इस सड़क के दोनों तरफ बाबुओं के कत्लगाह बिखरे हुए थे।
सड़क को सड़क कहना काफी हद तक औपचारिकता निभाने जैसा था। इस पतली-दुबली मरियल सड़क पर चलने के अलावा सभी काम सुविधा के अनुसार किए जा सकते थे। सरकारी रिकॉर्ड में सड़क के नाम से जो चीज दर्ज थी उसे शौचालय या मूत्रालय जैसे किसी नाम से पुकारा जा सकता था। दोनों पटरियाँ और आधी सड़क देश की बेरोजगारी और आवास नामक समस्याओं को हल करने में इस्तेमाल हो रही थीं। प्रणय-लीलाओं से लेकर फौजदारी तक कई राष्ट्रीय गतिविधियाँ थीं जो इस सड़क पर ही सम्पादित होती थीं। इन सबके अलावा यह सड़क चलने के भी काम आती थी। यही सबसे बड़ा आश्चर्य था जो सिर्फ हमारे देश में ही सम्भव हो सकता था।
इसी सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक दफ्तरों की कतारें फैली हुई थीं। इन दफ्तरों में एक ऐसा जीव पाया जाता है जिसे बाबू कहते हैं और जिसके बारे में जानकारों का कहना है कि उसे मैकाले नामक एक अंग्रेज विद्वान ने खोजा था। दरअसल कोलम्बस और वास्कोडिगामा की खोजों के बाद यह सबसे महत्त्वपूर्ण खोज पायी जाती है, और जैसा कि इन दोनों विद्वानों की खोजों के साथ हुआ कि उनके मरने के बाद भी उनकी खोजें दुनिया में बरकरार हैं, उसी प्रकार मैकाले की खोज उसके बाद भी हमारे बीच फल-फूल रही है।
अफसरों को करने के लिए इस देश में बहुत सारे काम हैं। उन्हें दौरा करना पड़ता है, अपने से बड़े अफसरों को खुश रखना पड़ता है, लंच पर जाना पड़ता है और काफी समय बाथरूम में रहना पड़ता है। इतनी सारी व्यस्तताएँ होती हैं कि वे दफ्तर में बैठ नहीं पाते। बाबुओं को दफ्तर में इतना बैठना पड़ता है कि वे किसी काम लायक नहीं रहते। कभी-कभी किसी फाइल की किस्मत अच्छी होती है। बाबू उसे नोटिंग-ड्राफ्टिग करके सजा-सँवार कर ले आता है और अफसर उसमें एक अमूर्त पच्चीकारी करता है। इसे कुछ लोग चिड़िया बैठाना कहते हैं, और कुछ लोग हस्ताक्षर।
बाबू की दुनिया की सबसे अहम चीज फाइल होती है। यह कहना बहुत मुश्किल है कि फाइल बाबू के लिए बनी है या बाबू फाइल के लिए। इतना ही कहा जा सकता है कि बिना फाइल बाबू की कल्पना नहीं की जा सकती। इन फाइलों के बारे में यह भी कहा गया है कि इन्हें बाबू लिखते हैं और बाबू ही पढ़ते हैं। हिन्दी लेखन में तो कई बार बाबू के मरने के बाद उसकी आत्मा इन्हीं फाइलों में भटकती हुई पायी गयी है। कई लेखकों ने रात के सन्नाटे में इन फाइलों के बीच से अजीब दर्दनाक कराहें सुनी हैं। इन्हें वे उन मृत बाबुओं की मानते हैं जिनकी जवानियाँ और समय से पहले आये बुढ़ापे इन फाइलों में दफन हैं। बाज वक्त तो ऐसा भी हुआ है कि जिन्दगी-भर पेंशन बनानेवाले बाबू की आत्मा अपनी पेंशन के चक्कर में उसी सेक्शन की फाइलों में भटकती हुई पायी गयी।
सार्वजनिक निर्माण विभाग के प्रान्तीय खंड के इस दफ्तर में भी सब कुछ दूसरे दफ्तरों की ही तरह था। बाबू भी दूसरे दफ्तरों की ही तरह थे। वे रोज देर से आते थे, आते ही चाय की दुकानों पर चले जाते थे, चाय पीकर पान खाते थे, दोनों के पैसे किसी ठेकेदार से दिलवाते थे, वापस दफ्तर आकर गप्प लड़ाते थे और फिर चाय की दुकान पर चले जाते थे। उनके जिम्मे दूसरे दफ्तरों की ही तरह यहाँ भी इतनी व्यस्तताएँ थीं कि वे हर समय व्यस्त रहते थे। दूसरे दफ्तरों की ही तरह यहाँ भी एक मूत्रालय था जिसके दरवाजे पर 'सिर्फ अधिकारियों के लिए' लिखा था। इसलिए यहाँ भी बाबू पेशाब जैसी क्रिया का सम्पादन करने के लिए इस सड़क पर स्थित बहुत सारे दफ्तरों की चारदीवारियों में से किसी एक का उपयोग कर लिया करते थे।
बाबुओं के बैठने के लिए हालनुमा दो कमरे थे। इनमें भाँति-भाँति की चीजें थीं। लकड़ी, लोहे और बेंत को मिलाकर बनी हुई एक वस्तु थी जिसे कुर्सी कहते हैं। अगर किसी स्कूली बच्चे को इसे दिखाकर इस पर निबन्ध लिखने को कहा जाय तो वह इसकी दो विशेषताएँ जरूर लिखेगा। पहली तो यह कि इसमें दो से लेकर चार तक टाँगें होती हैं। एक टाँग इसलिए नहीं होती क्योंकि एक टाँग पर यह अधिक देर खड़ी नहीं रह पाएगी। जिन कुर्सियों की सिर्फ एक टाँग बचती है उनके नीचे ईटें लगाकर दूसरी, तीसरी या चौथी टाँग की कमी पूरी कर ली जाती है। दूसरी खास बात यह है कि कुर्सी नामक इस पदार्थ पर बाबू लोग बैठते हैं। वे इन पर इसलिए बैठते हैं कि जब तक उनकी और इन दफ्तरों की खोज हुई, तब तक जमीन पर बैठने का चलन समाप्त हो चुका था। जब कभी बाबू लोगों का मन इन कुर्सियों की बची-खुची टाँगों को तोड़ने का करता है, वे मार-पीट में भी इनका इस्तेमाल कर लेते हैं। कई बार सरकार खुश होकर ज्यादा बजट दे देती है या अफसरों का मन कमीशन से विरक्त हो जाता है तो कुछ नयी कुर्सियाँ आ जाती हैं। पर उन्हें देखकर बाबुओं को घबराहट होने लगती है। उन्हें लगता है कि उनका वर्क कल्चर समाप्त करने का भयानक षड्यन्त्र किया जा रहा है, अतः वे नयी कुर्सियों के बेंत ब्लेड से काट देते हैं। अगर किसी सहकर्मी का सर फोड़ने का मन नहीं करता तो कमरे की फर्श तोड़ने के लिए इन कुर्सियों का इस्तेमाल कर लेते हैं। एक बार जब कुर्सी चार से तीन या दो टाँगवाली हो जाती है तो उस पर बैठने भी लगते हैं।
बाबुओं के कमरे में कुर्सी-परिवार की एक और चीज थी जिसे मेज कहते हैं। इसके बारे में भी कहा यही जाता है कि इसकी चार टाँगें होती हैं। पर इन दोनों कमरों में काफी मुश्किल से ऐसी कोई मेज तलाशी जा सकती है जिसकी चारों टाँगें धरती को छू रही हों। टाँगों में क्या रखा है, यह माननेवाले बाबुओं ने चपरासियों से मँगाकर ईंटों के सहारे इन मेजों को खड़ा कर रखा था। मेजों पर फाइल नामक वस्तुएँ गँजी थीं। वजन कम न हो जाय इसलिए फाइलों के अलावा धूल भी इन पर प्रचुर मात्रा में थी। मेजों के अलावा फाइलें फर्श पर भी थीं। यह कहना सही होगा कि ज्यादातर फाइलें फर्श पर ही थीं। फाइलों में दबे महत्त्वपूर्ण कागजों के बारे में दफ्तर के चपरासी इतने चिन्तित रहते थे कि वे फर्श की कभी सफाई नहीं करते थे। इसलिए फर्श पर भी फाइलों के अलावा काफी मात्रा में धूल थी।
