जासूसों की दुनिया जितनी दिलचस्प होती है उतनी ही क्रूर भी। पूरी दुनिया में
सारा खुफिया तंत्र एक अलिखित सिद्धांत पर काम करता है - जैसे ही एक एजेंट पकड़ा
जाता है वह किसी का नहीं होता, उसका तो बिल्कुल भी नहीं जिसके लिए वह काम कर
रहा होता है। बालीवुड या हालीवुड के जासूसों की तरह वह हमेशा दुश्मन के
एजेंटों को पीटते-पाटते विजेता नायक सा घर नहीं लौटता। सच तो यह है कि इस पेशे
में सफलता के बाद भी उसका सार्वजनिक दावा नहीं किया जा सकता। पकड़े जाने के बाद
तो अँधेरे तंग कमरे और थर्ड डिग्री ही उसकी नियति होते हैं।
पूर्व नौसेना अधिकारी कुल भूषण जाधव रा के लिए काम कर रहे थे या नहीं इसे
जाँचने का मेरे पास कोई जरिया नहीं है। अगर वे जासूस थे भी तो रा कभी भी
उन्हें अपना आदमी स्वीकार नहीं करेगी और यदि सचमुच चाहबहार में रहकर व्यापार
करते थे, जैसा कि भारत सरकार दावा कर रही है, पाकिस्तान इस मौके को खोना नहीं
चाहेगा। बहुत दिनों से पाकिस्तानी अधिष्ठान विशेषकर उसकी फौज बलूचिस्तान की
अशांति में भारतीय हाथ होने का दावा करते रहे हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार
अजीत डोभाल के बयान, कि यदि एक और मुंबई हुआ तो पाकिस्तान को बलूचिस्तान से
हाथ धोना पड़ेगा, से पाकिस्तान को पूरी दुनिया में प्रचार करने का मौका मिला कि
बलूचिस्तान में भारत के इरादे नेक नहीं हैं। पहले भी पाकिस्तानी तंत्र भारत और
अफगान एजेंटों को बलूचिस्तान में पकड़ता रहा है पर जाधव जितनी वरिष्ठ हैसियत
वाला कोई उनकी गिरफ्त में नहीं आया था इसलिए इस मौके को भुनाने में वह कोई कसर
नहीं छोड़ रहा है।
पाकिस्तान की सबसे बड़ी दिक्कत है कि दुनिया भर में उसकी विश्वसनीयता काफी कम
हो गई है इसलिए उसके प्रचार को कोई महत्व नहीं मिल पा रहा है। ईरान और
अफगानिस्तान जैसे उसके पड़ोसी उसके दावों को भाव नहीं दे रहे हैं। रही बात
अमेरिका की तो उसके लिए सच और झूठ को तय करने का एक ही पैमाना है - उसका अपना
हित। और आज की दुनिया में भारत उसके लिए पाकिस्तान से अधिक मूल्यवान है।
मुझे याद है कि 1993 की गर्मियों के दौरान अमेरिका में भारत के राजदूत
सिद्धार्थ शंकर रे श्रीनगर आए थे। उद्देश्य था कि एक सफल वकील और अनुभवी
राजनयिक अपनी आँखों से गोला बारूद और हथियारों का जखीरा देख सकें जिन्हें
सुरक्षाबलों ने 1989 के दिसंबर में शुरू हुए आतंकवाद के बाद बरामद किया था और
जिनकी मात्रा इतनी थी कि एक इंफैंट्री डिवीजन खड़ी की जा सकती थी। उन्हें उन
इस्लामी लड़ाकों से भी मिलवाया गया जो दुनिया के तमाम देशों से पाकिस्तान
पहुँचे थे और वहाँ से प्रशिक्षित और सुसज्ज होकर भारतीय कश्मीर में घुसे थे और
अब हमारी हिरासत में थे। सब कुछ देखने सुनने के बाद उस चतुर वकील ने
अधिकारियों की बैठक में मुस्कराते हुए कहा कि अगर इसके बाद भी अंकल सैम कहे कि
उसे भारतीय कहानी विश्वसनीय नहीं लगती तो क्या किया जा सकता है। नब्बे के दशक
में अमेरिका के लिए पाकिस्तान भारत से अधिक महत्व रखता था इसलिए सिद्धार्थ
शंकर रे जैसा वकील भी उसे ठोस और मूर्त साक्ष्यों को देखने के लिए मजबूर नहीं
कर सका। यह तो 9/11 के बाद ही संभव हो सका कि अमेरिका को तीसरी दुनिया में
इस्लामी आतंकवाद दिखने लगा।
जाधव के पकड़े जाने से भारत पाकिस्तान रिश्तों पर दूसरी तरह से असर पड़ेगा। यह
