। दूसरे मैंने खुद घोड़े के मुँह से सुना है। फ्रॉम हॉर्सेस माउथ। यू नो।'

'होगा, जाने दीजिए। वह उनका व्यक्तिगत मामला है। मेरी रुचि उनके सामाजिक संबंधों में ज्यादा है।'

'पर आदमी समग्र ही होता है ये याद रखना।'

अब वे दोनों झील के किनारे पड़ी एक बेंच पर बैठ गए। एहसान साहब ने अपनी कैंची छाप सिगरेट निकाली और धुएँ के छल्ले बनाने लगे। कार्तिक झील की लहरें देख रहा था।

पार्टी क्लास के बाद कार्तिक ने कुछ दिनों के लिए ऑफिस से छुट्टी ले ली। वह एक बार फिर शहर घूमना चाहता था।

दो दिसंबर निकट ही था और उसने सोचा कि यूनियन कार्बाइड की तरफ जाकर देखा जाए कि क्या हाल हैं। उसकी बहन, जीजाजी और बच्चे लंबे इलाज के बाद ठीक हुए थे पर कमजोरी और कोई न कोई तकलीफ उन्हें घेरे ही रहती थी। उसने जयप्रकाश नगर के अपने दोस्तों का हालचाल लेने का मन बनाया।

त्रासदी के कई सालों के बाद भी और सुधार से कई दावों और वादों के बावजूद, जयप्रकाश नगर में कोई खास फर्क नहीं आया था। नालियाँ वैसे ही सड़ांध से भरी हुई थीं, झुग्गियों पर वैसे ही टाट के बोसीदा पर्दे लटके नजर आते थे और लोगों का स्वास्थ्य पहले से और खराब हुआ था।

कहाँ तो तय हुआ था कि कोई वकील कार्बाइड का मुकदमा नहीं लड़ेगा और कहाँ यूनियन कार्बाइड का मुकदमा लड़ने के लिए सैकड़ों भारतीय वकील खड़े हो गए थे। उन्होंने प्रभावितों का पक्ष कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनमें से कई ने बहुत जल्दी ही शहर की अच्छी कॉलोनियों में कोठियाँ बनवा ली थीं।

भारत सरकार ने सस्ते में ही यूनियन कार्बाइड के साथ कोर्ट के बाहर समझौता कर लिया था और शहर भर में ढेरों दावा अदालतें खुल गई थीं। मुआवजा दिलवाना एक धंधा बन चुका था और वकील, नोटरी, फोटोकॉपी करने वाले सब पैसा बनाने में लगे थे।

अचानक कार्तिक ने अपने आपको उस जगह पाया जहाँ उनका क्लिनिक चला करता था। अचानक एक दिन पार्टी ने उसे बंद करने का निर्णय लिया था। कार्तिक को बहुत आश्चर्य हुआ था। क्लीनिक उस इलाके में लोकप्रिय था और डॉ. नरेंद्र को तथा पार्टी को, बहुत सी राजनैतिक स्पेस दिला सकता था।

मालूम पड़ने पर कार्तिक कॉमरेड श्यामलाल के पास गया था,

'कॉमरेड मालूम पड़ा है कि पार्टी ने क्लीनिक बंद करने का निर्णय लिया है।'

'हाँ। उसका हर माह ढाई सौ रूपये किराया जाता है। और भी खर्चे हैं। उन्हें कौन करेगा?'

'कॉमरेड ढाई सौ रूपये कुछ भी नहीं होते। अगर पेशन्ट से थोड़ी भी फीस ली जाए तो आसानी से उससे कहीं बहुत ज्यादा पैसा प्राप्त किया जा सकता है और क्लीनिक भी चलाया जा सकता है।'

'पार्टी निर्णय ले चुकी है, हम उसे बंद कर रहे हैं'

तो कार्तिक की सलाह का कोई मूल्य नहीं था। अब उसने डॉ. नरेंद्र से बात की।

'डॉक्टर हमें वह क्लीनिक बंद नहीं करना चाहिए। उससे तुम बड़ा काम करके दिखा सकते हो। हमें राजनैतिक स्पेस भी मिल सकती है।'

'छोड़ो यार। मैं कोई जीवन भर वहाँ थोड़े ही रहूँगा।'

कार्तिक को लगा था जो हो रहा है गलत हो रहा है। पर वह खुद क्लीनिक नहीं चला सकता था। और कोई डॉक्टर रखा जाए तो उससे राजनैतिक लाभ नहीं होने वाला था।

अब कार्तिक ने देखा कि कार्बाइड के आसपास कई एन.जी.ओ. पैदा हो गए थे जो मुआवजे, स्वास्थ्य की लड़ाई के नाम पर देश विदेश में संपर्क बना रहे थे, बार बार अमेरिका जाते थे और भारत में संपत्ति अर्जित कर रहे थे। सरकार ने गैस पीड़ितों के नाम पर औद्योगिक क्षेत्र का विकास कर लिया था जो अब पुलिसवालों के कब्जे में था। कई कमिटियाँ आकर जा चुकी थीं पर किसी की भी रिपोर्ट सामने नहीं आई थी। एक दो अस्पताल जरूर अच्छे बने थे, पर वे काफी नहीं थे। एक दो एन.जी.ओ. अच्छा काम भी कर रहे थे और उन्होंने दिखा दिया था कि अच्छे काम से राजनैतिक शक्ति बढ़ाई जा सकती है।

दो दिसंबर की सुबह कार्तिक ने अखबार खोला तो वह गैस त्रासदी की रात के भयानक मंजर के बयान और सरकार की बेरुखी तथा अकर्मण्यता की खबरों से भरा पड़ा था।

एक अखबार ने 'यादों से उतरे लोग' शीर्षक से निम्नांकित कहानियाँ छापी थीं।

'दो दिसंबर १९८४ की रात को नसीर भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक कारखाने के ठीक सामने बसी झुग्गी बस्ती जे.पी. नगर में रहता था। उससे पूछो तो कहेगा -

जब गैस छूटी तो ऐसा लगा कि किसी ने आस पड़ोस में मिर्ची की धूनी लगा दी हो। बाहर धुंधलका था। बल्ब की रोशनी में साफ नजर नहीं आता था। हम भागे तो सड़क के किनारे लाशों के ढेर लगे थे। सुबह होते होते पिता ने, जो फलों का ठेला लगाकर परिवार का पेट पालते थे दम तोड़ दिया। कुछ घंटों बाद छोटी बहन लतीफ जो तब १३ वर्ष की थी, गुजर गई। मुझमें भी चलने फिरने की ताकत नहीं रही जनाब। फेफड़ों की टी.बी. अपने आखिरी दौर में है। डॉक्टर कहते हैं दवा लेते रहो। पर क्या फायदा? दवा काम तो करती नही।'

'अदालत २५,०००/- रूपये देना चाहती है। अब आप ही बताइए! पच्चीस हजार रूपये में क्या होगा? मैं तो किसी काम का नहीं रहा। चार पाँच सौ रूपये इलाज में ही खर्च हो जाते हैं। माँ विधवा हो गई, साथ ही रहती है। बाप की मौत का कुछ मुआवजा मिला था। उसके ब्याज से गुजारा कर रहे हैं। बाकी अल्लाह मालिक है।'

'मैं बन्ने खान। उमर कोई चवालीस साल। नहीं घर में गैस से कोई मरा नहीं। तो अब तक कोई मुआवजा भी नहीं मिला।

पर हालात मरने से भी बदतर हैं। पहले चीनी का बोरा पीठ पर लादकर एक साँस में दूसरी मंजिल तक पहुँचा दिया करता था। बीवी घर सँभालने के अलावा लकड़ी का पीठा चलाती थी। बैंक में भी कुछ रुपया था। पर गैस ने नाकारा कर दिया। दो साल तक अस्पताल में भरती रहे। पर हमाली का काम और लकड़ी का पीठा तो खत्म हो गया। आमदनी कुछ नहीं बस वही छह सौ रूपये राहत के मिलते हैं।'

'नाम - सीताबाई। दो दिसंबर की रात इंदौर जाने के लिए आदमी के साथ निकली थी। स्टेशन पर भगदड़ मच गई। दूसरे दिन दोपहर को घर पहुँची तो देखा पति की लाश झोंपड़ी के दरवाजे पर टिकी है। पता नहीं कब आए टिके-के-टिके रह गए।'

बढ़ई का काम करते थे। मैं मजदूरी करती थी। गुजारा किसी तरह चल जाता था। पर आज दस साल हो गए। कोई मुआवजा नहीं मिला। अदालतों के चक्कर काट काट कर परेशान हैं। वे तरह तरह के कागज और गवाही माँगते हैं। कहाँ से लाएँ?'

इन कहानियों के विपरीत कार्तिक को कुछ और दृश्य याद आए -

एक पत्रकार भाई का हँस हँस कर कहना - अपन शहर में नहीं थे, पर उससे क्या? मुआवजा तो वसूल लिया। मुआवजे के लिए आपकी पकड़ होनी चाहिए।

एक डॉक्टर की छुपी हुई मुस्कराहट - शहर में नहीं थे, पर हमें कौन रोक सकता है? मुआवजा ले लिया।

एक कांग्रेसी मंत्री का अपनी माँ की मौत के बाद मुआवजे का सफल दावा, हालाँकि वे इस शहर में नहीं रहती थीं।

मुआवजा कैसे मिल रहा है इस पर एक अखबार ने लिखा था -

'लोगों को मुआवजा कैसे मिल रहा है इसका अंदाजा लगाना किन नहीं है। इसी साल जून में भोपाल पुलिस ने एक होटल पर छापा मारकर गैस राहत संबंधी फर्जी मामले तैयार करने वाले दो व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया। उनके कब्जे से डॉक्टरों की सीलें, दावा अदालतों की कोरी नोट शीट, मेडिकल सर्टिफिकेट आदि बरामद हुए। पिछले साल सी.बी.आई. ने एक बैंक के पाँच कर्मचारियों के घरों पर छापे मारकर गैस पीड़ितों की अंतरिम राहत में २५ लाख रूपये के घपले का एक मामला पकड़ा।

अपात्र लोगों को मोटा मुआवजा मिलता देखकर गैस पीड़ितों में रोष फैल रहा है। इसकी परिणति हिंसा की घटनाओं में हो रही है। अभी २५ अक्टूबर को चाँदबड़ की दावा अदालत से केवल २५००० रूपये का मुआवजा मिलने से असंतुष्ट एक गैस पीड़ित ने अदालत से बाहर निकलते मजिस्ट्रेट पर जूता फेंक दिया।