कमरों में जहाँ-जहाँ जगह हो सकती थी वहाँ लकड़ी या लोहे के बड़े ढाँचे खड़े कर दिये गये थे। जब फर्श पर जगह नहीं बचती थी तो बाबू लोग इनमें भी फाइलें रख देते थे। वे इन्हें आलमारी कहते हैं। अगर कभी यह इमारत नष्ट हुई और पुरातत्त्वविदों को काल-निर्धारण का काम सौंपा गया तो निश्चित रूप से उन्हें यह तय करने में दिक्कत होगी कि इस जगह दफ्तर पहले बना था या वहाँ पहले आलमारी रखकर उसके चारों तरफ दफ्तर बना दिया गया था। इन आलमारियों को रखने के बाद हटाया नहीं गया था इसलिए अक्सर कोई पुरानी फाइल तलाशनी होती है तो बाबू लोग उनके नीचे तलाशते हैं।
बाबू, कुर्सी, मेज, आलमारी और फाइल नामक पाँच तत्त्वों से जो चीज बनती है उसी को दफ्तर कहते हैं। एक विद्वान ने कहा है कि एक बार स्थापित हो जाने के बाद दफ्तर अपने लिए काम खुद ही पैदा कर लेता है। काम करने के लिए कागज नामक माध्यम का इस्तेमाल होता है। जैसा कि पहले बताया गया है, इस पर बाबू कुछ लिखते हैं और बाबू ही, अगर हस्तलिपि पढ़ने लायक हो तो, पढ़ते हैं। इस कागज का थोड़ा हिस्सा सरकार देती है। सरकार के दिए कागज से दफ्तर का काम नहीं चल सकता इसलिए उसका बड़ा हिस्सा अफसरों और बाबुओं के घर चला जाता है और वहाँ उनके बच्चों के शैक्षणिक विकास में काम आता है। बिना कागज के दफ्तर का काम नहीं चल सकता और बिना काम किये सरकारी अमला रह नहीं सकता इसलिए वे जन सहयोग नामक उस कार्यक्रम का सहारा लेते हैं, जो भारतीय नौकरशाही के कलपुर्जों में तेल-पानी देने के लिए सबसे आवश्यक है। अलग-अलग महकमे अपने सम्पर्क में आनेवाली जनता से अलग-अलग तरीकों से सहयोग माँगते हैं। मसलन थाने पर रपट लिखाने जानेवाले को राष्ट्र के नाम पर एक ताव कागज, थोड़ी स्याही या पेन भेंट करने के लिए कहा जाता है। कई बार यह भेंट चोरी गये सामान की कीमत से ज्यादा होती है, इसलिए बहुत सारे लोग रपट लिखाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते। अक्सर कागज की बरबादी बचाने के लिए थानेवाले ही रपट नहीं लिखते। इस दफ्तर ने भी कागज की इस राष्ट्रीय कमी को पूरा करने के लिए तय कर रखा था कि जिसका काम हो वह अपना कागज खुद लाये। इसके अलावा अतिरिक्त कागज भी लाये जिससे कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा पर प्रतिकूल असर न पड़े।
कागजों को फाइलों में रखते हैं। फाइलों में इसलिए रखते हैं क्योंकि अभी तक कागजों को गायब करने की इससे बेहतर विधि ईजाद नहीं हुई है। बाबुओं की नयी पीढ़ी इस मामले में अधिक मौलिक है। इस पीढ़ी के बाबू कागजों को अपनी मेज, कुर्सी या आलमारी के नीचे भी रखते हैं। पहले इन फाइलों को लाल फीते से बाँधते थे। लाल फीते से फाइल बँधते ही मान लिया जाता था कि उसमें बन्द कागजों के आराम में अब अगली दो-तीन पीढ़ियों तक कोई खलल नहीं डालेगा। इसी से भाषा को एक नया शब्द मिला-लाल फीताशाही। हमारे देश के बाज मुख्यमन्त्रियों को यह शब्द पसन्द नहीं आया इसलिए उन्होंने लाल की जगह हरे, पीले, गुलाबी जैसे दूसरे रंगों के फीते इस्तेमाल करने के हुक्म दे दिये। इस तरह लाल फीताशाही खत्म हो गयी और कागज दूसरे रंगों के फीतों के नीचे दफन होने लगे।
दफ्तरों की कार्यकुशलता का आकलन कागजों के निस्तारण से लगाया जाता है। इस दफ्तर का बाबू भी दूसरे दफ्तरों के बाबू की तरह कागजों के निस्तारण में खासी दिलचस्पी रखता था। हर कागज को बाबू पहले सूँघता था, फिर तौलकर देखता था और फिर उसके भविष्य का निर्धारण करता था। बाबू के हाथ में आते ही कागज के रोम-रोम से कुछ ऐसी ध्वनियाँ निकलने लगती थीं जिन्हें सिर्फ वही पकड़ पाता था। कुछ-कुछ कविता की उस पंक्ति जैसा मामला था जिसमें खग को ही खग की भाषा जाननेवाला बताया गया है। ऊपर की एक-दो पंक्तियाँ पढ़ते ही बाबू समझ जाता था कि उसे क्या करना है इसके बाद कागजों का निस्तारण शुरू होता है। 'अति आवश्यक', 'तुरन्त' या 'गोपनीय' जैसे भारी-भरकम विशेषणों से दबे कागज बाबू की कुर्सी, मेज या आलमारियों के नीचे पहुँच जाते हैं। कुछ अधिक भाग्यशाली होते तो किसी फाइल के अन्दर समा जाते हैं। कुछ नयी उम्र के बाबू अभी तक कागज से नाव या हवाई जहाज बनाने के खेलों के शौक से मुक्त नहीं हुए थे, इसलिए कुछ कागज बीच-बीच में हवा में उड़ते नजर आते हैं। दिन-भर बाबुओं को चाय-पकौड़ों से जूझना पड़ता है, इससे भी कागजों के निस्तारण में सुविधा होती है। चायवाले का छोकरा बाबुओं को समोसा या पकौड़ी देने के लिए उनके सामने का कागज खींचकर उस पर तेल टपकता खाद्य पदार्थ रख देता है। इस तरह दिन में जितनी बार वह आता है, उतने कागजों का निस्तारण होता चलता है।
