(सैनफ्रांसिस्को में 29 मार्च 1600 को दिया गया भाषण)
मेरा विषय है 'शिष्यत्व'। मैं नहीं जानता कि मैं जो कहूँगा,वह तुमको कैसा
लगेगा। इसको स्वीकार करना तुम्हारे लिए कुछ कठिन होगा--इस देश में गुरुओं और
शिष्यों के जो आदर्श हैं, वे हमारे देश के ऐसे आदर्शों से बहुत भिन्न हैं।
मुझे भारत की एक पुरानी लोकोक्ति याद आ रही है: 'गुरु तो लाखों मिलते हैं, पर
शिष्य एक भी पाना कठिन है।' बात सही मालूम होती है। आध्यात्मिकता की
प्राप्ति में एक महत्वपूर्ण वस्तु शिष्य की मनोवृत्ति है, जब अधिकारी
योग्य होता है, तो दिव्य प्रकाश का अनायास आविर्भाव होता है।
सत्य को प्राप्त करने के लिए शिष्य के लिए क्या आवश्यक है? महान ऋषियों
ने कहा है कि सत्य प्राप्त करने में निमिष मात्र लगता है--प्रश्न केवल जान
लेने भर का है। स्वप्न टूट जाता है, उसमें देर कितनी लगती है? एक सेकेंड में
स्वप्न का तिरोभाव हो जाता है। जब भ्रम का नाश होता है, तो उसमें कितना समय
लगता है? पलक झपकने में जितनी देर लगती है, उतनी। जब मैं सत्य को जानता हूँ,
तो इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता कि असत्य गायब हो जाता है। मैंने रस्सी
को साँप समझा था और अब मैं जानता हूँ कि वह रस्सी है। प्रश्न केवल आधे सेकंड
का है। और सब कुछ हो जाता है। तू वह है। तू वास्तविकता है। इसे जानने में
कितना समय लगता है? यदि हम ईश्वर है और सदा से वही हैं, तो इसे न जानना
अत्यंत आश्चर्य की बात है। एकमात्र स्वाभाविकता यह है कि हम इसे जानें। इसका
पता लगाने में युग नहीं लगने चाहिए कि हम सदा क्या रहे हैं और अब क्या है?
फिर भी इस स्वत: प्रत्यक्ष सत्य को प्राप्त करना कठिन जान पड़ता है। इसकी
एक धूमिल झाँकी मिलना आरंभ होने के पूर्व युग पर युग बीत जाते हैं। ईश्वर
जीवन है; ईश्वर सत्य है। हम इस विषय पर लिखते हैं; हम अपने अंत:करण में
अनुभव करते हें कि यह सत्य है, कि आज यहाँ, अतीत और भविष्य में ईश्वर के
अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुएँ मिथ्या हैं। फिर भी हममें से अधिकांश लोग जीवन
भर एक से बने रहते हैं। हमे असत्य से चिपटे रहते हैं और सत्य की और अपनी पीठ
फेरते हैं। हम सत्यको प्राप्त करना नहीं चाहते। हम नहीं चाहते कि कोई हमारे
स्वप्न को तोड़े। तो तुम देखते हो कि गुरुओं की आवश्यकता नहीं है। सीखना
कौन चाहता है? पर यदि कोई सत्य की अनुभूति प्राप्त करना चाहता है और भ्रम को
जीतना चाहता है, यदि वह सत्य को किसी गुरु से प्राप्त करना चाहता है, तो उसे
सच्चा शिष्य होना होगा।
शिष्य होना आसान नहीं है। बड़ी तैयारियों की आवश्यकता है; बहुत सी शर्तें
पूरी करनी होती हैं। वेदांतियों ने मुख्य शर्तें चार रखी हैं। पहली शर्त यह
है कि जो शिष्य सत्य को जानना चाहता है, वह इस लोक अथवा परलोक में कुछ
प्राप्त करने की सभी इच्छाओं को त्याग दे।
जो हम देखते हैं, वह सत्य नहीं है। जो हम देखते हैं, वह उस समय तक सत्य नहीं
है, जब तक हमारे मन में इच्छाएँ घुस आती रहती हैं। ईश्वर सत्य है, और यह
संसार सत्य नहीं है। जब तक ह्दय में संसार के लिए तनिक भी इच्छा है, सत्य का
उदय नहीं होगा। मेरे चारों ओर का संसार खँडहर हो जाए, मुझे चिंता नहीं। आगामी
जीवन में भी ऐसा ही हो; मुझे स्वर्ग जाने की चिंता नहीं है। स्वर्ग क्या
है? इस पृथ्वी का ही एक प्रस्तार है। यदि स्वर्ग न होता, पृथ्वी पर के इस
मूर्खतापूर्ण जीवन का प्रस्तार न होता, तो हम आज की अपेक्षा अच्छी स्थिति
में होते और आज जो मूर्खतापूर्ण स्वप्न हम देख रहे हैं, वे जल्दी भंग हो
जाते। स्वर्ग जाकर हम केवल इन दु:खमय भ्रमों की अवधि ही बढ़ाते है।
स्वर्ग में तुमको क्या मिलता है? तुम देवता हो जाते हो, अमृत पीते हो और
तुमको गठिया हो जाती है। वहाँ पृथ्वी की अपेक्षा दु:ख कम है, पर सत्य भी कम
