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मेरे पास अब नए कोण थे फिल्म को लेकर और स्क्रिप्ट में बदलाव करने थे।
मुझे फिल्म बनाने में आर्थिक विवशता दुनिया की सबसे अश्लील विवशता लगती है। करोड़ों रुपए लग जाते हैं एक फिल्म पर, जो कि आपकी कलाकृति है, मगर इसकी तकनीकी ज़रूरतें तो हैं ही, वे भी बहुआयामी - कैमरा, कैमरामेन, सेट डिज़ाइनर, लाइट इंजीनियर, साउण्ड रिकॉर्डिंग, साउण्ड इंजीनियर... एक पूरा क्रू ! यही सब तो हैं जो मिलकर आपको "एक्शन" कहने का अवसर दिलाते हैं। कला की किसी और विधा की तरह कहाँ है फिल्म? कई बार शर्म आती है खुद पर इतनी मँहगी कला से सम्बद्ध होने पर, कि इसमें इतना पैसा लगता है। परफॉर्मिंग आर्ट में आपका क्या लगता है? लेखन में कंप्यूटर, प्रिंटर... टायपराइटर या पेन-कागज। चित्रकला में कैनवस, कागज, रंग या एक्रिलिक रंग। यहाँ स्क्रिप्ट तो केवल शुरुआत होती है, वो गनीमत है कि मैं ही लिखता हूँ... अगर कभी किसी का लिखा पसन्द आया तो वहाँ पैसा ज़रूर दूँगा। लेखन आसान नहीं, फोटोग्राफी या एक्टिंग से। पहले मैं इस बात को खारिज करता था कि फिल्ममेकिंग जैसे कलात्मक काम में लोग एमबीए। क्यों करना चाहते हैं, या एमबीए एम्प्लॉय करते हैं। मगर मार्केटिंग बहुत बड़ी चीज है बेट्टा ! और इस बार मुझे यह फिल्म बेचनी है।
मेरे फ्लैशबैक वाले हिस्से की स्क्रिप्ट लगभग तैयार हो चुकी है। हमने अक्टूबर में तीन ऑडिशन किए थे मुम्बई में। बेंद्रे चाहता था कि हम ग्रेशल का फिर से ऑडिशन लें, ताकि वह उसे रिजेक्ट कर सके... बल्कि नए सिरे से हीरोइन चुनी जाए और नए चेहरे की जगह कुछ तो लोकप्रिय चेहरा हो कि फिल्म बिके। मगर मैं अड़ गया।
"इस चेहरे में ऐसा क्या है? बहुत नॉर्मल लड़की है ये। बाल इतने छोटे। लड़कों जैसे। सपाट सीना, चेहरे पर परमानेंट कनफ्यूज़न। मुँह खुला रहता है, पता है 'मूर्ख' होती हैं खुला मुँह रखने वाली लड़कियाँ जबकि स्क्रिप्ट वाली हीरोइन पद्मा सुन्दर बड़ी उमर की है। खूब तेज़- तर्रार। सेडक्टिव, महत्वाकांक्षी। इस रोल के लिए वो टीवीवाली... राधिका जमती।"
"ह्ह ... राधिका! पद्मा को मैं जानता हूँ बेंद्रे कि तुम... उसे मैंने गढ़ा कि तुमने? यह ग्रेशल थिएटर की लड़की है और ये लड़कियाँ इंटेलेक्चुअल होती हैं, साधारण रहती हैं मगर जब स्टेज पर आती हैं, रोल में ऐसे उतर जाती हैं कि... जाने दो... तुम मुझ पर भरोसा रखो। प्रस्तावित फिल्म - प्रोडक्शन के आँकड़े देखे क्या, कुल पचपन दिन की टोटल आउटडोर। तीन करोड़ बीस लाख... "
"चलेगा, ये जुआ भी चलेगा। मेरा प्रोब्लम एक ही है कि तुम्हारी स्क्रिप्ट में इतने न्यूड सीन हैं... सेक्स सीन हैं... ये लड़की बहुत सिम्पल है। बच्ची। मैं फिर कह रहा हूँ लड़की में दम नहीं, कागज की नाव है।"
मैं जानता था, वे दृश्य बहुत चुनौतीपूर्ण रहेंगे ग्रेशल के लिए, यहाँ सेक्स खिलवाड़ नहीं, काफी गंभीर मसला था फिल्म का। मैं यह भी जानता था कि वह बच्ची तो बिल्कुल नहीं है। फिल्ममेकर को अपने प्रोडक्शन को लेकर केन्द्रित रहना ज़रूरी है, मैं केन्द्रित होना चाहता था मगर ग्रेशल मुम्बई आ रही थी, अपने ऑडिशन के लिए। उसे मैं बहुत हद तक बता चुका था, कहानी के बारे में पहले ही नग्न दृश्य के बारे में।
नग्नता और कलात्मक नग्नता में फर्क है कि नहीं। "sex goes out of the door when art comes innuendo।" एक बड़ा फिल्मकार कह गया था। ग्रेशल के साथ ही ऑडिशन का तय करके स्क्रिप्ट हमने कलाकारों को बाँटना शुरू कर दिया था। लंच की टेबल पर ग्रेशल ने स्क्रिप्ट पढ़ी, मैंने देखा, वह तनाव की आखिरी हद पर खड़ी थी। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेना चाहा मगर उसने नरमाई से हाथ वापस ले लिया।
"उसने तुम्हें इस्तेमाल किया, फिर भी तुम्हें वह इतनी लुभावनी क्यों लगती है? स्क्रिप्ट में भी तुम उसका बुरा पक्ष भी अच्छे में लपेट कर लाते हो।" वह जानती है मैं तुर्श हूँ, बहुत खारा मगर इस वक्त बाजी उसके हाथ थी। यह क्या कम था मेरे लिए कि वह काम करने को तैयार थी और उसे न्यूड सीन से फर्क नहीं पड़ेगा, वह करेगी। वह ऑडिशन देना चाहती है।
मैंने स्क्रिप्ट और स्टोरीबोर्ड दोनों दिए ग्रेशल और सर्वेश को भी। यह सेक्स दृश्य था, मैं तनाव में था, मगर वे दोनों गप्पें लगा रहे थे। खिलखिला रहे थे। सबसे कॉम्प्लेक्स दृश्य था कि पद्मा एक-एक कर स्वयं अपने कपड़े उतारती है और लेट जाती है...
"अपने आप को ढीला छोडो न!" सर्वेश बहुत खराब बोला यह डायलॉग। मगर, मुझे लगा एक्ट बहुत सहज था, दोनों के बीच की केमिस्ट्री भी।
"सर, यहाँ क्या बुदबुदाना है?"
"कुछ भी जिसमें शब्द नहीं कामुकता... वासना हो... कुछ भी।"
"स्लैंग?"
"नॉट एग्जेक्टली... बट समथिंग... नियर टू इट, जो समझ न आए, सुना न जाए मगर हो कामुक।"
ग्रेशल ने आँखें बन्द कीं और बुदबुदाने लगी... कामुकता के साथ लयात्मकता में। उसने बहुत सहजता से वह कामुक बुदबुदाहट प्रस्तुत कर दी माइक पर खड़े-खड़े।
"क्या गुनगुनाया था तुमने ग्रेशल ?"
"बचपन में पढ़ी एक कविता...।" और रहस्य के साथ खिलखिला दी।
"ओह मेरी पद्मा।"
अब कैमरे की आँख से देखनी थी दोनों की केमिस्ट्री...
सर्वेश मँजा हुआ फिल्म कलाकार है, टॉपलेस होने में उसे पुरुष होने के नाते हिचक न थी, ग्रेशल की मुझे चिंता थी। कैमरामेन आदिल और मैं थे कमरे में बस...
