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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम क्रियात्‍मक आध्‍यात्म के प्रति संकेत पीछे     आगे

(लाँस एंजिलिस, कैलिफ़ोर्निया में दिया हुआ भाषण)

आज प्रात:काल मैं प्राणायाम तथा अन्‍य साधनाओं के संबंध में कुछ विचार प्रकट करूँगा। हमने अभी तक केवल सैद्धांतिक चर्चा ही की है, अब क्रियात्‍मक पक्ष की ओर ध्‍यान देना आवश्‍यक है। भारत में इस विषय पर अनेक पुस्‍तकें लिखी गई हैं। जिस तरह तुम लोग अनेक बातों में व्‍यवहारकुशल हो, उसी तरह हम भारतवासी इस विषय में हैं। तुम लोगों में से पाँच मनुष्‍य इकट्ठे हो जाते हैं और उनका विचार हो जाता है कि वे एक 'ज्वाइंट स्‍टॉक कंपनी' खोलें, और पाँच घंटे बाद कंपनी खुल भी जाती है। पर भारत में लोगों से पचास साल में भी ऐसी कंपनी नहीं खुल सकती। भारतवासी इन बातों में व्‍यवहारकुशल हैं की नहीं। लेकिन यदि कोई नयी दर्शन-प्रणाली प्रवर्तित करे, तो तुम निश्‍चय समझ लो कि वह चाहे जितना ही विलक्षण क्‍यों न हो, उसके अनुयायी निकल ही पड़ेंगे। उदाहरणार्थ, यदि कोई संप्रदाय यह कहे कि बारह साल दिन रात एक पैर पर खड़े रहने से मुक्ति मिल जाएगी, वे सारा कष्‍ट चुपचाप सह लेंगे। वहाँ ऐसे भी मनुष्‍य हैं, जो पुण्‍य प्राप्‍त करने के लिए लगातार सालों हाथ उठाये ही रह जाएंगे। मैंने स्‍वयं ऐसे सैकड़ों व्‍यक्ति देखे हैं। और, देखो, इनमें सभी मूर्ख होते हों, ऐसी बात नहीं, उनकी गंभीर तथा विशाल बुद्धि देखकर तुम चकरा जाओगे। इस तरह हम देखते हैं कि व्‍यवहारकुशलता शब्‍द भी सापेक्ष है।

दूसरों की समीक्षा करते समय हम सदा यही भूल कर बैठते हैं; हम सदा यही सोचा करते हैं कि हमारी छोटी बुद्धि जितना समझ सकती है, उतना ही यह विश्‍व है; हमारी अपनी नीतिशास्‍त्र की कल्‍पनाएँ, हमारी अपनी कर्तव्‍य विषयक भावना, हमारी अपनी उपयोगिता के विचार-केवल ये ही श्रेयस्‍कर हैं। एक दिन, मार्सेल्‍स से होकर यूरोप जाते समय मैंने देखा कि साँड़ लड़ाये जा रहे हैं। यह देखकर जहाज में बैठे हुए सब अंग्रेज जोश से पागल हो गए; कहने लगे, "यह तो बिल्‍कुल बेरहमी है," और बड़े दोष बतलाकर गालियाँ देने लगे। जब मैं इंग्‍लैड गया, तो वहाँ मैंने मुक्‍केबाजों के एक दल के विषय में सुना, जो पेरिस गए थे और जिन्‍हें फ़्रांसीसियों ने ठोकरें मारकर निकाल दिया था; क्‍योंकि फ़्रांसीसी मुक्‍केबाज़ी बेरहमी समझते हैं। जब इस तरह की बातें मैं अनेक देशों में सुनता हूँ, तो ईसा के अप्रतिम शब्‍दों का तात्‍पर्य मेरी समझ में आ जाता है: "दूसरों की समीक्षा न करो, जिससे तुम्‍हारी भी समीक्षा न हो।" जितना ही अधिक हम ज्ञान प्राप्‍त करते हैं, उतना ही अधिक हमें पता लगता है कि हम कितने अज्ञ हैं और मनुष्‍य का मन कितना बहुमुखी और बहुपक्षीय है। जब मैं छोटा था, तब मैं अपने देशवासियों की तापस साधनाओं के संबंध में नुक्‍़ताचीनी किया करता था। हमारे देश के बड़े बड़े आचार्यों ने भी उनके संबंध में नुक्‍़ताचीनी की है; यही नहीं, दुनिया के श्रेष्‍ठतम पुरुष भगवान बुद्ध ने भी उसकी आलोचना की है। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा होता जा रहा हूँ, मैं देखता हूँ कि उनकी इस तरह समीक्षा करने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि उनकी बातें असंबद्ध होती हैं, तो भी कभी-कभी मैं चाहता हूँ कि उनकी कार्यक्षमता तथा सहनशक्ति का एक अंश मुझमें आ जाए। मुझे अक्‍सर लगता है कि मैं जो समीक्षा और आलोचना करता हूँ, वह इसलिए नहीं कि मुझे देह-यातना पसंद नहीं, बल्कि इसलिए कि मैं डरपोक हूँ-मुझमें वह करने की हिम्‍मत नहीं, मैं उसे आचरण में नहीं ला सकता।

फिर तुम यह भी देखते हो कि बल, शक्ति तथा साहस, ये ऐसी बातें हैं, जो बहुत विचित्र हैं। हम प्राय: कहा करते हैं कि यह मनुष्‍य शूर है, हिम्‍मत वाला या वीर है; लेकिन हमें स्‍मरण रखना चाहिए कि शौर्य, साहस या अन्‍य गुण हमें उस मनुष्‍य में सभी अवस्‍थाओं में दिखायी देंगे, ऐसा नहीं। एक मनुष्‍य, जो तोप के मुँह में घुस जाएगा, डॉक्‍टर का चाकू देखकर पीछे हट जाता है; लेकिन दूसरा मनुष्‍य, जो तोप को देखने तक की हिम्‍मत न करेगा, मौका पड़ने पर डॉक्‍टर के द्वारा किए बड़े आपरेशन को शांति से सहन कर लेता है। इसलिए दूसरों की समीक्षा करते समय तुम्‍हें पहले 'साहस' या 'महानता' की अपनी व्‍याख्‍या देनी चाहिए। हो सकता है कि जिस मनुष्‍य को मैं बुरा कहता हूँ, वह अन्‍य कुछ बातों में आश्‍चर्यजनक रूप से अच्‍छा हो, जिनमें मैं कभी अच्‍छा नहीं हो सकता।

