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विमर्श

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
प्रथम खंड

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 3. दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानियों का आगमन पीछे     आगे

पिछले प्रकरण में हम यह देख चुके हैं कि अँग्रेज नेटाल में आकर कैसे बसे थे। वहाँ उन्होंने जुलुओं से कुछ अधिकार और रिआयतें प्राप्त कीं। अनुभव से उन्होंने यह समझ लिया कि नेटाल में गन्ने, चाय और कॉफी का सुंदर उत्पादन हो सकता है। बड़े पैमाने पर ये फसलें पैदा करने के लिए हजारों मजदूरों की जरूरत थी। सौ-पचास अँग्रेज परिवार ऐसी सहायता के बिना ये फसलें पैदा नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने हबशियों को काम करने के लिए ललचाया और डराया भी। परंतु अब गुलामी का कानून रद हो चुका था, इसलिए वे इस प्रयत्न में सफल हो सकने जितना बल हबशियों पर आजमा नहीं सके। हबशियों की बहुत मेहनत करने की आदत नहीं होती। छह माह की साधारण मेहनत से वे अपना निर्वाह भलीभाँति कर सकते हैं। तब फिर किसी मालिक के साथ वे लंबी मुद्दत के लिए क्यों बँधें? लेकिन जब तक स्थायी मजदूर न मिलें तब तक अँग्रेज अपना यह ध्येय पूरा नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने भारत सरकार के साथ पत्र-व्यवहार आरंभ किया और मजदूरों की पूर्ति के लिए हिंदुस्तान की सहायता माँगी। भारत सरकार ने नेटाल की माँग स्वीकार की और उसके फलस्वरूप हिंदुस्तानी मजदूरों का पहला जहाज १६ नवंबर, १८६० को नेटाल पहुँचा। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के इतिहास में वह तारीख उल्लेखनीय मानी जायगी; क्योंकि यदि यह घटना न घटी होती तो दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानी न पहुँचे होते और वहाँ सत्याग्रह की लड़ाई भी न हुई होती। और उस स्थिति में यह इतिहास लिखने की आवश्यकता ही खड़ी न हुई होती।

मेरी दृष्टि से नेटाल के अँग्रेजों की यह माँग स्वीकार करने में भारत सरकार ने गंभीरता से सोचा नहीं। हिंदुस्तान के अँग्रेज अधिकारी जाने-अनजाने नेटाल के अपने भाइयों के पक्ष में हो गए। यह सच है कि इकरारनामें में मजदूरों की रक्षा की यथासंभव अधिक से अधिक शर्तें दाखिल करके उनके खाने-पीने की सामान्य सुविधाएँ कर दी गई थीं। परंतु उसमें इस बात का पूरा खयाल तो नही ही रखा गया कि इस प्रकार सुदूर देश में जाने वाले अनपढ़ मजदूरों पर यदि कोई दुख या संकट आ पड़े, तो उससे वे कैसे मुक्ति पा सकेंगे। और इन प्रश्नों पर तो बिलकुल नहीं सोचा गया कि हिंदुस्तानी मजदूरों के धर्म का वहाँ क्या होगा अथवा वे अपनी नीति की रक्षा वहाँ कैसे करेंगे? हिंदुस्तान के अँग्रेज अधिकारियों ने यह भी नहीं सोचा कि कानून से भले ही गुलामी की प्रथा का अंत आ गया हो, परंतु मालिकों के हृदय से दूसरों को गुलाम बनाने का लोभ तो दूर नहीं हुआ है। अधिकारियों को यह बात समझनी चाहिए थी, परंतु वे समझे नहीं, कि ये मजदूर सुदूर देश में जाकर एक निश्चित अवधि के लिए गुलाम बन जाएँगे। सर विलियम विल्सन हंटर ने, जिन्होंने इन मजदूरों की स्थिति का गहरा अध्ययन किया था, इस स्थिति की तुलना करने हुए दो शब्दों का या शब्द-समूह का प्रयोग किया था। नेटाल के ही हिंदुस्तानी मजदूरों के बारे में एक बार उन्होंने लिखा था कि वे अर्द्ध-गुलामी की स्थिति में रहते हैं। दूसरी बार अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि नेटाल के हिंदुस्तानी मजदूरों की स्थिति लगभग गुलामी की हद तक पहुँच गई है। और नेटाल के एक कमीशन के समक्ष साक्षी देते हुए वहाँ के बड़े-से-बड़े यूरोपियन, श्री एस्कंब ने भी यही बात स्वीकार कि थी। ऐसे तो अनेकों प्रमाण नेटाल के अग्रणी यूरोपियनों के मुख से ही दिए जा सकते हैं। और उनमें से अधिकांश प्रमाण भारत सरकार के सामने इस विषय में पेश की गई अरजियों में एकत्र किए गए हैं। लेकिन जो होना था वही हुआ। जो जहाज इन मजदूरों को हिंदुस्तान से नेटाल ले गया, वही जहाज मजदूरों के साथ सत्याग्रह के महान वृक्ष का बीज भी नेटाल ले गया।

