३०.
चाहत जौ स्वबस संयोग स्याम-सुंदर कौ,
जोग के प्रयोग में हियौ तो बिलस्यौ रहै।
कहै रतनाकर सु-अंतर मुखी ह्वै ध्यान,
मंजु हिय-कंज-जगी जोति मैं धस्यौ रहै॥
ऐसे करौं लीन आतमा कौं परमात्मा में,
जामैं जड़-चेतन बिलस बिकस्यौ रहै।
मोह-बस जोहत बिछोह जिय जाकौ छोहि,
सो तौ सब अंतर-निरंतर बस्यौ रहै॥
३१.
पंच तत्त्व मैं जो सच्चिदानंद की सत्ता सो तौ,
हम तुम उनमैं समान ही समोई है।
कहै रतनाकर विभूति पंच-भूत हूँ की,
एक ही सी सकल प्रभूतनि मैं पोई है॥
माया के प्रंपच ही सौं भासत प्रभेद सबै,
काँच-फलकानि ज्यौं अनेक एक सोई है।
देखौं भ्रम-पटल उघारि ज्ञान आँखिनि सौं,
कान्ह सब ही मैं कान्हा ही में सब कोई है॥
३२.
सोई कान्ह सोई तुम सोई सबही हैं लखौ,
घट-घट-अंतर अनंत स्यामघन कौं।
कहै रतनाकर न भेद-भावना सौं भरौ,
बारिधि और बूँद के बिचारि बिछुरन कौं॥
अबिचल चाहत मिलाप तौ बिलाप त्यागि,
जोग-जुगती करि जुगावौ ज्ञान-धन कौं।
जीव आत्मा कौं परमात्मा मैं लीन करौ,
छीन करौं तन कौं न दीन करौ मन कौं॥
३३.
सुनि सुनि ऊधव की अकथ कहानी कान,
कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं।
कहै रतनाकर रिसानी बररानी कोऊ,
कोऊ बिलखानी, बिकलानी बिथकानी हैं॥
कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी रहीं,
कोऊ घूमि-घूमि परीं भूमि मुरझानी हैं।
कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी कोऊ,
कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी हैं॥