सच्चा गुरु वह है, जो समय समय पर आध्यात्मिक शक्ति के भंडार के रूप में
अवतीर्ण होता है, और गुरु-शिष्य-परंपरा द्वारा उस शक्ति को पीढ़ी दर पीढ़ी के
लोगों में संचरित करता है। जिस प्रकार एक विशाल नदी अपने पुराने मार्ग को
छोड़कर एक दूसरे ही मार्ग वे बहने लगती है, उसी प्रकार इस आध्यात्मिक शक्ति
का प्रवाह भी समय समय पर अपनी गति बदलता रहता है। अवएव, देखा जाता है कि
कालान्तर में धर्म के पुराने संप्रदाय निर्जीव हो जाते हैं, और नवजीवन की
अग्नि से भरे नूतन संप्रदायों का अभ्युदय होता है। बुद्धिमान पुरुष उसी
संप्रदाय का आश्रय लेते हैं, जिसमें से जीवन-धारा प्रवाहित होती है। पुराने
धार्मिक संप्रदाय अजायबघर में सुरक्षित रखे हुए किसी समय के भीमकाय पशुओं के
कंकाल के समान है। तो भी, इन प्राचीन संप्रदायों का हमें उचित आदर करना चाहिए
जिस प्रकार आम का एक सूखा पेड़ रसीले आम खाने की हमारी इच्छा की पूर्ति नहीं
कर सकता, उसी प्रकार ये संप्रदाय सर्वोच्च की उपलब्धि के लिए आत्मा की
यथार्थ लालसा को शांत नहीं कर सकते।
सबसे आवश्यक बात यह है कि हम अपने मिथ्या अभिमान को तिलांजलि दे दें- यह
अभिमान कि हमें कुछ आध्यात्मिक ज्ञान है- और श्रीगुरु के चरणों में संपूर्ण
आत्मसमर्पण कर दें। केवल श्रीगुरु ही जानते हैं कि कौन सा मार्ग हमें
पूर्णत्व की ओर ले जाएगा। हमें इस संबंध में कुछ भी ज्ञान नहीं- हम कुछ भी
नहीं जानता- इस प्रकार का यथार्थ नम्र भाव आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए
हमारे ह्दय के द्वार खोल देगा। जब तक हममें अहंकार का लेश मात्र भी रहेगा, तब
तक हमारे मन में सत्य की धारणा कदापि नहीं हो सकती। तुम सबको यह अहंकार रूपी
शैतान अपने ह्दय से निकाल देना चाहिए। आध्यात्मिक अनुभूति के लिए संपूर्ण
आत्मसमर्पण ही एकमात्र उपाय है।