कमलाकान्त जिस बड़े दफ्तर के इस हालनुमा कमरे में बैठे हुए थे उसके गलियारों और दरवाजों पर एक वाक्य मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था-'कृपया तबादलों के बारे में बात न करें।' वहाँ उपस्थत हर व्यक्ति सिर्फ तबादलों के बारे में बात कर रहा था। किसी को किसी का तबादला करवाना था और किसी को किसी का रुकवाना था। इस कमरे में लोग खचाखच भरे थे और सामने एक घूमनेवाली कुर्सी पर बैठे हुए व्यक्ति को एक साथ सम्बोधित कर रहे थे। सामनेवाला व्यक्ति अपने चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान लिये धैर्य और सहिष्णुता की साक्षात प्रतिमूर्ति बना बैठा था। एक साथ कई लोगों की बातें सुन रहा था, उनके उत्तर दे रहा था, बीच-बीच में उन्हें हँसा रहा था और खुद भी ठहाके लगा रहा था। वह एक साथ कई लोगों की दरखास्तें पकड़ता, उन पर कुछ लिखता और अपने पी.ए. को पकड़ा देता। लगभग सभी को एक ही जैसा वाक्य सुनने को मिलता-
''हो जाएगा...लिख दिया है...आप घर जाइए। आदेश पहुँच जाएगा।''
कागज के पी.ए. के हाथों में पहुँचते ही कागज देनेवाले पी.ए. के पास लपकते। पी.ए. के हाथ और होंठ साथ-साथ चल रहे होते। वह हाथों से कागजों को तह लगाकार एक फाइल में लगाता जाता और उसके होंठ जो कुछ बुदबुदाते रहते उसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि अब तो साहब ने लिख दिया है, अब घर जाकर मौज करो, आदेश खुद ही पहुँच जाएगा। पर दरखास्त देनेवाले जानते थे कि आदेश ऐसे नहीं पहुँचता। वे पहले भी ऐसे वाक्य सुन चुके थे। इसलिए वे वहीं मँडराते रहते।
कमलाकान्त यही दृश्य कई बार देख चुके थे। वे सारे शोर-शराबों से निर्लिप्त सिर्फ एकसूत्री कार्यक्रम के तहत कमरे में अपना स्थान बदल रहे थे। वे किसी तरह ऐसी जगह पर बैठना चाहते थे जहाँ से घूमनेवाली कुर्सी के इतना करीब पहुँच सकें कि उसे सीधे सम्बोधित किया जा सके। कुर्सी-दौड़ के सिद्धान्त के अनुसार वे जैसे ही आगे कोई कुर्सी खाली होती, उस पर झपट पड़ते। इस दौड़ में उनके अलावा भी कई लोग थे इसलिए निरन्तर सावधानी बरतनी पड़ रही थी। कोई अपनी दरखास्त हाथ में लेकर खड़ा होता कि ये लोग सतर्क हो जाते। जैसे ही उसका एक कदम आगे बढ़ता पीछे से कोई झपटकर उसकी कुर्सी हथिया लेता। एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि दरखास्ती घूमती कुर्सी को व्यस्त देखकर वापस अपनी कुर्सी पर बैठा तो उसने अपने को किसी की गोद में पाया।
पुरानी कहावत है कि सब्र का फल मीठा होता है। कमलाकान्त पूरी तरह इसमें विश्वास करते थे और उन्हें भी तीन घंटे के सब्र का फल मीठा मिलनेवाला था कि कमरे में हंगामा हो गया।
हुआ कुछ ऐसे कि घूमनेवाली कुर्सी के सामने दो कागज एक साथ पहुँचे। उसने दोनों पर लिख दिया कि आदेश जारी कर दिये जाएँ। पर अचानक एक कागजवाले की निगाहें दूसरे कागज पर पड़ गयीं। यह तो शोरगुल से मालूम हुआ कि एक कागज किसी को किसी जगह पर एक वर्ष और रखने से सम्बन्धित था और दूसरा उसी जगह पर नियुक्त व्यक्ति को हटाकर दूसरे को वहाँ नियुक्त करने का अनुरोध लिये था। पहले कागज के साथ दो लोग थे और दूसरे के साथ तीन। इन पाँच लोगों ने एक साथ जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। एक बार तो कमरे में बैठे लोग सहमकर चुप हो गये और घूमनेवाली कुर्सी को चेहरे से भी मुस्कान गायब हो गयी।
घूमनेवाली कुर्सी ने समझाने की कोशिश की कि दोनों अपने हैं। चलो दोनों को वहीं रख देते हैं।
एक क्षण को लगा कि मामला सुलझ गया है। दोनों पक्षों की आवाजें मन्द पड़ गयीं। यकायक उस पक्ष को, जो पहले से उस जगह पर काबिज था जिसके लिए झगड़ा हो रहा था, यह अहसास हुआ कि उसे इस कमाऊ जगह पर किसी दूसरे के साथ हिस्सेदारी करनी पड़ेगी। इस पक्ष के तीन लोग थे। उन्होंने अपनी आँख, कान और मुँह जैसी इन्द्रियों का उदारता के साथ प्रयोग किया और एकदम से कमरा फिर चिल्ल-पों से भर गया। दूसरा पक्ष जिसमें दो लोग थे और जिसने अहसान करने के अन्दाज में कि चलिए आपने कहा तो मान लेते हैं-अपनी आवाज धीमी कर ली थी, फौरन चौकन्ना हो गया। उसने देश की संसदीय राजनीति का वह मूल मन्त्र पकड़ा जिसके अनुसार अगर आपके फेफड़ों में ताकत है तो आप कोई भी स्याह सफेद कर सकते हैं। इस पक्ष के दोनों योद्धाओं के फेफड़े कुछ ज्यादा ही मजबूत थे, इसलिए दूसरे पक्ष के महारथी जब चीखते-चीखते खाँसने-खँखारने लगे तब भी वे चिल्लाते रहे और तब तक चिल्लाते रहे जब तक घूमनेवाली कुर्सी पर बैठे सज्जन जिन्हें लोग मन्त्रीजी की संज्ञा से सम्बोधित कर रहे थे, अचानक अपनी कुर्सी से उठकर अन्दर की तरफ नहीं खिसक गये।
मन्त्रीजी के अन्दर लपकने की जाहिर वजह किसी शंका का समाधान था, पर जब वे काफी देर तक बाहर नहीं आये, तब लोगों की समझ में आ गया कि वे चाहते थे कि समस्या अपना समाधान स्वयं ढूँढ़ ले। यह वह नायाब नुस्खा था जिसके बल पर हमारे देश के बाज महापुरुष सालोंसाल सरकारें चलाते हैं। किसी समस्या के पैदा होने पर शतुरमुर्ग की तरह गर्दन रेत में गड़ा लेने से कुछ समय बाद समस्या खुद अपना हल ढूँढ़ लेती है। पर यहाँ पर नुस्खा नहीं चला और मन्त्रीजी को बाहर निकलना पड़ा।
हुआ कुछ ऐसे कि दोनों पक्षों ने आपसी वाद-विवाद को उस बिन्दु पर पहुँचा दिया जहाँ पहुँचने की उम्मीद ऐसे किसी मौके पर हमेशा की जा सकती है।
उस पक्ष ने, जो कमाऊ जगह पर बैठा था, अचानक यह घोषित कर दिया कि अगर उसे इस जगह से अपदस्थ किया गया तो उसकी बिरादरी के जो हजारों-लाखों वोटर थे, वे चुप नहीं बैठेंगे और अगले चुनाव में मन्त्रीजी को इस अन्याय का सबक सिखाकर रहेंगे।
दूसरे पक्ष ने इससे भी ऊँची आवाज में घोषित किया कि बहुत हो चुकी लूट। आखिर कोई हद होती है। एक ही आदमी क्यों उस कमाऊ जगह पर रहे। अगर फौरन वहाँ इनके आदमी को नहीं रखा गया तो उन चौबीस गाँवों में मन्त्रीजी का घुसना मुहाल हो जाएगा जहाँ इनकी बिरादरी का बहुमत था।
कमरे में बैठे हर आदमी को लगा, मामला गम्भीर है और जैसी अपनी राष्ट्रीय आदत है, लोग बीच-बचाव करने लगे।
एक सुझाव आया कि दोनों को वहीं रख दिया जाय और कुर्सी का क्षेत्रवार बँटवारा कर दिया जाय। एक आदमी लूट का दाहिना क्षेत्र चरे और दूसरा बायाँ। इस सुझाव को पहले से नियुक्त पक्ष ने ठुकरा दिया।
दूसरा सुझाव आया कि छह महीने अभी पहले से नियुक्त पक्ष को और रहने दिया जाय। बेचारे को कई लड़कियों की शादी करनी है। इसे दूसरे पक्ष ने अस्वीकार कर दिया। उसे भी तो बाल-बच्चे पालने थे।
यह सिलसिला काफी देर तक चला। सुझाव आते गये और अस्वीकृत होते गये। मन्त्रीजी अन्दर शंका समाधान करते रहे। लोग कुर्सियों पर पसर गये।
पी.ए. ने चुनाव में उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कुछ लोगों के लिए चाय मँगा दी। चाय दूसरों ने हड़प ली और उपयोगी लोगों के लिए और चाय आ गयी। कुछ लोग बाहर गये और उनकी जगह पर दूसरे आ गये। सब कुछ उसी तरह चल रहा था जिस तरह राजकाज को चलना चाहिए था।
कमलकान्त इस तरह की स्थिति कई बार झेल चुके थे। अभी पता नहीं कितनी देर यह सब चलेगा। उन्होंने सोचा झपकी ले लें। वे न जाने कितनी देर तक सोए कि सपना देखने लगे। सपने में उन्होंने देखा कि जिस कमरे में वे बैठे थे, वह यकायक युद्धस्थल में तब्दील हो गया है। लोग बहस करने के लिए सिर्फ मुँह का नहीं, बल्कि हाथ-पैरों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं। कोई किसी के परिवार की महिलाओं के बारे में कसीदे पढ़ रहा है तो कोई दूसरे के शरीर पर पटककर कुर्सियाँ तोड़ने का प्रयास कर रहा है। एक रणबाँकुरे को जब कोई कुर्सी नहीं मिली तो उसने कमलाकान्त की कुर्सी हिलाने की कोशिश की। कमलाकान्त ने हड़बड़ाकर आँखें खोलीं तो पाया कि वे सपना नहीं देख रहे हैं, कमरा सचमुच क्षत-विक्षत योद्धाओं और विकलांग कुर्सियों से भरा हुआ था।
हुआ कुछ ऐसे कि दोनों पक्षों के वाद-विवाद से ऊबकर कुछ लोगों का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने भी घोषित कर दिया कि मन्त्रीजी पर सिर्फ इन्हीं दोनों पक्षों का हक नहीं बनता है। उन्होंने भी चुनाव में मन्त्रीजी के पसीने पर अपना खून बहाया है। इसलिए अगर इनके काम के सम्बन्ध में आज सहमति नहीं बन पा रही तो ये दोनों पक्ष कुछ देर बैठें। दूसरे लोगों के कागजों पर आदेश हो जाने के बाद मन्त्रीजी इन लोगों का भी अला-भला कर देंगे।
ऐसे समय में जो हो सकता था, वही हुआ। युद्धरत दोनों पक्षों में सुलह हो गयी और उन्होंने दूसरे लोगों के खिलाफ साझा मोर्चा खोल दिया। उनमें से एक पक्ष पिछले सात दिन से राजधानी में पड़ा था और अब जाकर उसे मन्त्रीजी से मिलने का मौका मिला था। दूसरा दस दिन से ज्यादा धूल फाँकने के बाद यहाँ तक पहुँच सका था। यह बात और थी कि यह धूल इस पक्ष ने शहर के सबसे आलीशान होटल में फाँकी थी। इस पक्ष के एक व्यक्ति को छोड़कर जिसकी जेब से इस धूल का बिल अदा हो रहा था, शेष दोनों को कोई आपत्ति नहीं थी कि यह मामला अगले कुछ दिनों तक लटका रहे। पर इन दोनों के कमजोर पड़ते ही बिल का भुगतान करने वाला उन्हें कुछ ऐसी चीजें याद दिला देता जिससे उनकी आवाजें फिर तेज हो जातीं। दोनों पक्ष अड़ गये कि पहले उनका फैसला हो जाय। दूसरे लोग इस राय के थे कि ये दोनों चुपचाप बैठ जाएँ और पहले और सबका काम हो जाय, तब इनकी बात सुनी जाय।
मन्त्रीजी रात को दौरे पर जानेवाले थे और अगले कुछ दिनों तक फिर उनके दर्शन नहीं होते, इसलिए कोई भी अपने मामले को बाद के लिए नहीं टालना चाहता था। बहस का अन्त इस युद्ध में हो सकता था और इसी में हुआ।
पर युद्ध का एक लाभ भी हुआ। कमलाकान्त ने जब आँखें खोलीं तो मन्त्रीजी अपनी शंका का समाधान कर कमरे में वापस प्रवेश कर रहे थे।
मन्त्रीजी के कमरे में प्रवेश करने पर न जाने कहाँ से उनके चपरासी, शैडो वगैरह उपस्थित हो गये। उन्होंने कुर्सियाँ ठीक कर दीं। लोग फिर उन पर बैठ गये और उनके हाथों में फिर से कागज लहराने लगे।
कमलाकान्त ने ऐसी कुर्सी हथिया ली जिस पर बैठा आदमी अपना कागज हाथ में लेकर खड़ा हो गया था और जो मन्त्रीजी के ठीक बगल में थी। खड़े आदमी को लगा कि अभी नम्बर देर में आएगा, इसलिए वह वापस कुर्सी पर बैठ गया। कुर्सी पर क्या कमलाकान्त की गोदी में बैठ गया। वह कुछ देर तक इस उम्मीद में बड़बड़ाता रहा कि कमलाकान्त कुर्सी छोड़कर उठ जाएँगे पर बेशर्मी की इस लड़ाई में कमलाकान्त जीत गये। वह आदमी उठकर मेज पर पूरी तरह झुक गया और तब तक खड़ा रहा जब तक उसका कागज मन्त्री के हाथ से पी.ए. तक नहीं चला गया। फिर वह पी.ए. की तरफ चला गया।
