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कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 5. श्री उद्धव-वचन ब्रजवासियों से पीछे     आगे

३०.

चाहत जौ स्वबस संयोग स्याम-सुंदर कौ,

जोग के प्रयोग में हियौ तो बिलस्यौ रहै।

कहै रतनाकर सु-अंतर मुखी ह्वै ध्यान,

मंजु हिय-कंज-जगी जोति मैं धस्यौ रहै॥

ऐसे करौं लीन आतमा कौं परमात्मा में,

जामैं जड़-चेतन बिलस बिकस्यौ रहै।

मोह-बस जोहत बिछोह जिय जाकौ छोहि,

सो तौ सब अंतर-निरंतर बस्यौ रहै॥

३१.

पंच तत्त्व मैं जो सच्चिदानंद की सत्ता सो तौ,

हम तुम उनमैं समान ही समोई है।

कहै रतनाकर विभूति पंच-भूत हूँ की,

एक ही सी सकल प्रभूतनि मैं पोई है॥

माया के प्रंपच ही सौं भासत प्रभेद सबै,

काँच-फलकानि ज्यौं अनेक एक सोई है।

देखौं भ्रम-पटल उघारि ज्ञान आँखिनि सौं,

कान्ह सब ही मैं कान्हा ही में सब कोई है॥

३२.

सोई कान्ह सोई तुम सोई सबही हैं लखौ,

घट-घट-अंतर अनंत स्यामघन कौं।

कहै रतनाकर न भेद-भावना सौं भरौ,

बारिधि और बूँद के बिचारि बिछुरन कौं॥

अबिचल चाहत मिलाप तौ बिलाप त्यागि,

जोग-जुगती करि जुगावौ ज्ञान-धन कौं।

जीव आत्मा कौं परमात्मा मैं लीन करौ,

छीन करौं तन कौं न दीन करौ मन कौं॥

३३.

सुनि सुनि ऊधव की अकथ कहानी कान,

कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं।

कहै रतनाकर रिसानी बररानी कोऊ,

कोऊ बिलखानी, बिकलानी बिथकानी हैं॥

कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी रहीं,

कोऊ घूमि-घूमि परीं भूमि मुरझानी हैं।

कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी कोऊ,

कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी हैं॥


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