शाम होते-होते बाबू सन्तुष्ट हो जाता है कि भारतीय नौकरशाही के आदर्श पुर्जे के रूप में उसने दिन-भर कठिन परिश्रम किया है और उसे मिले कागजों में अधिकांश का निस्तारण हो गया है। अब वह बचे-खुचे उन कागजों पर ध्यान केन्द्रित करता है जिन पर कुछ वजन रखा हुआ दिखाई देता है। वजन शब्द का इस्तेमाल भी बाबुओं के साहित्य प्रेम का ही परिचायक अधिक था। अक्सर वह सामने खड़े फरियादी से कागज लेकर उसका कुछ इस तरह मुआयना करता जैसे उसमें लिखी हुई भाषा ग्रीक या लैटिन हो। फिर वह कागज को एक तरफ रख देता और दूसरी किसी फाइल में सर गड़ाकर पूरे दृश्य से अनुपस्थित हो जाता। फरियादी अगर उसकी एकाग्रता में खलल डालने की कोशिश करता तो वह अपार कष्ट का भाव चेहरे पर लाकर उसे बताता कि देश के सामने बहुत से संकट हैं और अभी जिस फाइल के गहन अध्ययन में वह डूबा हुआ था, अगर उसका निस्तारण उसने फौरन नहीं किया तो संकट के बादल और घने हो जाएँगे। फरियादी थोड़ी देर में वह प्रश्न पूछता जिसका उत्तर देना नौकरशाही के किसी भी पुर्जे के लिए सबसे कठिन होता। फरियादी अपने कागज के भविष्य के बारे में जिज्ञासा प्रकट करते हुए जानना चाहता कि उसका निस्तारण कब तक सम्भव होगा। इस पर बाबू रहस्यलोक में डूबे किसी दार्शनिक की तरह जवाब देता कि निस्तारण आज भी हो सकता है, अगले साल भी हो सकता है या फिर मामला आनेवाली पीढ़ियों पर भी टाला जा सकता है। फरियादी अगर दफ्तरों में नियमित आता-जाता है तो उसे निहितार्थ समझने में देर नहीं लगती, पर अगर कोई नया आदमी हो तो उसे जरूर दिक्कत होती है। उसके ज्ञान-चक्षु तभी खुलते हैं जब कोई चपरासी या दूसरा बाबू उसे इशारे से अलग बुलाकर किसी अदृश्य आँधी का हवाला देता है जो उसके कागज को उड़ाये लिये जा रही है। अगर कागज मजबूती से अपने स्थान पर स्थिर नहीं रहेगा तो उसका निस्तारण कैसे होगा ? फिर फरियादी को सलाह दी जाती है कि वह अपने कागज पर कुछ वजन रखे। फरियादी फौरन समझ जाता है और रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के गवर्नर के हस्ताक्षरयुक्त कागज के कुछ वजनी टुकड़े पहलेवाले कागज के ऊपर या नीचे रखे जाते हैं।
लाला बाबू को नयी पीढ़ी के बाबुओं से जो असंख्य शिकायतें हैं उनमें एक यह भी है कि पहले के बाबू बड़ी शाइस्तगी से वजन रखवाते थे। अक्सर यह क्रिया बाहर किसी चाय की दुकान या बाबू के घर पर सम्पादित होती थी। अगर दफ्तर में करना भी पड़े तो मेज के नीचे हाथ डालकर कर लेते थे। सम्बन्धित बाबू झेंपकर चारों तरफ देखता था कि कोई देख तो नहीं रहा। बाकी बाबू ऐसे मौके पर फाइलों में अपना सर गड़ा लेते जिससे उनके सहयोगी को असुविधा न हो। पर नये जमाने के बाबुओं ने तो सारी लाज-हया घोलकर पी ली थी। वे खुलेआम लेन-देन करते हैं। अपने मुँह से खुद ही बता देते कि कागज बड़ा हल्का है और इस पर वजन रखना पड़ेगा। कितना वजन रखना पड़ेगा, वह भी बता देते हैं और अक्सर ऊँची आवाज में वजन का मोल-तोल भी करते हैं।
शाम तक सारे वजनी कागजों को इकट्ठा करके बाबू उन्हें सुन्दर-सुन्दर फाइलों में सजा लेता है। फिर अपना पूरा भाषा-ज्ञान उड़ेलते हुए उस पर नोटिंग-ड्राफ्टिंग करता है। यह नोटिंग-ड्राफ्टिंग नौकरशाही का सबसे ललित पक्ष है। इसके बारे में यह प्रचलन है कि इसे सबसे निचले ओहदेवाला बाबू तैयार करता है और ऊपरी सीढ़ियों पर बैठे तमाम ओहदेदार अपने-अपने तरीके से इसके लालित्य में वृद्धि करते चलते हैं। जिन फाइलों में अफसर की दिलचस्पी होती है, उनके बारे में बाबू को बता दिया जाता है और वह उसी प्रकार नोटिंग करके ले आता है। जिनके बारे में उसे ऊपर से कोई इशारा नहीं मिलता, उनमें वह वजन के अनुसार नोटिंग करता है। नौकरशाही में भ्रातृत्व भावना कुछ इतनी प्रबल है कि नीचे से भेजा गया प्रस्ताव ऊपर तक चलता चला जाता है और स्वीकृत होकर लौट आता है। 'बाबू लिखते हैं और बाबू पढ़ते हैं', वाली कहावत के अनुसार अफसर सिर्फ चिड़िया बैठाते हैं।
हर अफसर नौकरी शुरू करते ही जान जाता है कि उसे और कुछ करना हो, न हो, पर दस्तखत बहुत करने होंगे। इसलिए वह अपने हस्ताक्षरों का एक लघु संस्करण ईजाद करता है, जिसे चिड़िया कहते हैं। फाइलों में बैठनेवाली चिड़िया पर अभी तक पक्षीविदों का ध्यान नहीं गया है इसलिए उनके आकार-प्रकार अथवा प्रजाति के बारे में कोई गम्भीर काम नहीं हुआ है। भविष्य में अगर कभी किसी शोधकर्ता ने काम किया तो वह पाएगा कि इन परिन्दों की भी बहुत सारी किस्में हैं। सुबह दफ्तर खुलने पर बैठाई गयी चिड़िया शाम को दफ्तर बन्द होते समय बैठाई गयी चिड़िया से भिन्न होती है। अच्छे मूड की चिड़िया का आकार बुरे मूड की चिड़िया से छोटा होता है। कमीशन की खूशबू बिखेरनेवाली फाइल पर बैठी चिड़िया चहकती नजर आती है और सूखे कागजों पर बैठी हुई मरियल। हमारे देश में, जिस तरह के विषयों पर शोध हो रहा है, उसे देखते हुए इस बात की पूरी सम्भावना है कि विश्वविद्यालयों में किसी दिन इस महत्त्वपूर्ण विषय पर भी काम होगा।
हॉलनुमा एक कमरे में बड़े बाबू उर्फ लाला बाबू का साम्राज्य था। वे हाल के बीच में एक बड़ी मेज के पीछे बैठते थे। बरसों से, जब वे बड़े बाबू नहीं भी बने थे, यह मेज यहीं रखी है। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि मेज का कोण इस तरह कर दिया कि उसके पीछे बैठकर उन्हें बाहर खड़ी अपनी साइकिल दिखाई देती रहे। चूँकि यह बड़े बाबू की मेज थी इसलिए इसकी चारों टाँगें सलामत थीं और इस पर एक कपड़ा बिछा हुआ था जिसके लिए बड़े बाबू और फर्राश आपस में बातें करते समय मेजपोश शब्द का इस्तेमाल करते थे। इस कपड़े के रंग के बारे में बाबुओं में एकमत नहीं था। बताया जाता है कि लाला बाबू जब नये-नये बाबू बनकर इस कमरे में बैठने आये थे तब के हेड क्लर्क लक्ष्मी बाबू ने उनसे एक नोटशीट तैयार कराकर टेबुलक्लाथ खरीदने की स्वीकृति ली थी। उस समय जो कपड़ा खरीदकर आया था, उसका रंग हरा था। पिछले बीस सालों में उस पर इतनी स्याही और धूल जमा हुई थी कि हरा रंग पूरे कपड़े में कहीं-कहीं कुछ धब्बों के रूप में ही मौजूद था। कपड़ा इतनी जगह से नुचा-चुथा था कि उसकी लम्बाई-चौड़ाई के बारे में भी बाबुओं में मतभेद रहता था।
इस मेज के पीछे बैठकर लाला बाबू अपना चश्मा नाक पर नीचे करके अपना साम्राज्य निहारते थे।
