(रविवार, ५ जनवरी)
तुममें से अधिकांश को यह स्मरण है कि बचपन में उदीयमान सूर्य के भव्य सौंदर्य को देखकर तुम्हारा मन किस तरह आनंद से थिरक उठता था; वैसे ही तुम सब अपने जीवन में अस्तमित सूर्य की महिमा को देखकर स्तंभित रह जाते हो और कल्पना में ही सही, असीम को भेदने का प्रयत्न करते हो। वस्तुत: अखिल विश्व के मूल में यही भावना है- असीम को आविर्भूत होना और फि़र असीम में ही विलीन हो जाना। यह सारा विश्व अज्ञात से निकलकर अज्ञात में ही समाहित हो जाता है। घुटने के बल चलने वाले शिशु की तरह यह एक रहस्यमय अंधकार से आविर्भूत होता है और फि़र घिसटते हुए वृद्ध की भाँति रहस्यमय अंधकार में ही विलीन हो जाता है।
(हमारा यह संसार- इंद्रियों, बुद्धि और युक्ति का संसार- दोनों ही ओर अनंत, अज्ञेय और अज्ञात से परिसीमित है। यह अनंतता ही हमारी खोज हैं, इसी में अनुसंधान के विषय है; इसीमें तथ्य हैं; और इसी से प्राप्त होने वाले प्रकाश को संसार धर्म कहता है। कुछ भी हो धर्म मूलत: इंद्रियातीत भूमि की वस्तु है, ऐन्द्रिय [1] भूमि की नहीं। यह समस्त तर्क के परे हैं, तथा यह बुद्धि के स्तर का विषय नहीं। यह एक अलौकिक दिव्य दर्शन हैं, एक अंत: प्रेरणा हैं; यह अज्ञात और अज्ञेय में डूबना है, जिससे ज्ञानातीत ज्ञात से अधिक ज्ञात हो जाता है, क्योंकि वह कभी 'ज्ञात' नहीं जा सकता। जैसा कि मेरा विश्वास है, यह खोज मानवता के आदि काल से ही जारी है। विश्व के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं हुआ, जब मनुष्य की बुद्धि इस संघर्ष, अनंत की इस खोज में व्यस्त न रही हो। हमारे मन का जो नन्हा सा संसार है, उसमें हम विचारों को उठते हुए पाते हैं। ये विचार कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं, हम नहीं कह सकते। बृहत् पैंगंबरों और यह क्षुद्र जगत मानो एक ही लीक में हैं, एक ही अवस्थाओं को पार करते हैं, एक ही ग्राम में स्पंदित होते हैं।
अब मैं तुम्हारे समक्ष हिंदुओं के इस सिद्धांत को रखने की चेष्टा करूंगा कि धर्म कहीं बाहर से नहीं आता, बल्कि व्यक्ति के अभ्यंतर से ही। मेरी यह आस्था है कि धार्मिक विचार मनुष्य की रचना में ही सन्निहित हैं, और यह बात यहाँ तक सत्य है कि मनुष्य धर्म का त्याग तब तक नहीं कर सकता, जब तक उसका शरीर है, मन है, मस्तिष्क है, जीवन है। जब तक मनुष्य में सोचने की शक्ति रहेगी, तब तक यह संग्राम चलता ही रहेगा और तब तक धर्म किसी न किसी रूप में रहेगा ही। इस तरह विश्व में हमें धर्म के विभिन्न रूप मिलते हैं। बात कुछ विकट ज़रुर लगती है; पर ऐसा नहीं कहा जा सकता, जैसा कुछ लोग कहते हैं कि यह सब निरर्थक परिकल्पना है। इस अव्यवस्था में एक सामंजस्य भी है; इस समस्त विस्वर ध्वनियों में समस्वरता का भी एक स्वर हैं, और जो सुनना चाहे, वह उसे सुन सकता है।
वर्तमान काल में सबसे बड़ा प्रश्न है : अगर ज्ञात और ज्ञेय जगत का आदि और अंत आात तथा अनंत अज्ञेय द्वारा सीमाबद्ध है, तो उस अज्ञात के लिए हम प्रयास ही क्यों करें? क्यों न हम ज्ञात जगत में ही संतुष्ट रहें? क्यों न हम खाने, पीने और संसार की किंचित् भलाई करने में ही संतुष्ट रहें? ये प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते हैं। विद्वान प्राध्यापक से लेकर तुतलाते बच्चे तक हमसे कहते हैं, ''संसार की भलाई करो; यही सारा धर्म है इसके परे क्या है, इससे संबंधित प्रश्नों से व्यर्थ अपने को परेशान मत करो।'' यह बात इतनी चल पड़ी हैं कि इसने एक स्थिर सिद्धांत का रूप ले लिया है।
सौभाग्यवश हम अनंत के बारे में जिज्ञासा किये बिना नही रह सकते। यह जो वर्तमान है, व्यक्त है, यह अव्यक्त का एक अंश मात्र हैं। इंद्रियों की चेतना के स्तर पर जो अनंत आध्यात्मिक जगत प्रक्षेपित है, यह इंद्रियों जगत उसका एक नन्हा सा अंश है। ऐसी स्थिति में उस अनंत विस्तार को समझे बिना यह नन्हा सा प्रक्षेपित भाग कैसे समझा जा सकता है? सुकरात के बारे में ऐसा कहा जाता है कि एक बार एथेन्स में भाषण करते समय उउसे एक ब्रह्मण की मुलाकात हुई। वह ब्राह्मण यूनान की सैर कर चुका था। सुकरात ने उससे कहा कि मनुष्य के अध्ययन का सबसे महत्वपूर्ण विषय मनुष्य ही है। इस पर ब्राह्मण ने तुरंत उत्तर दिया, ''ईश्वर को जाने बिना तुम मनुष्य को कैसे जान सकते हो?'' यह ईश्वर,यह शाश्वत अज्ञेय