(२८ जनवरी, १९०० को कैलिफ़ोर्निया के पॅसाडेना नगरस्थ सार्वर्भामिक धर्ममंदिर
में दिया गया भाषण)
जिस अनुसंधान के द्वारा हम ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करते हैं, मानव-ह्रदय के
लिए उससे अधिक प्रिय अन्य कोई अनुसंधान नहीं है। अतीत काल में, अथवा वर्तमान
काल में 'आत्मा', ईश्वर', और "मानव के भाग्य' आदि की गवेषणा में मनुष्य की
जितनी शक्ति व्यय हुई है, उतनी अन्य किसी विषय में नहीं। हम अपने दैनिक
कर्म, महत्वाकांक्षा और अपने कर्तव्य में कितने ही डूबे क्यों न हों, अपने
प्रखरतम संघर्ष में कभी-कभी विराम का एक क्षण आ जाता है; मन सहसा रुककर इस
जगत्-प्रपंच के पार क्या है, इसे जानना चाहता है। कभी-कभी वह
अतींद्रिय-राज्य का आभास पाता है, और उसी के फलस्वरूप उसमें पहुँचने के लिए
संघर्ष आरंभ हो जाता है। ऐसा सभी देशों, सभी कालों में होता रहा है। मनुष्य
ने उस पार देखना चाहा है, अपना विस्तार करना चाहा है; और हम जिसे उन्नति या
विकास कहते हैं, उसको सदा उसी एक खोज-मानव के भाग्य की खोज, ईश्वर की खोज
द्वारा नापा गया है।
विभिन्न जातियों के विभिन्न प्रकार के समाज-संगठनों से जिस तरह हमें अपने
सामाजिक संघर्ष का परिचय मिलता है, उसी तरह जगत् के विभिन्न धर्म
संप्रदाय-समूहों से मनुष्यों के आध्यात्मिक संघर्ष का परिचय मिलता है।
भिन्न-भिन्न समाज जिस प्रकार सर्वदा ही आपस में कलह और युद्ध कर रहे हैं- उसी
प्रकार ये धर्म-संप्रदाय भी सर्वदा परस्पर कलह और युद्ध कर रहे हैं। किसी एक
विशेष समाज के लोगों का दावा है कि एकमात्र उन्हें ही जीवित रहने का अधिकार
है, और जब तक संभव हो, वे दुर्बल के ऊपर अत्याचार करते हुए अपना वह अधिकार
जमाये रहते हैं। हमें ज्ञात है कि ऐसा ही भीषण संघर्ष वर्तमान समय में भी
दक्षिण अफ़्रीका में हो रहा है। इसी तरह प्रत्येक धर्म संप्रदाय का भी दावा
है कि केवल उसे ही जीवित रहने का ऐकांतिक अधिकार है। अब हम देखते हैं कि
यद्यपि मानव-जीवन में धर्म ही सर्वाधिक शांतिदायी है, तथापि धर्म ने ऐसी
भयंकरता की सृष्टि की है, जैसी कि किसी दूसरे ने नहीं की थी। धर्म ने ही
सर्वापेक्षा अधिक शांति और प्रेम का विस्तार किया है और साथ ही धर्म ने
सर्वापेक्षा भीषण घृणा और विद्वेष की भी सृष्टि की है। धर्म ने ही मनुष्य के
ह्रदय में भ्रातृभाव की प्रतिष्ठा की है, साथ ही धर्म ने मनुष्यों में
सर्वापेक्षा कठोर शत्रुता और विद्वेष का भाव भी उद्दीप्त किया है। धर्म ने ही
मनुष्यों और पशुओं तक के लिए सबसे अधिक दातव्य चिकित्सालयों की स्थापना की
है और साथ ही धर्म ने ही पृथ्वी में सबसे अधिक रक्त की नदियाँ प्रवाहित की
हैं। साथ ही हम यह भी जानते हैं कि सर्वदा एक चिंतन का अंत:स्रोत बह रहा है;
सारे समय ही विभिन्न धर्म की तुलनामूलक आलोचना में व्यस्त कितने ही
तत्वान्वेषी दार्शनिक और विद्यार्थी, इन सब विवदमान और विरुद्ध मतावलंबी
धर्म-संप्रदायों में शांति स्थापित करने की चेष्टा पहले कर चुके हैं और अब
भी चेष्टा कर रहे हैं। कुछ देशों में ये चेष्टाएँ सफल हुई हैं; परंतु सारी
पृथ्वी की ओर देखने पर मालूम होता है कि समष्टि-भाव से ये चेष्टाएँ विफल हुई
हैं।
अति प्राचीन काल से चले आने वाले कुछ धर्म, जो हम लोगों के बीच प्रचलित हैं,
वे सब इस भाव से ओतप्रोत हैं कि सभी संप्रदायों को जीवित रहने का अधिकार मिले;
कारण प्रत्येक संप्रदाय में एक उद्देश्य, एक महान, भाव निहित है, जो जगत के
कल्याण के लिए आवश्यक है और इस कारण से उसका पोषण करना उचित है। वर्तमान समय
में भी यह धारणा चल रही है और समय-समय पर इसे कार्य में परिणत करने की चेष्टा
भी की जाती है। ये चेष्टाएँ सर्वदा हमारी आशा और कार्यदक्षता की अपेक्षा के
अनुरूप सिद्ध नहीं होतीं। बड़े खेद की बात तो यह है कि हम देखते हैं कि उनके
कारण हम और भी अधिक झगड़ा और विवाद करने लगे हैं।
इस समय सैद्धांतिक विचारों को अलग रखकर साधारण विचार-बुद्धि की दृष्टि से यदि
इस विषय को देखें, तो पहले ही यह ज्ञात होगा कि पृथ्वी के सब बड़े-बड़े धर्मों
में एक प्रबल जीवनी शक्ति मौजूद है। कुछ लोग कह सकते हैं, लेकिन हम इस विषय
में कुछ नहीं जानते, किंतु अज्ञता कोई बहाना नहीं है। यदि कोई कहे कि
बहिर्जगत् में क्या हो रहा है या क्या नहीं हो रहा है, इसे मैं नहीं जानता,
इसलिए बहिर्जगत् में जो कुछ भी हो रहा है, वह सब झूठ है, तो ऐसे व्यक्ति को
क्षमा नहीं किया जा सकता। तुम लोगों में, जो समग्र संसार में धर्म-विस्तार
करना चाहते हैं, वे जानते हैं कि संसार का एक भी मुख्य धर्म लुप्त नहीं हुआ
है, केवल इतना ही नहीं, वरन् उनमें से प्रत्येक धर्म प्रगति की ओर अग्रसर हो
रहा है। ईसाईयों की संख्या वृद्धि हो रही है, मुसलमानों की संख्या बढ़ रही
हैं, हिंदू भी संख्या में उन्नति कर रहे हैं और यहूदी भी संख्या में बढ़ते
हुए सारे संसार में फैलकर यहूदी धर्म की सीमा दिनोंदिन बढ़ाते जा रहे हैं।