इसके पहले मई में हनुमानगंज दावा अदालत के मजिस्ट्रेट पर उनके फैसले से असंतुष्ट एक गैस पीड़ित ने तलवार से हमला कर दिया था। मजिस्ट्रेट के सिर में चार टांके आए हैं। दावा अदालतों के कर्मचारी सुरक्षा की माँग करते हुए हड़ताल पर चले गए हैं।'

कार्तिक ने देखा लोग तिल तिल कर मर रहे थे। राष्ट्र के रूप में हमें कोई शर्म नहीं थी। रोजगार मुहैया कराने वाली सारी योजनाएँ ठप थीं। वर्कशेडों पर ताले लगे थे। भारी कीमत पर खरीदी गई तरह तरह की मशीनें बेकार पड़ी थीं। भोपाल के गैस पीड़ित एक ऐसी अंतहीन सुरंग के द्वार पर थे जिसकी दूसरी तरफ रोशनी कब दिखेगी - किसी को पता नहीं था।

शाम को वही प्रतिरोध का नाटक खेला गया। रैलियों, मशाल जुलूसों और नारों के बीच कार्तिक ने अपने आपको बहुत अकेला महसूस किया। सरकार ने भी एक सर्वधर्म प्रार्थना सभा की थी जिसके नाम से ही कार्तिक को वितृष्णा होती थी। मीडिया ने उसे एक इवेंट की तरह लिया। कैमरा वैन, विदेशी पत्रकार, खूबसूरत लड़कियाँ और व्यस्त अंग्रेजी चैनल आए और आलोचना करके चले गए।

इस तरह गैस पीड़ितों को छोड़कर, और सबके लिए 'गैस त्रासदी दिवस' आया और हँसी खुशी के साथ निबट गया।

कार्तिक का दिल गहरे अवसाद से भर गया।

शायद इस अवसाद को दूर करने के लिए ही कार्तिक उस काव्य गोष्ठी में गया था जिसमें पहली बार लोक कविता और नई कविता सुनाने का एक सम्मिलित प्रयास किया गया था। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनिंदा कवि गोष्ठी में शिरकत कर रहे थे। कविता का संसार आधुनिक विषयों से लेकर लोकरुचि के विषयों तक फैला हुआ था। बीच बीच में दर्शक कोई चुटीली टिप्पणी कर देते तो वातावरण हँसी से भर जाता।

कार्तिक कुछ हल्का महसूस कर रहा था। कविता जैसे उसे बहाए लिए जा रही थी। कि अचानक रामनारायण हड़बड़ाया सा अंदर घुसा।

वह सीधे कार्तिक के पास आया और बोला,

'उन्होंने मस्जिद गिरा दी।'

'किन्होंने?'

'प्रदर्शनकारियों ने, जो अयोध्या में इकट्ठे हुए थे।'

'अब?'

'हमें तत्काल एक निंदा प्रस्ताव तो लेना ही चाहिए। पर ज्यादा बड़ी बात है कि शहर में गड़बड़ हो सकती है, और हमारे कई कवि मुस्लिम भी हैं। उन्हें सुरक्षित उनके शहरों में पहुँचाने का प्रबंध भी करना होगा।'

'ठीक है।'

कवि गोष्ठी तत्काल रोक दी गई थी। रामनारायण ने सांप्रदायिकता के खिलाफ एक जोशीला वक्तव्य दिया था। फिर एक तात्कालिक सा निंदा प्रस्ताव पारित करा के सभा विसर्जित कर दी गई थी।

कार्तिक ने रात में नए स्टेशन से अधिकतर कवियों को रवाना किया। जो रह गए थे उन्हें अपने साथ ही रखा और अगले दिन सुबह तक सभी को अपने गंतव्य की ओर रवाना कर दिया गया।

दंगा सुबह दस बजे के आसपास शुरू हुआ था।

कहते हैं कि पूर्व छात्र नेता और अब मुसलमानों के अलमबरदार अली ने दो जीपों में अपने साथी भरकर चौक और मंगलवारा की दुकानें बंद कराना शुरू कीं। फिर कुछ दुकानों में आग लगा दी गई और इसी दौरान आठ दस लोगों को मार दिया गया।

इसके बाद दंगा भड़क गया।

हिंदुओं की ओर से प्रत्युत्तर में बड़े पैमाने पर हिंसा शुरू कर दी गई। आगजनी और हिंसा का भयानक खेल शुरू हो गया।

मस्जिद ६ दिसंबर को गिराई गई थी और दंगा ७ को शुरू हुआ था। सात की शाम तक कर्फ्यू लगा दिया गया था, पर दंगा बदस्तूर जारी रहा। ९ की सुबह तक करीब डेढ़ सौ लोग मारे जा चुके थे, हजारों शरणार्थी कैंपों में आ गए थे, पुराने शहर के कई बाजार जला दिए गए थे, और अफवाहों का बाजार गर्म था।

नौ की दोपहर कार्तिक ने सरफराज को फोन किया था,

'कहाँ हो?'

'पार्टी ऑफिस में।'

'हमें कुछ करना चाहिए।'

'हाँ, मगर क्या?'

'पार्टी कुछ राजनैतिक मोर्चा जैसा तो विरोध में खड़ा कर ही रही होगी। हम लोग रिलीफ का काम हाथ में लेते हैं।'

'ठीक है। मैं कुछ मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स को जानता हूँ। पहले उनसे दवा इकट्ठी करते हैं।'

'मैं गाड़ी अरेंज कर लूँगा। उसे चला भी लूँगा।'

'तो ठीक है। रामनारायण और डॉ. विजय सक्सेना से और बात कर लें। हम लोग एक टीम बनाते हैं, रिलीफ के लिए।'

इस तरह एक टीम तैयार हुई थी। रामनारायण ने बताया था कि कुछ गांधीवादी और कांग्रेस के एक दो नेता भी एक पुराने कॉमरेड के घर मिल रहे हैं, उसने कॉमरेड मोहन से भी आने के लिए कह दिया है। वहीं स्ट्रेटेजी तय होगी।

कार्तिक और सरफराज भी वहाँ पहुँच गए थे। तय हुआ था कि दो टीमें बनाई जाएँ। एक कैंपों में जाकर दवा दारू का प्रबंध करे और दूसरी खाने पीने तथा कंबलों का। कांग्रेस के अध्यक्ष भी वहाँ थे और उनके संपर्क से कार्तिक को गाड़ी के लिए पेट्रोल प्राप्त करने में कोई असुविधा नहीं हुई थी जो पुलिस पेट्रोल पंप पर, सिर्फ परमिट से ही प्राप्त किया जा सकता था। कार्तिक पहली टीम में था जो जगह जगह जाकर दवाएँ बाँटने और इलाज का प्रबंध कर रही थी। उसने पहली बार दंगों की विभीषिका को देखा। लोग - बच्चे, बूढ़े, औरतें - शिविरों में खुले आसमान के नीचे पड़े थे। शिविर मस्जिदों में, मंदिरों में, स्कूलों में या खुले में ही अहाता घेर कर बना दिए गए थे।

उनकी गाड़ी के पहुँचते ही आसपास भीड़ लग जाती। किसी का हाथ बुरी तरह जल गया था, किसी के पैर पर तलवार मार दी गई थी। लोगों को कई तरह के घाव लगे थे। एक युवक तो जाँघ में गोली खाए बैठा था और उसका ऑपरेशन करना जरूरी था। बुखार और दर्द का तांडव फैला था। पर सबसे बड़ी बीमारी थी भूख और असुरक्षा।

वहीं कार्तिक ने पहली बार वो कहानियाँ सुनीं जो अखबार में नहीं आ पाई थीं :

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हम तो समझते थे भाई साहब कि हम आधुनिक औद्योगिक कॉलोनी में रहते हैं। यहाँ दंगा नहीं होगा। पर इस बार तो दंगाई पुलिस को साथ लेकर आए थे। और टारगेट की शिनाख्त स्थानीय लोगों ने कराई। पहले उन्होंने रुई वाले की दुकान में आग लगाई फिर रुई वाले को हमारी आँखों के सामने उस आग में फेंक दिया। फिर हमारे घरों की तरफ बढ़े। मेरे दो पड़ोसी मारे गए। मैं दीवारें फाँद कर दूसरों के घर में छुपा तो बचा।

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सौ से ऊपर लोग थे। एक भी पहचाना हुआ चेहरा नहीं था। सभी बाहर से आए थे। पूरी तरह संगठित और हथियारों से लैस थे। पहले आग लगाई फिर मारकाट शुरू कर दी।

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मैं पोस्टमॉर्टम रूम के डॉक्टर को जानता हूँ। उससे पूछा था। बोला ११७ उनके मरे हैं, अपने तो बस तीस एक रहे होंगे।

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सरकार खुद करवा रही है। उन्होंने कर्फ्यू लगाने में देरी की। पहले हिसाब चुकता किया तब कर्फ्यू लगाया।

कार्तिक का दिल घबरा जाता। तो ये थी हमारी राजनीति। लोगों की लाशों पर खेलने की राजनीति। उसका इरादा एक बार फिर पक्का हुआ। वह पीड़ितों के पक्ष में ही रहेगा।

दंगे के पाँचवे दिन वे लोग दंगे से सबसे ज्यादा प्रभावित मुस्लिम इलाके जिंसी में जा रहे थे। सुना था वहाँ बहुत से लोग घायल हैं और उन्हें इलाज की जरूरत है।

अभी वे लोग गली के भीतर प्रवेश कर ही रहे थे कि जाने कहाँ से रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने निकलकर उन्हें घेर लिया। उनकी मशीनगनें कार्तिक की टीम पर तनी हुई थीं।

'कहाँ जा रहे हो?'

'रिलीफ टीम है। दवाइयाँ बाँटने जा रहे हैं।'

'अंदर खतरा है।'

'हम लोगों के लिए नहीं।'

'ये दो जवान तुम्हारे साथ जाएँगे।'

'ठीक है।'

कार्तिक की गाड़ी आगे बढ़ी तो उसने देखा। आ.ए.एफ. के जवानों की दीवार के पीछे एक हाथ ठेला था और उस पर एक लाश पड़ी थी। कार्तिक ने गौर से देखा। असगर... हाँ असगर ही था। उसके मुँह से चीख या कराह जैसी कोई आवाज निकली। रामनारायण ने चौंक कर पूछा,

'क्यों, क्या हुआ'

कार्तिक ने हाथ के इशारे से उसे दिखाया। रामनारायण ने कहा,

'गाड़ी रोको, गाड़ी रोको, ये तो असगर है'

सब नीचे उतर आए। तभी आर.ए.एफ. के जवान ने कड़ककर कहा,

'दूर हटो। बॉडी पोस्टमार्टम के लिए जा रही है। तुम लोग अपना काम करो।'

रामनारायण ने पूछा,

'इनकी बीवी को मालूम है?'