"मुझे बॉडी स्किन या स्किन कलर ब्रा भी नहीं चाहिए... ग्रेशल शुड बी टॉटल टॉपलेस।"
ग्रेशल ने कहा, "फिर आप सब भी थोड़ी देर के लिए कमरा छोड़ दें। जस्ट फ्यू मिनट्स। लेट मी एक्लेमटाइज़"
हम लौटे तो ग्रेशल तैयार थी, सहज, नग्न...और पवित्र। सर्वेश और वह दो प्रोफेशनल्स की तरह दृश्य प्रस्तुत कर गए।
मैं बहुत उत्साह में भर गया। पद्मा, मैं तुम्हें कला में उड़ेल दूँगा।
मेरा ऑडिशन हो गया, सर्वेश के साथ ऑडिशन में मेरा सहज होना भी 'फिल्ममेकर' को अखर जाता है। असहज होना भी। क्या करूँ? वैसे स्क्रिप्ट कमाल की थी, उसे इसका संतोष नहीं था कि मैंने फिल्म को गंभीरता से लिया। मैं जानती हूँ, उसे ज्यादा संतोष मेरे उसके पास लौटने का था, एक पुकार पर आने का। ऎसे में वह बहुत खुश दिखता है, वाचाल होता है, अभिव्यक्त करता है खुलकर।
"थैंक गॉड! तुमने प्रेम को बीच में नहीं घुसाया, या तुम्हें प्रेम की... तथाकथित कोट अनकोट 'सच्चे प्रेम' की तलाश में मुझ तक नहीं आईं, और जैसा कि आम मध्यमवर्गीय मानसिकता वाली लड़कियाँ करती हैं। शादी कर लो, किसी को प्यार कर लो। मन ही मन चाह लो। मैं जानता था तुम अलग किस्म की लडकी हो इस बेबाक, बेरोकटोक... साथ में प्रेम और लगाव जैसे शब्दों का घिसा हुआ घटियापन नहीं घुसाओगी। बल्कि मैंने तुझे लड़की नहीं दोस्त माना है।
"सच अब हमें नहीं होता प्यार व्यार। वह होकर रीत गया और उसकी लाश लेकर उम्र बीत गई। अब ऐसी चीजें कोई थ्रिल नहीं देतीं। जैसे बड़े त्योहार आते हैं चले जाते हैं थ्रिल नहीं होता। पहले होता था यह थ्रिल छोटी-छोटी बातों का मसलन चाँदनी का, बरसात का, जन्मदिन का, अब नहीं भई पैंतालीस का हो रहा हूँ।''
नमक में भीगी उसकी आवाज मन में गहरे पैठती, शब्द ऊपर तिरते रह जाते। एक डिप्लोमेटिक अलगाव लगातार उस पर तारी रहता था। वह सम्बन्धों में भावुकता के सख्त खिलाफ था। बकौल उसके और पद्मा द ग्रेट के फलसफे के अनुसार, जिसे जितना अधिक प्रेम होगा वह उतना ही खामोश और निस्पृह मालूम होगा। मुझसे भी तो पूछा होता कभी मेरे प्रेम का दर्शन। जहाँ तक मेरा खयाल था, यह दर्शन सब अपना-अपना गढ़ा करते हैं, अपनी तरह से। जैसे वे स्वयं गढ़े गये होते हैं, परिस्थिति और प्रकृति के हाथों। माना प्रेम बातूनी नहीं होता। प्रेम है तो अभिव्यक्त तो होगा न! निस्पृह, चुप्पा, उदासीन प्रेम यह तो मेरा फलसफा नहीं था। पर उसका तो था अन्तत:!
उसे हुडक़ या हूक होती थी। प्रेम की या देह की। बहुत संताप पाने पर एक दोस्त की जो समूचा कान हो! जो न प्रश्न करे, न सलाह दे। जाने क्यों मैं नहीं समझा सकी स्वयं को कि प्रेम कभी चाय या सिगरेट जैसा भी हो सकता है। मैं आज भी हैरान हूँ कि आखिर हम दोनों शुरू कहाँ से हुए थे कि हमारे रिश्ते की, दोस्ती की, स्मृतियों की इतनी लम्बी रेल बना ली, जो आधी रात को बिना सिग्नल मेरी नींद से धड़-धड़ा कर गुजरती है और मैं चौंक कर जाग उठती हूँ।
वह उस आदमी के बारे में जानती ही क्या थी? अधिक नहीं, बस यही कि जो कुछ उनके बीच घट रहा था वह असामान्य-सा था।
कुछ ही दिन में बेन्द्रे से मिलकर हमने शूटिंग की तारीखें तय कर लीं, मैंने अपने क्रू को पिछौला के किनारे उसी माहौल में ठहराना तय किया जहाँ शूटिंग होनी थी, एक तो लगातार माहौल को जिएँ, वहीं उन्हीं गलियों में घूमें - रहें। दूसरा, स्थानीय आवागमन में वक्त और पैसा एकदम जाया न हो। हमने अपने एक्टर्स के लिए एक हैरिटेज हवेली बुक कर ली थी, कुछ दृश्य वहीं होने थे, कुछ वहाँ, जहाँ मैं ठहरा था, बस तीन गली आगे। यह वही घर था जहाँ मैं और पद्मा साथ रहे थे। बचपन में जब मैं लड़का नहीं था, बच्चा था। पद्मा के सामने खेलता - कूदता... "पद्मा देख, पतंग काटी आज दो।"
"मासी बोल छोरे?" निशा मासी मेरे कान मरोड़ती।
"कहने दे न।" पद्मा कहती।
"क्यों कहने दे... मासी की सहेली मासी नहीं?"
"हट, मैं नहीं मानता, अच्छा मेरे लिए आज चूरण नहीं लाई न!"
"आज तिल के लड्डू लाई हूँ।"
"मैं आपकी डांस क्लास में आऊँ?"
"आजा, दाऊ जी, तबला ठोंकने की हथोड़ी फेंक के मारे तो फिर रोना मत।"
वैसे मैंने बुनियादी तौर पर कब अपने को बच्चा माना? माँ के अनुसार अभी मैं इस लायक या उस लायक नहीं था, मगर पद्मा को देखता रहूँ इस लायक मैं हमेशा था। बच्चों की तरह ही किसी का मुरीद होना था वह। वह नातजुर्बेकार, एकतरफा प्रेम का भाव था, मैं उससे, उसकी परछाईं से बेशर्मी से लिपटे रहना चाहता था। मेरी एक दुनिया स्कूल में थी, एक स्कूल से बाहर। स्कूल में खिलन्दड़े यार-दोस्त थे। दूसरी तरफ माँ-बाऊजी और पद्मा। पद्मा उस समय एक भरी-पूरी लड़की थी, जो मेरी मासी से अपनी मासिक धर्म की उलझनों की बात मेरे सामने कर लेती, हमारे घर के सामने अपने घर में गली की तरफ खुलने वाले जंगले में बैठ कर हिन्दी, अंग्रेजी के क्लासिक उपन्यास पढ़ती, एक के बाद एक।
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आधा क्रू आ चुका था रिहर्सल शुरू हो गए थे। ग्रेशल का इंतजार था।
शूटिंग तीन दिन बाद शुरू होनी थी और हमारे पास कॉस्ट्यूम डिज़ायनर नहीं था तो यह जिम्मेदारी मृदुला ने ले ली। सारे कलाकारों के अपने सूटकेस से कपड़े चुने गए। सादा कपड़े। पारम्परिक कपड़ों के लिए जीजी (मेरी माँ) ने बक्से खोल दिए। कथक नृत्य के लिए मैंने दक्षिण सांस्कृतिक कला केन्द्र से पद्मा के गुरु भाई लोचन को तय कर लिया था। यही पद्मा के गुरु जी के दत्तक पुत्र थे। बस कुछ धुँधले टुकड़ों की जरूरत थी, स्मृतियों में पद्मा के नाचते हुए। अग्निपुंज की तरह नाचते और विरह में गलती नायिका के या यशोदा की कान्हा के साथ चालाकी, थाली में चाँद दिखाती, लल्ला को उल्लू बनाती। मेकअप बहुत ही कम इस्तेमाल करना चाहता था मैं। हमारी मेकअप आर्टिस्ट सुमेधा ने अपना पैलेट न्यूट्रल रखा था।
आज रात दो बजे ग्रेशल को आना था। दो घंटे की ड्राइव के बाद एयरपोर्ट पहँचे। फ्लाइट थोड़ी लेट थी। बुरी तरह धड़कते दिल के साथ प्रतीक्षा बोझ लग रही थी। बहुत अधीर हो रहा था मैं, जाकर पास के स्टॉल से दो बड़े-बड़े चॉकलेट्स ले आया। वह जहाज से नीचे उतर सीधे लाउंज की ओर तेजी से बढ़ी। फिर वही औपचारिकताएँ और चेकिंग काउंटर से निवृत्त हो इधर-उधर देखने लगी तब तक उसका सामान भी आ गया था। उसकी नजरें इस अजनबी एयरपोर्ट पर इधर-उधर दौड़ रही थीं।
लाउंज के बीचों-बीच ही तो मैं खड़ा था, यात्रियों के चेहरों में उसे ढूँढ़ता हुआ।
वह धीमे-धीमे मेरी तरफ बढ़ी, वह लम्बी यात्रा के बावजूद ताज़ा लिली की फूल लग रही थी, मैं ज़रूर उसे थका-सा लग रहा होऊँगा, शायद लम्बी ड्राइविंग की वजह से। मैंने ग़ौर किया कि पिछले कुछ महीनों ही में उसने वज़न बढ़ा लिया था। अब वह कृशतनु कन्या नहीं रही थी, अमृता शेरगिल के पुष्ट सेल्फ-पोर्ट्रेट-सी अनुपातों में ढली थी। सीधे स्थिर दृढ़ भाव से मुझ पर आक्रमण भी किया, "हलो चेतन!"
