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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम दिव्‍य माता की उपासना पीछे     आगे

(न्‍यूयार्क में जून, १६०० ई. में एक रविवार के तीसरे पहर लिए हुए कुछ स्‍फुट नोट)

संसार के प्रत्‍येक धर्म में मनुष्‍य वंश अथवा कबीले के देवता से, देवताओं के अधिदेव, पूर्ण ईश्‍वर तक पहुँचता है। केवल कन्‍फ्यूशस ने नैतिकता के एक चिंरतन भाव का उल्‍लेख किया है। 'मनुदेव' का रूपांतर अहिर्मन में हुआ। भारत में, पौराणिक अभिव्‍यक्ति को दबाया गया। पर भाव जीवित बना रहा। एक प्राचीन वेद में मंत्र मिलता है, 'मैं जीवित मात्र की सम्राज्ञी, सब वस्‍तुओं की शक्ति हूँ।'

मातृ-पूजा स्‍वयं अपने में एक विशिष्‍ट: दर्शन है। हमारे विचारों में शक्ति का स्‍थान प्रथम है। वह प्रत्‍येक पग पर मनुष्‍य से टकराती है; अभ्‍यंतर में अनुभूत शक्ति आत्‍मा है; बाहर अनुभूत प्रकृति है। दोनों के बीच जो संघर्ष होता है, उससे मनुष्‍य के जीवन का निर्माण होता है। जो कुछ हम जानते हैं अथवा अनुभव करते हैं, वह सब केवल इन दोनों शक्तियों का परिणाम है। मनुष्‍य ने देखा कि सूर्य शुभ और अशुभ पर एक सा चमकता है। यहाँ ईश्‍वर के बारे में एक नया विचार मिला, सबके पीछे विश्‍वव्‍यापी शक्ति के रूप में-मातृ-विचार का जन्‍म हुआ।

सांख्‍य के अनुसार, क्रियाशीलता प्रकृति का धर्म है, पुरुष अथवा आत्‍मा का नहीं। भारत के सभी स्‍त्री-प्रकारों में, माँ सबसे ऊपर है। माँ सब बातों में संतान का साथ देती है। पत्‍नी और संतान मनुष्‍य को त्‍याग सकती हैं, पर माँ कभी नहीं त्‍यागती! फिर, माँ विश्‍व की निष्‍पक्ष शक्ति है, जो अपने नि:स्‍वार्थ प्रेम के कारण कुछ माँगती नहीं, कुछ चाहती नहीं, अपनी संतान के दुर्गुणों की चिंता नहीं करती, वरन् उसे और अधिक प्‍यार करती है। और आज मातृपूजा हिंदुओं के सब उच्‍चतम वर्गों में प्रचलित पूजा है।

लक्ष्‍य का वर्णन केवल ऐसी किसी वस्‍तु के रूप में किया जा सकता है, जो अभी प्राप्‍त नहीं हुई है। यहाँ, कोई लक्ष्‍य नहीं है। यह समस्‍त संसार एक समान माँ की लीला है। पर हम इसे भूल जाते हैं। जब स्‍वार्थ नहीं रहता, जब हम स्‍वयं अपने जीवन के साक्षी बन जाते हैं, तो दु:ख का भी आनंद लिया जा सकता है। इस दर्शन के विचारक इस विचार से प्रभावित हुए कि सब घटनाओं के पीछे शक्ति एक है। ईश्‍वर संबंधी हमारी धारणा में, मानवीय सीमा-व्‍यक्तित्‍व है। मातृ शक्ति के साथ एक सर्वव्‍यापी बल का विचार आता है। 'मैं रूद्र का धनुष खींचती हूँ, जब वे संहार करना चाहते हैं', शक्ति कहती है। उपनिषदों ने इस विचार का विकास नहीं किया; क्‍योंकि वेदांत ईश्‍वर-विचार को महत्व नहीं देता। पर गीता में अर्जुन के प्रति यह अर्थगंभीर कथन आता है, 'मैं सत् हूँ और मैं असत् हूँ। मैं शुभ लाता हूँ और मैं अशुभ लाता हूँ।'

फिर यह विचार सो गया। उसके बाद नया दर्शन आया। यह विश्‍व शुभ और अशुभ का एक संघात है और दोनों के द्वारा एक ही शक्ति की अभिव्‍यक्ति होनी चाहिए। एक लँगड़ा, एक टाँग का विश्‍व, केवल एक लँगड़ा, एक टाँग का ईश्‍वर दर्शाता है।' और यह, अंत में, हममें सहानुभूति का अभाव कर देता है और हमें पाशविक बनाता है। ऐसी भावना पर निर्मित नीतिशास्‍त्र पशुता का नीतिशास्‍त्र है। संत पापी से घृणा करता है, और पापी संत के विरुद्ध संघर्ष करता है। फिर भी, यह भी हमें आगे बढ़ाता है। क्‍योंकि अंत में कुटिल स्‍वयंपर्याप्‍त मन मर जाएगा, बारंबार के प्रहारों के नीचे पिस जाएगा; और तब हम जाग जाएंगे और माँ को जान जाएंगे।

केवल माँ के प्रति चिंरतन, संपूर्ण आत्‍म-समर्पण ही हमें शांति प्रदान कर सकता है। भय और लाभ की भावनाओं को अलग रखकर, माँ से माँ के निमित्त ही प्रेम करो। माँ से प्रेम करो, क्‍योंकि तुम माँ की संतान हो। उसे भले-बुरे सब में एक समान देखो। केवल तभी 'समता' और चिंरतन आनंद अर्थात स्‍वयं माँ आएगी, जब हम उसको इस प्रकार पा लेंगे। उस समय तक, दु:ख हमारा पीछा करता रहेगा। केवल माँ के आश्रय में ही हम सुरक्षित हैं।


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