पहले शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि सुबह के नौ बज जायें और मैं घर पर ही होऊँ।
कभी-कभार तो चौकीदार सुबह उठा भी नहीं होता था और मैं फैक्ट्री पहुँच जाता था।
मेरे बाद आने वालों में होता शशांक। वह भी मेरी तरह बेचैन आत्मा था। जितना समय
मिलता, फैक्ट्री के कामों में ही गुजरता। आज पहली बार मन इस बोझ से मुक्त था।
अब इस तरह खटना नहीं पड़ेगा। ऊपर से जितना चाहो उतना प्रोडक्शन और क्वालिटी भी
बढ़िया। मशीनों की बिल्टी छुड़वाते, उन्हें अन्दर सम्भालते रात देर हो गयी।
सुबह साफ-सफाई, मशीनें लगवाते समय लग जायेगा। इसलिए सोचा तब तक सब तैयार
रहेगा। पूजा-पाठ कर प्रभु स्मरण के साथ काम शुरू कर देंगे। तैयार हो ही रहा था
कि फोन बज उठा-
'सर! जो मशीनें विदेश से मैंगवाई थीं, उनमें से एक मिल नहीं रही है।'
फोन पर फैक्ट्री मैनेजर बड़ी घबरायी आवाज में बोला।
फोन रख मैं तुरन्त फैक्ट्री की ओर रवाना हो गया।
रास्ते भर सोचते रहा, ये क्या हो गया। उत्पादन बढ़ाने और माल की गुणवत्ता की
बेहतरी के लिए मैं बहुत समय से विदेशी मशीनें मैंगवाने की सोच रहा था, किन्तु
इसकी व्यवस्था नहीं कर पा रहा था।
बैंक से कर्जा-पानी कर किसी तरह चार मशीनें आर्डर कर दीं। ये कल ही पहुँची
थीं। छोटी सी मशीनें लेकिन एक-एक की कीमत पच्चीस लाख रुपये। मंशा ये थी कि ये
लग जायेंगी, तो अपना मुनाफा भी अच्छा-खासा होने लगेगा।
पर अचानक ये क्या मुसीबत आ गयी! इन मशीनों के बारे में तो और किसी को
कानों-कान खबर भी नहीं थी। फिर कल रात फैक्ट्री से आते वक्त मैनेजर को कह भी
आया था कि किसी को अभी इस बारे में बताने की जरूरत नहीं। पहुँचते ही मैंने
पूछा-
'किसको दी थीं मशीनें रखने को?'
सर! शशांक को ..., उसके बाद से मेरे ही पास थी। अपराध बोध भरे भाव से मैनेजर
ने यूँ कहा, मानो वह इसके लिए खुद को दोषी समझ रहा हो।
पर शशांक तो बहत मेहनती और ईमानदार लड़का है, मैनेजर कई बार उसकी बहुत तारीफ
कर चुका है। यह सब सोचने के बावजूद मन के शक की सुई शशांक पर ही जाकर अटक जाती
है। मैंने पूछा-
'शशांक की घर की हालत कैसी है?'
'सर उसकी पत्नी पिछले कई महीनों से बीमार है। कई जगह इलाज करा दिया। काफी पैसा
लग गया। सुना है कर्जा भी बहुत हो गया है। पर सुधार नहीं हो रहा है। इधर तो वह
रात-रात ओवर टाइम में भी लगा रहता है। बाकी मुझे नहीं मालूम।'
'शशांक पर नजर रखो और उसके बारे में और जानकारी इकट्ठी करो। मेरा मन कहता है,
एक दो दिन में चोर पकड़ा जायेगा और पुलिस बुलाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।'
हुआ भी यही। दो दिन बाद ही अचानक मैनेजर का फोन आया कि मशीन अपनी जगह पर रखी
हुई है। बाकी शशांक के बारे में जो जानकारी उसने इस बीच जुटाई थी, मेरे सामने
रख दी।
उसने बताया, शशांक की पत्नी दो साल पहले गम्भीर रूप से बीमार पड़ी। तब उसकी
शादी को साल भर ही हुआ था। यहाँ इलाज नहीं हो पाया तो वह उसे दिल्ली ले गया।
वहाँ खर्चा काफी था। यहाँ तक कि उसे अपना वह छोटा सा जमीन का टुकड़ा भी बेचना
पड़ा। जो उसने पाई-पाई जोड़ बड़ी मेहनत से खरीदा था।
जैसे-तैसे पत्नी बच तो गयी, किन्तु उसके इलाज में अब भी हर महीने बीस से