सत्ता, यह ब्रह्म, यह अनंत अथवा अनाम- चाहे तुम जिस किसी भी नाम से उसे पुकारो- ज्ञात और अज्ञेय जगत का, वर्तमान जीवन का आधारहै, उसकी एकमात्र व्याख्या है, उसका निमित्त है। तुम अपने सामने की किसी भी वस्तु को ले लो, कोई भी अत्यंत भौतिक वस्तु-इन भौतिक विज्ञानों से ही किसी को ले लेा, चाहे रसायन शास्त्र अथवा भौतिक शास्त्र, चाहे नक्षत्र-विज्ञान अथवा जीव-विज्ञान -उसको लेकर उसका अध्ययन करो। उत्तरोत्तर स्थूल से सूक्ष्म तथा सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर तत्वों की ओर बढ़ते- बढ़ते तुम एक ऐसे बिंदु पर आ जाओगे, जहाँ से आगे बढ़ने के लिए तुमको भौतिक से अभौतिक पर चला जाना पड़ेगा। ज्ञान के हर क्षेत्र में स्थूल सूक्ष्म में समाहित हो जाता है और भौतिक तात्विक में।
और यह बात यहाँ की हर चीज़ में लागू है, चाहे वह समाज हो, हमारे पारस्परिक संबंध हों, हमारा धर्म हो अथवा नीतिशास्त्र हो। कुछ लोगों ने मात्र उपयोगिता के नाम पर ही नीतिशास्त्र की स्थापना करने का प्रयास किया है। मैं उस व्यक्ति को चुनौती देता हूँ, जो इस आधार पर किसी युक्ति संगत नीतिशास्त्र की स्थापना करने का दावा करता है। दूसरों की भलाई करो पर क्यों? क्योंकि इससे अधिकतम उपयोगिता मिलेगी। मान लो, कोई व्यक्ति कहता है, ''मैं उपयोगिता की परवाह नहीं करता; मैं धनी बनने के लिए दूसरों को कत्ल भी कर सकता हूँ।'' इस पर तुम क्या कहोगे? यह तो हेरोड की नृशंसता को भी पार कर जाना कहलायेगा। पर मेरे विश्व की भलाई करने की उपयोगिता ही क्या है? क्या मैं बेवकूफ हूँ, जो जीवन भर इसलिए खटता रहूँ कि दूसरे सुख से रहें? मैं स्वयं ही सुख से क्यों न रहूँ, अगर समाज के परे कोई शक्ति नहीं हैं, अगर इंद्रियों की दुनिया के परे कुछ नहीं है? अगर मैं अपने को पुलिस के हाथों से बचा सकूँ और सुखी रह सकूँ, तो फिर अपने भाइयों के गले काटने से भी मुझे कौन रोकने वाला है? इस बात का तुम क्या जवाब दोगे? तुम तो किसी न किसी तरह की उपयोगिता साबित करने के लिए बाध्य हो। इसलिए परास्त हो जाने पर भी तुम कहोगे, ''मेरे बंधु, भलाई करना ही अच्छा है।'' मानव-मन की वह कौन सी शक्ति है, जो कहती है, ''भलाई करना ही अच्छा है,'' जो आत्मा की महत्ता को इतने शानदार ढंग से हमारे सम्मुख रखती है, जो शुभ की मनोज्ञता, उसके आकर्षक तथा उसकी अनंत शक्ति को दर्शाती है? इसे ही हम ईश्वर कहते हैं। है न ?
अब मैं तनिक और अधिक सूक्ष्म बात कहने जा रहा हूँ। इस सिलसिले में मैं तुम्हारा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करना चाहूँगा और निवेदन करूँगा कि जो मैं कहूँ, उससे झटपट कोई निष्कर्ष न निकाल बैठो। बात यह है कि हम लोग संसार का कोई विशेष उपकार नहीं कर सकते। संसार का उपकार करना तो अच्छी बात है, पर वस्तुत: हम इसका उपकार कर भी सकते हैं क्या? शताब्दियों से जो प्रयास हम करते आ रहे हैं, क्या हमने सचमुच उससे विश्व की कुछ भलाई की है? क्या हम इन करोड़ों लोगों के सुख में किंचित भी वृद्धि कर सकते हैं? सैकड़ों, हज़ारों वर्षों से नित्य ही सुख के हज़ारों साधन निर्मित कियेजा रहे हैं। मैं तुमसे पूछता हूँ कि सौ वर्ष पहले जितना सुख था, क्या उसमें तनिक भी वृद्धि हुई है? यह हो नहीं सकता। समुद्र में कोई भी लहर उठती है, तो उसकी प्रतिक्रिया से जल कहीं न कहीं गहरा हो ही जाता है। अगर कोई राष्ट्र धनी और शक्तिशाली बन जाता है, तो इसका अर्थ है कि कहीं किसी राष्ट्र को क्षति पहुँची ही होगी। हर मशीन के आविष्कार से अगर बीस व्यक्ति धनी बरते हैं, तो बीस हज़ार व्यक्ति ग़रीब। सर्वत्र ही प्रतिद्वंद्विता का यही सिद्धांत है। अभिव्यक्त ऊर्जा का परिमाण तो सदैव वही रहता है। इसलिए सुख की वृद्धि का प्रयास भी मूर्खतापूर्ण ही है। यह कहना कि दु:ख से रहित सुख की प्राप्ति हो सकती है, बिल्कुल निराधार है। सुख के साधनों को बढ़ाकर तुम लोगों की आवश्यकताओं को बढ़ा देते हो और आवश्यकताओं के बढ़ने का अर्थ है, उस पिपासा का जन्म, जो कभी शांत नहीं होने की। किस चीज़ से इस पिपासा को शांत करोगे तुम? और जब तक यह पिपासा बनी रहेगी, तब तक अशांति रहेगी ही। जीवन का यह स्वभाव ही है कि इसमें सुख और दु:ख दोनों ही बारी-बारी से आते रहते हैं। क्या इतना समझने पर भी तुमको लगता है कि तुम संसार की भलाई कर सकोगे? क्या इस विश्व में और कोई सत्ता काम नहीं कर रही हैं? क्या वह ईश्वर, जो शाश्वत है, सर्वशक्तिशाली है, अत्यंत कृपालु हैं, जो सबके सो जाने पर भी कभी पलकें नहीं गिराता, वह इस विश्व को हमारे- तुम्हारे मत्ये छोड़कर सदा के लिए मर-मिट गया? यह अनंत आकाश मानो उसका विस्फारित नयन है! कैसे कहें कि वह मर गया? क्या वह विश्व में व्याप्त नहीं है? नहीं, नहीं, वह अवश्य है। तुमको घबराने तथा जान-बूझकर अपने को परेशान करने की ज़रुरत नहीं है।