"कैसी हो ग्रेशल?" कह कर मैंने उसे चॉकलेट्स उसे पकड़ा दिये।
वह हँसी... "तो तुम्हें याद रहा, हाँ... बढ़िया... तो फाइनली... "
"हाँ, तुम्हें तो लगा था कि मैं बस हवा में किले बाँध... "
"हाँ, लगा तो था, किसी को भी लगता, एक सिगरेट की डिब्बी पर लिखी स्क्रिप्ट देख कर... "
"अब, बस शूटिंग 55 दिन का शेड्यूल है, आधा क्रू आ गया, आधा कल... खास हमारी हीरोइन आ गई, पद्मा।"
"डोंट कॉल मी बाय दिस नेम। मैं नर्वस हो जाती हूँ।"
हम एयरपोर्ट से सीधे उस घर में गए, जहाँ मैं ठहरा था, जहाँ पद्मा रहती थी अपने जाने से पहले। "कौन रहता है यहाँ?" दरवाज़ा भी न खोला था कि उसने पहला प्रश्न किया।
"है कोई।"
"किरायदार?"
"हाँ।" मैंने टाला उसे।
"घर किसका है? तुम्हारा?"
"मेरा ही समझ लो।"
मैं खीजा, "आखिर इतने सवालों की ज़रूरत क्या? वहाँ रसोई है।"
वह पूरे घर में घूमती रही, आखिरकार कॉफी मैंने ही बनाई, जिसे पी कर वह नहाने चली गई। लौटी तो उसमें मैंने अपनी पद्मा को खोजना चाहा। भीगी-भीगी-सी, पीछे को सँवारे भीगे बाल, उघड़ा मस्तक, धनुषाकार भवें, दीप्त आँखें, छोटी-सी नाक, खूबसूरत सुर्ख होंठ और ऊँचा कद। वक्ष से लगा लेने का मन हो आया। मगर वह पूरा एक प्रश्नचिह्न बनी बैठी थी।
"यह घर बरसों बन्द रहा है क्या? इसमें एकाएक ठहर गया वक्त फड़फड़ा रहा है, बन्द रह गए कबूतर की तरह। देखो ये पल, दरवाज़े और चौखट के बीच फँस कर मर गए। वह एक मरा हुआ शलभ उठा लाई। इस घर से क्या कोई आनन-फानन में चला गया? वो जो सितार बजाता हुआ... देखो तार ढीले नहीं किए, कवर भी नहीं डाला। ऐई, तुम्हारी हर चीज रहस्यमय। कौन रहते थे, विदेश चले गए क्या?"
"इतने तरह के ग्लासेज़... पीने-पिलाने के शौकीन होंगे मेरे डैड की... "
मैं उसे उसके कौतूहलों के बीच छोड़ कर बाहर सिगरेट लेने आ गया।
वह क्यों भागा मेरे सवालों से? मेरे सवाल सच में मल्टीप्लाई हो गए और घर भर में गिजाइयों के झुण्ड की तरह फैल गए। मैं थकी थी, सफर की, गन्दी भी हो रही थी। नहाना था, कुछ बना कर खुद ही खाना था, मैंने घर पर सरसरी नजर डाली, सवालों के कुछ और अण्डे फूटे, गिजाइयाँ टूट पड़ीं मुझ पर।
वह कह रहा था, "किराएदार' का घर है, तो बैठक की बुकशेल्फ में इसकी हस्ताक्षर वाली किताबें क्यों? दीवार पर माला लगी लड़की की तस्वीर? माला लगी ये सुदर्शन पुरुष की तस्वीर? बाथरूम की बिन्दियाँ? सितार? भरी-पूरी रसोई। सजी हुई बैठक। एक कड़ी मिसिंग है। जो कहीं नहीं है, बस बाथरूम की बिन्दियों में है।"
यक्ष प्रश्न, "जीते हुए सघन पल दरवाज़ों की संधों में फँसा कौन छोड़ गया? और क्यों?"
मुझे उसने रात भर के लिए त्रिकोण के तीन बिन्दुओं पर टाँग दिया था, सवालों की गिजाइयों के साथ, वे रात भर मुझ पर चढ़ती रहीं। मैं एक गझिन प्रेम कथा के चौखटे में मकड़ी की तरह इधर से उधर तार खींचती रही।
उसके आते ही, मेरे सवाल उबल पड़ने को थे, मगर मैंने उन्हें तरतीब दी।
"यह घर किसी बहुत पीने-पिलाने वाले का है? इतनी क्रॉकरी, मानो बहुत पीने-पिलाने वाली पार्टीज़ दी जाती हों। क्रिस्टल के ग्लॉब्लेट्स।"
कोई उत्तर नहीं।
"मैंने जो टॉवेल यूज किए वो धो दिये।"
"क्या ज़रूरत थी?"
"अरे आपके किराएदार क्या सोचते, कौन हमारे बिस्तर पर सोया?"
"अब कोई नहीं लौटेगा।"
"सामान लेने भी नहीं?"
"नहीं।"
"अरे?"
"उनकी परिस्थिति ऐसी है।"
"विदेश चले गए क्या हमेशा के लिए?
"फ्रिज में स्प्राउट्स हैं, पनीर है, ब्रेड-अण्डा है, भूख हो तो कुछ बना लो, मैं भी खा लूँगा।"
किचन में ऑमलेट बनाते हुए मैं सोच रही थी कि वह सोच रहा होगा, लड़की बड़ी बदतमीज़ है, घर के पीछे पड़ गई, अरे आम खाओ, पेड़ों से मतलब? ये सूत्र कहाँ से लाती है, सितार, पार्टी, शराब... क्या आज यह यहीं सोएगा?
''तुम, यहीं सोओगे?"
मैं हँसा उसके सवाल पर वह बेखबर-सी मेरे करीब खड़ी थी, हाथ खींच कर दीवान पर मैंने अपने पास बिठा लिया।
"हाँ।"
बाहर हवा अपने पंख फड़फड़ाती रही, बाँहों के घेरे में उसे बाँधे मैं सोचता रहा कि यही विशुद्ध सुख है, पर ग्रेशल न जाने क्या सोचती है और स्वयं को मुझसे विलग कर पूछती है, "कल से शूटिंग है, न! तुम तैयार हो? मुझे घबराहट हो रही है। मुझे कुछ बताओ तो... मेरा रोल... "
''आज कुछ नहीं, कल बात करेंगे। गोआ से उदयपुर तुमने मजे की हवाई यात्रा की है उतनी देर मैंने ड्राइव किया है। उससे पहली रात भी कहाँ सो सका?"