है। बहुत धनी लोग सत्य को ग़रीबों की अपेक्षा कम समझ पाते हैं। 'सुई के छेद
से ऊँट का निकल जाना संभव हो सकता है, पर ईश्वर के राज्य में धनी का प्रवेश
संभव नहीं।' धनी मनुष्य के पास अपनी संपत्ति और शक्ति,अपनी सुविधा और विलास
के अतिरिक्त और किसी वस्तु के विषय में सोचने का समय ही नहीं होता। बहुत कम
धनी धार्मिक बन पाते हैं। क्यों? इसलिए कि वे सोचते हैं कि यदि वे धार्मिक हो
जाएंगे,तो उन्हें जीवन का आनंद नहीं मिलेगा। इसी प्रकार स्वर्ग में
आध्यात्मिक हो सकने की संभावना बहुत कम है, वहाँ अत्यधिक सुविधा और सुख
हैं-स्वर्ग निवासी अपना सुख छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
वे कहते हैं कि स्वर्ग में कभी रूदन नहीं होगा। जो मनुष्य कभी रोता नहीं,
मैं उस पर विश्वास नहीं करता; उसके ह्रदय के स्थान पर कठोर चट्टान का एक
बड़ा टुकड़ा होता है। यह स्पष्ट है कि स्वर्ग के लोगों में बहुत सहानुभूति
नहीं होती। वहाँ न जाने कितने लोग हैं और हम दु:खी इस विकट स्थान में कष्ट
भोग रहे हैं। वे हमें इस सबमें से बाहर निकाल सकते हैं, पर निकालते नहीं। वे
रोते नहीं। वहाँ शोक अथवा दु:ख नहीं है; इसलिए वे किसी के दु:ख की चिंता नहीं
करते। वे अपना अमृत पीते रहते हैं, नृत्य चलते रहते है; सुंदर पत्नियाँ और
शेष सब।
शिष्य को इन बातों से परे जाकर कहना चाहिए, "मैं इस जीवन में किसी वस्तु की
इच्छा नहीं करता और न किसी स्वर्ग की, वे जितने भी हों- मैं उनमें से किसी
में नहीं जाना चाहता। मैं किसी रूप में भी इंद्रियग्रस्त जीवन को नहीं चाहता-
अपने को शरीर नहीं समझना चाहता। जैसा मैं अभी अनुभव करता हूँ, मैं यह
शरीर-मांस का यह वृहत् पिंड हूँ- यह मैं अनुभव करता हूँ कि मैं हूँ। मैं इसमें
विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ।"
यह संसार ओर ये स्वर्ग, ये सब इंद्रियों से बँधे हैं। यदि तुम्हारे
इंद्रियां नहीं होतीं, तो तुम संसार की चिंता नहीं करते। स्वर्ग भी संसार है।
पृथ्वी, स्वर्ग, और वह जो सब बीच में है, उसका केवल एक नाम है-पृथ्वी।
इसलिए जो शिष्य अतीत अतीत और वर्तमान को जानते हुए और भविष्य की सोचता है,
जानता है कि समृद्धि क्या है, सुख का क्या अर्थ है, वह इन सबको छोड़ देता
है, सत्य और केवल सत्य को जानना चाहता है। यह पहली शर्त है।
दूसरी शर्त यह है कि शिष्य को अपनी अतरिंद्रियों और बहिरिंद्रियों को
नियंत्रित करने में समर्थ होना चाहिए और कुछ अन्य आध्यात्मिक गुणों में दृढ़
होना चाहिए।
बाह्य इंद्रियां शरीर के विभिन्न भागों में स्थित दृश्य अंग है;
अंतरिंद्रियाँ अस्पृश्य हैं। हमारे नेत्र, कान, नाक आदि बाह्य हैं; और उनसे
संगत अंतरिंद्रियाँ हैं। हम निरंतर इंद्रियों के इन दोनों वर्गों के संकेतों
पर नाचते हैं। इंद्रियों के समानुरूपी इंद्रियग्रस्त विषय हैं। यदि कोई
इंद्रियग्रस्त विषय निकट होते हैं, तो इंद्रियां हमें उनका अनुभव करने को विवश
करती हैं; हमारी कोई इच्छा अथवा स्वतंत्रता नहीं होती। यह एक बड़ी नाक है।
वहाँ तनिक भी सुगंध है, मुझे वह सूँघनी पड़ती है। यदि गंध बुरी होती, तो मैं
अपने से कहता, "इसे मत सूँघो।" पर प्रकृति कहती है "सूँघ", और मैं सूँघता हूँ।
तनिक सोचो तो, हम क्या हो गए हैं! हमने अपने को बाँध लिया है। मेरे आँखें
हैं। कुछ भी हो रहा हो, अच्छा या बुरा, मुझे देखना होगा। सुनने के साथ भी यही
बात है। यदि कोई मुझसे बुरी तरह बोलता है, तो वह मुझे सुनना होगा। मेरी
श्रवणेंद्रिय मुझे यह करने को बाध्य करती है, और मुझे कितना दु:ख अनुभव होता
है! निंदा अथवा प्रशंसा-मनुष्य को सुननी पड़ेगी। मैंने बहुत से बहरे मनुष्य
देखे हैं, जो आम तौर पर नहीं सुन पाते, पर यदि बात उनके बारे में होती है, तो
वह सदा सुन लेते हैं!