दूसरा उदाहरण लो। जब लोग पुरुष और स्‍त्री की कार्य-शक्त्‍िा के संबंध में बातचीत करते हैं, तो तुम देखोगे कि वे यहीं भूल कर बैठते हैं। मनुष्‍य युद्ध तथा कठिन शारीरिक श्रम कर सकता है, इसलिए वे समझते हैं कि वह अधिक श्रेष्‍ठ है, और इसके साथ स्‍त्री-जाति की शा‍रीरिक दुर्बलता तथा युद्धपराड्मुखता की तुलना करते हैं। पर यह अन्‍याय है। स्‍त्री भी उतनी ही साहसी होती है, जितना की पुरुष। अपने-अपने ढंग से दोनों ही अच्‍छे हैं। भला एक ऐसा पुरुष तो बतलाओ, जो बच्‍चे का लालन-पालन उतनी सहनशीलता, धैर्य एवं प्‍यार के साथ कर सकता हो, जितना एक स्‍त्री। पुरुष ने यदि अपनी कर्मठता का सामर्थ्‍य बढ़ाया है, तो स्‍त्री ने सहनशीलता का। स्‍त्री में यदि कार्यक्षमता की कमी है, तो पुरुष कष्‍ट सहने में कच्‍चा है। यह संपूर्ण विश्‍व पूर्णतया संतुलित है। कौन कह सकता है कि शायद एक दिन एक कीड़े में भी कुछ ऐसा गुण दिखे, जो हमारी मनुष्‍यता को संतुलित करता हो। अत्यंत दुष्‍ट मनुष्‍य में भी वे गुण हो सकते हैं, जो मुझमें बिल्‍कुल न हो। अपने जीवन में यह सत्‍य मैं प्रतिदिन देख रहा हूँ। एक जंगली व्‍यक्ति की ओर ही देखो। मैं कितना चाहता हूँ कि मेरा शरीर भी ऐसा ही मज़बूत होता। वह भर पेट खाता-पीता है, और बीमारी क्‍या चीज़ है, यह शायद जानता तक नहीं। इसके विपरीत मैं सर्वदा बीमार रहता हूँ अगर मैं अपने मस्तिष्‍क से इसका शरीर बदल सकता, तो मुझे कितना हर्ष होता! सारा विश्‍व लहर और गर्त के सदृश्‍ है, ऐसी कोई लहर नहीं, जिसके साथ गर्त न हो। संतुलन सर्वत्र विद्यमान है। यदि तुम्‍हारे पास एक वस्‍तु बड़ी है, तो तुम्‍हारे पड़ोसी के पास दूसरी। पुरुष या स्त्री की समीक्षा करते समय उनके विशिष्‍टताओं के मानदंड से निर्णय करो। प्रत्‍येक का कार्य क्षेत्र भिन्‍न है। किसी को भी 'वह दुष्‍ट है', ऐसा कहने का अधिकार नहीं। यह तो वही पुराना अंधविश्वास हुआ, जो कहता है, "अगर तुम ऐसा करोगे, तो संसार नष्‍ट हो जाएगा।" यह तो चलता ही आ रहा है और फिर भी संसार आज तक नष्‍ट नहीं हुआ। इस देश में ऐसा कहा जाता था कि अगर हब्‍शी मुक्‍त कर दिए जाएं, तो यह सारा देश रसातल को पहुँच जाएगा। पर क्‍या ऐसा हुआ? लोग यह भी कहते थे कि अगर साधारण जनता में शिक्षा का प्रसार होगा, तो दुनिया का नाश हो जाएगा। पर इस शिक्षा-प्रसार से तो उन्‍नति ही हुई। कई वर्ष पहले एक पुस्‍तक छपी थी, जिसमें यह बतलाया गया था कि इंग्लैंड का सबसे अधिक बुरा क्‍या हो सकता है। लेखक ने यह दिखलाया था कि मज़दूरी बढ़ती जा रही है और इस कारण इंग्लैंड का व्‍यापार घटता जा रहा है। यह आवाज़ उठायी गई थी कि अंग्रेज मज़दूर बेहद मज़दूरी माँगते हैं, जब कि जर्मन मज़दूर बहुत कम वेतन पर काम करते हैं। इस बात की जाँच के लिए एक समिति जर्मनी भेजी गई और उसने आकर यह बतलाया कि जर्मनी के मज़दूर तो अधिक वेतन पाते हैं। ऐसा क्‍यों हुआ? जन-साधारण में शिक्षा के प्रसार के कारण। साधारण जनता के पढ़ी-लिखी होने से दुनिया नष्‍ट होने वाली थी न? पर ऐसा हुआ तो नहीं। विशेषकर भारत में, हमें समस्‍त देश में ऐसे पुराने सठियाये बूढ़े मिलते हैं, जो सब कुछ साधारण जनता से गुप्‍त रखना चाहते हैं। इसी कल्‍पना में वे अपना बड़ा समाधान कर लेते हैं कि वे सारे विश्‍व में सर्व श्रेष्‍ठ हैं। वे समझते हैं कि ये भयावह प्रयोग उनको हानि नहीं पहुंचा सकते। केवल साधारण जनता को ही उनसे हानि पहुंचेगी!

