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व्याख्यान

धर्म

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम स्वाार्थोन्मूलन ही धर्म हैं पीछे     आगे

विश्‍व के अधिकारों का विभाजन कोई नहीं कर सकता। अधिकार के विषय में बात करने का अर्थ है, सीमित होना। यह 'अधिकार' नहीं, 'उत्तरदायित्‍व' है। विश्‍व में कहीं भी कोई अशुभ हो, उसके लिए प्रत्‍येक उत्तरदायी है। अपने भाई से कोई अपने को पृथक नहीं कर सकता। जो क्रियाएँ विश्‍व से एकत्‍व स्‍थापित करें, वे पुण्‍य हैं और जो विभेद स्‍थापित करें, वे पाप हैं। तुम अनंत के ही एक अंश हो। यही तुम्‍हारा स्‍वभाव है। अत: तुम अपने भाई के रक्षक हो।

जीवन का प्रथम लक्ष्‍य है ज्ञान तथा दूसरा लक्ष्‍य है सुख। ज्ञान तथा सुख मुक्ति की ओर ले जाते हैं परंतु जब तक हर प्राणी (चींटी या कुत्‍ता भी) मुक्ति नहीं प्राप्‍त कर लेता, तब तक कोई भी मुक्ति नहीं प्राप्‍त कर सकता। जब तक सभी सुखी नहीं हो जाते, कोई भी सुखी नहीं हो सकता। जब तुम किसी को क्षति पहुँचाते हो, तो अपने आपको ही क्षति पहुँचाते हो, क्‍योंकि तुम और तुम्‍हारा भाई एक ही हैं। सचमुच में वही योगी है, जो अपने को संपूर्ण विश्‍व में, और संपूर्ण विश्‍व को अपने में देखता है। आत्‍म-प्रतिष्‍ठा नहीं, आत्‍मत्‍याग ही सर्वोच्‍च लोक का धर्म है। यह दुनिया इसीलिए इतनी बुरी है, क्‍योंकि - 'अशुभ का विरोध न करो' - ईसा के इस उपदेश पर चलने का प्रयत्‍न कभी नहीं किया गया। समस्‍या का हल नि:स्‍वार्थता से ही हो सकता है। धर्म की उत्‍पत्ति प्रखर आत्‍मत्‍याग से ही होती है। अपने लिए कुछ भी मत चाहो। सब दूसरों के लिए करो। यही ईश्‍वर में निवास करना, उन्‍हीं में विचरण करना और अपने अपनेपन को उन्‍हीं में प्रतिष्ठित पाना है।


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