इस बीच दोनों युद्धरत पक्ष फिर से अपनी पुरानी घोषणा दोहराने लगे जिसके मुताबिक उन्होंने मन्त्रीजी के लिए पिछले चुनावों में अपना खून-पसीना एक कर दिया था। पर इस बार लगता है, मन्त्रीजी उनके क्षेत्र में नहीं घुसना चाहते हैं। ठीक है अब मुलाकात चुनाव में होगी। उन्होंने बार-बार बाहर जाने का इरादा दोहराया और अपनी कुर्सी पर जमे बैठे रहे।
मन्त्रीजी दूसरों के कागजों पर दस्तखत करते रहे और युद्धरत पक्षों को हँसाने के लिए चुटकुले सुनाते रहे, जिस पर उनके पी.ए. और चपरासी तो खूब हँसे पर लड़ने वालों ने हँसने से मना कर दिया। अन्त में मन्त्रीजी ने अपने पी.ए. के कान में कुछ कहा, पी.ए. ने दोनों पक्षों के नेताओं के कानों में कुछ कहा, नेताओं ने अपने अनुयायियों के कानों में कुछ कहा, फिर दोनों पक्षों के एक-एक आदमी ने मन्त्रीजी के कान में कुछ कहा और फिर मन्त्रीजी ने अपने पी.ए. के कान में कुछ कहा। काफी देर तक वह स्थिति रही जिसे भाषा के अध्यापक कानाफूसी कहते हैं। इस बीच लोग अपने कागज भी बढ़ाते रहे और मन्त्रीजी उन पर दस्तखत भी करते रहे। एकाध बार ऐसा हुआ कि कानाफूसी करते हुए मन्त्रीजी ने दरखास्ती के हाथ पर दस्तखत कर दिये। फिर दोनों हँस दिये और मन्त्रीजी ने उसके कागज पर भी दस्तखत कर दिये।
कानाफूसी हमारे देश की राष्ट्रीय विधा है। संसद से लेकर डिनर डिप्लोमेसी तक इसकी छटा दिखाई पड़ती है। कानाफूसी शुरू हुई और कमलाकान्त ने राहत की साँस ली। उन्हें लगा अब मामला तय हो जायेगा और उन्हें कुछ कहने का मौका मिल जाएगा। मामला सचमुच तय होने के कगार पर आ गया था। मन्त्रीजी का पी.ए. दोनों पक्षों को अन्दर के एक कमरे में ले के चला गया।
कमलाकान्त कुछ मायूस हो गये। दरअसल अन्दर के कमरे में वे जाना चाहते थे। अन्दर का कमरा छोटा था, पर बड़े फैसले वहीं होते थे।
मन्त्रीजी तेजी से कागजों का निस्तारण करने लगे। कमलाकान्त समझ गये कि वे अब अन्दर के कमरे में जाने के लिए उठेंगे। समय कम था और मत चूको चौहान की तर्ज पर उन्होंने कुछ तीर छोड़े। ये तीर मुख, उँगलियों और आँखों की मदद से कुछ इस तरह छोड़े गये कि वे रहस्यवादी कला समीक्षकों के लिए नये प्रतिमान पेश कर सकते थे। थोड़ा कहना ज्यादा समझना और कई बार मुँह से कुछ न कहना सिर्फ आँखों और उँगलियों से मतलब सम्प्रेषित कर देना-अगर मन्त्रीजी और कमलाकान्त के बीच जो संवाद हुआ उसे परिभाषित करना हो और उसे एक वाक्य में कहना हो तो इसी तरह कहा जाएगा।
एक-दूसरे से डेढ़ फुट के फासले पर बैठे दोनों पक्षों के बीच हुई बातचीत कुछ इस तरह थी।
कमलाकान्त ने कागजों पर दस्तखत करते हुए मन्त्रीजी को कनखियों से देखते हुए जो कुछ दीवारों से कहा उसका मतलब समझनेवाले के लिए साफ था कि खादिम आप से बाहर नहीं है। जैसा हुकुम देंगे तामील हो जाएगी।
मन्त्रीजी ने सामने पड़े कागज पर आदेश कुछ ज्यादा लम्बा लिखा और वही भाव बनाये रखा जो कमलाकान्त के कमरे में घुसने के बाद से बनाये हुए थे और अब भी वे कमलाकान्त के कमरे में अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कलम चलाते-चलाते हवा में न जाने किसे सम्बोधित किया कि पिछले चुनाव में खबर भेजने पर भी लोग दिखाई नहीं दिये और अब दर्शन दे रहे हैं।
कमलाकान्त ने कुछ अज्ञात दुश्मनों को कोसा जिन्होंने बार-बार कोशिश के बावजूद उन्हें मन्त्रीजी से मिलने नहीं दिया था और मन्त्रीजी की सेवा की उत्कट अभिलाषा अपने दिल में लिये हुए हर बार उन्हें वापस लौटना पड़ा था।
मन्त्रीजी के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। वे दूसरी दरखास्त पर और लम्बा आदेश लिखने लगे।
कमलाकान्त ने भारतीय रेल और प्रादेशिक रोडवेज के टाइम टेबलों का पाठ करना शुरू कर दिया। उन्होंने बताया कि फलाँ-दिन जब अलाँ ट्रेन से वे मन्त्रीजी की कोठी के लिए रवाना हुए तो ट्रेन अपनी आदत के मुताबिक कितने घंटे लेट थी और उनके पहुँचने के बस तीन मिनट पहले मन्त्रीजी अपनी कोठी से निर्वाचन क्षेत्र के लिए निकल चुके थे। मन्त्रीजी के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया तो उन्होंने फिर बताया कि अमुक-दिन तमुकजी के साथ वे रोडवेज बस से समय से घर से रवाना हुए, लेकिन जैसा कि मन्त्रीजी जानते हैं कि रोडवेज की कोई बस रास्ते में बिना मुसाफिरों से धक्का लगवाये अपनी मंजिल पर नहीं पहुँचती, यह बस भी रास्ते में एक बार पंक्चर हुई, एक बार इसका ब्रेक फेल हुआ और एक बार ऐसी स्थिति में पहुँच गयी जिसे मन्त्रीजी चाहे तो उलटना कह सकते हैं। इसके बाद भी जब वे मन्त्रीजी की कोठी पर पहुँचे तो मन्त्रीजी सिर्फ चार मिनट पहले हवाई अड्डे के लिए रवाना हो चुके थे।
इस कारुणिक यात्रा वृतान्त का भी मन्त्रीजी पर कोई असर नहीं हुआ। वे अगले कागज पर और लम्बा आदेश लिखने लगे। ऐसा लगता था कि वे भाषा के कठिन उलझाव में डूबे हुए थे और एक बार सिर उठाकर कमलाकान्त की तरफ देखते ही उनकी भाषा भ्रष्ट हो जाएगी।
कुर्सी पर मन्त्रीजी के पृष्ठ भाग ने कुछ ऐसी हरकतें कीं कि कमलाकान्त समझ गये कि वे अब उठने ही वाले हैं। कमरे में मौजूद मुलाकातियों में भी हलचल मच गयी वे सारे घूमनेवाली कुर्सी के इर्द-गिर्द खड़े हो गये।
समय कम था। कमलाकान्त ने अब मुँह के साथ हाथों और उँगलियों का भी प्रयोग करना शुरू कर दिया। सम्प्रेषण की यह विधि भाषा की सीमाओं को तोड़ने के लिए होती है। साहित्य में अभी तक इसका प्रयोग नहीं हो पाया है इसलिए बार-बार सम्प्रेषणीयता के संकट की बात होती रहती है।
कमलाकान्त ने कुहनियाँ मजबूती के साथ मन्त्रीजी के सामने मेज पर टिकायीं, अपने मुँह को गोल-गोल घुमाया, आँखों में खास तरह की चमक पैदा की और अपनी उँगलियों को एक-दूसरे पर इस तरह रगड़ा कि उनसे सिक्कों के खनकने की याद आने लगी। इन सारे प्रतीकों के साथ उन्होंने भाषा का एक वाक्य भी कहा ''मैं आपसे बाहर थोड़े हूँ। जो हुक्म देंगे। तामील हो जाएगी।''
जिस समय यह वाक्य कहा गया, मन्त्रीजी के सर, कन्धों, हाथ, सामने की मेज और कुर्सियों पर हर तरफ लोग लदे हुए थे। वे एक साथ बोल रहे थे। उनके हाथों में अलग-अलग रंगों और आकारों के झण्डों जैसे कागज लहरा रहे थे। इस मछली बाजार में लोगों की भीड़ के बीच में मजबूती से इतनी जगह बनाते हुए कि उनके कोहनी पर टिके सर में अवस्थित आँखें सामने बैठे मन्त्रीजी की आँखों से संवाद कर सकें, उनकी उँगलियाँ इस तरह की हरकत करती रहें कि मन्त्रीजी को किसी बैंक में नोट गिनने का भ्रम हो सके और गोल-गोल घूमते हुए होठों से निकला वाक्य फुसफुसाहट और शोर के बीच इतनी ध्वनि पैदा कर सके कि सामनेवाला सुन भी ले और अनसुना होने का भ्रम भी पैदा कर सके। उन्होंने जो अन्तिम वाक्य कहा उसका असर यह हुआ कि मन्त्रीजी ने अपने पी.ए. के कानों में कुछ कहा। पी.ए. कमलाकान्त की तरफ बढ़ा, पर तब तक कमलाकान्त छोटे कमरे की तरफ बढ़ चले थे। जब वे छोटे कमरे के दरवाजे पर पहुँचकर अन्दर बैठने के लिए जगह तजवीज कर रहे थे तब पी.ए. ने उनके कान में कहा कि वे इस कमरे में बैठ जाएँ जिसे कमलाकान्त ने बड़ी सहृदयता से स्वीकार कर लिया और प्रत्युत्तर में पी.ए. के कान में कुछ ऐसा कहा कि वह खुश हो गया। मुस्कुराता हुआ पी.ए. वापस गया और कमलाकान्त ने एक सोफे पर आठवें व्यक्ति के रूप में अपना पृष्ठ भाग टिका दिया। वे भारतीय रेल के उस दर्शन में विश्वास करते थे जिसके मुताबिक किसी सीट को यदि आप अपने पृष्ठ भाग से छू दें तो वह खिंचकर इतनी बड़ी हो जाती है कि आप उस पर बैठ भी सकते हैं।
कमरे में पहले से बैठे हुए लोग दोनों युद्धरत कैम्पों के लोग थे। बाहर की कटुता समाप्त हो गयी थी और वे हँस-हँसकर एक दूसरे से बतिया रहे थे। दरअसल पूरे कमरे में सिर्फ दो ही लोग तनावग्रस्त थे। ये वे थे जिनके तबादला होने या न होने को लेकर थोड़ी देर पहले का महाभारत हुआ था। उनके साथ जो लोग थे वे मस्त थे। मस्ती उनके होंठों से पान की पीक या मुँह से खट्टी डकारों के रूप में निकल रही थी। वे पिछले कुछ दिनों से इन दो तनावग्रस्त प्राणियों को चर रहे थे और मस्त थे। दरअसल वे उस प्रजाति के जन्तु थे जिनका जन्म ही दूसरों की सेवा के लिए होता है। साल भर भाँति-भाँति के दुखियारे उनकी शरण में आते रहते हैं जिनमें किसी को तबादला करवाना होता है, किसी को तबादला रुकवाना होता है, किसी का लाइसेंस या परमिट अटका पड़ा है तो किसी को किसी मुकदमे में मदद चाहिए होती है। वे इन दुखी जनों का दुख दूर करते हैं और मस्त रहते हैं।
ये मस्त लोग एक ही पेशे के थे, इसलिए एक दूसरे को जानते थे। वे कई बार एक साथ किसी मामले की पैरवी के लिए इस छोटे कमरे में बैठे थे। दरअसल वे उन वकीलों की तरह थे जो अलग-अलग मुकदमों में एक-दूसरे के खिलाफ या साथ खड़े होते हैं और फिर बाहर कचहरी की कैंटीन में साथ-साथ चाय पीते हैं और गप्पें लड़ाते हैं। मस्त लोग एक-दूसरे से मजाक करने लगे और ठहाके लगाने लगे।
मस्त लोगों की मस्ती से उनके दोनों मुअक्किल दुखी हो गये। जब कोई ठहाका लगता वे घबराकर अपने पैरोकारों को निहारते। उन्हें लगता कि ठहाकों की झील में उनके पैसे और सम्भावनाएँ डूबती जा रही हैं।
कमलाकान्त इस समय तक आराम से सोफे पर अपने बैठने की जगह बना चुके थे। पर अचानक उन्हें लगा कि यह जगह रणनीति के लिहाज से उचित नहीं है। यद्यपि कमरा छोटा था, पर इसमें भी सबसे अन्त में बैठना उचित नहीं था। उन्हें किसी तरह मन्त्रीजी के दीवान के पासवाले सोफे पर जगह चाहिए थी।
कमरा खासा छोटा था। एक छोटा-सा दीवान मन्त्रीजी के लिए दीवार से सटाकर रखा था। उसके सामने एक सेंट्रल टेबल थी और टेबल के दोनों तरफ एक-एक लम्बा सोफा रखा था। इन सोफों पर आराम से तीन-तीन लोग बैठ सकते थे, पर जिस सोफे पर कमलाकान्त बैठे थे उस पर आठ लोग बैठ चुके थे। सामनेवाले पर भी सात लोग थे। कमरे में आने पर पता चला कि इन दो युद्धरत पक्षों के अलावा और भी कई लोग थे जिनके फैसले इस छोटे कमरे में हो सकते थे और वे पहले से वहाँ थे।
कमलाकान्त को लगा कि उन्हें मन्त्रीजी के आने के पहले दीवान के पास पहुँच जाना चाहिए। वे उठे और बाहर आ गये।
