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व्याख्यान

धर्म

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम धर्म का प्रमाण पीछे     आगे

धर्म के विषय में एक महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न है : 'यह इतना अवैज्ञानिक क्‍यों है?' यदि धर्म विज्ञान है, तो अन्‍य विज्ञानों की तरह यह सुनिश्चित क्‍यों नहीं है? ईश्‍वर तथा स्‍वर्ग इत्‍यादि में सभी प्रकार के विश्‍वास केवल कल्‍पना, केवल अंधश्रद्धा है। इन सबके विषय में कोई निश्चित धारणा प्रतीत नहीं होती। धर्म विषयक हमारे विचार सर्वदा बदलते रहते हैं। मन हमेशा प्रवहमान रहता है।

क्‍या मनुष्‍य एक अपरिवर्तनशील तत्व अर्थात आत्‍मा है, या वह सदा बदलता रहने वाला पदार्थ है? आदि बौद्ध धर्म को छोड़कर, सभी धर्मों की मान्‍यता है कि मनुष्‍य एक आत्‍मा है, अद्वय है, एक अविनाशी और अमर तत्व है।

आदि बौद्ध धर्म के अनुयायी यह मानते हैं कि मनुष्‍य परिमाणत: सदा परिवर्तनशील है; उसकी चेतना अकल्‍पनीय शीघ्रता से होने वाले परिवर्तनों का प्राय: अनंत अनुक्रम हैं। और हरेक परिवर्तन मानो एक दूसरे से असंबद्ध तथा स्‍वयंनिष्‍ठ होता है, और इस प्रकार अनुक्रम अथवा कारणता के सिद्धांत को वे लोग अग्राह्म समझते हैं।

यदि किसी इकाई का अस्तित्‍व है, तो वह सत् पदार्थ भी होगा। इकाई सदा आमिश्र होती है। अमिश्र तत्व किसी वस्‍तु का मिश्रण नहीं होता। यह किसी अन्‍य वस्‍तु पर निर्भर नहीं रहता है। यह स्‍वनिष्‍ठ तथा अमर तत्व है।

आदि बौद्धों की मान्‍यता है कि हरेक वस्‍तु असंबद्ध है; कोई वस्‍तु इकाई नहीं है; तथा मनुष्‍य के इकाई (अमिश्र) होने का सिद्धांत केवल विश्‍वास मात्र है, जो प्रमाणित नहीं किया जा सकता।

अत: महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न यह है कि क्‍या मनुष्‍य एक इकाई है; या एक सदा परिवर्तनशील वस्‍तु है?

इस प्रश्‍न को सिद्ध करने एवं इसका उत्तर देने का एक ही मार्ग है। मन की वृत्तियों को निरुद्ध कर दो, और तब यह बात सिद्ध हो जाएगी कि मनुष्‍य एक इकाई है, मौलिक है। सभी परिवर्तन मुझमें है, मेरे बुद्धि-तत्व अर्थात चित्त में हैं। मैं परिवर्तन नहीं हूँ। यदि मैं ऐसा होता, तो उनको रोक नहीं सकता था।