'मालूम ही होगा।'

कहकर आर.ए.एफ. वाले आगे बढ़ लिए।

कार्तिक ने गाड़ी असगर के घर की तरफ मोड़ी।

घर पर ताला पड़ा था।

मेडिकल गाड़ी को देखकर पास पड़ोस वाले इकट्ठे हो गए। कार्तिक ने पूछा,

'फरहा भाभी...।'

किसी ने कहा,

'अपने घर चली गईं हैं।'

सामने वही नीम और इमली के दरख्त लहरा रहे थे। उसे याद आया ताला लगे दरवाजे के भीतर रायसेन की गुलाबी फर्शियों वाला फर्श होगा जो बरामदों में खुलता होगा, जहाँ से सफेद चाँदनी की बेलें खंभों से लगी छत पर चढ़ रही होंगी, उस छत पर जहाँ असगर उन लोगों का स्वागत किया करता था।

उसके और रामनारायण के पहुँचते ही वह कोई न कोई शेर दाग देता,

'आओ मियाँ आओ। बहुत दिनों में दीदार हो रहे हैं,

यूँ तो आने को चली आती है दुनियाँ सारी

जिनको आना था जियादा, वही कम आते हैं।

क्यों मियाँ?'

रामनारायण कहता,

'साले शेर 'बासित भोपाली' का और रौब तुम मार रहे हो?'

'कोई बात नहीं खाँ। अपना ही समझो। और क्या हाल हैं?'

यहाँ से बात शुरू होती। फरहा भाभी कभी ठंडाई, कभी लस्सी, कभी फालसे का शरबत लाकर रख जातीं और असगर शहर भर के किस्से सुनाता।

'ये साले शहर की हवा खराब कर देंगे। आजकल बात बात पर झगड़े हो रहे हैं और इनकी सरकार उनको बढ़ावा देती चली जा रही है। खुदा खैर करे।

कहाँ से लाए कोई, ऐतबारे रंग ओ चमन

खिजाँ के हाथ में, जब हो बहार का दामन।'

रामनारायण कहता,

'साले, ये भी तुम्हारा नहीं, ये अख्तर सईद खाँ साहब का है।'

असगर हँस कर कहता,

'यार पढ़े लिखे लोगों के सामने ज्ञान नहीं बघारना चाहिए। पोल पट्टी खुल जाती है। अच्छा चलो एक किस्सा सुनो। ये मेरा है।

मेरी वालिदा मोहतरमाँ ने अपने परदादा नवाब मुइज मोहम्मद खान साहब का अपने नौकरों को मदद करने का किस्सा इस तरह सुनाया। नवाब साहब के दौर में उनके नौकरों को जब भी कोई जरूरत होती तो वे तरह तरह की बातें बनाकर अपना काम निकालते। अशर्फियाँ बहुत दिन से संदूकों और अल्मारियों में रखी हैं, उनमें दीमक लगने का खतरा है। अगर आला हजरत इजाजत दें तो उन्हें धूप दिखा दी जाए। नवाब साहब दरिया दिल आदमी थे। वे नौकरों का मकसद ताड़ लेते और इजाजत प्रदान कर देते। फिर उनके महल की छतों पर अशर्फियाँ गेहूँ की तरह सुखा दी जातीं। नवाब साहब मजे में कहते - मियाँ इन्हें सूपड़ों में डालकर फटक भी लेना। फिर जो गिन्नियाँ फटकने के दौरान सूपड़ों से बाहर गिर जातीं कहते - चलो उन्हें तुम्हीं रख लो। वे मेरे हक से बाहर गिर गईं। नौकर खुश होते और दुहाइयाँ देते।'

रामनारायण कहता,

'तुम भी यार फेंकते हो तो फेंकते ही चले जाते हो। कुछ ढंग का काम क्यों नहीं करते?'

'मसलन?'

'मसलन पुराने भोपाली हो जरा शहर के बारे में ही कुछ लिख डालो। जैसे इसका अच्छा सा इतिहास।'

'जरूर। अगर मैं लिखूँगा तो इन सालों को बताऊँगा कि सदियों से इस शहर में हिंदू मुसलमान साथ साथ रह रहे हैं और अमन चैन से रह रहे हैं। आप जहर न घोलें।

मेरे इतिहास में माँजी मामोला की कहानी होगी जो हिंदू थीं और जिन्होंने एक वक्त में भोपाल के इतिहास को अहम मोड़ दिया। मैं बताना चाहूँगा कि नवाब भले ही मुसलमान रहे हों पर दीवान अक्सर हिंदू हुआ करते थे जैसे लाला विनय राम या लाला घासीराम या लाला केसरी सिंह। १८१८ की लड़ाई में जिन लोगों ने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया उनमें डूंगर सिंह, जोर सिंह, रतन सिंह जमींदार और रेहटी के अमन सिंह शामिल थे। नवाब कुदसिया बेगम के सबसे प्रमुख मंत्री थे राजा खुशवक्त राय और सिकंदर बेगम के प्रधानमंत्री थे राजा राम किशन।

ये तो एक ट्रेडीशन ही था कि बेगमों के शिक्षक हिंदू रखे जाएँ। नवाब शाहजहाँ बेगम की परवरिश लाला खुशवक्त राय की देख रेख में हुई थी। दीवान ठाकुर प्रसाद, नवाब सुल्तान जहाँ बेगम की शिक्षा के लिए जिम्मेदार थे। पंडित गणपत लाल भी उन्हें पढ़ाया करते थे। पंडित ब्रजनंदन लाल नवाब हमीदुल्ला खान के टीचर थे। नवाबी जमाने की होली और फाग उत्सव तो जग प्रसिद्ध थे।

और दूर क्यों जाएँ। पार्टीशन के जमाने में भी हमारे यहाँ कोई बड़ा फसाद नहीं हुआ। कुछ हिंदू जरूर घबरा कर रेल्वे स्टेशन पहुँच गए थे कि शहर छोड़ दें पर बेगम आबिदा सुल्तान खुद स्टेशन गईं थीं और उन्हें वापस लिवा लाईं थीं।'

कार्तिक को उसके इतिहास के ज्ञान पर आश्चर्य होता था। वह प्यार से कहता,

'असगर भाई। आप ये सब लिखिए इससे बहुत फायदा होगा।'

'लिखूँगा मियाँ जरूर लिखूँगा। फिलहाल आप एक शेर सुनिए,

पीछे बँधे हैं हाथ मगर शर्त है सफर,

किससे कहें कि पाँव के काँटे निकाल दे।'

इस बार कार्तिक तुर्की ब तुर्की जवाब देता,

'मैं ताज हूँ तो मुझको सर पे चढ़ा के देख,

या इस कदर गिरा कि जमाना मिसाल दे।'

फिर कहता,

'भाई जान 'ताज' को तो मैं भी जानता हूँ।'

असगर खुश हो जाता,

'क्यों नहीं, क्यों नहीं। आखिर आप भी भोपाली हैं।'

वे एक बार फिर मिलने का वादा कर विदा लेते।

वही असगर आज हाथ ठेले पर पड़ा था।

उस दिन कार्तिक जब घर लौटा तो नीति के सामने फूट फूट कर रोया था नीति के पूछने पर कहा था,

'दंगा बहुत बर्बर काम है नीति। वह हमसे क्या क्या छीन लेता है। हमें मालूम भी नहीं पड़ता। इसे कभी नहीं होना चाहिए। कभी नहीं।'

कॉमरेड मोहन बीच बीच में कार्तिक की टीम में शामिल होते रहे थे।

स्थिति कुछ सामान्य होने पर उन्होंने सुझाव दिया कि एक तो वे लोग अपने अनुभवों को डॉक्यूमेंट कर लें और एक व्यापक सर्वेक्षण भी कर लिया जाए जिसके आधार पर रिपोर्ट बनाकर गवर्नर को सौंपी जा सके।

कार्तिक और सरफराज दिल से इस काम में लगे। करीब दस हजार लोगों से बातचीत की गई जो उस समय का सबसे बड़ा सर्वेक्षण था। टैबुलेशन और निष्कर्ष निकालने में भी उन लोगों ने बड़ी मेहनत की। कार्तिक ने गर्ल्स हॉस्टल जाकर एक वीडियो फिल्म बनाई। कहा गया था कि वहाँ से दो लड़कियाँ गायब हैं और वहाँ सामूहिक बलात्कार हुआ है पर वीडियो में उन दो लड़कियों से बातचीत की गई थी और बताया गया था कि वैसा कुछ भी नहीं हुआ है।

रिपोर्ट शानदार बनी और उसे वीडियो कैसेट के साथ गवर्नर को दिया गया। कॉमरेड केंद्रीय समिति के सदस्य खास तौर पर गवर्नर से मिलने शहर में आए। उनके साथ एक डेलीगेशन गवर्नर से मिलने गया।

पर कार्तिक को उसमें शामिल नहीं किया गया था।

दंगों के बाद एक बार फिर काम पर लौटना एक सुखद अनुभूति थी।

कार्तिक के पीछे नताशा साक्षरता आंदोलन का काम देख रही थी। आंदोलन बहुत तेजी से और जिलों में फैल रहा था। उनकी समिति के द्वारा संचालित जिलों से भी अच्छी खबरें आ रही थीं। विशेषकर औरतों तथा दलित वर्ग के लोगों द्वारा अभियान में बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी हो रही थी। अभियान ने नई तरह के संघर्ष पैदा किए थे। जैसे रायगढ़ में तेंदूपत्ता मजदूरों ने काम की सही कीमत माँगनी शुरू कर दी थी, दुर्ग में पंचायती राज को सही करने के लिए एक कलेक्टर सरकार से भिड़ गया था, बिलासपुर में शराब की दुकानें खोलने के खिलाफ महिलाओं ने मोर्चा खोल लिया था।

ये सभी महत्वपूर्ण स्फुरण थे जहाँ से ये नए आंदोलन खड़े किए जा सकते थे। पर कार्तिक को एकदम नई तरह की समस्या से जूझना पड़ा, रिव्यू के बाद नताशा ने उससे कहा,

'कार्तिक मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।'

'हाँ जरूर। बोलो'

'लक्ष्मण सिंह के बारे में'

'क्यों कोई खास बात?'