अच्‍छा, अब हम क्रियात्‍मक साधना की ओर आयें। व्‍यावहारिक जीवन में मनोविज्ञान के उपयोग की ओर भारत ने बहुत प्राचीन काल से ध्‍यान दिया है। ईसा के लगभग १४०० वर्ष पूर्व भारत में एक बहुत बड़े तत्‍वज्ञ हो गए, जिनका नाम पतंजलि था। उन्‍होंने मनोविज्ञान के समस्‍त तथ्‍य, प्रमाण तथा आविष्‍कृत सिद्धांत संकलित किए और पूर्वकालीन सभी अनुभवों से लाभ उठाया। यह न भूलना चाहिए कि दुनिया बहुत पुरानी है। ऐसा न समझो कि यह केवल दो-तीन हज़ार वर्ष पूर्व ही रची गई है। इधर तुम पाश्‍चात्‍यों को यह सिखलाया जाता है कि समाज का आरंभ 1800 वर्ष पूर्व 'नव व्‍यावस्‍थापन' के साथ ही हुआ, इसके पहले समाज नहीं था। संभव है, यह बात पश्चिम के बारे में सत्‍य हो, परंतु सारी दुनिया के लिए यह सत्‍य नहीं हो सकती। जब मैं लंदन में भाषण दिया करता था, तब एक बुद्धिमान और बौद्धिक मित्र मुझसे वाद-विवाद किया करता था। एक दिन अपने सारे शस्‍त्र चला चुकने के बाद वह एकदम बोल उठा, "लेकिन यह तो बताओ कि तुम्‍हारे ऋृषि इस इंग्‍लैंड में हमे ज्ञान देने क्‍यों नहीं आए?" मैंने उत्तर दिया, "तब इंग्‍लैंड था ही कहाँ, जो ज्ञान देने आते? क्‍या वे जंगलों को सिखलाते?"

इंगरसोल ने मुझसे कहा था, "यदि तुम पचास साल पहले यहाँ ज्ञान सिखलाने आते, तो या तो तुम्‍हें फाँसी पर चढ़ा दिया जाता या जिंदा जला दिया जाता अथवा पत्‍थर मार मारकर तुम्‍हें गाँवों से बाहर निकाल दिया जाता।"

अतएव यह मानने में कोई असंगति नहीं है कि सभ्‍यता ईसा के १४०० वर्ष पूर्व भी विद्यमान थी। यह बात अभी तक निश्चित नहीं हुई है कि सभ्‍यता की गति सदैव नीचे से ऊपर की ओर ही हुई है। यह सिद्धांत प्रतिस्‍थापित करने के लिए जो आधार तथा प्रमाण पेश किए गए हैं, उनसे यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि आज का जंगली समाज एक समय के उन्‍नत समाज का अध:पतित रूप है। चीन के लोगों का ही उदाहरण लो। उनका कभी इस बात पर विश्‍वास ही नहीं हो सकता कि संस्‍कृति का उदय जंगली स्‍तर से हुआ है। उनका अनुभव इसके बिल्‍कुल प्रतिकूल है। लेकिन जब तुम अमेरिका की सभ्‍यता के बारे में बात करते हो, तो तुम्‍हारी दृष्टि से उसका अर्थ केवल स्‍वजाति का चिरजीवंत तथा उसका सतत विकास होता है। वह सहज ही विश्‍वास किया जा सकता है कि जिन हिंदुओं का आज 700 वर्षों से पतन हो रहा है, वे एक समय निश्‍चय ही विशेष सुसंस्‍कृत रहे होंगे। इसके प्रतिकूल प्रमाण हम उपस्थित कर ही नहीं सकते।

ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है, जहाँ सभ्‍यता आप ही आप पैदा हो गई हो। ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी दूसरी सभ्‍य जाति के संपर्क में आए बिना कोई जाति उन्‍नत हो गई हो। सभ्‍यता का उदय पहले एक या दो जातियों में हुआ होगा और फिर ये जातियाँ दूसरी जातियों से मिली; उन्‍होंने अपने विचार फैलाये और इस तरह सभ्‍यता का विस्‍तार हुआ।

व्‍यावहारिकता की दृष्टि से आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में ही हमें चर्चा करनी चाहिए; लेकिन मुझे तुमको सचेत कर देना चाहिए कि जिस तरह धर्म के संबंध में अंधविश्वास है, उसी तरह वैज्ञानिक विषयों में भी है। धार्मिक कार्य को अपना वैशिष्ट्य मानने वाले पुरोहितों के सदृश भौतिक विज्ञान के भी पुरोहित होते हैं, जो वैज्ञानिक कहलाते हैं। ज्‍यों ही डार्विन या हक्‍सले जैसे वैज्ञानिक का नाम लिया जाता है, त्‍यों ही हम आँख बंद कर उनका अनुसरण करने लगते हैं। यह तो आजकल का एक फ़ैशन हो गया है। जिसे हम वैज्ञानिक ज्ञान कहते हैं, उसका नब्‍बे प्रतिशत केवल परिकल्‍पना ही होता है। और इसमें से बहुत सा तो अनेक हाथ और सिरवाले भूतों में अंधविश्‍वास के सदृश ही होता है। अंतर केवल इतना है कि इस दूसरी परिकल्‍पना में मनुष्‍य को पत्‍‍थरों अथवा डंठलों से कुछ पृथक् माना जाता है। सच्‍चा विज्ञान हमें सावधान रहना सिखलाता है। जिस तरह पुरोहितों से हमें सावधान रहना चाहिए, उसी तरह वैज्ञानिकों से भी। पहले अविश्‍वास से आरंभ करो। छान-बीन करो, परीक्षा करो और प्रत्‍येक वस्‍तु का प्रमाण माँगने के बाद उसे स्‍वीकार करो। आजकल के विज्ञान के बहुत से प्रचलित सिद्धांत, जिनमें हम विश्‍वास करते हैं, सिद्ध नहीं हुए हैं। गणित जैसे शास्‍त्र में भी बहुत से सिद्धांत ऐसे हैं, जो केवल कामचलाऊ परिकल्‍पना के सदृश्‍य ही हैं। जब ज्ञान की वृद्धि होगी, तो ये फेंक दिए जाएंगे।