पच्चीस हजार खर्चा आता है। तब से उसका यही मकसद रह गया है कि बस किसी तरह उसकी
पत्नी ठीक हो जाये।
वह दिन-रात मेहनत में लगा रहता है। अब तो दो कमरों का मकान छोड़ एक कमरे में
ही गुजारा कर रहा है। जो भी जमा पूंजी थी सब ख़त्म हो चुकी है।
'अब तुम क्या कहते हो? शशांक को नौकरी पर रहने दें या निकाल दें।' मैने मैनेजर
से पूछा-
अचानक मेरा यह सवाल सुनकर वह हड़बड़ा गया। कुछ देर सोचता रहा। उसकी भाव-भंगिमा
से जाहिर था कि उसे मेरा यह सवाल अच्छा नहीं लगा। फिर बोला-
'सर! शशांक है तो बहुत मेहनती और ईमानदार। फिर उसके काम से हमें खासा-फायदा भी
हुआ है।'
इतना कह वह चुप हो गया। मुझे लगा, वह शशांक की पैरवी कर रहा है। मेरी सवालिया
दृष्टि देख वह आगे बोलने का साहस नहीं जुटा पाया।
'सर! लेकिन अब उसकी हालत ऐसी है कि वह कभी कुछ भी कर सकता है। ऐसी स्थिति
में...।' मैं उसकी बात खुद ही समझ जाऊँगा ये सोच उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
उसके चेहरे से साफ जाहिर था कि यह सब कहते हुए उसे अच्छा नहीं लग रहा था।
पर शशांक के बारे में कोई फैसला लेने से पहले मैं उससे एक बार मिलना चाहता था।
अगले ही दिन मैंने उसे अपनी केबिन में बुलावा भेजा और चपरासी को कह दिया कि जब
तक मैं न कहूँ किसी को अन्दर न भेजे।
शशांक के काम-काज और फैक्ट्री की नयी मशीनें आदि के बारे में बतियाने के बाद
मैंने अपने स्वभाव के विपरीत उसके घर-परिवार की कुशल-क्षेम भी पूछ डाली। पत्नी
की बीमारी के बारे में बताते हुए उसकी आँखें भर आयीं।
'सर! बहुत गरीब परिवार से है वो, अब तक जितनी मदद मेरे माता-पिता और रिश्तेदार
कर सकते थे उन्होंने की, जी-तोड़ मेहनत करता हूँ तब कहीं जाकर उसके इलाज का
खर्च उठा पाता हूँ।
'डॉक्टर क्या कहते हैं? कब तक ठीक होगी वह?'
'सर, दो साल और इलाज चलेगा, पर मैं उसे इलाज के अभाव में दम तोड़ते नहीं देख
सकता। मेरा एक मात्र ध्येय अब उसकी जिन्दगी बचाना है। देखा ही क्या है उसने
अभी। और वह बच्चों की तरह सिसक-सिसक कर रोने लगा।
पानी का गिलास उसकी ओर बढ़ाते हुए सामान्य होने के बाद मैंने उसे बाहर भेज
दिया।
शशांक की ये सारी बातें सुनकर मैं अन्दर तक हिल गया। एक साधारण सी नौकरी करने
वाला इंसान जिसका अभी उस औरत से जुम्मे-जुम्मे साल भर का ही रिश्ता है, वह
उसके लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा चुका है। कितना गजब का इंसान है वह। पत्नी
के लिए उसके दिल में इतना प्यार है! मगर फिर भी ईमानदार है।
अगर वह चाहता, तो उस मशीन को बेचकर उसके इलाज का दो वर्ष का खर्च आसानी से
जुटा सकता था, लेकिन इस सब के बावजूद उसने मशीन चुपचाप फिर वहीं रख दी।
मैंने तुरन्त ही मैनेजर को बुलाया।
'अभी एक पत्र टाइप करो, कि शशांक को इन चारों मशीनों के डिवीजन का इन्चार्ज
बनाया जाता है और उसके पद के अनुसार वेतन भी निर्धारित कर दो। साथ ही उसके
रहने का इन्तजाम फैक्ट्री परिसर में ही हो सके तो ठीक अन्यथा उसके मकान का
किराया भी कम्पनी से ही करवा दो। इस पर मुझसे अभी हस्ताक्षर करवा लो।'
यह सुनते ही अवाक् हो मैनेजर मेरा मुँह देखता रह गया। पर इस सब की खुशी उसके