आज भी वे बीच-बीच में चश्मे को नीचा करके सामने बैठे बारह बाबुओं, उनकी मेजों को घेरकर खड़े ठेकेदारों और दलालों को देख रहे थे। आज कुछ स्थिति भिन्न थी। आज वह देखना सिर्फ आदतवश नहीं था। आज का देखना कुछ-कुछ उस घबराये आदमी की प्रतिक्रिया जैसा था जो पूरी तरह तटस्थ होने का नाटक करता हुआ सामनेवालों के चेहरों से यह भाँपने की कोशिश करता है कि कहीं उसका मजाक तो नहीं उड़ाया जा रहा है।
कल दफ्तर में सत्ता परिवर्तन हुआ था। सभी को मालूम था कि बड़े बाबू के पुराने बड़े साहब कमलाकान्त वर्मा से कैसे सम्बन्ध थे। यह भी सबको मालूम था कि नये बड़े साहब बटुकचन्द से उनकी नहीं पटती। बटुकचन्द ने आने के बाद बड़े बाबू को तलब करके क्या-क्या कहा, इसकी भी जानकारी मिर्च-मसाला लगाकर चारों तरफ पहुँचाई जा चुकी थी।
जिस तरह परीकथाओं के दैत्य की जान तोते में बसती थी, उसी तरह दफ्तरों की जान बड़े साहब नामक प्राणी में बसती है। यद्यपि दफ्तरों में सब कुछ काफी हद तक रूटीन हो चुका है और बड़े साहबों के आने-जाने से कुछ बुनियादी फर्क नहीं पड़ता फिर भी किसी पुराने बड़े साहब के तबादले या नये-नये बड़े साहब के आने पर छोटा-मोटा जलजला तो आ ही जाता है। अधिशासी अभियन्ता कमलाकान्त वर्मा के जाने और बटुकचन्द उपाध्याय के आने पर यही हुआ। लंच के पहले का पूरा वक्त दफ्तर की दीवारों, चपरासियों, बाबुओं और मातहतों ने मुहावरे की भाषा में नहीं, बल्कि सचमुच दम साधे किसी अनहोनी की आशंका में बिताया।
बड़े साहब की बदली को सिर्फ एक दिन हुआ था। बटुकचन्द को दफ्तर के लोग पहले से जानते थे लेकिन उन्होंने कोई जोखिम लेना मुनासिब नहीं समझा। आज दस बजे तक सारे बाबू दफ्तर में आ गये थे। आने पर उन्हें कमरे खुले भी मिले। आकर वे फौरन चाय की दुकानों पर नहीं गये, बल्कि उन्होंने अपने सामने रखी फाइलों में कुछ लिखा भी। बटुकचन्द भी सवा दस बजे आ गये। उन्होंने भी कुछ फाइलों पर दस्तखत किये। घंटे-डेढ़ घंटे दफ्तर में जो कुछ हुआ उसे देखकर कुछ पुराने दलाल यह सोचकर कि वे किसी दूसरे दफ्तर में चले आये हैं, बाहर भाग गये। बाहर से बोर्ड पर एक बार फिर दफ्तर का नाम पढ़कर वे वापस अन्दर आये। पर यहाँ यह सब बहुत देर तक नहीं चल सकता था। लंच तक दफ्तर में जीवन वापस अपनी लीक पर लौट आया। तब तक सत्ता-हस्तान्तरण का एक दौर समाप्त हो गया था। घटनाएँ कुछ इस तरह घटीं कि उन्हें देखकर किसी को भी उन छोटे-मोटे राष्ट्रों का स्मरण हो सकता था जहाँ अभी भी मध्ययुग ठहरा हुआ था और जहाँ सत्ता-हस्तान्तरण के लिए इसी तरह के तरीके लोकप्रिय थे। एक राष्ट्राध्यक्ष राज्य छोड़कर भाग गया था। सिंहासन पर दूसरा व्यक्ति आसीन होकर सत्ता के दलालों से उनकी निष्ठा के प्रमाण-पत्र बटोर रहा था।
रोज की तरह आज भी आधे घंटे का लंच ब्रेक तीन घंटे तक चला। एक बजे से लेकर चार बजे तक आज भी अफसर और बाबू लंच लेते रहे। फर्क इतना आया कि रोज इस दौरान सारे कमरे खाली हो जाते थे। आज अफसर किसी-न-किसी बहाने बड़े साहब के कमरे में इकट्ठे हो गये और बाबू भी आते-जाते रहे। बटुकचन्द पहले भी इस दफ्तर में रह चुके थे इसलिए लोगों को पता था कि उन्हें कचौड़ियाँ और मगही पान एक सौ बत्तीस नम्बर के तम्बाखू के साथ पसन्द थे। इसलिए पूरे तीन घंटे उनके कमरे में यही सब पहुँचते रहे। स्थिति कुछ-कुछ ऐसी थी कि अगर पूरे सन्दर्भ को काटकर उनका कोई फोटो खींचा जाता तो यही लगता कि कोई कचौड़ी का दुकानदार किसी दफ्तर की मेज उड़ा लाया है और उस पर कचौड़ी के साथ-साथ पान भी रखकर बेच रहा है।
दरअसल पान और कचौड़ी के साथ-साथ अपनी निष्ठा भी पेश की जा रही थी। जैसे ही कोई नया मुसाहिब अन्दर पहुँचता, उसकी सुविधा के लिए बटुकचन्द अपना कोई एक पैर आगे-पीछे करने लगते। उसके करीब आते-आते पैर ऐसी स्थिति में पहुँच जाता कि आगन्तुक को हवा में एक खास कोण पर अपना हाथ लहराना पड़ता और पान ठूँसे मुँह से विशेष प्रकार की गों...गों...की ध्वनि यह स्पष्ट कर देती कि खिलवत कबूल कर ली गयी है। इस प्रक्रिया में बाधा सिर्फ दो दशाओं में पड़ती। पहली तो तब जब कोई धृष्ट मनसबदार पैरों को हिलाने-डुलाने जैसे सहज सुबोध इशारे को समझने से इनकार कर देता और दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार जैसी औपचारिकता से मामला निबटाने की कोशिश करता। ऐसी स्थिति में नौकरशाही में आने के बाद भी पाठ्य-पुस्तकों में पढ़े साहित्य से सम्बन्ध विच्छेद न करनेवाले सुधीजन कवि भूषण की उन पंक्तियों का स्मरण करने लगते जिनमें औरंगजेब द्वारा पर्याप्त सम्मान न दिये जाने पर शिवाजी की प्रतिक्रिया का बखान था। वक्त बदल गया था और बटुकचन्द तुरत-फुरत हिसाब करने से अधिक भविष्य में निबट लेने में अधिक विश्वास करते थे इसलिए धृष्टता करनेवाले के अभिवादन का पूरी स्निग्ध मुस्कान से उत्तर देते। सिर्फ उन्हें करीब से जाननेवाले ही उस कौंध को महसूस कर पाते जो सेकेण्ड के पता नहीं कितने हजारवें क्षण के लिए उनकी आँखों में चमकती और गायब हो जाती। मुँह से निकलनेवाली ध्वनियों में भी इतना बारीक अन्तर होता कि सिर्फ समझनेवाले ही समझ पाते कि वे ऊपर फैली हुई लापरवाही के नीचे यह पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि नमस्कार नामक औपचारिकता सायास की गयी है या आगन्तुक अपनी मूर्खता से सही सिग्नल नहीं पकड़ पा रहा।
दूसरी स्थिति आसपाठ बैठे लोगों के लिए असुविधाजनक होती, पर बटुकचन्द आनन्दित होते थे, इसलिए नौकरशाही के सुनहरे नियम के अनुसार सभी लोग आनन्दित होते।