बाहर कमलाकान्त को मन्त्रीजी का चपरासी दिखाई दे गया। वह कमलाकान्त को जानता था और कमलाकान्त उसे जानते थे। कमलाकान्त ने तपाक से उसके कन्धे पर हाथ रखा और उसके बाल-बच्चों का हाल-चाल पूछा। हर भारतीय की तरह उसने अपने परिवार की जिम्मेवारी भगवान पर डाल रखी थी, इसलिए उसने ऊपर की तरफ नजर उठा दी। कमलाकान्त ने उसे दोनों लड़कों की मिठाई के लिए दस-दस के दो नोट दिये। उसने नोट इत्मिनान से अपने अचकन की जेब में रखते हुए यह जानकारी दी कि उसके तीन बेटे हैं। कमलाकान्त ने उसे बताया कि बच्चे तो भगवान की बरक्कत होते हैं और इस बात की शिकायत की कि उसने तीसरे बेटे के जन्म के बारे में पिछली मुलाकात पर नहीं बताया था। चपरासी ने बताया कि पिछली मुलाकात, जो न उसे याद थी कि कब हुई थी और न कमलाकान्त को, पर उन्हें बताया तो था कि उसकी बीवी उम्मीद से है। कमलाकान्त ने अपनी स्मरणशक्ति कम होते जाने की शिकायत की और एक दस का नोट निकालकर चपरासी को थमा दिया। चपरासी ने अपने सत्रह साल के तीसरे बेटे के लिए भी मिठाई खरीदने की सहमति जताते हुए पैसा रख लिया।
इसके बाद चपरासी ने जो कमाल दिखाया उसे देखकर कोई भी शर्त लगा सकता था कि सचिवालय में आने के पहले वह जरूर किसी सर्कस में काम करता रहा होगा। उसने उस ठसाठस भरे हुए कमरे में मन्त्रीजी के दीवान के ठीक बगल में एक कुर्सी स्थापित कर दी। इसकी वजह से यह जरूर हुआ कि उसने दो लोगों के पैरों की उँगलियाँ कुचलीं, एक के सर की मजबूती की जाँच की और थोड़ी देर तक हवा में इस तरह लटका रहा कि निश्चय के साथ यह कहना मुश्किल था कि वह करतब दिखाकर कमरे में बैठे लोगों का मनोरंजन कर रहा था या फिर सोफों के ऊपर बैठे कुछ लोगों को उनके नीचे ढकेलकर वहाँ कुछ जगह बनाना चाहता था।
कुर्सी स्थापित करने से अधिक मुश्किल था उस पर कमलाकान्त को स्थापित करना। कुर्सी जैसे ही रखी गयी उस पर बैठने के लिए दो लोग लपके। कमलाकान्त पीछे रह गये और आगे बैठे हुए एक सज्जन उस पर बैठ गये। कमलाकान्त ने असहाय नजरों से चपरासी की तरफ देखा। उसकी जेब में मिठाई के लिए पड़े तीन नोट कुछ इस तरह फड़फड़ाए कि चपरासी की जिह्वा पर सरस्वती का वास हो गया। कुर्सी पर बैठे सज्जन दो ही वाक्यों की मार से सहमकर वापस सोफे पर आ गये। वे मन्त्रीजी के क्षेत्र में जरूर थे, पर चपरासी तो सचिवालय नामक इमारत का अभिन्न भाग था। जब मन्त्रीजी नहीं थे, तब भी वह यहीं था और जब मन्त्रीजी नहीं रहेंगे, तब भी वह यहीं रहेगा।
कमलाकान्त ने कुर्सी पर बैठकर एक बार फिर कमरे का निरीक्षण किया। मन्त्री के चपरासी द्वारा उनके लिए कुर्सी रखने और फिर उस पर उन्हें बिठा देने से उनका रुतबा बढ़ गया था। कमरे में बैठे लोग उन्हें उत्सुकता, प्रशंसा और ईर्ष्या के मिले-जुले भावों से निहार रहे थे। कमलाकान्त को लगा कि ये सब क्षुद्र लोग हैं जिनसे आँखें मिलाने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए वे सामनेवाली दीवार को घूरने लगे और उनका मस्तिष्क अलग रणनीति बनाने में व्यस्त हो गया।
कमरा पारसी थिएटर के स्वगत कथन के सिद्धान्त पर बजबजा रहा था। इस सिद्धान्त के मुताबिक गोपनीय और नितान्त व्यक्तिगत बातें इस आशा से जोर-जोर से बोलकर कही जाती हैं कि उन्हें बोलनेवाले के अलावा मंच पर मौजूद कोई पात्र नहीं सुन रहा है। कमरे में ठुँसे हुए लोग एक साथ बोल रहे थे, जोर-जोर से बोल रहे थे और अलग-अलग विषयों पर बोल रहे थे। एक-दूसरे को काटती और पछाड़ती हुई आवाजें दीवारों से टकरातीं, सोफों पर रेंगती, जमीन पर पसर जातीं, पर उन कानों तक पहुँच ही जातीं जिनके लिए वे बोली गयी होतीं। इस पूरे माहौल में सिर्फ कमलाकान्त निर्लिप्त बैठे थे। भीड़ में उनका कोई पैरोकार नहीं था, इसलिए उन्हें वहाँ बैठे सभी लोग ओछे लग रहे थे। यहाँ तक कि उनकी बातें सुनने का प्रयास करते दीखना भी ओछा था, इसलिए वे सिर्फ सामने ताकते रहे और बातों में केवल वही अंश पकड़ते रहे जिनमें मन्त्रीजी के अगले कुछ दिनों तक राजधानी और उसके बाहर आने-जाने की सूचनाएँ निहित होती थीं।
कमरे में मन्त्रीजी का प्रवेश हुआ और जैसा होना था, कमरे की आवाजें खामोश हो गयीं।
लोग खड़े हो गये। जिस कमरे का वर्णन करते समय सबसे पहले यह कहा जाता कि उसमें तिल रखने की जगह नहीं थी, उसमें मन्त्रीजी न सिर्फ प्रवेश कर गये, बल्कि बिना किन्ही हाथों पर उठाये हुये अपने पाँवों पर चलकर दीवान तक पहुँच गये और बैठ भी गये।
''हाँ... बताइए!''
यह मन्त्रीजी का तकिया कलाम था। उन्हें जाननेवाले जानते थे कि इसका कोई मतलब नहीं है, इसलिए किसी ने कुछ नहीं बताया।
मन्त्रीजी ने दीवार पर पड़े तौलिए के टुकड़े से अपने चेहरे पर किसी काल्पनिक वस्तु को पोंछना शुरू कर दिया। कमरे में बैठे लोगों में से कुछ खाँसे-खँखारे, कुछ ने अपने शरीर के पृष्ठ भाग को हिला-डुलाकर यह सुनिश्चित किया कि वे हवा में लटके हुए नहीं हैं और फर्नीचर की श्रेणी में आनेवाली किसी वस्तु पर टिके हुए हैं। जिनके काम थे उन्होंने बेचारगी से अपने महँगे पैरोकारों की तरफ देखा और उन्हें तरह-तरह के इशारों से बोलने के लिए प्रेरित किया। मन्त्रीजी ने तौलिया वापस दीवान पर रखते हुए एक बार फिर कहा-
''हाँ...तो बताइए।''
किसी ने कुछ नहीं बताया।
थोड़ी देर तक कमरा निरर्थक बातों से गूँजता रहा। लोगों ने मन्त्रीजी को इलाके में बारिश के बारे में बताया, सड़कों की मरम्मत में होनेवाली देरी पर रोष व्यक्त किया, फसली कीड़ों के सम्बन्ध में अपने ज्ञान का आदान-प्रदान किया। मन्त्रीजी दिलचस्पी से सुनते रहे और बीच-बीच में अपनी भागीदारी जाहिर करने के लिए कुछ न कुछ बोलते भी रहे।
सभी जानते थे कि मन्त्रीजी दुनिया की तमाम चीजों में बिना दिलचस्पी के दिलचस्पी दिखा सकते थे। मन्त्रीजी भी जानते थे कि लोग यहाँ बारिशों, सड़कों या फसली कीड़ों पर बातें करने नहीं आये थे। वे बीच-बीच में टेक की तरह कहते रहे-
''और बताइए... साहब!''
किसी ने कुछ नहीं बताया और यह स्पष्ट हो गया कि कोई भी पहले कुछ नहीं कहना चाहता। सबको उम्मीद थी कि दूसरे चले जाएँगे और केवल वे रह जाएँगे तब अपनी बात अकेले में मन्त्रीजी से करने का मौका उन्हें मिलेगा और वे अपनी बात कहेंगे।
जाहिर था कि ऐसा समय आसानी से नहीं आनेवाला था।
मन्त्रीजी ने अपने बाएँ बैठे शख्स को देखा और मुस्कुराये। मन्त्रीजी के बाएँ बैठा शख्स भी मुस्कुराया। फिर मन्त्रीजी ने अपने दाएँ बैठे और सामने बैठे व्यक्तियों के लिए भी यही क्रिया सम्पादित की। उन्होंने भी 'कोई उधार नहीं रखना चाहिए' सिद्धान्त के अनुसार अपने दाँत दिखा दिये। फिर मन्त्रीजी ने कमलाकान्त वर्मा की तरफ देखा। कमलाकान्त पहले ही मुस्कुरा दिये, इसलिए मन्त्रीजी नहीं मुस्कुराए। वे उठे और इस छोटे कमरे से भी छोटे एक-दूसरे कमरे में चले गये। यह छोटा कमरा इस छोटे कमरे का अटैच बाथरूम था और नयी स्थापत्य कला के अनुरूप हर महत्त्वपूर्ण कमरे के साथ जुड़ा रहता था।
मन्त्रीजी ने जाते-जाते अपने शरीर के न जाने किस अंग से कौन सा इशारा किया कि उनके पीछे-पीछे कमलाकान्त भी उठकर दूसरे और छोटे कमरे में चले गये।
दरअसल इस खेल में वाणी से अधिक इशारों का महत्त्व था। कमलाकान्त पुराने खिलाड़ी थे, इसलिए वे एक साथ सामनेवाले के हाथ, नाक, आँख, कान, जिह्वा सब पर नजर रखते थे। मन्त्रीजी ने उठते-उठते अपने सिर को जैसे झटका और फिर हवा में फटकारा, उसे सिर्फ कमलाकान्त ही समझ सकते थे।
अन्दर वाश बेसिन और कमोड के बाद जो जगह बचती थी, वह बस इतनी थी कि उसमें कमलाकान्त और मन्त्रीजी एक-दूसरे से लगभग सटकर खड़े हो सकें। सामने के वाश बेसिन पर लगे शीशे में उनके चेहरे कुछ-कुछ विकृत से नजर आ रहे थे। इस कमरे में वे पहली बार कोई डील कर रहे थे, इसलिए कमलाकान्त को बीच-बीच में शीशे में देखकर लगता कि उनके अतिरिक्त भी कमरे में कोई है। वे थोड़ा सहम जाते पर मन्त्रीजी के लिए यह कमरा पुराना वार्तास्थल था इसलिए वे सहज ढंग से बात कर रहे थे।
दोनों वार्ताकारों के बीच वार्ता संक्षिप्त वाक्यों के रूप में फुसफुसाहट के साथ हो रही थी। अक्सर एक ही वाक्य बार-बार दोहराया जाता।
''मैं आपसे बाहर थोड़े हूँ। जो हुकुम देंगे हो जाएगा।''
''भाई जो मौके पर गायब हो जाय, उसका क्या भरोसा?"
''जो हुकुम देंगे हो जाएगा।''
''मौके पर गायब हो गये।''
''मैं आपसे बाहर थोड़े हूँ। जो हुकुम...।''
थोड़ी देर में छोटा गुसलखाना बाम्बे स्टाक एक्सचेंज में तब्दील हो गया। फर्क सिर्फ इतना था कि बोलियाँ ऊँचे स्वर की जगह नीचे स्वरों में लग रही थीं-
''पच्चीस।''
''नौ।''
''पच्चीस।''
''मैं आपसे बाहर थोड़े हूँ...चलें दस...।''
''बाईस।''
''जो हुक्म देंगे बाद में कर देंगे...दस इस बार।''
''इस बार बीस से कम नहीं।''
एक आवाज उत्तेजित होकर डाँट रही थी, दूसरी दीन स्वर में गिड़गिड़ा रही थी।
दोनों आवाजें एक-दूसरे को तौल रही थीं, परख रही थीं और दुकानदारी के सिद्धान्त के मुताबिक बेस्ट बारगेन करना चाह रही थीं।
अचानक उत्तेजित आवाज ने अपने हाथ को कुछ इस तरह से झटका जिसका मतलब यह भी हो सकता था कि उसने कोई मक्खी उड़ाने की कोशिश की है और यह भी कि गिड़गिड़ाती आवाज अब बाहर निकल जाय। कमलाकान्त ने मान लिया कि कोई मक्खी उड़ाई गयी है।
''बारह कर दें सर। अगली बार जो हुकुम देंगे हो जाएगा।''
''बीस से एक कम नहीं।''
मन्त्रीजी ने इस बार दुकानदारी का वह दाँव खेला जिससे कमलाकान्त एकदम चित होते-होते बचे। उन्होंने अपने पैरों और धड़ को इस तरह हिलाया कि वे अब चलनेवाले हैं। दुकानदारी का पुराना सिद्धान्त दोहराया गया कि लेना हो तो लो वरना हम दुकान बढ़ाते हैं। कमरे में इतनी जगह नहीं थी कि मन्त्रीजी कुछ कर सकते। पर उनका कदमताल कुछ ऐसा था कि लगा कि वे कमोड की तरफ बढ़ रहे हैं। उनका हाथ भी अपने पाजामे के नाड़े की तरफ जाने लगा तो कमलाकान्त घबराए। वे ड़रे कि कहीं मन्त्रीजी कमोड पर बैठ न जाएँ। उन्होंने घबराकर मन्त्रीजी को लगभग घसीट-सा लिया।
''एक मौका और दें सर...आपसे बाहर थोड़े हैं...बारह कर दें...फिर आगे और देख लेंगे।''
''अठारह से कम नहीं। नहीं देना है तो...''
मन्त्रीजी फिर कमोड की तरफ चले।
''चलो सर आपकी भी बात रह जाय और मेरे बच्चों के पेट पर भी लात न पड़े...पन्द्रह कर देते हैं।''
''आप भी इंजीनियर साहब बनियों की तरह बात करते हैं। चलिए सोलह ठीक है। इसके बाद तो मौके पर आप दिखाई नहीं देंगे।''
''हें...हें...हें...आप भी सर मजाक करते हैं। आपसे बाहर कब रहा मैं। वो तो...''
