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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम संन्‍यासी पीछे     आगे

संन्‍यासी शब्‍द का अर्थ समझाते हुए, अमेरिका के बोस्‍टन नगर में स्‍वामी जी ने अपने एक व्‍याख्‍यान के सि‍लसिले में कहा: मनुष्‍य जिस स्थिति में पैदा हुआ है, उसके कर्तव्‍य जब वह पूरे कर लेता है, जब उसकी आकांक्षाएँ सांसारिक सुख-भोग, धन-संपत्ति, नाम-यश, अधिकार आदि को ठुकराकर उसे आध्‍यात्मिक जीवन की खोज में प्रेरित करती हैं, और जब संसार के स्‍वभाव में पैनी दृष्टि डालकर वह समझ जाता है कि यह जगत् क्षणभंगुर है, दु:ख तथा झगड़ों से भरा हुआ है और इसके आनंद तथा भोग तुच्‍छ हैं, तब वह इन सबसे मुख मोड़कर शाश्‍वत प्रेम तथा चिरंतन आश्रयस्‍वरूप उस सत्‍य को ढूँढ़ने लगता है। वह समस्‍त सांसारिक अधिकारों यश संपदा से पूर्ण संन्‍यास ले लेता है और आत्‍मोत्‍सर्ग करके आध्‍यात्मिकता को निरंतर ढूँढ़ता हुआ प्रेम, दया, तप और शाश्‍वत ज्ञान प्राप्‍त करने की चेष्‍टा करता रहता है। वर्षों के ध्‍यान, तप और खोज से ज्ञानरूपी रत्‍न को पाकर वह भी पर्याय-क्रम से स्‍वयं गुरु बन जाता है, और फिर शिष्‍यों गृही तथा त्‍यागियों में उस ज्ञान का संचार कर देता है।

संन्यासी का कोई मत या संप्रदाय नहीं हो सकता, क्‍योंकि उसका जीवन स्‍वतंत्र विचार का होता है, और वह सभी मत-मंतातरों से उनकी अच्‍छाइयाँ ग्रहण करता है। उसका जीवन साक्षात्‍कार का होता है, न कि केवल सिद्धांतों अथवा विश्‍वासों का, और रूढि़यों का तो बिल्‍कुल ही नहीं।


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