ग्रेशल उदास हो अपना चेहरा मेरे के कन्धों पर रख देती है। कमरे में पूरा अँधेरा है, पेड़ों की कतारों से कहीं-कहीं मलिन रोशनी झर रही है, पेड़ों की नजर बचा कर। इसमें मुख के भाव नहीं पढ़े जाते पर आकृतियाँ दिखती हैं। पहले उसकी एक चप्पल नीचे गिरती है। फिर दूसरी चप्पल वह खुद निकाल कर रख देती है। वह उसके कपड़े उतार रहा था, वह ताक रही थी उसकी आँखों में, मुस्कुराती, आमंत्रित करती आँखें। देह पसर जाए बिसात की तरह, उसे जमता है यह खेल। वह रोचकता से खेलता है, चालाकी से अगले को जिताता हुआ खुद हारता जाना जानता है। यह जिताना ही सुख देता है। शायद यही प्रेम है।
कपड़ों के साथ वह नियंत्रण पहन लेना चाहता है और फिर...
स्मृति में कुछ अस्फुट-से स्वर उभरते हैं, पद्मा करवट बदलती है, चेतन को नींद घेर रही है।
''बाबू, तुमको तो आज भी नींद आ रही है।"
''तुम तो जमाने से मेरी नींद की बैरिन हो न!" मैं हँस पड़ता हूँ।
"क्या हुआ, हँस क्यों पड़े? क्या याद आ गया? मेरी नींद खोल दी, मैं डर गई कि कहीं तुम दबाव में सिज़ोफ्रेनिक न हो गए हो।"
मैं उसे दुलारता हूँ और ग्रेशल मुझसे भी पहले नींद में खो जाती है, कुछ खुद में, कुछ मुझमें डूब कर। क्या यह प्रेम है? कुछ इस तरह का कि जहाँ जब भी मिले प्रगाढ़ता के छूटे सूत्र फिर आ जुड़ें। स्त्री-पुरुष होने के दैहिक स्तर से बहुत आगे एक प्रकृति का शाश्वत रिश्ता हमारे बीच बह रहा है, हमारे भीतर।
एक ही घण्टा सो पाता हूँ, मैं। यही साठ मिनट मुझे स्फूर्ति दे जाते हैं। मैं उठ कर सिगरेट सुलगा लेता हूँ। ग्रेशल सो रही है, गुलाबी रजाई में ढँकी, चेहरा खुला है, एक बाँह बाहर लटकी है, पसीने की बूँदे माथे पर उभर आई हैं, होंठों में स्पंदन हुआ, शायद कुछ कहना चाहती है। न चाह कर भी मैं उसके चेहरे से ध्यान हटा लेता हूँ और इधर-उधर बिखरी अपनी - उसकी चप्पलें समेटता हूँ। आहटों से वह जाग जाती है, और पूछती है,
''सोए नहीं?"
"एक घण्टा सो लिया, सुबह होने को है, झील देखोगी?"
"हाँ!"
"कॉफी पियोगी?"
"बनाऊँगी।"
कह कर वह केवल स्लिप पहने-पहने बाहर कूद जाती है।
जब वह दिगम्बरा, सुबह के पहले के जैली जैसे मुलायम पारदर्शी अँधेरे में सिगरेट सुलगाती है, मैं सिहर जाता हूँ, सिगरेट की लाल गुनगुनी छाया उसके माथे, काजल लदी आँखें।
गोल नाक और नन्ही-सी चाँदी की नथ पर पड़ रही है, वक्ष नीली अँधेरे में साँस के साथ उठ-गिर रहे हैं। "ठंड लग जाएगी, यह गोआ नहीं... "
अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक करती वह बड़ी आकर्षक लगती है और न जाने क्यों बहुत समर्पित-सी भी। कोने की टेबल पर रखे परकोलेटर का प्लग स्विच बोर्ड में घुसाती है और कॉफी का सामान जमाने लगती है। उसके होंठों पर एक आश्वस्त-सी मुस्कान है, ऐसा आभास होता है कि इन अधरों पर क्षण भर के लिए एक कविता जन्म ले रही है। हम एक बार फिर साथ कॉफी पी रहे हैं। दरअसल ये पल पहले भी दोहराए गए होंगे मगर आज इन पलों का अर्थ सर्वथा अलग है।
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मैं चाहता हूँ दुनिया , वह चाहता है मुझे
मसला बडा नाज़ुक है , कोई हल लिख दे
''तुम अब भी विगत की सोचती हो कभी?" मैंने पूना से लौट कर पूछा था।
''विगत को सोचने से क्या होगा, तब जो मैं थी, अब वह नहीं हूँ। समय जो बीतता है, जीती हूँ, उसके बाद पहले-सी कहाँ रह जाती हूँ मैं। अब भी तुम्हारे यहाँ से जाने के बाद मैं, मैं कहाँ रहूँगी।" पद्मा का स्वर उदास हो आया था, पर निष्कम्प वाणी में उसने कहा, ''तुम्हारे पास उदासी का एक झीना-सा आवरण है, जिसे जब चाहे ओढ़ लेती हो, जब चाहे उतार देती हो।"
अमलतास के फूलने के दिनों में मैं उससे विलग हुआ था। मैं शहर छोड़ रहा था। महलों के बुर्ज और बूढे पहाड़ों पर पीली पड़ती वनस्पति और सलेटी झीलों ने उसे रोका था, मगर उसने नहीं। उसने अचानक अपने लम्बे-लम्बे बाल बहुत छोटे कटवा लिए थे जिससे उसके उठी हुई गाल की हड्डियाँ और प्रभावशाली हो गई थीं।
आँखें बहुत बड़ी दिखने लगी थीं। घनेरी स्मृतियों की डालिया एक दूसरे को थमा दी और फिर चल पड़े अपनी-अपनी राह, जो साथ तो चलती थीं पर कहीं भी एक दूसरे से मिलती नहीं थीं दो समानान्तर रेखाओं की तरह।
"तुम नाराज़ होकर तो नहीं जा रहे हो ना!"
वह अपनी सुन्दरता में सम्पूर्ण नग्न खड़ी थी मेरे सामने, बस उसके हाथ में घड़ी थी, चौड़े पट्टे वाली मर्दाना घड़ी। वह कमरे में ओट लगा कर बनाए बाथरूम से जिस नीली सूती साड़ी को लपेट वह निकली थी वह भी उसने उतार दी थी, मैंने क्षणांश में उसे भरपूर देखा, फिर बाहर चला आया। उस दिन वह गली बहुत अजनबी लगी। एक पंक्ति में दोनों ओर बने लाल रंग के घर, रंग उड़े काठ के, लोहे की कड़ियों वाले दरवाजे, रंगीन फूलों वाले काँच के रोशनदान, छतों पर गोखड़े, गली के मुहाने पर एक ताख में काली की भयावह मूर्ति और एक मरती हुई लौ वाला दिया। अब तक भी घड़ी बाँधे उसकी संपूर्ण नग्न छवि ही मेरे जहन में उसकी अंतिम छवि बनी हुई है अब तक। अब तक की सबसे सघन छवि। छोटे बाल, चौड़ा माथा, चौड़े जबड़े, ऊँचे गाल और उसकी हल्की मांसल लम्बी देह। कलाई में मर्दाना, भूरे, चौड़े पट्टे वाली घड़ी। काक-सा की घड़ी...
यही तो था पहला दृश्य-
आज पहले दृश्य का शूट था जिसमें ग्रेशल को नग्न, केवल घड़ी पहने बाहर आ गई है... ग्रेशल नर्वस थी, मैं खुद नर्वस था कि नौ साल बाद कोई सीन शूट कर रहा था। मैंने सबको सेट से बाहर भेज दिया - केवल बूम ऑपरेटर और मैं। सामने सर्वेश और ग्रेशल बस। सर्वेश सदा की तरह सहज था। ग्रेशल ने मेरे कहने से वज़न बढ़ाया था और पद्मा-सी ही मांसल लग रही थी। रोशनियाँ प्राकृतिक थीं, इसलिए दृश्य बहुत खूबसूरत बन गया।
सर्वेश बहुत कुछ मुझे समझता था वह मेरी पिछली अनरिलीज़्ड फिल्म में काम कर चुका था... मगर यहाँ मैं निर्देशक के साथ खुद पात्र था, तो जब मैं सर्वेश को करके बताता था तो वह चकित मुझे देखता रहता फिर बतौर एक ब्रिलिएंट एक्टर हू-ब-हू दोहरा देता। मगर ग्रेशल जब भी असहज महसूस करती, मैं डबल असहज हो जाता। दृश्य में नग्नता के ही साथ बहुत सघन भावनात्मक क्लाइमेक्स थे, वह मारक अन्दाज़ में नहीं बोल पा रही थी, नग्न सीना उठाए सर्वेश से कि - "तुम कह रहे थे, मत करो शो, हम शादी कर लें। क्या तुम ऐसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?"