इस स्थिति में अपनी हैसियत के अनुसार मुँह में बटुकचन्द से भी अधिक पान ठूँसे हुए कोई मुसाहिब दरवाजे से प्रवेश करते ही बटुकचन्द के चरणों की तरफ लपकता। विघ्न-बाधाओं से न घबरानेवाले वीर की तरह वह मार्ग में पड़नेवाली कुर्सियों और उन पर बैठे नरपुंगवों को हिलाता-झकझोरता उस बड़ी बाधा के समक्ष पहुँच जाता जिसे मेज कहते हैं और जिसके पीछे छिपे दो चरण कमल अपनी स्थितियाँ बदल-बदलकर उसे उसी तरह अपनी तरफ आकर्षित कर रहे होते हैं जिस तरह अपने शरीर-सौष्ठव का प्रदर्शन कर हिन्दी फिल्मों की नायिका अपने नायक को आकर्षित करती है। नायक की तरह वह भी नायिका को प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकता है।
मेज के सामने खड़े होकर वह कई सम्भावनाओं पर विचार करता है। एक विकल्प के अनुसार उसे मेज पर चढ़कर दूसरी ओर कूद जाना चाहिए और चरणरज लेते हुए वापस इसी क्रिया को सम्पादित करते हुए अपने स्थान पर आ जाना चाहिए। दूसरी स्थिति यूँ हो सकती है कि वह जिम्नास्टिक नाम से जानी जानेवाली उस विधा का सहारा ले जिसके दर्शन अधिकांश भारतीयों को टेलीविजन पर होते रहते हैं और जिसमें दूसरे तमाम खेलों को तरह हर ओलम्पिक के पहले पदक जीतने के मन्सूबे बाँधे जाते हैं और हर ओलम्पिक के बाद इन मन्सूबों को बस्ता-खामोशी में बाँधकर रख दिया जाता है ताकि अगले ओलम्पिक में फिर खोलने पर ये उसी तरह चमचमाते हुए निकलें। यहाँ पर इस रास्ते को आजमाने वाले को भारतीय और पाश्चात्य शैली के कई व्यायाम एक साथ करने पड़ते हैं। वह पहले मेज के सामने खड़े होकर सामने की ओर झुकता है और हाथ इधर-उधर फेंककर पाँव छूने का प्रयास करता है। पाँव चूँकि मेज के नीचे हैं और वह बटुकचन्द का पान ठुँसे मुँह से गों...गों जैसी ध्वनियों को, बस हो गया...बस हो गया जैसा कुछ मानने से इनकार कर देता है, इसलिए अब वह मेज पर साष्टांग दण्डवत करने लगता है। हवाई जहाज की शक्ल में लेटा हुआ उसका शरीर धीरे-धीरे गोताखोरी की मुद्रा में आ जाता है। इसमें पिछले दोनों पैर ऊपर उठ जाते हैं और दोनों हाथ और सर नीचे को झुक जाते हैं। इस पूरी उठा-पठक का नतीजा यह होता है कि उसे वे चरण मिल ही जाते हैं जो कई दिनों तक न बदले जानेवाले गन्दे नायलॉन के मोजों से आवृत्त, जूतों के बाहर आकर दुर्गन्ध के भभूके छोड़ रहे होते हैं और जिन्हें छूकर किसी भी चमचे को अपने आनेवाले वर्षों के उपलब्धिमय होने का विश्वास हो सकता है।
पैर छूने का एक तरीका और भी है। बटुकचन्द के मेज के दाहिने-बाएँ कुर्सियों पर बैठे चमचों ने मेज और दीवाल के बीच दोनों तरफ का चप्पा-चप्पा घेर रखा है। पर ध्येय का पक्का और चरणस्पर्श का आकांक्षी इन सबको ढकेलता हुआ, पैरों को कुचलता हुआ और कमीशन ही जिनके जीवन का एकमात्र ध्येय है, ऐसे अफसरों की खरीदी कुर्सियों की मजबूती की परीक्षा लेता हुआ कहीं-न-कहीं से रास्ता निकाल लेता है और बटुकचन्द के स्पर्शातुर चरणों तक पहुँच ही जाता है।
आज भी आनेवाले अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार इन विकल्पों में से किसी एक का सहारा लेते जा रहे थे। वे आते और मेज पर लगे हुए कचौड़ियों और पान के ढेर के बीच एक-दो लिफाफे और रख देते, फिर चरणस्पर्श की क्रिया सम्पादित करते और तत्पश्चात् अपनी मनसबदारी हैसियत के अनुसार कोई कुर्सी ग्रहण कर लेते। कुर्सियाँ भरी हुई थीं इसलिए कई बार उन्हें एक तरफ खड़ा होना पड़ता। ऐसे में वे बात करते-करते कनखियों से पूरे कमरे का मुआयना करते रहते और जैसे ही कोई कुर्सी खाली होती उस पर झपट पड़ते। किसी बड़े मनसबदार के आने पर छोटे मनसबदार अपनी कुर्सी खाली कर देते। बड़ा मनसबदार हाथ और मुँह के इशारे से 'रहने दो रहने दो' कहता हुआ उस पर बैठ जाता।
हम भी दरबार के हैं, यह साबित करने के लिए कुछ लोगों ने अपनी सामर्थ्य से अधिक पान मुँह में ठूँस लिये थे। कमरे में घुसने के बाद स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने के लिए वे मेज पर पड़े पान में से दो-एक बीड़ा पान और मुँह में डाल लेते। पान के छींटों की छटा से अगल-बगलवालों को सराबोर करते हुए भाषा और सम्प्रेषणीयता का ऐसा अद्भुत रिश्ता पेश करते जिसे देख-सुनकर बड़े से बड़ा ताकतवर लेखक भी वाह वाह करने लगेगा। उनकी भाषा मूर्त और अमूर्त के बीच झूलती हुई बिना वाक्य पूरा किये ध्वनियों के आधार पर बहुत कुछ कह डालती। मसलन कोई एक मुसाहिब अपनी ठुड्डी पर बह रही पीक को पोंछता हुआ मुँह पैंतालीस डिग्री के कोण में थोड़ा ऊपर उठाता हुआ कहता...
''सा...गों...गों...अब आप...गों...गों...गों...अब...गों...ठीक हो...गों...।''
बटुकचन्द या कमरे में बैठे लोगों को समझने में दिक्कत नहीं होती कि इस गों...गों...वाक्य के पीछे बोलनेवाले की इस दफ्तर की वर्तमान दुर्दशा के लिए चिन्ता झलक रही है और साथ ही वह आश्वस्त है कि अब इस दफ्तर का स्वर्णयुग आनेवाला है। इसलिए पूरा वाक्य वे समझ जाते कि ''साहब अब आप आ गये हैं, अब सब ठीक हो जाएगा।''
इसके जबाब में बटुकचन्द भी अपना मुँह थोड़ा ऊपर उठाते जिससे पीक की फुहार सीधे सामनेवाले के मुँह पर न पड़े बल्कि थोड़ा वायुमंडल का चक्कर लगाते हुए ज्यादा बड़े श्रोता समुदाय को भिगो सके, फिर गों...गों...मिश्रित भाषा उनके मुँह से फूटती...''हाँ गों...गों...आ गया...गों...अब...गों...गों...हो...गों...।''
इसका भाष्य करने में भी सुधीजनों को कोई दिक्कत नहीं होती। वे वाक्य पूरा कर लेते, ''हाँ, अब मैं आ गया हूँ। अब सब ठीक हो जाएगा।''
लंच तक जो सन्नाटा बाबुओं के कमरे में छाया था वह लंच शुरू होते-होते टूट गया। एक बार फिर बाबुओं ने काम करना शुरू कर दिया। आज फर्क सिर्फ इतना हुआ कि कोई बाबू इस तीन घंटे के लंच के दौरान दफ्तर से दूर नहीं गया। चाय की दुकानों पर भी वे अधिक देर नहीं ठहरे। उनके लिए चाय-समोसा यहीं आता रहा। दलाल आते रहे, फर्श पर पान की पीक थूकी जाती रही, तुरन्त या अत्यन्त आवश्यक की मोहर लगे कागज बत्ती बनकर नाक या कान खुजलाते रहे और बाबू लोग एक दूसरे की माँ-बहन करते रहे-गरज यह कि शुरुआती सदमे से उबरकर दफ्तर में फिर से सारे जरूरी काम होने लगे।