ये सब इंद्रियां, अंत: और बाह्य, शिष्य के नियंत्रण में होनी चाहिए। कठिन
अभ्यास के द्वारा उसे ऐसी अवस्था में पहुँच जाना चाहिए, जहाँ वह अपने मन
द्वारा इंद्रियों का, प्रकृति के आदेशों का, सफल विरोध कर सके। वह अपने मन से
यह कह सके: "तुम मेरे हो, मैं तुम्हें कुछ न देखने की अथवा न सुनने की आज्ञा
देता हूँ," और मन न कुछ देखे, न कुछ सुने-मन पर किसी रूप अथवा ध्वनि की
प्रतिक्रिया न हो। इस अवस्था में मन इंद्रियों के अधिकार से मुक्त हो चुका
होता है, उनसे अलग हो चुका होता है। अब वह इंद्रियों और शरीर से आबद्ध नहीं
रहता। बाह्य वस्तुएँ अब मन को आज्ञा नहीं दे सकती; मन अपने को उनसे जोड़ना
स्वीकार नहीं करता वहाँ सुंदर गंध है। शिष्य मन से कहता है, "मत सूँघों," और
मन गंध का अनुभव नहीं करता। जब तुम ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हो, तभी तुम
शिष्य बनना आरंभ करते हो। इसीलिए जब प्रत्येक मनुष्य कहता है, "मैं सत्य
को जानता हूँ, "यदि तुम सत्य को जानते हो, तो तुममें आत्मनियंत्रण होना
चाहिए; और यदि तुममें आत्मनियंत्रण है, तो उसे इन इंद्रियों के नियंत्रण के
रूप में प्रकट करो।"
इसके बाद, मन को शांत करना चाहिए। वह इधन-उधर भटकता रहता है। जब मैं ध्यान के
लिए बैठता हूँ, तो मन में संसार के सब बुरे से बुरे विषय उभर आते हैं। मतली
आने लगती है। मन ऐसे विचारों को क्यों सोचता है, जिन्हें मैं नहीं चाहता कि
वह सोचे? मैं मानो मन का दास हूँ। जब तक मन चंचल है और वश से बाहर है, तब तक
कोई आध्यात्मिक ज्ञान संभव नहीं है। शिष्य को मनोनिग्रह सीखना है। हाँ, मन
का कार्य सोचना है। पर यदि शिष्य नहीं चाहता, तो उसे सोचना नहीं चाहिए; जब वह
आज्ञा दे, तो सोचना बंद कर देना चाहिए। शिष्यता का अधिकारी बनने के लिए मन की
यह स्थिति बहुत आवश्यक है।
और, शिष्य की सहनशक्ति भी महान होनी चाहिए। जीवन सुविधापूर्ण मालूम होता है;
और पाते हैं कि जब सब बातें ठीक ठीक चलती रहती हैं, तो मन ठीक प्रकार से
व्यवहार करता है। पर जब कोई बात बिगड़ जाती है, तो तुम्हारा मन संतुलन खो
देता है। यह ठीक नहीं है। सारी बुराई और दु:ख को कष्ट की एक आह के बिना, दु:ख
के, विरोध के, निराकरण के और प्रतिशोध के एक विचार के बिना सहन करो। यह सच्ची
सहनशक्ति है; और यह तुमको प्राप्त करनी चाहिए।
शुभ, अशुभ संसार में सदा रहे हैं। बहुत से भूल जाते हैं कि बुराई भी है-कम से
कम वे भूलने का यत्न करते हैं-और जब अशुभ से पाला पड़ता है, तो वे उससे
अभिभूत हो जाते हैं और कटु हो उठते हैं। और कुछ है, जो कहते हैं कि अशुभ
बिल्कुल नहीं है, और प्रत्येक वस्तु को शुभ समझते हैं। यह भी एक दुर्बलता
है; यह भी अशुभ के भय से उत्पन्न होती है। यदि कोई वस्तु बुरी गंध देती है,
तो उस पर गुलाब जल क्यों छिड़को और उसे सुगंधित क्यों कहो? हाँ, संसार में
शुभ है और अशुभ है-ईश्वर ने संसार में अशुभ बनाया है। पर तुमको उस पर सफेदी
नहीं पोतनी है। अशुभ क्यों है, इससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं। कृपया
विश्वास रखो और शांत रहो।
जब मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण बीमार पड़े, तो एक ब्राह्मण ने सुझाया कि वे
रोग से मुक्ति पाने के लिए अपनी महान मानसिक शक्ति का उपयोग करें; उसने कहा कि
यदि गुरु अपने मन को अपने शरीर के रोगी भाग पर केंद्रित करें, तो वह अच्छा हो
जाएगा। श्री रामकृष्ण ने उत्तर दिया, "क्या! जो मन मैंने ईश्वर को दे दिया
है, उसे इस क्षुद्र शरीर के लिए नीचे उतारूँ! "उन्होंने शरीर और बीमारी के
विषय में सोचना अस्वीकार कर दिया। उनका मन निरंतर ईश्वर का अनुभव करता था;
वह पूर्णरूपेण उसके प्रति अर्पित था। वह किसी दूसरे कार्य के लिए उसका उपयोग
करने को तैयार नहीं थे।
स्वास्थ्य, संपत्ति, दीर्घायु और ऐसी ही अन्य वस्तुओं; तथाकथित शुभ वस्तुओं
के प्रति लालसा भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उनकी प्राप्ति के लिए उनमें
मन लगाने से केवल प्रवंचना को बल मिलता है। इस जीवन में हमारे ये स्वप्न और
भ्रम हैं, और हम आगामी जीवन में, स्वर्ग में उन्हें और भी अधिक परिमाण में
चाहते हैं। अधिक, और अधिक भ्रम। अशुभ का विरोध मत करो। उसका सामना करो। तुम
अशुभ से ऊँचे हो।
संसार में यह दु:ख है-यह किसी न किसी को सहना है। तुम किसी के लिए अशुभ की
सृष्टि किए बिना कोई कार्य नहीं कर सकते। और जब तुम सांसारिक शुभ चाहते हो, तो
तुम केवल एक अशुभ से बचते हो, जो किसी दूसरे को भोगना पड़ता है। प्रत्येक
मनुष्य इसे दूसरे पर टालने का प्रयत्न कर रहा है। शिष्य कहता है, "संसार के
सब दु:ख मेरे पास आयें; मैं उन सबको सहन करूँगा। दूसरों को मुक्त रहने दो। "
क्रूस पर जो व्यक्ति है, उसका स्मरण करो, वह विजय के लिए फ़रिश्तों के दल
ला सकता था; पर उसने विरोध नहीं किया। वह उनके लिए दु:खी हुआ, जिन्होंने उसे
सूली दी। उसने प्रत्येक अपमान और कष्ट को सहा। उसने सबका भार अपने ऊपर लिया।
'तुम सब, जो थक रहे हो और बोझ से लदे हुए हो, मेरे पास आओ, और मैं तुम्हें
विश्राम दूँगा।' ऐसी होती है सच्ची सहनशीलता। वह इस जीवन से कितने ऊँचे थे,
इतने अधिक ऊँचे कि हम उसे समझ नहीं सकते, हम दास! कोई मनुष्य ज्यों ही मेरे
गाल पर थप्पड़ मारता है, त्यों ही मेरा हाथ तड़ाक से जवाब देता है। मैं उस
महिमामय की महानता और पवित्रता को कैसे समझ सकता हूँ? मैं उसकी गरिमा को कैसे
जान सकता हूँ?