" बाबू... " और नायक उस पर एक नजर डाल कर बाहर चला जाता है।
"आप बाहर जाइए, चेतन। मैं यह सीन केवल सर्वेश और फोटोग्राफर के साथ करूँगी।"
मैं हैरान था। मुझे कुछ नहीं बहुत कुछ अजीब लगा, मगर जब दृश्य को देखा... कैमरे में रिवाइंड करके तो संतोषजनक बना था। मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था।
मैंने महसूस किया कि कुछ दिनों में ही ग्रेशल का व्यवहार बदलने लगा। या मेरा ही अधिकार भाव... किसी बीच के दृश्य को शूट करते समय की बात है, दृश्य था कि 'जगदीश मंदिर के परिसर में पद्मा विशुद्ध ध्रुपद गा रही है, काका के साथ। भक्ति भाव से।' बीच में एक रीटेक किया मैंने उसके उच्चारण को लेकर तो वह दौड़ कर सीढ़ियाँ उतरी और मेकअप वैन में गई और साड़ी उतार कर फेंक दी, जींस और ब्रा में बैठ कर सिगरेट पीने लगी।
मैं पहुँचा तो बोली, "मुझे वो गाना नहीं समझ आ रहा, कैसे प्रोनाउंस करना है तुम बार-बार रीटेक कर रहे हो... ध्यान धर चित्त में... के आगे सीन ही नहीं बढ रहा, आई नीड अ ब्रेक यार।" सिगरेट का धुँआ उड़ाते हुए वह बोली। मेरे भीतर कुछ टूट गया, मैं उठ कर बाहर आ गया, दुबारा जब शॉट हुआ तो मैंने कहा, "जब तक फिल्म शूट हो रही है, सिगरेट मत पीना।"
"नॉट पॉसिबल फॉर मी, कांट सस्टेन विदाउट इट।" वह कन्धे उचका कर चीख कर बोली।
मैं रात को उसके कमरे में गया।
"तुम किस कदर बदतमीज़ हो। क्या तुम लड़ना चाहती हो यूनिट के सामने?"
"तुम मुझे बहुत ज्यादा टोकने लगे हो, यू आर नॉट माय गार्ज़ियन हियर।"
"तुम्हें मुझे सुनना होगा, मैं फिल्म-मेकर हूँ और तुम एक एक्टर, देख रहा हूँ बहुत घमण्डी, मूर्ख और मुँहफट हो गई हो।"
"तुम मेरे भीतर को नहीं बदल पा रहे, इस बात की खीज क्यों, आयम नॉट पद्मा। नहीं करता कुछ भी मैच उसका और मेरा, मेरा केवल छोटा-सा अंश तुम्हारा है, मेरी जिन्दगी में कोई और भी हो सकता है। मैं सर्वेश से बात करती हूँ तो तुम्हारे भीतर कुछ सुलग जाता है। मैं प्रशांत पर ध्यान देती हूँ तो तुम खीज जाते हो। समस्या क्या है तुम्हारी? हमारे सम्बन्ध में एकनिष्ठता की कोई शर्त कभी नहीं थी, केवल सुख और साथ... दैट्स ऑल! " वह पिये हुए थी और हँसते हुए स्फिंक्स की तरह लग रही थी, आधी औरत, आधी शेरनी।
हम बहुत समय तक आपस में नहीं बोले, असिस्टेंट उसके पास आता रहा, शूटिंग होती रही बहुत धीमी गति से, यह चुप्पी अपने आप में घातक थी। और उस रात इस अजीब से एक-दूसरे पर थोपे अनाधिकृत अधिकारों का विश्लेषण करता रहा, कौन है वह मेरी? क्यों उस पर से अपना प्रभाव कम होता देख मैं आहत हुआ था? किन्तु शीघ्र ही मैंने महसूस किया कि वह कई प्रकार के छोटे-मोटे विरोध करने लगी है। कई बार वह मुझे क्रू के सामने नीचा दिखाने का मौका ढूँढती निराश, चिढ़ी, मेरे झूठों से आहत प्रेमिका की एक्टिंग करती। अकसर कह देती, बस यह इश्क आगे नहीं चलेगा, खत्म... बस सब खत्म। उम्मीद करती कि मैं उसे पुन: जीतने की जद्दोजहद करूँगा। जब नहीं करता, बस उपेक्षित करता तो वह रास्ते पर आ जाती।
पर कहीं लगा कि वह अपनी हरकतों से जानबूझ कर मेरा ध्यान आकर्षित कर रही है। न जाने कौन-सी मनोवैज्ञानिक गुत्थी थी, जिसका एक सिरा मुझे मिला --
एक रात मैंने उसके कमरे से सुबकने की आवाज़ सुनी। मैंने धक्का दिया तो दरवाज़ा पहले ही प्रयास में खुल गया।
"तुम दरवाज़ा बन्द नहीं करतीं?"
"हाँ कुछ दिन से।"
"क्यों?"
"आय'म मोर्निंग। मैं शोक मैं हूँ)
"किसके शोक में?"
"मैं अपनी माँ के एक मित्र से नफरत करती रही जीवन भर। मैंने उनसे कभी बात नहीं की। वे आते एक खास इत्र लगाए, माँ उस दिन खास केक बनाती अखरोट और खजूर का। लेकिन जब बेल बजती मैं खोलती, उन्हें देख कर उनके ही मुँह पर बन्द कर देती थी और उनके बाहर ठिठक जाने की आवाज़ सुनती थी, वे आह भरते और मरे हुए कदमों से सीढ़ी उतर जाते। कल रात मम्मी का फोन आया था। कल उनका फ्यूनरल था। वे अपना फोंटेनिहास की पुर्तगाली विला मेरे नाम कर गए हैं।"
कुछ दिन पहले वे मेरे घर आए, माँ से मिले, फिर माँ ने मुझे बुलाया और यह कहा कि वे प्रोस्टेट कैंसर से मर रहे हैं। मैंने झूठ माना। हालाँकि मुझे झूठ मानने की भी वजह नजर नहीं आई। माँ चाहती थी मैं उनसे एक बार मिल लूँ। मैंने साफ मना कर दिया। वे खुद चले आए। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया, मैंने खोला, और आदतन... "देखो दरवाजा बन्द मत करना, मुझे तुम्हें कुछ कहना है। बहुत ज़रूरी बात।"
मैं दरवाज़े से हट गई। वे भीतर आकर एक स्टूल पर बैठ गए, लम्बी सतर देह, घने मगर सफेद बाल, गोरा खुलता हुआ रंग, खूबसूरत शांत भाव से आक्रमण करती आँखें। सिगरेट से काले हो आए माँसल सुघड़ होंठ। यह उनके दमकते चिरयुवा चेहरे के पीछे का कैसा सच था कि वे बहुत ज्यादा जीवित नहीं रहेंगे। मुझसे कहने लगे, "तुम भी बैठो। वहाँ नहीं यहाँ मेरे सामने, वह स्टूल उठा लाओ।"
".... "
"अपना हाथ दो। बढ़ाओ मेरी तरफ, ऐसे नहीं उल्टे करो, हाँ... "
मैंने वही किया। वे बहुत देर तक मेरा हाथ देखते, सहलाते रहे, फिर उन्होंने मेरे हाथों के समानांतर अपने हाथ रख दिये। हमारे हाथ हू-ब-हू एक-से थे, एकदम। झुर्रियों के सिवा... मैं भाग कर बाथरूम में गई और अपना चेहरा गौर से देखती रही... आ... ह!