'मुझे लगता है खास बात है। वह हमारी समिति के महत्वपूर्ण आदमी हैं।'

'तो बताओ।'

'कार्तिक वे राज्य कार्यालय से बहुत सा पैसा कैश ले जाते हैं और उसका ठीक ठीक हिसाब नहीं देते। कई बार अपना पर्सनल खर्च भी इसी में डाल देते हैं। मैं ऑफिस का काम देख रही हूँ। मुझे ये आपत्तिजनक लगता है...।'

'तुमने उनसे बात की?'

'हाँ की थी।'

'क्या जवाब दिया?'

'जो जरूरी है वही कर रहा हूँ।'

'ये तो कोई बात नहीं हुई। तुम कार्यकारिणी की बैठक बुला लो। उसमें बात कर लेना।'

'उसी बारे में तुमसे बात कर रही थी।'

'अच्छा एक बार उनके जिले का दौरा कर आता हूँ। वहाँ और साथियों की राय भी ले लेंगे। फिर कोई निर्णय लेंगे।'

'ठीक है।'

कार्तिक एक बार फिर लक्ष्मणसिंह के जिले में पहुँचा था, साक्षरता अभियान का रंग जानने।

अभियान पहले की तरह ही अपने शबाब पर था।

जिले भर में साक्षरता कक्षाएँ जारी थीं। हजारों लोग, विशेषकर महिलाएँ इन कक्षाओं में आ रहे थे। उनकी रचनात्मकता भी उनकी लोक कलाओं और नए सीखे अक्षर ज्ञान से रचे गीतों में फूटी पड़ रही थी। शराब के खिलाफ किताब में एक पाठ था जिसने उनके गुस्से को एक दिशा भी प्रदान की थी। कुछ गाँवों में व्यापक प्रदर्शन हुए थे और कलेक्टर को ठेकों की नीलामी रोक देनी पड़ी थी।

अभी अभी पंचायत चुनाव हुए थे और कई शिक्षक तथा साक्षरता कर्मी पंच या सरपंच चुनकर आए थे। उन्हें संगठित किया जा सकता था।

कार्तिक जहाँ भी गया वहाँ उसका भव्य स्वागत हुआ। उसे बताया गया कि पिछले दिनों एक केंद्रीय मंत्री उस जिले में आए थे और वहाँ की साक्षरता रैली उनकी राजनैतिक रैली से बड़ी हुई थी।

लगभग हर जगह लक्ष्मण सिंह उसके साथ साथ था। और उसे कहीं भी महसूस नहीं हुआ कि कहीं कोई गड़बड़ है तब तक, जब तक कि पार्टी के पुराने साथी सादिक अली से उसकी बातचीत नहीं हुई। सादिक अली ने कहा था,

'कार्तिक, मुझे तुमसे बात करनी है।'

कार्तिक आजकल इस वाक्य से बहुत घबराता था। अब एक शिकायतों का पुलिंदा उसके ऊपर गिरेगा। फिर भी उसने कहा,

'ठीक है। शाम को गेस्ट हाउस आओ। साथ में चाय पिएँगे।'

चाय के साथ साथ सादिक अली ने शिकायतों की लंबी फेहरिस्त पेश कर दी थी,

'कार्तिक जो दिख रहा है वैसा है नहीं। लक्ष्मण सिंह गले तक भ्रष्टाचार में डूबा है। हर खरीद में घोटाला हुआ है। किताबें कम मँगाई गई हैं, क्वालिटी खराब है पर फिर भी पेमेंट पूरा हुआ है। फर्नीचर, एडवांसेस, गाड़ियाँ - सब में कहीं न कहीं गड़बड़ी है। तुम देखो इससे पार्टी की छवि भी खराब हो रही है।'

'तो आप लोग अपनी समिति में बात क्यों नहीं करते।'

'मैंने कोशिश की थी। पर लक्ष्मण सिंह होने नहीं देते।'

'ठीक है। मैं बात करूँगा।'

कार्तिक ने सोचा वह समय मिलने पर लक्ष्मण सिंह से बात करेगा। उसके काम को लेकर कार्तिक के दिल में अभी भी उसके लिए बहुत सम्मान था।

पर उसे फिर एक झटका लगा।

उसके दौरे की समाप्ति पर एक सम्मेलन का आयोजन किया गया था जिसमें शहर और सभी विकास खंडों के प्रतिनिधि शामिल थे। हॉल पूरा भरा हुआ था और पोस्टरों तथा झंडों से सजा हुआ भी। सम्मेलन के शुरू में शानदार साक्षरता गीत गाए गए जिससे वातावरण चार्ज हो गया। फिर कार्तिक का भाषण हुआ जिसमें उसने देशभर के अभियान की समीक्षा रखी और प्रदेश में उसकी बढ़ती ताकत का जिक्र किया।

अभी लक्ष्मण सिंह धन्यवाद देने के लिए खड़े ही हुए थे कि पीछे कुछ हलचल सी हुई। पीछे कुछ लड़के एक परचा बाँटने की कोशिश कर रहे थे और कुछ दूसरे लड़के उन्हें रोकने और परचे छीनने की कोशिश कर रहे थे। एक लड़का आकर कार्तिक को परचा दे गया।

लक्ष्मण सिंह ने जल्दी से धन्यवाद दिया और सम्मेलन समाप्ति की घोषणा कर दी। फिर वह जल्दी जल्दी पीछे की ओर गया कि गड़बड़ी को रोक सके।

कार्तिक ने परचा पढ़ा।

आमंत्रण

''हमारे नेता लक्ष्मण सिंह'' नामक प्रदर्शनी का उद्घाटन

प्रिय महोदय/महोदया,

जन साक्षरता समिति द्वारा आयोजित

''हमारे नेता डॉ. लक्ष्मण सिंह''

नामक प्रदर्शनी के उद्घाटन के अवसर पर

आप सादर आमंत्रित हैं

इस अवसर पर

मुख्य अतिथि होंगे - लक्ष्मण सिंह

विशेष अतिथि होंगे - लक्ष्मण सिंह

प्रमुख अतिथि होंगे - लक्ष्मण सिंह

अध्यक्षता करेंगे - लक्ष्मण सिंह

प्रदर्शनी का उद्घाटन स्वयं लक्ष्मण सिंह द्वारा किया जाएगा।

कार्य - विभ्रम

चारण गान : श्री (आप सब जानते हैं) एवं सुश्री (आप सभी जानते हैं) द्वारा।

फोटो प्रदर्शनी : लक्ष्मण सिंह के पोस्टर साइज में लिए गए १०० बड़े बड़े चित्र जिनमें उन्हें मंत्रियों के चरण छूते हुए, उनसे गले मिलते हुए और शहर के भ्रष्ट टुटपुंजिए नेताओं के साथ गलबहियाँ डाले हुए दिखाया गया है।

पुस्तक प्रदर्शनी : इसमें लक्ष्मण सिंह द्वारा अब तक यहाँ वहाँ से चुराई गई और अपने नाम से छपा ली गई सभी किताबें प्रदर्शित की जाएँगी जिनमें वे लोक कथाएँ भी शामिल हैं जो उन्होंने अपने नाम से छपा ली हैं।

सूक्त वाक्यों की प्रदर्शनी : इस विशिष्ट प्रदर्शनी में लक्ष्मण सिंह द्वारा अब तक बोले गए सभी सूक्त वाक्यों को संयोजित किया गया है। जैसे ''मैं सामंती मूल्यों में विश्वास रखता हूँ'', ''एक झूठ को सौ बार बोलो तो वो सच लगने लगता है'', ''मैं कहीं से कोई भी चीज चुरा सकता हूँ'', ''मुझे कोई नहीं रोक सकता'', आदि।

विशेष वक्तव्य : इस वक्तव्य के माध्यम से लक्ष्मण सिंह द्वारा अपने वैज्ञानिक जीवन की सबसे प्रमुख खोज का प्रदर्शन किया जाएगा। इस वक्तव्य का शीर्षक होगा, ''आदमी के शरीर में दिमाग नहीं होता'', उन्होंने सिद्ध किया है कि जो कुछ भी होता है, सिर्फ घुटने में होता है।

थैली का आदान प्रदान : हालाँकि उन्हें किसी तरह की थैली की कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी उनके प्रति सम्मान प्रगट करते हुए उन्हें १ करोड़ की थैली (सम्मान राशि) भेंट की जाएगी।

ये राशि लक्ष्मण सिंह स्वयं अपने दाहिने हाथ से लेकर अपने बाएँ हाथ को देंगे। उन्होंने इस कार्यक्रम में भाग लेने की शर्त रखी है कि बायाँ हाथ राशि प्राप्त करने के बाद सीधे जेब में जाएगा और उसके बाद वह कभी बाहर नहीं आएगा।

सांस्कृतिक कार्यक्रम : इसके बाद दो विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया है। इनका नाम है ''गाली-गलौज'' एवं ''छीना-छपटी''। प्रथम कार्यक्रम में लक्ष्मण सिंह अपने सहयोगी साथियों के बीच बैठकर व्यापक ''गाली गलौज'' करेंगे और इस तरह सांस्कृतिक मूल्यों को अभिव्यक्ति प्रदान करेंगे।

दूसरे कार्यक्रम के प्रमुख कलाकार भी लक्ष्मण सिंह ही होंगे इसके प्रथम दृश्य में वे साथी महिला कलाकार से ''चेक बुक'' छीन ले जाने का अभिनय करेंगे। आगे के दृश्यों में उन्हें रिपोर्ट और किताबें उठाते हुए, राशि झपट कर ले जाते हुए, फर्नीचर अपने घर पहुँचाते हुए दिखाया जाएगा।

इस आमंत्रण के साथ ही पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को आदेश दिया जाता है कि वे प्रदर्शनी के अवसर पर उपस्थित रहकर अपने आपको ''जनांदोलन'' बताएँ साथ ही अपने साथ १००-१०० लोगों की भीड़ लाकर इस ''जनांदोलन'' को मजबूत करें। अगर ऐसा नहीं किया तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा या भ्रष्ट घोषित कर दिया जाएगा।

जिन्हें पिछली प्रदर्शनी के अवसर पर इकट्ठा किया था उन्हें भूलकर भी इस बार न लाएँ।

तीन बार बोलेंगे

जय - लक्ष्मण सिंह

जय - लक्ष्मण सिंह

जय - लक्ष्मण सिंह

धन्यवाद

कार्तिक ने पर्चा पढ़ा और उसे लगा वाकई कहीं कोई गड़बड़ी थी।

आंदोलन की अपनी ताकत थी पर उसके खतरे भी, भ्रष्टाचार या व्यक्तिपूजा की शक्ल में सामने थे। क्या दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई चीजें नहीं थीं?