हरेक मनुष्‍य अपने को और दूसरों को विश्‍वास दिलाने का प्रयत्‍न करता है कि यह दुनिया बहुत अच्‍छी है तथा वह पूर्णरुपेण सुखी है। परंतु जब उसे अपने जीवन के उद्देश्‍यों के बारे में प्रश्‍न करने का अवसर मिलता है वह देखता है कि इसे या उसे प्राप्‍त करने का उसका यह संग्राम इसलिए है कि वह ऐसा करने का बाध्‍य है। उसे अनिवार्यत: गतिशील होना है। वह रुक नहीं सकता, अत: अपने को यह समझाने का प्रयत्‍न करता है कि वह सचमुच ही इस वस्‍तु या उस वस्‍तु को चाहता है। जो मनुष्‍य अपने को यह विश्‍वास दिलाने में सफल हो जाता है कि उसकी जिंदगी बड़े मज़े में कट रही है, वह बढि़या शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य वाला होता है। ऐसा मनुष्‍य अपनी इच्‍छाओं को, बिना किसी प्रश्‍न के, तत्‍काल ही पूरा कर लेता है। वह अपनी उस आंतरिक शक्ति की प्रेरणा से संचालित होता है, जो उसे बिना संकल्‍प के ही कार्य करने के लिए इस तरह प्रेरित करती रहती है कि जैसे वह कार्य इसलिए करता है कि वह उसे करना चाहता है। परंतु जब वह प्रकृति की ठोकरें प्रचुर परिमाण में खा चुका होता है, तथा जब वह काफ़ी चोट और घाव सह चुका होता है, तब वह इन सबका अर्थ जानने के लिए प्रश्‍न करने लगता है; और जैसे जैसे वह समझने लगता है कि वह अपने नियंत्रण से परे किसी अन्‍य शक्ति से संचालित हैं, और वह कोई कार्य इसलिए करता है कि उसे करने के लिए वह बाध्‍य है। तब वह विद्रोह करना शुरु कर देता है और युद्ध का प्रारंभ हो जाता है।

परंतु इन समस्‍त कष्‍टों से यदि छुटकारा पाने का रास्‍ता है, तो वह हमारे अंदर है। हम सत्‍य की प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्‍नशील रहते हैं। हम लोग निसर्गत: ही यह प्रयत्‍न करते रहते हैं। मानवात्‍मा की आभ्यांतरिक सृष्टि ही ईश्‍वर को आच्‍छादित कर देती है, इसीलिए ईश्‍वर के आदर्शों में इतनी विभिन्‍नताएँ हैं। जब यह सृष्टि रुक जाती हैं, तभी हम ब्रह्म को प्राप्‍त कर लेत हैं। यह ब्रह्म आत्‍मा में हैं, सृष्टि में नहीं। अत: सृष्टि को निरुद्ध करके ही हम ब्रह्म को जान सकते हैं। जब हम अपने विषय में सोचते हैं, तो देह के विषय में सोचते हैं, और जब ईश्‍वर के विषय में सोचते हैं, तो उसकी भी कल्‍पना देहधारी के रूप में ही करते हैं। चित्‍तवृत्तियों का निरोध, जिससे आत्‍मा प्रकट हो जाए, यही कर्तव्‍य है। इसकी साधना देह से ही आरंभ होती है। प्राणायाम का लक्ष्‍य ध्‍यान तथा एकाग्रता की प्राप्ति है। यदि तुम एक क्षण के लिए भी पूर्णतया निश्‍चल हो सको, तो तुम लक्ष्‍य तक पहुँच गये। इसके बाद भी बुद्धि काम करती रहेगी, परंतु वह वही पुरानी बुद्धि नहीं रह जाएगी। तुम, अपने को उसी रूप में जान लोगे, जो तुम हो- अर्थात अपनी यथार्थ आत्‍मा। एक क्षण के लिए अपनी चित्तवृत्ति का निरोध कर लो, तब तुम्‍हारे यथार्थ स्‍वरूप की सत्‍यता तुम्‍हारे हृदय में झलक उठेगी; तब मुक्ति हस्‍तगत हो जाती है और इसके बाद बंधन नहीं रहता। यह इस सिद्धांत से प्रमाणित होता है कि काल के एक क्षण को जान लेने से समग्र काल का ज्ञान हो जाता है, क्‍योंकि समग्र काल एक क्षण का ही त्‍वरित अनुक्रमण है। एक पर अधिकार कर लो- एक क्षण को पूर्णतया जान लो -और मुक्ति मिल जाएगी।

आदि बौद्धों का छोड़कर, सभी धर्म ईश्‍वर तथा आत्‍मा को मानते हैं। अर्वाचीन बौद्ध ईश्‍वर तथा आत्‍मा में विश्‍वास करते हैं। बर्मी, स्‍यामी, चीनी इत्‍यादि आदि बौद्ध हैं।

ऑर्नल्‍ड कृत 'एशिया की ज्‍योति' (Light of Asia) बौद्ध धर्म की अपेक्षा वेदांत का प्रतिनिधित्‍व अधिक करती है।


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