इन मजदूरों को नेटाल से संबंधित हिंदुस्तानी दलालों ने कैसे ठगा, कैसे दलालों के भुलावे में आकर ये लोग नेटाल गए, नेटाल पहुँचने पर इनकी आँख कैसे खुली, आँख खुलने पर भी ये लोग नेटाल में क्यों रहे, क्यों दूसरे हिंदुस्तानी भी इनके बाद वहाँ गए, वहाँ जाकर इन्होंने धर्म और नीति के समस्त, बंधन कैसे तोड़ डाले अथवा ये बंधन कैसे टूट गए, कैसे इन अभागे मजदूरों में विवाहित स्त्री और वेश्या के बीच का भेद बिलकुल मिट गया - यह सारी कहानी इस छोटी सी पुस्तक में लिखी ही नहीं जा सकती।

ये हिंदुस्तानी मजदूर नेटाल में 'एग्रीमेंट' पर गए हुए मजदूरों के नाम से पहचाने जाते थे। इस परसे ये मजदूर अपने आपको 'गिरमिटिया' कहने लगे। इसलिए अब आगे 'एग्रीमेंट्स' को हम 'गिरमिटिया' कहेंगे और उसके आधार पर गए हुए मजदूरों को 'गिरमिटिया' कहेंगे।

जब नेटाल में गिरमिटियों के जाने के समाचार मारीशस में फैले जब ऐसे मजदूरों से संबंध रखनेवाले हिंदुस्तानी व्यापारी नेटाल जाने को ललचाए। मारीशस नेटाल और हिंदुस्तान के बीच में पड़ता है। मारीशस द्वीप में हजारों हिंदुस्तानी व्यापारी और मजदूर रहते हैं। उनमें से एक व्यापारी स्व. अबूबकर अहमद ने नेटाल में अपनी पेढ़ी खोलने का विचार किया। उस समय नेटाल के अँग्रेजों को भी इसकी कल्पना नहीं थी कि हिंदुस्तानी व्याशपारी क्या-क्या करने की शक्ति रखते हैं, न उन्हें इस बात की परवाह ही थी। अँग्रेजों ने गिरमिटियों की मदद से गन्ने, चाय, कॉफी वगैरा की बड़ा मुनाफा देने वाली फसलें कीं, गन्ने से शक्कर तैयार की और अचरज में डाल दे इतने कम समय में वे थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ये तीनों चीजें दक्षिण अफ्रीका को मुहैया करने लगे। उन्होंने इतना धन कमाया कि अपने लिए बड़े-बड़े महल खड़े कर लिए और जंगल में मंगल कर दिया। ऐसे समय सेठ अबूबकर जैसा सरल, प्रामाणिक और चतुर व्यापारी उनके बीच आकर बसा, यह उन्हें अखरा नहीं। इतना ही नहीं, परंतु एक अँग्रेज भी साझेदार के नाते उनके साथ पेढ़ी में जुड़ गया! अबूबकर सेठ ने व्यापार चलाया, जमीन खरीदी और उनकी बहुत बड़ी कमाई की अफवाहें हिंदुस्तान में वतन पोरबंदर तथा उसके आस-पास के गाँवों में फैलीं। इसके फलस्वरूप दूसरे मेमन नेटाल पहुँचे। उनके पीछे-पीछे सूरत के बोहरे भी वहाँ जा पहुँचे। और इन व्यापारियों को मुनीमों की जरूरत तो थी ही। इसलिए गुजरात और काठियावाड़ (सौराष्ट्र) के हिंदू मुनीम भी नेटाल पहुँच गए।