(स्वामी जी ने इसके बाद एक ऐसे आदमी की कहानी कही, जो एक प्रेत अपनी सेवा करने के लिए चाहता था। पर जब प्रेत मिला, तो उसे व्यस्त रखने के लिए एक झबरीले कुत्ते की दुम सीधी करने का काम देना पड़ा)।
विश्व का उपकार करने का हमारा जो प्रयास है, वह कुछ इसी ढंग का है। मेरे बंधुओं, शताब्दियों से हम बस कुत्ते की दुम ही सीधी करते रहे हैं। यह तो जैसे गठिये की बीमारी है; पैर से दर्द हटाओ, तो सिर में चला जाता है और फिर सिर से हटाओ, तो किसी दूसरे अंग में चला जाता है।
तुममें से कुछ लोगों को लगेगा कि यह तो घेर निराशवादी दृष्टिकोण हैं। पर बात वैसी नहीं है। निराशावाद और आशावाद, दोनों ही ग़लत हैं। दोनों ही अतिवादी दृष्टिकोण हैं। जब तक व्यक्ति को खाने-पीने की प्रचुरता रहती हैं, पहनने के लिए भरपूर पकड़े मिलते रहते हैं, तब तक वह आशावादी रहता हैं। किंतु वही आदमी जब सब कुछ खो देता है, तो घोर निराशावादी बन बैठता है। आदमी जब अपनी सारी संपत्ति गँवाकर नितांत दरिद्र बन जाता है, तभी उसे विश्व-बंधुत्व की भावना सूझती है। यही दुनिया है। और जितना ही अधिक मैं देश-भ्रमण करता हूँ और संसार को देखता हूँ तथा मेरी आयु जितनी ही बढ़ती जाती है, उतना ही अधिक मैं इन दोनों अतिवादी दृष्टिकोणों- आशावाद तथा निराशावाद- से परे रहने का प्रयास करता हूँ। यह संसार न तो अच्छा है, न बुरा। यह तो प्रभु का संसार है। अच्छाई और बुराई से परे यह अपने आप में पूर्ण है। एक परमात्मा की इच्छा अनादि काल से विभिन्न रूपों में अपने आपको अभिव्यक्त कर रही है और अनंत काल तक यह वैसा ही करती चली जाएगी। यह विश्व एक विशाल व्यायामागार है, जिसमें हम और तुम जैसे लाखों जीव आकर व्यायाम करते तथा बलवान एवं पूर्ण होकर बाहर निकलते हैं। इस विश्व का प्रयोजन ही यही है। यह बात नहीं है कि ईश्वर पूर्ण विश्व का निर्माण नहीं कर सकता था, दु:खरहित विश्व की रचना नहीं कर सकता था। एक नवयुवती तथा एक पादरी की वह कहानी तुमको याद होगी, जो दूरबीन से चंद्रमा पर के काले धब्बों को देख रहे थे। और पुजारी ने कहा, ''वे एक गिरजाघर के शिखर हैं,'' जिस पर उस युवती ने जवाब दिया था, ''चुप भी रहो, वे दो तरुण प्रेमी होंगे, जो एक दूसरे को चूम रहे हैं।'' इस विश्व के साथ भी हम लोग इसी तरह पेश आ रहे हैं। जब हम भीतर रहते हैं तो सोचते हैं कि हम भीतर देख रहे हैं। वस्तुत: अस्तित्व के जिस स्तर पर हम हैं, उसी स्तर से हम विश्व को देख रहे हैं। रसोईघर की आग न तो बुरी है, न अच्छी। जब यह तुम्हारा भोजन पकाती है, तो तुम इसकी प्रशंसा करते हो और कहते हो, ''यह कितनी अच्छी चीज़ है।'' पर जब इससे तुम्हारी अंगुली जल जाती है, तो तुम चिल्ला उठते हो, ''कहाँ की बला है यह!'' इसी तरह यह कहना भी उतना ही उचित और युक्ति संगत है कि यह विश्व न तो बुतरा है, न अच्छा। विश्व तो विश्व है और हमेशा विश्व ही रहेगा। जब हम अपने को ऐसी परिस्थितियों में रखते हैं कि इसके कार्य-कलाप से हमारा लाभ होता है, तो इसे हम भला कहते हैं; परंतु जब हम ऐसी परिस्थिति में होते हैं कि इससे हमें पीड़ा होती है, तो हम इसे बुरा कहते हैं। इसलिए तुम देखोगे कि बच्चे, जो बिल्कुल निर्दोष होते हैं तथा किसी की भी बुराई करने की बात नहीं सोचते, हमेशा खुश रहते, नितांत आशावादी बने रहते हैं। हमेशा वे सुनहले सपने देखते रहते हैं। पर वृद्ध लोग, जो वासना की प्यास तो सँजोये रहते हैं, पर उसे तृप्त करने के साधन नहीं जुटा पाते, और विशेषकर वे लोग, जो संसार में अनेक बार ठोकरें खा चुके हैं, घोर निराशावादी बन जाते है। धर्म सत्य की खोज करता है। और पहली चीज़, जिसका इसने अनुसंधान किया है, वह यह है कि जब तक परम सत्य का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक जीवन व्यर्थ हैं।