ईसा के १४०० वर्ष पूर्व एक बड़े महात्‍मा ने मनोविज्ञान के कुछ सत्‍यों की व्‍यवस्थित रचना तथा विश्‍लेषण कर उनसे व्‍यापक सिद्धांत निकालने का प्रयत्‍न किया था। उनके बाद उनके अनेक अनुयायी आए, जिन्‍होंने उनके आविष्‍कृत ज्ञान के अंशों को लेकर उनका विशेष रूप से अध्‍ययन आरंभ किया। प्राचीन जातियों में केवल हिंदुओं ने ही ज्ञान के इस विभाग का अध्‍ययन लगन से किया है। मैं अब तुम्‍हें उसी की शिक्षा दूँगा, लेकिन प्रश्‍न यह है कि तुममें से कितने उस पर चलेंगे? कितने दिन या कितने महीनों के बाद तुम उसे छोड़ दोगे? मैं जानता हूँ कि इस विषय में तुम लोग कर्मकुशल नहीं हो। भारत में लोग युगों तक धैर्यपूर्वक प्रयत्‍न करते रहते हैं। तुम्‍हें सुनकर आश्‍चर्य होगा कि न तो उनका कोई गिरजाघर है और न कोई सामुदायिक प्रार्थना। वहाँ इस तरह के अन्‍य कोई साधन नहीं हैं; परंतु फिर भी वे प्रतिदिन प्राणायाम का अभ्‍यास करते हैं तथा मन को एकाग्र करने का प्रयत्‍न करते हैं। उनकी उपासना का मुख्‍य अंश यही है। असल में यह तो उस देश का धर्म ही है। हाँ, उनमें से प्रत्‍येक की, प्राणायाम तथा मन को एकाग्र करने की कोई विशष पद्धति हो सकती है, पर यह आवश्‍यक नहीं कि किसी व्‍यक्ति की स्‍त्री भी उसकी वह विशेष पद्धति जाने, या बाप लड़के का विशेष तरीक़ा जाने। हिंदुओं को ये अभ्‍यास करने ही पड़ते हैं। इन अभ्‍यासों में कोई 'गुह्रय' नहीं है। 'गुह्रय' शब्‍द इन पर लागू नहीं होता। रोज़ हज़ारों मनुष्‍य गंगा के किनारे आँखें मूँदकर ध्‍यान लगाए हुए प्राणायाम का अभ्‍यास करते हुए दिखायी देते हैं। साधारण जनता किसी-किसी प्रक्रिया को आचरण में नहीं ला सकती; इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला तो यह कि आचार्यों के मत से जनसाधारण इस अभ्‍यास के योग्‍य नहीं होते। इस मत में कुछ सत्‍यांश हो सकता है, लेकिन अधिक सच्‍चा कारण है गर्व। दूसरा कारण है अत्‍याचार का भय। उदाहरणार्थ, तुम्‍हारे देश में सबके सामने प्राणायाम करना कोई पसंद न करेगा, क्‍योंकि लोग उस व्‍यक्ति को शायद सोचने लगें कि कैसा विचित्र प्राणी है यह! कारण, इस देश का रिवाज़ ऐसा नहीं है। इसके विपरीत, भारत में अगर कोई ऐसी प्रार्थना करे, "हे प्रभो आज के दिन हमें हमारी रोज की रोटी दो", तो लोग उस पर हँसेंगे। "हे पिता, जो तू स्‍वर्ग में रहता है," इसके समान दूसरी मूर्खता की कल्‍पना तो हिंदुओं की दृष्टि में हो ही नहीं सकती। जब हिंदू उपासना करता है, तो समझता है कि परमेश्‍वर अपने ह्रदय में विराजमान है।

योगियों के मत से मुख्यतः तीन नाडि़याँ हैं। 'इड़ा', 'पिंगला' और बीच में "सुष्‍म्‍णा', और यह तीनों मेरूदंड में स्थित हैं। इड़ा और पिंगला दाहिनी और बाई, नाड़ी तंतुओं के गुच्‍छ हैं। पर सुषुम्‍णा उनका गुच्‍छ नहीं है, वह पोली है। सुषुम्‍णा बंद रहती है और साधारण मनुष्‍य के लिए इसका कोई उपयोग नहीं होता। वह इड़ा और पिंगला से ही अपना काम लिया करता है। इन्‍हीं नाडि़यों द्वारा संवेदना का प्रवाह लगातार आता-जाता रहता है और वे संपूर्ण शरीर में फैले हुए नाड़ीय सूत्रों द्वारा शरीर की पृथक्-पृथक् इंद्रियों तक आदेश पहुँचाती रहती हैं।

इड़ा और पिंगला का व्‍यवहार नियमित करना और उनमें लय उत्‍पन्‍न करना प्राणायाम का महत् उद्देश्य है। पर यह कोई बड़ी बात नहीं है। यह तो केवल अपने फेफड़ों में काफ़ी हवा लेना है, रक्‍त साफ़ करने के अतिरिक्‍त इसका और कोई विशेष उपयोग नहीं। श्‍वासोच्‍छवास द्वारा हवा फेफड़ों में खींचना और उसके द्वारा खून साफ़ करना, इसमें कुछ गुह्रय नहीं है; यह तो केवल गति मात्र है। इस गति को ऐकिक गति में विकसित किया जा सकता है, जिसे प्राण कहते हैं। विश्‍व में सर्वत्र दिखायी देने वाली सब क्रियाएँ इस प्राण की विभिन्‍न अभिव्‍यक्तियाँ हैं। वह प्राण विद्युत् शक्ति है, चुंबक शक्ति है, मस्तिष्‍क के द्वारा वह विचार के रूप में बहिर्गत होती है। सब वस्‍तुएँ प्राण ही हैं और यह प्राण ही सूर्य, चंद्र, तारे आदि को चला रहा है। हम कहते हैं कि इस विश्‍व में जो कुछ विद्यमान है, वह सब प्राण के स्पंदन से ही उत्पन्न हुआ है। प्राण के सर्वोच्‍च स्पंदनों का कार्य है 'विचार'। इससे उच्‍च अगर कुछ है, तो वह हमारी कल्‍पनाशक्ति के बाहर है। इस प्राण द्वारा इड़ा और पिंगला का कार्य होता है। विभिन्‍न शक्तियों का रूप लेकर शरीर के प्रत्‍येक भाग को प्राण ही चलाता है। यह पुरानी कल्पना छोड़ दो कि ईश्‍वर नाम की कोई वस्‍तु है, जो कार्य या फल उत्‍पन्‍न करता है, और जो सिंहासन पर बैठकर न्‍याय कर रहा है। काम करते समय हम थक जाते हैं, क्‍योंकि उसमें उतने प्राण का क्षय हो जाता है।