कमलाकान्त ने एक बार फिर भारतीय रेलों और रोडवेज की बसों को कोसना शुरू किया जिन्होंने पिछली बार चाहते हुए भी उन्हें मन्त्रीजी की सेवा का मौका नहीं दिया था। पर मन्त्रीजी ने हाथ से उन्हें बरज दिया।
कमलाकान्त ने सौदे की अन्य शर्तें, मसलन उन्हें कब तक तबादला रुकने का आदेश मिल जाएगा और बदले में तय राशि कहाँ पहुँचानी होगी, भी अभी तय करने की कोशिश की पर मन्त्रीजी को देर हो रही थी। बाहर बैठे लोगों को तरह-तरह की बातें बनाने का मौका मिल रहा था, इसलिए वे कमलाकान्त से यह कहकर कि वे शाम को उनकी कोठी पर आएँ, सचमुच कमोड की तरफ बढ़ गये।
कमलाकान्त सीधे सर उठाए छोटे कमरे से बाहर निकल आये। उन्हें इस तरह मन्त्रीजी के पीछे अन्दर जाते और फिर बाहर आते देखकर बैठे हुए लोगों ने ईर्ष्या से देखा। उनमें से कुछ ने उन्हें आदरपूर्वक नमस्कार भी किया, पर कमलाकान्त बिना दाएँ-बाएँ देखे बाहर आ गये।
बाहर चपरासी खड़ा था। कमलाकान्त ने इस बार फिर उसे दोनों लड़कों को पान खिलाने के लिए दस-दस के नोट दिये। चपरासी ने याद दिलाते हुए फिर बताया कि उसके एक लड़का और भी है। कमलाकान्त ने फिर जेब में हाथ डाला पर इस बीच बातचीत में चपरासी ने भेद खोल दिया कि रात में साहब की कोठी पर उसकी ड्यूटी नहीं है। कमलाकान्त ने जेब से हाथ निकाल लिया। वे कुछ फुसफुसाए। इसका परोक्ष मतलब चपरासी ने यह निकाला कि वह परले दर्जे का मूर्ख है। अगर कुछ देर बाद अपनी रात की ड्यूटी के बारे में बताता तो कमलाकान्त उसके तीसरे लड़के के पान का पैसा नहीं मारते।
चपरासी से निपटने के बाद कमलाकान्त ने पी.ए. की तलाश में निगाहें दौड़ायीं। पी.ए. बगल के कमरे में आज मिले हुए कागजों की छँटाई करके उन्हें अलग-अलग फाइलों में रख रहा था। उसके इर्द-गिर्द छोटी-सी भीड़ थी। ये वो लोग थे जिनके कागजों पर मन्त्रीजी ने आदेश तो लिख दिए थे, पर उन्हें विश्वास नहीं था कि कागज अपने गन्तव्य तक पहुँचेंगे। वे पी.ए. से अपने कागजों को लिफाफों में रखवा रहे थे और उन पर लिखे गये पतों को देखकर सन्तुष्ट हो रहे थे कि लिफाफे सही स्थानों पर पहुँच जाएँगे।
कमलाकान्त भीड़ में एक ऐसे स्थान पर खड़े हो गये जहाँ से पी.ए. के सर उठाने पर उनकी आँखें मिल सकती थीं।
पी.ए. ने कागजों का निस्तारण करते-करते सर उठाया और उसकी आँखें कमलाकान्त से टकरायीं। आँखों ने आपस में न जाने क्या संवाद किया कि पी.ए. ने एकदम से हड़बड़ाहट दिखाते हुए अपनी कुर्सी से उठने का प्रयास किया। आधा उठते-उठते वह वापस कुर्सी पर गिर गया। पर उसकी हड़बड़ाहट ने लोगों को अहसास करा दिया कि कमलाकान्त कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं। भीड़ ने थोड़ी जगह बना दी और कुर्सियों पर बैठे लोगों में से एक खड़ा हो गया।
''बैठें सर।''
कमलाकान्त बैठ गये।
''देख रहे हैं सर, दम मारने को फुसर्त नहीं है।''
''भई, सरकार तो आप लोगों के बल पर चल रही है। मन्त्री लोगों के पास समय कहा है,'' ...कमलाकान्त ने पिछले कई सालों से अलग-अलग पी.ए. लोगों के सामने कहा गया वाक्य फिर से दोहराया। हर पी.ए. की तरह यह पी.ए. भी खुश हो गया।
''अरे...नहीं सर। हम तो सेवक हैं, जो हुक्म होता है बजा लाते हैं।''
इस वाक्य के विरोध में एक साथ कई आवाजें उभरीं। जितने लोग अपने कागजों के इन्तजार में खड़े थे, सबने एक स्वर से घोषित किया कि सरकार तो पी.ए. साहब ही चला रहे हैं। मन्त्रीजी तो सीधे-सादे आदमी हैं, उनसे किसी कागज पर कुछ भी लिखवा लो। लिखा हुआ होता तभी है, जब पी.ए. साहब चाहते हैं।
पी.ए. ने फिर कुछ कहने का प्रयास किया, पर एक बुजुर्ग व्यक्ति ने उसे झिड़क दिया। जब उसने कहा तो पी.ए. को मानना पड़ा कि सरकार चलाने में उसका भी योगदान है।
बातचीत का नतीजा यह निकला कि पी.ए. की उँगलियाँ कुछ और तेज चलने लगीं।
''बस सर...थोड़े कागज रह गये।''
''नहीं-नहीं...आप आराम से निपटा लीजिए। मुझे कोई जल्दी नहीं है।''
कमलाकान्त आराम से कुर्सी पर पसर गये। उन्हें पता था कि उन्हें जल्दी हो भी तो कुछ नहीं किया जा सकता था। भीड़ में मौजूद ज्यादातर लोग मन्त्रीजी के चुनाव क्षेत्र के थे। पी.ए. उन्हें छोड़कर कमलाकान्त से बातें नहीं कर सकता था। ढंग से बातें करने के लिए भीड़ का छँटना भी जरूरी था।
थोड़ी देर में स्पष्ट हो गया कि भीड़ अनन्त समय तक समाप्त नहीं होगी। जितने लोग हटते थे उससे ज्यादा उसमें जुड़ते जा रहे थे।
अचानक पी.ए. उठा और कमरे के एक कोने में चला गया। उसने आवाज देकर भीड़ में से एक आदमी को अपने पास बुला लिया। कमलाकान्त समझ गये कि अब उन्हें बात करने में आसानी होगी।
दरअसल पी.ए. ने लोगों को निपटाने के काफी गुर मन्त्रीजी से सीखे थे। उसने किसी को एक कोने में निपटाया, किसी को दूसरे कोने में ले गया। कोई दरवाजे पर खड़ा-खड़ा निपट गया, किसी को उसकी कुर्सी से नहीं उठने दिया गया और वहीं उसका काम तमाम कर दिया। पी.ए. इस समय किसी मध्ययुगीन योद्धा की तरह विचरण कर रहा था। कमरा हल्दी घाटी या पानीपत जैसा कोई मैदान था और उसके आँख, कान, नाक और जुबान अस्त्र-शस्त्र की तरह चल रहे थे।
इस धमा-चौकड़ी में कमलाकान्त को भी अवसर मिल गया।
वे दोनों थोड़ी देर के लिए एक कोने में अवस्थित हो गये।
कमलाकान्त ने ऐसे मौके के लिए जेब में एक लिफाफा पहले से तैयार कर रखा था। उन्होंने सबसे पहले उसी को निकाला और पी.ए. की कमीज की ऊपरी जेब में उसे सरका दिया। उन्होंने पी.ए. को बताया कि वह उनसे उम्र में छोटा है और यह तो उनका हक है कि उसकी पत्नी को जो कमलाकान्त की बहू हुई, दीवाली पर साड़ी पहनाये। चूँकि वे जल्दी में साड़ी लाना भूल गये और औरतों को अपनी पसन्द की साड़ी खरीदने का मौका देना चाहिए, इसलिए वे साड़ी की कीमत दे रहे हैं। उन्होंने पी.ए. को यह भी बरजा कि लिफाफा सीधे बहू के हाथ में पहुँच जाना चाहिए। पी.ए. ने भी बताया कि उसकी पत्नी कितनी बार कह चुकी है कि भाई साहब बहुत दिनों से घर नहीं आये। इस बार मिलें तो जरूर आने को कहना। उसका बहुत मन उन्हें पकौड़ियाँ खिलाने का है। कमलाकान्त ने वादा किया कि अगली बार राजधानी आये तो जरूर पी.ए. के घर आएँगे और बहू के हाथ की गरमा-गरम पकौड़ियाँ खाएँगे।
कमलाकान्त ने बताया कि मन्त्रीजी ने तो हाँ कर दी है, पर अब आदेश निकलवाना तो पी.ए. के ही बस में है। शाम को वे मन्त्रीजी की कोठी पर पहुँच रहे हैं। पी.ए. ने माफी माँगी कि शाम को तो उसे किसी जरूरी काम से किसी और जगह जाना है। कमलाकान्त को अचानक कुछ याद आया। उन्होंने जेब में हाथ डालकर एक और लिफाफा निकाला। उनकी पत्नी को पी.ए. के लड़के की शरारतें खूब याद थीं। उन्होंने बच्चे को मोपेड खरीदने के लिए कहा था, पर कमलाकान्त को समय नहीं मिला इसलिए उसकी कीमत लिफाफे में रखकर ले आये थे। पी.ए. ने लिफाफा जेब में रखते हुए बताया कि लड़का भी आंटीजी को कितना याद करता है। बहरहाल कमलाकान्त जी का मसला है तो पी.ए. शाम को अपना काम छोड़कर भी मन्त्रीजी की कोठी पर पहुँच जाएगा। मन्त्रीजी रात दस वाली गाड़ी से बाहर जा रहे हैं, इसलिए कमलाकान्त आठ बजे तक कोठी पर आ जाएँ। पी.ए. वहीं मिलेगा।
इसके बाद सचिवालय नामक उस इमारत में करने के लिए कुछ नहीं बचा। वे बाहर निकल आये।
बाहर इमली के विशाल वृक्ष के नीचे बैंगनी रंग की पतलून, हरी कमीज और काले चश्मे में खड़े व्यक्ति ने उन्हें देखकर एक पीले रंग की रुमाल से अपना मुँह पोंछना शुरू कर दिया। हालाँकि वह इस गन्दी रुमाल से यह हरकत न भी करता तब भी कमलाकान्त वहीं जाते, पर चूँकि तय यही हुआ था और रंग-बिरंगी धजा वाला व्यक्ति बचपन में जासूसी फिल्मों का बेहद शौकीन था इसलिए उसने पूरी गम्भीरता से लाइन क्लीयर का इशारा किया।
''बोर तो नहीं हुए राय साहब! मन्त्रीजी ने...''
''श्श...श्श...'' लल्लनराय ने धीरे से उँगली होंठों पर रखी और एक तरफ को बढ़ लिये। इस बार उसकी गर्दन में एक भूरे रंग की रुमाल थी। इशारा साफ था। चप्पे-चप्पे पर दुश्मन के आदमी बिखरे हुए थे इसलिए वहाँ बात करना ठीक नहीं था।
कमलाकान्त ने अगल-बगल के दृश्य का जायजा लिया। इमली के दरख्त के नीचे खाद्य पदार्थों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर सेमिनार हो रहा था। छोले भटूरे से लेकर इडली डोसा और रसगुल्ला से लेकर फ्रूट सलाद जैसे देश के विभिन्न भागों में पाये जानेवाले व्यंजन उस वृक्ष की छाया तले परोसे जा रहे थे। राष्ट्र की सार्वभौमिक उपस्थिति मक्खियाँ, धूल और पेड़ पर बैठे पक्षियों की बीट इन खाद्य पदार्थों में प्रचुर मात्रा में थीं। इन सारे पकवानों को भकोसने के लिए बाबू, चपरासी, नेता, दलाल और याचक थोक में थे और बेचने के लिए गन्दगी और मुनाफा ही जिनके जीवन का परम लक्ष्य है, ऐसे दुकानदार थे। इनमें दुश्मन के जासूस कौन हैं, यह जानना कमलाकान्त के लिए थोड़ा मुश्किल था। वे यह जरूर जान गये कि इनमें से दुश्मन का जासूस कौन नहीं है। सामने एक आदमी उलटा अखबार इस तरह से पढ़ रहा था कि उसका आधा चेहरा छिपा रहे। उसने उन्हें देखकर अखबार अपनी नाक तक चढ़ा लिया। कमलाकान्त समझ गये कि उलटा अखबार पढ़ने वाला आदमी ध्रुवलाल यादव है।
मामला काफी रहस्यमय था। आगे-आगे भूरा रुमाल गर्दन में डाले लल्लनराय, उनसे दस कदम पीछे कमलाकान्त और उनसे दस कदम पीछे ध्रुवलाल यादव-लगभग पचास गज आगे जाकर सचिवालय के गेट के बाहर निकलते हुए लल्लन राय एक गली में मुड़ गया। जिस जगह गली खत्म होती थी वहाँ की दीवारों पर उदारता के साथ मूत्र विसर्जन किया गया। वहाँ से आगे जाने की गुंजाइश नहीं थी इसलिए लल्लन राय खड़े हो गये। धीरे-धीरे कमलाकान्त और ध्रुवलाल भी करीब आकर खड़े हो गये। लल्लन राय ने भूरी रुमाल जेब में डाली, काला चश्मा आँखों से उतारकर पोंछा और फुसफुसाते हुए दो-तीन वाक्य कहे। इन वाक्यों के अनुसार इस बार बड़े शातिर दुश्मन से पाला पड़ा है। चप्पे-चप्पे पर फैले उसके आदमी उन पर निगाहें रखे हुए हैं। दुश्मन का कोई एजेंट यहाँ पर भी पेशाब करके गया है और उन्हें फौरन इस इलाके से निकल भागना चाहिए और रेलवे स्टेशन के गेट नं.3 पर मिलना चाहिए। इसके बाद लल्लन राय वापस मुड़े और तेज कदमों से वापस चल दिये। उनका चश्मा उनकी आँखों पर था और गर्दन पर नीली रुमाल आ गयी थी। उनके पीछे-पीछे शेष दोनों भी गली से निकल भागे।
स्टेशन की चाय की दुकान पर लल्लन राय और ध्रुवलाल ने जो सूचनाएँ दीं उनमें से कुछ कमलाकान्त के लिए निराशाजनक थीं और कुछ उत्साहवर्द्धक। पहली सूचना यह थी कि अपने खेमे का एक सिपहसालार पाला बदलकर दुश्मन के पाले में चला गया है। रिजवानुल हक ने पहले दिन ही ऋषभचरण शुक्ल के घर कबाब भिजवाए और दूसरे दिन दफ्तर खुलने के पहले सुबह-सुबह ऋषभचरण उसे बटुकचन्द के यहाँ लेकर गया था।