अंतरराष्ट्रीय न होकर पाकिस्तान के अंदरूनी हालात की उपज होगा। मैंने पहले भी
लिखा है कि पाकिस्तान का यथार्थ इकहरा नहीं है। अगर आज के संदर्भ में कहें तो
दो शरीफ हैं - प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीफ और अगर
किसी बड़े राष्ट्रीय मसले पर वे एक जैसा सोचते हैं तो यह पाकिस्तानी अखबारों के
लिए एक बड़ी खबर बनता है। अँग्रेजी अख़बार शीर्षक लगाते हैं - दे आर ऑन द सेम
पेज। भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते इन दोनों के एक सफे पर होने या न
होने पर निर्भर करते हैं। दुर्भाग्य से इस समय दोनों एक सफे पर नहीं हैं।
पाकिस्तानी राजदूत बासित का बयान कि जाधव के पकड़े जाने के बाद भारत से बातचीत
का कोई मतलब नहीं है और अब भारतीय एन.आई.ए. की टीम को पठानकोट हमले की जाँच के
लिए पाकिस्तान जाने का वीज़ा नहीं मिलेगा और दूसरे ही दिन इस्लामाबाद में
पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का गोलमोल शब्दों में वार्ता जारी रहने
का इशारा इसी अंतर्विरोध का नतीज़ा है। असल में नागरिक और सैन्य प्रशासन के इस
अंतर्विरोध के बीज नेशनल ऐक्शन प्लान और आपरेशन जर्बे अज्ब में छिपे हैं।
इस्लामी कट्टरपंथियों के खिलाफ छेड़े गए अभियान में फौज ने धीरे-धीरे विधायिका,
न्यायपालिका और कार्यपालिका के तमाम अधिकार हड़प लिए हैं और यदि अख़बारों को
मापदंड माने तो प्रधानमंत्री शरीफ से जनरल शरीफ की लोकप्रियता का ग्राफ़ बहुत
बड़ा है। दरअसल राजदूत बासित रावलपिंडी स्थित सेना मुख्यालय की राय की
नुमायंदगी कर रहे थे जबकि इस्लामाबाद का विदेश मंत्रालय राजनैतिक नेतृत्व का
प्रतिनिधि है।
भारत को लेकर सैनिक और असैनिक नेतृत्व की भिन्न राय कोई नई बात नहीं है और
भारतीय नीति निर्धारकों को हमेशा इस के लिए तैयार रहना चाहिए। इस समय
तात्कालिक कारण पंजाब की घटनाएँ हैं जिनके जरिए दोनों शरीफ अपने वर्चस्व की
लड़ाई लड़ रहे हैं। सिंध में सेना के मुंह में खून लग चुका है। उसने एक बार फिर
जनता को अपना पुराना नैरेटिव सफलता पूर्वक बेचा है कि राजनीतिज्ञ अक्षम और
भ्रष्ट हैं और सिर्फ वही पाकिस्तान को बचा सकती है। जब तक वे पी.पी.पी और
एम.क्यू.एम. नेताओं के खिलाफ कार्यवाही करते रहे प्रधानमंत्री शरीफ और उनके
भाई पंजाब के मुख्यमंत्री शहबाज शरीफ को लगता रहा कि इससे उनकी राजनीति को बल
ही मिलेगा पर अब जब आग उनके दरवाजे तक पहुँच गई है वे कसमसा रहे हैं।
ईस्टर पर लाहौर के एक पार्क में हुए आत्मघाती हमले ने फौज को बहुप्रतीक्षित
मौक़ा प्रदान कर दिया और उसने नागरिक प्रशासन और राजनैतिक नेतृत्व की मंजूरी के
बिना ही आपरेशन जर्बे अज्ब पंजाब में भी शुरू कर दिया। दोनों शरीफ भाई मजबूरी
में चुप जरूर है पर जल्द ही वर्चस्व की निर्णायक लड़ाई शुरू हो सकती है।
यदि रावलपिंडी के जी.एच.क्यू. में आयोजित कोर कमांडरों की पिछली कुछ बैठकों की
रपटें ध्यान से पढ़ी जांय तो हमें समझने में बहुत दिक्कत नहीं होगी कि सेना
राजनैतिक नेतृत्व के भारत से दोस्ती बढ़ाने के इरादों से खुश नहीं है और जैसे
जैसे उसका दखल बढ़ेगा दोनों देशों के संबंध सुधारने की प्रक्रिया धीमी होती
जाएगी। कमांडर कुल भूषण जाधव की गिरफ्तारी के बाद इसी तरह के संदेश मिल रहे
हैं।