अगर हम इस जगत के परे के तत्व को न जानें, तो जीवन रेगिस्तान बन जाएगा ; मानव जीवन निस्सार हो जाएगा। यह कहना तो बड़ा अच्छाहै कि प्रस्तुत क्षण की वस्तुओं से ही संतुष्ट रहो। गाय और कुत्ते तो वैसे संतुष्ट है ही; सभी जानवर ही उस तरह संतुष्ट हैं, और यही उन्हें जानवर बनाये हुए हैं। तो फिर मनुष्य भी अगर अनंत की खोज से मुँह मोड़कर वर्तमान जीवन में ही संतुष्ट रहने लगे, तो मानव जाति को एक बार फिर पशुत्व के स्तर पर जाना पड़ेगा। यह धर्म ही है, परे की खोज ही है, जो मनुष्य और पशु में भेद करती है। ठीक ही तो कहा गया है कि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो स्वभावत: ऊपर की ओर देखता है, अन्य सभी प्राणी स्वभावत: नीचे की ओर देखते हैं। ऊपर की ओर देखना, ऊपर उठना तथा पूर्णता की खेज करना- इसे ही मोक्ष कहते हैं। जितनी जल्दी कोई मनुष्य ऊपर उठने लगता है, उतनी ही जल्दी वह मोक्ष की ओर उन्मुख होता है। यह बात इस पर नहीं निर्भर करती कि तुम्हारे पास कितने पैसे हैं, तुम कौन सी पोशाक पहनते हो, अथवा तुम कैसे मकान में रहते हो, बल्कि यह इस पर निर्भर है कि तुम्हारे मन में कितनी बड़ी आध्यात्मिक निधि है। यही मानव को उन्नति की ओर ले जाती है, यही भौतिक और बौद्धिक प्रगति का मूल-स्रोत है, तथा यही मानवता को सदैव आगे बढ़ाने- वाला उत्साह, और पृष्ठभूमि में रहने वाले प्रेरक शक्ति है।
आखि़र मानवता का लक्ष्य क्या है ? आनंद ? इंद्रिय- सुख ? प्राचीन काल में लोग कहा करते थे कि स्वर्ग में लोग तुरही बजाते तथा एक सिंहासन के चारों ओर रहते हैं। आधुनिक युग में स्वर्ग का यह आदर्श लोगों को फीका जँचता है। इसलिए इसके स्थान में वे कहते हैं कि स्वर्ग में लोग विवाहादि सुखों के साथ रहते हैं। अगर दूसरे आदर्श में पहले की अपेक्षा कुछ सुधार दीखता है, तो यह सुधार और भी ख़राब है। स्वर्ग के संबंध में जो विभिन्न कल्पनाएँ सुनने को मिलती हैं, वे सभी हमारे मन की कमज़ोरियों की प्रतीक हैं। और वे कमजोरियाँ इन वजहों से है : पहले तो लोग इंद्रिय-सुख को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं। दूसरे, पाँचों इंद्रियों से परे किसी चीज़ की लोग कल्पना तक नहीं कर सकते। ये लोग उतने ही अविवेकी हैं, जितनी अविवेकी उपयोगितावादी हैं। पर इतना होने पर भी ये लोग उन नास्तिक उपयोगितावादियों से अच्छे हैं ही। उपयोगितावादिता तो गिरी नादानी है। तुमको यह कहने का क्या अधिकार है, ''यही मेरा मापदंड है और सारे विश्व को अपने मूल्यों से मापने का ? और वह भी तब जब तुम रोटी, रुपया और वस्त्र को ही ईश्वर मान रहे हो !
धर्म रोटी में नही हैं, मकान में नहीं है। बार- बार लोग प्रश्न करते हैं : धर्म से आखि़र कौन सी भलाई होगी ? क्या यह ग़रीबों की दरिद्रता दूर कर सकेगा और उनके लिए वस्त्रों का प्रबंध कर सकेगा ?'' मान लो कि धर्म यह सब नहीं कर सकता। तो क्या इससे धर्म की असत्यता सिद्ध हो जाएगी ? मान लो, तुम ज्योतिष के किसी सिद्धांत की चर्चा कर रहे हो और कोई बच्चा आकर कहने लगे,''क्या यह मीठी रोटी ला देगा ?'' तुम कहोगे, ''नहीं, यह नहीं लानेवाला है।'' इस पर बच्चा कहेगा, ''तब तो यह बेकार है।'' विश्व को देखने का बच्चों का अपना दृष्टिकोण हैं - वही रोटी ला देने वाला। और ठीक ऐसी ही बातें संसार के ये नादान बच्चे भी करते हैं। ]
यह दु:ख की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस तरह की बातें विद्वत्ता, विवेक और बौद्धिकता की निशानी मानी जाती है।
हमें उच्च स्तर की वस्तुओं को अपने निम्नस्तरीय मापदंड से नहीं मापना चाहिए। हर चीज़ को उसके अपने पैमाने से नापना उचित है, तथा अनंत को अनंत के पैमाने से। धर्म संपूर्ण मानव जीवन में परिव्याप्त है, न केवल वर्तमान में, अपितु भूत और भविष्य में भी। अत: इस शाश्वत आत्मा का शाश्वत ब्रह्म के साथ शाश्वत संबंध है। मानव-जीवन के पाँच मिनटों पर इसके प्रभाव को देखकर इसका मूल्यांकन करना क्या न्यायसंगत है ? कभी नहीं। पर ये सभी तर्क तो नकारात्मक हैं।
अब प्रश्न आता है कि क्या धर्म सचमुच कुछ कर सकता है ? कर सकता है।]