प्राणायाम नामक श्‍वासोच्‍छवास का व्‍यायाम श्वासोच्‍छवास को नियमित करता है और प्राण की क्रिया को लयात्‍मक बनाता है। जब प्राण की गति लयात्‍मक होती है, तो सब कार्य ठीक-ठीक होते हैं। जब योगियों का शरीर उनके वश में हो जाता है, तब यदि शरीर के किसी अंग में रोग उत्‍पन्‍न होता है, तो वे जान लेते हैं कि उस अंग में प्राण की गति लयात्‍मक नहीं हो रही है और फिर वे प्राण को उस विकृत अंग की ओर प्रेशर करते हैं, जिससे लय फिर से नियमित हो जाती है।

जिस तरह तुम अपने शरीरस्‍थ प्राण को नियंत्रित कर सकते हो, उसी तरह अगर तुम काफ़ी शक्तिमान हो, तो यहाँ से ही भारत के किसी मनुष्‍य के प्राण का भी नियंत्रण कर सकते हो। प्राण विभक्‍त नहीं है। एकत्‍व ही उसका धर्म है। भौतिक, दैविक, अध्‍यात्मिक, मानसिक, नैतिक और तात्विक, सभी दृष्टियों से सब एक ही है। जीवन तो सिर्फ एक स्पंदन है। आकाश के सागर को जो स्पंदित करता है, वही तुमको भी स्पंदित करता है। जिस तरह सरोवर में बर्फ़ के विभिन्‍न घनत्‍व के भिन्न-भिन्न स्‍तर होते हैं, या जैसे वाष्प के सागर में घनत्‍व के विविध परिणाम होते हैं, उसी प्रकार यह विश्‍व ब्रह्रमांड भी जड़ द्रव्‍य का सागर है। यह सागर आकाश का है, जिसमें हमें सूर्य, चंद्र, तारे और हम स्‍वयं, विविध घनत्‍व की वस्‍तुएँ मिलती हैं, लेकिन सातत्‍य खंडित नहीं होता, वह सर्वत्र एकरस है।

जब हम दर्शनशास्‍त्र का अध्‍ययन करते हैं, तो हमें यह ज्ञान होता है कि संपूर्ण विश्‍व एक है। आध्‍यात्मिक, भौतिक, मानसिक तथा ऊर्जा जगत्, ये भिन्न-भिन्न नहीं है। विश्‍व एक है, अलग अलग दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण विभिन्‍न् प्रतीत होता है। 'मैं शरीर हूँ' इस भावना से जब तुम अपनी ओर देखते हो, तो-' मैं मन भी हूँ,' यह भूल जाते हो, और जब तुम अपने को मनोरूप देखने लगते हो, तो तुम्‍हें अपने शरीरत्‍व की विस्‍मृति हो जाती है। विद्यमान वस्‍तु केवल एक है और वह तुम हो। वह तुम्‍हें या तो जड़ या शरीर के रूप में अथवा मन या आत्‍मा के रूप में दिख सकती है। जन्‍म, जीवन, मरण, ये सब भ्रम मात्र हैं। न कोई कभी मरता है और न कोई कभी जन्‍म लेता है, केवल मनुष्‍य एक स्थिति से दूसरी स्थिति में चला जाता है। पाश्‍चात्‍यों को मृत्‍यु से इतना भय खाते देख मुझे दु:ख होता है -वे मानो जीवन को पकड़ रखने की सतत चेष्‍टा करते रहते हैं। वे कहते, "मृत्‍यु के बाद हमें जीवन दो! हमें मरणोत्‍तर जीवन दो!" यदि कोई आए और उन्‍हें बताये कि मृत्यु के बाद भी वे विद्यमान रहेंगे, तो वे कितने आनंदित होते हैं। वस्‍तुत: मनुष्‍य के अमरत्‍व में मैं अविश्‍वास ही किस तरह कर सकता हूँ! मैं मृत हूँ, यह कल्‍पना ही मैं किस प्रकार कर सकता हूँ! तुम यदि अपने को मरा सोचने की कोशिश करो, तो देखोगे कि तुम अपने मृत शरीर को देखने के लिए वर्तमान हो ही। जीवन का अस्तित्‍व एक ऐसा आश्‍चर्यमय सत्‍य है कि तुम एक क्षण भी उसका विस्‍मरण नहीं कर सकते। तब तो तुम अपने अस्तित्‍व में भी संदेह कर सकते हो। मैं हूँ-यह ज्ञान ही चैतन्‍य का आदि तथ्‍य है। जिसका कभी अस्तित्‍व ही नहीं था, उसकी कल्‍पना ही कौन कर सकता है? सभी सत्‍यों में यह सर्वाधिक स्‍वयंसिद्ध सत्‍य है। अत: अमरत्‍व की भावना मनुष्‍य में स्‍वभावत: विद्यमान रहती है। अकल्‍पनीय विषय पर कोई विवाद ही नहीं कर सकता और इसीलिए इस स्‍वयंसिद्ध विषय पर कोई विवाद की आवश्यकता नहीं है।

अतएव हम किसी भी दृष्टि से देखें, हमें प्रतीत होगा कि यह संपूर्ण जगत् एक इकाई है। अभी हमें यह समग्र विश्‍व प्राण तथा आकाश अर्थात शक्ति एवं जड़ का बना हुआ प्रतीत होता है। और तुम लोग ख्‍याल रखो कि अन्‍य मूलभूत सिद्धांतों के समान यह सिद्धांत भी स्‍वविरोधी है। शक्ति क्‍या है? शक्ति वह है, जो जड़ को गति देती है और जड़ क्‍या है? जड़ वह है, जो शक्ति द्वारा गतिशील होता है। यह तो गोल-मोल बात हुई! हमें अपने ज्ञान तथा विज्ञान का गर्व होते हुए भी हमारे कोई कोई मूलभूत तर्कसिद्धांत बड़े विचित्र होते हैं। संस्‍कृत कहावत के अनुसार यह तो 'बेसिर के सिर-दर्द' के समान हुआ। इस वस्‍तुस्थिति का नाम है 'माया'। न तो वह विद्यमान है और न अविद्यमान ही। तुम उसे विद्यमान नहीं कह सकते, क्‍योंकि केवल वही वस्‍तु विद्यमान कहलाती है, जो देश-काल से परे हो और जिसके अस्तित्‍व के लिए किसी दूसरे की आवश्‍यकता न हो। फिर भी यह विश्‍व आंशिक रूप में हमारी अस्तित्‍व की धारणा की पूर्ति करता है। अतएव उसका प्रतियमान अस्तित्‍व है।