इस प्रकार नेटाल में दो वर्ग के हिंदुस्तानी हो गए : (१) स्वतंत्र व्यापारी और उनका स्वतंत्र नौकर-वर्ग; (२) गिरमिट हिंदुस्तानी। समय पाकर गिरमिटियों के बाल-बच्चे हुए। गिरमिट के कानून के अनुसार उनकी यह संतान यद्यपि मजदूरी करने के लिए बँधी हुई नहीं थी, फिर भी इस कानून की कुछ कड़ी धाराओं का बुरा असर तो उस पर पड़ा ही। गुलामी का दाग गुलामों की संतान को लगे बिना कैसे रहता? ये गिरमिसटिया मजदूर पाँच वर्ष के इकरार पर नेटाल जाते थे। पाँच वर्ष बीत जाने के बाद वहाँ मजदूरी करने को वे बँधे नहीं थे। इकरार पूरा होने के बाद स्वतंत्र मजदूरी या व्यापार करना हो तो वैसा करने का और नेटाल में स्थायी रूप से बसना हो तो वहाँ बसने का उन्हें अधिकार था। कुछ लोगों ने इस अधिकार का उपयोग किया और कुछ लोग हिंदुस्तान लौट आए। जो हिंदुस्तानी नेटाल में ही रहे वे 'फ्री इंडियन' के नाम से पुकारे जाने लगे। हम उन्हें गिरमिट-मुक्त अथवा संक्षेप में मुक्त हिंदुस्तानी कहेंगे। इस भेद को समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि जो अधिकार पूर्ण स्वतंत्र हिंदुस्तानी - जिनका वर्णन ऊपर आ गया है - भोगते थे, वे सब अधिकार गिरमिट से मुक्त हुए इन हिंदुस्तानियों को नहीं थे। उदाहरण के लिए, ये लोग एक जगह-से दूसरी जगह जाना चाहें तो इसके लिए उन्हें परवाना लेना ही चाहिए ऐसा नियम था। वे विवाह करें और उस विवाह को कानूनी दृष्टि से जायज मनवाना चाहें, तो यह जरूरी था कि उस विवाह को वे गिरमिटियों की रक्षा करने के लिए नियुक्त अधिकारी के दफ्तर में दर्ज कराएँ। इनके सिवा भी दूसरे कड़े अंकुश उन लोगों पर लगे हुए थे।