क्या धर्म रोटी और कपड़े का प्रबंध कर सकता है ? हाँ, कर सकता है। यह हमेशा ही ऐसा करता हैं। और इतना ही क्यों, यह इससे असंख्य गुना अधिक काम करता है- यह मनुष्य को शाश्वत जीवन प्रदान करता है। आज मनुष्य जिस स्थिति में हैं, वह धर्म ही की बदौलत हैं और धर्म ही इस मानव पशु को एक ईश्वर बना देगा। यह है धर्म की क्षमता। समाज से धर्म को निकाल दो, फिर शेष क्या बचेगा ? पशुओं से भरे जंगल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। जैसा कि मैं अभी कह चुका हूँ, इंद्रिय- सुख को मानवता का चरम लक्ष्य मानना महज़ मूर्खता है; मानव जीवन का लक्ष्य ज्ञान है। मैंने तुम्हें यह दिखलाने का प्रयास किया है कि हज़ारों वर्षों से सत्य की हमारी खोज़ और मानवता के कल्याण के लिए हमारे प्रयत्नों के बावजूद हम मुश्किल से कोई प्रगति कर पाये हैं। किंतु मनुष्य ने ज्ञान की सुख-सुविधा के लिए नहीं, अपितु मानव की पशुत्व की श्रेणी में उठाकर देवत्व की श्रेणी में लाने के लिए होना चाहिए। वैसा होने पर स्वभावत: ही ज्ञान से आनंद की प्राप्ति होगी। बच्चे सोचते हैं कि इंद्रिय- सुख ही सर्वस्व हैं। पर तुम जानते हो कि इंद्रिय -सुख से बौद्धिक सुख सूक्ष्मतर होता है। जितना आनंद कुत्ते को खाने में आता है, उतना किसी आदमी को नहीं आ सकता। तुम इस बात की परीक्षा कर सकते हो। तब आदमी को आनंद आता किसमें है? मैं उस आनंद की बात नहीं करता, जो किसी कुत्ते अथवा सुअर को भोजन करते वक़्त मिलता है। सोचो तो भला, सुअर किस तन्मयता से खाता है ! वह इतना विभोर होकर खाता है कि उस समय संपूर्ण विश्व को भूल जाता है। इसकी सारी सत्ता इसके भोजन द्वारा अभिभूत हो गई है। जब इसके पास भोजन है इसे परवाह नहीं अगर यह मार भी डाला जाता है। इसके सुख की तीव्रता का ख़्याल करो किसी मनुष्य को एसो नहीं होता। मनुष्य का भोजन जनित वह आनंद तब कहाँ चला गया ? मनुष्य ने उसे बौद्धिक आनंद में परिवर्तित कर लिया है। सुअर धार्मिक उपदेशों में आनंद नहीं ले सकता। इस बौद्धिक आनंद से भी एक कदम ऊँचा और तीव्रतर आध्यात्मिक आनंद है, जो मस्तिष्क और बुद्धि की सीमाओं के पार की वस्तु है। किंतु उसे पाने के लिए हमें इंद्रियजनित सारे सुखों को छोड़ना पड़ेगा। यही उपयोगिता का चरम बिंदु है। उपयोगिता वही है, जिसका मैं उपभोग करूँ, प्रत्येक आदमी उपभोग करे; और उसी उपयोगिता की हमें तलाश है!
हम देखते हैं कि एक पशु जितना आनंद अपनी इंद्रियों के माध्यम से पाता है, उससे अधिक आनंद मनुष्य अपनी बुद्धि के माध्यम से अनुभव करता है। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि मनुष्य आध्यात्मिक प्रकृति का बौद्धिक प्रकृति से भी अधिक आनंद प्राप्त करते हैं। इसलिए मनुष्य का परम ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है। इस ज्ञान के होते ही परमानंद की प्राप्ति होती है। संसार की सारी चीज़ें मिथ्या, छाया मात्र हैं, वे परम ज्ञान और आनंद की तृतीय या चतुर्थ स्तर की अभिव्यक्तियाँ हैं।
यह वह आनंद है, जो मानव मात्र को प्रेम करने से मिलता है। इस आध्यात्मिक आनंद की छाया मानव-प्रेम में देखने को मिलती है। किंतु इसे ही वह आनंद नहीं मान लेना चाहिए। यहीं हम भयंकर भूल कर बैठते है : हम अपने क्षुद्र प्रेम को - शारीरिक मानव प्रेम को, कणों के प्रति सम्मोह को, समाज में रहने- वाले प्राणियों के पारस्परिक उत्तेज़क आकर्षण को -परमानंद मान बैठते हैं, जो वह नहीं होता। चूँकि अंग्रेज़ी में इस अभिप्राय का कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता, इसलिए मैं इसे 'ब्लिस' (Bliss) कहूँगा, जो शाश्वत ज्ञान के समकक्ष है तथा जो हमारा लक्ष्य है। विश्व में जितने धर्म स्थापित हुए हैं तथा होंगे, उन सबका मूल स्रोत एक रहा है तथा एक ही रहेगा, भले ही विभिन्न देशों में उसे विभिन्न नामों से पुकारा जाए। पाश्चातत्य देशों में तुम उसे अंत:स्फुरण (inspiration) कहते हो। यह अंत:स्फुरण क्या है ? अंत:स्फुरण ही समस्त आध्यात्मिक ज्ञान का मूल है। हम लोगों ने देखा कि धर्म मूलत: इंद्रियातीत स्तर का विषय है। उस स्तर पर 'आँखें काम नहीं करतीं और न कान ही; मन के द्वारा यह चिन्त्य नहीं है और न वाणी के द्वारा प्रकाश्य।' यहीं धर्म का क्षेत्र है, यही उसका लक्ष्य है; और यहीं से प्रेरणा आती हैं। इस तरह यह स्वत: सिद्ध होता है कि इंद्रियों के परे नहीं जा सकती। हमारा सारा चिंतन इंद्रियों द्वारा संगृहीत तथ्यों पर ही आधारित है। मनुष्य तब इंद्रियों के परे जा भी सकता है क्या ? जो अज्ञेय है, उसे क्या हम जान भी सकते हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर धर्म के