केवल एक ही धर्म-एक प्रधान प्राचीन धर्म धीरे-धीरे लुप्तप्राय हो गया है। वह
है ज़रथुष्ट्र धर्म- प्राचीन पारसियों का धर्म। मुसलमानों के ईरान-विजय के
समय लगभग एक लाख ईरानवासियों ने भारतवर्ष में आकर शरण ली थी और कुछ पुराने लोग
ईरान में ही रह गए थे। जो ईरान में रह गए थे, वे मुसलमानों के निरंतर
उत्पीड़न के फलस्वरूप लुप्त हो गए- इस समय अधिक से अधिक उनकी संख्या दस
हज़ार होगी। भारत में उनकी संख्या लगभग अस्सी हजा़र है, परंतु उसमें वृद्धि
नहीं होती। आरंभ से ही उनकी एक असुविधा है और वह यह कि वे किसी दूसरे को अपने
धर्म में नहीं मिलाते। साथ ही भारत में रहने वाले इन मुट्ठी भर लोगों में भी
सहोदरों के अतिरिक्त भाई-बहनों के विवाहरूपी घोर अनिष्टकर प्रथा प्रचलित
रहने से इनकी वृद्धि नहीं होती। इस एकमात्र अपवाद को छोड़ समस्त महान धर्म
जीवित हैं और वे विस्तारित और पुष्ट हो रहे हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिए
कि संसार के प्रधान धर्म अत्यंत प्राचीन हैं; उनमें से एक की भी स्थापना
वर्तमान काल में नहीं हुई है और संसार का प्रत्येक धर्म गंगा और फरात नदियों
के मध्यवर्ती भूखंडों पर उत्पन्न हुआ है। एक भी प्रधान धर्म यूरोप या
अमेरिका में उत्पन्न नहीं हुआ-एक भी नहीं। प्रत्येक धर्म एशिया में
उत्पन्न हुआ है और वह भी केवल उसी भूखंड में। आधुनिक वैज्ञानिक जिसे
'योग्यतम की अतिजीविता' कहते हैं, यदि यह बात सत्य है, तो इस कसौटी से
प्रमाणित हो जाता है कि ये सब धर्म अब भी जीवित हैं और कुछ मनुष्यों के
योग्य हैं। वे भविष्य में भी इसी कारण से जीवित रहेंगे कि वे बहुत मनुष्यों
के योग्य हैं। वे भविष्य में भी इसी कारण से जीवित रहेंगे कि वे बहुत
मनुष्यों का उपकार कर रहे हैं। मुसलमानों को देखो, उन्होंने दक्षिण एशिया के
कुछ स्थानों में कैसा विस्तार किया है और अफ़्रीका में आग की तरह फैल रहे
हैं। बौद्धों ने मध्य एशिया में बराबर विस्तार किया है। यहूदियों की भाँति
हिंदू भी दूसरे को अपने धर्म में ग्रहण नहीं करते, तथापि धीरे-धीरे अन्यान्य
जातियाँ हिंदू धर्म के भीतर चली आ रही हैं और हिंदुओं के आचार-व्यवहार को
ग्रहण कर उनके समकक्ष होती जा रही हैं। ईसाई धर्म ने कैसा विस्तार किया है,
तुम सब जानते हो; परंतु मुझे ऐसा मालूम होता है कि फिर भी चेष्टानुरूप फल
नहीं हो रहा है। ईसाईयों के प्रचार-कार्य में एक बड़ा भारी दोष रह गया है और वह
पश्चिम की सभी संस्थाओं में है। शक्ति का नब्बे प्रतिशत कल-पुर्जो में ही
व्यय हो जाता है-यंत्रों का अत्याधिक्य है। प्रचार-कार्य, तो प्राच्य
लोगों का ही काम रहा है। पाश्चात्य लोग संघबद्ध भाव से कार्य, सामाजिक
अनुष्ठान, युद्ध, सज्जा, राज्य-शासन इत्यादि अति सुंदर रूप से संपन्न कर
सकते है, परंतु धर्म-प्रचार के क्षेत्र में वे प्राच्य की बराबरी नहीं कर
सकते। कारण, वे इसे निरंतर करते आए हैं-वे इसमें अभिज्ञ हैं और वे अधिक
यंत्रों का व्यवहार नहीं करते।
यह मनुष्य जाति के वर्तमान इतिहास में एक प्रत्यक्ष तथ्य है कि पूर्वोक्त
सभी प्रधान प्रधान धर्म ही विद्यमान हैं और वे विस्तारित तथा पुष्ट होते जा
रहे हैं। इस तथ्य का अवश्य कोई अर्थ है; और सर्वज्ञ परम कारुणिक सृष्टिकर्ता
की यदि यही इच्छा होती कि इनमें से केवल एक ही धर्म विद्यमान रहे और शेष सब
नष्ट हो जाएं, तो वह बहुत पहले ही पूर्ण हो जाती। अथवा यदि इन सब धर्मों में
से केवल एक ही सत्य होता और अन्य सब झूठ, तो वही अब तक सारी पृथ्वी पर छा
जाता। पर बात ऐसी नहीं है, उनमें से एक ने भी सारे संसार पर अधिकार नहीं कर
पाया है। सारे धर्म किसी एक समय उन्नति और किसी एक समय अवनति की ओर जाते हैं।
यह भी विचारने की बात है कि तुम्हारे देश में छ: करोड़ मनुष्य हैं; परंतु
उनमें से केवल दो करोड़ दस लाख ही किसी न किसी धर्म के अनुयायी हैं। अत:
प्रगति सदा ही नहीं होती रहती। गवेषणा करने से संभवत: मालूम होगा कि सब देशों
में धर्म कभी उन्नति और कभी अवनति करता रहा है। उस पर देखा जाता है कि संसार
में संप्रदायों की संख्या दिनों बढ़ती जा रही है। किसी संप्रदाय विशेष का यह
दावा यदि सत्य होता, कि सारा सत्य उसी में भरा है और ईश्वर ने उस निखिल
सत्य को उसी के धर्मग्रंथ में लिख दिया है-तो फिर संसार में इतने संप्रदाय
क्यों है? पचास वर्ष बीतने नहीं पाते कि पुस्तक विशेष के आधार पर बीसों नए
संप्रदाय उठ खड़े होते हैं। ईश्वर ने यदि कुछ पुस्तकों में ही निखिल सत्य को
निबद्ध किया है, तो उसने वे ग्रंथ हमें इसलिए नहीं दिए हैं कि हम उनके
शब्दार्थ पर झगड़ा करें, तथ्य यही प्रतीत होता है। ऐसा क्यों होता है? यदि
ईश्वर सचमुच किसी ग्रंथ में समस्त सम्य को लिख देता, तब भी कोई उद्देश्य
सिद्ध नहीं होता, कारण, कोई उसको समझ नहीं सकता। उदाहरणस्वरूप बाइबिल तथा
ईसाईयों के प्रचलित संप्रदायों को लो। प्रत्येक संप्रदाय उस एक ही पुस्तक की
व्याख्या अपने मतानुसार करता हुआ कह रहा है कि केवल उसी ने उसको ठीक तरह से