कोई जोर से हँसता तो बड़े बाबू कनखी से देखते। कोई खाँसता-खँखारता तो बड़े बाबू का चश्मा नाक पर सरक जाता।
संकट के ऐसे क्षणों में बड़े बाबू को अपना पुराना वक्त बड़ी शिद्दत से याद आता। पहले के बाबू कितना सम्मान देते थे अपने से ऊँचे ओहदेदारों को। इसी सीट पर लक्ष्मी बाबू बैठते थे, मजाल थी कि कोई बाबू उनका मौजूदगी में ऊँचे स्वर में बोल दे। हँसने की तो बात ही दीगर है। आज संकट की इस घड़ी में उनका रोम-रोम यही प्रार्थना कर रहा था कि सामने बैठे बाबू फिर से पुराने बाबू बन जाएँ और अनुशासन नामक शब्द का महत्त्व उनके मन में कुछ इस तरह बैठ जाय कि वे सत्ता-परिवर्तन से घायल बड़े बाबू की तरफ देखकर आँख मटकाना या हवा में फिकरे उछालना बन्द कर दें।
प्रातःकालीन प्रार्थना सभाओं की बहुत सारी कामनाओं की तरह बड़े बाबू की यह इच्छा भी बीच-बीच में कटूक्तियों की चट्टान से टकराकर टूटी जा रही थी। बड़े बाबू के फाइल में सर गड़ाये किसी काल्पनिक गम्भीर समस्या का हल ढूँढ़ने की कोशिश करते ही कि भाषा के लालित्य का एक नमूना उनके कानों से टकराता, ''खूब पादता था साला हवा में...अब हुई बत्ती बन्द।''
बड़े बाबू समस्या में और गहरे डूब जाते, पर उनके न सुनने का बहाना अधिक देर नहीं चलता। बाबू लोग फिस्स से ऐसे हँसते कि और कहीं पहुँचे न पहुँचे, हँसी बड़े बाबू तक जरूर पहुँच जाय। बड़े बाबू चश्मा नाक पर सरकाकर चारों तरफ देखते। तब तक हँसनेवाले बाबुओं की फाइलों में गम्भीर समस्याएँ प्रकट हो जातीं। वे फाइलों में आँख गड़ा लेते। आँख के इस लिहाज को बड़ा बाबू अच्छा मानते हैं, पर मुश्किल यह है कि बाबू लोग फाइलों में मुँह जरूर गड़ा लेते हैं, पर उनके होंठों पर खास तरह की मुस्कान तैरती रहती है।
बाबुओं में हर दफ्तर में दो पक्ष रहते हैं। यहाँ भी थे। सन्तुष्ट पक्ष में वे बाबू थे जिन्हें कैम्प क्लर्क या प्री-आडिट क्लर्क बनने का मौका मिला था। इन्हीं जगहों पर वह सब कुछ हासिल होता था जिसे बाबुओं की भाषा में तर माल कहा जाता है। असिस्टेंट इंजीनियरों से सम्बद्ध कैम्प क्लर्कों को हर भुगतान में एक प्रतिशत तथा डिवीजनल एकाउंटेंट से जुड़े प्री-आडिट क्लर्क को आधा प्रतिशत मिलता है। बाकी पूरे दफ्तर में एक प्रतिशत बँटता था इसलिए स्वाभाविक था कि बाबू लोग कैम्प क्लर्क या प्री-आडिट क्लर्क बनने के लिए मार-धाड़ करते रहते थे। दूसरा पक्ष असन्तुष्टों का था जिनमें वे बाबू शरीक थे जिन्हें सूखी जगहों पर रखा गया था।
बड़े बाबू को अफसोस यह हो रहा था कि फब्तियाँ कसनेवालों में सन्तुष्ट पक्ष के लोग भी थे, बल्कि वही बढ़-चढ़कर थे। अपने को निवर्तमान सत्ता पक्ष से दूर दिखाने का यह सबसे आसान तरीका था जिसे शायद बाबुओं ने देश के राजनीतिज्ञों से सीखा था।
बीच-बीच में लाला बाबू को बड़े साहब के कमरे में तलब किया जाता रहा। आज तो उन्हें ऋषभचरण शुक्ला भी अपने कमरे में बुला लेता था। बड़े बाबू निर्विकार भाव से जाते और हुक्म नोट करके वापस आ जाते। आकर वे किसी बाबू को हुक्म पास कर देते और फिर फाइल में सर गड़ा लेते। उन्हें पता था कि ऋषभ उन्हें सिर्फ अपमानित करने के लिए और दफ्तर में अपनी हैसियत जताने के लिए बुला रहा था, पर अफसर तो अफसर है। वे हर बार भागते हुए जाते और डाँट खाकर अपने चेहरे से अपमान के छींटे झाड़ते चले आते। अफसर की उन्होंने हमेशा इज्जत की है और ऋषभचरण तो बदले सत्ता-सन्तुलन में ऊँची चीज हो गया था।
हर बार बड़े बाबू जब उठकर जाते या वापस लौटते उन्हें लगता कि बाबुओं को खँखारने की बीमारी आज कुछ ज्यादा ही सता रही है। कई बार किसी बाबू को देखकर उन्हें भ्रम हो जाता कि वे किसी टूथपेस्ट के विज्ञापनवाला कैलेंडर देख रहे हैं।
बाबू रोज की तरह चीख-चीखकर बात कर रहे थे, फोह्श मजाक कर रहे थे, दलालों से झगड़ रहे थे और ठहाकों के साथ इस बात को साबित करने में लगे थे कि और कुछ हो न हो, अपना देश फेफड़ों की ताकत के मामले में किसी तरह कम नहीं था। बड़े बाबू की समस्या यह थी कि उन्हें हर ठहाका और लतीफा अपने को लक्ष्य करके किया गया प्रतीत हो रहा था। चारों तरफ से चीख-चीखकर आनेवाली आवाजें उनके कान तक पहुँचते-पहुँचते अपनी ध्वनि बदल देतीं और बड़े बाबू के कान में प्रवेश करतीं तो कुछ इस तरह का भाव सम्प्रेषण करतीं-
''साला...कैसा बगुला भगत बना बैठा है। अब पता चलेगा।''
''चोट्टे ने मुझे कैम्प क्लर्क लगवाया तो कैसा अहसान जताता था। सबसे बताता फिरता था, पर यह नहीं बताता था कि रोज शाम को जो सब्जी का झोला मुझे थमा देता है, उसके साथ पैसा कभी नहीं देता। अब पता चलेगा।''
''खूब कमलाकान्त वर्मा का गू उठाता था। अब पता चलेगा।''
''अब पता चलेगा,'' कुछ-कुछ इस तरह हर वाक्य के साथ चस्पाँ हो गया था कि लोग बोलें चाहे कुछ, लाला बाबू को शास्त्रीय संगीत की तरह उसकी टेक हमेशा 'अब पता चलेगा' पर टूटती सुनाई देती। घपला तब हुआ जब कैशियर बाबू ने अपनी सीट पर बैठे-बैठे पूछा, ''लाला बाबू महाशिवरात्रि गजटेड हालीडे है या रिस्ट्रिक्टेड?"
लाला बाबू के कान तक जो वाक्य पहुँचा उसकी टेक टूटी 'अब पता चलेगा' पर।
अपने स्वभाव के विरुद्ध लाला बाबू झुँझलाए और अपने स्वभाव के विरुद्ध उन्होंने तल्ख स्वर में कहा, ''क्या पता चलेगा... किसी बनिये की नौकरी करते हैं क्या?"
कैशियर बाबू ने अचकचाकर उनकी तरफ देखा। लाला बाबू को भी लगा कि उनकी आवाज अनावश्यक रूप से तेज हो गयी थी। वे थोड़ा सकुचाये और उन्होंने कैशियर बाबू को फिर से सवाल दोहराने को कहने की कोशिश की, पर उसकी जरूरत नहीं पड़ी। दो आवाजें एक साथ गूँजी।
''भइया अभी तो पहला दिन है। सिर्फ ऊँचा सुनाई देने लगा है-आगे-आगे देखिए होता है क्या?"