अस्तित्व को निर्धारित करेगा तथा करता रहा है। अति प्राचीन काल से ही मनुष्य यह अनुभव करता आ रहा है कि उसकी इंद्रियों के समक्ष एक अभेद्य दीवार खड़ी है असंख्य नर-नारी इसे भेदने के लिए इससे टकराते रहे हैं। करोड़ों को निराशा हाथ लगी, पर करोड़ों को सफलता भी मिली। यही तो विश्व का इतिहास है। करोड़ों लोग इस बात में विश्वास नहीं करते कि कभी कोई मनुष्य इस प्रयास में सफल भी हो सका है। ये हैं आजकल के संशयवादी लोग। अगर मनुष्य प्रयत्न करे, तो वह इस प्राचीर के पार जा सकता है। मनुष्य के पास केवल बुद्धि ही नहीं हैं, केवल इंद्रियां ही नहीं हैं; उसके पास बहुत कुछ ऐसा भी है, जो इंद्रियों की पहुँच के परे हैं। मैं यहाँ उसकी तनिक व्याख्या करूँगा और मैं आशा करता हूँ कि तुम भी उसको अपने भीतर अनुभव करोगे।
मैं अपना हाथ हिलाता हूँ और अनुभव करता हूँ तथा समझता हूँ कि मैं अपना हाथ हिला रहा हूँ। मैं इसे चेतना कहता हूँ। मुझे इस बात की चेतना है कि मैं अपना हाथ हिला रहा हूँ। किंतु मेरा हृदय भी तो क्रियाशील हैं। मुझे इसकी चेतना नहीं है। फिर भी वह कौन है, जो हृदय को क्रियाशील कर रहा है ? वह भी यही सत्ता होगी। इस तरह हम देखते हें कि यह सत्ता, जो हाथ हिला लेती हैं, बोल लेती हैं अर्थात सचेत होकर क्रियाएँ करती हैं, वह अचेतन काम भी करती हैं। इसलिए हम पाते हैं कि यह सत्ता चेतन और अचेतन, दो स्तरों पर काम कर सकती हैं। अचेतन से जो प्रेरणाएँ हमें मिलती हैं, उन्हें जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं और जो प्रेरणाएँ चेतन से प्राप्त होती हैं, उन्हें बुद्धि कहते हैं किंतु इन दोनों स्तरों से भी ऊँचा एक स्तर है, जिसे हम अतिचेतन कहते हैं। आपातत: यह स्तर भी अचेतन का स्तर ही माना जा सकता है, क्योंकि यह भी तो चेतनावस्था से परे हैं किंतु यह चेतनावस्था से ऊपर का स्तर है न कि उसके नीचे का। यह जन्मजात-प्रवृत्ति नहीं, बल्कि अंत:स्फुरण का स्तर है। इसका प्रमाण है। तुम विश्व के बड़े-बड़े पैगंबरों और महर्षियों को लो। उनके जीवन में अनेक क्षण ऐसे आते थे, जब उन्हें बाह्य जगत का कोई ज्ञान नहीं रहता था, पर उसी स्थिति में उन्हें वह परम ज्ञान मिला, जिसका उपदेश उन्होंने दिया है। सुकरात के बारे में कहा जाता है कि एक बार सेना के साथ जाते हुए उसने एक भव्य सूर्योदय देखा, और इससे उसके मन में अनेक विचार जाग्रत हो उठे। वह दो दिनों तक वहीं धूप में अचेत खड़ा रहा। ऐसे ही क्षणों में सुक़रात को वह ज्ञान मिला, जिस दुनिया जानती है। सभी धर्म-गुरुओं एवं पैगंबरों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। उनके जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब वे मानो चेतना के स्तर पर स्तर से ऊपर उठ जाते हैं और जब तक एक दिव्य प्रकाश के साथ चेतना के स्तर पर लौटते हैं, तो उस प्रकाश से प्रदीप्त होकर वे उस पार से दिव्य संदेश लाते हैं, और वे ही विश्व के दिव्य प्रेरित द्रष्टा हैं!
एक बहुत बड़ा ख़तरा भी है। कोई भी व्यक्ति कह सकता है कि उसे दैवी प्रेरणा मिली है; बहुत बार वे ऐसा कहते हैं। इसकी कसौटी क्या है ? निंद्रावस्था में हम अचेतन हो जाते हैं। एक मूर्ख तीन घंटे तक घोर निद्रा में सोकर जब जगता है तो, यदि और भी अधिक निकम्मा नहीं, तो पहले जैसा मूर्ख ही रहता है। किंतु दिव्यांतर (transfiguration) के बाद जब नाज़रथ के जीसस लौटते हैं, तो जीसस क्राइस्ट हो जाते हैं। यही अंतर है। एक दिव्यस्फुरण हैं और दूसरी जन्मजात-प्रवृत्ति। एक निरा बच्चा है, तो दूसरा अनुभवी वयोवृद्ध पुरुष। यह दिव्यस्फुरण हममें से प्रत्येक को मिल सकता है। सारे धर्मों का स्रोत यही है, सारे उच्चस्तरीय ज्ञान का स्रोत यही है और रहेगा। फि़र भी यह मार्ग ख़तरे से खाली नहीं है। कभी कभी धूर्त व्यक्ति अपने को संसार के ऊपर हावी करने से बाज नहीं आते। और आजकल तो यह काम और भी चल पड़ा है। मेरे एक मित्र के पास एक बड़ा सुंदर चित्र था। एक दूसरे सज्जन की, जो कुछ धार्मिक प्रकृति के थे और जो काफ़ी धनी थे, आँखें उस तस्वीर पर गड़ गयीं। किंतु मेरा मित्र उसे बेचने के लिए तैयार न था। एक दिन वे सज्जन आये और कहने लगे, ''मुझे प्रेरणा मिली है, ईश्वर से एक संदेश मिला है।'' मेरे मित्र ने पूछा, ''कौन सी दिव्य प्रेरणा है वह !'' तब उन्होंने कहा, ''आप उस चित्र को मुझे