समझा है और बाक़ी सब भ्रांत है। प्रत्येक धर्म में यही बात है। मुसलमानों और
बौद्धों में अनेक संप्रदाय हैं, हिंदुओं में भी सैकड़ों हैं। मैंने जिन जिन
तथ्यों को तुम्हारे सम्मुख स्थापित किया है, उनका उद्देश्य यह है कि मैं
दिखाना चाहता हूँ कि धर्म विषय में जितनी बार सारी मनुष्य जाति को एक प्रकार
की विचारधारा में ले जाने की चेष्टा की गई है, उतनी ही बार वह विफल हुई और
आगे भी होगी। यहाँ तक कि वर्तमान काल में भी नए मत-प्रवर्तक यह देख रहे हैं कि
वे अपने अनुयायियों से बीस मील दूर जाते जाते उसके अनुयायी बीसों दल बना लेते
हैं। ऐसा सदैव होता रहा है। बात यह है कि सब लोगों के एक ही प्रकार का भाव
ग्रहण करने से काम नहीं चलता और मैं इसके लिए भगवान को धन्यवाद देता हूँ। मैं
किसी भी संप्रदाय का विरोधी नहीं हूँ। अनेक संप्रदाय हैं, इससे मैं प्रसन्न
हूँ और मेरी इच्छा है कि उनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जाए। इसका कारण क्या
है? कारण यह है कि यदि तुम, मैं और यहाँ के उपस्थित सब सज्जन एक ही प्रकार के
विचारों का चिंतन करें, तो हमारे चिंतन करने का विषय ही नहीं रहेगा। दो या
इससे अधिक शक्तियों का संघर्ष होने से गति संभव होती है, यह सब जानते हैं। उसी
प्रकार चिंतन के घात-प्रतिघात से ही-चिंतन के वैचित्र्य से ही नए विचारों का
उद्भव होता है। अब यदि हम सब एक ही प्रकार का चिंतन करते, तो हम मिस्र देश के
जादूघर की ममियों (Mummies) की तरह एक दूसरे के मुख की ओर मुँह बाये देखते
रहते, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। वेगवती सजीव नदी में ही भँवर और
थपेड़े रहते हैं, अप्रवाहित या निष्क्रिय जल में भँवर नहीं पड़ता। जब सब नष्ट
हो जाएंगे, तब संप्रदाय नहीं रहेंगे; तब श्मशान की पूर्ण शांति और सामंजस्य
आकर उपस्थित होगा। किंतु जब तक मनुष्य चिंतन करेंगे, तब तक संप्रदाय भी
रहेंगे। वैषम्य ही जीवन का चिन्ह है और वह अवश्य ही रहेगा। मैं प्रार्थना
करता हूँ कि उनकी संख्या-वृद्धि होते होते संसार में जितने मनुष्य हैं, उतने
ही संप्रदाय हो जाएं, जिसे धर्मराज्य में प्रत्येक मनुष्य अपने पथ से अपनी
व्यक्तिगत चिंतन-प्रणाली के अनुसार चल सके।
किंतु यह बात पूर्व से ही विद्यमान है। हममें से प्रत्येक अपने ढंग से चिंतन
कर रहा है, परंतु इस स्वाभाविक गति को बराबर रोका गया है और अब भी रोका जा
रहा है। प्रत्यक्ष रूप से तलवार न ग्रहण करके अन्य उपायों से काम लिया जाता
है। न्यूयार्क के एक श्रेष्ठ प्रचारक क्या कहते हैं, सुनो-वे प्रचार कर रहे
हैं कि 'फिलिपाइनवासियों को युद्ध से जीतना होगा, कारण, उनको ईसाई धर्म की
शिक्षा देने का यही एकमात्र उपाय।' वे पहले से ही कैथोलिक थे, परंतु अब वे
उनको प्रेसबिटेरियन बनाना चाहते हैं और इसके लिए वे इस रक्तपातजनित घोर
पापराशि को अपनी जाति के कंधों पर रखने के लिए उद्यत हुए हैं। कैसी भयानक बात
है! उस पर भी ये, देश के एक सर्वापेक्षा श्रेष्ठ प्रचारक और श्रेष्ठ विज्ञ
व्यक्ति हैं! जब इस तरह का एक मनुष्य सबके सामने खड़ा होकर ऐसे कदर्य प्रलाप
करने में लज्जा अनुभव नहीं करता, तब संसार की बात एक बार सोचो, विशेषकर जब
सुनने वाले उसको करतलध्वनि से उत्साहित करते हैं। क्या यही सभ्यता है? यह
मनुष्यभोजी व्याघ्र और असभ्य जंगली जाति की चिर अभ्यस्त रक्त-पिपासा के
सिवा और कुछ नहीं है, केवल नए नाम और नए परिवेश के भीतर से प्रकाशित हो रहा
है। सिवा इसके और क्या हो सकता है? यदि वर्तमान काल का हाल यह हो, तो उस
रक्तमेध की कल्पना करो, जिससे प्राचीन युग में यह संसार पार हुआ है, जब
प्रत्येक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय को टुकड़े टुकड़े काटकर फेंक देने की
चेष्टा करता था। इतिहास इसका साक्षी है। हमारे भीतर का बाघ अभी केवल सोया भर
है-मरा नहीं है। सुयोग उपस्थित होते ही वह जागकर पहले की तरह दाँतों और पंजों
का प्रयोग करने लगता है। तलवार तथा अन्य भौतिक शस्त्रों की अपेक्षा कही
भीषणतर अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। वे हैं-अवज्ञा, सामाजिक घृणा और समाज से
बहिष्करण; जो ठीक हमारी तरह विचार नहीं करते, उन्हीं पर इन सब भीषण अस्त्रों
की वर्षा होती है। अब किसलिए वे सब हमारी ही तरह विचार करेंगे? मैं तो इसका
कोई कारण नहीं देखता। यदि मैं विचारशील हूँ-तो मुझे इसमें आनंदित होना उचित है
कि सब मेरी तरह नहीं सोचते। मैं श्मशान सदृश देश में नहीं रहना चाहता; मैं
मानव जगत् में रहना चाहता हूँ-मनुष्यों में रहकर मनुष्य होना चाहता हूँ।
विचारशील व्यक्तियों में ही मतभेद रहेगा; कारण, भिन्नता ही विचार का प्रथम
लक्षण है। यदि मैं विचारशील हूँ, तो मुझे विचारशील लोगों के साथ ही रहने की
इच्छा होना चाहिये चाहिए-जहाँ मत की भिन्नता वर्तमान रहे।
उसके बाद प्रश्न यह उठ सकता है कि यह विविधता किस प्रकार सत्य हो सकती है?