पर मैं आदर्श को नीचे नहीं उतारूँगा। मैं अनुभव करता हूँ कि मैं शरीर हूँ, कि
मैं अशुभ का प्रतिरोधी हूँ। यदि मेरे सिर में दर्द होता है, तो मैं उसे अच्छा
करने के लिए संसार भर में फिरता हूँ; मैं औषधि की दो हजार बोतलें पीता हूँ।
मैं उन अनूठे मनों को कैसे समझ सकता हूँ? मैं आदर्श को देख पाता हूँ, पर आदर्श
में से कितने अंश को? इस शरीरिक चेतना में से, इस क्षुद्र अहं में से, इसके
आनंद और कष्टों में से, इसकी असुविधाओं और सुविधाओं में से कुछ भी तो उस
वातावरण में नहीं पहुँच सकता। केवल आत्मा का ही चिंतन कर और सदा मन को
पार्थिवता से अलग रखकर ही, मैं उस आदर्श की झाँकी प्राप्त कर सकता हूँ। उस
आदर्श में ऐंद्रिक संसार के पार्थिव विचारों और रूपों को कोई स्थान नहीं है।
उन्हें परे हटाओ और मन को आध्यात्म में लगाओ। अपने जीवन और मृत्यु को
कष्टों और आनंदों को, नाम और यश को भूल जाओ और अनुभव करो कि तुम न शरीर हो, न
मन, वरन् शुद्ध आत्मा हो।
जब मैं 'मैं' कहता हूँ, तो मेरा तात्पर्य इस जीवत्मा से है। अपने नेत्र
मूँदो और देखो कि जब तुम अपने 'मैं' पर विचार कते हो, तो तुम्हारे सामने कौन
सा चित्र आता है। क्या तुम्हारे सामने आने वाला चित्र तुम्हारे शरीर का है
अथवा तुम्हारे मानसिक स्वरूप का? यदि ऐसा है, तो तुमने अपने सच्चे 'मैं' की
अनुभूति नहीं प्राप्त की है। पर वह समय आएगा, जब तुम ज्यों ही 'मैं' कहोगे
तो तुम अपने सामने ब्रह्मांड को, अनंत सत्ता को देखोगे। तब तुमको अपनी सच्ची
सत्य यह है: तुम चेतन तत्व हो, तुम पार्थिव नहीं हो। एक वस्तु है भ्रम-
इसमें एक वस्तु दूसरी जान पड़ती है। पदार्थ को चेतन तत्व और शरीर को आत्मा
समझ लिया जाता है। यह बहुत बड़ा भ्रम है। इसे नष्ट होना चाहिए।
दूसरा लक्षण यह है कि शिष्य को अपने गुरु (या शिक्षक) में विश्वास होना
चाहिए। पश्चिम में शिक्षक केवल बौद्धिक ज्ञान देता है और कुछ नहीं। गुरु के
साथ जो संबंध है, वह जीवन में महानतम् है। जीवन में मेरा प्रियतम और निकटतम
संबंधी मेरा गुरु है; उसके बाद मेरी माता; फिर मेरे पिता। मेरा प्रथम आदर गुरु
के लिए है। यदि मेरे पिता कहें, "यह करो", और मेरे गुरु कहें, "इसे मत करो",
तो मैं वह नहीं करूँगा। गुरु मेरी जीवात्मा को मुक्त करते हैं। पिता और माता
मुझे यह शरीर देते हैं, पर गुरु मुझे आत्मा में नया जन्म देते हैं।
हमारे कुछ विचित्र विश्वास होते हैं। उनमें से एक यह है कि कुछ अपवाद स्वरूप
आत्माएं, पहले से ही मुक्त हैं, और जो संसार की भलाई के लिए, संसार को
सहायता देने के लिए यहाँ जन्म लेती हैं। वे पहले से मुक्त होती है; उन्हें
अपनी मुक्ति की चिंता नहीं होती, वे दूसरों की सहायता करना चाहती हैं। उन्हें
कोई बात सिखाने की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने बचपन से ही सब कुछ जानती हैं;
वे जब छ: महीने की शिशु होती हैं, तभी उच्चतम सत्य को वाणी से प्रकट कर सकती
हैं।
मानव जाति की आध्यात्मिक प्रगति इन मुक्त आत्माओं पर निर्भर है। वे उन
प्रथम दीपों के समान हैं, जिनसे अन्य दीप जलाये जाते हैं। यह सही है कि
प्रकाश सबमें हैं, पर अधिकतर लोगों में वह छिपा हुआ है। महात्मा आरंभ से ही
देदीप्यमान ज्योति होते हैं। उनके संपर्क में आनेवाले मानो उनसे अपने दीप
जला लेते हैं। इससे प्रथम दीप की कोई हानि नहीं होती; फिर भी वह अपना प्रकाश
दूसरे दीपों को पहुँचाता है। करोड़ों दीप जल जाते हैं; पर प्रथम दीप अमंद
ज्योति से जगमगाता रहता है। प्रथम दीप गुरु है और जो दीप उससे जलाया जाता है,
वह शिष्य है। दूसरा, अपनी बारी आने पर, गुरु बनता है और यह क्रम चलता जाता
है। वे महान आत्माएँ, जिन्हें तुम ईश्वर का अवतार कहते हो, महाबलशाली
आध्यात्मिक दिग्गज होते हैं। वे आते हैं और अपनी शक्ति को अपने निकटतम
शिष्यों को और उनके द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी शिष्यों को पहुँचाकर एक अति विशाल
आध्यात्मिक प्रवाह को जन्म देते हैं।
ईसाई धर्मसंघ में एक बिशप हाथ फेरकर उस शक्ति को संप्रेषित करने का दावा करता
है, जिसे समझा जाता है कि, उसने पहले के बिशपों से प्राप्त किया है। बिशप
कहता है कि ईसा मसीह ने अपनी शक्ति अपने निकटतम शिष्यों को संप्रेषित की और
उन्होंने दूसरों को। और इस प्रकार ईसा की शक्ति उस तक पहुँची है। हमारा मत है
कि हममें से प्रत्येक के पास, केवल बिशपों के पास ही नहीं, ऐसी शक्ति होनी
चाहिए। इसका कोई कारण नहीं है कि तुममें से प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिकता
की इस शक्तिशाली धारा का वाहक न हो सके। पर पहले तुमको एक गुरु, एक सच्चा
गुरु, खोज़ना चाहिए, और तुमको यह याद रखना चाहिए कि वह केवल मामूली मनुष्य
नहीं होता। तुमको शरीरधारी गुरु मिल सकता है, पर वास्तविक गुरु शरीर में नहीं