अवश्य दे दें।'' इस पर मेरे मित्र ने तुरंत कहा, ''अहा, कितनी सुंदर बात है! मुझे भी ठीक यही दिव्य प्रेरणा मिली है कि मुझे यह तस्वीर आपको दे देती होगी। क्या आप चेक लाये हैं ?'' ''चेक ? कैसा चेक ?'' तब मेरे मित्र ने कहा, ''तब मैं नहीं मानता कि आपको ठीक ठीक दिव्य प्रेरणा मिली है। मुझे तो यह संदेश मिला कि जो कोई भी १००००० डालर का चेक लेकर आये, उसे वह तस्वीर दे दूँ। इसलिए पहले आप ले आइए।'' इस पर उस व्यक्ति को लगा कि वह पकड़ा गया। और तब से उसने फिर कभी दिव्य प्रेरणा मिलने की बात नहीं की। ये ही सब खतरे हैं। बोस्टन में एक सज्जन मेरे पास आये और कहने लगे, ''स्वप्न में मुझसे हिंदू लोगों की भाषा में बातें की गयी हैं।'' मैंने कहा कि जो तुमसे कहा गया है, उसे सुनूँ भी तो भला। किंतु उन्होंने बहुत सारे निरर्थक अक्षर लिख डाले। मैंने उसे समझने की भरसक चेष्टा की, पर व्यर्थ। मैंने उनसे कहा कि जहाँ तक मुझे ज्ञान है, ऐसी भाषा हिंदुस्तान में न तो कभी रही है और न कभी होगी। हिंदुस्तान के लोग अभी इतने सभ्य नहीं हुए हैं कि ऐसी भाषा का प्रयोग कर सकें। उस सज्जन ने सोचा होगा कि मैं पक्का दुष्ट और संशयवादी आदमी हूँ और उसने अपनी राह ली। इसके बाद मुझे यह सुनकर आश्चर्य न होता कि वह आदमी पागलखाने में था। ये ही दो तरह के ख़तरे दुनिया में है। एक तो धूर्तों से और दूसरा मूर्खों से। पर इससे हमें हताश न होना चाहिए, क्योंकि दुनिया की हर बड़ी चीज़ के मार्ग में ख़तरे रहते ही हैं। किंतु हमें सावधानी अवश्य बरतनी होगी। कभी कभी ऐसे लोगों से हमारी भेंट होती है, जो किसी चीज़ को तर्क की कसौटी पर कसने के लिए एकदम तैयार नहीं होते। कोई भी व्यक्ति आकर कह सकता है- मुझे अमुक देवता का संदेश मिला है। क्या तुम इसे अस्वीकार करोगे? -क्या यह संभव नहीं कि अमुक देवता हैं और अपना संदेश भेज सकते हैं ? नब्बे प्रतिशत मूर्ख उसकी बातों को मान लेंगे। बातों को मान भर लेना उनका काम है। किंतु एक बात ज़रुर हैं, कोई भी घटना घट सकती है; अगले साल लुब्धक नक्षत्र के संयोग से पृथ्वी टुकड़े टुकड़े हो जा सकती है। किंतु जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो तुमको पूरा अधिकार है कि मुझसे कहा कि मैं अपने कथन को सिद्ध करके दिखा दूँ। जिसे वकील लोग Onus probandi अर्थात -सिद्ध करने का दायित्व, कहते हैं, वह उस व्यक्ति पर आता है, जो किसी कथन को कहता है। जब मैं कहता हूँ कि मुझे अमुक देवता की दिव्य प्रेरणा मिली हैं, तो तुम्हारा नहीं, बल्कि मेरा दायित्व होता है कि उसे सिद्ध करके दिखा दूँ, क्योंकि कथन तो मेरा ही है। अगर मैं इसे सिद्ध नहीं कर सकता, तो मेरा चुप रहना ही श्रेयस्कर है। अगर तुम इन दो तरह के ख़तरों से बच सको, तो तुम संसार में कहीं भी विचरण कर सकते हैं। हममें से बहुतों को यह आभास होता है कि किसी देवता की प्रेरणा हमें मिली है। जब तक उस दिव्य प्रेरणा का संबंध अपने आपसे रहे, तब तक तो उसे कोई ख़तरा नहीं है; पर जब उसका प्रभाव हमारे सामाजिक संबंधों एवं व्यवहारों पर पड़ने लगे, तो उसके बारे में हज़ार बार सोचकर कदम उठाओ; तभी तुम सुरक्षित रह सकोगे।
हम देखते हें कि यह अंत:स्फुरण ही धर्म का एकमात्र मूल स्रोत है; फिर भी इसमें भी सदा ख़तरे की संभावना रहती है। और सबसे बड़ा ख़तरा है दावे का अतिरेक। कुछ लोग आकर कहने लगते हैं कि उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है, वे सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रवक्ता हैं तथा उनके सिवा किसी और को यह अधिकार नहीं मिला है। आपातत: यह कथन ही अनुचित है। अगर विश्व में ऐसी कोई चीज़ है, तो वह सर्वव्यापक है। ऐसी कोई भी क्रिया नहीं, जो विश्व में सर्वत्र नहीं हो सकती, क्योंकि विश्व तो नियमबद्ध है; सर्वत्र ही इसमें नियमितता तथा सामंजस्य है। इसलिए अगर कोई चीज़ एक जगह है, तो वह हर जगह भी है। जिस नियमसे एक परमाणु बना है, उसी नियम से बड़े-बड़ेनक्षत्र और ग्रह भी बने हैं। अगर कभी किसी एक व्यक्ति को दैवी प्रेरणा मिली है, तो विश्व के हर व्यक्ति को प्रेरणा मिलने की संभावना है। और यही धर्म है। तुम इन सारे ख़तरों तथा भ्रमों से अलग हटकर धार्मिंक तत्तवों के संसर्ग में आओ और धर्म के विज्ञान का साक्षात्कार करो। बहुत सारे सिद्धांतों में विश्वास करने, बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़ने तथा मंदिर-मस्जिद में जाने में ही धार्मिकता नहीं सन्निहित है। क्या तुमने ईश्वर का दर्शन किया है ? तुमने आत्मा की अनुभूति की है ? अगर नहीं, तो क्या तुम इसकेलिए साधना कर रहे हो? ये सब बातें वर्तमान जीवन में ही अनुभव करने की हैं। इनके लिए चिरकाल तक प्रतीक्षा करने की ज़रुरत नहीं। भविष्य क्याहै ? असीमित वर्तमान ही भविष्य है ! काल क्या है ? एक क्षण का पुन: पुन: दुहराया जाना ही तो है। धर्म इसी जीवन की वस्तु है, इसी वर्तमान जीवन की।