उसे इस संबंध में सोचना होगा।

रात में भोजन के बाद वह लक्ष्मण सिंह के साथ बैठा।

'सुनो लक्ष्मण, मेरे मन में तुम्हारे काम के लिए बहुत सम्मान है। जिस तरह तुमने जिलेभर में नेटवर्क खड़ा किया है वह काबिले तारीफ है। फिर भी मेरा सुझाव है कि तुम आर्थिक आरोपों से बचो। उन्हें अपने आसपास भी मत फटकने दो।'

'लगता है आज सादिक अली ने आपसे बात कर ली है।'

'अकेले सादिक अली की ही बात नहीं है। नताशा भी बहुत सारी शिकायतें कर रही थी।

'ये सब बोगी हैं मेरे खिलाफ। सादिक अली जैसे लोग चलाते रहते हैं। मैं उनकी परवाह नहीं करता। वे खुद भ्रष्ट हैं। मैं चाहता तो मेरी दराज से दस हजार रूपये चुराने के आरोप में उन्हें अंदर करवा सकता था।'

'और वो परचा?'

'वो नितिन देव ने बँटवाया है। वह नक्सलवादी है। मेरी छवि खराब करना उसका लक्ष्य है।'

लक्ष्मण सिंह के पास हर सवाल के उत्तर थे और वे आत्मालोचन के लिए तैयार नहीं थे।

पर कार्तिक का मन उनके सारे उत्तर मानने को तैयार नहीं हुआ। आखिर वे एक ऐसे जिले के आंदोलन को लीड कर रहे थे जो देश में और विश्व में मॉडल बन सकता था। उनका साफ सुथरा रहना बहुत जरूरी था।

उसने सोचा अपने शहर लौटकर कॉमरेड मोहन से बात करेगा।

घर पहुँचा तो किशन भाई का संदेश उसका इंतजार कर रहा था।

किशन भाई पुराने समाजवादी थे और अभी भी कई सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रहते थे। संदेश था,

'मेरे घर के सामने आजकल डॉक्टर राजाराम रहने आ गए हैं। उन्हें सरकार के साक्षरता मिशन का डायरेक्टर बनाया गया है। उन्होंने तुम्हारा नाम बहुत सुना है। तुमसे मिलना चाहते हैं। आ जाओ तो मुझे फोन करना।'

कार्तिक ने फोन करके अगले दिन सुबह की मुलाकात तय कर ली।

डॉक्टर राजाराम और किशन भाई ठीक नौ बजे हाजिर थे। राजाराम कार्तिक को सरल आदमी लगे। वे आए और कार्तिक के साथ ही ड्राइंग रूम के फर्श पर बैठ गए। उन्होंने अपने परिचय में बताया,

'मध्यप्रदेश के ही छोटे से गाँव का रहने वाला हूँ। साक्षरता के संदर्भ में आपका नाम बहुत सुना था। सोचा काम शुरू करने के पहले आपसे मिल लूँ।'

'जी जरूर। आप जो पूछना चाहें पूछिए।'

डॉ. राजाराम ने शुरुआत बिल्कुल शुरुआती सवाल से ही की थी - कोई भी आखिर क्यों पढ़े, क्या रोजी रोटी कमाना एक गरीब के लिए ज्यादा जरूरी नहीं है? कार्तिक उन्हें व्यापक परिभाषा की ओर ले गया था जहाँ साक्षरता खुद को और अपने आसपास को जानने का हथियार थी और फिर अपनी परिस्थिति को बदलने का भी। वह रोजी रोटी को रिप्लेस नहीं कर रही थी। उसे सप्लीमेंट कर रही थी। डॉ. राजाराम संतुष्ट दिखे थे।

फिर उन्होंने प्रदेश में चल रही परियोजनाओं के बारे में जाना था। उनमें आ रही दिक्कतों को पहचाना था। परियोजनाएँ लिखी कैसे जाती हैं इसे समझा था और फिर कौन कौन लोग उन्हें पास करवाने में मददगार हो सकते हैं, उनके नाम और पते इकट्ठे किए थे।

कार्तिक ने सहर्ष ये सारी जानकारी उन्हें दी थी, आखिर वे सरकार की ओर से प्रदेश का नेतृत्व कर रहे थे।

करीब दो बजे डॉ. राजाराम ने बहुत गर्मजोशी से कार्तिक से हाथ मिलाया, उसे धन्यवाद कहा और विदा ली।

अगले दिन अपने कार्यालय पहुँच कर राजाराम ने जो पहला काम किया वो ये कि अपने सभी जिला अधिकारियों को ये आदेश भेजा कि भविष्य में वे कार्तिक की जन शिक्षा समिति के साथ अधिक जुड़ाव न रखें। आखिर ये सरकारी कार्यक्रम था और अब उनका कार्यालय परियोजनाएँ बनाने, उन्हें संचालित करने और दिशा निर्देश देने में पूरी तरह सक्षम था। ध्वनि ये थी कि अब मैं आ गया हूँ और देखता हूँ कि कोई कार्तिक वार्तिक या उसकी समिति, कैसे सरकारी काम में दखलंदाजी करती है।

कार्तिक को दूसरे दिन खबर लग गई थी। उसने किशन भाई को फोन करके पूरा मामला बताया था और कहा था,

'मैंने आपके कारण उनसे बात कर ली। पर जो उन्होंने किया उससे बड़ी बौद्धिक नीचता और कोई नहीं हो सकती।'

'मुझे अचरज है।'

'पर मुझे नहीं। आखिर में वे एक ब्यूरोक्रेट ही निकले।'

इस घटना से कार्तिक के मन में एक सेंस ऑफ अर्जेंसी जागी। तो सरकार अब सचेत है। वह अपनी गति बढ़ाएगी। किसी भी जन उभार को बहुत दिन टिकाए रखना मुश्किल होता है। हो सकता है कि उसकी समिति के लोगों को धीरे-धीरे जिलों में अलग थलग किया जाए। फिर तो किसी भी तरह का कंसॉलिडेशन ही संभव नहीं रह पाएगा। और पिछले दो तीन सालों का काम भी व्यर्थ हो जाएगा।

अब कार्तिक एक बार फिर कॉमरेड मोहन के पास पहुँचा।

वे अभी अभी कहीं से आए थे और अभी अभी कहीं जाने वाले थे। कार्तिक ने बीच में उपलब्ध कुछ समय को पकड़ा।

कॉमरेड मोहन के साथ राज्य सचिवालय के एक दो मित्र और बैठे थे। कार्तिक के पहुँचने पर उन्होंने मुस्कुरा कर कहा,

'आइए आइए, आप दौरे से कब लौटे?'

तो इन्हें खबर थी। शायद लक्ष्मण सिंह ने इन्हें फीडबैक भी दिया हो। कार्तिक ने कहा,

'मुझे आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं और वे गंभीर हैं।'

'बताएँ।'

'देखिए कॉमरेड अब ये सिद्ध करने की जरूरत नहीं रह गई है कि साक्षरता या विज्ञान आंदोलन जैसे आंदोलनों से भी लोगों तक पहुँचा जा सकता है। हमने ये करके दिखाया है। कुछ जिलों में तो जबरदस्त उभार है और बाकी में भी अच्छा खासा उत्साह है। इस समय जरूरी है कि हम कंसॉलिडेशन के बारे में सोचें।'

'आपका क्या विचार है?'

'मेरा ख्याल है कि साक्षरता और विज्ञान आंदोलन का, या सांस्कृतिक आंदोलन का कंसॉलिडेशन उसी के फॉर्म में होना चाहिए। सीधे पार्टी के फॉर्म में नहीं। हालाँकि होगा वह पार्टी सदस्यों के माध्यम से ही। आप देखें कि शराब बंदी के लिए स्त्रियों ने आंदोलन चलाया है, हम उनके समूह गठित कर सकते हैं। सांस्कृतिक समूहों को नाम दिए जा सकते हैं और कार्यक्रम भी। वे एक ग्रामीण क्लब की तरह काम कर सकते हैं। अभी अभी साक्षरता आंदोलन से कई पंच सरपंच जीत कर आए हैं उनसे संवाद किया जा सकता है। पुस्तकालय और स्कूल खोले जा सकते हैं और उन्हें अपने साथ रखा जा सकता है। एक बार ऐसे ग्रास रूट समूह बने तो पंचायतों के स्तर पर संसाधनों के बेहतर उपयोग या उन पर कब्जे की लड़ाई लड़ी जा सकती है...'

'ठीक है। मैं लौट कर आता हूँ तो विचार करते हैं।'

'कॉमरेड ये विचार जल्दी करने की जरूरत है। क्योंकि सरकार भी अब सचेत हो चुकी है और वे अपनी गति बढ़ाकर अपना कंट्रोल स्थापित करने की कोशिश करेंगे। हमें उनके पहले अपना स्ट्रक्चर खड़ा कर लेना चाहिए।'

'मुझे लगता है कार्तिक कि कंसॉलिडेशन पार्टी आर्गनाइजेशन के रूप में ही होना चाहिए।'

'वो हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। पहले तो शायद आप बहुत कम लोग ही छाँट पाएँगे जिनकी चेतना का स्तर ऊँचा होगा और एक बड़ी संख्या बाहर रह जाएगी। दूसरे जिन्हें छाँटेंगे वे भी शायद एक पार्टी मेंबर के स्तर पर काम न कर पाएँ। तीसरे प्रशासन की निगाहें आंदोलन पर लगी रहती हैं, उनके आदमी भी समितियों में घुसे हैं। वे तत्काल दमन की कार्यवाही बढ़ाएँगे। राज्य स्तर पर हम इतने मजबूत नहीं कि उसे रोक पाएँ। और सबसे बड़ी बात है कि मूल लड़ाई चेतना की है, उसे सांस्कृतिक पहल और साक्षरता के माध्यम से ही लड़ना होगा। हमें एक इंटरमीडियेट स्ट्रक्चर के बारे में सोचना चाहिए जिससे लोग हमारे साथ रह सकें।'

'चलिए देखते हैं।'

'और एक दूसरी बात कॉमरेड उन जिलों के बारे में हैं जहाँ हमारे लोग सीधे लीड कर रहे हैं। उनकी छवि को साफ सुथरा, बनाए रखने की जरूरत है। वहाँ हम काफी गेन कर सकते हैं।'

'आप लक्ष्मण सिंह के बारे में तो नहीं कह रहे हैं?'