होता; वह भौतिक मनुष्य नहीं होता; वह, वह नहीं होता, जो तुम्हारी आँखोँ को
दिखायी देता है। यह हो सकता है कि गुरु तुम्हारे पास मनुष्य के यप में आए और
तुम उससे शक्ति प्राप्त करो, कभी-कभी वह स्वप्न में आएगा और संसार को कुछ
दे जाएगा। गुरु की शक्ति हम तक अनेक प्रकार से आ सकती है। पर हम साधारण नश्वर
प्राणियों के लिए गुरु को ही आना चाहिए और उसके आने तक हमारी तैयारी चलती रहनी
चाहिए।
हम भाषण सुनते हैं और पुस्तकें पढ़ते हैं, परमात्मा और जीवात्मा, धर्म और
मुक्ति के बारे में विवाद और तर्क करते हैं। यह आध्यात्मिकता नहीं है,
क्योंकि आध्यात्मिकता पुस्तकों में, अथवा सिद्धांतों में अथवा दर्शनों में
निवास नहीं करती। यह विद्वत्ता और तर्क में नहीं, वरन् वास्तविक अंत:विकास
में होती है। तोते भी बातों को याद कर सकते है और उन्हें दोहरा सकते हैं। यदि
तुम विद्वान् हो जाते हो, तो उससे क्या? गदहे पूरा पुस्तकालय ढोते फिर सकते
हैं। इसलिए जब वास्तविक प्रकाश आएगा, तो पुस्तकों की यह विद्वता किताबी
विद्वत्ता नहीं रहेगी। वह मनुष्य, जो अपना नाम भी नहीं लिख सकता, पूर्णतया
धार्मिक हो सकता है; और वह मनुष्य, जिसके मस्तिष्क में संसार के सब
पुस्तकालय भरे हों, वैसा होने में असफल रह सकता है। विद्वत्ता आध्यात्मिक
प्रगति की शर्त नहीं है। गुरु का स्पर्श, आध्यात्मिक शक्ति का संचरण,
तुम्हारे ह्रदय में जान फूँक देगा। तब विकास आरंभ होगा। सच्ची अग्नि-दीक्षा
यही है। अब रूकना नहीं है। तुम आगे, और आगे बढ़ते जाते हो।
कुछ वर्ष हुए तुम्हारे ईसाई शिक्षकों में से एक ने, जो मेरे मित्र थे, पूछा,
"तुम ईसा में विश्वास करते हो?" "हाँ", मैंने उत्तर दिया; "पर कदाचित् थोड़ी
अधिक श्रद्धा के साथ।" "तो तुम बपतिस्मा (दीक्षा) क्यों नहीं ले लेते?" मुझे
बपतिस्मा कैसे दिया जा सकता है? किसके द्वारा? वह मनुष्य कहाँ है, जो सच्चा
बपतिस्मा दे सकता है? बपतिस्मा का अर्थ क्या है? क्या यह फ़ार्मूले बोलते
हुए तुम्हारे ऊपर पानी छिड़क देना अथवा तुमको पानी में डूबो देना है?
बपतिस्मा का अर्थ है, आध्यात्मिक जीवन में सीधा प्रवेश। यदि तुमको वास्तविक
बपतिस्मा मिलता है, तो तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो, वरन् आत्मा हो।
यदि तुम दे सकते हो, तो मुझे वह बपतिस्मा दो। यदि नहीं, तो तुम ईसाई नहीं हो।
तथाकथित बपतिस्मा प्राप्त होने के बाद तो तुम पूर्ववत् ही रहते हो। केवल यह
कहने का क्या अर्थ है कि तुमको ईसा के नाम में बपतिस्मा दिया गया है! कोरी
बकबक अपनी मूर्खता से संसार को निरंतर क्षुब्ध करना! 'सदा अज्ञानांधकार में
लिपटे हुए, फिर भी अपने को बुद्धिमान और विद्वान समझते हुए, मूर्ख इधर-उधर
लड़खड़ाते अंधे द्वारा मार्ग-दर्शित अंधे के समान बार-बार चक्कर काटते हैं।
[14]
इसलिए यह मत कहो कि तुम ईसाई हो, बपतिस्मा और इसी प्रकार की अन्य बातों की
डींग मत हाँको।
निश्चय ही सच्चा बपतिस्मा होता है, जैसे आरंभ में जब ईसा पृथ्वी पर आए और
उन्होंने उपदेश दिया। वे प्रबुद्ध, वे महान आत्माएँ, जो समय-समय पर पृथ्वी
पर आती रहती हैं, उनमें हमारे प्रति ईश्वरीय दर्शन का उद्घाटन करा देने की
शक्ति रहती है। यही सच्चा बपतिस्मा है। तुम देखते हो कि प्रत्येक धर्म में
फ़ार्मूलों और कर्मकांडों से पहले सार्वभौम सम्य का बीज रहता है। समय की
यात्रा में यह सत्य बिसर जाता है; मानों 'बाह्य रूपों और अनुष्ठानों ने उसका
गला घोंट दिया हो। यप रह जाते हैं- हम केवल मंजूषा को पाते हैं, जिसमें से
आत्मा उड़ गई है। तुम्हारे पास बपतिस्मे का रूप है, पर बपतिस्मे के जीवंत
तत्व को बहुत थोड़े ही जगा सकते हैं। रूप से काम नहीं चलेगा। यदि हम जीवंत
तत्व को बहुत थोड़े ही जगा सकते हैं। रूप से काम नहीं चलेगा। यदि हम जीवंत
सत्य का जीवंत ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें उसमें सच्चाई के साथ
दीक्षित होना होगा। यही आदर्श है।
गुरु मुझे सिखाये ओर प्रकाश में पहुँचाये, मुझे उस श्रृंखला की एक कड़ी बनाये
जिसकी कि वह स्वयं एक कड़ी है। साधारण मनुष्य गुरु बनने का दावा नहीं कर
सकता। गुरु ऐसा मनुष्य होना चाहिए, जिसने जान लिया है, दैवी सत्य को वास्तव
में अनुभव कर लिया है, और अपने को आत्मा के रूप में देख लिया है। केवल बातें
करने वाला गुरु नहीं हो सकता। मेरे समान एक वाचाल मूर्ख बातें बहुत बना सकता
है, पर गुरु नहीं हो सकता। एक सच्चा गुरु शिष्य से कहेगा, "जा और अब पाप न
कर", और शिष्य अब पाप नहीं कर सकता- उस व्यक्ति में पाप करने की शक्ति नहीं
रहती।
मैंने इस जीवन में ऐसे मनुष्यों को देखा है। मैंने बाइबिल और इस प्रकार के सब
ग्रंथ पढ़े हैं; वे अद्भुत हैं। पर जीवंत शक्ति तुमको पुस्तकों में नहीं मिल