"य... ह! यही तो है औरत, एक रहस्य। मैं औरत को समझना चाहता हूँ... एक हद तक। कम से कम उतना तो जितना मानव ब्लैक होल को समझ पाया है। अपनी माँ से लेकर तुम्हारी माँ को, मेरी तमाम प्रेमिकाएँ, बहनें, कज़िन, अब आखिर में तुम... "
"मेरी दिक्कत दूसरी है, मैं तुम्हें नहीं समझ पाती। कितना शराब पीने लगे हो तुम फिल्म बनाते-बनाते।" ग्रेशल को मेरे प्रति सहानुभूति होती है, तो मैं खुश होता हूँ। उसे ग़लतफहमी है कि मैं बहुत बड़ा फिल्ममेकर हूँ। वुडी एलेन, बर्गमेन, अकीरा कुरोसावा, मजीदी के स्तर का। गलतफहमी के कारण वह समर्पित है, मुझे दया भी आती है मगर ग़लतफहमी न हो तो प्यार ही क्यों हो? मुझे अब प्यार नहीं होता वह अलग बात है, मगर प्यार जीतने में मैं हर मर्द-सा सामंतवादी हूँ। पद्मा की गलतफहमी... ग्रेशल की गलतफहमी...
सच पूछो तो मैं चाहता था कि दोनों अपने शील और गुनाहों के झगड़े से ऊपर उठ जातीं तो अच्छा होता, प्रेम स्त्री को कमज़ोर करता है।
ग्रेशल कहती है, "मुझे तुम प्रेमिका बना ही नहीं पाए, दोस्त या सुख बस। फिर भी मैं कहूँगी, तुम्हारी एक खास पर्सनालिटी है जो तुम्हें औरों से अलग करती है। तुम किसी मॉरल में बिलीव नहीं करते, तुम्हारा अपना लॉजिक है, तुम ग्रेट फिल्ममेकर हो… बहुत बड़े फिल्म डायरेक्टर… स्क्रिप्ट रायटर… एक बात बताओ कि तुम लाइफ से चाहते क्या हो?
मैं क्या उत्तर दूँ ग्रेशल को कि मैंने अपनी प्रतिभा, नैतिकता, जीवन सब जानबूझ कर बरबाद किया है, आर्थर हैली, हरमन हैस और हैमिंग्वे की किताबें पढ़ कर, अपने दंभ से पीड़ित होकर, आलस्य में डूब कर। स्पीलबर्ग और लुकास की फिल्में देखकर। अमृता शेरगिल और एफ.एन. सूज़ा की पेंटिंग देखकर। मुझ जैसों की बरबादी के पीछे औरतें नहीं 'कला' होती है।
ओ मेरी 'बाथशीबा'! मेरी ग्रेश, मैं प्रेम में ऐसे कुन्द किया गया कि अब किसी औरत को प्रेम नहीं कर सकता, बहुत ज्यादा किसी औरत के साथ नहीं रह सकता, एक हद के बाद स्पर्श मुझे उकताते हैं, मैं भागने लगता हूँ, स्पर्श से, ध्वनि से, गन्ध से... अपनी छाया से ऊब होती है। मैं खुद से भाग कर एक ही जगह शरण लेता हूँ, शराब और अपना कमरा।
पहले सीक्वेंस की शूटिंग खत्म हो चुकी थी। सब सेलिब्रेट करने के मूड में थे।
शराब थी, खाना था, संगीत था। घने पेड़ के नीचे हमारी टेबल थी, झील का किनारा था, एक हैरिटेज हवेली का पिछ्वाड़ा, जो अब बगीचा था और झील के किनारे से जुड़ा था। गलियारों में दूधिया रोशनी थी और उनके मेहराबों से सफेद चमेली की घनी लतरें उलझी थीं। झील के आस-पास बने होटलों, हैरिटेज इमारतों की जगर-मगर रोशनी झील में गिर रही थी और एक चहल-पहल और रोशनी के हुजूम से भरे किसी बड़े लग्ज़री जहाज के तट पर आ लगने का भ्रम दे रही थी। झील के पानी में रोशनियों की परछाइयों की आतिशबाज़ी हो रही थी। इस बिम्ब को निहारते निर्वाक - से हम आस - पास की भीड़ से असंम्पृक्त बैठे थे। वह बहुत खुश था, लगभग प्रेम निवेदन की भूमिका में। मुझे मनाता हुआ, वह इस कदर प्रेम के ट्रांस में था कि मुझे लगा कि मेरी जगह कोई भी होती, यह विवश होता प्रेम करने को। यह शायद माहौल और शराब का असर था।
अचानक ही बरसात शुरू हो गई थी। अक्टूबर की शुरुआत में बरसात का होना अप्रत्याशित ही था। भीगते पेड़ और आर्द्र होते तने के नीचे कुछ देर तो हम खाते रहे। हम भीगे हल्का-सा, मगर जब पानी स्नैक्स और शराब के ग्लासों में टपकने लगा तो हमारी टेबल का वेटर भागता हुआ आया और उसने हमें ऊपर जाने को कहा। हम अपने ग्लास लेकर ऊपर आ गए। हम हॉलनुमा रेस्तराँ, जिसके रोशनदान और खिड़कियाँ लाल और हरे काँच के बने थे और जिसमें भीतर पर्शियन फानूस लगा था... में नहीं घुसे। वहाँ भीड़ थी। हम दो संगमरमरी गलियारों को हाथ थामे पार करके तीसरी मंज़िल के बन्द पड़े कमरों को जाती सीढ़ियों में जा बैठे। बरसात में भीगते ही फिर मैं मैं कहाँ रह जाती हूँ। अपने ही से दूर बहती नाव बन जाती हूँ। तुम बहुत कुछ कह रहे थे, बाँह कन्धों पर धर जकड़ रहे थे, चूम रहे थे। मेरी हैरानी के लिए पहली बार लगा कि देह के खेल से हटकर प्रेम कर रहे हो... कम से कम प्रेम का दावा। मैं थी कि तुम्हारी फरमाइश पर गाते हुए भी तुम्हारा हाथ थामे, तुम्हीं से मुखातिब मगर तुमसे विपरीत कहीं बह रही थी। बिना शोर... किसी पानी में डूबती एक कागज की नाव। कोई बिसात पलट चुकी थी और सम्बन्धों की भीड़ से छूट कर अकेली खड़ी थी मैं। उसकी छुअनों ने मुझे अतीत से निकाला। फिर भी मेरा मन अनमना था, अतीत और वर्तमान एक बैंच पर आ बैठे थे।
"मुझे रोकना मत अगर मैं कहूँ कि मैं गिर रहा हूँ एक ऊँचाई से... तुम्हारे... अच्छा जाने दो।"
मैं कहना चाहती थी... मत कहो बहुत कॉन्ट्रास्ट है यह सुनना तुमसे। फिर भी उस पूरी शाम वही बोला। इतना कि एक भी शब्द मेरी स्मृति में नहीं अटक सका।
अब वह फुसफुसा रहा था, "बहुत प्रेम है तुमसे। याद आती ही रही हो तुम पिछ्ले दिनों। सेक्स के लिए नहीं, प्रेम, उसके मुँह से स्कॉच की हल्की नफीस महक आ रही थी और उसकी बगलों में जंगली कमल महक रहा था, मैंने उसके कंधों पर सर रख दिया।
"कुछ गुनगुनाओ न... "
"मैं?"
"हाँ, वही सिसीलिया या समर वाइन जो तुम गुनगुनाती हो।"
वह मेरे साथ गुनगुनाता रहा।
वह निजता के खोल से निकला और रात भर उसने मुझसे बहुत-सी बातें कीं।
कई किस्म की स्वीकारोक्तियाँ, यह भी स्वीकार किया कि वह भी रोता है, बल्कि उसी समय उसका गला भर आया था। मैंने सीने से लगा लिया और उस रात उसने मेरी देह को एक अहसान की तरह छुआ, देने और देने के लिए। कुछ भी लेने को तैयार नहीं था वह।
बार-बार अपनी परफॉरमेंस को लेकर पूछता रहा, "सुख तो दिया न!"
मैं नींद में गड़प होते हुए सर हिला रही थी… ह्म्म्म।
मन ही मन हैरान थी, यह कैसी असुरक्षा होती है पुरुष की? फ्रायड बाबा, कैन यू टैल मी द रीज़न!