''जाने दो स्साले को...,'' कमलाकान्त ने कहा, ''एक बार तबादला रुकने के बाद मुर्ग-मुसल्लम लेकर इधर आ जाएगा।''
दूसरी सूचना अच्छी थी। उन दोनों ने मंत्री जी के पी.ए. कौशिक के घर का पता मालूम कर लिया था।
कमलाकान्त ने इतनी महत्त्वपूर्ण खोज के लिए लल्लन राय की पीठ थपथपाई। फिर उन्होंने उन्हें बताया कि किस तरह से मन्त्रीजी की आँखें उन्हें देखते ही भर आयीं और कितनी देर तक वे उनका हाथ थामे बैठे रहे। जब उन्होंने कहा कि वर्माजी आपका तबादला तो धोखे में हो गया, बदमाश बटुकचन्द ने उनसे झूठ बोलकर फाइल पर दस्तखत करवा लिया तो उनकी आँखें टपटप चूने लगीं। मन्त्रीजी तो उसी समय तबादला रोकने का आदेश टाइप करा रहे थे, पर वो तो टाइपराइटर में कुछ गड़बड़ी आ गयी। आज रात मन्त्रीजी ने कोठी पर बुलाया है, वहीं आदेश की कॉपी मिल जाएगी।
''तब तो गुरुजी हो जाय आज...'' लल्लन राय ने किलकारी मारी। खबर ने उन्हें गुरु-गम्भीर जासूस से वापस दलाल पत्रकार बना दिया। उनकी इच्छा थी कि जब किला फतेह हो ही गया है तो फिर जश्न भी लगे हाथ मना ही लिया जाय। वे राजधानी में इस तरह के कामों के सिलसिले में आते रहते थे इसलिए यह भी जानते थे कि किस स्तर पर जश्न कहाँ मनाया जाता है। उन्होंने दो-तीन होटलों का नाम लिया पर कमलाकान्त ने उन्हें निरुत्साहित कर दिया। मन्त्रीजी आज ही दौरे पर निकल जाएँगे इसलिए उन्हें फौरन उनकी कोठी पर पहुँचना था।
लल्लन राय और ध्रुवलाल यादव भी आदेश हस्तान्तरण की प्रक्रिया के चश्मदीद गवाह बनना चाहते थे, पर कमलाकान्त की राय थी कि दुश्मन बड़ा चौकन्ना है। पूरे शहर में उसके एजेंट बिखरे हुए थे। जरूरी था कि लल्लन राय और ध्रुवलाल जैसे मँजे हुए जासूस शहर का चक्कर लगाते हुए होटल पहुँचे। वे सीधे मन्त्रीजी की कोठी जा रहे हैं। वहाँ से आदेश लेकर होटल आ जाएँगे।
इसके बाद लल्लन राय ने काला चश्मा आँखों पर चढ़ाया, अपने रंग-बिरंगे रुमालों को तह करके जेब में रखा और एक रिक्शे पर बैठ गये। ध्रुवलाल यादव ने भी एक अखबार खरीदा और दूसरे रिक्शे पर बैठकर उसे उलटा पढ़ने लगे। जैसा कि तय था कमलाकान्त वर्मा ने मन्त्रीजी की कोठी के लिए एक तीसरा रिक्शा तय कर लिया।
कमलाकान्त मन्त्रीजी की कोठी पर जब पहुँचे तो वहाँ सिर्फ इतने लोग थे कि आसानी से उसे वीरान कहा जा सकता था। दरअसल इस कोठी की रौनक या वीरानी से ही पता चलता था कि मन्त्रीजी अन्दर कोठी में विराजमान हैं या कहीं बाहर गये हुए हैं। चमचों, मुलाकातियों, काम करानेवालों की एक भीड़ थी जो मन्त्रीजी के कोठी में प्रवेश करते ही न जाने कहाँ से पाँच-सात मिनट के अन्दर प्रकट हो जाती थी। इसी तरह मन्त्रीजी की कार कोठी के बाहर निकलती और यह भीड़ फिर यकायक किसी अदृश्य कोटर में समा जाती। कोठी सूनी पड़ी थी, इसका मतलब मन्त्रीजी अभी नहीं आये थे।
गेट पर एक सन्तरी अपने चेहरे पर महा ऊब का भाव लिये खड़ा था। उसे पार करने के बाद एक माली फुलवारी में काम करता दिखाई दिया। दिन-भर की थकान के बाद वे कहीं बैठकर सुस्ताना चाहते थे। बरामदे में कुछ कुर्सियाँ पड़ी थीं। वे उधर ही बढ़ गये।
कुर्सी पर एक चपरासी उनींदा-सा बैठा था। उसने आँखें आधी खोलकर कमलाकान्त की तरफ देखा। कमलाकान्त ने भी लापरवाही दिखाते हुए उसे तौला। आदमी काम का नहीं लगा इसलिए उन्होंने उसके बच्चों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और मन-ही-मन प्रसन्न हुए कि उनके अन्दर की जेब में पड़े लिफाफों में एक कम होने से रह गया।
यह एक बड़ी सी कोठी थी जिसमें बहुत सारे कमरे थे, बहुत बड़ा लॉन था, पीछे ढेर सारे सर्वेंट्स क्वार्टर थे। लोगों को इसकी ताकत का अहसास था इसलिए वे छोटे या बड़े समूहों में इसके गलियारों, बरामदों और कमरों में फुसफुसाकर बातें करते थे। यहाँ ठठाकर हँसने पर कोई पाबन्दी तो नहीं थी, पर ठठाकर हँसा तभी जाता था जब कोठी का मालिक ठठाकर हँसता था। ज्यादातर अहम फैसले यहाँ होते थे इसलिए समझदार लोग सचिवालय नहीं जाते थे। वे केवल मन्त्रीजी के मूड, उपलब्धता, भीड़-भाड़ या मित्रों-शत्रुओं की उपस्थिति जैसे कारकों का पता करते रहते थे और सही समय पर सही चोट करने के इरादे से यहाँ प्रकट हो जाते थे।
इस कोठी में रहनेवाले बदलते रहते थे। कई बार यह बदलाव बड़ी जल्दी-जल्दी होता था और कई बार सालो-साल एक ही व्यक्ति इसमें रहता चला जाता। हर परिवर्तन के साथ कोठी के पर्दे और फर्नीचर बदल जाते। जैसे ही नया व्यक्ति इस कोठी में रहने के लिए आता, वहाँ पहले रहे लोगों की कुरुचि और चयन पर नाक-भौं सिकोड़ता। सरकार का एक विभाग इन कोठियों की देखभाल करता था। उसका बड़ा अफसर पहुँचकर नये रहनेवाले को बताता कि कोठी के कालीन, पर्दे या फर्नीचर उसकी पसन्द और हैसियत से बहुत नीचे दर्जे के हैं। कोठी को तुरन्त नये सामान की जरूरत है। कोठी का नया मालिक फौरन इससे सहमत हो जाता। देखभाल करनेवाले विभाग के अफसर नये मालिक की पत्नी को बाजार ले जाते और उसकी पसन्द के सोफे और कालीन खरीदे जाते। पर्दे के कपड़े और सोफों के कवर दर्जी को सिलने के लिए दिये जाते।
इस पूरी कार्यवाही का एक अंग यह भी था कि अगले कुछ दिनों तक अखबारों में छपता रहता कि अमुक मन्त्री ने अपनी कोठी और दफ्तर को सजाने में जनता की गाढ़ी कमाई का कितने लाख रुपये कितनी बेदर्दी के साथ खर्च किया। यह जानकारी उन्हें देखभाल करनेवाले विभाग से ही मिलती थी। बहुत सारे लोगों को कोठियों में नये मालिकों के आने की जानकारी भी इसी खबर से मिलती थी। ये खबरें इतने नियमित रूप से छपती थीं कि मौसम विभाग की बुलेटिनों की तरह लोग इन्हें गम्भीरता से नहीं लेते थे।
फर्नीचर के साथ-साथ कोठियों के चपरासी, पी.ए. और मुलाकाती भी नये मालिकों के साथ बदल जाते। जुटनेवाली भीड़ की बोली और लतीफों को सुनकर बताया जा सकता था कि कोठी में रहनेवाला किस क्षेत्र का है। कुछ मामलों में जनतन्त्र ने एकरूपता पैदा कर दी थी। मसलन हर क्षेत्र का दलाल कुर्ता-पाजामा पहनने लगा था, हर विभाग का अफसर पैंट-कमीज पहनता था और हर क्षेत्र का किसान मुड़ा-तुड़ा कुर्ता और फटी बनियान पहनता था तथा मन्त्री के सामने अपनी दरखास्त रखते समय हकलाता था।
इस कोठी में रहनेवाला भोजपुरी क्षेत्र का था, इसलिए हर तीसरा आदमी खैनी मलता हुआ दिखाई दे जाता था। कमलाकान्त के बगल में बैठे चपरासी ने अपनी हथेली पर रगड़कर खैनी मली और दो-तीन बार ताली बजाने के अन्दाज में अपने दाएँ हाथ को बाएँ पर मारा तो हवा में तैरते हुए तम्बाकू के कणों ने कमलाकान्त को चैतन्य कर दिया। चपरासी ने रगड़ने के बाद अपना बायाँ हाथ उनके सामने बढ़ा दिया। कमलाकाप्त घबराये कि कहीं उन्हें लेना न पड़े। उन्होंने झट से अपनी आँखें बन्द कर लीं और तब तक सोते रहे जब तक उन्हें विश्वास नहीं हो गया कि चपरासी ने पूरी खैनी दाँतों के बीच दबा ली होगी। एक बार वे फँस चुके थे। उनके विभाग के एक पुराने मन्त्री खैनी खाने के इतने शौकीन थे कि उनका पी.ए. हर दस-पन्द्रह मिनट बाद खैनी बनाकर लाता और उनके सामने पेश करता। वे फिर वहाँ मौजूद हर व्यक्ति के सामने खैनी बढ़ा देते। उनका मानना था कि अगर कोई मर्द खैनी नहीं खा सकता तो उसकी मर्दानगी को धिक्कार है। ऐसे मर्दों के बारे में उनके पास बहुत सारे लतीफे थे, जिन्हें वे खूब खुलकर सुनाया करते थे। इन लतीफों पर सबसे ज्यादा खैनी न खानेवालों को हँसना पड़ता था। एक बार कमलाकान्त का काम इतना बड़ा था कि उन्होंने भी खैनी खा ली। काम तो हो गया, पर काफी देर तक वे उन मन्त्रीजी के लतीफे सुनकर रोते रहे। उनका सर चकरा रहा था और अपने ऊपर पूरा नियन्त्रण रखने की कोशिश करते-करते अन्त में वे भी मन्त्रीजी और उनके चमचों की तरह भव्य सरकारी कालीन पर पिच्च-पिच्च करके थूकने लगे।
बहरहाल खतरा टल चुका था, इसलिए कमलाकान्त ने अपनी आँख खोल दीं। वे अनमने से उस चपरासी को देखते रहे जो खैनी मुँह में दबाकर फिर ऊँघने लगा था। अचानक उन्होंने देखा कि की मूँछों का बायाँ हिस्सा कुछ फरफराया, फिर दाहिने हिस्से ने भी वैसी ही हरकत की। उसने अपनी आँखे खोलीं और तेज-तेज साँसें लीं। जंगल में जैसे जानवर हवा सूँघकर विपत्ति का अन्दाज लगा लेते हैं, कुछ-कुछ वैसी ही प्रतिक्रिया थी उसकी। उसने सुस्त, आलस्य में डूबे चौपाए की तरह अपनी देह तोड़ी और एकदम से खड़ा हो गया।
कमलाकान्त समझ गये मन्त्रीजी आनेवाले हैं।
चपरासी की ही तरह प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग लोगों की थीं।
सन्तरी अचानक चौकन्ना हो गया और किसी काल्पनिक गाय को हाँकने लगा।
माली ने एकदम से लॉन में खरपतवार तलाश लिये और यह निश्चय उसने थोड़े ऊँचे शब्दों में व्यक्त कर दिया कि आज उन्हें उखाड़कर ही दम लेगा चाहे आधी रात क्यों न हो जाय।
कोठी के आहाते में न जाने कहाँ से भीड़ नजर आने लगी।
कमलाकान्त भी बरामदे से निकलकर लॉन में आ गये और ऐसी जगह पर खड़े हो गये जहाँ मन्त्रीजी की नजर कार से उतरते समय सीधे उन पर पड़े।
इस कोठी के लिए यह आम बात थी। जानकार लोग हवा को सूँघकर बता सकते थे कि अब मन्त्रीजी आनेवाले हैं। पूरे शहर में फैले हुए दलालों और दरखास्तियों को पता चल जाता था कि मन्त्रीजी कोठी पर पहुँचनेवाले हैं। उनके पहुँचने के चन्द मिनट पहले एक कार रुकती और उससे कुछ दलाल उतरते। फिर कुछ रिक्शे रुकते और कुछ छोटे दलाल और मुलाकाती उतरते। मुलाकाती रिक्शे का किराया चुकाते और दलाल झपटते हुए गेट के अन्दर चले जाते। फिर कुछ और कारें आतीं। बड़े दलाल सन्तरी को डपटकर कार अन्दर ले जाने की कोशिश करते। जिनके अरदब में सन्तरी आ जाता वे अन्दर कार समेत चले जाते और जिनके रोब में सन्तरी नहीं आता वे कार बाहर सड़क पर आड़ी-तिरछी लगाकर अन्दर भागते। उन्हें सिर्फ यह देखना होता कि कार इस तरह खड़ी की जाय कि सड़क पर आनेवाला ट्रैफिक जरूर बाधित हो।
इस पूरे दृश्य में गति का विशेष महत्त्व होता। लोग भागते हुए आते और अन्दर घुस जाते। धीमी रफ्तारवाले रिक्शों के रुकते-रुकते उनका धैर्य समाप्त हो जाता और जिसका काम होता उसे छोड़कर दौड़ते हुए अन्दर चले जाते। जिसका काम होता वह भी रिक्शेवाले को पैसा देकर अन्दर भागता। अन्दर लोग लॉन से भागकर मुलाकातियों के कमरे तक जाते, फिर वहाँ से भागकर गेट पर आ जाते। लोगों ने यह समझ लिया था कि अगर देश को तरक्की करनी है तो तेज गति से चलना होगा।