सकती। वह शक्ति, जो एक क्षण में जीवन को परिवर्तित कर दे, केवल उन जीवंत
प्रकाशवान आत्माओं से ही प्राप्त हो सकती है, जो समय समय पर हमारे बीच में
प्रकट होती रहती है। केवल वे ही गुरु होने के योग्य हैं। तुम और मैं केवल
थोथी बकबक है, गुरु नहीं। हम अपनी बातों से अवांछनीय कंपन उत्पन्न करके
संसार को अधिक क्षुब्ध कर रहे हैं। हम आशा करते हैं, प्रार्थना करते हैं और
संघर्ष करते जाते हैं, और वह दिन आएगा, जब हम सत्य पर पहुँचेंगे और हमें
बोलने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
'गुरु एक सोलह वर्ष का लड़का था; उसने एक अस्सी वर्ष के मनुष्य को सिखाया।
गुरु की शिक्षण-विधि मौन थी; और शिष्य की सब शंकाओं का सदा के लिए समाधान हो
गया।'
[15]
यह है गुरु। तनिक सोचो, यदि तुमको ऐसा व्यक्ति मिले, तो तुमको उस व्यक्ति के
प्रति कितना विश्वास और प्रेम रखना चाहिए। क्यों, वह साक्षात् ईश्वर है,
उससे तनिक भी कम नहीं। इसलिए ईसा के शिष्यों ने ईश्वर के समान उसकी पूजा की।
शिष्य को गुरु की पूजा स्वयं ईश्वर के समान करनी चाहिए। जब तक मनुष्य
ईश्वर का साक्षात्कार स्वयं ही न कर ले, वह अधिक से अधिक सजीव ईश्वर को,
मनुष्य के रूप में ईश्वर को ही जान सकता है, इसके अतिरिक्त वह ईश्वर को
कैसे जानेगा?
यहाँ अमेरिका में एक व्यक्ति है, ईसा से १६०० वर्ष बाद पैदा हुआ, जो ईसा की
यहूदी जाति का भी नहीं है। उसने ईसा अथवा उसके परिवार को नहीं देखा हे। वह
कहता है, "ईसा ईश्वर थे। यदि तुम इसमें विश्वास नहीं करते, तो तुम नरक में
जाओगे।" हम समझ सकते हैं कि शिष्यों ने इस पर कि ईसा ईश्वर है, किस प्रकार
विश्वास किया; वह उनके गुरु थे, और उन्होंने विश्वास किया होगा कि वे ईश्वर
हैं। पर इस अमेरिकन का उन्नीस सौ वर्ष पूर्व पैदा हुए उस मनुष्य से क्या
संबंध है? यह युवक मुझसे कहता है कि अगर मैं ईसा में विश्वास न करूँ, तो मुझे
नरक जाना पड़ेगा। वह ईसा के विषय में क्या जानता है? वह पागलखाने के योग्य
है। इस प्रकार के विश्वास से काम न चलेगा। उसे अपना गुरु खोजना पड़ेगा।
ईसा फिर जन्म ले सकते हैं, तुम्हारे पास आ सकते है। तब यदि तुम ईश्वर की
भाँति उनकी पूजा करो, तो तुम ठीक करोगे। हम सबको गुरु के आगमन के समय तक
प्रतीक्षा करनी चाहिए, और गुरु की पूजा ईश्वर की भाँति की जानी चाहिए। वह
ईश्वर है, उससे तनिक भी कम नहीं। गुरु तुम्हारे देखते-देखते क्रमश:
अंतर्ध्यान हो जाते हैं, और रह क्या जाता है? गुरु के चित्र का स्थान स्वयं
ईश्वर ले लेता है। गुरु वह आभामय चेहरा है, जिसे ईश्वर हम तक पहुँचने के लिए
धारण करता है। जब हम एकटक उसे निहारते हैं, तो धीरे-धीरे चेहरा गिर जाता है और
ईश्वर प्रकट हो जाता है।
'मैं गुरु को नमस्कार करता हूँ, जो दैवी आनंद की मूर्ति हैं, उच्चतम ज्ञान
के विग्रह हैं, और महानतम दैवी आनंद के दाता हैं, जो शुद्ध, पूर्ण, अद्वितीय,
सनातन, सब सुख-दु:ख से परे, सर्वगुणातीत और सर्वोच्च हैं।'
वास्तव में गुरु ऐसे होते हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि शिष्य
उन्हें ईश्वर समझता है और उनमें विश्वास रखता है, श्रद्धा रखता है, उनकी
आज्ञा पालता है और बिना शंका किए उनके पीछे चलता है। गुरु और शिष्य के बीच का
संबंध ऐसा ही है।
शिष्य को अगली शर्त जो पूरी करनी है, वह यह है कि उसमें मुक्त होने की
आकांक्षा अत्यंत तीव्र हो।
हम उन पतिंगों के समान हैं, जो धधकती ज्वाला में प्रवेश करते हैं,यह जानकर कि
वह हमें जला डालेगी, यह जानकर कि इंद्रियां हमें केवल जलाती हैं, वे केवल
वासनाओं में वृद्धि करती हैं। 'वासनाएँ कभी भोग से तृप्त नहीं होतीं। भोग से
वासनाओं में उसी प्रकार वृद्धि होती है, जैसे अग्नि को दिया हुआ घी अग्नि में
वृद्धि करता है।'
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वासना से वासना बढ़ती है। यह सब जानते हुए भी लोग सदा इसमें डुबकी लगाते रहते
हैं। जन्म-जन्मांन्तरों से वे वासना-वस्तुओं के पीछे दौड़ते रहे हैं,
फलस्वरूप भयंकर यातनाएँ भोगते रहे हैं, फिर भी वे वासनाओं से पीछा नही छुड़ा
पाते। जिस धर्म को उन्हें वासनाओं के इस भयकारी बंधनसे मुक्त करना चाहिए था,
उस धर्म को उन्हें वासनाओं के इस भयकारी बंधन से मुक्त करना चाहिए था, उस
धर्म को भी उन्होंने अपनी वासनाओं की पूर्ति का साधन बना लिया है। वे कदाचित्
ही कभी ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं कि वह उनको इस शरीर और इंद्रियों के
बंधन से, वासनाओं की इस दासता से मुक्ति दिलाये। इसके स्थान पर, वे उससे
स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए, दीर्घायु के लिए प्रार्थना करते हैं, "हे
ईश्वर, मेरा सिर-दर्द दूर करो, मुझे कुछ धन अथवा अमुक वस्तु दो!"