उसके अगले ही दिन की बात है, हम अपने होटल के एक टैरेस पर थे, वहाँ बैण्ड पर मेरी मनपसन्द धुन बज रही थी। मेरा मन नाचने का था, मगर वह खामोश था। बेहद खामोश, जैसा कि हर बार प्रेम के तूफानी दौरे के बाद वह होता था। हम जल्दी-जल्दी डिनर निगल कर कमरे में लौट रहे थे, पिछ्ली रात उसने मुझे लिफ्ट में चूमा था, इस बार मैंने पहल की तो वह बिदक गया । मुझे अपने घर के एक्वेरियम का कछुआ याद आ गया, जो यूँ तो अकसर ऊँघता रहता है, मगर कभू-कभू अपने खोल से मुण्डी निकालता है, मनचाहा खाता है, थोड़ा घूमता है, ब्लैक मौली के गाउननुमा फिंस को घूरता है, एक फेरा उसके चारों तरफ लगा कर फिर खोल में गुम। कमरे के गोखड़े में बैठा वह बाहर की झलमल रोशनियों की नदी में गुम था।
उसकी चुप्पी क्रूर थी। वह इतना ज्यादा असम्पृक्त था कि मैं उसके सामने कपड़े बदल रही थी और उसकी नज़रें खिड़की के बाहर अटकी रहीं। मैं एक उदास गीत गुनगुनाते हुए अचानक चुप हो गई, मुझे सामने लगे आदमकद अपनी चम्पई मांसल देह बहुत अश्लील और भोंडी लगने लगी। रात ढलने जा रही थी, मैंने पूरी बाँह की ढीली शर्ट, पहन कर पजामा पहन लिया और चादर खींच कर लेट गई, खुले परदे में से चाँद का तिलिस्म यहाँ से भी दिख रहा था। यहाँ चाँद के चारों तरफ सुनहरा चूर्ण लगा था, आकाश एक दम साफ। ढेर सारे तारे मुझे ताक रहे थे। यहाँ से वीनस धरती से काफी करीब और बेहद चमकीला दिखता है। चाँदनी, चुप्पी, सब कुछ एक उदास धुन में बँधा था। चमकीले पत्ते, पेड़ों की फुनगियों पर आँसुओं से ढुलके थे। जिन्दगी की तमाम नियामतों के बावजूद, तमाम सुखों के रहते भी जो फूटता है, वह रुदन। यह बात या तो मैं जानती हूँ या वो वीनस।
कोई असर था जो बीत चुका था, वह वैसे ही बैठा रहा, फिर न जाने कब बगल में आ सोया। सुबह उठते ही उसने रट लगा दी, "पैक अप, मेरा यहाँ दम घुट रहा है।"
हमने अगली शूटिंग, कुंभलगढ़ के रास्तों में की। वह एक मज़ेदार पिकनिक थी।
मुझे उस खुश्क व्यक्ति से कभी कोई उम्मीद नहीं रही थी, शूटिंग के दौरान वह खीजता ही रहा है, उसे मेरी हर चीज से प्रॉब्लम थी। मुझे भी अब उकताहट होने लगी थी, जगह बदलने से मुझे तकलीफ हो रही थी, झील की नमी, कोहरा और यहाँ का बहुत ज्यादा ऑईली - स्पाईसी खाना, धूल-कचरा... उस पर डांस प्रेक्टिस, अजीब-से भजनों के बोलों को याद करना, डायलॉग्स, उस पर हर रीटेक के बाद लगातार मानसिक प्रताड़ना, अबोला। मैंने खुद को कमरे में बन्द कर लिया था आज शूटिंग के बाद... साँस लेने में तकलीफ हो रही थी, मुझे क्लाइमेटिक अस्थमा था। मेरा इन्हेलर खत्म चुका था।
वह रात में मेरा हाल लेने कमरे में आया भी था, मगर मैंने बाहर से ही भेज दिया, "नॉट कीपिंग वेल, लीव मी अलोन।"
सुबह मैं सात बजे दम घुटने से उठी और झरोखे में जा बैठी, सुबह-सुबह धूल उड़ाती हुई एक स्वीपर झाड़ू लगाती हुई कुछ गुनगुना रही थी। मेरा दम और उखड़ गया... मैंने गीला रूमाल चेहरे पर रख लिया, हाँफते हुए मैं दोहरी हो गई, तभी मैंने देखा, चेतन कुर्ते-पाजामे में कहीं से आ रहा था, उसके हाथ में सालबुटामॉल का नया इन्हेलर था। यही मेरी दवा थी। मेरे मन में बरसों से जमा गिला पिघल गया, मैंने खुद को झरोखे से हटा कर बिस्तर पर डाल लिया, देख लेता तो झेंप जाता।
11
शूटिंग का आखिरी दिन बड़ा एंटीक्लाइमेटिक था, हमें कोहरे की ज़रूरत थी, वह भी बाहर सड़क पर जहाँ पद्मा आखिरी बार कार से उतर कर कोहरे में गुम हो जाती है, दूर से उसकी आवाज़ आती रहती है मगर वह दिखाई नहीं देती... और एक सन्नाटा छा जाता है। उस दिन भाग्य हम पर मुस्कुराया, अचानक बादल छा गए। मगर अंत हमें चाँद को दिखाने से करना था, तो बादलों और बीस फॉगरों के धुँए से हाथ को हाथ न सूझने वाला कोहरा तो हमने शूट कर लिया था।
मेरी नीली कार क्रॉसिंग के पास अचानक रुकती है, मैं पद्मा को चूमता हूँ... उसके कुछ देर बाद वह उतर जाती है, भग्न मंदिर के शिरीष के निकट जा खड़ी होती है, डाल पकड़ कर। वह पुराना शिरीष कब का सूख गया था, वहाँ एक जवान बबूल था, उस पर फूल खिले थे। ग्रेशल ने जैसे ही डाल थामी, काँटे चुभ गए, वह सीत्कार उठी मगर उसने दृश्य पूरा किया।
"बाबू, प्रेम और वासना के उन प्रगाढ़ पलों में मैं जो बुदबुदाती थी वह डायनिसस के मंत्र थे - जो शराब, पुनर्जन्म और प्रजनन का देवता है। मैंने कहीं पढ़े थे, किसी पुरानी किताब में ग्रीक मायथॉलोजी की... अच्छा एक इरानी कविता सुनो।
क्यों ज़माने के सामने
हमारी ज़बानें सिरे से
पलट जाती हैं,
क्यों अधखुली आँखों के इशारे
बन जाते हैं रवायतन सलाम
क्यों ख़ामखा पहन लेती हैं
लोगों के आगे
कई कई लबादे
हमारी नंगी रूहें।
अगला हिस्सा था दृश्य का कि मैं कुछ तय करूँ तब तक वह कोहरे में गुम होने लगती है, कान में पीले फूल पहने मेरे सामने ही... "पद्मा! पद्मा!"
"मैं दुबारा पूछ रही हूँ, आखिरी बार क्या तुम ऎसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?"