[एक प्रश्न और : लक्ष्य क्या है ? आजकल लोग कहते हैं कि मनुष्य दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा है, किंतु उसके समक्ष कोई ऐसा बिंदु नहीं, जिसे वह अपने पूर्णतम विकास का प्रतीक मान ले। सतत आगे बढ़ते जाओ, पर पहुँचो कहीं नहीं। इसका जो भी अर्थ हो, जितना ही अद्भुत यह क्यों न हो, किंतु है एकदम अनर्गल। क्या कोई भी गति सीधी रेखा में होती है ? और यदि सीधी रेखा अनंत दूरी तक बढ़ायी जाए,तो वह एक वृत्त बना देती है, और आदि बिंदु पर लौट आती है। जहाँ से तुमने प्रारंभ किया था, वहीं लौटकर आना पड़ेगा। अगर तुमने ईश्वर से प्रारंभ किया है, तो अंतत: ईश्वर ही के पास आना पड़ेगा। तब शेष क्या रह जाएगा ? तुम्हारा स्फुट कार्य। अनंत काल तक तुमको स्फुट कार्य करते रहना पड़ेगा।'
एक दूसरा प्रश्न भी है : क्या प्रगति के पथ में हम नये धार्मिक सत्यों का भी अनुसंधान कर सकते हैं ? हाँ, और नहीं भी। पहले तो हम धर्म के बारे में इससे अधिक अब नहीं जान सकते। जो ज्ञेय था, वह ज्ञात हो चुका। संसार के सभी धर्म घोषित करते है कि हम सब में एकता का कोई न कोई सूत्र है। अगर हम उस दैवी सत्ता से एक हो चुके, तो इस अर्थ में आगे और प्रगति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ है, विविधता में इस एकता की उपलब्धि। मैं तुम लोगों के बीच स्त्री और पुरुष देखता हूँ- यह हुई विविधता। यदि मैं तुम लोगों को एक ही वर्ग में रखकर मानव कहूँ, तो यह वैज्ञानिक ज्ञान कहा जाएगा। दृष्टांत के लिए रसायनशास्त्र को लो। सभी ज्ञात पदार्थों को रसायनशास्त्री उनके मौलिक तत्वों में विश्लेषित करना और यदि संभव हो तो, उस एक तत्व को खोज लेना चाहते हैं, जिससे यह सब उद्भुत हुए हैं। ऐसा समय आसकता है, जब वे इस एक तत्व को जान लेंगे।उसका पता चल जाने पर वे और आगे नहीं जा सकेंगे, रसायनशास्त्र पूर्ण हो जाएगा। ठीक यही बात आध्यात्मिक विज्ञान के साथ भी है। यदि हम इस मौलिक एकता को जान लेते हैं, तो और आगे प्रगति नहीं हो सकती।
जिस दिन यह पता चल गया, 'मैं और मेरे पिता एक ही हैं', उसी दिन धार्मिक ज्ञान का अंतिम शब्द कह दिया गया। इसके बाद तो उसका विवरण करना ही शेष रहा। सच्चे धर्म में जैसा विश्वास या आस्था नहीं होती। किसी भी महान धर्मगुरु ने ऐसा उपदेश नहीं दिया है। मूर्ख लोग इस और उस आध्यात्मिक महापुरुष के अनुयायी होने का दंभ भरते हैं, और भले ही उनमें कोई शक्ति न हो, सारी मानवता को आँखें बंद करके विश्वास करने का उपदेश देते फिरते हैं। आखि़र विश्वास किसमें किया जाए? बिना सोचे- विचारे विश्वास करना तो आत्मा का पतन है। तुम नास्तिक भले ही हो जाओ, परंतु बिना सोचे-विचारे किसी चीज़ में विश्वास न करो। तुम क्यों अपनी आत्मा को पशुओं के स्तर में ले आओ ? ऐसा करके तुम केवल अपने को ही हानि नहीं पहुँचाते, बल्कि समाज तथा आने वाली पीढ़ी को भी। तनकर खड़े हो, छोड़कर तर्क करो। धर्म मान्यताओं का नहीं, होने तथा बन जाने का विषय है। यही धर्म है और अगर तुम इसका अनुभव कर लोगे, तो धार्मिक कहे जाओगे। इसके पहले तुम पशुओं से भिन्न नहीं हो। बुद्ध ने कहा है -''जो तुमने सुना है, उसमें विश्वास न कर लो; न इसलिए विश्वास कर लो कि ये सिद्धांत तुम्हें पिछली पीढि़यों से प्राप्त हुए हैं; किसी बात में इसलिए विश्वास न कर लो कि उसे लोग अंधों की तरह मानते हैं; न इसलिए विश्वास करो कि कोई वृद्ध महर्षि कुछ कह रहे है; न उन सत्यों में विश्वास कर लो, जिनसे अभ्यासवश तुम्हारा संबंध हो गया है; और न अपने गुरुओं अथवा वृद्ध जनों के प्रमाण मात्र पर विश्वास कर लो। अपने आप सोचो, विश्लेषण करो, और तब यदि निष्कर्ष तुम्हें बुद्धिसंगत तथा सबके लिए हितकर लगे, तो उसमें विश्वास करो और उसे अपने जीवन में ढाल लो।''