परंतु इस समस्‍त विश्‍व में एक सत् वस्‍तु ओतप्रोत है; और वह देश, काल तथा कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है। मनुष्‍य का सच्‍चा स्‍वरूप वह है, जो अनादि, अनंत, आनंदमय तथा नित्‍य मुक्‍त है; वही देश, काल और परिणाम के फेर में फँसा है। यही प्रत्‍येक वस्‍तु के संबंध में भी सत्‍य है। प्रत्‍येक वस्‍तु का परमार्थस्‍वरूप वही अनंत है। यह विज्ञानवाद (प्रत्‍ययवाद) नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि विश्‍व का अस्तित्‍व ही नहीं है। इसका अस्तित्‍व सापेक्ष है और सापेक्षता के सब लक्षण इसमें विद्यमान हैं। लेकिन इसकी स्‍वयं की कोई स्‍वतंत्र सत्‍ता नहीं है। यह इसलिए विद्यमान है कि इसके पीछे देश-काल-निमित्‍त से अतीत निरपेक्ष अद्वितीय सत्‍ता मौजूद है।

ख़ैर, यह विषयांतर हो गया है। आओ, अब हम फिर अपने मुख्‍य विषय की ओर आयें। सारी क्रियाएँ, चाहे वे सहज हो या ऐच्छिक, नाडि़यों के माध्‍यम से प्राण के ही कार्य हैं। इससे तुम्‍हें अब मालूम होगा कि अपनी सहज क्रियाओं पर नियंत्रण रखना एक बहुत अच्‍छी बात होगी।

एक दूसरे अवसर पर मैंने तुम्‍हें मनुष्‍य और परमेश्‍वर की परिभाषा बतलायी थी। मनुष्‍य एक असीम वृत्‍त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केंद्र एक स्‍थान में निश्चित है, और परमेश्‍वर एक ऐसा असीम वृत्‍त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, परंतु जिसका केंद्र सर्वत्र है। वह सब हाथों द्वारा काम करता है, सब आँखों द्वारा देखता है, सब पैरों द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा साँस लेता है, सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और सब मस्तिष्‍क द्वारा विचार करता है। यदि मनुष्‍य अपनी आत्‍मचेतना को अनंत गुनी कर ले, तो वह ईश्‍वररूप बन सकता है और संपूर्ण विश्‍व पर अपना अधिकार चला सकता है। इसलिए चैतन्‍य का ज्ञान परमावश्‍यक है। मान लो, अँधेरे में एक अनंत रेखा है। हम वह रेखा देख नहीं सकते, लेकिन उस देखा पर एक तेजोमय बिंदु है, जो गतिमान है। इस रेखा पर चलते हुए जैसे जैसे वह बिंदु आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे वह विभिन्‍न भागों पर क्रमश: प्रकाश डालता जाता है और जो हिस्‍से पीछे होते जाते हैं, वे फिर अँधेरे में डूब जाते हैं। हमारी चेतनावस्‍था को भी ठीक इस प्रकाशमान बिंदु की उपमा दी जा सकती है। इस चेतनावस्‍था के गत अनुभवों का स्‍थान वर्तमान अनुभव ने ले लिया है या यों कहो कि ये गत अनुभव अवचेतन-स्‍तर में जा चुके हैं। इनके अस्तित्‍व का हमें बोध नहीं होता, परंतु फिर भी ये विद्यमान हैं और हमारे मन तथा शरीर को अज्ञान रूप से प्रभावित करते जा रहे हैं। आज जो, जो कार्य बिना चेतना की सहायता के होते दिखायी दे रहे हैं, वे सब पहले चेतनायुक्‍त थे। अब उनमें इतनी गति आ गई है कि वे स्‍वयं ही कार्य कर सकते हैं।