इस बीच अचानक एक कार लाल बत्ती बुझाती तेज रफ्तार से गेट पर पहुँचती। सन्तरी तेजी से गेट खोलते और कार बाहर से भी तेज गति से अन्दर घुसती। पोर्टिको में पहुँचकर ड्राइवर जोर से ब्रेक मारता और लोग आश्वस्त हो जाते कि मन्त्रीजी आये हैं। एक चपरासी कूदकर अगली सीट से उतरता और फुर्ती से पिछला दरवाजा खोलकर खड़ा हो जाता। मन्त्रीजी भी तेजी के साथ उतरकर अन्दर की तरफ लपकते। अगर कोई विदेशी, जो इस माहौल से पूरा अपरिचित हो, इस दृश्य को देखता तो यही समझता कि देश के सामने कोई गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है और अन्दर किसी आपातकालीन काउंसिल की बैठक होनेवाली है और अगर फौरन मन्त्रीजी वहाँ नहीं पहुँचे तो कोई महत्त्वपूर्ण फैसला अधर में लटका रह जाएगा।
यह बात और है कि इस विदेशी को हैरत होती, जब वह देखता कि इतनी तेज रफ्तार से आने के बाद मन्त्रीजी अपनी बैठक के मध्य में स्थित सोफे पर पलथी मारके बैठ गये हैं और आराम से दो गिलास ठंडा पानी पीने के बाद मुलाकातियों की भीड़ से घिरे हुए बिना किसी हड़बड़ाहट के तबादलों, कोटा परमिटों और ठेकों की दरखास्तों पर आदेश लिख रहे हैं।
आज भी यही हुआ। जैसे ही मन्त्रीजी की कार पोर्टिको में पहुँची और झपटते हुए चपरासी ने दरवाजा खोला, कमलाकान्त ने अपने को ऐसे स्थान पर केन्द्रित करने की कोशिश की जहाँ से मन्त्रीजी को उतरते ही सीधे वे दिखाई दे जाएँ। पर उनकी यह छोटी-सी इच्छा पूरी होने के पहले रौंद दी गयी। रौंदनेवाले पाँव उनके इर्द-गिर्द ही स्थित थे, पर कार रुकते-रुकते वे सब लपककर उसके चारों तरफ इस तरह खड़े हो गये कि मन्त्रीजी की तेजी को बरकरार रखने के लिए उनके सुरक्षाकर्मियों को धक्कम-धुक्का करनी पड़ी।
मन्त्रीजी को यह धक्कम-धुक्की पसन्द थी। यदि किसी दिन उनके कार के रुकने पर भीड़ उनकी कार के दरवाजे पर धक्का-मुक्की नहीं करती तो वे उदास हो जाते। उन्हें लगता कि उनके जाने के दिन करीब आ गये हैं। उनके सुरक्षाकर्मी इसे जानते थे इसलिए इक्का-दुक्का लोगों को भी खींच-खींचकर हटाते और मन्त्रीजी के रास्ते से काल्पनिक भीड़ को हटाने के लिए हाथ-पैर चलाते।
आज भी मन्त्रीजी भीड़ के बीच से धक्कम-धुक्की करते हुए अपनी बैठक की तरफ बढ़े। चालीस-पचास आदमियों की भीड़ में हर कोई अपना चेहरा दिखाने को बेताब था। लोगों के हाथों में दरखास्तें लहरा रही थीं। कुछ के हाथों में मालाएँ भी थीं। कुछ लोग पैर छूने के लिए लपक रहे थे। चपरासियों और सुरक्षक्र्मियों ने कुछ लोगों को कालर पकड़कर पीछे खींचा, कुछ को कुहनियों से रगेदा और हाथों का घेरा बनाकर मन्त्रीजी को बरामदे की तरफ ले चले। सब कुछ इतना अस्त-व्यस्त था कि मन्त्रीजी प्रसन्न हो गये और एक चौड़ी मुस्कान उनके चेहरे पर चिपक गयी।
कमलाकान्त की समझ में आ गया कि वहाँ खड़े-खड़े कुछ होनेवाला नहीं था, अतः वे भी घिसटते हुए भीड़ का भाग बन गये।
अन्दर बैठक में सचिवालय वाला नाटक शुरू हो गया था। मन्त्रीजी एक दीवान पर पालथी मारकर बैठ गये। बड़े से कमरे में कई सोफासेट और कुर्सियाँ पड़ी थीं। लोगों ने उनकी क्षमता का इम्तेहान लेना शुरू कर दिया। हर कुर्सी के बेंत पर एक आदमी और हत्थों पर दो-दो लोग लटके हुए थे। सोफों की स्प्रिंग से महीन रुदन की स्वर-लहरियाँ बीच-बीच में उठ रही थीं और कई बार तो ऐसा लगता कि कोई कुर्सी या सोफा दोहत्थड़ मारकर रोया हो।
मन्त्रीजी जिस दीवान पर बैठे थे उसके सामने एक फर्श पर कालीन पूरी तरह से भर गयी थी। इस पूरी भीड़ का मकसद एक ही था। हवा में लहराते टाइप किये या हाथ से लिखे फुलस्केप कागज किसी तरह मन्त्रीजी के हाथों तक पहुँचाना, मन्त्रीजी के कागज पढ़ने के प्रयास को हाल में गूँज रही आवाजों के बीच चिल्लाकर अपनी आवाज से मदद करना और उनसे कागज के हाशिए पर कुछ लिखवाकर पी.ए. की तलाश में बाहर लपकना। इस मकसद को पूरा करने के लिए वे जो कुछ कर रहे थे उसे किसी बाहरी मुल्क में टिकट लगाकर सर्कस की तरह भी दिखाया जा सकता था।
होता कुछ ऐसे कि जैसे ही मन्त्रीजी के हाथ से एक कागज सरकता, सामने बैठे लोगों में से तीन-चार एक साथ उठकर उनकी तरफ लपकते। इनके अलावा सोफों पर बैठे लोगों में से कुछ यही हरकत करते। बीच में बैठे खड़े लोगों के हाथों-पैरों की उँगलियों का जम्पिंग प्लेटफार्म की तरह इस्तेमाल करते हुए वे जिस तरह मन्त्रीजी के सामने पहुँचते उसे हवा में तैरने से लेकर रस्सी पर चलने तक कुछ भी नाम दिया जा सकता था।
एक कागज मन्त्रीजी के हाथों में पहुँच जाता। दूसरे कागजवाले दाहिने-बाएँ झुककर खड़े हो जाते। एक-दो सामने ही उकड़ूँ बैठ जाते। अक्सर यह अन्दाज लगाना मुश्किल होता कि कागज किसका है। अगर मन्त्रीजी की कलम रुकते ही कागज का मालिक झपटकर उसे छीन न लेता तो ज्यादा उम्मीद यही थी कि उसे मन्त्रीजी सामने उकड़ूँ बैठे किसी को थमा देते।
कमलाकान्त ऐसे स्थान की तलाश में लग गये जहाँ खड़े होने पर मन्त्रीजी से उनकी आँखें टकरा सकें। जल्दी ही उन्हें ऐसी जगह मिल भी गयी। वे खुश हो गये। पर उनकी खुशी इस नश्वर संसार की तरह क्षणभंगुर रही। किसी निष्ठुर नायिका की तरह मन्त्रीजी की आँखें उनकी आँखों से टकरायीं जरूर और उन्होंने हर बार दिलफेंक नायक की तरह अपने पूरे दाँत दिखा दिये, पर उन निर्दयी आँखों में परिचय की कौंध एक बार भी नहीं लपकी। वे दुखी हो गये। उन्हें हिन्दी फिल्मों के नायकों की तरह एक कामेडियन की सख्त जरूरत थी जो उन्हें नायिका के अन्तःपुर तक पहुँचा सके। उन्होंने चारों तरफ तलाशती निगाहें दौड़ायीं। उनका कामेडियन कहाँ गया?
वे बाहर बरामदे में आ गये। जिस पी.ए. के बीवी-बच्चों के लिए वे इतना चिन्तित थे, वह कमबख्त कहीं नहीं दिख रहा था।
उन्होंने पूरी कोठी का चक्कर लगाया। ज्यादातर लोग अन्दर बैठक में ठुँसे हुए थे। बाहर कार के पास कुछ चपरासी और सिपाही खड़े थे। कार में सामान रखा जा रहा था। उन्हें ध्यान आया कि मन्त्रीजी को रात में ही बाहर जाना है। समय बहुत कम था। उन्होंने चारों तरफ देखा।
''अपने कौशिक साहब कहाँ मिलेंगे?"
जिस चपरासी के कन्धे पर हाथ रखकर उन्होंने पूछा था, उसने पिच्च से जमीन पर थूक दिया।
कमलाकान्त घबराकर उछल पड़े। वही चपरासी था जिसके बीवी-बच्चों का हाल उन्होंने नहीं पूछा था। उन्होंने उस कुघड़ी को कोसा जब उनके मन में एक लिफाफा बचाने की बात आयी थी। यह मौका नहीं था जब वे उसके बच्चों के बारे में सोचते। उन्होंने फिर चारों तरफ देखा। वे प्रसन्न हो गये। वह चपरासी भी वहीं था, जिसके दो लड़कों को पान खाने के लिए कमलाकान्त ने दिन में सचिवालय में दस-दस रुपये दिये थे। यद्यपि कमलाकान्त ने उसके तीसरे लड़के के लिए कुछ नहीं किया था, पर आदमी शरीफ निकला। उसने तरस खानेवाली मुस्कान के साथ कहा-
''कौशिक बाबू पीछे वाले बरामदे में हैं।''
कमलाकान्त पीछे की तरफ लपक लिये। कोठी कुछ इस तरह बनी थी कि इसके चारों तरफ बरामदे थे।
बरामदों की भूल-भूलैया में कमलाकान्त कौशिक बाबू नामक उस पी.ए. को तलाश रहे थे जिसे तेजी के साथ घट रहे इस नाटक में विदूषक का रोल अदा करना था और उनका लगभग बिगड़ चुका काम फिर से बनवाना था। समय कम था और मन्त्रीजी कभी भी अपनी गाड़ी में बैठकर हवाई अड्डे के लिए फुर्र हो सकते थे।
कमलाकान्त लगभग दौड़ने लगे। बरामदों में भी लोग खचाखच भरे थे। ये वे लोग थे जिन्हें अभी अन्दर मन्त्रीजी के कमरे में जाने की जरूरत नहीं थी। बीच-बीच में उनमें से कुछ अन्दर जाकर मन्त्रीजी को अपनी सूरत दिखा आये थे। ये लोग चार-चार, पाँच-पाँच के झुंड में खड़े होकर फुसफुसाने के उस अन्दाज में बातें कर रहे थे जिसमें यदि सौ गज से अधिक आवाज न पहुँचे तो उसका शुमार फुसफुसाहट में कर लिया जाता है। मन्त्रिमंडल में परिवर्तन होनेवाला था जिसमें मन्त्रीजी को अधिक महत्त्वपूर्ण विभाग मिल सकता था, मन्त्रीजी ने अपने सचिव को कमरे में बन्द कर उस पर चप्पल निकाल ली थी, बहुत सारे तबादले थे जिनके आदेश मन्त्रीजी ने कर दिये थे, पर नौकरशाही उन्हें जारी नहीं कर रही थी, मन्त्रीजी के जिले का पुलिस कप्तान उनके कार्यकर्ताओं को आपस में लड़ाने की चाल चल रहा था...आदि-आदि।
कमलाकान्त को ये सब बातें निस्सार लग रही थीं। दाँत दर्द के रोगी की तरह उनका ध्यान दुनिया की किसी चीज पर नहीं था। लोगों से बचते-टकराते उन्होंने अपने संकटमोचक को तलाश ही लिया।
कौशिक बाबू एक खम्भे की आड़ में दो लोगों से बातें कर रहे थे और उनकी बातें सचमुच फुसफुसाहट की ही सीमा में आती थीं। कमलाकान्त उनसे लगभग सट गये थे, लेकिन कुछ सुन नहीं पा रहे थे। कौशिक बाबू ने आँखों से उन्हें बरज न दिया होता तो अब तक वे उनके बीच में घुस गये होते। खड़े-खड़े उनका धैर्य जवाब देने लगा। उन लोगों की फुसफुसाहट खत्म ही नहीं हो रही थी।
''अच्छा...'' कौशिक बाबू ने ऐसे कहा जैसे मक्खी उड़ा रहे हों और फिर फुसफुसाने लगे।
कमलाकान्त को लग रहा था कि दिन-भर की उनकी मेहनत पर पानी फिर गया। एक बार मन्त्रीजी निकल गये तो फिर से पूरी कवायद करनी पड़ेगी।
बरामदों में खड़े लोगों में कुछ हलचल हुई। कमलाकान्त रुँआसे हो गये, ''साहब निकल रहे हैं।''
''अभी कैसे निकलेंगे?" कौशिक बाबू नामक उनके संकटमोचक ने फिर बरजा।
''जहाज का टाइम हो गया,'' कमलाकान्त मिनमिनाये।
''जहाज का कोई टाइम नहीं होता। जब मन्त्रीजी पहुँचेंगे तभी उसका टाइम होगा।''
इसका कोई जवाब कमलाकान्त के पास नहीं था। वे तब तक असहाय से खड़े रहे जब तक सामने चल रही फुसफुसाहट ऊँचे स्वर में 'नमस्ते...मिलते रहिए...काम हो जाएगा...निशाखातिर रहिए...' जैसे आश्वस्ति कारक शब्दों में बदल नहीं गयी।
''आइए। कहाँ रह गये थे आप अब तक?"
कमलाकान्त ने मिमियाते हुए यह बताने की कोशिश की कि वे शाम से अब तक क्या कर रहे थे, लेकिन उनके आगे लपके जा रहे कौशिक बाबू तब तक उस कमरे के द्वार से अन्दर घुस गये जिसमें मन्त्रीजी का दरबार अपने अन्तिम सोपान तक पहुँच गया था।
मन्त्रीजी खड़े हो गये थे और कमरे में भरे हुए लोगों ने उनके लिए रास्ता बनाना शुरू कर दिया था। यह रास्ता बनाना इस तरह था जिसमें हर आदमी दूसरे को बगल से धकियाता हुआ स्वयं को मन्त्रीजी के सामने पेश कर दे रहा था। इस धकापेल में मन्त्रीजी दो कदम आगे और एक कदम पीछे चल रहे थे। साथ-साथ वे कागजों पर दस्तखत करने से लेकर अपना पैर छूनेवालों को आशीर्वाद देने तक का काम करते जा रहे थे।
कौशिक बाबू बगल में पहुँच गये। मन्त्रीजी ने उन्हें देखा और उन्हें याद आया कि उन्हें जहाज पकड़ना है।
''कौशिकजी आप मेरा जहाज छुड़वाएँगे। अभी तक कहाँ थे?"