ट्रान्सवाल और फ्री स्टेट में सन् १८८०-१८९० के वर्षों में बोअरों के प्रजा-सत्ताक राज्य थे। प्रजा-सत्ताक राज्य का अर्थ भी यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी है। यहाँ प्रजा-सत्ताक राज्य‍ का अर्थ गोरा-सत्ता का राज्य है। हबशी प्रजा का उसके साथ कोई संबंध हो ही नहीं सकता था। हिंदुस्तानी व्यापारियों ने देखा कि वे केवल गिरमिटिया हिंदुस्तानियों और गिरमिट मुक्ति हिंदुस्तानियों के साथ ही व्यापार नहीं कर सकते, परंतु हबशियों के साथ भी कर सकते हैं। हिंदुस्तानी व्यापारी लोगों के लिए बड़े सुविधाजनक सिद्ध हुए। गोरे व्यापारियों से हबशी अतिशय डरते थे। गोरे व्या‍पारी हबशियों के साथ व्यापार तो करना चाहते थे, परंतु हबशी ग्राहकों से वे मी‍ठी जबान बोलेंगे ऐसी आशा ग्राहक रख ही नहीं सकते थे। अगर हबशी ग्राहक को अपने पैसे का पूरा बदला मिल जाता, तो वह अपना अहोभाग्य समझता था। परंतु कुछ लोगों को ऐसा कड़वा अनुभव भी हुआ कि चार शिलिंग की चीज खरीदने के लिए एक पौंड उन्होंने गल्ले पर रखा, लेकिन सोलह शिलिंग लौटाने के बजाय गोरे व्यापारी ने चार शिलिंग ही लौटाए या कुछ भी न लौटाया! गरीब हबशी ग्राहक अधिक रकम माँगता या हिसाब की भूल बताता, तो बदले में उसे भद्दी गालियाँ मिलती। इतने से ही छूट जाता तो भी बेचारा अपनी खैर मनाता; वर्ना भद्दी गालियों के साथ उसे गोरे व्यापारी का घूँसा या लात भी खानी पड़ती थी। मेरा यह कहने का बिलकुल आशय नहीं है कि सारे अँग्रेज व्यापारी हबशियों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे। परंतु इतना जरूर कहा जा सकता है कि ऐसे उदाहरण काफी संख्या में देखने को मिलते थे। इसके विपरीत, हिंदुस्तानी व्यापारी हबशी ग्राहक से मीठी जबान तो बोलता ही था; परंतु उसके साथ विनोद भी करता था। हबशी ग्राहक भोले होते थे और दुकान के भीतर आकर चीजों को हाथ में उठाकर देखना-परखना चाहते थे। हिंदुस्तानी व्यापारी यह सब सहन करता था। यह सच है कि वह परमार्थ की दृष्टि से ऐसा नहीं करता था; इसमें उसकी दृष्टि स्वार्थपूर्ण ही थी। मौका मिलने पर हिंदुस्तानी व्यापारी हबशी ग्राहकों को ठगे बिना नहीं रहता; परंतु हबशियों में हिंदुस्तानी व्यापारी की प्रियता का कारण उसकी मिठास थी। इसके सिवा, हबशी ग्राहक हिंदुस्तानी व्यापारी से बिलकुल नहीं डरते थे; उलटे ऐसे उदाहरण मौजूद हैं कि जब किसी हिंदुस्तानी व्यापारी ने हबशी ग्राहकों को ठगने का प्रयत्न किया और इसका पता उन्हें चल गया; तो उनके हाथों व्यापारी को मार भी खानी पड़ी है! और उनकी गालियाँ तो हिंदुस्तानी व्यापारियों ने अनेकों बार सुनी हैं। इस प्रकार हिंदुस्तानियों और हबशियों के इस संबंध में डरने के मौके तो हिंदुस्तानियों को ही आए हैं। अंत में परिणाम यह हुआ कि हिंदुस्तानी व्यापारियों को हबशियों की ग्राहकी बहुत लाभदायक मालूम हुई। और हबशी तो सारे दक्षिण अफ्रीका में फैले हुए थे।

हिंदुस्तानी व्यापारियों ने सुना था कि ट्रान्सवाल और फ्री स्टेट में बोअर लोगों के साथ भी व्यापार किया जा सकता है। बोअर लोग सरल, भोले और आडंबर-रहित होते है; वे हिंदुस्तानी व्यापारियों के ग्राहक बनने में शर्मिंदा‍ नहीं होंगे। ऐसा सोचकर कुछ हिंदुस्तानी व्यापारियों ने ट्रान्सवाल और फ्री स्टेट की दिशा में भी प्रयाण किया। वहाँ जाकर उन्होंने दुकानें खोलीं। उन दिनों वहाँ रेल की सुविधा नहीं थी, इसलिए व्यापार में खूब मुनाफा मिल सकता था। हिंदुस्तानी व्यापारियों की कल्पना सच निकली; उन्हें बोअरों और हबशियों की बहुत बड़ी ग्राहकी मिलने लगी। अब बची केवल केप कॉलोनी। वहाँ भी कुछ हिंदुस्तानी व्यापारी जा पहुँचे और अच्छी कमाई करने लगे। इस प्रकार थोड़ी-थोड़ी संख्या में चारों उपनिवेशों में हिंदुस्तानी कौम बँट गई।

इस समय पूर्ण स्वतंत्र हिंदुस्तानियों की संख्या वहाँ ४० से ५० हजार के बीच और गिरमिट-मुक्त हिंदुस्तानियों तथा उनकी संतानों की संख्या लगभग एक लाख है।


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