सभी नीतिशास्‍त्रों का, अनपवाद रूप से, एक बड़ा दोष यह है कि उन्‍होंने उन साधनों का कभी उपदेश नहीं दिया, जिनके द्वारा मनुष्‍य बुरा करने से अपने को रोक सके। सभी नीतिशास्‍त्र कहते हैं कि 'चोरी मत करो।' ठीक है; लेकिन मनुष्‍य चोरी करता ही क्‍यों है? कारण यह है कि चोरी, डाका, दुर्व्‍यवहार आदि कुकर्म यांत्रिक सहज क्रियाएँ बन बैठे हैं। डाका डालने वाले, चोर, झूठे तथा अन्‍यायी स्‍त्री-पुरुष-ये ऐसे इसलिए हो गए हैं कि अन्‍यथा होना उनके हाथ नहीं। सचमुच यह मनोविज्ञान के लिए एक बड़ी विकट समस्‍या है। मनुष्‍य की ओर हमें बड़ी उदारता की दृष्टि से देखना चाहिए। अच्‍छा बनना इतनी सरल बात नहीं है। जब तक तुम मुक्‍त नहीं होते, तब तक एक यंत्र के सिवा तुम और क्‍या हो? क्‍या तुम्‍हें इस बात पर अभिमान होना चाहिए कि तुम अच्‍छे मनुष्‍य हो? बिल्‍कुल नहीं। तुम इसलिए अच्‍छे हो कि तुम अन्‍यथा नहीं हो सकते। दूसरा मनुष्‍य इसलिए बुरा है कि अन्‍यथा होना उसके बस की बात नहीं। अगर तुम उसकी जगह होते, तो कौन जानता है कि तुम क्‍या होते? एक वेश्‍या या जेलबंद चोर मानो ईसा मसीह है, जो इसलिए सूली पर चढ़ाया गया है कि तुम अच्‍छे बनो। प्रकृति में इसी तरह साम्‍यावस्‍था रहती है। सब चोर और खूनी, सब अन्‍यायी और पतित, सब बदमाश और राक्षस मेरे लिए ईसा मसीह हैं! देवरूपी ईसा तथा दानवरूपी ईसा, दोनों ही मेरे लिए आराध्‍य हैं! यही मेरा धर्म है, इससे अन्‍यथा मेरे बस की बात नहीं। अच्‍छे और साधु पुरुषों को मेरा प्रणाम! बदमाश और शैतानों को भी मेरा प्रणाम! वे सभी मेरे गुरुवर हैं, मेरे धर्मोपदेशक आचार्य हैं, मेरे त्राता हैं। मैं चाहे किसी एक को शाप दूँ, परंतु संभव है, फिर उसी के दोषों से मेरा लाभ भी हो; दूसरे को मैं आशीर्वाद दूँ और उसके शुभ कर्मों से मेरा हित हो। यह सूर्य-प्रकाश के समान सत्‍य है। दुराचारी स्‍त्री को मुझे इसलिए दुत्‍कारना पड़ता है कि समाज वैसा चाहता है। आह, वह! वह मेरी तारिणी, जिसकी वेश्‍या-वृत्ति के ही कारण दूसरी स्त्रियों का सतीत्‍व सुरक्षित रहा, इसका विचार तो करो! भाइयो और बहनो, इस प्रश्‍न को ज़रा अपने मन में सोचो। यह सत्‍य है-बिल्‍कुल सत्‍य है। मैं जितनी ही अधिक दुनिया देखता हूँ, जितना ही अधिक स्‍त्री-पुरुषों के संपर्क में आता हूँ, उतनी ही मेरी यह धारणा दृढ़तर होती जाती है। मैं किसे दोष दूँ? मैं किसकी तारीफ़ करूँ? हमें वस्‍तुस्थिति का सभी पक्षों से विचार करना चाहिए।

हमारे सामने बहुत बड़ा कार्य है, और इसमें सर्वप्रथम और सबसे महत्‍व का काम है, अपने सहस्रों सुप्‍त संस्‍कारों पर अधिकार चलाना, जो अनैच्छिक सहज क्रियाओं में परिणत हो गए हैं। यह बात सच है कि असत्‍कर्म-समूह मनुष्‍य के जागृत क्षेत्र में रहता है, लेकिन जिन कारणों ने इन बुरे कामों को जन्‍म दिया, वे इसके पीछे प्रसुप्‍त और अदृश्‍य जगत् के हैं और इसलिए अधिक प्रभावशाली हैं।

व्‍यावहारिक मनोविज्ञान प्रथम हमें यह सिखलाता है कि हम अपने अचेतन मन का नियंत्रण किस तरह कर सकते हैं। हम जानते हैं कि हम ऐसा कर सकते हैं। क्‍यों? इसलिए कि हम जानते हैं, चेतन मन ही अचेतन का कारण है। हमारे जो लाखों पुराने चेतन विचार और चेतन कार्य थे, वे ही घनीभूत होकर प्रसुप्‍त हो जाने पर हमारे अचेतन विचार बन जाते हैं। हमारा उधर ख्‍याल ही नहीं जाता, हमें उनका ज्ञान नहीं होता, हम उन्‍हें भूल जाते हैं। लेकिन देखो, यदि प्रसुप्‍त अज्ञान संस्‍कारों में बुरा करने की शक्ति है, तो उनमें अच्‍छा करने की भी शक्ति है। हमारे भीतर नाना प्रकार के संस्‍कार भरे पड़े हैं-मानो एक जेब में बहुत सी चीजे़ं बँधी हुई हैं। उन्‍हें हम भूल गए हैं, हम उनका विचार तक नहीं करते। उनमें से बहुत से तो वहीं पड़े सड़ते रहते हैं और सचमुच भयावह बनते जाते हैं। वे ही प्रसुप्‍त कारण एक दिन मन के ज्ञानयुक्‍त क्षेत्र पर आ उठते हैं और मानवता का नाश कर देते हैं। अतएव सच्‍चा मनोविज्ञान उनको चेतन मन के अधीन लाने का प्रयत्‍न करेगा। अतएव महत्‍वपूर्ण बात है, पूरे मनुष्‍य को पुनरूज्‍जीवित जैसा कर देना, जिससे कि वह अपना पूर्ण स्‍वामी बन जाए। शरीरांतर्गत यकृत आदि इंद्रियों की स्‍वत:प्रवृत्त क्रियाओं को भी हम अपनी आज्ञापालक बना सकते हैं।

अचेतन को अपने अधिकार में लाना हमारी साधना का पहला भाग है। दूसरा है चेतन के परे जाना। जिस तरह, अचेतन-चेतन के नीचे उसके पीछे रहकर कार्य करता रहता है, उसी तरह चेतन के ऊपर उसके अतीत भी एक अवस्‍था है। जब मनुष्‍य इस अतिचेतन अवस्‍था को पहुँच जाता है, तब वह मुक्‍त हो जाता है, ईश्‍वरत्‍व को प्राप्‍त हो जाता है। तब मृत्‍यु अमरत्‍व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लौह श्रृंखलाएँ मुक्ति बन जाती हैं। अतिचेतन का यह असीम राज्‍य ही हमारा एकमात्र लक्ष्‍य है।

अतएव यह स्‍पष्‍ट है कि हमें दो कार्य अवश्‍य ही करने होंगे। एक तो यह कि इड़ा और पिंगला के प्रवाहों का नियमन कर अचेतन कार्यों को नियमित करना; और दूसरा, इसके साथ ही साथ चेतन के भी परे चले जाना।