''महाशिवरात्रि लोकल हालीडे है कैशियर बाबू।''
लाला बाबू के सामने फैली फाइल के खुले हुए पन्ने में छिपी समस्या और भी जटिल हो गयी। वे तेरहवीं बार उसे पढ़ने की कोशिश करने लगे। इस बार भी उसके सारे अक्षर धुँधले लग रहे थे।
बड़े साहब के चपरासी ने दफ्तर के कमरों में घूम-घूमकर इत्तला देनी शुरू कर दी कि शाम को साढ़े चार बजे बड़े साहब अपने कमरे में मीटिंग करेंगे। सारे अधिकारी और कर्मचारी उसमें शरीक होंगे।
बाबुओं ने भुनभुनाना शुरू कर दिया। यह कौन सा वक्त है मीटिंग करने का-सुबह दस बजे से चाय-समोसा खाते-खाते, अपने फेफड़ों की ताकत का प्रदर्शन करते-करते और कागजों को जहाज या नाव बनाते-बनाते बाबू इस समय तक बुरी तरह थक जाते थे। सरकारी नियम के अनुसार दफ्तर पाँच बजे तक खुलता था। पर हर सरकारी नियम की तरह यह नियम भी उल्लंघन के लिए बना था। इसलिए चार बजे के बाद बाबुओं के जाने का सिलसिला शुरू हो जाता था। अपनी बीवियों से ऊबे और सुबह झगड़ा करके निकले बाबुओं को अचानक घर किसी सुनहरे सपने की तरह पुकारने लगता।
हर नया बड़ा साहब आने के बाद मीटिंग करता है। मीटिंग दफ्तर के बाबुओं और अफसरों को यह बताने के लिए होती है कि उन्होंने बहुत हरामखोरी कर ली, अब चूँकि नये साहब का पदार्पण हो गया है, इसलिए उन्हें काम भी करना पड़ेगा। बोलनेवाला दफ्तर में समय की पाबन्दी, ईमानदारी, फाइलों के तेज निस्तारण और दफ्तर में आनेवाली जनता के साथ सद्व्यवहार पर जोर देता है। वक्ता और श्रोताओं में इस पहली मीटिंग के दौरान वन डे क्रिकेट मैच चलता रहता है। वक्ता बाउंसर, गुगली और यार्कर की झड़ी लगा देता है। श्रोता जानते हैं कि सरकारी नौकरी में विकेट तो गिरता नहीं इसलिए वे विकेट की चिन्ता छोड़कर गेंदबाजी के जबर्दस्त प्रहारों से अपना शरीर बचाने का प्रयास करते हैं। दरअसल जो भारी-भरकम अपेक्षाएँ वक्ता उनसे करता है, उनसे कुछ बनना-बिगड़ना तो है नहीं, केवल कुछ देर के लिए वे श्रोताओं को दुःखी कर देती हैं। पुराने घाघ श्रोताओं का मन भी थोड़ी देर के लिए विचलित हो जाता है कि वे अभी तक समय से दफ्तर नहीं आकर, रिश्वत लेकर या जनता को दुत्कारते हुए, जरूरी सरकारी कागजों पर रखकर समोसा-पकौड़ी खाकर कितना जघन्य काम कर रहे थे। बाज कमजोर दिलवाले, नौकरशाही के नये पुर्जों की तो आँखें सजल हो जाती हैं। कभी-कभी किसी मद्रासी फिल्म का नजारा उत्पन्न हो जाता है-इधर वक्ता ने दफ्तर में आनेवाली जनता के साथ अधिकारियों-कर्मचारियों द्वारा दुर्व्यवहार का जिक्र किया कि सामने श्रोताओं में से कुछ ने सिसकियाँ भरीं। वक्ता का जोश बढ़ता है और वह 'समय से दफ्तर आने के महत्त्व' नामक विषय को निपटाने लगता है। सामने बैठे श्रोताओं में से कइयों के मुँह लटक जाते हैं। कुछ भोले किस्म के वक्ता तो इतने जोश में आ जाते हैं कि उन्हें लगने लगता है, अब तक बहुत हुआ पर अब उनका भाषण इस दफ्तर को पटरी पर ला ही देगा। वे महसूस करने लगते हैं कि जिस नेतृत्व की जरूरत उनके विभाग को थी, वह अब मिल गया है और अब सब ठीक हो जाएगा। यह विचार उन्हें और बोलने के लिए प्रेरित करता है और वे बोलते-बोलते झाग फेंकने लगते हैं।
श्रोताओं में अधिकांश ऐसे दृश्यों से ऊबे हुए, यथार्थवादी कला-समीक्षकों की तरह अपना ध्यान वक्ता के भाषण से अधिक अवान्तर प्रसंगों की तरफ लगाये रहते हैं। इधर वक्ता ने ईमानदारी की तान छेड़ी उधर फुसफुसाहट शुरू हुई, ''अब साला कमीशन बढ़ाएगा।'' वक्ता ने जनता के साथ सद्व्यवहार की अपील जारी की कि एक बाबू ने दूसरे के कान में, संस्कृत के नाटकों के स्वगत कथनों की तरह जिन्हें सामने बैठा दर्शक समूह भली-भाँति सुन सकता हो, फुसफुसाते हुए कहा-'बेटा अब जो ठेकेदार आये, उससे हाथ जोड़कर कहना-आइए जीजाजी।'
संसार को क्षणभंगुर और नश्वर माननेवाले भारतीय ऋषियों ने अगर किसी बड़े साहब की पहली स्टाफ मीटिंग देखी होती तो उन्हें समझ में आ जाता कि सबसे कम देर तक टिकनेवाली चीज विश्व में बड़े साहब के भाषण का प्रभाव है। बाहर निकलते-निकलते मातहत अपनी फाइलें, कमीज या चप्पल जिस तरह झाड़ते हैं उससे इस बात की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि बड़े साहब के भाषण का कोई कतरा उनसे चिपका रह गया होगा।
साढ़े चार बजते-बजते बड़े साहब यानी बटुकचन्द उपाध्याय का कमरा स्टाफ मीटिंग के लिए तैयार कर दिया गया। कुर्सियाँ जो आड़ी-तिरछी थीं, व्यवस्थित ढंग से लगा दी गयीं। चापलूस मातहतों और दलालों ने पूरे कमरे में पान और कचौड़ी के दोने फेंक रखे थे, उन्हें झाड़कर चपरासी बाहर फेंक आया। कमरे की कुर्सियाँ कम थीं इसलिए दफ्तर के दूसरे कमरों से टीन, प्लास्टिक, लकड़ी-जिस भी चीज की कुर्सियाँ चार पैरों पर खड़ी थीं-लाकर लगा दी गयीं। दो या तीन पैरवाली कुर्सियाँ इसलिए छोड़ दी गयीं कि उनके साथ उन्हें सन्तुलित करने के लिए ईंटें लानी पड़तीं और चपरासी इस श्रमदान के लिए बहुत उत्साहित नहीं थे। सबसे पीछे दो-तीन बेंचें लगा दी गयीं। सब कुछ किसी पारसी थियेटर के नाटक की तरह घटित हुआ। साढ़े चार बजते-बजते बटुकचन्द उपाध्याय गम्भीर हो गये। उनके दरबारी कमरे को किसी युद्धस्थल की तरह क्षत-विक्षत छोड़कर चले गये थे। चपरासियों ने कमरे को व्यवस्थित कर दिया। बटुकचन्द ने कमरे के साथ अटैच्ड बाथरूम में जाकर खूब कुल्ला करके पान थूकने की कोशिश की। फर्क सिर्फ इतना आया कि उनके गल चुके मसूढ़ों और पीले दातों के अलावा होंठों के कोरों तक से यह सदा आने लगी कि इस पूरे अमूर्त माहौल में पान अकेला मूर्त घटक था। मुँह धोकर बटुकचन्द गम्भीर होकर अपनी कुर्सी पर बैठ गये। उन्होंने निश्चय किया कि वे मीटिंग में आनेवाले मातहतों के नमस्कार का उत्तर नहीं देंगे और पूरी मीटिंग पान नहीं खाएँगे। पहले निश्चय पर तो वे मीटिंग शुरू होने से लेकर अन्त तक टिके रहे, पर दूसरा निश्चय उन्होंने अपना भाषण शुरू होने के पहले ही तोड़ दिया। मुँह धुल कर आने के बाद पाँच सात मिनट तक वे शून्य में ताकते हुए, कुर्सी पर चिपके खटमलों को मारते हुए या सामने रखे पुराने अखबार की खबरों को चाटते हुए पान की तलब को दबाये रखने की कोशिश करते रहे, पर अधिक देर तक उनका धैर्य बरकरार नहीं रहा। उन्होंने पान से भरा लिफाफा उठाया और वापस मेज पर रख दिया, फिर उठाया और फिर रख दिया, फिर उठाया और दो बीड़ा पान निकालकर अपने मुँह में ठूँस लिया।
साढे चार बजते ही कमरा धीरे-धीरे भरने लगा। मातहत अन्दर घुसते और आँख, हाथ या सर हिलाकर अभिवादन करते। अपने निश्चय के मुताबिक बटुकचन्द ने किसी के अभिवादन का उत्तर नहीं दिया। वे निरन्तर शून्य में ताकते रहे और अपने मातहतों को यकीन दिलाते रहे कि बहुत सी गम्भीर समस्याएँ हैं, जिन पर उनका फौरन ध्यान देना जरूरी है। अभिवादन जैसी तुच्छ औपचारिकता में वे समय जाया नहीं कर सकते। वे शून्य में ताकते रहे और उन लोगों के नाम अपने दिमाग में दर्ज करते रहे जो उनकी बेखुदी का फायदा उठाकर बिना अभिवादन किये बैठते जा रहे थे।