चेहरे से साफ झलक रही थी।
मैं खुश था और अन्दर ही अन्दर अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा था कि मैंने
किसी की मदद की।
कुछ दिनों बाद रविवार का दिन था। मैं लॉन में बैठा सुबह की धूप का आनन्द ले
रहा था कि चौकीदार ने बताया कि कोई शशांक नाम का व्यक्ति मुझसे मिलना चाहता
है।
शशांक ने आते ही मेरे पैर छुए और पदोन्नति के लिए दिली आभार फिर बोला-
'सर मैं आपसे कुछ कहना चाहता था, इसलिए घर चला आया।' और बाद उसने अपनी आपबीती
का एक और अध्याय शुरू कर दिया।
'सर आप देवता हैं। आपने मेरी परिस्थितियों को देखते हुए मेरी इतनी की मदद की,
एक मैं हूँ जो आप के साथ ही विश्वासघात कर रहा था।'
मैं समझ रहा था कि शशांक अब क्या कहने वाला है। वह शायद मशीन चोरी की बात
कबूलेगा। मैं मन ही मन एक बार फिर अपने आप को महान समझने लगा कि उस घटना के
बाद भी मैंने उसे नौकरी से नहीं निकाला, बल्कि उल्टा प्रमोशन भी दे दिया।
वह बोला, 'सर, मैं मशीन घर ले तो गया किन्तु मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी।
जबकि दिमाग कहता, कि मैंने कुछ बुरा नहीं किया। इस मशीन को बेचकर मैं अपनी
पत्नी के रूप में एक जीते जागते इंसान को जीवनदान दे सकता था। लेकिन सर घर
पहुँचते ही पली का चेहरा देखकर मेरा हृदय परिवर्तन हो गया। ये मैं क्या कर रहा
था? अभी तक इतनी मेहनत की, तभी तो वो जिन्दा थी। डॉक्टर कहते थे कि दवाइयाँ
असर कर रहीं हैं और वह ठीक हो जायेगी। मेहनत की कमाई में बहुत बरकत होती है।
मन ने धिक्कारा, जिस थाली में खाया उसी में छेद करने जा रहा था। इस पाप की
कमाई से वो नहीं बचती सर। इसलिए अगले दिन फिर मशीन वहीं वापस रख आया, मन पर
बहुत बड़ा बोझ था। आप को बता दिया अब हल्का महसूस कर रहा हूँ। अब आप मुझे जो
चाहें सजा दें। इतना कहकर वह चुप हो गया।
मैंने उसे यह जाहिर ही नहीं होने दिया कि मुझे पता है, मशीन चोरी हुई और उस पर
शक भी किया। पर महानता का जो भूत मेरे ऊपर सवार हुआ था वो उसकी बातें सुन
ऊनाये झाग की तरह उतर आया। कितना महान है यह लड़का, जो इन विकट हालातों में भी
हाथ आयी लक्ष्मी ठुकराने पर आमादा है। अपनी ईमानदारी बरकरार रखे है। यह जानते
हुए भी कि वह सच उगल देगा तो उसकी नौकरी चली जायेगी। फिर भी उसने अपनी आत्मा
का बोझ उतार कर ही दम लिया। अन्तःकरण की इतनी शुद्धता कहाँ मिलेगी!
मुझे चुप देख शशांक बोझिल कदमों से वापस जाने लगा। वह आश्वस्त था कि इतना सब
होने के बाद तो अब उसकी नौकरी नहीं रहेगी।
'शशांक!' इससे पहले कि वह कोई कदम उठाये, मैंने उसे आवाज दी। वह मुड़ा, पर
बहुत ही सकपकाया सा।
मैंने उसे ढाढस बधाया-'शशांक, जो हुआ उसे भूल जाओ, किसी और से भूल कर भी इसका
जिक्र मत करना। तुम पहले की तरह ही फैक्ट्री आते रहोगे।'
यह सुनते ही शशांक ने एक बार फिर मेरे पैर छू लिए और बोला-
'आप महान हैं सर, आपने मुझे बचा लिया।'
पर मैं सोच में पड़ गया, महान कौन है, शशांक या मैं? दुरुस्त हालातों में कोई
भी महान, ईमानदार हो सकता है, लेकिन विषम और विपरीत परिस्थितियों में इन गुणों
का बने रहना ही सच्ची महानता है और मेरी नजर में वही महान है।