दृष्टि का क्षेत्र इतना छोटा, इतना पतित, इतना पशुतामय, इतना जंगली हो गया है!
इस शरीर से परे कोई किसी वस्तु की कामना नहीं करता। ओह, यह भयानक पतन, इसकी
यह भयानक यातना! मांस का तनिक सा पिंड, पाँच इंद्रियां, यह पेट! उदर और यौन
संघात के अतिरिक्त यह संसार क्या है? करोड़ों नर-नारियों को देखो, यही है,
जिसके लिए वे जी रहे हैं। इन्हें उनसे छीन लो, तो उन्हें अपना जीवन रिक्त,
निरर्थक और असह्य जान पड़ेगा। हम ऐसे हैं। और ऐसा हमारा मन है; यह निरतर उन
उपायों और साधनों के पीछे भटकता रहता है, जिनसे हमारी उदर और काम की भूख को
तृप्ति प्राप्त हो। यह निरंतर चल रहा है। साथ ही अनंत दु:ख भी है; शरीर की ये
वासनाएँ केवल क्षण भर के लिए संतोष देती हैं और अनंत दु:ख लाती हैं। यह उस
प्याले को पीने के समान है, जिसकी ऊपरी तह तो अमृत है, पर उसमें नीचे हलाहल
भरा हुआ है। पर फिर भी हम इन सब वस्तुओं के पीछे पागल हैं।
किया क्या जा सकता है? इस क्लेश से निकलने का केवल एक मार्ग है, सब
इंद्रियों और वासनाओं का परित्याग। यदि तुम आध्यात्मिक बनना चाहते हो, तो
तुमको त्याग करना होगा। यह असली कसौटी है। इस संसार को छोड़ो, इंद्रियों की
इस निरर्थकता को। सच्ची इच्छा केवल एक है: यह जानना कि सत्य क्या है,
आध्यात्मिक होना। अधिक भौतिकता नहीं, अधिक अहं नहीं। मुझे आध्यात्मिक बनना
ही होगा। इच्छा को शक्तिशाली, तीव्र होना चाहिए। यदि किसी मनुष्य के हाथ-पैर
इस प्रकार बाँध दिए जाएं कि वह हिल-डुल न सके और तब उसके शरीर पर पहकता अंगारा
रखा जाए, तो वह अपनी संपूर्ण शक्ति से उसे हटा देने का प्रयास करेगा। जब
मुझमें इस प्रकार की तीव्र इच्छा इस जलते हुए संसार को हटा फेंकने के वास्ते
अथक संघर्ष करने के लिए उत्पन्न होगी, तो मेरे लिए दैवी सत्य की झाँकी मिलने
का समय आ जाएगा।
मुझे देखो। यदि मेरी छोटी सी नोटबुक, जिसमें दो-तीन डॉलर हैं, खो जाती है, तो
मैं उसे ढूँढ़ने के लिए बीस बार घर के भीतर जाता हूँ। वह फि़क्र, वह चिंता, वह
कशमकश! यदि तुममें से कोई मुझे क्रुद्ध कर देता है, तो मैं उसे बीस वर्ष याद
रखता हूँ, मैं न क्षमा कर सकता हूँ, न भूल सकता हूँ। इंद्रियों की छोटी सी
वस्तुओं के लिए मैं इस प्रकार संघर्ष कर सकता हूँ। वह कौन है, जो ईश्वर के
लिए इस प्रकार प्रयास करता है? 'बालक अपने खेल में सब कुछ भूल जाते हैं। युवक
इंद्रियों के आनंद के पीछे पागल हैं; उन्हें और किसी बात की चिंता नहीं है।
वृद्ध अपने पुराने दुष्कृत्यों के लिए पश्चाताप कर रहे हैं' (शंकर)। वे
अपने पुराने भोगों के विषय में सोच रहे हैं--वे वृद्ध, जो अब कोई भोग नहीं
प्राप्त कर सकते। वे जुगाली कर रहे हैं, वे अधिक से अधिक यही कर सकते हैं।
कोई उतनी तीव्र लगन के साथ ईश्वर के लिए आतुर नहीं होता, जितनी तीव्रता से वे
इंद्रियग्रस्त-भोग्य वस्तुओं के लिए लालायित होते हैं।
सभी लोग कहते हैं कि ईश्वर ही सत्य है, वही एक है, जो वास्तव में है; केवल
चेतना की ही सत्ता है, पदार्थ की नहीं। फिर भी ईश्वर से वे जो माँगतें हैं,
वह शायद ही चेतना होती है। वे सदा पार्थिव वस्तुओं की याचना करते हैं। उनकी
प्रार्थना में चेतन को जड़ से अलग नहीं रखा जाता। धर्म अब केवल पतन ही रह गया
है। सब कुछ पाखंड बनता जा रहा है। वर्ष बीतते जा रहे हैं और आध्यात्मिक
उपलब्धि कुछ भी नहीं होती। पर मनुष्य को केवल एक वस्तु की भूख होनी चाहिए,
आत्मा की, क्योंकि केवल आत्मा का ही अस्तित्व है। यही आदर्श है। यदि तुम
इसे अभी नहीं प्राप्त कर सकते, तो कहो, "मैं अभी वहाँ तक नहीं पहुंच सकता। वह
आदर्श है, मैं जानता हूँ, पर मैं अभी उसको चरितार्थ नहीं कर सकता।" पर तुम यह
नहीं करते। तुम धर्म को निम्न स्तर पर उतार लाते हो और आत्मा का नाम लेकर
जड़ के पीछे दौड़ते हो। तुम सब नास्तिक हो, तुम इंद्रियों के अतिरिक्त और
किसी में विश्वास नहीं करते! 'अमुक ने ऐसा ऐसा कहा है--इसमें कुछ तत्व हो
सकता है। हम कर देखें और मज़ा लें। हो सकता है, कुछ लाभ हो जाए; शायद मेरी
टूटी टाँग ठीक हो जाए।'