दस-पन्द्रह मिनट में कमरा पूरी तरह भर गया। बटुकचन्द ने शून्य पर टिकाई अपनी निगाहें सामने बैठे लोगों पर डालीं। कमरे में दो हिन्दुस्तान थे। एक में साफ-सुथरे कपड़े पहने, चिकने गालों और बाहर निकले पेटोंवाले सात अफसर थे जो बटुकचन्द के दाहिने-बाएँ बैठे थे। दूसरे हिन्दुस्तान में सामने बैठे बाबू लोग थे जिनकी कमीजों के कालर गन्दे थे, ठुड़ि्यों पर बालों के गुच्छे थे और जिनके पेट और गाल दोनों पिचके हुए थे।
बटुकचन्द ने दाहिने, बाएँ और सामने हर तरफ देखा। कुछ लोगों ने उनके अमृत वचनों को नोट करने के लिए कलम हाथों में लेकर डायरी के पन्ने खोल रखे थे। ऐसे लोगों के चेहरों का मुआयना करते समय उनकी निगाहें कुछ स्निग्ध हुईं। जो लोग बिना कागज-कलम के थे उन्होंने अपने ऊपर फिरती निगाहों में तपिश महसूस की। उनमें से कुछ और ने पेन निकाल लिये और डायरी की कमी पूरी करने के लिए अपने हाथ की फाइल उलटी कर उसके कवर पर ही अमूर्त चित्रकारी करने लगे।
बटुकचन्द ने अपना भाषण उसी तरह शुरू किया जिस तरह कोई बड़ा साहब करता है। मातहत उसी तरह से झेलने लगे जिस तरह किसी भी दफ्तर के मातहत झेलते हैं।
सबसे पहले बटुकचन्द ने बताया कि वे इस दफ्तर के लिए नये नहीं हैं। यही तो रोना है-बड़े बाबू ने सोचा। पिछली बार बच गये थे बच्चू, इस बार नहीं बचोगे-सक्सेना जे.ई. ने अपने सामने रखे कागज पर चूहेदानी और चूहे का चित्र खत्म करते हुए नीचे कैप्शन के रूप में लिखा।
फिर बटुकचन्द ने राजनय की भाषा का इस्तेमाल करते हुए चाशनी-भरे शब्दों में यह बताने की कोशिश की कि वे यहाँ नियुक्त सभी अधिकारियों तथा कर्मचारियों से भली-भाँति परिचित हैं। श्रोताओं ने हवा में तैरती स्वर-लहरी से चिपकी चाशनी बिना समय गँवाये खुरच डाली और उसका निहितार्थ फौरन पकड़ लिया कि वे यहाँ मौजूद सारे बदमाशों की नस-नस से वाकिफ हैं और उन्हें भोला समझने की भूल न की जाय।
इसके बाद वे उस विषय पर आ गये जो भारतीय नौकरशाही में अपने मातहतों को भाषण देने के लिए सबसे मुफीद माना जाता है। उन्होंने 'जीवन में ईमानदारी का महत्त्व' नामक विषय पर बोलना शुरू किया और तब तक बोलते चले गये जब तक उन्हें यह अहसास नहीं हो गया कि अचानक उनके सामने बैठे श्रोताओं के बीच खाँसने, खँखारने या शरीर के विभिन्न छिद्रों से अलग-अलग तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न करने की प्रतियोगिता शुरू हो गयी है। यह स्थिति सायास पैदा की गयी है या देर तक एक ही मुद्रा में बैठने का परिणाम है, यह जानने के लिए उनकी उत्सुक आँखें कमरे का मुआयना करने लगीं। जिस भाग से उनकी निगाहें गुजरती थीं वहाँ सन्नाटा खिंच जाता था, पर दूसरे हिस्से में पहुँचते ही पहली तरफ से फिर से ध्वनियों की तरंगें-हवा में तैरने लगतीं।
इसके बाद बटुकचन्द ने जल्दी-जल्दी समय की पाबन्दी पर अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंने बताया कि सरकार ने बहुत सोच-विचारकर दफ्तरों के खुलने का समय दस बजे निर्धारित किया है। यह समय अंग्रेज जैसी बुद्धिमान कौम ने तय किया था और इसीलिए उसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता था। चूँकि जनता को भी यह समय पता चल गया है, इसलिए वह ठीक दस बजे दफ्तर आ जाती है और इसीलिए बाबुओं और अधिकारियों को भी दस ही बजे दफ्तर आ जाना चाहिए। इन लोगों को न सिर्फ दफ्तर समय पर आ जाना चाहिए, बल्कि वहाँ बैठकर काम भी करना चाहिए। फिर उन्होंने दिन-भर चाय पीने और समोसा खाने से होनेवाली हानियों पर भी प्रकाश डाला। दूसरी तमाम सलाहों की तरह इस सलाह को भी श्रोताओं ने इतनी गम्भीरता से लिया कि उनके लटके चेहरों ने वक्ता को आश्वस्त कर दिया कि दूसरे दिन से इस दफ्तर में सब लोग समय से दफ्तर आएँगे और न सिर्फ समय से आएँगे, बल्कि वहाँ बैठकर काम भी करेंगे। इसके अलावा दफ्तर में आकर वे और जो कुछ करें, कम-से-कम समोसा नहीं खाएँगे।
और भी बहुत से विषय थे, जिन पर बटुकचन्द विस्तार से देर तक बोलना चाहते थे। वे बोलते भी, पर उन्हें लगा कि अचानक कमरा शास्त्रीय संगीत के मंच में तब्दील हो गया है। विलम्बित और द्रुत दोनों में नाक, गले और शरीर के दूसरे छिद्रों से इतनी ध्वनियाँ निकलने लगीं कि उनके जैसे घाघ व्यक्ति के लिए भी यह जानना मुश्किल हो गया कि इसमें कितना सहज स्वाभाविक है और कितना सायास। दिन-भर समोसा-पकौड़ी खाते रहने से उत्पन्न हुई अपान वायु पूरे कमरे में इतनी विस्फोटक आवाज के साथ घूम रही थी कि बटुकचन्द ने कई बार सोचा कि सारा भाषण बन्द करके अब केवल वे पर्यावरण-सुरक्षा और स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क पर ही श्रोताओं का ज्ञानवर्धन करें, पर ये विषय उनके सरकारी कर्तव्यों की सूची में सम्मिलित नहीं थे, इसलिए उन्होंने अपने ऊपर नियन्त्रण रखा और उस ब्रह्म वाक्य से अपना भाषण समाप्त किया जिससे बार-बार यह ध्वनि निकल रही थी कि अब वे आ गये हैं, इसलिए सब ठीक हो जाएगा।
भाषण समाप्त होते ही अधिकांश श्रोता निकल भागे। ऐसा लगता था कि जैसे किसी काँजी हाउस का गेट टूट गया हो और कई दिनों से उसमें बन्द भूखे-प्यासे जानवरों को अचानक स्वतन्त्रता और हरी घास दिखने लगी हो। बाबू इतने चट गये थे कि वे अपनी सहज स्वाभाविक रूटीन भूलकर बिना एक दूसरे को गरियाते, ऊँचे स्वर में बोलते-बतियाते या ठहाका लगाते बस किसी तरह दफ्तर के द्वार से बाहर निकल गये। उन्हें डर लग रहा था कि बड़े साहब का चपरासी कहीं एक बार फिर न उन्हें अन्दर बुला ले और एक बार फिर न भाषण का सिलसिला शुरू हो जाय। वे अपनी साइकिलों, स्कूटरों, रिक्शों, पैरों-गरज यह कि जो भी सवारी मिली उस पर भाग निकले।
दफ्तर बन्द होने का समय हो गया था। बाहर चौकीदार ऊँघते हुए उन चापलूस मुसाहिबों के जाने का इन्तजार कर रहा था जो मीटिंग खत्म होने के बाद एक बार फिर बड़े साहब को घेरे हुए थे। फर्क सिर्फ इतना था कि इस बार सभी खड़े थे और दिन की रही-सही कसर पूरी कर रहे थे। न जाने कहाँ से जादू की तरह उनके हाथों में पान के दोने उग आये थे जिनमें से थोड़ी-थोड़ी देर बाद वे निकालकर पान बड़े साहब को पेश करते जा रहे थे जिसे बटुकचन्द अपने पहले से फूले गालों में ठूँसते जा रहे थे। खास तौर से वे लोग जो सुबह चूक गये थे या जिन्हें भ्रम था कि उनका सलाम पूरी तरह कुबूल नहीं हुआ है, वे बढ़-बढ़कर अपनी निष्ठा के प्रतीक के रूप में पान पेश करते जा रहे थे।