मैं एकदम अचकचा गया था, मुझे पसीना आ गया कैमरे में झाँकते हुए।
"आय'म इंटरेस्टेड इन कनक्लूज़न।" कोहरे में से ग्रेशल की आकृति बोली।
नायक चुप रहा... स्टियरिंग पर चेहरा टिकाए।
"आई हैव कनक्लूडेड।" वह जा रही थी… तब मुझे नहीं पता था कि वह हमेशा के लिए जा रही थी।
"सर… देखिए… मुझे लाइट कम लग रही है उधर लगाएँ क्या… सड़क के उस तरफ जिधर मैडम को जाना है... " कैमरामेन ने दिखाया।
"हमारा नायक कार से उतरा... मुझे लगा मैं ही हूँ... ग्रेशल ने केसरिया बाँधनी की साड़ी पहनी थी और उसका सफेद शॉल में ढँका सर और चेहरा... वह धुँध में खो रही थी... रेलवे क्रॉसिंग की तरफ। मेरा मन कोई मुट्ठियों में भींच रहा था।
"नहीं, आदिल... ऐसे ही शूट करो... रीटेक... फाइनल।" मैं चीखा... मेरी चीख अटपटी थी।
जैसे ही दृश्य खत्म हुआ बरसात शुरू हो गई। काम हो गया था। बस अब चाँद का दृश्य लेना था।।।
वही रेलवे क्रॉसिंग, सड़क और शिरीष का जंगल और ज़ंगल के के पीछे से निकलता चाँद। अगर आज चाँद न निकला तो कल तक प्रतीक्षा और हमें पूरे चाँद की जगह छोटे चाँद से काम चलाना होता, वैसे भी पूर्ण चन्द्र बीते तीसरा दिन था, कल और घट जाएगा। हम हवेली लौट आए, बरसात तो रुक गई थी मगर बादल...।
"सर, आज चाँद को शूट करना ही है, चाहे आधी रात बीत जाए।"
झील के किनारे अलाव जलाया गया। शूट खत्म होने की पार्टी चल पड़ी, मैंने बहुत दिन बाद गिटार बजाया, बेंद्रे ने एक उदास गीत गाया... चाँद के निकलने की प्रतीक्षा थी। ग्रेशल मेरे पास आकर बैठ गई। चुपचाप वाइन पीती रही... मेरा हाथ थाम कर... ।
"यह सच है क्या ल्यूनाटिक मूवमेंट कुछ लोगों के व्यवहार पर असर डालता है... डिप्रेस करता है?"
मैंने उसके चेहरे को देखा... वह पद्मा की तरह शब्द चबा रही थी और उसकी आँखों में आग - पानी - बर्फ तीनों थे। हवेली के बुर्ज की तरफ चाँद झाँक रहा था, नीला... रुपहला।
कैमरामैन आदिल ने कवर्ड कैंटर से शूट जारी रखा... शिरीष के पीले फूल काँटे और चाँद और सामने कोहरे से भीगी लम्बी खाली सड़क।
आखिरी सीन मुझे करना था, सर्वेश जा चुका था, उसकी फ्लाइट थी। वही कमीज़ पहन कर बस मुझे स्टियरिंग पर मुँह छिपा कर बैठना ही तो था।
मैं लौट कर कार में आ बैठा हूँ और कोहरा कार के शीशों पर बहता रहा है। मेरे कान में ग्रेशल - पद्मा - ग्रेशल की आवाज़ गूँज रही थी।
"मुझे क्या चाहिए... मैं तो पीले शिरीष के फूल कान में पहन कर भी महारानी लगती हूँ... इन महलों की देखो... देखो न!"
"अच्छा सुनो, एक बात बताओ क्या तुम ऐसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?"
"आय'म इंटरेस्टेड इन कनक्लूज़न।"
"आई हैव कनक्लूडेड।"
उदयपुर से सीधे हम सब साथ डबिंग और एडिटिंग के लिए मुम्बई आ गए थे। दस दिन की मेहनत और लगी मगर फिल्म तैयार थी। मैं जा रही हूँ, मुझे रुकने की और उसे, मुझे रोक लेने की वजह शायद समझ नहीं आ रही थी। वह अंकल बेन्द्रे से कह रहा था कि - "रेशेज़ देखे ना! उसने अपने होने, अपने नेचर से हटकर कितना गंभीर और सधा हुआ अभिनय किया है कि कई बार मुझे भ्रम हुआ कि यह पद्मा ही है। अब उसे मैं नहीं, उसके अभिनय की चर्चा मुम्बई लाएगी।"
"क्या इरादा है?"
"कुछ नहीं यार, मोपासाँ ने ग्रेशल जैसी लड़कियों की तारीफ में एक ही वाक्य लिखा है - हर ऑनली डिफिशिएंसी इज़... शी गेव हरसेल्फ टू यू।(उसकी एकमात्र कमी यही है कि उसने खुद को पूरी तरह तुम्हें सौंप दिया)" तो क्या तुम्हारी पत्नी छवि की कमी भी यही नहीं थी क्या? या तुम्हारी पद्मा द लोटस यानि शालभंजिका... की कमी भी यही रही होगी, नहीं? तेरा या मोपां - शोपां जो भी था, चूतिया था। सारी औरतें ऐसी ही होती हैं। कभी सोचा तूने कि इन सबके लिए तेरी अपनी डिफिसिएंसीज! बेन्द्रे की एसिडिक आवाज़ आज भली लगी।"
"डिफिशियंसी!!"
"हम तो कहते हैं ना, औरत ने नहीं कला ने बरबाद किया है हमें।"
ट्रायल शो के दौरान हम थिएटर में बैठे थे। वह बहुत उत्तेजित था। ज़ाहिर है, रेशेज़ देखना और पूरी एडिटेड फिल्म देखना, एक उत्तेजना तो होती है। पिछले छह महीनों की लगातार मेहनत, पैसा। उसने सुनहरा सिल्क का कुर्ता पहना था। बाल पीछे को सँवारे थे। वह सबसे आगे की पंक्ति में बैठा हुआ ऊँगलियाँ चटखा रहा था। पूरा यूनिट इंतजार में था। मूवी के डिब्बे लेकर जोज़फ को आ जाना था अब तक आया नहीं था।
वह अचानक उठा और बेचैनी में बाहर चला गया। फिर भीतर आकर मेरे ठीक पीछे बैठा रहा, और एक पैर दूसरे घुटने पर रख हिलाता रहा, फिर दुबारा झटके से उठ बाहर गया। देर तक गुम रहा और तभी भीतर आया जब तक फिल्म के डिब्बे न आ गए।। फिल्म शुरू होने पर वह अँधेरे में एकदम मेरे पास आ बैठा। मुझे अपनी ही बेतरतीब साँसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। मगर वह फिल्म शुरू होने से आखिर दम तक साधे बैठा रहा। इतना स्थिर, बिना हिले - डुले कि मैं बेचैन हो गई। मुझे उसकी बात याद आ गई "फिल्म ठीक नहीं बनी मेरे मन मुताबिक तो, बिलकुल रीलीज़ नहीं करुँगा। और तब जीवन में कभी फिल्म नहीं बनाऊँगा। कलम घसीटूँगा, कलात्मक फिल्म के लिए नहीं, एकदम बिकाऊ टाइप।"
"अन्दर के क्रिएटिव कलाकार का क्या?"
"उस साले कलाकार को ज़हर दे दूँगा।"
फिल्म खत्म होते-होते उसकी देह की भाषा बता रही थी कि वह खुश और संतुष्ट था, फिल्म उसे अच्छी लगी थी, फिल्म खत्म होने पर वह उठा बाहर आ गया, उसके पीछे हम सब।
जाते समय गलियारे में दूसरे एक्टर्स के साथ मैं भी खड़ी थी, हममें से उसने न जाने किसे सम्बोधित किया, "थैंक्स टू ऑल ऑफ यू, फिल्म अच्छी बनेगी यह मैं जानता था।" मुझ पर एक ठण्डी - रीती हुई दृष्टि डाल कर एक छोटी भीड़ के साथ मेरे सामने से यूँ निकल गया था, जैसे मैं पारदर्शी दीवार होऊँ। मेरे लिए उसका यह व्यवहार नया नहीं था, मैं थी ही क्या एक जर्रा और कहां वह एक हस्ती! ना, मुझे बुरा नहीं लगा था। मेरा उसकी तरफ खुलता मन सुन्न हो चुका था। माय ऑनली डेफिसियंसी... (मेरी एकमात्र कमी) और मैं मुस्कुरा दी।
मैं संतुष्ट थी कि मैंने अपना किरदार पूरे जोश से निभाया था, ऎसे विश्वास के साथ जो मेरे लिए अप्रत्याशित था। एक अजनबी औरत का किरदार जिसे मैं ठीक से कभी नहीं जान पाऊँगी, मगर जिसकी हर हरकत मैं अपने जिस्म में ले चुकी थी। जिसकी हर जुम्बिश मेरे भीतर थी। वह औरत पद्मा मेरे भीतर छूट गई थी, कैक्टस के काँटों की तरह, और मैं एक-एक कर उन्हें निकाल रही थी। मुझे कल गोआ लौटना है।