गृहस्थी की गाड़ी सिर्फ पैसा, सुन्दरता या फिर सुशिक्षित होने भर से ही नहीं
चलती। यह समर्पण, समझ और सरोकार की आहुति भी माँगती है। स्वच्छंदता नहीं,
त्याग चाहती है। पर उसने तो यह कभी सीखा ही नहीं। उसकी हनक और सनक ही उसे ले
डूबी। आज शिरीष उससे दूर हो गया तो इसीलिए।
सुगन्धा का दर्प अब दरकने लगा था। और रोहित के रात-रात फोन उसे अखरने लगे। वह
समझने लगी, पति-पत्नी के बिगाड़ में कैसे लोग अपना जुगाड़ ढूँढ लेते हैं।
लेकिन मजबूरी थी, जब तक काम फंसा था, तो फोन अटेण्ड करने ही पड़ते। किन्तु वे
पल उसे बड़ा असहज कर देते। अब तो बिटिया भी बड़ी हो चली थी। घंटी बजते ही उसके
भी कान खड़े हो जाते।
'क्या जिन्दगी बना ली है मैंने अपनी। सोच का यह सिलसिला चला ही था कि
ट्रिन-ट्रिन फोन बज उठा। खुशबू ने घड़ी की ओर देखा। तकरीबन वही रोज का ही समय।
रात के साढ़े ग्यारह बजे थे। सुगन्धा ने फोन उठाया और उसकी ओर पीठ कर धीमी
आवाज में बातें करने लगी।
कुछ दिनों से ये नित्य का नियम ही हो गया। रात को सन्नाटे में जब पहली बार फोन
की घण्टी घनघनाई थी, तो खुशबू और सुगन्धा दोनों चौंक उठे थे। इसके बाद फोन आने
का यह क्रम रोज का ही हो गया। खुशबू भी इसकी आदी सी हो गयी। पर वह नजरें बचाकर
कनखियों से मम्मी को घूरती। उन्हें तनावग्रस्त देख कभी-कभार पूछ भी लेती-
'मम्मी क्या हुआ। 'कुछ नहीं' कहकर सुगन्धा टाल जाती।
खुशबू फिर ज्यादा जोर भी नहीं देती। वैसे भी घर में, जब से उसने होश सम्हाला,
तनाव ही पाया। खुशबू के पिता शिरीष सेना में अधिकारी थे, तो माँ सुगन्धा
देहरादून स्थित एक प्रतिष्ठित स्कूल में अध्यापिका।
खुशबू को याद ही नहीं है कि बचपन में कभी उसने मम्मी-पापा को दो घड़ी भी प्यार
से बातें करते देखा हो। हमेशा उन्हें लड़ते-झगड़ते ही पाया।
'तुमने मेरी कभी परवाह ही नहीं की। तुम्हें तो हमेशा अपनी और अपनी नौकरी की ही
पड़ी रहती है। दाम्पत्य जीवन क्या होता है, तुम जैसी दंभी महिला क्या जाने।'
'मैं स्वाभिमानी हूँ और होना भी चाहिए। तुम तो यही चाहते हो न कि औरत पैरों की
जूती बनी रहे। एक-एक पाई के लिए पति की मोहताज हो। हर पुरुष की यही सोच रहती
है। तभी उनके पौरुष को शान्ति भी मिलती है।'
खुशबू भी अब इतना समझने लगी थी कि पिता, मम्मी को बिला वजह उलाहना नहीं देते
थे। वह चाहते थे, माँ अपनी नौकरी छोड़कर उनके साथ रहे और घर-परिवार पर ध्यान
दे। लेकिन अहं की शिकार मम्मी को यह कतई मंजूर नहीं था।
शादी के एक साल बाद ही खुशबू आ गयी, तो कुछ समय के लिए शिरीष-सुगन्धा के बीच
की खाई पटती सी लगी। पर फिर वही रवैया। दो-तीन महीने बाद ही खुशबू को आया के
भरोसे छोड़ सुगन्धा ने फिर नौकरी पर जाना आरम्भ कर दिया। सुबह ही स्कूल निकल
जाती और देर शाम घर लौटती। आजिज आ चुके शिरीष का मन अब सुगन्धा से हटने लगा।
इधर सुगन्धा अपनी गलतियों पर तो गौर करती नहीं थी, उल्टे अब शिरीष पर ही
बेवफाई के इल्जाम लगाने लगी। जोरों से चिल्लाती-
'बाहर तो लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाते फिरते हो और घर बीवी-बेटी के पास
आकर संन्यासी बने खामोशी ओढ़ लेते हो।'
जवाब में शिरीष बोलता-'तो क्या करूँ? ऐसा क्या है इस घर में जो मैं किलकारी
मारूँ। घर से बाहर अगर मैं खुशी ढूँढ़ता हूँ तो तुम्हें जलन क्यों होती है?'