रोगी लोग बहुत दु:खी होते हैं; वे ईश्वर के बड़े उपासक होते हैं, इसलिए कि वे
आशा करते हैं कि यदि वे उससे प्रार्थना करेंगे, तो वह उन्हें चंगा कर देगा।
ऐसा नहीं है कि यह सब एकदम बुरा है --यदि ऐसी प्रार्थनाएँ सच्ची हों और लोग
यह याद रखें कि यह धर्म नहीं है। गीता में (७।१६) श्री कृष्ण कहते हैं, "चार
प्रकार के मनुष्य मेरी उपासना करते हैं: आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और सत्य
के ज्ञाता।" जो लोग दु:खग्रस्त होते हैं, वे सहारे के लिए ईश्वर के निकट
जोते हैं। यदि वे रोगी होते हैं, तो निरोग होने के लिए उसकी पूजा करते हैं;
यदि उनका धन नष्ट हो जाता है, तो वे उसकी पुन: प्राप्ति के लिए प्रार्थना
करते हैं। और दूसरे लोग हैं, जो वासनाओं से भरे हैं, वे उससे सब प्रकार की
वस्तुएँ माँगते हैं--नाम, यश, संपत्ति, पद इत्यादि। वे कहते हैं, "हे पवित्र
मेरी, यदि मेरी यह इच्छा पूर्ण हो जाएगी, तो मैं तुम्हें एक भेंट चढ़ाऊँगा।
यदि तुम मेरी इच्छा पूर्ण ुरी ितकरने में सफल होती हो, तो मैं ईश्वर की पूजा
करूँगा और प्रत्येक वस्तु का एक अंश तुम्हें दूँगा।" जो मनुष्य इतने
सांसारिक नहीं होते, पर फिर भी जिन्हें ईश्वर में विश्वास नहीं है, वे उसके
बारे में जानने की इच्छा रखते हैं। वे दर्शनों का अध्ययन करते हैं,
धर्मशास्त्र पढ़ते हैं, उपदेश सुनते हैं और ऐसे ही अन्य कार्य करते हैं। वे
जिज्ञासु हैं। अंतिम श्रेणी उन लोगों की है, जो ईश्वर की पूजा करते हैं और
उसे जानते हैं। ये चारों श्रेणियां भली हैं, बुरी नहीं। ये सब उसकी उपासना
करते हैं।
पर हम शिष्य बनने का प्रयत्न कर रहे हैं। हमारा एकमात्र ध्येय है, उच्चतम
सत्य के ज्ञान की प्राप्ति। हमारा ध्येय सबसे ऊँचा है। हमने अपने से बड़े
बड़े शब्द कहे हैं, परम अनुभूति आदि आदि। हमें उन शब्दों के अनुरूप होना
चाहिए। हम आत्मा में स्थित होकर आत्मा में आत्मा की उपासना करें। हमारा
आधार आत्मा है, मध्य आत्मा है और अंत आत्मा । संसार कहीं न हो। उसे जाने
दो और आकाश में चक्कर लगाने दो- चिंता क्या है? तुम आत्मा में स्थित हो! यह
ध्येय है। हम जानते हैं कि हम अभी उस तक नहीं पहुँच सकते। चिंता मत करो,निराश
न होओ और आदर्श को नीचे न घसीटो। महत्वपूर्ण बात यह है: कि तुम इस शरीर के
बारे में, अपने बारे में, जड़ के रूप में, मृत, जड़, अचेतन पदार्थ के रूप में
कितना कम सोचते हो ओर अपनेबारे में एक उज्ज्वल, अमर अस्तित्व के रूप में
कितना अधिक सोचते हो। तुम अपने को उज्ज्वल, अमर अस्तित्व के रूप में जितना
अधिक सोचोगे, उतने ही अधिक तुम पदार्थ, शरीर और इंद्रियों से संपूर्ण मुक्ति
प्राप्त करने के लिए उत्सुक होगे। मुक्त होने की तीव्र इच्छा यही है।
चौथी और अंतिम शर्त शिष्यता की यह है कि उसे सत् और असत् का विवेक हो। केवल
एक वस्तु ईश्वर है, जो सत्य है। सर्वदा मन उनकी ओर लगा रहे, उसे समर्पित
रहे। ईश्वर है, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है, और सब आता जाता रहता है।
संसार की कोई भी इच्छा भ्रम है, इसलिए कि संसार मिथ्या है। जब तक और सब
मिथ्या-जैसा वह वास्तव में है-प्रतीत न होने लगे, मन को केवल ईश्वर के
प्रति ही अधिकाधिक अनुभवशील होना चाहिए।
ये वे चार शर्तें हैं, जिन्हें शिष्य बनने की इच्छा रखनेवाले को पूरा करना
होगा। इनको पूरा किए बिना वह सच्चे गुरु के संपर्क में आने का अधिकारी नहीं
बनेगा। और यदि सौभाग्यवश वह उसके संपर्क में आ भी जाता है, तो गुरु द्वारा
संचरित शक्ति से उसे स्फुरण नहीं प्राप्त होगा। इन शर्तों से कोई समझौता
नहीं हो सकता। इन सब शर्तों के-इन सब तैयारियों के-पूर्ण होने पर शिष्य का
ह्दय-कमल खिलेगा और तब भ्रमर आएगा। तब शिष्य को ज्ञान होगा कि गुरु उसके शरीर
में, उसके भीतर था। वह खिलता है। वह अनुभूति पाता है। वह जीवन के सागर को पार
करता है, परे जाता है। वह इस भयावह सागर को पार करता है; और दयावश बिना लाभ
अथवा स्तुति का विचार किए, दूसरों को इसे पार करने में सहायता देता है।