'उनके बारे में भी कह रहा हूँ।'

'हाँ उनका भी फोन आया था। वे भी आपके बारे में कुछ कह रहे थे।'

'क्या?'

'कुछ यूँ ही। अच्छा लक्ष्मण सिंह तो आपके दोस्त थे?'

'अभी भी हैं।'

'कोई झगड़ा वगड़ा तो नहीं हुआ?'

'जी नहीं। इस बार उनके जिले में गया तो उनके खिलाफ काफी असंतोष था। मैंने लौटते समय उन्हें चेताया भर था।'

'चलिए। मैं लौट आऊँ फिर देखते हैं।'

कार्तिक को उनके व्यवहार पर बहुत आश्चर्य हुआ था। आखिर ये चिंतित क्यों नहीं होते। सैकड़ों नवयुवक इस तरह के आंदोलन में आए हैं। क्रिएटिव काम में लगे हैं, उनकी चिंता की जानी चाहिए, उन्हें बचाया जाना चाहिए। पर ये उसके और लक्ष्मण सिंह के बीच मतभेद की तलाश कर रहे हैं? क्या इन्हें आंदोलन के विस्तार की बिल्कुल भी चिंता नहीं या ये कुछ और करना चाहते हैं? वह कुछ और भी कार्तिक से तो शेयर किया ही जा सकता था। खैर जो होगा, सामने आ जाएगा।

इस बीच दंगे के समय सत्तारूढ़ रही सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था और नई सरकार ने सत्ता सम्हाल ली थी।

नए मुख्यमंत्री वही थे जो कार्तिक के साथ दंगे के समय रिलीफ का काम करते रहे थे, उस समय वे पार्टी अध्यक्ष थे।

उन्हें साक्षरता आंदोलन की ताकत का अंदाजा था और वे कॉमरेड मोहन से ज्यादा बुद्धिमान थे। उन्होंने तत्काल शीर्ष स्तर पर रेडिकल छवि रखने वाले अफसरों को बिठाया जो कार्तिक की समिति से ज्यादा रेडिकल भाषा बोलने लगे। उन्होंने तत्काल पूरे प्रदेश में आंदोलन को गति प्रदान करते हुए उसे इतना बड़ा बना दिया कि उसे सम्हालना कार्तिक के साथियों के बस में नहीं रहा। पहले उन्होंने परियोजना अधिकारियों को बदला फिर उनके माध्यम से बड़े बड़े कार्यक्रम और रैलियाँ करवाने लगे। लगभग प्रत्येक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री पहुँचते थे और उनकी छवि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में निखरती जाती थी।

पर धीरे धीरे आंदोलन में से स्वयंसेवी भावना समाप्त होने लगी। सरकार ने भी लालच के तौर पर शिक्षकों को पढ़ाने का पैसा देने की घोषणा कर दी।

और ऐसा करते हुए उन्होंने कार्तिक को अपने और पास लाने की कोशिश की। कई समितियों में उसे रखा। डॉ. नारायणन् इसे धृतराष्ट्र मेथड ऑफ किलिंग अ मैन कहते थे। जिसे मारना हो उसे अपने इतना पास लाकर भींचों कि उसका दम ही घुट जाए।

मगर कार्तिक सचेत था। उसने बराबर दूरी बनाए रखते हुए 'सरकारीकरण' के विरुद्ध आवाज उठाना शुरू किया। उसने कहा कि जन सहयोग और जन भावना के ह्रास के साथ साक्षरता आंदोलन की मूल भावना ही मर जाएगी और वह एक प्राणहीन कार्यक्रम होकर रह जाएगा।

पर सरकार ने अपने तरीके नहीं बदले। एक एक करके जिले सरकार के हाथ में जा रहे थे। कार्तिक को अब भी उम्मीद थी कि पार्टी कोई कार्यवाही करेगी और काफी कुछ संपर्कों को बचाया जा सकेगा।

तभी वह धमाका हुआ था।

एक दिन सुबह सुबह कार्तिक के पास खबर आई कि लक्ष्मण सिंह को उसके जिले की साक्षरता समिति के प्रमुख पद से हटा दिया गया है।

इस कार्यवाही के पीछे तरह तरह की बातें सुनाई पड़ रही थीं। अखबार भ्रष्टाचार की खबरों से भरे पड़े थे। कुछ अखबारों ने अकाउंट्स के आँकड़े और कर्मचारियों के इंटरव्यू तक छाप दिए थे।

लक्ष्मण सिंह ने खुद ये खबर फैलाई थी कि किसी कांग्रेसी नेता के हितों को चोट पहुँची है और उन्होंने ही उसे हटवाया है। कुछ पत्रकार भी उनकी मदद कर रहे हैं और खबरें बढ़ा चढ़ा कर छाप रहे हैं। असल में तो वे पैसा माँगने आए थे।

पर नरेंद्र आकर बता गया था,

'तुम्हें मालूम है कॉमरेड मोहन कहाँ गए थे? वहीं, लक्ष्मण सिंह के जिले में उनके साथ कॉमरेड केंद्रीय समिति के सदस्य भी थे। उन्होंने साक्षरता के लोगों के साथ बाकायदा पार्टी बैठकें कीं और उन्हें लक्ष्मण सिंह ने करवाया। वह दिखाना चाहता था कि वह पार्टी का बड़ा हितैषी है। और शायद भ्रष्टाचार के आरोपों को ढकना भी चाहता था।'

'मैंने कॉमरेड मोहन से मना किया था।'

'इसीलिए तुम्हें इससे अलग रखा गया।'

'पर नतीजा क्या हुआ?'

'देखते रहो! अभी पूरा नतीजा नहीं आया है।'

'जो हो लक्ष्मण सिंह हमारे बीच का ही है। अंदरूनी लड़ाई हम बाद में लड़ लेंगे। अगर उसके खिलाफ एक्शन हुआ है तो हमें प्रतिरोध तो करना ही चाहिए। मैं सरफराज से बात करके देखता हूँ।'

'करके देखो।'

उसने सरफराज को फोन किया था।

'सरफराज लक्ष्मण सिंह के खिलाफ एक्शन हुआ है।'

'मुझे पता है।'

'क्या हम लोगों को कोई प्रदर्शन या प्रेस कान्फ्रेंस नहीं करनी चाहिए इस एक्शन के खिलाफ?'

'छोड़ो यार! हमें क्या मतलब?'

जिस ध्वनि में ये जवाब दिया गया उससे कार्तिक को सरफराज से आगे बात करने की कोई इच्छा नहीं हुई।

उसने लक्ष्मण सिंह के कार्यालय फोन लगाया। उधर से बाबू लाल ने फोन उठाया,

'हाँ भैया। बहुत गलत हुआ। हम लोग एक बड़े प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं। करेंगे।'

कार्तिक उस प्रदर्शन का इंतजार ही करता रहा था। पर तीन चार दिन गुजर गए कोई प्रदर्शन नहीं हुआ। कहीं कोई पत्ता नहीं खड़का।

लक्ष्मण सिंह प्रशासन द्वारा हटा दिए गए और कोई प्रतिरोध नहीं हुआ। कॉमरेड मोहन प्रतिक्रिया के लिए अनुपलब्ध थे।

कार्तिक को लगा यह एक बड़ी घटना थी और उन्हें रहना चाहिए था। कल को उसके खिलाफ भी कुछ हो तो शायद कोई कुछ भी नहीं बोलेगा। वे सब जो बरसों ये सोचकर काम करते रहे कि वे पार्टी के लिए काम कर रहे हैं अगर मारे जाएँ, तो भी उनके लिए कोई कुछ नहीं बोलेगा।

कार्तिक का दिल यह सोचकर गहरे अवसाद से भर गया था।

कॉमरेड मोहन के आने पर वह उनसे मिलने गया था। बिना किसी भूमिका के उसने कहा,

'कॉमरेड जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ। मैंने पहले भी आपको सचेत किया था कि कंसॉलिडेशन सीधे पार्टी संगठन के रूप में नहीं होना चाहिए। इस तरह से तो पूरा संगठन ही आपके हाथ से निकल गया।'

'पार्टी अलग तरह से सोचती है।'

'क्या मैं जान सकता हूँ किस तरह से?'

'रिफॉर्म आंदोलन की अपनी एक सीमित उपयोगिता है। उसे पार्टी संगठन में तब्दील किया जाना चाहिए।'

'माफ कीजिए कॉमरेड। पार्टी की अपनी समझ ये रही है कि उत्तर भारत में विशेषकर हमारे प्रदेश में बड़े रिफॉर्म आंदोलन नहीं हुए और इसीलिए क्रांतिकारी चेतना के लिए सही जमीन नहीं बनी, फिर आपको ऐसे किसी आंदोलन से गुरेज क्यों? आपने पार्लियामेंटरी डेमोक्रेसी स्वीकार की है, इसीलिए कि उपलब्ध स्वतंत्रताओं का पूरा लाभ उठाया जा सके, फिर आप रुक क्यों जाते हैं? हर वह मुद्दा जो आपको विस्तार की तरफ ले जाता है, आपके लिए मायने नहीं रखता। या तो आप सीधे पार्टी संगठन बनाएँगे या कुछ नहीं, ये क्या बात हुई? प्रगति स्टेजेस में होती है, हो सकती है ये बात आपके समझ में क्यों नहीं आती? आप किसी यूटोपियन क्रांति की तलाश में हैं। बीस साल से लगभग वहीं खड़े हैं जहाँ पहले थे। परिवर्तन की सबसे ज्यादा बात करते हैं पर वास्तविकता में हैं सबसे ज्यादा यथा स्थिति वादी...'