माँ-पिता के बीच यही झगड़े देखते-देखते खुशबू बारह वर्ष की हो आयी। अति हो गयी
तो कुछ ही समय पूर्व दोनों ने अलग-अलग रहने का फैसला कर लिया। खुशबू के लिए
सुगन्धा ने जिद की, तो शिरीष उसे उसके पास ही छोड़ने को राजी हो गया।
अब समस्या उस फ्लैट को लेकर थी जिसमें सुगन्धा और खुशबू रह रहे थे। फ्लैट का
स्वामित्व शिरीष और सुगन्धा दोनों के नाम से था। शिरीष सुगन्धा के हिस्से का
पैसा देकर उसका स्वामित्व अपने नाम पर कराना चाहता था जबकि सुगन्धा तलाक के
एवज में उस पर अपना हक चाहती थी।
एक-दूसरे से अलग हो जाने के बाद भी यही मसला उन दोनों के बीच झगड़े की जड़ बना
हुआ था। मामला घर की चारदीवारी से कोर्ट-कचहरी तक जा पहुँचा। इसी बीच मौका
ताड़ सुगन्धा की मदद को हाउसिंग सोसाइटी का चेयरमैन रोहित आगे आ गया। वह पेशे
से वकील भी था। उसने आग में और धी का काम किया। आये-दिन सुगन्धा को वह उकसाता
रहता-
'अरे! कैसे नहीं देंगे मेजर साहब इसे आपको? तलाक के हर्जाने के रूप में तो
उन्हें ये देना ही पड़ेगा। मैं लडूंगा आपका केस।'
जब-तब किसी न किसी बहाने वह मिलने घर आ धमकता या देर-सबेर फोन घनघनाता रहता।
जब पहली बार रात ग्यारह बजे उसका फोन आया, तो सुगन्धा चौंक उठी।
'हैलो! क्या कर रहे हैं आप? मैंने सोचा केस के बारे में आप से कछला कर लूँ।
रोहित बोला-
'जी इस समय!' सुगन्धा रोहित के इस देर रात आये फोन का मन्तव्य समझ रही थी। उसे
अन्दर ही अन्दर खीझ आयी कि जो बात कल भी हो सकती थी उसके लिए उसे रात ग्यारह
बजे फोन करने की क्या जरूरत थी! खैर वह गुस्सा पी गयी और कुछ बोलती इससे पहले
ही रोहित बोल उठा-
'अगर आपको आपत्ति न हो तो...।' बात यहीं अधूरी छोड़ दी उसने। 'आज स्कूल में
देर शाम तक मीटिंग चलती रही, सिर दुःख रहा है। हम कल बात कर लें, तो कैसा
रहेगा?' सुगन्धा ने विनम्रतापूर्वक उसका आग्रह टाल दिया।
चलो ठीक है, कहकर रोहित ने फोन रख दिया, तो सुगन्धा ने बड़ी चैन की साँस ली।
लेकिन अगले दिन फिर लगभग उसी समय फोन घनघना उठा। सुगन्धा ने चोर नजरों से
खुशबू की तरफ देखा। खुशबू की आँखों में उतराते सवालों से नजरें फेर सुगन्धा ने
चुपचाप फोन उठाया।
'सुगन्धा जी! मैं रोहित, क्या करें दिन भर इतना व्यस्त रहता हूँ समय ही नहीं
मिल पाता। इसलिए फिर आपको इस समय परेशान कर दिया।' और वह धीमे से कुटिल हँसी
हँसा।
उसकी हँसी की आवाज सुगन्धा के कानों में पिघले शीशे की तरह पड़ी। लेकिन अपने
को संयत रखते हुए उसने उससे अपने केस की प्रगति सम्बन्धी सवाल दाग दिया। आखिर
काम तो उसका ही था और इस झंझट से वह जितनी जल्दी हो, मुक्ति भी चाहती थी।
'इसको तो बस आप अपने पक्ष में ही समझिये। अगली तारीख में ही फैसला हो जायेगा।
आप सहयोग कीजिए और मेजर साहब से सम्बन्धित कुछ सूचनाएँ दे दीजिए। बस काम हुआ
समझो।'
रोहित के फोन अब अक्सर किसी न किसी बहाने देर रात इसी तरह आने लगे थे। हालत यह
हो गयी कि अब सुगन्धा को लगने लगा कि वो अपनी बड़ी होती बेटी से नजरें नहीं
मिला पा रही है।
बिस्तर पर लेटती, तो लगता खुशबू की नजरें पीछा कर रही हैं। पूछ रही हैं कि
रोहित अंकल को ऐसा कौन सा काम है, जिसके लिए उन्हें देर रात ही बात करनी होती
है?
