18 फरवरी 1993 - एक दिलचस्प सवाल मुझसे पूछा गया। पूछने वाला एक काश्मीरी
छात्र था और अवसर था बांदीपोरा के बगल मलनगाम में चल रही एक तलाशी। तारीख आज
तक इसलिए याद है क्योंकि मुझे बांदीपोरा पहुँचे चौबीस घंटे ही हुए थे और उस
दिन मेरी बेटी का जन्म दिन भी था। 1993 के हालात की अब सिर्फ कल्पना ही की जा
सकती है। दिसंबर 1989 में शुरू हुआ सशत्र पृथकता वादी विद्रोह अपने उरूज पर
था। सीमाएँ लगभग खुली सी थीं और उनसे हथियारों और दुनिया भर के जिहादियों की
आवाजाही बगैर किसी प्रभावी रोक टोक के जारी थी। पूरी घाटी सुलग रही थी। मैं
जिस संघटन में नियुक्त होकर बांदीपोरा पहुँचा था वह इस लड़ाई का एक प्रमुख घटक
था और मेरे पूर्वाधिकारी इलाके और उसमें चल रहे आपरेशन से परिचित कराने के लिए
मुझे अलसुबह मलनगाम लेकर आए थे।
सवाल था कि क्या मैं जानता हूँ कि कश्मीर में भारत का कौन सा प्रधानमंत्री
सबसे अधिक लोकप्रिय है? सवाल किसी पहेली की तरह था पर मुझे बहुत आसान लगा।
मैंने तपाक से उत्तर दिया- जवाहर लाल नेहरू। मुझे एक अवज्ञापूर्ण हँसी सुनाई
दी। मेरे साथ बैठे दूसरे लोग भी इस खेल में शरीक हो गए पर जो उत्तर हमें मिला
वह किसी भी तरह से प्रत्याशित नहीं था। हमारे लिए यह ज्ञान वर्धक था कि
मोरारजी देसाई घाटी में भारत के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे हैं! पर इस
लोकप्रियता के कारण में ही भारत की अलोकप्रियता के बीज भी छिपे हुयें हैं। इसी
छात्र के अनुसार जम्मू-कश्मीर में विधान सभा के पहले निष्पक्ष चुनाव 1977 में
मोरारजी भाई के प्रधानमंत्रित्व काल में हुए जिसमें काश्मीरियों को स्वतंत्र
रूप से अपनी सरकार चुनने का मौक़ा मिला। इस चुनाव में शेख अब्दुल्ला, जो उस समय
तक घाटी में बहुत अलोकप्रिय हो चुके थे, सिर्फ इसलिए जीत गए कि अवाम में कहीं
न कहीं यह संदेश गया कि नई दिल्ली उन्हें नहीं चाहती। इस चुनाव में शेख
अब्दुल्ला, जो उस समय तक घाटी में बहुत अलोकप्रिय हो चुके थे, सिर्फ इसलिए जीत
गए कि अवाम में कहीं न कहीं यह संदेश गया कि नई दिल्ली उन्हें नहीं चाहती।
हमें याद दिलाया गया कि पहले के सारे चुनावों में बड़ी संख्या में लोग
निर्विरोध चुने जाते थे। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवारों को
छोड़कर शेष सभी के पर्चे खारिज कर दिए जाते थे। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि जीता
कोई और प्रमाणपत्र दिया गया किसी और को। इस ताबूत में आखिरी कील 1987 के चुनाव
में ठोकी गई जब विधान सभा के चुनाव किसी प्रहसन की तरह हुए। नतीजतन जिन लोगों
का चुनाव पर थोड़ा बहुत भरोसा था भी वह भी टूट गया और आई.एस.आई. तथा जेहादियों
को उन्हें समझाने में बहुत मेहनत नहीं करनी पडी कि भारत में रहते हुए किसी
निष्पक्ष चुनाव की कल्पना नहीं की जा सकती। एक उदाहरण सलाउद्दीन का है जिसके
बारे में कहा जाता है कि वह चुनाव जीत गया था लेकिन नतीजा उसके प्रभावशाली
विपक्षी और सत्ता पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में सुनाया गया तथा विरोध करने
पर उसे मारपीट कर हवालात में बंद कर दिया गया। जमानत पर छूटने के बाद वह सीधे
सीमा पार चला गया और आज खूँखार संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का मुखिया है।