बोलते बोलते कार्तिक का गला भर आया था। कॉमरेड मोहन ने कहा था।

'आप उत्तेजित हो गए हैं। मैं आपके तर्क का जवाब दे सकता हूँ। पर फिलहाल नहीं दूँगा।'

कार्तिक ने कहा।

'कॉमरेड मैं चाहता हूँ कि आप भी थोड़ा उत्तेजित हों। भावुकता कोई ऐसी बुरी चीज नहीं। इन ऐनी केस, मुझे लगता है कि हमने रिफॉर्म की ताकत को सिद्ध कर दिया है। जिस तरह से मुख्यमंत्रियों से लेकर क्षेत्रीय नेता और एम.एल.ए. तक साक्षरता आंदोलन से घबराए और नतीजतन उस पर कब्जा करने आगे आए, उससे स्पष्ट है कि वे उसकी ताकत को पहचानते हैं और लोकप्रियता को भी। पार्टी उसमें से अपने लिए रास्ता तलाश कर सकती थी। अभी भी कर सकती है। एक समय में हम करीब पाँच हजार समूहों की स्थापना कर सकते थे। सोचिए कि वह कितना बड़ा आधार होता। पर मुझे लगता है कि अब मेरा काम पूरा हुआ। पार्टी को मेरी सलाह की या मेरे काम की और जरूरत नहीं। मेरा सुझाव है कि विज्ञान में सरफराज या डॉ. सक्सेना को और साक्षरता में नताशा या लक्ष्मण सिंह को काम सौंप दिया जाए। बाकी नेतृत्व आप प्रदान कर ही रहे हैं...'

'और आप? आप क्या करेंगे?'

'मैं कुछ नया काम ढूँढ़ लूँगा।'

कार्तिक ये कहकर पार्टी ऑफिस से बाहर आ गया था।

अगले दिन कार्तिक ने नताशा और नरेंद्र को फोन करके कहा था,

'मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जाना चाहता हूँ। तुम लोग ऑफिस सम्हाल लोगे?'

'क्यों नहीं? पर ये तो बता दो जा कहाँ रहे हो?'

'नई ऊर्जा की तलाश में।'

कार्तिक ने कुछ अन्य लोगों से मिलने का मन बनाया था। उन्हीं में थे रामबहादुर। जयप्रकाश आंदोलन के प्रखर कार्यकर्ता रहे थे और अब किन्हीं कारणों से, उनसे दूर हटकर कार्तिक के प्रदेश के ही एक प्राकृतिक सौंदर्य से सजे छोटे से गाँव मानपुर में अपने परिवार के साथ खेती करते थे। उनके काम को प्रतिरोध का एकदम नया मॉडल माना जाता था। बहुत दिनों से कार्तिक को बुला रहे थे। अब फुरसत भी थी, जिज्ञासा भी और नए रास्ते की जरूरत भी।

रामबहादुर जी कार्तिक के आने की खबर सुनकर बहुत प्रसन्न हुए थे। उन्होंने कहा था,

'अनूपपुर स्टेशन पर उतरिएगा। स्टेशन के सामने ही एक प्रिंटिंग प्रेस है, 'प्रगतिशील प्रिंटिंग प्रेस', आपको वहीं एक गाड़ी मिल जाएगी। गाड़ी आपको मेरे यहाँ ले आएगी नहीं तो आप बहुत भटकेंगे।'

अनूपपुर स्टेशन पर उतरने के बाद कार्तिक सीधा प्रगतिशील प्रिंटिंग प्रेस पहुँचा था। गाड़ी वहाँ उसका इंतजार कर रही थी। कुछ देर पक्के रास्ते पर चलने के बाद गाड़ी ने जंगल के बीच का कच्चा रास्ता पकड़ा और सागौन के घने जंगल की गीली सुगंध के बीच हिचकोले खाते हुए बढ़ने लगी। बीच बीच में गहरे गड्ढे भी दिख जाते थे जो शायद अवैध उत्खनन से बन गए थे। ड्राइवर उनसे बचा कर गाड़ी लिए जा रहा था।

मानपुर पहुँचते पहुँचते शाम हो गई थी। रामबहादुर जी गेट पर ही उसका इंतजार कर रहे थे। कार्तिक ने देखा करीब तीन चार एकड़ के खेत में पेड़ों से घिरा एक छोटा सा घर खड़ा था। उनकी पत्नी सुनीता द्वार पर ही मिल गईं।

'आइए, चाय आपका इंतजार कर रही है।'

कार्तिक ने मुँह हाथ धोकर चाय पी और फिर रामबहादुर जी उसे अपना खेत दिखाने ले गए। अपनी जरूरत के मुताबिक सब्जियाँ और अनाज वे अपने खेत पर ही उगा लेते थे। पीछे एक कुआँ था जिससे सिंचाई हो जाती थी। बिजली और टेलीफोन भी थे और उन्होंने जनरेटर का प्रबंध भी कर रखा था।

'मेरा मानना है कि आदमी सरकार पर कम से कम निर्भर रहते हुए भी अपनी जरूरतें पूरी कर सकता है। मैं तो खेती भी प्राकृतिक ढंग की ही करता हूँ। उसमें किसी खाद वगैरह का इस्तेमाल नहीं करता।'

'इससे उपज पर कोई फर्क पड़ता है?'

'कोई नहीं। बल्कि बेहतर उपज मिलती है।'

बायोगैस के लिए एक प्लांट भी लगा था। और गोबर से केंचुआ खाद बनाने का काम भी जारी था।

'अच्छा एक बात बताइए। आप तो समाजवादी पार्टी में हुआ करते थे। यहाँ इस छोटे से गाँव में कैसे?'

'लंबी कहानी है। बैठकर बताऊँगा।'

वे लोग घूमकर फिर रामबहादुर जी के घर के सामने आ बैठे। सुनीता जी पहले से ही कुर्सियाँ डाले वहाँ इंतजार कर रही थीं।

उनके बैठने पर उन्होंने कुछ फल काटकर रख दिए और दोने में कुछ जंगल से प्राप्त बेर तथा बेरियाँ भी।

'हम लोग जब बीस साल पहले यहाँ आए तो यहाँ कुछ भी नहीं था बस ऊबड़ खाबड़ जमीन थी और कुछ पेड़ थे। पहली रात तो पेड़ों के नीचे ही गुजारी। फिर एक कच्ची सी झुग्गी बना ली।'

'मेरा सवाल है आप यहाँ आए ही क्यों?'

'उसके लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। हमारा परिवार स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा परिवार था सो देश भक्ति का माहौल घर में फैला हुआ था। उसी के चलते पहले सेना में जाना तय किया। फिर लगा नहीं शिक्षक बनना चाहिए। यदि देश के सब लोग पढ़ लें तो देश मजबूत होगा।'

'फिर?'

'फिर विनोबा की 'शिक्षण विचार' पढ़ने को मिली। लगा कि शिक्षा का संबंध सिद्धांतों से होता है। वह अच्छी और बुरी दोनों तरह की हो सकती है। वर्तमान शिक्षा लोगों को श्रम से काटकर निकम्मा बनाने वाली प्रणाली है। इसे बदला जाना चाहिए। इससे तय हुआ कि गाँव में रहकर, उत्पादन के साथ जुड़कर शिक्षा के प्रयोग करने चाहिए।'

'पर आप तो बिहार में थे?'

'हाँ, पहले मैंने अपने विचार पर मित्रों से बात की। उन्होंने कहा कि तुम्हारा विचार तो अच्छा है, पर परिवार के साथ जुड़े रहकर ये करना संभव नहीं होगा। दूसरे कृषि की शिक्षा तो हमारे यहाँ दी जा रही है पर कृषि स्नातक सफेदपोश नौकरियों की तरफ भाग रहे हैं। इसलिए श्रम की प्रतिष्ठा वापस लानी होगी। तीसरे श्रम का संस्कार भी आ जाए फिर भी लोगों के पास खेती करने के लिए भूमि तो होनी चाहिए। तो भूमि सुधार आंदोलन की तरफ मुड़ा।'

'काफी इंटरेस्टिंग है।'

'अब भूमि सुधार दो तरह का था। एक तो कम्यूनिस्टों वाला कि बड़े किसानों से जबरन भूमि छीनो और छोटों को दो। दूसरा विनोबा जी वाला भूदान, ग्रामदान आंदोलन। क्योंकि मैं विनोबा जी के शिक्षण विचार से पहले से ही प्रभावित था सो स्वाभाविक रूप से उनकी तरफ झुका। ग्रामदान में पूरे गाँव को एक परिवार के रूप में देखने की बात थी। वह गाँव को एक समुदाय बनाने की ओर पहला कदम था। सो मैं स्कूल छोड़कर सर्वोदय आंदोलन में आ गया।'

'तो विनोबा जी के साथ चले?'

'हाँ। और चलते चलते ईश्वर के चक्कर में फँस गया।'

'कैसे?'

'मार्क्सवादी तो ईश्वर की अमूर्त सत्ता को नकारते थे पर सर्वोदय में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया गया था। विनोबा जी अपने सभी विचार ईश्वर की प्रेरणा से निकले बताते थे। मैं ईश्वर के अस्तित्व के बारे में भ्रमित था। वह मेरी समझ के बाहर था। तय किया कि ईश्वर को बिना जाने समझे मानूँगा नहीं। मुझे मार्क्सवादी तर्कशील लगते थे। सो मैंने तर्क के आधार पर विनोबा और गांधी को जाँचना शुरू किया। मुझे ग्रामदान और स्वदेशी, दोनों विचार अच्छे लगते थे, ईश्वर के बिना।'

'पर ग्रामदान आगे चलकर असफल हुआ।'

'वहीं मेरा विनोबा जी से मोहभंग भी हुआ। विनोबाजी साधन शुद्धि की बहुत बात करते थे पर उसे हिंसा-अहिंसा तक ही सीमित रखते थे। जिन लोगों का चयन उन्होंने ग्रामदान कार्यकर्ता के रूप में किया उनकी शुद्धि पर उनका कोई जोर नहीं था। उन कार्यकर्ताओं की ग्रामदान में कोई निष्ठा नहीं थी। इसीलिए भूदान फर्जी हुए, कागजी हुए। साधन शुद्धि की बात करने वाले विनोबा ने ऐसे लोगों को क्यों काम पर लगाया जो निष्ठावान नहीं थे? शीघ्र परिणाम पाने की आशा में अधपके कार्यकर्ताओं ने ही उसे असफल किया।'

कार्तिक को लगा जैसे वह कॉमरेड मोहन से कह रहा हो, देखिए अधपके लोगों से पार्टी बनाने की जल्दी मत कीजिए। रामबहादुर जी कह रहे थे,

'पर आगे का किस्सा ज्यादा इंटरेस्टिंग है। मुझे ईश्वर की प्रेरणा की अवधारणा लोकनीति की अवधारणा के विरुद्ध दिखाई पड़ती थी। इसलिए मैं विनोबा से बात करने पवनार आश्रम पहुँचा। लोग उन्हें सवाल कागज या स्लेट पर लिखकर दे रहे थे। मैंने भी अपना सवाल लिखा - 'बाबा आप बार बार ईश्वर के अस्तित्व की बात करते हैं। यदि ईश्वर है तो हमें दिखाई क्यों नहीं पड़ता?' विनोबा ने कहा, 'ध्रुवतारा धरती से तीस हजार प्रकाश वर्ष दूर है। वह वहाँ है पर आज दिखाई नहीं देता। इसी तरह ईश्वर भी है, पर आज दिखाई नहीं देता।' मैंने फिर पूछा, 'तो तीस हजार साल पहले वाला प्रकाश हमें आज दिखाई देना चाहिए। ऐसा क्यों है कि वह आपको दिखाई देता है और मुझे नहीं?' इसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। वे सहभागी विचार मंथन नहीं करते थे। मुझे लगता था आस्था व्यक्तिगत चीज है उसे सामाजिक प्रक्रिया के बीच में नहीं लाना चाहिए। वह तो कार्य कारण संबंधों के आधार पर ही हो सकती है। मैं विनोबा से दूर हटता गया।'

'तो क्या सर्वोदय के विचार से भी दूर हटे?'