एक चीज सत्य होने पर उसका विपरीत झूठ होगा। एक ही समय दो विरोधी मत किस
प्रकार सत्य हो सकते हैं? मैं इसी प्रश्न का उत्तर देना चाहता हूँ। उसके
पहले मैं एक बात तुमसे पूछता हूँ कि पृथ्वी के धर्म क्या सचमुच परस्पर
विरोधी हैं? मेरा आशय उन बाह्रयाचारों से नहीं है, जिनमें महान विचार आवेष्टित
हैं। मेरा आशय विविध धर्मों में व्यवह्रत मंदिर, भाषा, क्रियाकांड, शास्त्र
प्रभृति की विविधता से नहीं है, मैं प्रत्येक धर्म के भीतर की आत्मा की बात
कहता हूँ। प्रत्येक धर्म के पीछे एक आत्मा है और एक धर्म की आत्मा अन्य
धर्म की आत्मा से पृथक् हो सकती है; परंतु इसलिए क्या वे परस्पर विरोधी
हैं? वे परस्पर विरोधी हैं या एक दूसरे के पूरक हैं? यही प्रश्न है। मैं जब
नितांत बालक था, तभी से इस प्रश्न पर मैंने विचार आरंभ किया है और सारे जीवन
इस पर सोचता रहा हूँ। शायद मेरे निष्कर्षों से तुम्हारा कोई उपकार हो, इसी
विचार से मैं उसे तुम्हारे निकट व्यक्त करता हूँ। मेरा विश्वास है कि वे
परस्पर विरोधी नहीं हैं; वरन् परस्पर पूरक हैं। प्रत्येक धर्म मानो महान
सार्वभौमिक सत्य के एक-एक अंश को मूर्तिमंत करके प्रस्फुर्टित करने के लिए
अपनी समस्त शक्ति लगा देता है। इसलिए यह योगदान का विषय है-वर्जन का नहीं,
यही समझना होगा। एक एक महान भाव को लेकर संप्रदाय पर संप्रदाय गठित होते रहते
हैं; आदर्श में आदर्श मिलते जाते हैं। इसी प्रकार मानवजाति उन्नति की ओर
अग्रसर होती रहती है। मनुष्य कभी भ्रम से सत्य से उच्चतर सत्य पर आरूढ़
होता हैं-परंतु भ्रम से सत्य में नहीं। पुत्र शायद पिता की अपेक्षा अधिक
गुणवान हो, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि पिता कुछ भी नहीं है। पुत्र के
मध्य पिता तो है ही, किंतु और भी कुछ है। तुम्हारा वर्तमान ज्ञान यदि
तुम्हारी बाल्यावस्था के ज्ञान से अधिक हो, तो तुम अभी अपनी बाल्यावस्था
को घृणा की दृष्टि से देखोगे? तुम क्या अपनी अतीतावस्था की बात को, वह कुछ
नहीं है, कहकर उड़ा दोगे? क्या तुम समझते नहीं हो कि तुम्हारी वर्तमान
अवस्था उस बाल्यकाल के ज्ञान के साथ कुछ और का भी योग है।
फिर हम यह जानते हैं कि एक ही वस्तु को विरोधी दृष्टिकोणों से देखा जा सकता
है, किंतु वस्तु वही रहती है। मान लो, एक व्यक्ति सूर्य की ओर जा रहा है और
वह जैसे-जैसे अग्रसर होता जाता है, उतने ही विभिन्न स्थानों से सूर्य का
फोटोग्राफ लेता जाता है। जब वह व्यक्ति लौट आएगा, तब उसके पास सूर्य के बहुत
से फोटोग्राफ होंगे। यदि वह उनको हमारे सामने रखे, तो हम देखेंगे कि उनमें से
कोई भी दो फोटो एक तरह के नहीं हैं, परंतु यह बात कौन अस्वीकार कर सकेगा कि
ये सब फोटो एक ही सूर्य के हैं-केवल भिन्न-भिन्न स्थानों से लिए गए हैं?
चारों कोनों से इसी गिरजे के चार चित्र लेकर देखो, वे कितने पृथक् मालूम
होंगे, तथापि वे इसी एक गिरजे की कितने प्रतिकृति हैं। इसी प्रकार हम एक ही
सत्य को अपने जन्म, शिक्षा और परिवेश के अनुसार भिन्न -भिन्न रूपों में
देख रहे हैं। हम सत्य को ही देख रहे हैं, परंतु इन सारी अवस्थाओं के भीतर से
उस सत्य का जितना दर्शन पाना संभव है, उतना ही हम पा रहे हैं-उसको अपने ह्रदय
द्वारा रंजित कर रहे हैं, अपनी बुद्धि द्वारा समझ रहे हैं और अपने मन द्वारा
धारण कर रहे हैं। हमारे साथ सत्य का जितना संबंध है, हम उसका जितना अंश ग्रहण
करने में समर्थ हैं-केवल उतना ही ग्रहण कर रहे हैं। इसीलिए मनुष्य मनुष्य
में भेद है, यहाँ तक कि कभी पूर्ण विरुद्ध विचारों की भी सृष्टि होती है;
तथापि हम सभी उसी महान सर्वव्यापी सत्य के अंतर्गत हैं।
अतएव मेरी धारणा यह है कि समस्त धर्म ईश्वर के विधान की विभिन्न शक्तियाँ
हैं और वे मनुष्यों का कल्याण कर रहे हैं-उनमें से एक भी नहीं मरता, एक को
भी विनष्ट नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार किसी प्राकृतिक शक्ति को नष्ट नहीं
किया जा सकता, उसी प्रकार इन आध्यात्मिक शक्तियों में से किसी एक का भी विनाश
नहीं किया जा सकता। तुमने देखा कि प्रत्येक धर्म जीवित है। समय के प्रभाव से
वे उन्नति या अवनति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। किसी समय या तो इनके ठाटबाट का
ह्रास हो सकता है, या कभी इनके ठाटबाट का दौर दौरा हो सकता है; परंतु उनकी
आत्मा या प्राणवस्तु उनके पीछे मौजूद है, वह कभी विनष्ट नहीं हो सकती।
प्रत्येक धर्म का जो चरम आदर्श है, वह कभी विनष्ट नहीं होता, इसलिए प्रत्येक
धर्म ही ज्ञात भाव से अग्रसर होता जा रहा है।
और वह सार्वभौमिक धर्म, जिसके संबंध में सभी देशों के दार्शनिकों ने और अन्य
व्यक्तियों ने कितने ही प्रकार की कल्पनाएँ की हैं, वह पूर्व से ही विद्यमान
है। वह यहीं है। जिस प्रकार, सार्वजनीन भ्रातृभाव पहले से ही है, उसी प्रकार
सार्वभौमिक धर्म भी है। तुम लोगों में से जिन्होंने विविध देशों में पर्यटन