ग्रंथों में कहा है कि योगी वही है, जिसने दीर्घकाल तक चित्‍त की एकाग्रता का अभ्‍यास करके इस सत्‍य की उपलब्धि कर ली है। अब सुषम्‍णा का द्वार खुल जाता है और इस मार्ग में वह प्रवाह प्रवेश करता है, जो इसके पूर्व उसमें कभी नहीं गया था, वह (जैसा कि आलंकारिक भाषा में कहा है) धीरे-धीरे विभिन्‍न कमल-चक्रों में से होता हुआ, कमल-दलों को खिलाता हुआ अंत में मस्तिष्‍क तक पहुँच जाता है। तब योगी को अपने सत्‍यस्‍वरूप का ज्ञान हो जाता है, वह जान लेता है कि वह स्‍वयं परमेश्‍वर ही है।

हममें से प्रत्येक व्‍यक्ति, बिना किसी अपवाद के, योग की इस अंतिम अवस्‍था को प्राप्‍त कर सकता है लेकिन यह अत्यंत कठिन कार्य है। यदि मनुष्‍य को इस सत्‍य का अनुभव करना हो, तो उसे केवल वक्‍तृता सुनने और श्‍वासोच्‍छ्वास की थोड़ी सी क्रियाओं का अभ्‍यास करने के अतिरिक्‍त कुछ और विशेष साधनाएँ भी करनी होंगी। महत्‍व है तैयारी ही का। दीपक जलाने में कितनी देर लगती है? केवल एक सेकेण्ड लेकिन उस मोमबत्ती को बनाने में कितना समय लग जाता है! खाना खाने में कितनी देर लगती है? शायद आधा घंटा। लेकिन वही खाना पकाने के लिए कितने घंटे लग जाते हैं! हम चाहते हैं कि दीप एक क्षण में जल उठे, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि मोमबत्ती बनाना ही तो मुख्‍य है।

इस प्रकार यद्यपि ध्‍येय-प्राप्ति बहुत कठिन है, तथापि हमारे द्वारा किया गया लघुतम प्रयास भी व्‍यर्थ नहीं जाता। हम जानते हैं कि कोई भी वस्‍तु नष्‍ट नहीं होती। गीता में अर्जुन ने कृष्‍ण से प्रश्‍न किया है कि वे मनुष्‍य, जिनकी योग-साधना इस जन्‍म में सिद्ध नहीं हुई, किस दशा को प्राप्‍त होते हैं? क्‍या वे ग्रीष्‍मकाल के मेघों की तरह नष्‍ट-भ्रष्‍ट हो जाते हैं? कृष्‍ण उत्तर देते हैं, "हे मित्र, कोई भी वस्‍तु नष्‍ट नहीं होती। जो कुछ मनुष्‍य करता है, वह उसका अपना हो जाता है। और यदि योग की सिद्धि इस जन्‍म में न हुई, तो दूसरे जन्‍म में मनुष्‍य फिर वह अभ्‍यास आरंभ कर देता है।" यदि ऐसा न हो, तो ईसा मसीह, बुद्ध अथवा शंकराचार्य की अलौकिक बाल्‍यावस्‍था की व्‍याख्‍या तुम कैसे करोगे?

आसन, प्राणायाम इत्‍यादि योग के सहायक हैं अवश्‍य, लेकिन वे केवल शारीरिक क्रियाएँ मात्र हैं। मुख्‍य तैयारी तो मन की है। सबसे पहले यह आवश्‍यक है कि हमारा जीवन शांतिपूर्ण तथा समाधानयुक्त हो।

यदि तुम योगी बनना चाहते हो, तो तुम्‍हें स्‍वतंत्र होना होगा, और अपने को ऐसे वातावरण में रखना होगा, जहाँ तुम एकाकी और सर्व चिंताओं से मुक्‍त होकर रह सको। 'जो भोग-विलासपूर्ण जीवन की इच्‍छा रखते हुए आत्‍मानुभूति की चाह रखता है, वह उस मूर्ख के समान है, जिसने नदी पार करने के लिए एक मगर को लकड़ी का लट्ठा समझकर पकड़ लिया।' [1]

'पहले भगवत् राज्‍य को प्राप्‍त कर लो, शेष सब कुछ तुम्‍हें स्‍वयं ही मिल जाएगा।' यही एक महान कर्तव्‍य है, यही त्‍याग है। एक आदर्श के लिए जि़ंदा रहो और मन में कोई दूसरे विचार आने ही न दो। आओ, हम अपनी सब शक्तियाँ उस आध्‍यात्मिक पूर्णता की ओर लगायें, जिसका कभी क्षय नहीं होता। अगर हमें आत्‍मबोध की सच्‍ची लगन है, तो हमें साधना करनी चाहिए और उसी के द्वारा हमारी उन्नति होगी। हमसे गलतियाँ होंगी ही, लेकिन वे हमारे लिए अज्ञात वरदानस्‍वरूप हो सकती हैं।

आध्‍यात्मिक जीवन का सबसे बड़ा सहायक 'ध्‍यान' है। ध्‍यान के द्वारा हम अपनी भौतिक भावनाओं से अपने आपको स्‍वतंत्र कर लेते हैं और अपने ईश्‍वरीय स्‍वरूप का अनुभव करने लगते हैं। ध्‍यान करते समय हमें कोई बाहरी साधनों पर अवलंबित नहीं रहना पड़ता। गहरे अँधेरे स्‍थान को भी आत्‍मा की ज्‍योति दिव्‍य प्रकाश से भर देती है, बुरी से बुरी वस्‍तु में भी वह अपना सौरभ उत्‍पन्‍न कर सकती है, वह अत्यंत दुष्‍ट मनुष्‍य को भी देवता बना देती है-और संपूर्ण स्‍वार्थी भावनाएँ, संपूर्ण शत्रुभाव नष्‍ट हो जाते हैं। शरीर का जितना कम ख्‍याल हो, उतना ही अच्‍छा, क्‍योंकि यह शरीर ही है, जो हमें नीचे गिराता है द्य इस शरीर से आसक्ति और उससे तादात्‍म्‍य ही हमारे दु:खों का कारण है। 'मैं आत्‍मा हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ; यह विश्‍व और उसके संपूर्ण संबंध, उसकी भलाई और उसकी बुराई-यह सब एक चित्रावली-चित्रपट पर खिंचे हुए विभिन्‍न दृश्‍य हैं और मैं उनका साक्षी हूँ' -यह निदिध्‍यासन ही धर्मजीवन का रहस्‍य है।


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