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कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 7. उद्धव के ब्रज से विदा होते समय के कवित्त पीछे     आगे

९७.

धाईं जित-तित तैं विदाई-हेत ऊधव की

गोपीं भरीं आरति सम्हारति न साँसुरी।

कहै रतनाकर मयूर-पच्छ कोऊ लिए

कोऊ गुंज-अंजली उमाहे प्रेम-आँसुरी॥

भाव-भरी कोऊ लिए रुचिर सजाव दही

कोऊ मही मंजु दाबि दलकति पाँसुरी।

पीत-पट नंद जसुमति नवनीत नयौ

कीरति कुमारी सुरबारी दई बाँसुरी॥

९८.

कोऊ जोरि हाथ कोइ नम्रता सौं नाइ माथ

भाषना की लाख लालस सौं नहिं जात है।

कहै रतनाकर चलत उठि ऊधव के

कातर ह्वै प्रेम सौं सकल महि जात है॥

सबद न पावत सौ भाव उमगावत जों

ताकि-ताकि आनन ठगे से ठहि जात हैं।

रंचक हमारी सुनौ रंचक हमारी सुनौ

रंचक हमारी सुनौ कहि रहि जात है॥

९९.

दाबि-दाबि छाती पाती-लिखन लगायौं सबै

ब्यौंत लिखिबै को पैं न कोऊ करि जात है।

कहै रतनाकर फुरति नाहिं बात कछु

हाथ धर्यौ हीतल थहरि थरि जात है॥

ऊधौ के निहोरैं फेरि नैंकु धीर जोरैं पर

ऐसे अंत ताप कौ प्रताप भरि जात है।

सूखि जाति स्याही लेखिनी कै नैंकु डंक लागै

अंक लागैं कागद बररि बरि जात है॥

१००.

कोऊ चले काँपि संग कोऊ उर चाँपि चले

कोऊ चले कछुक अलापि हलबल से।

कहै रतनाकर सुदेश तजि कोऊ चलै

कोऊ चले कहत सँदेश अबिरल से॥

आँस चले काहू के सु काहू के उसाँस चले

काहू के हियै पै चंद्रहास चले हल से।

ऊधव के चलत चलाचल चली यौं चल

अचल चले और अचले हूँ भये चल से॥

१०१.

दीन्यौ प्रेम-नेम-गरुवाई-गुन ऊधव कौं

हिय सौं हमेव-हरुवाई बहिराइ कै।

कहै रतनाकर त्यौं कंचन बनाई काय

ज्ञान-अभिमान की तमाई बिनसाइ कै॥

बातनि की धौंक सौं धमाई चहुँ कोदनि सौं

निज बिरहानल तपाइ पघिलाइ कै।

गोप की बधूटी प्रेम-बूटी के सहारे मारे

चल-चित पारे की भसम भुरुकाइ कै॥


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