किया है, किसने प्रत्येक जाति में भाई और बहन को नहीं देखा? मैंने पृथ्वी
में सर्वत्र ही उनको देखा है। भ्रातृभाव पूर्व से ही विद्यमान है। केवल कुछ
ऐसे लोग है, जो इसको न देखकर भ्रातृभाव के नए-नए संप्रदायों के लिए
चिल्ला-चिल्लाकर उसको विश्रृंखल कर देते हैं। सार्वभौमिक धर्म भी वर्तमान
है। पुरोहित और दूसरे लोग, जिन्होंने विभिन्न धर्म-प्रचार का भार
इच्छापूर्वक अपने कंधों पर लिया है, यदि वे कृपापूर्वक कुछ देर के लिए
प्रचार-कार्य बंद कर दें, तब हमको ज्ञात हो जाएगा कि सार्वभौमिक धर्म पहले से
ही वर्तमान है। वे बराबर ही उसके प्रकाश में बाधा डालते आ रहे हैं-कारण, उसमें
उनका स्वार्थ है। तुम देख रहे हो कि सब देश के पुरोहित ही कट्टरपंथी हैं।
इसका कारण क्या है? बहुत कम पुरोहित ऐसे हैं, जो नेता बनकर जनसाधारण को मार्ग
दिखाते हैं; उनमें से अधिकांश जनसाधारण के इशारों पर ही नाचते हैं और वे जनता
के नौकर या ग़ुलाम होते है। यदि कोई कहे कि यह शुष्क है, तो वे भी बोलेंगे,
"यह काला है", तो वे भी कहेंगे, "हाँ काला है।" यदि जनसाधारण उन्नत हों, तो
पुरोहित भी उन्नत होने का बाध्य हैं। वे पिछड़ नहीं सकते। इसलिए पुरोहितों
को गाली देने के पहले-पुरोहितों को गाली देना भी आजकल प्रथा हो गई है-हमें
अपने को ही गाली देना उचित है। तुम अपने योग्य ही व्यवहार पा रहे हो। यदि
कोई पुरोहित नए-नए भावों से तुमको उन्नति के पथ पर अग्रसर करना चाहे, तो उसकी
दशा क्या होगी? उसके बाल-बच्चों को शायद भूखों मरना होगा और उनको फटे
वस्त्र पहनकर रहना होगा। तुम जिन सांसारिक नियमों को मानकर चलते हो, वे भी
उन्हें ही मानकर चलते हैं। वे कहते हैं-यदि तुम अग्रसर हो, तो हम भी होंगे।
अवश्य ऐसे भी दो-चार उन्नत और असाधारण लोग हैं, जो लोकमत की परवाह नहीं
करते। वे सत्य की ओर दृष्टि रखते हुए एकमात्र सत्य को ही अपना लेते हैं।
सत्य उनके पास है-मानो उसने उन पर अधिकार कर लिया है और उनके अग्रसर हुए बिना
दूसरा उपाय नहीं है। वे कभी पीछे नहीं देखते, फल यह होता है कि उनको लोग नहीं
मिलते। भगवान ही केवल उनका सहायक है, वही उनकी पथप्रदर्शन ज्योति है-और वे इस
ज्योति का ही अनुसरण करते जा रहे हैं।
इस देश (अमेरिका) में एक मरमन (Mormon) से मेरी मुलाक़ात हुर्इ थी, उन्होंने
मुझे अपने मत में ले जाने के लिए अनेक चेष्टाएँ की थीं। मैंने कहा था, "आपके
मत के ऊपर मेरी बड़ी श्रद्धा है, किंतु कई विषयों में हम लोग सहमत नहीं हैं।
मैं तो संन्यासी हूँ और आप बहुविवाह के पक्षपाती हैं; भला यह तो बताइए, आप
अपने मत के प्रचार के लिए भारत में क्यों नहीं जाते?" इन बातों से विस्मित
होकर उन्होंने कहा, "यह क्या बात है, आप तो बहुविवाह के पक्षपाती हैं नहीं
और मैं हूँ। फिर भी आप मुझे अपने देश में जाने के लिए कहते हैं?" मैंने उत्तर
दिया, "हाँ, मेरे देशवासी हर प्रकार के धर्म को सुनते हैं, चाहे वह किसी देश
से क्यों न आए, मेरी इच्छा है कि आप भारत में जाइए; कारण, पहले तो हम लोग
अनेक संप्रदायों की उपकारिता में विश्वास करते हैं। दूसरे, कितने ही लोग ऐसे
हैं, जो वर्तमान संप्रदायों से संतुष्ट नहीं हैं, इसीलिए वे धर्म की किसी धारा
के अनुयायी नहीं हैं, संभव है, उनमें से कितने ही आपके धर्म को ग्रहण कर लें।"
संप्रदायों की संख्या जितनी अधिक होगी, लोगों को धर्म लाभ करने की उतनी ही
अधिक संभावना होगी। जिस होटल में हर प्रकार का खाद्य पदार्थ मिलता है, वहीं सब
लोगों की क्षुधा-तृप्ति की संभावना होती है। इसलिए मेरी इच्छा है कि सब देशों
में संप्रदायों की संख्या बढ़े, ऐसा होने से लोगों को धार्मिक जीवन लाभ करने
की सुविधा होगी। तुम यह न सोचो कि लोग धर्म नहीं चाहते, मैं इस पर विश्वास
नहीं करता वे लोग जो कुछ चाहते हैं, धर्मप्रचारक ठीक वह चीज़ उन्हें नहीं दे
सकते। जो लोग जड़वादी, नास्तिक या अधार्मिक सिद्ध हो गए हैं, उन्हें भी यदि
कोई ऐसा मनुष्य मिले, जो ठीक उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें आदर्श दिखला सके,
तो वे लोग भी समाज में सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक अनुभूति संपन्न व्यक्ति हो
सकेंगे। हम लोगों को बराबर जिस प्रकार खाने का अभ्यास है, हम उसी प्रकार खा
सकेंगे। देखो, हम लोग हिंदू हैं, हम लोग हाथ से खाते हैं। तुम लोगों की
अपेक्षा हम लोगों की अँगुलियाँ अधिक चलती हैं; तुम लोग ठीक इस तरह से
इच्छानुसार अँगुली को हिला नहीं सकते। केवल भोजन परसना ही पर्याप्त नहीं
होगा, पर तुम लोगों को उसे अपने विशेष ढंग से ही ग्रहण करना पड़ेगा। इसी
प्रकार केवल थोड़े से आध्यात्मिक भावों को देने ही से काम नहीं चल सकता।
उन्हें इस प्रकार देना होगा, जिससे तुम उन्हें ग्रहण कर सको। वे ही यदि
तुम्हारी मातृभाषा-प्राणों से भी प्रिय भाषा-में व्यक्त किए जाएं, तो तुम
उनसे प्रसन्न होगे। हमारी मातृभाषा में बात करने वाले यदि कोई सज्जन आकर,
हमें तत्त्वोंपदेश दें, तो उसे हम फ़ौरन समझ लेंगे और बहुत दिनों तक याद रख