'नहीं कुछ दिन सर्वोदय में रहा था। वहाँ दंगों के शमन के लिए अखिल भारतीय शांति सेना का गन हुआ था उसमें रहा। शांति सेना ने बनारस वगैरह में अच्छा काम किया पर मैंने देखा कि वहाँ भी अहद फातमी एकमात्र मुसलमान थे जो 'भूदान तहरीक' के संपादक थे। मेरा मानना था कि मुसलमानों और ईसाइयों के सर्वोदय में न आने का एक बड़ा कारण सर्वोदय की सभाओंमें सामूहिक प्रार्थना का आग्रह था। फिर आचार्य कुल सम्मेलन में मैंने उसका खुला विरोध कर दिया जो कइयों को पसंद नहीं आया।'

'और जयप्रकाश जी के साथ?'

'जयप्रकाश खुद विनोबा से प्रभावित थे। और वहाँ मिलने जाते थे। मैंने उनकी 'साम्यवाद की ओर' और 'कश्मीर समस्या' नामक पुस्तिकाएँ पढ़ी थीं। जब गुजरात आंदोलन हुआ तो उन्होंने 'यूथ फॉर डेमोक्रेसी' नामक परचा लिखा। मैं शांति सेना की युवा शाखा तरुण शांतिसेना की पत्रिका 'तरुण मन' का संपादक था। वह परचा जयप्रकाश जी ने मुझे दिया, अनुवाद करके बँटवाने के लिए। उसी दौरान जे.पी. मूवमेंट में आ गया।'

'तो अब जे.पी. मूवमेंट से मानपुर आने की कथा भी सुना दीजिए।'

'मैं तरुण शांति सेना में था और हालाँकि वह सामाजिक-रचनात्मक कार्यक्रमों की संस्था थी। मैं उसे राजनैतिक संगठन ही मानता था। अन्य राजनैतिक संगठनों से श्रेष्ठ। पर आंदोलन के दौरान जे.पी. ने संघर्षवाहिनी बनाई और मुझे उसका प्रशिक्षक। सर्वोदयी और तरुण शांति सैनिक उस पर अपना वर्चस्व चाहते थे। मुझसे अपेक्षा करते थे कि बिहार के जिलों से संयोजक तरुण शांति सेना ही से बनाए जाएँ। अगर जे.पी. ऐसा चाहते तो वे संघर्षवाहिनी क्यों बनाते? संघर्ष वाहिनी व्यापक जनांदोलन को समेटने के लिए बनाई गई थी। उसमें सर्वोदयी लोगों के अलावा दूसरों को भी शामिल करना था। मैं तरुण शांति सेना की अपेक्षा पूरी नहीं कर पाया। उस पर इतना विवाद हुआ कि मेरा दिल ही खट्टा हो गया। आपातकाल में जेल में रहा। मार्क्स, माओ और गांधी को पढ़ता रहा। आपातकाल के बाद सोचा खुद कुछ प्रयोग करूँगा।'

अब सुनीता जी ने हँसते हुए कहा,

'ईश्वर विरोधी नहीं हैं। बचपन में बड़े हनुमान भक्त थे।'

रामबहादुर जी ने स्पष्टीकरण दिया,

'वह तो बचपन में भूतों से डरता था सो उनसे बचने के लिए हनुमान जी की शरण में चले जाया करता था। जब मन से भूत भाग गए तो हनुमान जी की भी जरूरत न रही।'

सुनीता ने कहा,

'और केंचुओं से भी तो डरते थे?'

'अब उनके साथ खेती करता हूँ।'

फिर उन्होंने गंभीरता से बताया,

'यहाँ आकर मैंने नई तरह की खेती और नई तरह की शिक्षा के प्रयोग किए हैं। तय किया कि किसी को कोई पैसा नहीं दूँगा। बहुत से दुश्मन बनाए पर दोस्त भी बने। अब अनूपपुर मंडी पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त है। मेरा ये विश्वास दृढ़ हुआ है कि हम प्रतिरोध के छोटे छोटे मॉडल भी खड़े कर सकते हैं जो कुल मिलाकर विकास की दशा प्रभावित कर सकते हैं।'

खाने का वक्त हो गया था। रामबहादुर और सुनीता जी के साथ उनका बेटा अमन भी आ गया। अब उन्होंने एक प्रार्थना की जो ईश्वर की नहीं पर अन्न और भोजन तथा सबके लिए सुख शांति की प्रार्थना थी। फिर सबने मिलकर ठंडी हवा और चंद्रमा की रोशनी में सुनीता जी के हाथ का बना खाना खाया।

कार्तिक को उस दिन एक अद्भुत शांति का अनुभव हुआ था। एक करुणा मिश्रित शांति, जो उस दंपत्ति के जीवन संघर्ष से उपजती थी।

ट्रेन से लौटते समय कार्तिक खिड़की के पास बैठा था।

आती जाती सुंदर दृश्यावलियों के बीच अचानक उसे सरफराज और लक्ष्मण सिंह का खयाल आया। लक्ष्मण सिंह ने क्यों उससे संपर्क की कोशिश नहीं की? क्या वह किसी बात पर शर्मिंदा था या नाराज था? सरफराज ने क्यों लक्ष्मण सिंह के पक्ष में सामने आने से मना कर दिया? वह क्या इस परिस्थिति से खुश था? और फिर कॉमरेड मोहन, वे अचानक कहाँ चले गए?

उसे लगा कि सरफराज और लक्ष्मण सिंह में कुछ समानताएँ थीं। दोनों के व्यक्तित्व सामान्य से कुछ कम कद काठी के थे और शायद इसी कमी को दूर करने के लिए उन्हें दूसरों को चोट पहुँचाने की जरूरत पड़ती थी। वे पहले आपके दिल में जगह बनाते थे, फिर आपके निकट आते हुए, आपसे विचार और विश्वास ग्रहण करते हुए अपना व्यक्तित्व बनाते थे और फिर आपको ही चोट पहुँचाते थे। ये एक ऐसा खेल था जिसे 'गेम्स पीपुल प्ले' में निगिसॉब या 'नाऊ आई हैव गॉट यू, यू सन ऑफ अ बिच' कहा गया है।

ये एक अस्वस्थ मनोवैज्ञानिक ट्रांसैक्शन था और असुरक्षित लोगों द्वारा खेला जाता था। तो क्या वे खुद को असुरक्षित महसूस करते थे? मानसिक क्षमता, शारीरिक क्षमता या अन्य दृष्टियों से? और इसीलिए ये खेल खेलते थे?

कार्तिक इसी सोच में डूबा अपने शहर पहुँचा। पहुँचते ही उसे रामनारायण का फोन मिला,

'घर में ही रहना। मैं आ रहा हूँ।'

कार्तिक घर में ही था। रामनारायण ने आते ही पूछा,

'ये मैं क्या सुन रहा हूँ। तुमने विज्ञान और साक्षरता आंदोलन दोनों का नेतृत्व छोड़ने के लिए कह दिया है?'

'हाँ।'

'जान सकता हूँ क्यों?'

'मेरा उसमें मन नहीं लगता। और ऐसा लगता है कि पार्टी को भी मेरी जरूरत नहीं।'

'अकेले कॉमरेड मोहन पार्टी नहीं, सैकड़ों लोग हैं जो तुम में भरोसा करते हैं। मुझमें भरोसा करते हैं। हम भी पार्टी हैं। तुम्हें पता है कॉमरेड मोहन क्या कह रहे थे।'

'क्या?'

'देखा रामनारायण जी! हमने कितनी शांति से कार्तिक को निबटा दिया।'

ओह! तो कॉमरेड मोहन खुद इस खेल में शामिल थे? ये जनांदोलन खड़ा करने, और क्रांति की जमीन तैयार करने वाली पार्टी नहीं खेल खेलने वाली पार्टी थी, कुछ घटिया मनोवैज्ञानिक खेल। तो उन सारी बहसों और कार्यवाहियों का क्या मतलब था जो कार्तिक कॉमरेड मोहन के साथ करता रहा था। उसे गहरी चोट लगी, उसने कहा,

'उन्हें मुबारक। अगर वे कुछ कुर्सी, टेबलों, अल्मारियों, किताबों तथा एक गाड़ी पर ही कब्जा चाहते हों तो वे उन्हें मुबारक। मुझे लगा था कि वे चेतना की लड़ाई लड़ रहे हैं।'

'बात यहीं खत्म नहीं होती। राजपुर की असफलता को भी तुम्हारे ऊपर ढोलने की तैयारी है। कॉमरेड मोहन वहाँ गए थे और तुम्हारे खिलाफ कोई बैठक करके आए हैं...।'

'वह सारा उन्हीं का किया धरा है। अगर उनमें जरा भी बौद्धिक ईमानदारी होगी तो वे ऐसा नहीं करेंगे। और करेंगे तो देखा जाएगा। अब कोई भी चीज मायने नहीं रखती।'

रामनारायण के जाने के बाद कार्तिक ने डॉ. नारायणन् को फोन कर संक्षेप में सारी बातें बताईं थीं। उन्होंने कहा था,

'वे चीजों पर कब्जा कर सकते हैं दिमाग पर नहीं। तुम चिंता मत करो। मेरे पास अब भी तुम्हारे लिए एक भूमिका है।'

कार्तिक अब उस नई भूमिका के इंतजार में था।


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