इसी लड़के ने मुझे एक-दूसरी दिलचस्प कथा सुनाई। जम्मू कश्मीर के तत्कालीन
मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद किसी गाँव में जाते तो बक्सों में नोट भरकर
ले जाते। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद लोग कतारबद्ध होकर उनसे मिलने आते और
अपना-अपना दुखड़ा सुनाते। एक बार जब इसी तरह का आयोजन चल रहा था और वे हर
दुखियारे का नाम और उसकी बेटियों की संख्या पूछ कर प्रति बेटी के हिसाब से दस
हजार रुपए दे रहे थे, एक काश्मीरी पंडित की बारी आने पर उन्होंने पूछा - कितनी
बेटियाँ हैं? उत्तर मिला- चार। बख्शी ने उसे चार हजार रुपये दिए और कहा कि -
कहो हिंदुस्तान जिंदाबाद। पंडित ने हैरानी से पूछा, कि आप
मुसलमानों को तो फी लड़की दस हजार दे रहें हैं और मुझे सिर्फ एक हजार ! यह तो
ज्यादती है। बख्शी ने छूटते ही कहा, कि अगर तुम्हें एक भी पैसा न दिया जाए तब
भी तुम पाकिस्तान जिंदाबाद तो नहीं कहोगे ! कथा का सार यह है कि भारत के
राजनेता यहीं समझते रहे कि रिश्वत देकर काश्मीरियों को अपने पाले में रखा जा
सकता है। इसीलिए भारत से चौथाई दाम पर चावल घाटी में बिकता रहा, कोई सरकारी
कर्मचारी इनकम टैक्स नहीं देता था, किसी उपभोक्ता ने बिजली का बिल जमा नहीं
किया और हम समझते रहे कि कश्मीर हमारे साथ है।
किसी कश्मीरी राजनेता से बात करें तो पता चलेगा कि इंटेलिजेंस ब्यूरो या
आई.बी. श्रीनगर में भारत सरकार का सबसे महत्वपूर्ण दफ्तर है। सत्तर के दशक तक,
जब दिल्ली और श्रीनगर में एक ही दल की सरकार हुआ करती थी, बहुत सारे राजनैतिक
फैसले मसलन कौन मुख्यमंत्री बनेगा या किन किन को मंत्रिमंडल में जगह मिलेगी
इसी दफ्तर में लिए जाते थे। आई.बी. के पास सूचनाओं की खान हो सकती है पर इनका
विश्लेषण करने वाले नौकरशाहों के लिए कश्मीर सिर्फ कानून व्यवस्था का मसला है,
इसलिए उनसे किसी संवेदन शील और दूरंदेश तजवीज़ की अपेक्षा करना उनके साथ
ज्यादती होगी। श्रीनगर का आई.बी. दफ्तर दिल्ली में बैठे नीति नियामकों के लिए
आँख कान था और इसी लिए उनके ज्यादातर फैसले जमीनी हकीकत से कटे हुए होते थे।
हम पैसा बाँटते रहे और चुनावों में धांधली करा कर अपनी कठपुतली सरकारें बनाते
रहे पर जनता हमसे दूर होती गई। रही सही कसर 1987 चुनाव में दूर हो गई जिसके
बाद 1989 से सशत्र विद्रोह का दौर शुरू हो गया।
बुरहान वानी के मारे जाने के बाद आज कल जो जन उबाल का एक नया दौर शुरू हुआ है
उससे बड़े संवेदनशील तरीके से निपटने की जरूरत है। इसे महज शांति व्यवस्था की
समस्या मान कर हम वही गलती दोहराएँगे जिसका ऊपर जिक्र किया गया है। श्रीनगर
में नियुक्ति के दौरान मैंने एक पैटर्न देखा था जिसे फिर दोहराया जा रहा है।
किसी आतंकवादी के मरने पर उसके समर्थक कोशिश करते हैं कि जनाज़े में ऐसी
स्थितियाँ पैदा की जाएँ कि एकत्रित भीड़ पर सुरक्षा बलों को गोलियाँ चलानी पड़े
और फिर उसमें मृत लोगों के जनाज़ों में यहीं कहानी दोहराई जाए। हर जनाज़े में
पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते हैं और हर जनाज़े से घाटी में भारत का समर्थन
घटता जाता है। सुरक्षा बलों को यह याद रखना होगा।