सकेंगे-यह बात बिल्कुल ठीक है।
इससे स्पष्ट है कि मानव मन के विभिन्न स्तर और प्रकार होते हैं-और धर्मों
के ऊपर भी एक बड़ा भारी दायित्व है। कोई भी दो-तीन मतों को लाकर कह सकता है कि
उसी का धर्म सब लोगों के लिए उपयोगी है। वह एक छोटा सा पिंजड़ा हाथ में लिए
हुए, भगवान के इस जगद्रूपी चिडि़याखाने में आकर कहता है-"ईश्वर, हाथी और सबको
इस पिंजड़े के भीतर प्रवेश कराना होगा। प्रयोजन होने पर हाथी के टुकड़े टुकड़े
काटकर इसके भीतर घुसाना होगा।" और शायद ऐसे भी संप्रदाय हैं, जिनमें कुछ
अच्छे अच्छे भाव वर्तमान हैं। वे कहते हैं, "सब हमारे संप्रदाय में सम्मिलित
हों।" परंतु वहाँ सबके लिए तो स्थान ही नहीं है।" "कुछ परवाह नहीं, उनको
काट-छाँटकर जैसे हो, घुसा लो।" "और यदि वे नहीं आयेंगे?" "तो वे अवश्य ही
नरकगामी होंगे।" मैंने ऐसा कोई प्रचारक या संप्रदाय नहीं देखा, जो ज़रा स्थिर
होकर विचार करे कि 'लोग जो हमारी बात नहीं सुनते, इसका कारण क्या?' यह न
सोचकर वे केवल लोगों को शाप देते हैं-और कहते हैं, "लोग बड़े पाजी हैं।" वे एक
बार भी यह नहीं विचारते कि 'लोग क्यों हमारी बात पर कान नहीं देते? क्यों
मैं उन्हें धर्म के सत्य को बताने में समर्थ नहीं होता? क्यों मैं उनकी
मातृभाषा में बातचीत नहीं करता? क्यों मैं उनके ज्ञान-चक्षु उन्मीलित करने
में समर्थ नहीं होता?' असल में उन्हीं की बात पर कान नहीं देते, तब यदि किसी
को गाली देने की भी आवश्यकता हो, तो उन्हें अपने को ही पहले गाली देनी
चाहिए। किंतु दोष सदैव लोगों का ही है! वे कभी अपने संप्रदाय को बड़ा कर सब
लोगों के लिए उपयोगी बनाने की चेष्टा नहीं कर सकते।
इसलिए इतनी संकीर्णता क्यों है, इसका कारण स्पष्ट ही दिखायी पड़ रहा है-अंश
अपने को पूर्ण कहने का सर्वदा दावा करता है। क्षुद्र, ससीम वस्तु असीम होने
का दावा करती है। छोटे छोटे संप्रदायों पर एक बार विचार करो-केवल कुछ
शताब्दियों से ही भ्रांत मानव-मस्तिष्क से उनका जन्म हुआ है, फिर भी उनका
उद्दंड दावा यह है कि वे ईश्वर के सारे अनंत सत्य को जान गए हैं। इस
उद्दंडता की कल्पना तो करो! इससे यदि कुछ प्रकट होता है, तो केवल यह कि
मनुष्य कितना अहम्मन्य हो सकता है। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है कि ऐसे
दावे सर्वदा ही व्यर्थ हुए हैं और प्रभु की कृपा से वे सर्वदा ही व्यर्थ
होंगे। विशेषकर मुसलमान लोग इस विषय में सबसे ऊपर चढ़ गए थे। उन्होंने एक एक
पद अग्रसर होने के लिए तलवार की सहायता ली थी-एक हाथ में क़ुरान और दूसरे हाथ
में तलवार; 'या तो मुसलमान धर्म ग्रहण करो, नहीं तो मौत को अपनाओ-दूसरा उपाय
नहीं है।' इतिहास के सभी पाठक जानते हैं कि उनकी क्या भयानक सफलता हुई थी-छ;
सौ वर्ष तक कोई उनका गतिरोध नहीं कर सका। परंतु फिर ऐसा समय आया कि जब उनको
रुकना पड़ा। दूसरा कोई धर्म भी यदि ऐसा ही करेगा, तो उसकी भी यही दशा होगी! हम
कितने शिशु हैं! हम मानव प्रकृति की बात सर्वदा भूल जाते हैं। अपने
जीवन-प्रभात में हम सोचते हैं कि हमारा भविष्य असाधारण हो और अपने इस
विश्वास को हम किसी तरह दूर नहीं कर पाते, परंतु जीवन-संध्या में हमारे
विचार दूसरे हो जाते हैं। धर्म के संबंध में भी ठीक यही बात है। प्रारंभ में
जब वे ज़रा फैलते हैं, तब वे सोचते हैं कि कुछ वर्ष के अंदर ही वे समस्त मानव
मन को बदल देंगे। बलपूर्वक अपने धर्म को दूसरों को ग्रहण कराने के लिए वे
हज़ारों लोगों की हत्या करते रहते हैं। बाद को जब वे अकृतकार्य होते हैं, तब
उनकी आँखें खुलने लगती हैं। देखा जाता है कि ये जिस उद्देश्य से कार्यक्षेत्र
में अवतीर्ण हुए थे, वह व्यर्थ हुआ है और यही संसार के लिए अशेष कल्याणजनक
है। ज़रा सोचो कि इन धर्मांध संप्रदायों में से यदि कोई भी सारे संसार में फैल
गया होता तो मनुष्यों की आज क्या दशा होती! प्रभु को धन्यवाद है कि वे सफल
नहीं हुए। तथापि प्रत्येक संप्रदाय एक एक महान सत्य को दिखा रहा है,
प्रत्येक धर्म किसी एक विशेष सार वस्तु को-जो उसका प्राण या आत्मास्वरूप
है-पकड़े हुए है। मुझे एक पुरानी कथा याद आ रही है-कुछ राक्षस थे, वे
मनुष्यों का वध करते थे और सभी प्रकार का अनिष्ट करते थे; परंतु उनको कोई भी
मार नहीं सकता था। अंत में एक आदमी को पता लगा कि उनके प्राण कुछ पक्षियों के
अंदर हैं और जब तक वे पक्षी निरापद रहेंगे, तब तक उन्हें कोई भी नहीं मार
सकेगा। हम सब लोगों का भी ठीक ऐसा ही एक-एक प्राण-पक्षी है। उसी में हमारी
प्राणवस्तु है। हम सबका भी एक एक आदर्श-एक एक उद्देश्य है, जिसे कार्य में
परिणत करना होगा। प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार एक आदर्श-एक उद्देश्य की
प्रतिमूर्तिस्वरूप है। और चाहे कुछ भी नष्ट क्यों न हो जाए, जब तक वह दर्श
ठीक है, जब तक वह उद्देश्य अटूट है, तब तक किसी तरह भी तुम्हारा विनाश नहीं
हो सकता। संपदा आ सकती है या जा सकती है, विपद् पहाड़ जैसी बड़ी हो सकती है;