''नहीं सर, अभी तो काफी समय है। सामान गाड़ी में रख दिया गया है।''
''भाई मुझे हड़बड़ाहट पसन्द नहीं है। बाद में अखबारवालों को मसाला मिलता है कि मेरी वजह से जहाज लेट हो गया।''
''जहाज जनता का है। आप भी जनता का काम रहे हैं। थोड़ा इन्तजार कर लेगा तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा।''
''नहीं भाई। मुझे यह सब पसन्द नहीं है। मेरे आदर्श तो पंडित नेहरू रहे हैं-समय की पाबन्दी कोई उनसे सीखे...।''
कौशिक को पता था कि मन्त्रीजी अब कौन-सा किस्सा सुनाएँगे। मन्त्रीजी के पास अलग-अलग विषयों के अलग-अलग किस्से थे। उसे इतना समय मन्त्रीजी के साथ हो गया था कि वह मन्त्रीजी के भूल जाने पर खुद किस्से याद दिला देता था। आज भी मन्त्रीजी बताते रहे कि कैसे एक बार फलाँ शहर की मीटिंग में उन्होंने कलाई पर बँधी घड़ी में समय देखा तो उन्हें घड़ी बन्द मिली। पंडितजी के आने का समय हो गया था। उन्होंने किसी से सही समय नहीं पूछा। जैसे ही पंडितजी मंच पर चढ़े उनके घोषित समय से मन्त्रीजी ने अपनी घड़ी मिला ली।
कौशिक मुग्ध भाव से यह किस्सा सुनता रहा। उसने सिर्फ तीन सौ सत्तरहवीं बार मन्त्रीजी को याद दिलाया कि मीटिंग खत्म होने के बाद पंडितजी को उन्होंने यह वाक्य सुनाया तो वे खूब ठठाकर हँसे थे। मन्त्रीजी ने प्रशंसात्मक नजरों से उसकी तरफ देखा और खुलकर हँसे। उनके इर्द-गिर्द खड़े खुशामदी, मुलाकाती और फरियादी भी मुक्त कंठ हँसे। लोग भूल गये कि मन्त्रीजी को हवाई जहाज पकड़ना है और उन्हें देर हो रही थी।
इसके बाद जो कुछ हुआ, पलक झपकते हुआ और इस खेल के माहिर जानते थे कि ऐसा सिर्फ कौशिक ही कर सकता था इसीलिए मन्त्रीजी पिछले बीस वर्षों से उसे अपने साथ रखे हुए थे।
मन्त्रीजी मुलाकातियों के बीच से होकर अपनी कार की तरफ बढ़ रहे थे। वे एक साथ मुस्कराने, हाथ जोड़कर अभिवादन करने और फरियादी कागजों पर कुछ लिखते जाने का काम करते जा रहे थे। उनके सुरक्षाकर्मी और चपरासी लोगों को धकियाते हुए रास्ते बना रहे थे। इसी बीच कौशिक ने मन्त्रीजी के कान में कुछ कहा। मन्त्रीजी चलते-चलते कुछ फुसफुसाए जिसे कौशिक के अलावा जिन्होंने सुना उन्हें लगा मन्त्रीजी ने अपने इष्ट देवता का जाप किया है। कौशिक ने चलते-चलते ही कमलाकान्त के कानों में कुछ कहा और मन्त्रीजी के कार में बैठकर दरवाजा बन्द करते ड्राइवर के बगल वाली सीट का दरवाजा खोलकर कार के अन्दर घुस गया।
कमलाकान्त ने कार के चलने का इन्तजार नहीं किया। वे भीड़ को धकियाते बाहर निकल आये। काम हो गया था, पर जब तक आदेश हाथ में न आ जाये राजधानी में कोई काम हुआ नहीं माना जाता।
दूसरे दिन सुबह-सुबह कमलाकान्त कौशिक के घर पहुँच गये।उन्हें पता था कि मंत्री जी कुछ भी कहें इस दर पर तो हाजिरी लगानी ही है इस लिये अपने जासूसों को उन्होने पी.ए. के घर का पता लगाने के कह रखा था । कौशिक अभी सोया हुआ था। उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला। उसने अपरिचित निगाहों से उन्हें देखा और दरवाजा छेंककर खड़ी रही। कमलाकान्त ने हें...हें करते हुए बताया कि वे तो घर के ही आदमी हैं। कौशिक साहब अगर सो रहे हैं तो वे इन्तजार कर लेंगे। दरवाजा छेंके खड़ी औरत के न हटने पर उन्होंने कुछ मजाकिया लहजे में कहा कि कल अपनी बहू की साड़ी के लिए उन्होंने कौशिक को जो रुपये दिये थे, बहू आज ही उनसे अपनी पसन्द की साड़ी ले आये, नहीं तो मर्दों का क्या भरोसा, कहीं और खर्च कर डालें।
इस पर औरत के चेहरे पर खिंचा अपरिचय का तनाव कुछ ढीला पड़ा और वह एक किनारे हट गयी। कमलाकान्त अन्दर घुस गये और जो पहली कुर्सी उन्हें खाली दिखाई दी, उस पर उन्होंने कब्जा कर लिया।
औरत एक गिलास पानी ले आयी। उसके चेहरे का तनाव अब तक खत्म हो गया था।
''मैं तो चाय पियूँगा बहूरानी।''
चेहरे पर तनाव फिर खिंच आया।
''कल गलती से मैंने सिर्फ साड़ी का पैसा कौशिक साहब को दिया था। होटल में पहुँचने पर पता चला कि तुम्हारी दीदी ने ब्लाउज और पेटीकोट के लिए जो पैसा दिया था वह तो मेरी जेब में ही रह गया,'' कमलाकान्त ने अपनी जेब से एक लिफाफा निकाला।
''रहने दीजिए भाई साहब, ये उठेंगे तो नाराज होंगे,'' औरत ने एक कदम पीछे हटने का नाटक किया।
''भाई तुम मुझे डाँट खिलवाओगी। घर जाकर तुम्हारी दीदी से क्या कहूँगा साड़ी के पैसे दे आया और पेटीकोट ब्लाउज कौशिक भाई के जिम्मे छोड़ आया। ना बाबा...मुझे नहीं खानी डाँट,'' वे ठहाका मारकर हँसे।
चेहरे का तनाव खत्म हो गया था। औरत ने लिफाफा हाथ में थामते-थामते कहा, ''आप मुझे डाँट खिलवाएँगे।'' और चाय बनाने चली गयी।
कमलाकान्त फिर खुलकर हँसे और तब तक हँसते रहे जब तक उनकी हँसी का मकसद पूरा नहीं हो गया। ठहाकों से टूटी नींद की झुँझलाहट लिये कौशिक अन्दर से इस कमरे में निकल आया।
''उठ गये कौशिक साहब। रात देर से सोए शायद। मन्त्रीजी का प्लेन लेट हो गया था क्या?"
कौशिक ने अपने कुर्ते की बाँह से आँखों की कीचड़ साफ की और ठंडे स्वर में जो सूचनाएँ दीं, उनके अनुसार वह रोज दस के बाद उठता है, मन्त्रीजी का प्लेन बिल्कुल सही समय से उड़ा और सरकारी दफ्तर दस बजे के बाद ही काम-काज शुरू करते हैं।
आखिरी सूचना कमलाकान्त के लिए थोड़ी पीड़ादायक थी। इसी बीच चाय लेकर कौशिक की पत्नी आ गयी। उन्होंने अपनी पीड़ा का इजहार किये बिना चाय ले ली और चहकते हुए कहा, ''भई कौशिक साहब हमारे लिए तो जहाँ आप हैं, वहीं दफ्तर है और जब आप उठ गये तभी सरकारी काम शुरू हो गया।''
कौशिक पर कोई असर नहीं हुआ। वह बिना अपनी खिन्नता छिपाये कुर्ते की बाँह से कीचड़ साफ करता रहा और कमलाकान्त 'बेशर्मी कामयाबी की सबसे बड़ी सीढ़ी है' नामक सिद्धान्त के अनुसार चाय सुड़कने के साथ अखबार भी पढ़ने लगे।
''मैं अभी फ्रेश होकर आता हूँ,'' बुदबुदाते हुए कौशिक अन्दर चला गया।
इस बीच ब्लाउज और पेटीकोट के प्रताप से पकौड़ियाँ भी बनकर आ गयीं।
कौशिक जब गुसलखाने से निकलकर वापस आया तो दफ्तर के काम शुरू करने का वक्त हो गया था।
''हाँ सर, बताएँ क्या करना है...कैसे करना है?"
कमलाकान्त ने कुछ नहीं बताया। उन्हें पता था कि राजधानी में बातचीत की शुरुआत इसी तरह होती है।
कौशिक ने अखबार का एक पेज लेकर उस पर आँखें गड़ा लीं। खबरें देखते-देखते उसने कहा-
''कैसे करना है...क्या करना है?"
''करना क्या है...कुम्भ एकदम सर पर है...सारा काम पिछड़ रहा है। बाद में मेले में कुछ हो गया तो आप लोग मेरी गर्दन पकड़ेंगे। मेरा आदेश दिलवाइए। मैं फौरन भागूँ अब तक तो पान्टून पुलों का टेंडर निकल जाना चाहिए था। सड़कों का काम भी शुरू हो...''
कौशिक ने कुम्भ मेले के कामों की फेहरिश्त में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। उसने फिर अखबार में सर गड़ा लिया।
कमलाकान्त समझ गये कि उन्होंने जल्दबाजी कर दी। स्साला पूरा घाघ है। ऐसे दिखा रहा है जैसे कोई भिखमंगा सामने बैठा गिड़गिड़ा रहा हो। उन्होंने भी अपनी निगाहें अखबार में गड़ा दीं और पढ़ी हुई खबरों को फिर से पढ़ने लगे।
''हाँ तो सर जी क्या करना है?"
कमलाकान्त ने कुछ नहीं बताया कि क्या करना है उन्हें अचानक चार बार पढ़ी हुई खबर बहुत महत्त्वपूर्ण लगने लगी। वे गहरी सोच की मुद्रा में उसे पाँचवीं बार पढ़ने लगे।
''क्या मिल गया सर! कोई खास खबर?"
''नहीं...ऐसा कुछ खास नहीं,'' कमलाकान्त ने अखबार से सर उठाया। अब साला पटरी पर आया।
''साहब से कुछ बात हुई आपकी?"
''हुई थी हवाई अड्डे जाते समय। मिल जाएगा आपका ऑर्डर भी। परेशान क्यों होते हैं।''
''नहीं, परेशानी कुछ नहीं...बस कई दिन हो गये राजधानी में पड़े-पड़े...कुम्भ एकदम सर पर आ गया है और...''
कौशिक ने कुम्भ गाथा शुरू होते ही आँखें मूँद लीं। कुम्भ शुरू होनेवाला है और अभी तक सड़कें बननी नहीं शुरू हुईं, पान्टून पुल का टेंडर नहीं निकला या मेला क्षेत्र में मिट्टी भराई अभी शुरू नहीं हुई तो आगे काम कैसे होगा...ये सारी बातें वह चौदहवीं बार सुन रहा था, चार बार कमलाकान्त के मुँह से और दस बार बटुकचन्द उपाध्याय के मुँह से। इसलिए अगर कमलाकान्त भूल जाते तो वह याद दिला देता कि अभी छतनाग की तरफ जमीन को समतल करने का काम भी नहीं शुरू हुआ है। बनारस, बिहार या बंगाल से आनेवाली गाड़ियाँ पार्क कहाँ होंगी पर कमलाकान्त नहीं भूले। उन्हें और भी बहुत सी चीजें याद थीं, लेकिन कौशिक का धैर्य जवाब देने लगा। वह अब सीधी बात पर आ गया, ''साहब ने रास्ते में कहा था कि आपसे सचिवालय में बात हो गयी है। मुझे आपने बताया नहीं कि क्या बातें तय हुईं।''
कमलाकान्त ने आँखें सिकोड़कर देखा। स्साला फिर घाघपना कर रहा है।
''बातें क्या कौशिक साहब...मैंने तो कह दिया कि हम आपसे बाहर थोड़े हैं, जो हुक्म होगा हो जाएगा।''
''आपको बाहर का कौन समझता है...आप तो अपने हैं। पिछली बार चुनाव में नहीं दिखायी दिये तब भी हम तो आपको अपना ही मानते रहे,'' कौशिक मन्त्रीजी की अनुपस्थिति में हमेशा 'हम' कहता था जिससे सामनेवाला उसे और मन्त्रीजी को एकाकार समझे।
कमलाकान्त ने चौंककर देखा। कमबख्त महीन ढंग से बातें कर रहा है। कल दिन में तो इस विषय पर बात हो ही चुकी थी। कुछ और बढ़ाने का इरादा है क्या ?उन्होंने एक बार फिर विस्तार से भारतीय रेलों और बसों के टाइम टेबल की निरर्थकता पर प्रकाश डालना शुरू कर दिया। जब समय की पाबन्दी नहीं करनी तो छापते क्यों हैं उन्होंने बताया कि किस तरह वे हर बार मन्त्रीजी को सिर्फ कुछ मिनटों से मिस करते रहे हैं। एक बार तो दृढ़ निश्चय भी कर लिया कि वे चुनाव क्षेत्र में जाकर ही मन्त्रीजी के चरण कमलों पर श्रद्धा-सुमन अर्पित कर आएँ, लेकिन वो तो वाइफ को कालरा हो गया, उन्होंने तो कहा भी कि आप हो आइए, मन्त्रीजी गाढ़े में कितना काम आते हैं, नहीं जाएँगे तो दुश्मनों को कहने का मौका मिल जाएगा कि जब काम पड़ा तो मुँह छिपाने लगे, लेकिन मैंने ही सोचा कि सीरियस हालत में वाइफ को छोड़कर जाने पर कुछ उलटा-सीधा हो गया तो किसे मुँह दिखाएँगे और फिर मन्त्रीजी को ही पता चल गया कि इस हालत में आये हैं तो जरूर डाँटेंगे।
कौशिक को अचानक लगा कि कमरे में मक्खियाँ अधिक हो गयी हैं। वह अखबार को तलवार की तरह इस्तेमाल कर उनका संहार करने लगा। कमलाकान्त जब यह वर्णन कर रहे थे कि कैसे एक बार कड़ी धूप में वे मन्त्रीजी के बँगले पर पहुँचे और यह पता चला कि वे अभी-अभी निकल गये हैं तो उन्हें गश आते-आते बचा, कौशिक ने मक्खी मारो अभियान रोकते हुए धीरे से कहा-
''अन्दर आ जाते। मैं तो होता ही। ठंडा पानी पिला देता।''
कमलाकान्त ने अपना वर्णन बन्द कर आँखें मूँद लीं। कमबख्त पूरी चमड़ी उधेड़े बिना नहीं छोड़ेगा। उन्होंने मन-ही-मन हिसाब लगाया, मन्त्री के अलावा अभी इसे कितना देना पड़ेगा। वे तब तक आँखें मूँदे रहे जब तक कौशिक की बीवी की आवाज नहीं सुनाई दी-
''आप तो भाई साहब सो गये। पकौड़ियाँ ठंडी हो गयीं। मैं तो गरम ले आयी,'' उसने ठंडी पकौड़ियाँ सामने से हटाकर गरम पकौड़ियों की प्लेट सामने कर दी।
''बस करो बहूरानी। सुबह-सुबह कितना खा गया।''
कमलाकान्त को लगा कि दूसरी प्लेट में हाथ लगाते ही एक और साड़ी का हक बन जाएगा।
''हाँ तो सर जी, वापस जाने का क्या प्रोग्राम बनाया?"