सुगन्धा का स्कूल आवासीय था और वहाँ की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कई
दिनों से स्कूल प्रबन्धन सुगन्धा पर स्कूल परिसर में ही रहने के लिए दबाव डाल
रहा था। लेकिन सुगन्धा इसे टाले जा रही थी। वह मकान खाली कर शिरीष को केस
जीतने का कोई मौका नहीं देना चाहती थी। उसके पास स्थायी आवास का न होना ही तो
एक मुद्दा था, जो उसे मकान का स्वामित्व दिला सकता था।
किन्तु पिछले कुछ दिनों से रोहित के लगातार देर रात आने वाले फोन कॉल्स ने उसे
बुरी तरह विचलित कर दिया था। वह आत्म मंथन करने लगी-
शिरीष उसे उसके हिस्से का पैसा देने को तैयार है जिसे वह खुशबू के भविष्य के
लिए सुरक्षित रख सकती है। स्कूल परिसर में रहने से उसके खर्चे भी कम होंगे और
खुशबू का भविष्य भी बेहतर बन पायेगा। पर रोहित जानबूझ कर केस को लम्बा खींच
रहा है, ताकि वह उसकी कठपुतली बनी रहे। उसने तय किया, वह कुछ दिन और देखेगी,
नहीं तो फिर दूसरा रास्ता निकालना होगा।
लेकिन इस बीच संयोग से ऐसा हुआ कि उसे ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा। वह कुछ
दिनों से राहत महसूस कर रही थी। रात को फोन अब लगभग बन्द ही थे
'हो सकता है, रोहित को उन दिनों मुझसे केस सम्बन्धी काम ही रहा होगा। पर मुझे
तो अनावश्यक ही शक करने की आदत पड़ गयी है।'
सुगन्धा ने मन ही मन सोचा। किन्तु उसकी यह खुशफहमी अधिक समय तक बनी न रह सकी।
रात बारह बजे फोन घनघनाया, तो सुगन्धा और खुशबू दोनों चौंक उठे।
पिछले कुछ दिनों से सुगन्धा फोन की आवाज कम करना भी भूल गयी थी।
'हलो सुगन्धा जी! सो गयी क्या?' जाना पहचाना स्वर सुन सुगन्धा का मन आया कि कह
दे नहीं, आधी रात को वह तारे गिन रही है। लेकिन कह नहीं पायी।
'आपके केस का निर्णय अगली तारीख में तो हो ही जायेगा। उसके बाद आपसे बात करने
का मौका कहाँ मिलेगा। आज श्रीमती जी भी मायके गयी हैं, अकेलापन महसूस हो रहा
था। सोचा आपसे बातें करूँ', रोहित की आवाज नशे में बुरी तरह लड़खड़ा रही थी।
सुगन्धा एक पल को सन्न रह गयी। उसको खामोश पाकर रोहित फिर बोला।
'आप भी तो अकेली हैं। कभी तो हमसे बात कर लिया कीजिए, आपका मन भी बहल जायेगा।
आखिर इस सोसाइटी में हम ही आपके काम आयेंगे।' रोहित नशे में चूर बड़बड़ाये जा
रहा था।
सुगन्धा ने फोन पटक कर उसका तार निकाल दिया। गुस्से की आग और काम फँसे होने की
मजबूरी के मिले-जुले भाव उसके मन को बुरी तरह मथ रहे थे। एक पल के लिए उसे लगा
मानो सिर फट जायेगा।
बिस्तर पर आकर लेटी, तो नींद जैसे उड़ गयी थी। आखिर रोहित ने उसे समझा क्या
है! ठीक है शिरीष और उसमें नहीं बनी और तलाक हो गया, तो इसका मतलब यह तो नहीं
कि वह चौराहे पर खड़ी है और जिसके जी में आया, वह उसके मन बहलाने का जरिया बन
जाये?
मन पक्का कर वह अगले दिन रोहित के ऑफिस जा धमकी।
'मैंने शिरीष से समझौता कर लिया है, मैं केस वापस लेना चाहती हूँ।' दो टूक
शब्दों में उसने अपना निर्णय रोहित को सुना दिया।
सकपकाते हुए वह बोला, 'अरे मैडम, आप तो बुरा मान गयी, अब तो आप केस जीतने ही
वाली है। अब इस समय...। उसे बीच में टोकते हए सुगन्धा बोली-
'आपने सुना नहीं मैने क्या कहा, मुझे केस वापस लेना है। उसके तेवर देख रोहित
सहम गया पर अपनी हरकत से वह बाज नहीं आया। बोला-
'ठीक है मैडम, जैसा आप चाहें। लेकिन केस फ्री में नहीं लड़े जाते। हम तो उसके
लिए भी तैयार थे बशर्ते आप हमारी बात मान जातीं। दोनों का मन बहल...।' बीच में
ही सुगन्धा ने टोकते हुए कहा-'कितने पैसे देने हैं?' गुस्से से उसके शरीर में
जैसे असंख्यों चींटियाँ रेंगने लगी थी। जल्दी ही वह वहाँ से बाहर निकल जाना
चाहती थी।
'दो लाख तो दे ही दीजिए। कुछ और नहीं तो, पैसा तो ठीक मिल ही जाये। रोहित ने
बेशर्मी से अपनी बत्तीसी निपोरी।
'मैं आपको दो दिन बाद का चेक दे रही हूँ। निकलवा लीजिएगा। चेक उसकी मेज पर
फेंक कर सुगन्धा पैर पटकती हुई गुस्से में बाहर निकल आयी।
'अभी बहुत से काम करने हैं। शिरीष से बात करनी हैं और फिर स्कूल परिसर में
शिफ्ट होना है...।' बड़बड़ाते हुए उसके कदम तेजी से घर की ओर मुड़ गये।