परंतु तुम बृद्ध हो सकते हो, यहाँ तक कि शतायु हो सकते हो, परंतु यदि वह
उद्देश्य तुम्हारे मन में उज्जवल और सतेज रहे, तो कौन तुम्हें विनष्ट
करने में समर्थ हो सकता है? किंतु जब वह आदर्श खो जाएगा, वह उद्देश्य विकृत
हो जाएगा, तब फिर तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकती। पृथ्वी की समस्त संपदा और
सारी शक्ति मिलकर भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकती। और राष्ट्र क्या
है-व्यष्टि की समष्टि के सिवा और कुछ नहीं? इसीलिए प्रत्येक राष्ट्र का एक
अपना जीवन-व्रत है-जो विभिन्न जाति समूह की सुश्रृंखला अवस्थिति के लिए विशेष
आवश्यक है, और जब तक वह राष्ट्र उस आदर्श को पकड़े रहेगा, तब तक किसी तरह भी
उसका विनाश नहीं हो सकता। किंतु यदि वह राष्ट्र उक्त जीवन-व्रत का परित्याग
कर किसी दूसरे लक्ष्य की ओर दौड़े, तो उसका जीवन निश्चय ही समाप्त हुआ
समझना चाहिए और वह थोड़े ही दिनों में अंतर्हित हो जाएगा।
धर्म के संबंध में भी ठीक यही बात है। सब पुराने धर्मों के आज भी जीवित रहने
से प्रमाणित होता है कि उन्होंने निश्चय ही उस उद्देश्य को अटूट रखा है।
उनके भ्रांत होने पर भी, उनमें विघ्न-बाधा होने पर भी, उनमें विवाद-विसंवाद
होने पर भी, उनके ऊपर तरह-तरह के अनुष्ठान और निर्दिष्ट प्रणाली की
आवर्जना-स्तूप के संचित होने पर भी, उनमें से प्रत्येक का ह्रदय स्वस्थ
है-वह जीवंत ह्रदय की तरह स्पंदित हो रहा है-धड़क रहा है। जो महान उद्देश्य
लेकर वे आए हैं, उनमें से एक को भी वे नहीं भूलें। उस उद्देश्य का अध्ययन
करना महत्वपूर्ण है। दृष्टांतस्वरूप मुसलमान धर्म की बात लो। ईसाई
धर्मावलंबी मुसलमान धर्म से जितनी अधिक घृणा करते हैं, उतनी और किसी से नहीं।
वे सोचते हैं, कि वह धर्म का सबसे निकृष्ट रूप है। किंतु देखो, जैसे ही एक
आदमी ने मुसलमान धर्म ग्रहण किया, सारे मुसलमानों ने उसकी पिछली बात को छोड़,
उसे भाई कहकर छोती से लगा लिया। ऐसा कोई भी धर्म नहीं करता। यदि एक अमेरिकन
आदिवासी मुसलमान हो जाए, तो तुर्की के सुलतान भी उसके साथ भोजन करने में
आपत्ति न करेंगे और यदि यह शिक्षित और बुद्धिमान हो, तो राज-काज में भी कोई पद
प्राइज़ कर सकता है। परंतु इस देश में मैंने एक भी ऐसा गिरज़ा नहीं देखा, जहाँ
गोरे और काले पास पास घुट़ने टेककर प्रार्थना कर सकें। इस बात को विचार कर
देखो कि इस्लाम धर्म अपने सब अनुयायियों को समभाव से देखता है। इसी से तुम
देखते हो कि मुसलमान धर्म की यह विशेषता और श्रेष्ठत्व है। क़ुरान में बहुत
जगह जीवन के विषय-भोग की बातें देखी जाती हैं। उसकी चिंता न करो। मुसलमान धर्म
संसार में जिस बात का प्रचार करने आया है, वह है मुसलमान धर्मावलंबी मात्र का
एक दूसरे के प्रति भ्रातृभाव। मुसलमान धर्म का यही सार-तत्व है। जीवन तथा
स्वर्ग आदि संबंधी अन्य धारणाएँ इस्लाम धर्म नहीं हैं। वे दूसरे धर्मों से
ली गई हैं।
हिंदू धर्म में एक राष्ट्रीय भाव देखने को मिलेगा-वह है आध्यात्मिकता। और
किसी धर्म में-संसार के किन्हीं अन्य धर्मग्रंथों में ईश्वर की परिभाषा
करने में इतनी अधिक शक्ति लगायी गई हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता। उन्होंने
आत्मा का आदर्श निर्दिष्ट करने की चेष्टा इस प्रकार की है कि कोई पार्थिव
संस्पर्श इसको कलुषित नहीं कर सकता। आत्मा दिव्य है, और इस अर्थ से उसमें
कभी मानवीय भाव आरोपित नहीं किया जा सकता। उसी एकत्व की धारणा-सर्वव्यापी
ईश्वर की उपलब्धि का सर्वर उपदेश मिलता है। ईश्वर स्वर्ग में वास करता
है-आदि उक्तियाँ हिंदुओं के निकट प्रलापोक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं-वह
मनुष्य द्वारा ईश्वर पर मनुष्योचित गुणावली का आरोप मात्र है। यदि स्वर्ग
कोई वस्तु है, तो वह अभी और यहीं मौजूद है। अनंत काल का एक क्षण जैसा है,
वैसा ही कोई अन्य मुहूर्त भी है। जो ईश्वर-विश्वासी है, वह अभी भी उनका
दर्शन पा सकता है। हमारे मत से, कुछ उपलब्धि होने पर ही धर्म का आरंभ होता है।
कुछ सिद्धांतों में विश्वास करना या उनको बौद्धिक स्वीकृति देना अथवा उनकी
घोषणा करना-इनमें से कोई भी धर्म नहीं है। तुम कह रहे हो, "ईश्वर है"-"क्या
तुमने उसे देखा है?" यदि कहो, "नहीं", तब तुमको उस पर विश्वास करने का क्या
है? और यदि तुमको ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कोई संदेह हो, तो उन्हें
देखने के लिए प्राणपण से कोशिश क्यों नहीं करते? तुम संसार त्यागकर इस
उद्देश्य-सिद्धि के लिए सारा जीवन क्यों नहीं लगा देते? त्याग और
आध्यात्मिकता-ये दोनों ही भारत के महान आदर्श हैं-और इनको पकड़े रहने के कारण
ही उसकी सारी भूलों से भी कुछ विशेष आता-जाता नहीं।
ईसाईयों का प्रचारित मूल भाव भी यही है-'सतर्क रहो, प्रार्थना करो-कारण, भगवान
का राज्य अति निकट है।' अर्थात चित्तशुद्धि करके प्रस्तुत हो। और यह भाव