''हमारा प्रोग्राम तो आपके हुक्म पर है कौशिकजी, जब आप कह देंगे अपन रवाना हो जाएँगे,'' कमलाकान्त ने ठहाका लगाया। पर कौशिक ने यह मानने से इनकार कर दिया कि कमलाकान्त का वाक्य कोई ऐसा लतीफा था जिस पर हँसा जा सके। उसने एक बार फिर अपने हाथ के अखबार को मक्खी मारो अभियान में लगा दिया।
कमलाकान्त को अचानक यह पूरी कार्यवाही बड़ी दिलचस्प लगने लगी। उन्होंने एक बार निशाना सटीक लगने पर कौशिक की तारीफ की, दो बार चूक जाने पर अफसोस जाहिर किया और एक बार थोड़ी दूरी पर बैठी हुई मक्खी की तरफ इशारा किया कि कौशिक ने हाथ का अखबार जमीन पर फेंक दिया।
''हाँ तो सर जी और क्या हुकुम है?"
सर जी यानी कमलाकान्त चुपचाप बैठे रहे।
''सर जी दफ्तर भी जाना है।''
''आज तो मन्त्रीजी नहीं हैं, आज क्या जल्दी है?"
''अजी हमें कहाँ फुर्सत...'' कौशिक ने विस्तार से बताना शुरू किया कि मन्त्रीजी रहें या न रहें, उसे तो वही दस बजे दफ्तर पहुँचना होता है और रात आठ बजे तक खटना पड़ता है। उसकी पत्नी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि वह तो कई बार कह चुकी है कि दफ्तर में अपना बिस्तर भी ले जाया करो, रात में भी घर आने की क्या जरूरत है। इस पर कमलाकान्त ने उसे बरजा कि मर्दों का कोई भरोसा नहीं, उसे कौशिक को इतनी छूट नहीं देना चाहिए। कौशिक और उसकी पत्नी हँसे तो कमलाकान्त ने कौशिक की पत्नी को बताया कि सरकार का काम तो कौशिक साहब के भरोसे चलता है। मन्त्रीजी तो बेचारे किस कदर व्यस्त रहते हैं! यह तो उसके पति हैं जिनकी वजह से सरकार में कुछ काम हो रहा है और जनता को थोड़ी-बहुत राहत मिल रही है।
कौशिक का प्रिय विषय शुरू हो गया था। वह कुर्सी पर अधलेटा हो गया और उसने अपनी बीवी को बताया कि सर जी तो पुराने मेहरबान हैं और आदमी पहचानते हैं। काम वह जरूर जमकर करता है और सरकार भी उसी के दम पर चल रही है, पर सब कुछ कमलाकान्त जैसे बुजुर्गों की मेहरबानी और आशीर्वाद का फल है।
कमलाकान्त ने यह तो माना कि वे बुजुर्ग हैं और उनकी शुभकामनाएँ हमेशा कौशिक के साथ हैं, पर अगर कौशिक में इतनी खूबियाँ न होतीं तो क्या मन्त्रीजी उस पर इतना विश्वास करते अब उनके तबादले को ही ले लिया जाय। कौन व्यक्ति विश्वास के बिना अपने पी.ए. को सोलह सौंपने का हुक्म देगा।
सोलह सुनते ही कौशिक की पत्नी को लग गया कि अब कुछ गम्भीर सरकारी काम का समय आ गया है। उसने अचानक देखा कि दूसरी बार की पकौड़ियाँ भी ठंडी हो गयी हैं। वह तीसरी बार गर्म पकौड़ियाँ लाने का इरादा घोषित करते हुए उठ गयी।
''सर जी सोलह का क्या चक्कर है। साहब तो मुझे कह गये थे कि आप बीस लेकर आएँगे।''
''आप भी कौशिक साहब खूब मजाक करते हैं,'' कमलाकान्त इस सिद्धान्त के मुताबिक हँसे कि अपने विपक्षी को चित करने के लिए तर्क से ज्यादा मुफीद ठहाके होते हैं।
कौशिक ने उनसे भी तेज ठहाका लगाया। उसका मानना था कि अगर आप विरोधी से तेज आवाज में हँस सकते हैं तो आप उसे ज्यादा आसानी से हतप्रभ कर सकते हैं।
''मन्त्रीजी ने खुद मुझसे सोलह कहा था।''
''मुझे बीस लेने को बोला।''
''सोलह...।''
''बीस।''
एक बार फिर स्टाक एक्सचेंज की गहमागहमी छा गयी। कमलाकान्त ने रिप्ले की तरह सचिवालय में मन्त्रीजी के शौचालय में घटित पूरे घटनाक्रम को दोहराना शुरू किया। कौशिक ने अपनी आँखें बन्द कर लीं। जैसे ही वे विस्तार से वर्णन करते हुए बीस से होकर सोलह पर सौदा तय होने तक पहुँचे, कौशिक ने आँखें खोल दीं-
''सर जी महँगाई बहुत बढ़ गयी है।''
कमलाकान्त ने मुद्रास्फीति की रफ्तार को इतना तेज मानने से इनकार कर दिया जिसमें एक रात में पच्चीस प्रतिशत महँगाई बढ़ जाय। कौशिक ने उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश की कि महँगाई तो इससे भी तेज बढ़ रही है। दिन-दूनी रात-चौगुनी नामक कहावत, कौशिक के अनुसार गुणी जनों ने महँगाई को ही ध्यान में रखकर ईजाद की थी।
महँगाई का जिक्र चला तो कौशिक की पत्नी भी बहस-मुबाहिसे में शरीक हो गयी। हमारे देश में माना जाता है कि महँगाई का सीधा सम्बन्ध चौके-चूल्हे से है, इसलिए जैसे ही उसके कान में बहस का यह हिस्सा पड़ा, वह गर्म पकौड़ियाँ आग की दया पर छोड़कर वहाँ पहुँच गयी।
''अब भाई साहब महँगाई की क्या बात करें...हर तरफ आग लगी है। कल जो लौकी डेढ़ रुपए की लाई थी आज आपके आने के पहले वही मुझे सवा दो की दे के गया सब्जीवाला। मुआ एक पैसा कम करने को राजी नहीं हुआ।''
कमलाकान्त ने इस वाक्य में उल्लिखित लौकी के ताजा भाव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। उन्होंने इसमें छिपे निहितार्थ पर ही अपना ध्यान लगाया। कौशिक जिस महँगाई की बात कर रहा था वह मन्त्रीजी की नहीं उसकी अपनी महँगाई थी। स्साला चार अपने लिए माँग रहा है। उन्होंने सोचा पिच्च से जमीन पर थूक दें, पर गोल-गोल मुँह बनाने के बाद वे थूक निगल गये और मुस्कुराने लगे।
एक बार फिर वह लम्बी बहस छिड़ गयी जो ऐसे मौकों पर छिड़ा करती है। कमलाकान्त ने कौशिक को बताया कि वे तो उसे घर का आदमी समझे, कि वे उससे बाहर थोड़े ही हैं, कि वे हमेशा कौशिक के लिए कुछ-न-कुछ करते ही रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे, कि वे मन्त्री-वन्त्री किसी को नहीं जानते क्योंकि वे तो आते-जाते रहते हैं और कौशिक एक शाश्वत सत्य है, इसलिए उनके लिए तो कौशिक का हुक्म सर माथे पर है और सबसे अन्त में यह कि कुम्भ का काम तो शुरू ही हुआ था कि उनका तबादला हो गया। अभी तो टेंडर डालने की तारीखें भी तय नहीं हुई है, खुलने की तो बात दूर है। आजकल ठेकेदार इतने पाजी हो गये हैं कि सिर्फ कुर्सी को सलाम करते हैं। जैसे ही उनका तबादला हुआ जिन्होंने एडवांस दिये थे उन्होंने वापसी का तकादा करना शुरू कर दिया है। अब वे वापस जाएँगे तो फिर कुछ-न-कुछ कौशिक के लिए भी करेंगे।
कौशिक ने उनका भविष्य में कुछ करने का इरादा उसी तरह सुना जैसे मलिन बस्ती के लोग चुनावी सभा में अपने हालात सुधारने की घोषणाएँ सुनते हैं।
उसने भी विस्तार से बताया कि वह तो कमलाकान्तजी को हमेशा बड़ा भाई मानता रहा है। जब पिछले चुनाव में वे मन्त्रीजी को बुलाने पर भी नहीं आये, तब विरोधियों ने किस कदर मन्त्रीजी के कान भरने की कोशिश की थी कि कमलाकान्त इस अफवाह के तहत अपना मुँह नहीं दिखा रहे हैं कि मन्त्रीजी इस चुनाव में हारने वाले हैं, और अगर जीते भी तो पार्टी उन्हें मन्त्री नहीं बनाएगी। वह तो कौशिक ही था जिसने मन्त्रीजी को लगातार कमलाकान्त जी की वफादारी का भरोसा दिला रखा था। कल भी कमलाकान्त जी को देखकर मन्त्रीजी ने तो कौशिक के कान में कह दिया था कि उन्हें जाने को बोल दिया जाय, पर कौशिक ने ही चिरौरी की थी। एक बार कमलाकान्त जी की भी सुन लें। मन्त्रीजी के दरबार में वह हमेशा कमलाकान्त जी के हित का ध्यान रखता है। पर वह क्या करे महँगाई इतनी बढ़ गयी है कि आदमी का जीना मुश्किल हो गया है।
महँगाई की टेक पर बात समाप्त होते ही कमलाकान्त को एक बार फिर याद आया कि कौशिक उनका छोटा भाई है और छोटे भाई की गृहस्थी में मदद करना उनका फर्ज नहीं, बल्कि हक है। वे कहीं भागे तो जा नहीं रहे हैं, हमेशा काम आएँगे। कौशिक को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी, पर महँगाई सारे रिश्ते गड्ड-मड्ड करने पर तुली थी।
कमलाकान्त की समझ में आ गया कि किसी पिछड़े चुनाव क्षेत्र की जनता की तरह कौशिक भी शातिर हो गया है और अब सिर्फ आश्वासन से काम नहीं चलेगा। उन्होंने हथियार डाल दिये और वह वाक्य बोल दिया जिसका कौशिक इन्तजार कर रहा था-
''हाँ तो बताइए कौशिक साहब क्या करना है कैसे करना है?"
''क्या करना है'' के जवाब में कौशिक ने जो बताया उससे एक बार वही लम्बी बहस छिड़ गयी जिसमें कमलाकान्त को बार-बार बताना पड़ा कि वे तो घर के आदमी हैं और कहीं भागे थोड़े ही जा रहे हैं और कौशिक को हर बार बढ़ती महँगाई की याद आती रही। काफी चख-चख के बाद यह तय हुआ कि कौशिक को कमलाकान्त मन्त्रीजी के सोलह लाख के अलावा पचास हजार और देंगे।
'कैसे करना है' पर कमलाकान्त के बार-बार यह कहने के बावजूद कि वे उन लोगों से बाहर नहीं हैं और जो तय हुआ है कर देंगे, एक बार आदेश मिल जाय तो सब हो जाएगा, कौशिक ने साफ कर दिया कि मन्त्रीजी कह गये हैं कि पहले सारा पैसा कौशिक के पास पहुँचा दिया जाय, फिर वह विभाग के सचिव को फोन करके आदेश जारी करने के लिए कहेगा।
कमलाकान्त थोड़ी देर में ही समझ गये कि पैसा भावुकता का सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिए उन्होंने देर तक यह दुहाई नहीं दी कि वे उन लोगों से बाहर नहीं हैं और घर के आदमी हैं। यह तय हुआ कि वे दोपहर लंच के समय सारा पैसा लेकर कौशिक के घर आ जाएँगे और कौशिक भी दोपहर में थोड़ी देर के लिए दफ्तर छोड़कर घर आ जाएगा।
कमलाकान्त जब कौशिक के घर से निकले, उनका दिमाग तेजी से काम कर रहा था। वे राजधानी रवाना होने के पहले जितना सोचकर चले थे लगभग उतने में ही मामला तय हो गया था, बल्कि कुछ बच भी गया था। उन्होंने 15 से 20 लाख में मसला सुलटाने की सोच रखी थी और 16 लाख में बात बन गयी। पचास हजार जो कौशिक को देने पड़ रहे थे, वह उन्हें नहीं खल रहा था क्योंकि वे जानते थे कि कौशिक को खुश रखना मन्त्रीजी को खुश रखने से कम जरूरी नहीं था। उन्होंने हिसाब लगाया कि वे दस लाख साथ लेकर चले थे। बाकी साढ़े छह लाख की व्यवस्था राजधानी में करनी थी। राजधानी में बहुत से लोग थे जिनसे उनके ऐसे सम्बन्ध थे कि वे इस राशि का इन्तजाम कर सकते थे, पर मामला इतना नाजुक था कि वे हर किसी के पास इस सूचना के साथ नहीं जा सकते थे कि उनका तबादला रुक रहा है। उन्हें अधिक देर तक सर खपाने की जरूरत नहीं पड़ी। उसके दो गण राजधानी में मौजूद थे। इनमें ध्रुवलाल यादव तो बहुत काम का नहीं था। उससे कौशिक के हाथ-पैर तुड़वाए जा सकते थे, पर पैसे का इन्तजाम नहीं करवाया जा सकता था। उसके मुकाबले लल्लन राय ज्यादा उपयोगी था। वह राजधानी के चक्कर लगाता रहता था और उन्हें पूरी उम्मीद थी कि वह शहर में जरूरी पैसे का कहीं न कहीं से जुगाड़ जरूर कर लेगा। कौशिक के घर से निकलकर कमलाकान्त लल्लन राय और ध्रुवलाल यादव की तलाश में निकल पड़े।