कभी भी नष्ट नहीं हुआ। तुम लोगों को शायद स्मरण हो कि ईसाई लोग
अज्ञानावस्था से ही, अति अंधविश्वासग्रस्त ईसाई देशों में भी औरों की सहायता
करने, चिकित्सालय आदि सत् कार्यों द्वारा अपने को पवित्र कर ईश्वर के आगमन
की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जितने दिन तक वे इस लक्ष्य पर स्थिर रहेंगे, अतने
दिन तक उनका धर्म जीवित रहेगा।
हाल ही में मेरे मन में एक आदर्श उठा है। शायद यह केवल स्वप्न हो। मालूम
नहीं, कभी संसार में यह कार्य में यह कार्य में परिणत होगा या नहीं। कठोर
तथ्यों में रहकर मरने की अपेक्षा कभी-कभी स्वप्न देखना भी अच्छा है। महान
सत्य, ये यदि स्वप्न हों, तो भी अच्छे हैं-निकृष्ट तथ्यों की अपेक्षा वे
श्रेष्ठ हैं। अतएव आओ, एक स्वप्न देखे।
तुम जानते हो, मन के कई स्तर हैं। तुम इतितथ्यात्मक, सहजबुद्धि में
विश्वास करने वाले एक युक्तिवादी मनुष्य हो, तुम आचार, अनुष्ठानों की परवाह
नहीं करते, तुम बौद्धिक, कठोर, खनखनाते तथ्य चाहते हो, और केवल वे ही तुमको
संतुष्ट कर पाते हैं। अब प्यूरिटन और मुसलमान लोग हैं- ये अपने उपासनास्थल
में चित्र या मूर्ति नहीं रखने देंगे। अच्छी बात है! और एक तरह के लोग हैं,
वे ज़रा ज़्यादा शिल्पप्रिय हैं- ईश्वरोपासना करने में भी उन्हें
शिल्पकला की आवश्यकता होती है, वे उसके भीतर तरह-तरह की सरल रेखाएँ, वर्ण और
रूप इत्यादि के सौंदर्य का प्रवेश कराना चाहते हैं- उनको पुष्प, धूप, दीप
इत्यादि पूजा के सर्व प्रकार के बाह्य उपकरणों की आवश्यकता होती है। तुम
ईश्वर को जिस प्रकार युक्तिविचार के द्वारा समझने में समर्थ होते हो, वे भी
उसी प्रकार उसको इन सब उपादानों के भीतर समझने में समर्थ होते हैं। एक तरह के
लोग और हैं, भक्त- उनके प्राण ईश्वर के लिए व्याकुल हैं। भगवान की पूजा और
प्रार्थना-स्तुति को छोड़ उनमें और कोई भाव नहीं है। उसके बाद हैं ज्ञानी- वे
इन सबके बाहर रहकर उनका उपहास करते हैं और मन में सोचते हैं कि 'ये कैसे मूर्ख
हैं- ईश्वर के विषय में क्या क्षुद्र धारणाएँ हैं!
वे एक दूसरे का उपहास कर सकते हैं, परंतु इस संसार में सबके लिए एक स्थान है।
इन सब विभिन्न मन के लिए विभिन्न साधनाओं की आवश्यकता है। आदर्श धर्म कहकर
यदि कोई बात हो, तो उसे उदार और विस्तृत होना उचित है, जिससे वह इन विभिन्न
मन के उपयोगी खाद्य जुटा सके। उसे ज्ञाना को दार्शनिक विचारों की दृढ़ भित्ति,
उपासक को भक्त-ह्रदय, अनुष्ठानिक को उच्चतम प्रतीकोपासनालभ्य भाव और कवि
को जितना हो सके, ह्रदय का उच्छ्वास और अन्य प्रकृतिसंपन्न व्यक्तियों को
अन्यान्य भाव जुटाने के लिए उपयोगी होना पड़ेगा। इस प्रकार उदार धर्म की
सृष्टि करने के लिए, हम लोगों को धर्म के अभ्युदय-काल में लौट जाना होगा, और
उन सबको सत्य कहकर ग्रहण करना होगा।
अवएव ग्रहण (acceptance) ही हमारा मूलमंत्र होना चाहिए- वर्जन नहीं। केवल
परधर्म-सहिष्णुता (toleration) नहीं, क्योंकि तथाकथित सहिष्णुता प्राय:
ईश-निंदा होती है, इसलिए मैं उस पर विश्वास नहीं करता। मैं ग्रहण में विश्वास
करता हूँ। मैं क्यों परधर्म सहिष्णु होने लगा। परधर्म-सहिष्णु कहने से मैं
यह समझता हूँ कि कोई धर्म अन्याय कर रहा है और मैं कृपापूर्वक उसे जीने की
आज्ञा दे रहा हूँ। तुम जैसा या मुझ जैसा कोई आदमी किसी को कृपापूर्वक जीवित रख
सकता है, यह समझना क्या भगवान के प्रति निंदा नहीं है? अतीत के
धर्मसंप्रदायों को सत्य कहकर ग्रहण करके मैं उन सबके साथ ही आराधना करूँगा।
प्रत्येक संप्रदाय जिस भाव से ईश्वर की आराधना करता है, मैं उनमें से
प्रत्येक के साथ ही ठीक उसी भाव से आराधना करूँगा। मैं मुसलमानों के साथ
मस्जिद में जाऊँगा, ईसाईयों के साथ गिरजे में जाकर क्रूसित ईसा के सामने घुटने
टेकूँगा, बौद्धों के मंदिर में प्रवेश कर बुद्ध और संघ की शरण लूँगा और अरण्य
में जाकर हिंदुओं के पास बैठ ध्यान में निमग्न हो, उनकी भाँति सबके ह्रदय को
उद्भासित करने वाली ज्योति के दर्शन करने में सचेष्ट होऊँगा।
केवल इतना ही नहीं, जो पीछे आयेंगे, उनके लिए भी मैं अपना ह्रदय उन्मुक्त
रखूँगा। क्या ईश्वर की पुस्तक समाप्त हो गई?- अथवा अभी भी वह क्रमश:
प्रकाशित हो रही है? संसार की यह आध्यात्मिक अनुभूति एक अद्भुत पुस्तक है।
बाइबिल, वेद, कुरान तथा अन्यान्य धर्मग्रंथ समूह मानो उसी पुस्तक के एक एक
पृष्ठ हैं और उसके असंख्य पृष्ठ अभी भी अप्रकाशित हैं। मेरा ह्रदय उन सबके
लिए उन्मुक्त रहेगा। हम वर्तमान में तो हैं ही, किंतु अनंत भविष्य की
भावराशि ग्रहण करने के लिए भी हमको प्रस्तुत रहना पड़ेगा। अतीत में जो कुछ भी
हुआ है, वह सब हम ग्रहण करेंगे, वर्तमान ज्ञान-ज्योति का उपभोग करेंगे और
भविष्य में जो उपस्थित होंगे, उन्हें ग्रहण करने के लिए, ह्रदय के सब
दरवाज़ों को उन्मुक्त रखेंगे। अतीत के ऋृषिकुल को प्रणाम, वर्तमान के
महापुरुषों को प्रणाम और जो जो भविष्य में आयेंगे, उन सबको प्रणाम!